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२०.
हरीतक्यादिनिघंटे अथ सुरमा सौवीरनामगुणाः. अञ्जनं यामुनं चापि कापोताञ्जनमित्यपि । तत्तु स्रोतोञ्जनं कृष्णं सौवीरं श्वेतमीरितम् ॥ १३०॥ वल्मीकशिखराकारं भिन्नमञ्जनसन्निभम् । घृष्टं तु गैरिकाकारमेतत्त्रोतोञ्जनं स्मृतम् ॥ १३१ ॥ स्रोतोञ्जनसमं ज्ञेयं सौवीरं तत्तु पाण्डुरम् । स्रोतोञ्जनं स्मृतं स्वादु चक्षुष्यं कफपित्तनुत् ॥ १३२॥ कषायं लेखनं स्निग्धं ग्राहि छर्दिविषापहम् । सिध्मक्षयात्रहच्छ्रीतं सेवनीयं सदा बुधैः १३३॥ स्रोतोञ्जनगुणाः सर्वे सौवीरेपि मता बुधैः।
किन्तु द्वयोरञ्जनयोः श्रेष्ठं स्रोतोञ्जनं स्मृतम् ॥ १३४ ॥ टीका-अंजन यामुन कापोतांजन यहभी सुरमेके नाम हैं उस्में काले सुरमेको स्रोतोंजन और सफेदकों सौवीर कहाहै ॥ १३० ॥ वमईसें शिखराकारभिन्न काजलकेसमान होताहै और घिसनेसें गेरुके आकार होताहै इस्को स्रोतोंजन कहाहै ॥ १३१ ॥ स्रोतोंजनकेसमान सौवीरकों जानना चाहिये यह सफेद होताहै काला सुरमा मधुर नेत्रके हित कफपित्तकों हरता ॥ १३२ ॥ कसेला लेखन चिकना काविज वमन विषकों हरताहै और सिध्म क्षय रक्तकों दूर करनेवाला शीतल होताहै और विद्वानोंकेद्वारा सदा सेवन करनेके योग्य है ॥ १३३ ॥ काले सुरमेके सब गुण सफेद सुरमेमेंभी पंडितोंने मानेहैं परन्तु दोनों अंजनोंमें काला अंजन श्रेष्ठ कहाहै ॥ १३४॥
अथ सुहागानामगुणाः. टङ्कणोऽग्निकरो रूक्षः कफनो वातपित्तत् ॥ १३५॥ स्फटी च स्फटिका प्रोक्ता श्वेता शुभ्रा च रङ्गादा। दृढरङ्गा रङ्गदा च दृढा रङ्गापि कथ्यते ॥ १३६ ॥ स्फटिका तु कषायोष्णा वातपित्तकफव्रणान् । निहन्ति श्वित्रवीसर्पान्योनिसङ्कोचकारिणी ॥ १३७॥
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