________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
३२८ .
हरीतक्यादिनिघंटे बद्धमल मद सूजन आमविद्रधि इनकों हरता शरीररूपी वनमें विचरनेवाले आमवातरूपी गजेन्द्रकों ॥ २५ ॥ एकही हरनेवाला अंडीरूप सिंहहै अब रालके तेलका गुण रालका तेल विस्फोट व्रण इनकों हरताहै ॥ २६ ॥ और कुष्ठ पामा कृमि इनकों हरता तथा वात कफके रोगकों हरताहै सब तेलके गुण जिसका तेल होताहै उसीके समान गुणमें होताहै ऐसा वाग्भटनें सब तेलोंका मानाहै ॥ २७ ॥ इसवास्ते बाकी तेलके गुण अपने कारणके समान जानना चाहिये. इति तैलवर्गः
अथ सन्धानवर्गे काञ्जिकस्य लक्षणं गुणाश्च. सन्धितं धान्यमण्डादि काञ्जिकं कथ्यते जनैः ॥ २८॥ काञ्जिकं भेदि तीक्ष्णोष्णं रोचनं पाचनं लघु । दाहज्वरहरं स्पर्शात्पानादातकफापहम् ॥ २९ ॥ माषादिवटकैर्यत्तु क्रियते तद्गुणाधिकम् । लघु वातहरं तत्तु रोचनं पाचनं परम् ॥ ३० ॥ शूलाजीर्णविबन्धामनाशनं बस्तिशोधनम् । शोषमूर्छाभ्रमार्तानां मदकण्डूविशोषिणाम् ॥ ३१ ॥ कुष्ठिनां रक्तपित्तानां काञ्जिकं न प्रशस्यते । पाण्डुरोगे यक्ष्मणि च तथा शोथातुरेषु च ॥ ३२॥ क्षतक्षीणे तथा श्रान्ते मन्दज्वरनिपीडिते।
एतेषां तु हितं प्रोक्तं काञ्जिकं दोषकारकम् ॥ ३३ ॥ टीका-अनन्तर सन्धानवर्ग उसमें काञ्जीका लक्षण और गुण कहतेहै सन्धान कियाहुवा धान्य मण्डादिककों जन कांजी कहते हैं ॥ २८ ॥ कांजी मेद करनेवाला तीखी उष्ण रोचन पाचन हलकी होतीहै स्पर्शसें दाह ज्वरकों हरती और पीनेसे वातकफकों हरतीहै ॥२९॥ उडद आदिके वडे डालके जो कियीजातीहै वोह गुणमें अधिक होतीहै हलकी वातहरती रोचन परम पाचन होतीहै ॥ ३० ॥शूल अजीर्ण विबन्ध आम इनकों हरता बस्तिशोधन शोष मूर्छा भ्रम नसे पीडितकों और मद कण्डू विशोषवालोंकों ॥ ३१ ॥ कुष्ठवालोंकों रक्तपित्तवालोंकों कांजी अच्छी नहींहै पाण्डुरोग राजयक्ष्मा तथा शोषसें पीडित ॥ ३२ ॥ क्षतक्षीण तथा श्रान्त मन्द ज्वरसे पीडित इनकों कांजी और दोषकारक कहींहै ॥ ३३ ॥
For Private and Personal Use Only