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हरीतक्यादिनिघंटे शोषं च रूपं च नलं तथोजः शुक्र निहन्त्येव करोति चास्त्रम् । टीका-गन्धककी उत्पत्ति और नाम लक्षण गुणोंकों कहतेहै श्वेतद्वीपमें पहिले क्रीडा करती हुई पार्वतीजीका कपडा रजसे मल गयाथा उस कपडेसें ॥ १०३ ॥ क्षीरसागरमें स्नान करती हुईके उससांठीसें जो रज फेला उस्से गन्धक हुवा गन्धक गन्धिक गन्धपाषण ॥ १०४ ॥ सौगन्धिक बलि बलरस यह गन्धकके नाम, गन्धक चारप्रकारका होताहै लाल पीला मुफेद काला ॥१०५॥ लाल सुवर्ण क्रियामें काम आताहै और पीला मुफेद रसायनमें कहाहै और घाव आदिके लेपमें मुफेद तथा काला श्रेष्ठ होताहै वोह दुर्लभहै ॥१०६॥ श्रेष्ठ सुवर्ण क्रियामें सबजगहमें प्रशस्ततर है गन्धक कटु तिक्त वीर्यमें उष्ण कसेला सर होताहै पित्तकों करनेवाला पाकमें कटु और खुजली वीसर्प कृमि इनको हरनेवालाहै ॥ १०७॥ और कुष्ठ क्षय पिलही कफ वात इनको हरताहै तथा रसायनहै विनासोधाहुवा यह गन्धक कुष्ठकों
और विषम सन्तापकों शरीरमें करताहै ॥ १०८ ॥ शोप रूप बल तथा औज शुक्र इनकों हरताहै और रक्तकों करताहै.
अथाभ्रकस्योत्पत्तिनामलक्षणगुणाश्च. पुरा वधाय वृत्रस्य वञिणो वज्रघाततः। विस्फुलिङ्गास्ततस्तस्य गगने परिसर्पिताः ॥ १०१ ॥ ते निपेतुर्घनध्वानाच्छिखरेषु महीभृताम् । तेभ्य एव समुत्पन्नं तत्तद्दिरिषु चाभ्रकम् ॥ ११० ॥ तहजं वज्रपातत्वादभ्रमभ्ररवोद्भवात् । गगनात्स्खलितं यस्माद्गगनं च ततो मतम् ॥ १११॥
विप्रक्षत्रियविट्शद्रभेदात्तत्स्याच्चतुर्विधम् । टीका-अभ्रककी उत्पत्ति नाम लक्षण और गुणको कहतेहैं पहले इन्द्रने वृत्रासुरकों मारनेकेवास्ते वज्र उठाया उस्से चंगारे आकाशमें फैलगये ॥ १०९ ॥ वह वादलके गरजसे पहाडोंकी चोटीपर गिरे उसीसें उनउन पहाडोंमें अभ्रक उत्पन्न हुवा ॥११०॥ वोह वज्रसे उत्पन्न होनेसें और अभ्र वादलोंके गरजसे उत्पन्न होनेसें तथा आकाशसें गिरनेसें गगन माना है ॥ १११ ॥ ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र इनमे दोसें वोह चारप्रकारका होताहै.
क्रमेणैवासितं रक्तं पीतं कृष्णं च वर्णतः ॥ ११२॥
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