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हरीतक्यादिनिघंटे न केवलं स्वर्णगुणा वर्तन्ते स्वर्णमक्षिके । द्रव्यान्तरस्य संसात् सन्त्यन्येऽपि गुणाथत् ॥ ५६ ॥ सुवर्णं माक्षिकं स्वदु तिक्तं वृष्यं रसायनम् । चक्षुष्यं वस्तिरुक्कुष्ठपाण्डुमेहविषोदरान् ॥ ५७ ॥ अर्शः शोथं विषं कण्डूं त्रिदोषमपि नाशयेत् । मन्दानलत्वं बलहानिमुनां विष्टम्भितां नेत्रगदान्सकुष्ठान् ।
तथैव मालीव्रणपूर्विकां च करोति तापीजमशुद्धमेतद् ५८ टीका-उपधातु उस्कों कहतेहै उस्में उपधातुवोंका लक्षण और गुण कहते है सोनामाखी रूपामाखी लीलाथोथा कांसा पीतल सिंदूर शिलाजीत यह सात उपधातु हैं ॥ ५१ ।। सब उपधातुवोंमें उनउन धातुवोंकेभी गुण हैं तो क्या उनमें वो घटकेहै क्योंकी उनउनके अंश अल्पहोनेसें ॥५२॥ उनमें सोनामाखीके नाम और गुण कहतेहै सुवर्णमाक्षिक तापीज मधुमाक्षिक ताप्य माक्षिक धातु मधुधातु यह उस्के नाम हैं ॥ ५३ ॥ कुछ एक सोनके मिलेहोनेसे सोनामांखी कही गईहै सोनेकी उपधातु कुछ एक सोनेके गुणसे युक्त होतीहै ॥ ५४॥ वैसेही स्वर्णके अभावमें सोनामाखी दीजातीहै क्योंकी उस्से पीद्धे कहनेसें उस्से कुछ एक गुणमें न्यून है ॥५५॥५६॥ केवल सुवर्णके गुण सोनामाखी मधुर तिक्त शुक्रकों उत्पन्न करनेवाली रसायन नेत्रहित है वस्तिकी पीडा कुष्ठ पाण्डुरोग प्रमेह विष उदररोग ॥ ५७ ॥ ववासीर शोथ विष कंडू त्रिदोष इनकोंभी हरतीहै विनासोधा सोनामाखी मन्दाग्नि बलकी हानि अत्यन्त विष्टम्भक होती नेत्ररोग कुष्ठ वैसेही गंडमाला इनकों करतीहै ॥ ५८॥
अथ तारमाक्षिकस्य लक्षणं गुणाश्च. तारमक्षिकमन्यत्तु तद्भवेद्रजतोपमम् ।। किश्चिद्रजतसाहित्यात्तारमाक्षिकमीरितम् ॥ ५९॥ अनुकल्पं तथा तस्य ततो हीनगुणाः स्मृताः। न केवलं रूप्यगुणा यतः स्यात्तारमाक्षिकम् ॥६० ॥ स्वादु पाके रसे किञ्चित्तिक्तं वृष्यं रसायनम् । चक्षुष्यं बस्तिरुक्कुष्ठपाण्डुमेहविषोदरम् ॥ ६१ ॥
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