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हरीतक्यादिनिघंटे लघु कर्णाक्षिरोगघ्नं शीतवातकफप्रणुत् ॥ २२ ॥ कृष्णागुणाधिकं तत्तु लोहबहारि मजति ।
अगुरुप्रभवः स्नेहः कृष्णागुरुसमः स्मृतः ॥ २३॥ टीका-अगरु १, प्रवरलोह २, राजाई ३, योगज ४, वंशिक ५, कृमिजग्ध ६, अनार्यक ७, ये अगरके नाम हैं ॥ २१॥ ये स्वादमें कटु है, खचाका हितकारक, तिक्त, तीक्ष्ण, पित्तकों पैदा करता है, हलका है, कर्ण तथा नेत्रोंके रोगोंका हरनेवाला है, शीत तथा वात कफ इनकों जीत ॥२२॥ और इन दोनोंमें काला अगरु गुणमें अधिक है, और वो लोहके समान जलमें डूब जाता है, और अगरका तेल कृष्णागरके समान कहा गया है ॥ २३ ॥
अथ देवदारुनामगुणाः. देवदारु स्मृतं दारुभद्रं दार्विन्द्रदारु च । मस्तदारु द्रुकिलिमं कृत्रिमं सुरभूरुहः ॥ २४ ॥ देवदारु लघु स्निग्धं तिक्तोष्णं कटु पाकि च । विबन्धाध्मानशोथामतन्द्राहिक्काज्वरात्रजित् ॥ २५॥
प्रमेहपीनसश्लेष्मकासकण्डूसमीरनुत् । टीका-देवदारु १, दारुभद्र २, दार्वी ३, इन्द्रदारु ४, मस्तदारु, दुकिलिम ६, कृत्रिम ७, सुरभूरुह ८, ये देवदारुके नाम हैं ॥ २४ ॥ ये हलका होता है, चिकना, तथा गरम, तिक्त, और पाकमें कडवा है, विबंध, आध्मान, और सूजन तथा तंद्रा हिचकी ज्वर और रक्त इनका नाशक है ॥ २५ ॥ और प्रमेह, पीनस, कफ, तथा कास, खुजली, और वातकोंभी हरता है.
अथ धूपसरलनामगुणाः. सरलः पीतवृक्षः स्यात्तथा सुरभिदारुकः । सरसो मधुरस्तिक्तो कटुपाकरसो लघुः ॥ २६ ॥ स्निग्धोष्णः कर्णकण्ठाक्षिरोगरक्षोहरः स्मृतः।
कफानिलस्वेददाहकासमूर्छावणापहः ॥ २७ ॥ टीका-सरल १, पीतवृक्ष २, सुरभि ३, दारुक ४, ये दूसरे देवदारुके
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