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धातुरसरत्नविषवर्गः ।
सर्वान्रोगान्विजयते कान्तलोहं न संशयः ॥ ४९॥ बलं वीर्यं वपुः पुष्टिं कुरुतेऽग्निं विवर्धयेत् । ध्मायमानस्य लोहस्य मलं मण्डूरमुच्यते । लोहसिंघानिक किट्टी सिंघानं च निगद्यते ॥ ५० ॥
लोहं गुणं प्रोक्तं तत्किमपि तद्गुणम् ।
टीका - कान्तलोहका लक्षण और गुण कहते हैं जिस जलके भरेहवे पात्रमें तेलकी बून्द नहीं फैलती और तपानेमें हींगसी गन्ध निकलती है तथा नीमकी छालसी कडुवी होती है और जिसमें गरम दूध शिखरके आकार ऊंचा होता है परन्तु जमीनपर नहीं गिरता और जलके सहित चने काले होजातेहैं उस्कों कान्तलोह कहा है ॥ ४७ ॥ कान्तलोह वायगोला उदररोग बवासीर शूल आम और आमवात भगं - दर कामला सूजन कुष्ठ और क्षय इनकों हरता है ॥ ४८ ॥ और पिलही अम्लपित्त यकृत् शिरकी पीडा तथा सवरोग इनकों कान्तलोह हरता है इसमें कोई संशय नहीं ॥ ४९ ॥ और बल वीर्य शरीरकी पुष्टि करता है तथा अग्निकों बढाता है तपायेहुवे लोहेका जो कीट है उस्कों मंडूर कहते हैं सिंघानिका किट्टीसिंघानभी कहते हैं ॥५०॥ जो लोहा जिसगुणवाला कहा गया है उस्का कीट उसीके गुणसमान होता है |
उपधातूना लक्षणं गुणाश्च.
सप्तोपधातवः स्वर्णमाक्षिकं तारमाक्षिकम् ।
तुत्थं कांस्यं च रीतिश्च सिन्दूरश्च शिलाजतु ॥ ५१ ॥ उपधातुषु सर्वेषु तत्तद्धातुगुणा अपि ।
सन्ति किं तेषु तेऽत्रोना तत्तदंशाल्पभावतः ॥ ५२ ॥ स्वर्णमाक्षिकमाख्यातं तापीजं मधुमाक्षिकम् ।
ताप्यं माक्षिकधातुश्च मधुधातुश्च स स्मृतः ॥ ५३ ॥ किञ्चित्सुवर्णसाहित्यात्स्वर्णमाक्षिकमीरितम् । उपधातुः सुवर्णस्य किञ्चित्स्वर्णगुणान्वितः ॥ ५४ ॥ तथाच काञ्चनाभावे दीयते स्वर्णमाक्षिकम् । किन्तु तस्यानुकंपत्वात् किञ्चिदूनगुणास्ततः ॥ ५५ ॥
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