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वारिवर्गः। कलुषं छन्नमम्भोजपर्णनीलीतृणादिभिः । दुःस्पर्शनमसंस्ष्टष्टं सौरचांद्रमरीचिभिः ॥ ७८ ॥ अनार्जवं वार्षिकं तु प्रथमं तच्च भूमिगम् । व्यापनं परिहर्त्तव्यं सर्वदोषप्रकोपनम् ॥ ७९ ॥ तत्कुर्यात्स्नानपानाभ्यां तृष्णाध्मानचिरज्वरान् । कासानिमान्द्याभिष्यन्दकण्डूगण्डादिकं तथा ॥ ८ ॥ निन्दितं चापि पानीयं कथितं सूर्यतापितम् । सुवर्ण रजतं लोहं पाषाणं सिकतामपि ॥ ८१ ॥ भृशं सन्ताप्य निर्वाप्य सप्तधा साधितं तथा। कर्पूरजातिपुन्नागपाटलादिसुवासितम् ॥ ८२ ॥ गालितं सांद्रवस्त्रेण क्षुद्रजन्तुविवर्जितम् । स्वच्छं कनकमुक्तायैः शुद्ध स्यादोषवर्जितम् ॥ ८३ ॥ पर्णमूलविषग्रंथिमुक्ताकनकशैवलैः।
गोमेदेन च वस्त्रेण कुर्यादम्बुप्रसादनम् ॥ ८४ ॥ पीतं जलं जीर्यति यामयुग्माद्यामैकमात्राच्छृतशीतलं च । तदूर्ध्वमात्रेण शृतं कदुष्णपयःप्रपाके त्रय एव कालाः॥८५॥
इति श्रीहरीतक्यादिनिघंटे वारिवर्गः समाप्तः ॥ टीका-अब प्रशस्त जल स्वच्छ हलका और हृद्य ऐसा जल स्वच्छ कहाहै गन्धरहित अव्यक्त रस अच्छा कहाहै ॥ ७६ ॥ पिच्छिल कृमियुक्त और पत्ता सेवाल कीचड इनसें सडाहुवा विवर्ण विरस गदला दुर्गन्धयुक्त रख्खाहुवा जल ॥ ७७॥ काला और कमलपत्ते नीलतृण आदियोंसें ढकाहुवा दुःस्पर्श और सूर्य तथा चांदकी किरणोंसे स्पर्श कियागया ॥ ७८ ॥ वेऋतुका वार्षिकका पहिला और वोह जमीनपरका व्यापन्नजल त्यागनेयोग्य सबदोषोंकों प्रकोपकरनेवाला है ॥ ७९ ॥ वोह स्नान और पानसें तृषा आध्मान पुरानावर इनकों करताहै और कास अग्निमांद्य अभिष्यन्दि कण्डू तथा गण्डादिक इनकों करताहै ॥ ८० ॥ अंनतर दुष्टज
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