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हरीतक्यादिनिघंटे चमेंसें खाली करके उसमें खोया भरै ॥ १२९ ॥ और उस्का मुख चांवलके आटेसें बन्द करके धीमें पकावै अनन्तर सुफेद खांडके पाकमें डुबावै कपूरके वासितमें कुशल ॥ १३० ॥ अनन्तर दुग्धकूपी वो बलके हित पित्तवातकों हरती है शुक्रकों करनेवाली शीतल भारी पुष्ट रुचिको करनेवालीहै ॥ १३१॥ और शरीरकी पुष्टिकों करताहै तथा बहुतकालतक अच्छी दृष्टी करतीहै कुशल मनुष्य नयाघडाकर उस्के भीतर ॥१३२ ॥ आधसेर खट्टा दहीसे लेप करावे उसमें दोसेर मैदा और एकसेर खट्टा दही ॥ १३३ ॥ पावभर घृत इनकों घोलकर घृतमें डालै इसको धूपमें रख्खै तबतक जबतक खट्टापन इस्में न आवै ॥ १३४ ॥ अ. नन्तर छेकवाले वरतनमें उसको डालै उसको घुमारकर जलतेहुवे धीमें डालै १३५ फिर उसकी फेरसे मंडलाकृति करै उस पकीहुईको घृतसे निकालकर चीनीके पतले पाकमें डालै ॥ १३६ ॥ कपूर आदिसें युक्तमें डालकर निकाललेवै यह जिलेबी पुष्ट कान्ति बलकों देनेवालीहै ॥ १३७ ॥ और धातुको बढानेवाली शुक्रकों करनेवाली नेत्रकी तर्पणहै.
__ अथ शिखरिणीगुणाः, आदौ माहिषमम्लमम्बुरहितं दध्याढकं शर्करां शुभ्रां प्रस्थयुगोन्मितां शुचिपटे किञ्चिच्च किञ्चिक्षिपेत् । दुग्धेनार्धघटेन मृण्मयनवस्थाल्यां दृढं स्रावयेदेलांबीजलवङ्गचन्द्रिमरिचैयौंग्यैश्च तद्योजयेत् ॥ १३८॥ भीमेन प्रियभोजनेन रचिता नाना रसाला स्वयं श्रीकृष्णेन पुरा पुनःपुनरियं प्रीत्या समास्वादिता । एषा येन वसन्तवर्जितदिने संसेव्यते नित्यशस्तस्य स्यादतिवीर्यवृद्धिरनिशं सर्वेन्द्रियाणां बलम् ॥ १३९ ॥ ग्रीष्मे तथा शरदि ये रविशोषिताङ्गाः ये च प्रमत्तवनितासुरतादिखिन्नाः । ये चापि मार्गपरिसर्पणशीर्णगात्रास्तेषामियं वपुषि पोषणमाशु कुर्यात् ॥ १४०॥
रसाला शुक्रला बल्या रोचनी वातपित्तजित् । दीपनी वृंहणी स्निग्धा मधुरा शिशिरा सरा ॥ १४१॥
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