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कतान्नवर्गः ।
रक्तपित्ततृषादाहप्रतिश्यायान् विनाशयेत् ।
टीका - पहिले भैसकी जलरहित चारसेर दहीकों सफेद दोसेर शर्कराके सहित सुफेद कपडेपर थोडा थोडा डालै अर्ध घट दुग्धसें नई मिट्टीकी स्थालीमें छrait इलायची लोंग चन्दन मरिच और उचित उसमें डाले ॥ १३८ ॥ अच्छे भोजनकरनेवाले भीमसेननें रसालानाम स्वयं बनाई है पहिले श्रीकृष्णनें वारंवार इसकों प्रीतिसें आस्वादन किया है इसकों जो वसन्तसें रहित दिनों में नित्य सेवन करते हैं उसके अतिवीर्यवृद्धि और सब इन्द्रियोंका बल होता है ॥ १३९ ॥ ग्रीष्म में तथा शरदमें जो सूर्यसें शोषित अंगवाले हैं और जो प्रमत्तस्त्रीके मैथुनसें अतिखिन्न तथा जो मार्ग चलनेसें शीर्णगात्र है उनके शरीरमें यह पोषण शीघ्र करता है १४० रसाला शुक्रकों करनेवाली बलके हित रोचन वातपित्तकों हरनेवाली है और दी - पन पुष्ट चिकनी मधुर शीतल सरहै ॥ १४१ ॥ रक्त पित्त तृषा दाह. प्रतिश्याय इनकों हरती है ॥
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अथ सरबत
जलेन शीतलेनैव घोलिता शुभ्रशर्करा ॥ १४२ ॥ एलालवङ्गकर्पूरमरिचैश्च समन्विता । शर्करोदकनाम्ना तत्प्रसिद्धं विदुषां मुदे ॥ १४३॥ शर्करोदकमाख्यातं शुक्रलं शिशिरं सरम् । बल्यं रुच्यं लघु स्वादु वातपित्तप्रणाशनम् ॥ १४४॥ मूर्च्छाछर्दितृषादाहज्वरशान्तिकरं परम् । आम्रमामं जले स्विन्नं मर्दितं दृढपाणिना ॥ १४५ ॥ सिताशीताम्बुसंयुक्तं कर्पूरमारिचान्वितम् । प्रपानकमिदं श्रेष्ठं भीमसेनेन निर्मितम् ॥ १४६॥ सद्योरुचिकरं बल्यं शीघ्रमिन्द्रियतर्पणम् । अम्लिकायाः फलं पक्कं मर्दितं वारिणा दृढम् ॥ १४७ ॥ शर्करामरिचैर्मिश्रं लवङ्गेन्दुसुवासितम् ।
अम्लिका फलसम्भूतं पानकं वातनाशनम् ॥ १४८ ॥