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हरितक्यादिवर्गः । अथ दारुहरिद्रानामगुणाः.
दाव दारुहरिद्रा च पर्जन्या पर्जनीति च । कटंकटेरी पीता च भवेत्सैव पचपचा ॥ २०२ ॥ सैव कालीयकः प्रोक्तस्तथा कालेयकोऽपि च । पीतश्व हरिदुश्व पीतदारु कपीतकम् ॥ २०३ ॥ दाव निशागुणा किन्तु नेत्रकर्णास्यरोगनुत् ।
टीका - दार्वी १, दारुहरिद्रा २, पर्जन्या ३, पर्जनी ४, कटंकटेरी ५, पीता ६, पचपचा ७ ॥ २०२ ॥ कालीयक ८, कालेयक ९, पीतद्रुम १०, हरिद्रा ११, पीतदारु १२, कपीतक १३, ये दारुहळदीके नाम हैं ॥ २०३ ॥ ये दारुहलदी ह लदीके समानही गुणवाली होती है, तथापि बहुतकरिके नेत्र, कर्ण, मुख, इनके रोगेको हरनेवाली है.
अथ रसांजन ( रसोत ) नामगुणाः.
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दावकाथसमं क्षीरं पादं पक्त्वा यथा घनम् ॥ २०४ ॥ तदा रसांजनाख्यं तत् नेत्रयोः परमं हितम् । रसांजनं तार्क्षशैलं रसगर्भं च तार्क्ष्यजम् ॥ २०५ ॥ रसांजनं कटुश्लेष्मविषनेत्रविकारनुत् ।
उष्णं रसायनं तिक्तं छेदनं व्रणदोषनुत् ॥ २०६॥
टीका - दारुहळदी काढेके समान दूधकों पकावे, जब चोथा हिस्सा गाढा रहजाय ॥ २०४ ॥ तब उसको रसांजन अर्थात् रसोत कहते हैं. ये नेत्रोंके बडा हितकारी होता है. रसांजन १, तार्क्ष्यशैल २, रसगर्भ ३ तार्क्ष्यज ४, ये रसोतके नाम हैं ॥ २०५ ॥ ये कडवा होता है, कफ, तथा विष और नेत्ररोगोंकों हरनेवाला है, और गरम, रसायन, तिक्त, छेदन, घावोंका और दोषोंका हरनेवाला हैं ॥ २०६ ॥
अथ बाकुचीनामगुणाः.
अवल्गुजी बाकुची स्यात् सोमराजी सुपर्णिका ।
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