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“हरीतक्यादिनिघंटे
॥ ४० ॥ मेद प्रमेह कृमि कुष्ठ इनकों हरता है और उस्का कीटभी उसीके समान होता है अशुद्ध लोहा पांडुता कुष्ठरोग और मृत्यु इनकों करनेवाला है और हृदय - रोग शूल अश्मरी इनकोंभी करता है तथा अनेकतरहकी पीडाओंका प्रकोप और हल्लास इनकोंभी करता है ॥ ४१ ॥ विनशुद्ध कियालोह जीवनको हरता मद करनेवाला और वमन विरेचन करनेवाला निश्चय है और शरीरमें चैतन्यता नहीं करता तथा हृदयमें दारुण पीडाभी करता है ॥ ४२ ॥ पेठा तिलतैल उडद राई मदिरा खट्टाई इनकों लोहका सेवन करनेवाला त्यागदेवै ॥ ४३ ॥
तत्र सारलोहस्य लक्षणं गुणाश्च. क्षमाभृच्छिखराकारान्यङ्गान्यम्लेन लेपयेत् । लोहे स्युर्यत्र सूक्ष्माणि तत्सारमभिधीयते ॥ ४४ ॥ लोहं साराह्वयं हन्याद्रहणीमतिसारकम् । अर्धं सर्वाङ्गजं वातं शूलं च परिणामजम् ॥ ४५ ॥ छर्दि च पीनसं पित्तं श्वासं कासं व्यपोहति ॥ ४६ ॥
टीका - उसमें सारलोहके लक्षण और गुण कहते हैं पहाड वा शिखराकार अंगोंकों खटाईसें लेप करें उस लोहेमेंसें जो सूक्ष्म अंश होते हैं उसको सार कहते है ४४ सारनमक लोह संग्रहणी अतीसार और अर्धाङ्ग तथा सर्वाङ्गवात तथा परिणामशूल इनकों हरता है ॥ ४५ ॥ और वमन पीनस पित्त श्वास कास उनकोभी हरताहै ॥ ४६ ॥
अथ कान्तलोहस्य लक्षणं गुणाश्च. यत्पात्रेण प्रसरति जले तैलबिन्दुः प्रतप्तैहिङ्गुर्गन्धं त्यज्यति च निजं तिक्ततां निम्बवल्कः । तप्तं दुग्धं भवति शिखराकारकं नैति भूमिं
कृष्णाङ्गः स्यात्सजलचणकः कान्तलोहं तदुक्तम् ॥ ४७ ॥
गुल्मोदरार्शःशूलाममामवातं भगन्दरम् । कामलाशोथ कुष्ठानि क्षयं कान्तमयो हरेत् ॥ ४८ ॥ प्लीहानमम्लपित्तं च यच्चापि शिरोरुजम् ।
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