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तैलसंधानमद्यमधुइक्षुवर्गः ।
एक संवत्सरेऽतीते पुराणत्वं स्मृतं बुधैः ॥ ८७ ॥ विषपुष्पादपि रसं सविषा भ्रमरादयः । गृहीत्वा मधु कुर्वन्ति तच्छीतं गुणवन्मधु ॥ ८८ ॥ विषान्वयात्तदण्डंतु द्रव्येणोष्णेन वा सह । उष्णार्तस्योष्णकाले च स्मृतं विषसमं मधु ॥ ८९॥ मयनं तु मधूच्छिष्टं मधुशेषं च सिक्थकम् । मध्वाधारो मदनकं मधूषितमपि स्मृतम् ॥ ९० ॥ मदनं मृदु सुस्निग्धं भूतघ्नं व्रणरोपणम् । भग्नसन्धानरुद्वातकुष्ठवीसर्परक्तजित् ॥ ९१ ॥
टीका - जो पुष्पसें चूकर पत्तेपर गिरा ठहरा रहता है || ८३ || मीठा खट्टा कसेला उसको दालमधु कहतेहैं दालमधु हलका दीपन कफहरता कहाहै ॥ ८४ ॥ और पीछे कसेला रूखा रुचिकों करनेवाला और वमन तथा प्रमेहकों हरनेवाला है बहुत मीठा चिकना पुष्ट करनेवाला पाकमें हलका और तोलमें भारी होता है ॥ ८५ ॥ नया मधु पुष्ट होता है बहुत कफ हरता नहीं होता तथा सर होता है पुराना काविज रूखा मेदहरता अतिलेखन होता है || ८६ ॥ मधुकी शर्करा और विशेषकरके एडकीभी शर्करा एकवरसके वाद पुरानी पंडितोंनें कही है ॥ ८७ ॥ अनन्तर शीतमधुका गुणाधिक्य और उष्णतामें निषेध कहते हैं विषपुष्पसेंभी रसकों विषवाले भ्रमरादिक लेकर मधु करते हैं तिस्सें शीतगुणवाला मधु होता है ॥ ८८ ॥ विषसें उत्पन्न होनेसें वोह मधु उष्ण द्रव्यके साथ उष्ण पीडितकों उष्णकालमें विषके समान मधु कहा है || ८९ ॥ मयन मधूच्छिष्ट मधुशेष सिक्थक मध्वाधार मदनक मधूषित यह मोंमके नाम कहें हैं ॥ ९० ॥ मोंम मृदु चिकना भूतकों हरता व्रणरोपण टूटे हाडकों जोडनेवाला वात कुष्ठ वीसर्प रक्त इनकों हरनेवाला है ॥९१॥ इति मधुवर्गः ।
अक्षुवर्गे इक्षोर्नामानि गुणाश्च.
इक्षुर्दीर्घच्छदः प्रोक्तस्तथा भूमिरसोऽपिच । गूढमूलोऽसिपत्रश्च तथा मधुतृणः स्मृतः ॥ ९२ ॥ इक्षवो रक्तपित्तघ्ना बल्या वृष्या कफप्रदाः ।
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