Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutangsutra Vol 1 Niryukti
Author(s): Bhadrabahuswami, Punyavijay
Publisher: Prakrit Granth Parishad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Prakrit Text Series vel. XIX SUTRAKRTANGASUTRA TPARTE NIRVORU AND CURN PRAKRIT TEXT SOCIETY FAHMEDABAD-O. VARANASI-S. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Prakrit Text Society Series No. 19 General Editors Dr. P. L. VAIDYA Dr. A. N. Upadhye Dr. H. C. BHAYANI SŪYAGADANGASUTTA [PART 1] WITH BHĀDRABAHU'S NIRYUKTI AND CŪRŅI BY ANONYMOUS WRITER Edited by MUNI SHRI PUNYAVIJAYAJI PRAKRIT TEXT SOCIETY AHMEDABAD-9 VARANASI-5 1975 Jain Education Intemational Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published by DALSUKH MALVANIA Secretary PRAKRIT TEXT SOCIETY L. D. Institute of Indology Ahmedabad-9 Available from: 1. MOTILAL BANARASIDAS, VARANASI 2. MUNSHIRAM MANOHARLAL, DELHI Printed by TEXT Nirnayasagar Press, Bombay Price Rs. 30 3. SARASWATI PUSTAK BHANDAR, Ratanpole, AHMEDABAD 4. ORIENTAL BOOK CENTRE, Manekchowk, AHMEDABAD TITLE AND FIRST PAGES V. P. Bhagwat Mouj Printing Bureau Khatau Wadi, Bombay 4 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतग्रन्थ परिषद् ग्रन्थाङ्क १९ पंचमगणहरसिरिसुहम्मसामिवायणाणुगयं बिइयमंगं सूयगडंगसुत्तं सिरिभद्दबाहुसामिविरइयाए निजुत्तीए पाईणथेरभदंतषिरइयाए चुण्णीए य संजुयं प्रथमो भागः संशोधकः सम्पादकश्च मुनिपुण्यविजयः जिनागमरहस्यवेदिजैनाचार्यश्रीमद्विजयानन्दसूरिवर(प्रसिद्धनाम-मात्मारामजीमहाराज)शिष्यरत्न-प्राचीनजैनभाण्डागारोद्धारकप्रवर्तक श्रीमत्कान्तिविजयान्तेवासिनां श्रीजैनात्मानन्दग्रन्थमालासम्पादकानां मुनिप्रवरचतुरविजयानां विनेयः प्रकाशिका प्राकृत ग्र अहमदाबाद-९: वाराणसी-५ पीरसंवत् २५०१ विक्रमसंवत २०३१ इस्वीसन् १९७५ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : . दलसुख मालवणिया सेक्रेटरी, प्राकृत टेकस्ट सोसायटी, ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर अहमदाबाद ९ मूल्य रु०३०/ मुद्रक: मूलग्रन्थ निर्णयसागर प्रेस बंबई और मुखपृष्ठ आदिके पृष्ठ वि. पु. भागवत मौज प्रिंटिंग ब्यूरो खटाववाडी, बंबई ४ Jain Education Intemational Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थानुक्रमः १-२४८ ३१-३९ ग्रन्थानुक्रमः प्रतिपरिचय सङ्केतसूचिः सूयगडंगसुत्तं-णिज्जुत्ति-चुण्णिजयं, पढमो सुयक्खंधो पढमस्स समयऽज्झयणस्स पढमो उद्देसमो बिहमो उद्देसओ " , सइमो उद्देसको चउत्थो उद्देसमो बिइयस्स बेयालियऽज्झयणस्स पढमो उद्देसमो बिहनो उद्देसमो तइनो उद्देसमो तइयस्स उवसग्गपरिणऽज्झयणस्स पढमो उद्देसमो बिइमो उद्देसको तइओ उद्देसमो चउत्यो उद्देसओ चउत्थस्स इत्थीपरिणऽजायणस्स पढमो उद्देसको बिइमओ उद्देसमो पंचमस्स णिरयविभत्तिमज्झयणस्स पढमो उद्देसमो बिहमो उद्देसमो छ? महावीरत्थवऽज्झयणं सत्तम कुसीलपरिभासियऽज्झयणं अट्टम वीरियऽज्झयणं णवमं धम्मऽज्झयणं दसमं समाहिमायण एक्कारसम मग्गऽज्झयणं बारसमं समोसरणऽज्झयणं तेरसमं महत्तहियऽज्झयणं चोइसमं गंथऽज्झयणं पण्णरसमं जमतीतऽज्झयणं सोलसमं गाहासोलसगऽज्झयणं ३९-४४ ४४-४९ ५०-५८ ५८-६९ ६९-७६ ७७-८३ ८३-८८ ८८-९५ ९५-१०० १०१-१४ ११४-२१ १२२-३४ १४१-५० १५१-६२ १६३-७३ १७४-८३ १८४-९२ १९३-२०४ २०५-१७ २१८-२६ २२७-३० २३८-४४ २४५-४८ Jain Education Intemational Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपरिचय इस ग्रन्थ के सम्पादन में कुल तेरह प्रतियों का उपयोग किया गया है। वह इस प्रकार है-सूत्रकृतांगसूत्र की पांच प्रतियाँ, सूत्रकृतांगसूत्र की नियुक्ति की तीन प्रतियां और सूत्रकृतांगचूर्णि की पांच प्रतियां। इन तेरह प्रतियों में सूत्रकृतांगसूत्र मूल की एक प्रति और सूत्रकृतांगसूत्र की चूर्णि की एक प्रति—ये दो प्रतियां मुद्रित आवृत्ति की हैं। एक प्रति का निर्णय नहीं हो सका। शेष दस प्रतिय हस्तलिखित हैं। इन प्रतियों का परिचय इस तरह है - सूत्रकृतांगमूलसूत्र तथा नियुक्ति की प्रतियाँ १-२. 'खं १' प्रति-ताडपत्र पर लिखी हुई यह प्रति, श्री शान्तिनाथजी जैन ज्ञानभंडार-खंभात-में सुरक्षित है। बडौदाप्राच्य विद्यामन्दिर द्वारा प्रकाशित इस भंडार की सूचि में इस प्रति का क्रमांक-६ है। इस प्रति में अनुक्रम से तीन ग्रन्थ लिखे हुए हैं। वे इस तरह हैं-१-श्री शीलांकाचार्यकृत सूत्रकृतांगसूत्रवृत्ति, २-श्री भद्रबाहुस्वामिकृत सूत्रकृतांगसूत्रनियुक्ति, और ३-सूत्रकृतांगसूत्र मूल । इस प्रति की लम्बाई-चौडाई ३१.७४२.२ इंच प्रमाण है। कुल पत्र ४२९ है। वि. सं. १३२७ में यह लिखी गई है। इस प्रति ' में उपरोक्त तीन ग्रन्थों की समाप्ति का स्थान और अन्तपुष्पिका इस प्रकार है-१-पत्र १ से ३६३ तक में सूत्रकृतांगसूत्रवृत्ति लिखी हुई है। इसके अन्त में लेखक ने “सर्वग्रं० १३०००" लिखा है। २-पत्र ३६४ से ३७१ वें की पहिली पृष्ठि तक में सूत्रकृतांगसूत्रनियुक्ति लिखी हुई है। इसके अन्त में “ग्रंथतः श्लोक २६५ ॥ छ।" इस तरह लेखक ने लिखा है। ३-पत्र ३७१ वें की द्वितीय पृष्ठि से ४२९ पत्र तक में सूत्रकृतांगसूत्र मूल लिखा हुआ है। इसके अन्त में इस प्रकार की पुष्पिका है- “सम्मत्तं सूयगडं सूत्रं गाहाए एक्कवीससयाणि ॥ छ । छ । सर्वजातसूत्रे श्लोकाः २६२५ ॥ सर्वसंख्याजात श्लोक १६६००॥छ ।। छ। सं० १३२७ वर्षे भाद्रपद बदि २ रखावघेह वीजापुरे"। इस समस्त ग्रन्थ के पूर्ण होने के बाद प्रस्तुत ६ क्रमांकवाली पोथी में सूत्रकृतांगसूत्र की नियुक्ति की सात पन्ने में लिखी हुई एक ताडपत्रीय प्रति भी है। संभव है कि 'खं १' संज्ञक प्रति के नियुक्ति के पाठ का उपयोग करने के साथ-साथ इस नियुक्ति की अधिक प्रति का मी पूज्यपाद सम्पादकजी ने उपयोग किया हो। ३-४. 'खं २' प्रति--ताडपत्र पर लिखी हुई यह प्रति भी उपर बताये गये ज्ञानभण्डार की है। सूचि में इसका क्रमांक ७ है। इसकी लंबाई-चौडाई ३०.७४२.२ इंच प्रमाण है। कुल ४६३ पत्र में लिखी हुई इस प्रति में तीन ग्रन्थ लिखे हुए हैं। वे इस प्रकार है-१-पत्र १ से ६४ तक में सूत्रकृतांगसूत्र मूल, २-पत्र ६५ से ७२ तक में श्री भद्रबाहुस्वामिकृत सूत्रकृतांगनियुक्ति और ३-पत्र ७३ से ४६३ तक में श्री शीलांकाचार्यकृत सूत्रकृतांगसूत्रवृत्ति है। सूत्रकृताङ्गसूत्रवृत्ति के पूर्ण होने पर लेखक की प्रशस्ति इस प्रकार है शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवंतु भूतगणाः। .. दोषाः प्रयांतु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ॥ छ । नमः श्रीवर्द्धमानाय वर्द्धमानाय वेदसा। वेदसारं परं ब्रह्म ब्रह्मबद्धस्थितिश्च यः॥१॥ स्वबीजमुप्तं कृतिभिः कृषीवलैः क्षेत्रे सुसिक्तं शुभभाववारिणा । क्रियेत यस्मिन् सफलं शिवश्रिया पुरं तदनास्ति दयावटाभिधम् ॥२॥ ख्यातस्तत्रास्ति वस्तुप्रगुणगुणगणः प्राणिरक्षकदक्षः सज्ज्ञाने लब्धलक्ष्यो जिनवचनरुचिश्चंचदुच्चैश्चरित्रः। पात्रं पात्रैकचूडामणिजिनसुगुरूपासनावासनायाः । संघः सुश्रावकाणां सुकृतमतिरमी संति तत्रापि मुख्याः ॥ ३ ॥ होनाकः सज्जनश्रेष्ठः श्रेष्ठी कुमरसिंहकः। सोमाकः श्रावकश्रेष्ठः शिष्टधीररिसिंहकः ॥४॥ कडयाकश्च सुश्रेष्ठी सांगाक इति सत्तमः । खीम्बाकः सुहडाकश्च धर्मकमैंककर्मठः ॥५॥ एतन्मुखः श्रावकसंघ एषोऽन्यदा वदान्यो जिनशासनज्ञः। सदा सदाचारविचारचारुक्रियासमाचारशुचित्रतानां॥६॥ श्रीमजगच्चंद्रमुनीन्द्रशिष्यश्रीपूज्यदेवेंद्रसूरीश्वारणां । तदायशिष्यत्वभृतां च विद्यानंदाख्यविख्यातमुनिप्रभूणां ॥७॥ Jain Education Intemational Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा गुरूणां सुगुणैर्गुरूणां श्रीधर्मघोषाभिधसूरिराजा । सद्देशनामेवमपापभावां शुश्राव भावावनतोत्तमांगः ॥८॥ विषयसुखपिपासोर्देहिनः क्वास्ति शीलं करणवशगतस्य स्यात् तपो वाऽपि कीहक् । अनवरतमदभ्रारंभिणो भावना का ___ स्तदिह नियतमेकं दानमेवास्य धर्मः॥९॥ किंचधर्मः स्फूर्जति दानमेव गृहिणां ज्ञानाभयोपग्रहै मेधा तद्वरमाधमत्र यदितो निःशेषदानोदयः। ज्ञानं चाय न पुस्तकैर्विरहितं दातुं च लातुं च वा शक्यं पुस्तकलेखनेन कृतिभिः कार्यस्तदर्थोऽर्थवान् ॥१०॥ श्रुत्वेति संघसमवायविधीयमानज्ञानार्चनोगवधनेन मिथः प्रवृदि । नीतेन पुस्तकमिदं श्रुतकोशवृद्धयै बहादरश्चिरमलेखयदेष हृष्टः॥१॥ यावजिनमतभानुः प्रकाशिताशेषवस्तुविस्तारः । जगति जयतीह पुस्तकमिदं बुधैर्वाग्यता तावत् ॥१२॥छ॥ संवत् १३४९ वर्षे मार्गशुदि...मोह दयावटे श्रे०होना श्रे० कुमरसीह श्रे० सोमाप्रभूतिसंघसमवायसमारब्धपुस्तकमांडागारे ले० सीहाकेन लिखितं ॥छ॥ इस प्रशस्ति का सार इस प्रकार है दयावट नामक गांव में श्री जैनसंघ में होनाक, कुमरसिंह, सोमाक, अरिसिंह, कडुयाक, सांगाक, खिंवाक, सुहडाक आदि धार्मिष्ठ श्रेष्ठी रहते थे। इन श्रेष्ठियों ने श्री विद्यानंदसूरि तथा श्री धर्मघोषसूरि के उपदेश से शानपूजा के द्रन्य से तथा परस्पर में दान में दिये गये द्रव्य से ज्ञानभंडार की वृद्धि के लिए इस ग्रन्थ को विक्रम संवत् १३४९ की मार्गशीर्ष शुक्ला (यहाँ तिथि का और बार का नाम नष्ट हो गया है) के दिन लिखवाया है। इस ग्रन्थ के लिपिक का नाम सीहाक है। इस प्रशस्ति में बताया हुआ गांव दयावट वह इस समय गुजरात के साबरकांठा जिले में आया हुआ दावड गांव होना चाहिए । उपर की प्रशस्ति के आधार से यह कल्पना की जा सकती है कि प्राचीन समय में अनेक गावों के श्री जैनसंघों ने अनेकानेक अन्यों को लिखाकर अनेक ज्ञानभण्डारों का निर्माण किया होगा। ५.पु१' प्रति-श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर-अहमदाबाद में सुरक्षित अनेक प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थ संग्रहों में के पूज्यपाद आगमप्रभाकर मुनिवर्य श्री पुण्यविजयजी महाराज के संग्रह की सूत्रकृतांगसूत्रमूलपाठ की कागज़ पर लिखी गई यह प्रति है। ला. द. विद्यामंदिर की अन्यसचि में इसका क्रमांक ८४०२ है। प्रति की स्थिति अच्छी है और लिपि सुन्दर है। लंबाईचौडाई २७.५४११ सें.मी. है। कुल पत्र ४८ है। प्रत्येक पन्ने की प्रत्येक पृष्ठि में तेरह पंक्तियां है। प्रत्येक पक्ति में कम से कम बावन और अधिक से अधिक सत्तावन अक्षर है। प्रत्येक पत्र की प्रत्येक पृष्ठि के मध्य में कोरा भाग-रिक्काक्षर रख कर शोभन किया हुआ है और उस के बीच हिंगुलु से गोल चन्द्राकार लाल शोभन बनाया हुआ है। प्रत्येक पत्र की द्वितीय पृष्ठि के दोनों ओर कोरे भाग में-मार्जिन में मी हिंगुलु से वर्तुलाकार शोभन बनाया हुआ है। प्रथम पत्र की प्रथम पृष्ठि कोरी है। ४८ वें पत्र की द्वितीय पृष्ठि की छठी पंक्ति में सत्रकृतांगसूत्र पूर्ण होता है। उसके बाद लेखक की पुष्पिका छठी पंक्ति से नौवीं पंक्ति तक में है। वह इस प्रकार है"संवत् १७१४ वर्षे भी नवानगरे अंचलगच्छे वा० श्रीविवेकशेखरगणिशिष्य वा० श्रीभावशेषरगणि लिखितं माह शुदि ६ दिने। साधवी विमलां सष्यणी साधवी कपूरी सष्यणी साधवी देमां सष्यणी साधवी पद्मलक्ष्मीवाचनाय ॥ श्री शांतिनाथप्रसादात् वाच्यमानो चिरं ।। श्री ग्रंथान २१.००॥ श्रीः॥ श्री हालारदेशे॥ श्रीकल्याणसागरसूरीश्वरविजयराजे ॥ श्रीरस्तु ॥ ॥ श्री गुरुभ्यो नमः॥ श्री बैन भारते नमः॥ श्रीः" उपर की पुष्पिका में अन्य का श्लोकप्रमाण २१००० है उसे इक्कीससौ समझा जाय । यहाँ इक्कीस लिख कर सौ (१००) की संख्या बताने के लिए तीन शून्य ००० लगाये गये हैं। इस प्रकार का अंक लेखन कई प्राचीन प्रतियों में देखने में आता है। ६-७. 'पु२' प्रति-यह प्रति मी उपर्युक्त ग्रन्थसंग्रह की है। ला. द. विद्यामंदिर की ग्रन्थसूचि में इसका क्रमांक ८३६३ है। स्थिति जीर्ग है। लिपि सुन्दर है । लंबाई-चौडाई ३४४१३ सें. मी. है। काग़ज़ उपर लिखि हुई इस प्रति में सूत्रकृतांगसूत्र मूल तथा Jain Education Intemational Jain Education Intermational Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) सूत्रकृतांगसूत्रनियुक्ति लिखी हुई है। इसके अन्त में लेखकने पुष्पिका लेखन संवत आदि कुछ भी नहीं लिखा है। फिर भी आकार-प्रकार और लिपि के मरोड के आधार से कहा जा सकता है कि यह प्रति विक्रम की सोलहवीं सदी में लिखाई गई हो। कुल पत्र ४४ है। प्रथम पत्र की प्रथम पृष्ठी कोरी है और उसकी दूसरी पृष्ठि से सूत्रकृतांगसूत्र का मूल प्रारंभ होता है। इस द्वितीय पृष्ठिका को देखनेवाले के दक्षिणी भाग में समवसरण का चित्र है। सुनहरी आदि रंगों से आलेखित इस चित्र की लंबाई-चौडाई-१२:५४७.३ सें. मी. है। प्रत्येक पत्र की प्रत्येक पृष्ठि में पंद्रह पंक्तियां है। सामान्यतः प्रत्येक पंक्ति में छप्पन अथवा सत्तावन अक्षर है। किसी पंक्ति में बावन अक्षर भी है। प्रत्येक पत्र की प्रत्येक पृष्ठि के बीच और द्वितीय पृष्ठिका की दोनों ओर के हासिये में 'पु ११ प्रति की तरह शोभन किया है। विशेष इतना ही है कि 'पु१' प्रति में लाल रंग है उसके स्थान पर यहाँ पीला रंग भर कर दोनों और आसमानी कलर में कंगूरे का शोभन बनाया गया है। ३९ वें पत्र की दूसरी पृष्ठि की चौदहवीं पंक्ति में सूत्रकृतांगसूत्र पूर्ण होता है। उसके बाद लेखक ने इस प्रकार शुभकामना लिखी है।-"पद्मोपमं पत्रपरम्परान्वितं वर्णोज्ज्वल सूक्तमरन्दसुन्दरम् । मुमुक्षुभङ्गप्रकरस्य वल्लभ जीयाचिरं सूत्रकृदङ्गपुस्तकम्।। ॥छ। शुभं भवतु ॥ छ॥ छ॥"४० वें पत्र की प्रथम पृष्ठि से ४४ वें पत्र की द्वितीय पृष्ठि की सातवी पंक्ति तक में सूत्रकृतांगसूत्रनियुक्ति लिखी हुई है। उसके बाद यहाँ बताई गई (पत्र ३९ वें के अंत में लिखी हुई) शुभकामना लेखक ने पुनः लिखी है। ८. 'सा'प्रति-आगमोदय समिति द्वारा वि. सं. १९७३ में प्रकाशित 'श्री शीलांकाचार्यविहितविवरणयुतं सूत्रकृतांगसूत्रम् प्रन्थ में मुद्रित सूत्रकृताङ्गसूत्र की मूलवाचना। डॉ पीला रंग होता है। याचिरं सूत्र सूत्रकृतांगसूत्रचूर्णि की प्रतियां प्रस्तुत चूर्णि की पांच प्रतियों में तीन प्रतियां हस्तलिखित हैं। ये तीनों प्रतियां पाटण में श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमन्दिर के विविध भंडारों की है। पूज्यपाद आगमप्रमाकरजी महाराज के स्वर्गवास के बाद तुरंत ही इन तीनों प्रतियों को पाटण भेज कर उन उन भंडारों में जमा करा दी थी, अतः श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमन्दिर की मुद्रित ग्रन्थसूचि में से ही इन तीनों प्रतियों का परिचय यहाँ दिया गया है। ९. 'वा'प्रति-श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर-पाटण (उ० गु०) में सुरक्षित अनेक प्राचीनतम ज्ञानभंडारों में से श्री वाडीपार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार की कागज़ पर लिखी गई यह प्रति है। ज्ञानमंदिर की सूचि में इसका क्रमांक ६५४८ है। पत्र १४९ किन्त चालीस के अंकवाले दो पत्र होने से कुल पत्र की संख्या १५० है। इसकी लंबाई-चौडाई १२४४॥ इंच प्रमाण है। इसके अन्त में लेखक की पुष्पिका आदि कुछ भी लिखा हुआ नहीं है। फिर भी आकार-प्रकार से एवं लिपि के आधार से जाना जा सकता है कि यह प्रति विक्रम की पंद्रहवी सदी में लिखाई गई होनी चाहिए । इसकी स्थिति अच्छी है, लिपि सुन्दर है। . इस भंडार की क्रमांक ६५३४ वाली विक्रम संवत १४९४ में लिखाई हुई सूत्रकृतांगसूत्रचूर्णि की प्रति भी पूज्यपाद सम्पादकजी के स्वर्गवासी होने तक उनके पास ही में थी अतः उसका भी यहां उपयोग हुआ ही होगा ऐसा मेरा अनुमान है। १०. 'मो०' प्रति-कागज़ पर लिखाई गई यह प्रति भी उपर्युक्त ज्ञानमंदिर में सुरक्षित श्री मोदी जैन ज्ञानभंडार की है। सूचि में इसका क्रमांक ९९९१ है। पत्रसंख्या १९१ है। लंबाई-चौडाई १३||४५/ इंच प्रमाण है। स्थिति जीर्ण है और लिपि सुन्दर है। अंत में लेखक ने संवत नहीं लिखा है फिर भी तदुचित अनुमान से जाना जा सकता है कि यह प्रति विक्रम की सोलहवीं सदी में लिखाई गई हो। ११. 'सं०' प्रति-कागज़ उपर लिखाई गई यह प्रति उपर्युक्त ज्ञानमन्दिर में सुरक्षित श्री संघ जैन ज्ञानभंडार की है। सचि में इसका क्रमांक ८४३ है। पत्रसंख्या १२५ है। लंबाई-चौडाई १३||४५.१ इंच प्रमाण है। स्थिति अच्छी और लिपि सुन्दर है। अन्त में लेखक की पुष्पिका आदि कुछ भी नहीं होने पर भी तदुचित अनुमानतः इसका लेखन संवत विक्रम का पंद्रहवाँ शतक होना चाहिए। १२. 'म०' प्रति-श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी रतलाम द्वारा वि० सं० १९९८ में प्रकाशित हुई सूत्रकृतांगसूत्रचणि की मुद्रित प्रति । १३. 'पु०' प्रति-इस प्रति का सही निर्णय नहीं हो पाया है। कार्तिक शुक्ला १२. संवत २०३१ विद्वज्जनविनेय अमृतलाल मोहनलाल भोजक Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्केतसूचिः अ० -अध्ययनम् अध्य० ।-अध्ययनम् अनु० । अनयोगद्वारसत्रम् अनुयो०।-अनुयोगद्वारसूत्रम् उत्त० । नाध्ययनसत्रम् आचा०-आचारागसूत्रम् आव०-आवश्यकसूत्रम् आव०नि०-आवश्यकसूत्रनियुक्तिः आव० हारि० आव० हारि० वृ० -आवश्यकसूत्रहरिभद्रसूरिकृतवृत्तिः आहावृ० आसं०-आगमप्रभाकरमुनिवर्यश्रीपुण्यविजयशोधिते आवश्यकसूत्रनिर्युक्तेः संशोधिते मुद्रितादर्श उ०-उद्देशकः उत्तरा :उत्तराध्ययनसूत्रम् उत्तचू०-उत्तराध्ययनसूत्रचूर्णिः उत्तनि०-उत्तराध्ययनसूत्रनियुक्तिः उत्त० पाइ०-उत्तराध्ययनसूत्रपाइयटीका-आचार्यश्रीशान्तिसूरिकृतटीका ओघनि०-ओघनियुक्तिः औपपा.-औपपातिकसूत्रम् कल्पभा०-बृहत्कल्पसूत्रभाष्यम् का०-काव्यम् खं १-'खं १' संज्ञकप्रतिः खं २-'खं २' संज्ञकप्रतिः गणि० प्र०-गणिविद्याप्रकीर्णकम् चूपा०-सूत्रकृताङ्गसूत्रचूर्णी निर्दिष्टं पाठान्तरम् चूसप्र०-सूत्रकृताङ्गसूत्रचूर्णेः समग्रप्रतिषु जीवा०-जीवाभिगमसूत्रम् जीवा० प्रति० ।-जीवाभिगमसूत्रस्य प्रतिपत्तिः जीवाभि० प्रति ज्ञाता०-ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रम् तत्वा०-तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् दश०नि०-दशवैकालिकसूत्रनियुक्तिः दशवै०-दशवैकालिकसूत्रम् दशा० । शाशनस्कन्धः - दशाश्रुतस्कन्धः दशाश्रु० दी०-सूत्रकृताङ्गसूत्रदीपिका दीपा०-सूत्रकृताङ्गसूत्रदीपिकायां निर्दिष्टं पाठान्तरम् Jain Education Intemational Jain Education Intermational Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) नन्दी ० - नन्दीसूत्रम् नि०-निर्युक्तिः पु० - ' पु० 'संज्ञकप्रतिः पु १ - 'पु १ 'संज्ञकप्रतिः पु२ - 'पु २' संज्ञकप्रतिः पुचपा०पु० संज्ञक प्रतौ पाठभेदः प्रज्ञा० - प्रज्ञापनासूत्रम् प्रशम० आ० - प्रशमरतिप्रकरणस्य आह्निकम् बृहत्कल्प० मलय० वृत्तौ - बृहत्कल्पसूत्रस्य मलयगिरिसूरिकृतवृत्तौ भग० श० भगवतीश० मु० - ' मु० ' संज्ञक प्रतिः मो०- 'मो० 'संज्ञकप्रतिः } —भगवतीसूत्रस्य शतकम् वक्ष० - वक्षस्कारः वसु० प्र० खं० लं० -- वसुदेवहिंडीप्रथमखण्डस्य लम्भकः वा० - 'वा०' संज्ञकप्रतिः विआ० - विशेषावश्यकमहाभाष्यम् वि० प० - सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य विषमपदपर्यायः विशेषप० - ( ? ) विशेषा० - विशेषावश्यकमहाभाष्यम् विस्वो० - विशेषावश्यकमहाभाष्यस्य स्वोपज्ञा टीका वृ० - सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य श्रीशीलाङ्काचार्यकृता वृत्तिः वृपा० - श्रीशीलाङ्काचार्यकृतसूत्रकृताङ्गसूत्रवृत्तौ निर्दिष्टं पाठान्तरम् वृप्र० - श्रीशीलाङ्काचार्यकृतसूत्रकृताङ्गसूत्रवृत्तेः प्रत्यन्तरे श्रमणप्रति ० - श्रमणप्रतिक्रमणसूत्रम् श्रु० - श्रुतस्कन्धः लो० - श्लोकः सन्मति ० का ० - सन्मतितर्कस्य काण्ड : समवा० - समवायाङ्गसूत्रम् सं० - 'सं० 'संज्ञकप्रतिः संस्ता० पौ० - संस्तारकपौरुषी संस्तारकप्र० - संस्तारकप्रकीर्णकम सा० - ' सा० 'संज्ञकप्रतिः सिद्ध० द्वा० - श्रीसिद्धसेनाचार्यकृता द्वात्रिंशिका सू० - सूत्रम् स्थाना० स्था० स्थानां० स्था० - स्थानाङ्गसूत्रस्य स्थानम For Private Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ णमो त्थु णं समणस्स भगवओ महइमहावीरवद्धमाणसामिस्स ॥ पंचमगणहरसिरिसुहम्मसामिवायणाणुगतं बिइयमंगं सूयगडंगसुत्तं । णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं । . ॥ पढमो सुयक्खंधो ॥ . पढमं समयज्झयणं । पढमो उद्देसओ। - ॥ॐ नमः सिद्धेभ्यः ॥ णमो अरहंताणं । णमो सिद्धाणं । णमो आयरियाणं । णमो उवज्झायाणं । णमो लोए सव्वसाहूणं । ___ मंगलादीणि सत्थाणि मंगलमज्झाणि मंगलअवसाणाणि । मंगलपरिग्गहिआ सिस्सा अवगहेहा-ऽवाय-धारणासमत्था सत्थाण पारगा भवंति, ताणि य सत्थाणि लोगे विरायंति वित्थारं च गच्छंति । तत्थाऽऽदिमंगलेण सिस्सा आरंभप्पभिति णिव्विसाता सत्थं पडिवजिऊणं अविग्घेण सत्थस्स पारं गच्छंति, मज्झमंगलेण तदेव सत्थं परिजितं भवति, अवसाणमंगलेण सिस्स-पसिस्ससंताणे पडिवाएन्ति । आह-आचार्याः! मङ्गलकरणच्छास्त्रं न मङ्गलमापद्यते, अथ चेह मङ्गलात्मकस्यापि शास्त्रस्यान्यन्मङ्गलमुच्यते अतस्त- . स्वाप्यन्यत् तस्याप्यन्यन्मङ्गलमादेयमिततोऽनवस्था, न चेदनवस्था प्रतिपद्यते ततो यथा मङ्गलमपि शास्त्रमन्यमङ्गलशून्यत्वान्न मङ्गलं तथा मङ्गलमपि अन्यमङ्गलशून्यत्वादमङ्गलमिति मङ्गलाभावः, उच्यते-यस्य शास्त्रादर्थान्तरभूतं मङ्गलं तं प्रत्येषा कल्पना भवेत् , इह त्वस्माकं शास्त्रमेव मङ्गलम् , यद् मङ्गलमुपादीयते किमत्रामङ्गलम् ? का वाऽनवस्था ? इति, नायमस्मपक्षः; किन्तु यस्यापि शास्त्रादर्थान्तरभूतं मङ्गलं तस्यापि नामङ्गलप्रसङ्गो न चानवस्था, कुतः ?, स्व-परानुग्रहकारित्वान्मङ्गलस्य, 10 प्रदीपवद् लवणादिवद्वा । आह--मङ्गलत्रयान्तराल(यं न मङ्गलमापद्यतेऽर्थापत्तितः, यदि वा इह सर्वमेव शास्त्रं मङ्गलमिति प्रतिपद्यते मङ्गलत्रयग्रहणमनर्थकम् ?, उच्यते-समस्तमेव शास्त्रं त्रिधा विभज्यते, कुतोऽन्तरालद्वयपरिकल्पनं यदमङ्गलं भवेत् ? । कथं पुनः सर्वमेव शास्त्रं मङ्गलम् ? इति चेत्, उच्यते-निर्जरार्थत्वात् , तपोवत् । आह-यदि स्वयमेव शास्त्रं मङ्गलमित्यतः किमिह मङ्गलग्रहणं क्रियते ?, उच्यते-ननूक्तं 'नैवेह शास्त्रादर्थान्तरभूतं मङ्गलमुपादीयते, किन्तु मङ्गलमिदं शास्त्रमिति केवलमुच्चार्यते' । आह-तदुच्चारणं किंफलम् ? यदि मङ्गलमिति ने सम्बध्यते किं तदमङ्गलं भवति ?, उच्यते-15 शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहार्थं तदभिधानम्, इह शिष्यः कथं शास्त्रं मङ्गलमित्येवं मङ्गलबुद्ध्या परिगृह्णीयात् ? इति, यस्माविह मङ्गलमपि मङ्गलबुद्ध्या परिगृह्यमाणं मङ्गलं भवति, साधुवत् । आह-ततः सर्वमेवेदं मङ्गलमित्येतावदस्तु नार्थो मङ्गलत्रय १ अरिहं वा० मो० ॥ २ हस्तचिह्नमध्यवर्त्ययं समग्रोऽपि चूर्णिग्रन्थसन्दर्भश्चर्णिकृता विशेषावश्यकमहाभाष्यस्खोपाटीका-तोऽक्षरश आहृतोऽस्ति ॥ ३ शास्त्रमेव मङ्गलात्मकत्वाद् मङ्गलमयमुपादीयते किम[त्रामङ्गलम् ? का वाऽनवस्था? इति इति विशेषावश्यकस्खोपज्ञटीकायां पाठः॥ ४°द्वयममङ्गल विस्खो०॥ ५न संशब्द्यते किं विखो० ॥ ६°लमित्येवं परि° विखो० ॥ Jain Education Intemational Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिति खुण्णि समलंकिय [ १ समयज्झयणे पढमो उद्देसओ बुद्धिपरिग्रहेण, उच्यते—ननु तत्रापि कारणमुक्तम्, यथैव हि शास्त्रं मङ्गलमपि सद् न मङ्गलबुद्धिपरिग्रहमन्तरेण मङ्गलं भवति, साधुवत्, तथा मङ्गलत्रयकारणमपि अविघ्नपारगमनादि न मङ्गलत्रयबुद्ध्या विना सिध्यतीत्यतस्तदभिधानमिति । मगेर्गत्यर्थस्य अलप्रत्ययान्तस्य मङ्गलमिति रूपं भवति । मन्यतेऽनेन हितमिति मङ्गलम्, ते [ अधिगम्यते ] साध्यत इति यावत् । अथवा मङ्गः धर्मः, "ला आदाने” म लातीति मङ्गलम्, धर्मोपादानहेतुरित्यर्थः । अथवा निपातनादिष्टार्थ5 प्रकृति-प्रत्ययोपादानाद् मङ्गलम् । इष्टार्थाश्च प्रकृतयः - "मकि मण्डने, मन् ज्ञानें, मदी हर्षे, मंदि मोद - स्वप्न- गतिषु, मह पूजायाम्” इति एवमादीनामलप्रत्ययान्तानां मङ्गलमित्येतन्निपात्यते । मङ्कयते अनेन मन्यते वाऽनेनेति मङ्गलमित्यादि लक्षणशास्त्रानुवृत्त्या योजनीयमिति । अथवा मां गालयति भवादिति मङ्गलम्, संसारादपनयतीत्यर्थः । अथवा शास्त्रस्य मा गलो भूदिति मङ्गलम्, गलः - विघ्नम् । मा गालो वा भूदिति मङ्गलम्, गलनं गालः, नाश इत्यर्थः । सम्यग्दर्शनादि - मार्गलयनाद्वा मङ्गलमित्यादि नैरुक्ता भाषन्त इति । [ विशेषा गा० १५ तः २४ पर्यन्तगाथानां स्वोपज्ञटीका ] तं च नामादि चतुर्विधं पि जधा आवस्तर [ चूर्णी भाग १ पत्र ५] तथा परुवेतव्वं जाव जाणगसरीरभवियसरीरवइरित्तं दव्वमंगलं दध्यक्षत-सुवर्ण-सिद्धार्थकादि । भावमंगलं पि तहेव | अथवा भावमंगलं णिज्जुत्तिकारेणं चेव वुत्तं* तित्थगरे य जिणवरे सुत्तमैरे गणधरे य णमिऊणं । सूतकडस्स भगवतो निशुद्धिं किसमिस्सामि ॥ १ ॥ 10 2. इह तीर्थकरणात् तीर्थकरा वक्ष्यन्ते । तत्र “तु प्लवन-तरणयोः” इत्यस्य तीर्थमिति दितं च नामादि चतुर्विधम् । 15 तत्थ दुव्वतित्थं मागहादि, अहवा सरिआदीगं जो अबमासो सको णिरपायो य। तिज्जति जं तेण तर्हि वा तरिज्जइति तित्थं । एवं दुव्यतित्थे पसिद्धे तरिता तरणं वरियन्त्रं च पसिद्धाणि चैव । तत्थ तारओ पुरिसो, तरणं बाहोडुवादि, तरियब्वं नदी समुद्दो वा । तं च देहादितरितव्यतारमतो दादोवसमणको वण्हाछेदणओ बज्झमलपवाहणतो अणेगंतियं अणचंतियं फक्तो य, स्वयं च द्रव्यात्मकत्वाद् द्रव्यतीर्थमुच्यते । अपि च 20 [ आव० नि० ० १०६६ पत्र ४९४ - १] तित्थकरे तित्थं ?, गोतमा ! अरहा ताव । उ भावतित्यं चवो संघो । जवो सुत्ते भगियं- “तित्थं भंते ! तित्थं ? पियमा तित्यंकरे, तित्थं पुष्प चाउव्वष्णाइण्णो संघो ।" [ भ्रम० श० २० ८ सू० ६८१ पत्र ७९२ - २ ] । तम्मि य पसिद्धे तरिता तरणं तरियां च पसिद्धानि चेव । तत्थ तरिता साधू, तरणं सम्मदंसण- णाण-चरिताणि, करितव्यं भवसमुद्दो । जो माणादिभावतो मिच्छत ऽण्णाणाऽविरक्तिभवभावेहिंतो वारयति तेण भाववित्थं ति । अथवा कोध-लोभ-कम्मरक 25 दाह- कण्हाछेद- कम्ममला वणवणमेगं विश्रमचंतियं च तेण कज्जति त्ति अलो भावतित्थं । अपि च दाहोरसमं तुहाए छेदणं मलपवाहणं चेव । विसु अत्येषु णिकुत्तं तम्हा तं दव्वतो तिथं ॥ १ ॥ 30 कोहम्मि उम्मम्महिते अतुलोबसमो भने मणूसाणं । लोभम्मि उ मिग्महिते तव्हावोच्छेदनं होति ॥ १ ॥ अट्ठकिले कम्मरको बहुएहिं भवेहिं संचितो जम्हा । तव -संजमेण घोव्वति तम्हा तं भावतो तित्थं ॥ २ ॥ अघवा इंसा-माण-चरितेहिं किन्तं निम्नरेहिं सव्वेहिं । तिहि अत्थेहिं जिउत्तं तम्हा तं भावतो तित्थं ॥ ३ ॥ [भाव० नि० ना० १०६७-६९ पत्र १९८- २] तं भाववित्थं कि वे तित्यकरे । तिव्यकरग्रहणेन अतीता - ऽणागत- वट्टमाणा सम्बतित्थकरा गहिता । जियो दिव्यजिणा भावनिया य । दृव्वजिणा जेण जं दव्वं जितं यथा जितमनेनौषधमिति, सङ्ग्रामे वा शत्रुजवाद द्रव्य करण पु० सं० ॥ २ मयते अधिगम्यते साध्यते क्खिो • ॥ ३ मदि मोद-मद-खम-गतिषु विस्को० । “मदि सुति-मोद-मद--कान्ति-गविषु" इति पापिनिवातुपाठे माधवीयधातुतौ च पत्र ४२ ॥ ४° शाख्यानु वा० मो० । शाखी या मु० ॥ ५ विनः विखो० ॥ ६-७ करे खं १ खं २५२ ॥ ८ सुतगडस्स सं १ । सूयगडस्लपु २ ॥ ९° वोचति चूसत्र - ॥ For Private Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मितिमा १] सूयगडंगसुई विडयम पढमो सुथक्खंघो। निन्न भवन्ति । भावजिन जेहिं कोध-माण-माया लोभा जिता । जिणाहप्पेण उवसामंग-वेग-सनोगिजिणा तिणि बि गहिता। पदणंवर [जेहिं सुखं सुसकतं ते गणधरा एकास्स वि । चग्गे ण सेसगणधरवसो वि सूतकडस्स ति उवरि मनिहिति । अत्थ-जस-चम्म-लच्छी-पवत्त-विभवाण छण्हमेतेसिं । मम इति सध्या सो जस्स अवि सो भष्णती मग ॥ १॥ अतो सूतकडस्स भगक्तो मिचि ति निश्चयेन-आधिक्येन सार्थादितो वा युक्ता नियुक्ताः, सम्यगवस्थिताः । श्रुताभिधेयविशेषा जीवादयः । तथाहि-सूत्रे व एव निर्युक्ताः, यत् पुनः रचनयोपनिबद्धास्वेनेयं निर्युक्तानां युक्तिः नियुक्तयुक्तिः, युक्तशब्दलोपाद् नियुक्तिः । आह-यदि सूत्र एव नियुक्तः सम्यगमस्थानात् सुखबोधा एव ते अर्थाः किमिह तेऽर्था निर्मुक्ताः ?, उच्यते-निर्युक्ता अपि सन्तः सूत्रेऽर्थाः निर्मुक्या पुनरव्याख्यानाम सर्वेऽक्बुभ्यन्ते, अतो णिझुचि कित्त यिस्सहमि परुस्सामि॥१॥ . अधवा भावमंगलं गंदी । सा वि णामादि चतुर्विधा। दवे संखबारसगवूरसंघातो। भाषणंदी पंचविध गाणं 110 "शासचिस्स माण" [उत्त० म०२८ गा०३०] मिति काऊणं दंसपमवि तदन्तर्गतं चेव, दसणान्यगं च चरिचमावि गतिं । मदिं षण्णेऊणं सुतणाणेण अधिगारो। उक्तं चएत्थं पुण अधिकारो सुतणाणे जतो सुतेणं तुसेसाणमप्पणो बिय अणुओग पदीव दिढतो॥१॥ [ व.नि. गा.७९ पत्र ५.] जतो य सुतणाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुयोगो य पवत्तति, तत्थ वि उद्देस-समुद्देस-अणुण्णातो गतातो, इह 15 तु अणुयोगेण अहियारो । सो चतुर्विधो । तं जधा-चरणकरणाणुयोगो १ धम्माणु० २ गणिमणु० ३ दुव्वाणुयोगो ४ । तत्य कालियसुयं चरणकरणाणुयोगो १ इसिमासिओत्तरज्झयणाणि धम्माणुयोग्मे २ सूस्पण्णचादि गणिताणुयोगो ३ दिडिवातो दव्वाणुजोगे त्ति ४ । अधवा दुविधो अणुयोगो--पुधत्ताणुयोगो अपुधत्तायुयोगो य । पुधत्ताणुयोगो जत्थ एते चत्तारि अणुयोगा पिहप्पिहं वक्खाणिजति । अपुहत्ताणुजोगो पुण जं एकेकं सुत्तं एतेहिं चतुहिं वि अणुयोगेहिं सत्तहि य णयसतेहिं वक्खाणिज्जति । केचिरं पुण कालं अपुधत्तं आसि ?, उच्यतेजावंति अजवहरा अपुधत्तं कालियाणुयोगस्स । तेणाऽऽरेण पुधत्तं कालियसुत दिहिवाते य ॥१॥ [माव. नि० गा० ०६३ पत्र २८५-२] केण पुण पुधत्तं कतं ?, उच्यतेदेविदेवंदितेहिं महाणुभागेहिं रक्खितजेहिं । जुगमासज्ज विभत्तो अणुयोगो तो कतो चतुधा ॥१॥ . [भाव. नि० गा० ७७४ पत्र २९६-१] 25 अजरक्खितउट्ठाण-पारियाणियं परिकघेऊण समिततिय विझं च विसेसेऊणं नहा य पुधन्ती कता तधा भाणिऊण चायोगेण अधिकारो । सो पुण इमेहिं दारेहिं अणगंतव्वो। तं जधा णिक्खेवे १ गट्ठ २ मिरुत्त ३ विधि ४ पवत्ती ५ य केण वा ६ कस्स ७ । तदार ८ भेद ९ लक्खण १० तदरिहपरिसा ११ य सुत्तत्थो १२ ॥१॥ [कल्पमाष्ये ना. १४९ पत्र १] 30 तत्थ णिक्खेवो णासो णामादि । एगढियाणि सक-पुरंदरवत् , ताणि पुण सुत्तेगट्ठियाणि अत्येगहिताणि य । णिच्छित-, मुत्तं णिरुतं, णिज्वयणं वा णिरुतं, तं पुण अत्थणिरुत्तं सुत्तणिरुत्तं च। विधी काए विधीए सुणेतव्वं ? । पवत्ती कधं अणुयोगो पबत्तति।केवंविधेण आचार्येण अत्थो वत्तव्यो? । एताणि दाराणि जया आयारे कप्पे [भाष्य गा० १४९ तः ८०५] १°मगखजग-सजों मु०॥ २ सुत्तं सुकतं चूसप्र० ॥ ३ सूत्रत एव पु० विना ॥ ४ आर्यरक्षितस्थविराणां पुष्यमित्रविकास विन्ध्यस्य च चरितं आवश्यकचूर्णि भाग १ पत्र ४०१, आव० हार इत्ति पत्र ३०० मध्ये द्रष्टव्यम् ॥ ५ दुर्बलिका पुष्यमित्रः घृतपुष्पमित्रः वस्त्रपुष्यमित्रश्चेतिनामानस्त्रयः स्थविराः पुष्यमित्रत्रिकत्वेन ख्याति प्राप्ताः ॥ Jain Education Intemational Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ક णिजुत्ति- चुण्णिसमलं कियं [ १ समयज्झयणे पढमो उद्देसओ वा परूविताणि तधा परुवेतव्त्राणि । जाव एवविधेण आयरिएण कस्स अत्थो वत्तव्वो ? त्ति, उच्यते सव्वस्सेव सुतणाणस्स, वित्थरेण पुण सुत्तकडस्स, जेणेत्थ परसमयदिट्ठीओ परुविज्जंति । कस्स त्ति वत्तव्वे जति सूतकडस्सा अणुयोगो सूतकडं णं किं अंगं अंगाई ? सुतक्खन्धो सुतक्खन्धा ? अज्झयणं अज्झयणा ? उद्देसो उद्देसा ?, उच्यते - सूयगडं णं अंग णो अंगाई, णो सुयक्खंधो सुयक्खंधा, णो अज्झयणं अज्झयणा, णो उद्देसो उद्देसा, तम्हा सुत्तं णिक्खिविस्सामि, कडं 5 णिक्खिविस्सामि, सुतं णिक्खिविरसामि, खंधं णिक्खिविस्सामि, अज्झयणं णिक्खिविस्सामि, उद्देसं णिक्खिविस्सामि ॥ * सुंत्तकडं अंगाणं 'बितियं तस्स य इमाणि णामाणि । सूतकडं सुत्तकडं सूयगडं चेव गोण्णाई ॥ २ ॥ सुअपुरुसस्स बारसंगाणि मूलत्थाणीयाणि । सेससुतक्खंधा उवंगाणि, कलाच्यङ्गुष्ठादिवत् । तेसिं बारसहं अंगाणं एतं बितियं अंगं । णामाणि एगट्टियाणि इन्द्र-शक्र - पुरन्दरवत् । तं जधा – सूतकडं ति वा सुत्तकडं ति वा सूयकडं ति वा । 10 णामं पुण दुविधं गोणं इतरं च । गुणेभ्यो जायं गौणम्, जधा तवतीति तवणो, जलतीति जलणो एवमादि, तत्येताणि एगट्ठियणामाणि गोण्णातिं । तत्थ सूतकडं - " षूङ् प्राणिप्रसवे" सो पसवो दुविधो—दव्वे भावे य, द्रव्यपसवो स्त्रीगर्भप्रसववत्, भावप्रसवो गणधरेभ्य इदं प्रसूतम्, अधवा "अत्थं भासति अरहा ०" [ आव० नि० गा० ९२ पत्र ६८- २ ] ततः सूत्रं प्रसवति । सुत्तकड त्ति यथा - गृहवास्तुसूत्रवत् तदनुसारेण कुड्यं क्रियते, कटुं वा सुत्ताणुसारेण करवत्तिज्जत्ति, भावसूत्रेण तु सूत्रानुसारेण निर्वाणपथं गम्यते । सूतकडं णामादि चतुर्विधम्, वइरित्ता दव्वसूयणा जधा लोए सूयग-लग-वरूवगा, 15 लोहसूयगादी वा दव्वसूयगा । भावे इमं चेव खयोवसमिए भावे ससमय परसमयसूयणामेत्तं ॥ २ ॥ अधवा सुत्तं णामादि चतुर्विधम् । तत्थ दव्वसुत्ते इमा णिज्जुत्तिअद्धगाथा - * दव्वं तु पोर्डगादी भावे सुत्तमह सूयगं णाणं । 1 दव्वत्तं अंडजं १ पोंडजं २ कीडजं ३ वागजं ४ वालजं ५ । से किं तं अंडजं ? हंसगब्भादि ९ पोंडजं कप्पासादी २ कीडजं कोसियादि ३ वागजं सण-अयसिमाती ४ वालजं उहियादि ५ । भावे इमं चेव भवति । सूयगं णाम णाणं, 20 णाणं णाणेण चैव सूइज्जइ । अधवा इमेण णाणेणं णाणाणि य अण्णाणाणि य सूइज्जंति, तं पुण जधा - "बुज्झिज्ज तिउ - हिज्ज" [सू० गा० १] त्ति ॥ तं सूत्रं चतुर्विधम् * सण्णा संग्रह 'वित्ते जातिणिबद्धे य कत्थादि ॥ ३ ॥ तत्थ सण्णासुत्तं तिविधं - ससमए परसमए उभये त्ति । ससमए ताव — विगिती" पढमिया, "जे छेए सागारियं ण से सेवे" [ आचा० श्रु० १ अ० ५ उ० १ सू० १] " सव्वामगंधं परिण्णाय णिरामगंधो परिव्वए ।" [ आचा० श्रु० १ ० 25 २ उ० ५ सू० २ ] एवमादीणि । परसमए यथा - पुद्गलो संस्काराः क्षेत्रज्ञः सत्ता । उभये - जं ससमए परसमए य संभवति । सङ्ग्रहसूत्रमपि यथा— द्रव्यमित्याकारिते सर्वद्रव्याणि सङ्गृहीतानि, तद्यथा - जीवा - ऽजीवद्रव्याणीति, जीव त्ति संसारत्था असंसारत्था य सव्वे संगहिता, अजीव त्ति सव्वे धम्मत्थिकायादयो । "वित्ते जातिणिबद्धं सुतं जाव वृत्तबद्ध सिलोगादिबद्धं वा । तं चउव्विधं, तं जधा — गद्यं पद्यं कथ्यं गेयम् । गद्यं चूर्णिग्रन्थः ब्रह्मचर्यादि [ वा ] । पद्यं गाँधासोलसगादि । कथनीयं कथ्यम्, जधा उत्तरज्झयणाणि इसि भासिताणि णायाणि य । गेयं णाम यद् गीयते सरसंचारेण, जधा काविलिजे । "अधुवे असासयम्मी संसारम्मि दुक्खपउराए । " 30 [ उत्त० अ० ८गा० १] ॥ ३ ॥ १ सूयगड खं १ ख २ पु २ ॥ २ बीयं खं १ ॥ ३ सूयगड सुत्तगडं सूयगडं खं १ ख २ पु २ ॥ ४ सूयाकडं इति वाच्ये सूयकडं इति ह्रस्वता बन्धानुलोम्यात्, “नीया लोवमभूया य आणिया दीह-बिंदु-दुब्भावा ।” इत्यादिवचनात् तथा च न पर्यायैक्यम् ॥ ५ गुणाणि खं १ ॥ ६ पुंडगाई खं १ | बोंडयादी पु २ ॥ ७ सुत्तमिह खं १ खं २ पु २ बृ० ॥ ८ उट्टियादि मु० ॥ ९ वित्ती जाति णिबंधे य कच्छादि चूसप्र० ॥ १० विगती वा० मो० ॥ ११ वित्तिजा° चूसप्र० ॥ १२ आचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धः, उत्तराध्ययनसूत्रसत्कं षोडशं ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानाख्यमध्ययन पूर्वार्धं वा ॥ १३ सूत्रकृताङ्गसूत्रप्रथमश्रुतस्कन्धादीत्यर्थः ॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जत्तिगा०२-६] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। एवं सुयं गतं भवति । इदाणिं वितियं पयं कडे त्ति । तत्थ गाधा करणं च कारगो या कडं च तिण्हं पि छक्क णिक्खेवो । दव्वे खेत्ते काले भावेण उ कारगो जीवो ॥४॥ करणं च कारगो या कडं च० गाधा । तत्र कट इत्याकारिते कर्ता करणं कार्यमित्येतत् त्रितयमपि गृह्यते । तत्थ कारगो कडं च अच्छंतु, करणं ताव भणामि । तं करणं णामादि छव्विधं । णामकरणं जस्स करणमिति णामं, अधवा । णामस्स णामतो वा जं करणं तं णामकरणं भण्णति । ठवणाकरणं करणणासादिअक्खणिक्खेवो, जो वा जस्स करणस्स आकारविसेसो त्ति । दव्वस्स दव्वेण वा दव्वम्मि वा जं करणं तं दव्यकरणं ति । तं दुविहं-आगमओ य णोआगमओ य । आगमओ जाणए अणुवउत्ते । णोआगमओ जाणगसरीरभवियसरीरवतिरित्तं दुविधं-सण्णाकरणं नोसण्णाकरणं च । तत्थ सण्णाकरणं अणेगविधं, जम्मि जम्मि दव्वे करणसण्णा भवति तं सण्णाकरणं, तं जधा-कडकरणं अद्धाकरणं पेलुकरणादि। सण्णा णाममेव तव मती होज तं ण भवति, जम्हा णामं जं वत्थुणोऽभिधाणं ति, जं वा तदत्थविगले णामं कीरति, यथा 10 भृतकस्य इन्द्र इति णामं, दव्वलक्खणं तु ट्रैवति द्रूयते वा द्रव्यम् , द्रवति-स्वपर्यायान् प्राप्नोति क्षरति चेत्यर्थः, द्रूयतेगम्यते तैस्तैः पर्यायविशेषैः । अधवा गच्छति ताँस्तान पर्यायविशेषानिति द्रव्यम् । पेर्लंकरणादीति पुण ण तदत्थविहूणं, ण सद्दमेत्तं ति भणितं होति । आहजइ ण तदत्थविहीणं तो किं दव्वकरणं ? जतो तेण । दव्वं कीरति सण्णाकरणं ति य करणरूढीतो ॥१॥ [विशेषा० गा० ३३०६] 15 आह-जति तदत्थविरहितं ण भवति तो किं दव्वकरणं भण्णति ? भावकरणमेव भवतु, उच्यते-जतो तेण दव्वं कीरति, जहा पेलुओ णाणियाओताओ कीरंति, एवमादि सण्णाकरणं ति य करणरूढीतो ॥४॥ इदाणिं णोसण्णाकरणं, तत्थ णिज्जुत्तिगाधा * दव्वे पओग वीसस पयोगसा मूल उत्तरे चेव । उत्तरकरणं वंजण अत्थो उ उवक्खरो सव्वो ॥५॥ णोसण्णादव्वकरणं दुविधं-पयोगकरणं विस्ससाकरणं च ।पयोगकरणं दुविधं-जीवपयोगकरणं अजीवपयोगकरणं च। होति पयोगो जीवव्वावारो तेण जं विणिम्माणं । सज्जीवमजीवं वा पयोगकरणं तयं बहुहा ॥१॥ 20 २ तत्थ जीवप्पयोगकरणं दुविधं—मूलप्पयोगकरणं उत्तरप्पयोगकरणं च । मूले करणं मूलकरणं, आद्यमित्यर्थः । उत्तरओ करणं उत्तरकरणं, संस्करणादित्यर्थः । अधवा उत्तरकरणस्स अत्यो णिज्जुत्तिगाधाचतुत्थपादेण भण्णति—अत्थो उ उवक्खरो 25 सव्वो, उवकारीत्यर्थः, येन वा कृतेन तद् मूलकरणं अभिव्यज्यते, उवकारसमर्थ भवतीत्यर्थः, यथा हस्त इति कलाचि-अँगुलतलोपतलसमुदयः, तस्य उक्खेवणादि उत्तरकरणं, अधवा संडासयं करेति मुहिँ वा । अधवा सर्वा एव शरीरगर्भता मूलकरणम् , उत्तरकरणं तु चक्रमणादि ॥ ५ ॥ अथवा ___ मूलकरणं सरीराणि पंच तिसु कण्ण-खंधमादीयं ।। दव्विंदियाणि परिणामियाणि विस-ओसधादीहिं ॥ ६ ॥ मूलकरणं सरीराणि पंच० गाधा । ओरालियादीणि पंच सरीराणि मूलकरणं । उत्तरकरणं जं णिप्फण्णातो 30 : १ वा खं 1॥ २ अत्र व्यावर्ण्यमानकरणखरूपातिबहुसमानं करणखरूपव्याख्यानं आवश्यकसूत्रचूर्णौ भाग १ पत्र ५९५ तः ६०१ मध्ये तथा उत्तराध्ययनसूत्रचूर्णौ पत्र १०३ तः १०८ मध्ये द्रष्टव्यम् ॥ ३ द्रवते पु० सं० ॥ ४ “पेलुकरणादि लाटविषये सतप्राणिका, महाराष्ट्रविषये सैव पेलरित्युच्यते” विस्खो० ॥ ५ अत्थो तदुवक्खरो ख १ ॥ ६ अङ्गुष्ठतलों पु० विना ॥ ७ विविहोसहाईसु ख १॥ Jain Education Intemational Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्ति-चुषिणसमलंकियं [१ समयज्झयणे पढमो उद्देशको णि फज्जति । तं च एतेसिं चेव ओरालिय-वेउब्विया-ऽऽहारयाणं तिण्हं उत्तरकरणं, सेसाणं णत्थि । ओरालियादीणं तिण्हं मूलकरणं अटुंगाणि, अंगोवंगाणि उबंगाणि च उत्तरकरणं । ताणि च तं जधा सीसं उरो य उदरं पट्ठी बाहा य दो य ऊरूओ । एते अटुंगा खलु सेसाणि भवे उबंगाणि ॥ १॥ होति उबंगा अंगुलि कण्णा ण्ासा य पैजणणं चेव । पह केस दंत मंसू अंगोवंगेवमादीणि ॥ २ ॥ 5 अघवा ओरालियस्सेवेगस्स इमं उत्तरकरणं-दंतरागो कण्णवद्धणं णह-केसरागो खंधं वायामादीहिं पीणितं करेति, एतं ओरालियस्स । वेउव्विए उत्तरकरणं उच्चरवेउव्वियं रूवं विउव्वति।आधारए णत्थि एताणि, इमं वा–आहारगस्स गमणादीणि। अधवा पंचेंदियाणि (दन्बिदियाणि) सोइंदियादीणि मूलकरणं, सोइंदियं कलंबुगापुप्फसंठितं एयं मूलकरणं, उत्तरकरणं तु कण्णवेह-वालाईकरणादि । अथवा यदुपहतस्योपकरणस्य तदुपकारित्वाद् य उपक्रमः क्रियते विसेण ओसघेण वा । एवं सेसाणं पि। यावन्तीन्द्रियाणि सैन्ताणि शोभानिमित्तं अर्थोपलब्धिनिमित्तं वा उत्तरगुणतो निवर्तयति । शोभा वर्ण-स्कन्धादि, अर्थोप10 लब्धिस्तु बाधिर्य-तिमिर-असुप्त्यादीनामुपक्रमतः पुनः स्वस्थकरणम् । अथवा दबिन्दियाणि परिणामियाणि विसेण अगदेण वा वर्ण-उपयोगघाताय भवन्ति, अथवा विसमेव विधिणा उपजुज्जमाणं रसायणीभवति । औषधप्रामाश्च ये शरीरोपकारिणः पथ्यभोजनक्रियाविशेषाः सर्व एव वाऽऽहारः, अथवा स्वरभेद-वर्णभेदकरणानि ॥६॥ इदानीं एतेसिं चेव पंचण्हं सरीराणं तिविधं करणं भवति । तं जधा-संघायणाकरणं परिसाडणाकरणं संघायपरिसाडणाकरणं । तेया-कम्माणं संघातणवजं दुविधं करणं। एताणि तिण्णि वि करणागि कालतो मग्गिजति–तत्थोरालियसंघात15 करणं एगसमयियं जं पढमसमयोववण्णगस्स, जधा तेल्ले ओगाहिमओ छूढो तप्पढमताए आदियति, सेससमएसु णेहं गिण्डड वि मंचइ वि, एवं जीवो वि उववज्जतो पढमे समए एगंतसो गेहति ओरालियसरीरपाउग्गाणि दव्याणि, ण पुण किंचि वि मुयति । परिसाडणा वि समओ चेव, सो मरणकालसमए एगंतसो चेव मुंचति । मज्झिमे काले किंचि गेण्हति किंचि मुंचति, सो जहण्णेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयूर्ण, उक्कोसेणं तिणि पलिनोवमाणि समयूणाणि । किह पुण खुडागभवग्गहणं तिसमयूणं भवति ?, उच्यते दो विग्गहम्मि समया समयो संघातणाए तेहूणं । खुड्डागभवग्गणं सव्वजहणो ठितीकालो ॥१॥ उक्कोसो समयूणो जो सो संघातणासमयहीणो । किह ण दुसमयविहीणो साडणसमएऽवणीतम्मि ? ॥२॥ भण्णति भवचरिमम्मि वि समए संघाय-साडणा चेव । परभवपढमे साडणमतो तदूणो ण कालो त्ति ॥ ३ ॥ जदि परपढमे साडो णिव्विग्गहतो य तम्मि संघातो। णणु सव्यसाड-संघातणाओ सँमए विरुद्धाओ॥४॥ उच्यते25 जम्हा विगच्छमाणं विगतं उप्पज्जमाणमुप्पण्णं । तो परभवादिसमए मोक्खा-ऽऽदाणाण ण विरोधो ॥५॥ चुतिसमए णेहभवो इह देहविमोक्खतो जहाऽतीते । जइ ण परभवो वि तहिं तो सो को होउ संसारी ? ॥ ६॥ णणु जध विग्गहकाले देहाभावे वि परभवग्गहणं । तह देहाभावम्मि वि होजेहभवो वि को दोसो ? ॥ ७ ॥ जंचिय विग्गहकाले देहाभावे वि तो परभवो सो। चुतिसमए उ ण देहो ण विग्गहो जइ स को धोतु ॥ ८॥ इदाणिं अंतरं30 संघातंतरकालो जहण्णओ खुड्डयं तिसमयूणं । दो विग्गहम्मि समया ततिओ संघातणासमयो ॥ ९॥ तेहणं खुडभवं धरितुं परभवमविग्गहेणेव । गंतूण पढमसमए संघातयतो स विण्णेयो॥ १०॥ १ इयं गाथा अंगोवंगाई सेसाई इति चतुर्थचरणपाठभेदेन उत्तराध्ययननिर्युक्तौ १५२ तमी १८९ तमी च वर्त्तते ॥ २"होति उवंगा कष्णा गासऽच्छी हत्थ जंघ पाया य । गह केस मंसु अंगुलि ओट्ठा खलु अंगुवंगाई ॥” उत्त० पाइ० पत्र १४३-२॥ ३ पययणं चूसप्र०॥ ४ आहारके इत्यर्थः । ५ सतानि शोभा पु• सं०॥ ६°पणा ठिती कालो पु० सं०॥ ७समयं उत्तचू०॥ ८ जइ विह विग्ग वा० मो० ॥ ९भोतु मु. । चोतु चूसप्र० । 'धोतु' भवतु इत्यर्थः, होतु इत्यत्र हस्य धविधानाद् रूपनिष्पत्तिः॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिजुतिगा० ७-८] सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। उक्कोसो तेत्तीसं समयाहियपुव्वकोडिअहियाई। सो सागरोवमाइं अविमगहेणेघ संघातं ॥ ११ ॥ काऊण पुत्रकोडिं धरि सुरजेट्टमायुगं तत्तो । भोत्तूण इहं ततिए समए संघातयंतस्स ॥ १२ ॥ [विशेषा० गा० ३३१८-२९] इदाणिं वेउव्वियस्सवेउन्स्यिसंघायो समओ सो पुण बिउवणादीए । ओरालियाणमधवा देवादीणाऽऽदिगहणम्मि ॥ १॥ उक्कोसो समयदुर्ग जो समयविउबिओ मतो बितिए । समए सुरेस वञ्चति णिव्विग्गहतो य तं तस्स ॥ २ ॥ उभयं जहण्ण समयो सो पुण दुसमयविउब्बियमतस्स । परमतराई संघातसमयहीणाई तेत्तीसं ॥ ३ ॥ [विशेषा० गा० ३३३३-३५] वेउवियपरिसाडणकालो वि समय एव । इदाणिं अंतरं-वेउव्वियसरीरसंघातंतरं जहण्णेणं एगसमयं, सो पढमसमयविउव्वियमयस्स विग्गहेण ततिए समए वेउव्विएसु देवेसु संघातेंतस्स भवति, अधवा ततियसमयवेउव्वियमतस्स अविग्गहेणं 10 देवेसु [ संघातेंतस्स] | संघात-परिसाडणंतरं जहण्णेणं समय एव, सो पुण चिरविउव्वितमतस्स देवेसु अविग्गहेणं संघातेंतस्स भवति । साडस्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं । तिण्ड वि एतेसिं अंतरं उक्कोसेणं अणंतकालं वणस्सतिकालो । इदाणिं आहारगस्सआहारे संघातो परिसोडग य समयं समं होति । उभयं जहण्णमुक्कोसयं च अंतोमुहुत्तस्स ॥ १॥ बंधण-साडुभयाणं जहण्णमंतोमुहुत्तमंतरणं । उक्कोसेण अवई पोग्गलपरियट्ट देसूणं ॥ २॥ 15 तेया-कम्माणं पुण संताणाणादितो ण संघातो । भव्वाण होज साडो सेलेसीचरिमसमयम्मि ॥ ३ ॥ उभयं अणादिमिहणं संतं भव्याण होज केसिंच । अंतरमणादिभावादचन्तविओगतो मासं ॥४॥ [आवभाष्ये. मा० १७०-१७३ पत्र ४६१-६२ विशेषा. मा० ३३३९-४०] ॥६॥ जीवमूलप्रयोगकरणं गतं । इदाणिं जीवउत्तरप्पयोगकरणं । तत्थ गाधा * संघातणा य परिसाडणा य मीसे तघेव पडिसेहो। पड संख सगड धूगाउड-तिरिच्छाण करणं तु॥७॥ तत्थ संघायणाकरणं जघा पडो तंतुसंघातेण णिव्वत्तिजति । परिसाडणाकरणं जधा संखगं परिसाडणाए णिव्वत्तिजति । संघातपरिसाडणाकरणं जधा सगडं संघातणाए पडिसाडणाए य णिव्यत्तिज्जति । णेव संघातो व परिसाडो जधा थूणा उडा तिरिच्छा कीरति ॥ ७ ॥ जीवउत्तरकरणं गतं । जीवपयोगकरणं सम्मत्तं । इदाणिमजीवप्पयोगकरणंजं जं णिज्जीवाणं कीरति जीवप्पयोगतो तं तं । वण्णाति रूवकम्मादि वा वि तमजीवकरणं ति ॥ १ ॥ 25 [विशेषा. गा० ३३४२] वण्णकरणादि जहा वत्थाणं कुसुंभरागादि कजंति । स्वकम्माति व ति कट्ठकम्मादिरूवा कजंति । अजीवप्पयोगकरणं गतं । पयोगकरणं परिसमाप्तम् । इदाणिं विस्ससाकरण-विस्रसेति कोऽर्थः ?, वि-विपर्यये अन्यथाभाव इत्यर्थः, अथवा "सृ गतौ” विविधा गतिविलसा । एत्थ गिजुत्तिगाथा * 'खंघेसु अ दुपदेसादिएसु अब्भेसु विजमातीसु । णिप्फावगाणि दब्वाणि जाणि तं वीससाकरणं ॥८॥ 30 १°हतो तयं तस्स विआ० । °हतो य जं तस्स उत्तचू० ॥ २ साडो य आव० भाष्ये ॥ ३ संघायणे य परिसाडणे य खं १॥ ४°च्छादिकरण च खं १ खं २ पु २ वृ०॥ ५गाथेयं उत्तराध्ययननिर्युक्तौ १८७ तमी पत्र १९६-२ ॥ ६ अब्मेसु अब्भरुक्खेसु उत्तनि । अब्भेसु विज्जुमातीसु इति पाठभेदोऽपि उत्त० पाइयवृत्तौ निर्दिष्टोऽस्ति ॥ ७ निप्फण्णगाणि खं १ ख २ पु २ उत्तवि०॥ Jain Education Intemational Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१ समयज्झयणे पढमो उद्देसओ तं विस्ससाकरणं दुविधं-सादीयं अणादीयं च । अणादीयं जधा धम्मा-ऽधम्मा-ऽऽगासाणं अण्णोण्णसमाहाणं ति । णणु करणमणादीयं च विरुद्ध भण्णती ण दोसोऽयं । अण्णोण्णसमाधाणं जमिधं करणं ण णिव्वत्ती ॥१॥ [विशेषा० गा० ३३०९] अधवा परपञ्चयादुपचारमानं करणम् , यथा—गृहमाकाशीकृतम् , उत्पन्नमाकाशं विनष्टं गृहम् , गृहे उत्पन्ने विनष्ट5माकाशम् । इदाणिं सादीयं विस्ससाकरणं, तं दुविधं-चक्खुफासियं अचक्खुफासियं च । जं चक्खुसा दीसति तं चक्खुफासियं, तं०-अब्भा अब्भरुक्खा एवमादि । चक्खुसा जं ण दीसति तं अचक्खुफासियं, जधा दुपदेसियाणं परमाणुपोग्गलाणं एवमादीणं जं संघातेणं भेदेणं वा करणं उप्पज्जति तं ण दीसति छउमत्थेणं ति तेण अचक्खुफासियं । बादरपरिणतस्स अणंतपदेसियस्स चक्खुफासियं भवति । तेसिं दसविधो परिणामो, तं जधा बंधण १ गति २ संठाणे ३ भेदे ४ गंध ५ रस ६ वण्ण ७ फासे य ८ । अगुरुअलहुपरिणामे ९ दसमे वि य सद्दपरिणामे १०॥ १॥ 15 बंधणपरिणामे दुविधे पण्णत्ते-णिद्धबंधणपरिणामे य लुक्खबंधणपरिणामे य ।। निर्द्धस्स निद्धेण दुआहिएणं लुक्खस्स लुक्खेण दुआहिएणं । णिद्धस्स लुक्खेण उवेति बंधो जधण्णवज्जो विसमो समो वा ॥ १॥ समणिद्धताए बंधो ण होति समलुक्खताए वि ण होइ । वेमायणिद्ध-लुक्खत्तणेण बधो तु खंधाणं १ ॥ २ ॥ [प्रज्ञा० पद १३ सू० १८५ पत्र २८८] गतिपरिणामो तिविहो उक्कोस जहण्ण मज्झिमो चेव । लोगंता लोगंतं गमणं एगेण समएणं ॥३॥ तध य पदेसि पदेसा जहण्ण समएण होति संकंती । अजहण्णमणुकोसो तेण परं खेत्त काले य ॥४॥ एमेव य गंधाणं (खंधाणं) गतिपरिणामो जहण्णमुक्कोसो । कालो जहण्ण तुल्लो उक्कोसेणं असंखेजो ॥५॥ समयादी संखेजो कालो उक्कोसएण उ असंखो। परमाणू-खंधाण य ठितीय एवं परीणामो २ ॥६॥ ___ परिमंडले १ य बट्टे २ संसे ३ चउरंस ४ आयते ५ चेव । संठाणे परिणामो सहऽणित्थत्थेण ६ छ ब्भेदा॥ ७ ॥ पयर-घणा सव्वेसी सेढी सूदी य आयतविसेसो । सव्वेते [खलु] दुविहा पदेसउक्कोसग-जहण्णा ॥८॥ माण परिमंडलस्स उ सव्वेसि जहण्णमोय-जुम्मगमा। उक्कोस जहण्णं पुण पदेसओगाहणकमेण ॥ ९ ॥ गंतपदेसकोसं तह य मसंखप्पदेसमोगाढं। वीसा चत्तालीसा परिमंडले दो जहण्णगमा ॥ १० ॥ पंचग बारसगं खल सत्त य बत्तीसगं च वट्टम्मि । तिय छक्कग पणतीसा चत्तारि य होहि (होति) तंसम्मि ॥११॥ णव चेव तहा चउरो सत्तावीसा य अट्ट चउरंसे । तिग दुग पण्णर छकं पणयाला बार चरिमस्स ।। १२ ॥ एसो संठाणगमो पएसओगाधणापडिदिहो। दुगमादीसंयोगे हवति अणित्थत्थसंठाणं ३ ॥ १३ ॥ भेदस्स तु परिणामो संघात-वियोयणेण दव्वाणं । संघातेणं बंधो होदि वियोगेण भेदो त्ति ॥ १४ ॥ भेदेण सुहम खंधो संघातेणं च बादरो खंधो। सुहमपरिणाममीसकमेण भेदेण परमाणू ॥ १५ ॥ अध बादरो उ खंधो चक्खुद्देसे य णंतगपदेसो । संघात-भेद-मीसग पड-संखय-सगडओवम्मा ॥ १६ ॥ खंडग पयरग चुण्णिय अणुतडि उकारिया य तध चेव । भेदपरिणामो पंचध णायव्वो सव्वखंधाणं ॥ १७ ॥ 25 १एतद् बन्धस्वरूपं किञ्चित् समानरूपेण किञ्चिच्च रूपान्तरेण व्यावर्णितं उत्तराध्ययनचूर्णी वर्तते, पत्र १७-१८॥ २कालो पु०॥ अमान परि पु० सं० ॥ ४ मकारोऽत्र उभयत्र अलाक्षणिकः, असङ्ख्यप्रदेशावगाढमित्यर्थः ॥ ५ ओगाधणा अवगाहना इत्यर्थः । ६ अनित्थंस्थसंस्थानम् ॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्तिगा० ९-१०] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंग पढमो सुयक्खंधो। खंडेहिं खंडभेदं 'पतरसभेदं जधऽब्भपडलस्स। चुण्णं चुण्णियभेदं अणुतडितं 'वंससकलं तं (व)॥१८॥ बुंदसि सयारोहे भेदे उकारियाए उक्कारं । वीसस पयोग मीसग संघात वियोग विविधगमो ४ ॥ १९॥ __ 'जति कालगमेगगुणं सुक्किलयं पि य हवेज बहुयगुणं । परिणामिजति कालं सुक्केण गुणाधियगुणेण ॥ २० ॥ जति सुकिलमेगगुणं कालगदव्यं तु बहुगुणं जति य । परिणामिजति सुक्कं कालेण गुणाहियगुणेणं ॥ २१ ॥ जति सुकं एगगुणं कालयदव्वं पि एगगुणमेव । कावोयं परिणामं तुल्लगुणं तेण संभवति ॥ २२ ॥ एवं पंच वि वण्णा संजोएणं तु वण्ण परिणामे । एगत्तीसं भंगा सव्वे वि य वण्णपरिणामे ५॥ २३ ॥ एमेव य परिणामो गंधाण रसाण तध य फासाणं । संठाणाण य भणिओ संजोएणं बहुविकप्पो ६-७-८ ॥ २४ ॥ अगरुलहपरिणामो परमाणदारब्भ जाव असंखेजपदेसिया खंधा । सुहमपरिणया वि खंधा अगरुलहगा चेव ९। तत वितते घण सुसिरे भासाए मंद-घोर-मिस्सा य । सहस्स वि परिणामा एवमणेगा मुणेयव्वा १० ॥ २५॥ छाया य आतवो या उज्जोतो तध य अंधगारो य । एसो वि पोग्गलाणं परिणामो फंदणा जा य ॥ २६ ॥ 10 सीता णादिपगासा छाया णायव्विया, बहुविकप्पो । उण्हो पुण पगासो णायव्यो आयवो णामं ।। २७ ॥ ण वि सीतो ण वि उण्हो समो पगासो य होति उज्जोतो। कालमइलं तमं पि य वियाण तं अंधयारं ति ॥ २८ ॥ दैव्वस्स [य चलण-प्फंदणाउ सा पुण गति ति णिहिट्ठा । वीसस पयोग मीसा अत्त परेणं उभयतो वि ॥ २९ ॥ अभ्रेन्द्रधन्वादीनां च परिणामकरणं ॥ ८ ॥ दव्यकरणं गतं । इदाणिं खेत्तकरणं ण विणा आगासेणं कीरति जं किंचि खेत्तमागासं । वंजणपरियावण्णं उच्छुकरणमादियं बहुहा ॥९॥ ण विणा आगासेणं० गाधा । यत् किञ्चिदिति उत्क्षेपणा-ऽपक्षेपणादि घटादिकरणा-ऽकरणादि च न क्षेत्रमन्तरेण क्रियते । क्षेत्र आकाशम् तस्स करणं नत्थि तधावि वंजणपरियावण्णं उच्छुकरणं सालिकरणं, जधा वा साधूहिं अच्छमाणेहिं खेत्तीकतो गामो णगरं वा, जम्मि वा खेत्ते करणं कीरति भणिजति वा ॥९॥ कालकरणं ति कालो जो जावतियो ज कीरइ जम्मि जम्मि कालम्मि । ओहेण णामतो पुण करणे एक्कारस भवंति ॥१०॥ कालो जो जावतियो० गाधा । जावता कालेणं क्रियते, यस्मिन् वा काले क्रियते, एवं ओहेण । णामतो पुण इमे एक्कारस करणे बवं च बालवं चेव कोडैवं थीविलोयणं । गराइ वणियं विट्ठी सुद्धपडिवए णिसादीया ॥ १॥ पक्खतिधयो दुगुणिता जोण्हे दो सोधये ण पुण काले । सत्तहिए देवसियं तं चिय रूवाहियं रत्तिं ॥ २ ॥ "सुचराऽष्टदिवैकर पूर्णदिवा, कृतरा सदिवा दर भूतदिवा ।” एतेसु विट्ठी । 25 १पयरम्भेयं वृ०॥ २ वंसवक्कलियं वृ०॥ ३ दुंदुम्मि समारोहे वृ० । 'दुंदुम्मि' शुष्कतडागे इति सागरानन्दाः । “बुंदसि' इति काष्ठघटनो बुन्दः” इति सूत्रकृताङ्ग वि०प०॥ ४ इत आरभ्य गाथापञ्चकं उत्तराध्ययनचूर्णावपि वर्तते पत्र १८॥ ५ परमाणुत आरभ्य इत्यर्थः ॥ ६ नातिप्रकाशा छाया ज्ञातव्या ॥ ७दव्वस्स चलण-पप्पंदणाउ वृ०॥ ८करणा एक्कारस खं २ पु २। करणाणेकारस खं १॥ ९ दशमगाथानन्तरं चूर्णिकृताऽनङ्गीकृतं वृत्तिकृता शीलाङ्केन च व्याख्यातं नियुक्तिगाथात्रिकमधिकं नियुक्त्यादर्शेषूपलभ्यते । तच्चेदम् बवं च बालवं चेव कोलवं थीविलोयणं । गरादि वणिय चेव विट्ठी हवति सत्तमा॥ सउणि चउप्पय नागं किंच्छुग्धं च करणं भवे एयं । एते चत्तारि धुवा करणा सेसा चला सत्त ।। चाउद्दसिरत्तीए सउणी पडिवजए सया करणं । तत्तो अहक्कम खलु चउप्पया नाग किंच्लुग्धं ॥ सा० कोलवं थीविलोयणं स्थाने कोलवं तेत्तिलं तहा इति पाठो वर्तते ॥ १०कोडिवं वा० मो०॥ ११ अस्यायमर्थः-सु शुक्लपक्षे च चतुर्थ्यां रा रात्रौ, अष्ट अष्टम्यां दिवा दिने, एक एकादश्यां र रात्रौ, पूर्ण पूर्णमास्यां दिवा दिने । कृ कृष्णपक्षे तु तृतीयायां रा रात्रौ, स सप्तम्यां दिवा दिने, द दशम्या र रात्रौ, भूत चतुर्दश्यां दिवा दिने । सूय. सु. २ Jain Education Interational Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१ समयज्झयणे पढमो उद्देसओ सुद्धे पडिवयरत्तिं दिवसस्स य पंचमऽट्ठमीरत्तिं । दिवसस्स बारसी पोण्णिमाए रत्तिं बवं होति ॥१॥ बहुलचतुत्थीए दिवा बहुलस्स य सत्तमी हवति रत्तिं । एक्कारसिं च बहुले दिवा बवं होति करणं तु ॥२॥ सउणि चतुप्पय णागं किंत्थुगं च चतुरो धुवा करणा। किण्हचउद्दसिरत्तिं सउणी सेसं तियं कमसो ॥ ३ ॥ ]॥१०॥ कालकरणं गतं । इदाणं भावकरणं-भावस्स भावेण भावे वा करणं । तत्थ निज्जुत्तिगाथा * भावे पयोग वीसस पयोगसा मूल उत्तरं चेव । उत्तर कम-सुत-जोव्वण-वण्णादी भोयणादीसु ॥११॥ भावकरणं दुविधं-पयोगसा वीससा य । पयोगकरणं दुविधं-मूलपयोगकरणं उत्तरपयोगकरणं च। [मूलपयोगकरण] पंच शरीराणि, ताणि पुण उदइयभावणिप्फण्णाणि । का तहिं भावणा ?, उदइयो हि भावो दुविधो-जीवोदइओ अजीवोद10 इओ य । तत्थ जीवोदइओ पंचण्ह सरीराणं अण्णतरेणोदितो जीवः स तथाभूत इति जीवोदयभावो, अध पुण जीवोदयोदितानि शरीरारम्भकाणि द्रव्याणि तथासमुदितानि तत्थ शरीरे भवन्तीत्यर्थः । अजीवोदयको हि भावः यथा च तत्र द्रव्यकरणोपदिष्टं "दव्वेंदियाई परिणामिताइं विस-ओसधादीहिं" [ नि० गा० ६ ] तथेहापि, तेषु परिणामस्तु भावोऽभिसम्बध्यते, तानि हि द्रव्येन्द्रियाणि विषौषधादिद्रव्यविशेषैः परिणाम्यमानानि औदयिकमेव भावं परिणमन्ति । तेसु सरीरेसु इंदिएसु वा किं मूलकरणं? उच्यते सरीरपज्जत्ती मूलकरणं, सेसं तु मूलकरणस्सेव उत्तरकरणं भवति । जधा-उत्तर कम-सुत15 जोव्वण-चण्णादी भोयणादीसु, गन्भवतिएसु ओरालिएसु ताव जोणीजम्मणणिक्खंतस्स कल्प-कौमार-यौवन-मध्यम-स्थावि र्याणि क्रमशः प्रजायन्ते, निषेकादिक्रमो वा यथा भवति, तथा वृक्षेष्वपि अङ्कर-पत्र-कन्द-नाल-गर्भ-तुष-शूक-कणपाकक्रमाः क्रमशो निष्पद्यन्ते । सुते ति कलाधिगमो व्याकरणादिभाषापाटवं वा सौस्वयं वा यतो भवति, तिर्यग्योनिजातीनामपि शुकादीनां भवति । उक्तं च-"तेण परं सिक्खापुव्वगं वा उत्तरगुणलद्धिं वा पडुच्च भासाविसेसो भवति" [ ] जोव्वणे ति पुनर्नवं यौवनं भवति औषधादिभिः कस्यचित् । वर्णकरणं च भोजनादिभिः क्रियते, यथा स्नेहं पिबतो वर्ण20 प्रसादो भवति, आदिग्रहणाद् अभ्यङ्गोद्वर्तनादिभिर्वा वर्णविशेषो भवति । वेउव्वियस्स वि उत्तरकरणं भिण्णमुहुत्तो णरएसु भवति । उक्तं हि-"उत्तरवेउब्वियं रूवं विउव्वति” [ दशा० अध्य० ८ सू०२७] त्ति ॥ ११ ॥ वुत्तं पयोगभावकरणं । इदाणिं विस्ससाभावकरणं । तत्थ गाथा वण्णादिगा य वण्णादिगेसु 'जो कोइ वीससामेलो। ते होंति थिरा अथिरा छाया-ऽऽतव-दुद्धमादीसु ॥ १२॥ 25 वण्णादिगा य वण्णादिगेसु० गाधा । वर्णादिगा णाम वण्ण-गंध-रस-फासा। द्वितीयवर्णा दिग्रहणं वर्णादिगेसु दव्वेसु यथा परमाणुद्रव्यस्य कृष्णादिभिर्वर्णविशेषैः परिणामतः यः परिणामविश्रसाभावः, गंध-रस-फरिसेसु वि । विस्रसामेलो णाम दोण्हं तिण्डं चतुण्डं पंचण्हं वा वण्णाणं संयोगविसेसेणं उप्पजते, जहा अब्भाणं अब्भरुक्खाणं संझाणं गंधव्वणगराणं इंदधणुमादीणं ति । ते पुण थिरा अथिरा वा । थिर त्ति ते केचिरं कालं भवंति ?, जधण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं जञ्चिरं कालं । अथिरा उत्पत्त्यनन्तरविनाशिनः कालान्तरावस्थायिनश्च सन्ध्यारागादयः । ये तु परमाण्वादिषु स्थिरास्ते असङ्ख्येयमपि कालं 30 भवन्ति । तथा च छायां प्राप्य छायात्वेन परिणमन्ति पुद्गलाण विस्रसापरिणामादेव । एवमुष्णमपि तथैव विश्रसापरिणामादेव । प्रायोगिकमपि स्थिर (क्षीरं) भूत्वा दधि-मस्तु-किलाटा-ऽनिष्ट-नवनीत-घृतत्वेन परिणमति ॥ १२ ॥ भणितं भावकरणं । एत्थ भावकरणेण अधियारो । तत्थ णिज्जुत्तिगाथा * मूलकरणं पुण सुते तिविधे जोगे सुभा-ऽसुभे झाणे । ससमयसुतेण पगयं अज्झवसाणेण य सुभेणं ॥ १३ ॥ १ नालतुषगर्भशूक पु.॥ २ जे केइ वीससामेला खं १ खं २ पु २ वृ. ॥ ३ “सामान्यपूर्वका हि लोके विशेषा दृष्टाः, तद्यथा-क्षीरपूर्वका दधि-मस्तु-द्रप्स-नवनीत-घृता-ऽरिष्ट-किलाट-कूर्चिकाभावाः।" इति नयचक्रवृत्तौ पत्र ३२१ पं० १४ ॥ Jain Education Intemational Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ णिजुत्तिगा० ११-१५] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। करणं दुविधं-लोइयसुतकरणं लोउत्तरियसुतकरणं च । तत्थ लोए ताव जो जस्स सत्थस्स कत्ता, यथा सुलसा यज्ञवल्कश्च तन्तुग्रीवश्च, अस्माकमपि गणधरैईब्धम् । तत् कतरेण योगेन कृतम् ?. उच्यते-त्रिविधेनापि मनसा तावदुपयुक्तः, वाचा भाषते, कायेन प्रगृहीताञ्जलिः तीर्थकराभिमुख उत्कुटकः । भङ्गिकश्रतोपयुक्तस्य वा त्रिविध उपयोगो भवति । एवमीर्यासमितस्यापि त्रियोगतककाले भवति, मनसा तावत् पथ्यपयुक्तः, वाचा किञ्चित् पृष्टो व्याकरोति, कायेन गच्छत्येव, एवं त्रिविधमपि तस्य भवति । सुभा-सुभे ज्झाणे त्ति जं सम्मदिट्टी करेति । एत्थ वि सुतकरणे ससमयसुतेण । पगतं, णो परसमयेण सुतेणं । अज्झवसायेणं सुमेण गणधरेहिं कतं । एवं ताव गणधराणं मूलकरणं, तस्सिस्साणं तु उत्तर. करणं । अथवा तेसिमवि मूलकरणं घडेति, यदुत अपूर्वमेव पठन्ति । वक्तारोऽपि च भवन्ति--अमेन साधुना आचारः कृत इति । यत्तु विस्मृतं पुनः संस्क्रियते तदुत्तरकरणमस्य ॥ १३ ॥ उक्तं करणम् । इदानीं कारकः-ज्ञान-दर्शन-चारित्रसंयुक्ता गणधरा एव कारकाः । तदेव च क्रियमाणं सूत्रं "कजमाणे कडे" [ भग० श० ९ उ० ३३ सू० ३८६ पत्र ४८५-१] त्ति काऊणं कडं भवति । तं पुण गणधरेहिं किं उक्कोसकालहितीएहिं 10 कम्मेहिं वट्टमाणेहिं कतं ? जधण्णहितीएहिं ० ? अजहण्णमणुक्कोसहितीएहिं . ? एत्थ गाधा * ठिति अणुभावे बंधण णिकायण णिवत्त दीह हुस्से य । संकम उदीरणाए उदए वेदे उवसमे य ॥ १४ ॥ ठिति त्ति अजहण्णमणुक्कोसहितीएहिं कम्मेहिं वट्टमाणेहिं कतं । तेहिं पुण किं तिव्वाणुभावेसु मंदाणुभावेसु? [ मंदाणुभावेसु कतं] । बंधणे त्ति किं बंधतेहिं कतं णिज्जरंतेहिं कतं?, तदावरणिज्जाइं पडुच्च णो बंधतेहिं कतं । णो णिधत्तं-15 तेहिं, [णो] णिकायंतेहिं अणिकायंतेहिं, णो दीघीकरेंतेहिं हुस्सीकरेंतेहिं, उत्तरपगडीसंकमं करेंतेहि वि अकरेंतेहि वि कतं । तदावरणिज्जाई कम्माई अणुदीरेंतेहिं सेसाई उदीरेंतेहि वि अणुदीरेंतेहि वि कयं । उदए त्ति केसिंच उदए वटुंतेहि केसिंच अणुदए, पुरिसवेदे वटुंतेहिं कतं । उपसमे त्ति केसिंच उपसमे केसिंच अणुवसमे, अथवा उवसमे त्ति खयोवसमिए भावे वटुंतेहिं कतं । कर्तार एव तस्योपदिश्यन्ते ॥ १४ ॥ कथं पुण तेहिं कतं? सोतूण जिणवरमतं गणधारी कातु तक्खओवसमं । अज्झवसाणेण कतं सुत्तमिणं तेण सैंत्तगडं ॥ १५ ॥ सोतूण जिणवरमतं० गाधा। तव-णियम-णाणरुक्खं आरूढो केवली अमितणाणी । तो मुअइ णाणवुद्धिं भवियजणविबोधणट्ठाए ॥ १ ॥ तं बुद्धिमएण पडेण गणधरा गेण्हिउं गिरवसेसं । तित्थकरभासिताई गंथंति ततो पवयणट्ठा ॥ २ ॥ [भाव०नि० गा० ८९-९०] 25 एवं गणधरसलद्धिएहिं कृतं, सेसाणं गणधरवज्जाणं पुव्वकतं अधिज्जतेहिं तदावरणिज्जाणं कम्माणं खयोवसमं काऊण कतं ति । एवं गणधरेहिं कृते को गुणः ?, उच्यतेघेत्तं च सुहं सुहगुणण-धारणा दातु पुच्छिउं चेव । एतेण कारणेणं जीतं ति कतं गणधरेहिं ॥ १ ॥ [आव० नि० गा० ९.] 20 १ तैव कालो भ° चूसप्र० ॥ २ हुस्सेसु खं १ । हस्सेसु खं २ पु २ ॥ ३ “तत्र कर्म स्थितिं प्रति अजघन्योत्कृष्टकर्मस्थितिभिर्गणधरैः सूत्रमिदं कृतमिति । तथा 'अनुभावः' विपाकस्तदपेक्षया मन्दानुभावैः । तथा बन्धमङ्गीकृत्य ज्ञानावरणीयादिप्रकृतीर्मन्दानुभावा बनद्भिः । तथाऽनिकाचयद्भिः, एवं निधत्तावस्थामकुर्वद्भिः। तथा दीघस्थितिकाः कर्मप्रकृतीहसीयसीजेनयद्भिः । तथा उत्तरप्रकृतीबंध्यमानासु सङ्क्रमयद्भिः, तथा उदयवतां कर्मणामुदीरणां विदधानः, अप्रमत्तगुणस्थैस्तु साता-ऽसाता-ऽऽयूंष्यनुदीरयद्भिः । तथा मनुष्यगति-पञ्चेन्द्रियजात्यौदारिकशरीर-तदङ्गोपाङ्गादिकर्मणामुदये वर्तमानैः । तथा वेदमङ्गीकृत्य पुवेदे सति । तथा 'उवसमे' त्ति सूचनात् सूत्रमिति क्षायोपशमिके भावे वर्तमानैर्गणधारिभिरिदं सूत्रकृताङ्ग दृब्धमिति ।" इति शीलाङ्कटीका ॥ ४ सूयगडं खं २ पु २॥ Jain Education Intemational Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१ समयज्झयणे पढमो उहेसओ अन्झवसाणेण कतं ति पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं कतं, ण पूया-सकार-वित्तिहेतुं वा । उक्तं हि-"पंचहिं ठाणेहिं सुत्तं अधिजेज, तं जहा-णाणट्ठताए०" [ स्थानाङ्गसूत्र सू० ४६८ पत्र ३५०-२]॥ १५॥ वइजोगेण पभासितमणेगजोगकरणाण साधूणं । __तो वइजोगेण कतं जीवस्स सभावियगुंणेहिं ॥ १६ ॥ 5 वईजोगेण पभासित० गाधा । यद् भगवान भाषते स वाग्योग एव, [न] श्रुतम् , श्रुतस्य क्षायोपशमिकत्वादिस्युक्तम् , वाग्योगस्तु नामप्रत्ययत्वादौदयिकः, विज्ञानमप्यस्य क्षायिकत्वात् केवलम् , शब्दस्तु पुद्गलात्मकत्वाद् द्रव्यश्रुतमात्रम् , अतो न भावश्रुतमिति, अतो वइजोगेण अरहता अत्थो पगारेहिं भासितो पभासिओ। केसिं ? अणेगजोगकरणाण साधूणं । ते य के ?, गणधरा । कधं पुणेते अणेगजोगकरणा ?, उच्यते-जतो अणेगविधलद्धिसंपण्णा, तं जधा-कोहबुद्धी बीयबुद्धी पयाणुसारी खीर-सप्पि-मधुआसवा । तो वइजोगेण कतं ति, तित्थगरेहिं वइजोगपभासितेहि गणधरेहिं वइजोगेण चेव 10 सुस्तीकतं । तं पुण जीवस्स सभावियगुणेहिं ति पागतभासा, एस स्वभावगुणः, वैकृतस्तु संस्कृतभाषा, आगन्तुक इत्यर्थः ॥ १६ ॥ तं च पुण एवं गहितं अक्खरगुण-मेतिसंघातणाए कम्मपरिसाडणाए य । तदुभयजोगेण कयं सुत्तमिणं तेण सुत्तकडं ॥ १७ ॥ अखरगुणमतिसंघातणाए० गाथा । अक्खरगुणो णाम एकैकमनन्तपर्यायमक्षरम् , अक्षराभिलापो वा अक्षरगुणः, 15 असौ ह्यभिलाप्योऽर्थो न शक्यते अक्षरमन्तरेण प्रकाशयितुम् , प्रदीवमन्तरेणेव तमसि घट इत्यतोऽभिलाप्य एवाक्षरगुणः । मति त्ति मतिणाणविसुद्धताए सव्वे वि समा, अक्षरसंघातणाए लद्धितो वि सव्वे समा, सुत्तकरणं कम्मणिज्जरं च पडुच्च सव्वे समा । अधवा जधा जधा अक्षराणि मतिविसुद्धताए संघाएंति तधा तधा णिजरा भवति । तदभययोगेणं ति मतिणाणेणं वाइएण य जोगेणं ति कृतं सूत्रकृतं सूत्रकडं ॥ १७ ॥ सूचनाद्वा सूत्रम् सुत्तेण सूईत त्ति य अत्था तह सूइता य जुत्ता य । तो बहुविधप्पजुत्ता ससमयजुत्ता अणादीया ॥ १८॥ सूयगडं ति गयं । सुत्तेण सूइत त्ति य० गाधा । 'सूइता' प्रोता इत्यर्थः । उपलब्धव्या वा ते सुत्तपदेण अत्थपदा सूइता सूत्राणुसारेण ज्ञायन्त इति, नासूत्रोऽर्थो वै विद्यते, तेन पुनर्युज्यमाना योजिताः नायुज्यमानाः, यो हि येनार्थेन सह घटते स तथैव पूर्वापर्यसम्बन्धेन योजितः, अयुज्यमानास्तु अपार्थक-निरर्थकादयो न योजिताः । तो बहुविधप्पगारा जुत्त त्ति गद्यं पद्यं कथ्यं गेयं चउबिहेण जातिबंधेण पयुत्ता, अथवा प्रतिज्ञादिपञ्चावयवविशेषेण प्रयुक्ताः । ते पुण ससमयजुत्ता अणादीया, सम्प्रतिकालं तावत् प्रतीत्य सङ्ख्येयानि पदानि । कधं पुण ते अणंता गमा अणंता पज्जवा ?. अतीता-ऽणागतं गमा अणंता पजवा, पण्णवर्ग वा पडुच्च अणंता गमा अणंता पजवा, जेण चोद्दसपुत्वी चोदसपुव्विस्स छहाणपडिओ । गम्यते अनेनार्थ इति गमकः । गणधरा पुणो सव्वे अक्खरलद्धितो मतिलद्धिओ य तुल्ला, यथा तुल्यवर्ति-स्नेहाः प्रदीपाः प्रकाशेन तुल्या आदित्या वा तथाऽक्षर-मतिलाभाभ्यां तुल्याः। अथवा यथा आदित्यः स्वभावतः प्रकाशयति एवं गणधरा अपि गणनिर्वर्तकस्य कर्मण उदयाद् गणधारित्वं कुर्वन्ति ॥ १८ ॥ १“णाणट्ठयाते १ दसणट्ठयाते २ चरित्तठ्ठयाते ३ विग्गहविमोतणट्ठयाते ४ अहत्थे वा भावे जाणिस्सामीति कटु ५।" इति पूर्णः पाठः॥ २°जोगंधराण साखं १ ख २ पु २ वृ०॥३ गुणेणं खं १ ख २ पु २ वृ०॥४वइजोगो पभातिसति० चूसप्र०॥ ५°मइसंघाडणाए खं २ । मइसंजोगणाय खं १॥ ६ पडिसा खं १॥ ७ अक्षरमतिगुणसं' चूसप्र०॥ ८°योगेणं ति वाइएण माणसेण य जोगेणं ति कृतं सूत्रकृतं सूत्रकृतं सूत्रं सूत्रकृतं सूचनाद्वा मु०॥ ९सुत्तिय च्चिय खं २ पु २ वृ०॥ १०°विहं पउत्ता खं १ वृ०॥ ११त्ता पया पसिद्धा अणा खं १ खं २ पु २ वृ०॥ १२ विपद्यते पु० सं०॥ १३ माना उपलब्धव्या, यो हि वा. मो०॥ Jain Education Intemational Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्तिगा० १६-१८ ] सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो । एत्थ पुण इमाओ वि गाधाओ भाणितव्वाओ— 'ताकतं १ केण तं २ केसु य दव्वेसु कीरती वा वि ३ । काहे व कारओ ४ णयतो ५ करणं कतिविधं ६ कधं ७ ॥ १ ॥ [ आव० नि० गा० १०२७ पत्र ४६७ - १ । विशेषा० गा० ३३६३ ] ऐताणि सत्तपयाइं । तथा ( तत्थ ) सुतकडं किं कतं कज्जति अकयं कज्जति ?, जं भणियं किं उप्पण्णं कज्जति अणुप्पण्णं कति ? । एत्थ एहिं मग्गणं केइ उप्पण्णं इच्छंति, केइ अणुप्पण्णं ति । ते य णेगमादी सत्त मूलणया । तत्थ गमो — 5 तत्थाऽऽदिगमस्स अणुप्पण्णं कीरति, णो उप्पण्णं कीरति । कम्हा ?, जधा पंचत्थिकाया णिच्चा एवं सूतकडं पि ण कयादि णाssसी ण कदाइ ण भवइ ण कयाइ ण भविस्सति, भूवं च भवइ य भविस्सति य, धुवे णितिए अक्खए अव्वए अवट्ठिए णिचे, ण एस भावो केणइ उप्पायिते ति कट्टु । जया वि भरघेरवतेसु वासेसु वोच्छिज्जति तया वि महाविदेहे वासे अवोच्छिण्णमेव । सेसाणं णेगमाण छण्ह य संगहादीणं णयाणं उप्पण्णं कीरति, जेण पण्णरससु वि कम्मभूमीसु पुरिसं पहुच उप्पज्जति । जति उप्पण्णं तिविधेणं सामित्तेणं उप्पण्णं समुट्ठाणसामित्तेण १ वायणासा० २ लद्धीसा० ३ । एत्थ को णयो कं 10 सम्पत्ति इच्छति ?, तत्थ जे पढमवज्जा णेगमा संगह-ववहारा [य] ते तिविधं पि उप्पत्ति इच्छंति — समुट्ठाणं जधा तित्थकरस्स सणं उट्ठाणेणं १ वायणाए वायणायरियस्स णिस्साए, जधा भगवता गोतमस्वामी वाइतो २ लद्धीए जधा भवियस्स किंचि निमित्तं दद्दूणं जातिस्मरणादिगं तदावरणिज्जाणं कम्माणं खयोवसमेणं उत्पज्जति ३ । उज्जुसुतो समुट्ठाणं णेच्छति, किं कारणं ? भगवं चैव उाणं स एव वायणायरिओ गोतमप्पभितीणं तेण दुविधं, वायणासामित्तं [ लद्धिसामित्तं ] च । तिण्णि सद्दणया लद्धिमिच्छंति, जेण उट्ठाणे वायणायरिए य विजमाणे वि अभवियरस ण उप्पज्जति, अभावात् । कताकतं ति गतं १ | 15 केण कथं ति यववहारतो जिणिदेण गणधरेहिं च । तस्सामिणा तु णिच्छयणतस्स तत्तो जतो णऽण्णं ॥ १ ॥ २ ॥ [ विशेषा० गा० ३३८२] 'केसु दव्वेसु कीरति' ति णेगमस्स मणुण्णेणु दव्वेसु कीरति । जधा - मण्णं भोयणं भोच्या मणुष्णं सयणाssसणं । मणुण्णंसि अगारंसि मणुण्णं झायते मुणी ॥ १ ॥ [ गंण मणुणं हवइ हु परिणामकारगं दव्त्रं । वभिचारातो सेसा बिंति ततो सव्वदव्वे ॥ १ ॥ ण सव्वपज्जवेसु, जेण "सुते ण सव्वपज्जवा" [ काहे य कारओ भवति — उद्दिट्ठे च्चिय णेगमणयस्स कत्ताऽणधिज्जमाणो वि । जं कारणमुद्देसो तम्मि य कज्जोवतारो ति ॥ १॥ संगह-ववहाराणं पञ्चासण्णतरकारणत्तणतो । उद्दिद्वंसि तदत्थं गुरुपयमूले समासीणो ॥ २ ॥ १३ 1 [विशेषा० गा० ३३८६ ] ] इति वचनात् । केसु दव्वेत्ति गतं ३ । [ विशेषा० गा० ३३९१-९२ ] उज्जुसुतस्स पढंतो अपुव्वसुतपज्जवे समये [समये] अक्कममाणो उवयुत्तस्स वा अणुवयुत्तस्स वा णो सुतं भवति, समत्ते अज्झयणे सुयं भवति । तिन्हं सद्दणयाणं अपुव्वे सुतपज्जवे समये समये अक्कममाणस्स णियमा सम्मद्दिट्ठिस्स उवयुत्तस्स णो सुयं भवति, समते कारओ सुतं भवति । एत्थ गाधा अंगस्तोत्तो कत्ता सह-किरियाविउत्तो वि । सद्दादीण मणुण्णो परिणामो जेण सुतमतिओ ॥ १॥ ४ । 20 25 १ एतत्सप्तपदव्याख्यासमानार्थका आवश्यकचूर्णिरवश्यमवलोकनीया, भाग १ पत्र ५०२ तथा ६०१-४॥ २णं मणुण्णपरिणामकारणं दव्वं विशेषा० ॥ ३-४ सम्मत्ते पु० ॥ ५ अंगेसु ताव युक्तो कत्ता चूसप्र० । विशेषावश्यक महाभाष्ये सामायिकसूत्रस्याधिकारात् सामाइओवउत्तो इति पाठो वर्त्तते, किञ्चान सूत्रकृताङ्गसूत्रस्याधिकारात् अंगस्सुतोवयुत्तो इति पाठो निर्दिष्टोऽस्ति ॥ ६ सदकिरियो उत्तो वि । सद्दादीणमणण्णा परि चूसप्र० । किञ्च नायं पाठो विशेषावश्यकवृत्तिकृतां कोार्य कोट्याचार्य हेमचन्द्रसूरीणां सम्मतोऽस्ति ॥ 30 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१ समयज्झयणे पढमो उद्देसओ कत्ता णयतोऽभिहितो अथवा णयतो त्ति णीतियो यो । सामाइयहेतुपयोजकारओ सो णयो य इमो॥२॥ आलोयणा इ १ विणये २ खेत्त ३ दिसाभिग्गहे य ४ काले य ५। रिक्ख ६ गुणसंपया वि य ७ अभिवाहारे य अट्ठमये ८॥३॥ [विशेषा० गा० ३३९४-९६] नयतीति नैयायिकः, गमयति एभिः प्रकारैः, एवंगुणसंपण्णाय जो सूत[क]डं देति सो णायकारी णायवादी य भवति । आलोयणा च सुतोवसंपयाय दायव्वा, पडिच्छगेणं सिस्सेणावि जति मूलगुण-उत्तरगुणा वा विराधिता ता विन्तण णिस्सल्लेण होतव्वं १। आलोयणसुद्धस्स वि देज विणीयस्स णाविणीयस्स । णहि दिज्जति आभरणं पलियत्तियकण्ण-हत्थस्स ॥१॥ [विशेषा० गा० ३४०.] सो विणीतो केरिसो, अणुरत्तो भत्तिगतो अमुयी अणुअत्तओ विसेसण्णू । उज्जुत्त अपरितंतो इच्छितमत्थं लभति साधू ॥ १ ॥२ । विणयवतो वि य कयमंगलस्स तयविग्घपारगमणाय । देज सुकतोवयोगो देव्वादिसु सुप्पसत्थेसुं ॥२॥ [विशेषा० गा० ३४०२-३] तत्थ दुव्वे सालि-वीधिय-गोधुम-जवादिधण्णसमीपे, ण तु तिल-चणगादिसमीवे । खेत्तं पसत्थमपसत्थं चउच्छवणे सालिवणे पैउमसरे कुसुमिए व वणसंडे। गंभीर साणुणाए पदाहिणजले जिणघरे वा ॥ १ ॥ दिज ण उ भग्ग-झामित-सुसाण-सुण्णा-ऽमणुण्णगेहेसुं। छारंगार-कयारा- मेज्झादीदव्वदुढेसु ॥ २ ॥ [विशेषा० गा० ३४०४-५] अधवा अत्थि काणीयि खेत्ताणि जेसु सज्झायो चेव ण कीरति, जधा वैदेसे पण्णत्ती सिंधुविसए य ण पढिजति मसाणादिसु वा, एवं जो जहिं ३ । इदाणिं तिणि दिसाओ अभिगिज्झ उद्दिसितव्वं20 पुव्वाभिमुहो उत्तरमुहो व देजाऽहवा पडिच्छेजा। जाए जिणादयो वा दिसाए जिणचेइआई वा ॥ १॥ ४ । [विशेषा० गा० ३४०६] काले त्ति-इमं अंगं कालेण पढिज्जति राति-दिणाणं पढम-चरिमासु पोरिसीसु । अधवा उदिसंतोचाउद्दसि पण्णरसिं वजेजा अट्ठमी च णवमीं च । छडिं च चत्थिं बारसिं चे दोण्हं पि पक्खाणं ॥१॥५। [विशेषा० गा० ३४०७] 25 पसत्थेसु वट्टति रिक्खेसुमयसिरमदा पुस्सो तिण्णि य पुवाई मूलमस्सेसा । हत्थो चित्ता य तथा दस विद्धिकराई णाणस्स ॥ १ ॥ [गणि० प्र० गा० . । विशेषा० गा० ३४०८ ] जस्स वा जं अणुकूलं । अधवासंझागयं रविगतं विड्डेरं सगहं विलंबिं च । राहुहतं गहभिण्णं च वज्जए सत्त णक्खत्ते ॥ १॥ [विशेषा. गा० ३४०९ । गणि० प्र० गा० १५] संझागतम्मि कलहो होति कुभत्तं विलंबिणक्खत्ते । विड्डेरे परविजयो आइञ्चगते अणिवाणी ॥ १॥ जं सग्गहम्मि कीरइ णक्खत्ते तत्थ वुग्गहो होइ । राहुहयम्मि य मरणं गहभिण्णे लोहिओगालो ॥२॥ [गणि० प्र० गा० १८-१९] १ सूतदंडं वा० मो०॥ २ खेत्तादिसु विशेषा० ॥ ३ पयुमसरे वा० मो० ॥ ४°सरे पुप्फफलितवणसंडे । गंभीर साणुणादे पदाहिणावत्तउदगादी॥ आव० चूर्णी भाग १ पत्र ६०३ ॥ ५च सेसासु देजाहि विशेषावश्यके ॥ Jain Education Intemational Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ णिजुत्तिगा० १९-२२] सूयगडंगसुत्तं विदयमंगं पढमो सुयक्खंधो। पण्णत्ती दिट्ठीवातो य दिवड्डखेत्तेसु उद्दिसंति ६। गुणसंपया णाम पुट्विं विणेयो जइ विणीतो इमे य से गुणा जइ अत्थि तो उहिस्सति पियधम्मो दृढधम्मो संविग्गोऽवज्जभीरु असढो य । खंतो दंतो मुत्तो थिरव्वत जितिन्दिओ उज्जू ॥१॥ असढो तुलासमाणो समितो तह साधुसंगधरयो य । गुणसंपदोववेदो जोग्गो सेसो अजोग्गो तु ॥ २ ॥ णेयोऽभिव्वाहारोऽभिव्बाहरणमहमस्स साधुस्स । इदमुद्दिसामि सुत्तत्थोभयतो कालिअसुतम्मि ॥ ३ ॥ दव्व-गुण-पज्जवेहि य भूतावायम्मि गुरुसमादिटे । बेदुहिट्ठमिणं मे इच्छामऽणुसासणं सिस्सो ॥४॥ ७ । [विशेषा० गा० ३४१०-१३] साउणो वा पसत्थो वा अभिवाहरति ८ । ५।। करणं तव्वावारो गुरु-सीसाणं चतुविधं तं च । उद्देसो वायणता तथा समुद्देसणमणुण्णा ॥ १॥ ६ । [विशेषा० गा० ३४१४] 10 ___ कधं लब्भति त्ति जधा णमोकारो. णाणावरणिज्जस्स दुविधाणि फड्डगाणि-सव्वघातीणि देसघातीणि य, तत्थ सव्वघातीहिं उग्धातितेहिं देसघातीहिं उदिण्णेहिं उग्घातितेहिं अणुदिण्णेहिं उवसामिएहिं कमसो विसुज्झमाणस्स लभति । कधं लभति त्ति गयं ७ ॥ भणितं सूतकडं ति णामं अंगस्स । तस्स पुण सूतकडस्स * दो चेव य सुतखंधा अन्झयणाई हवंति तेवीसं । तेत्तीसं उद्देसं आयारातो दुगुणमेतं ॥ १९ ॥ "[........... ...॥ १९ ॥ ..........................................। ................................॥२०॥] गाधा सोलसगम्मी जेसिं अज्झयणाणं ते इमे गाधासोलसगा। महन्ति अज्झयणाणि अधवा महंति च ताणि अज्झयणाणि च महज्झयणाणि । तत्थ पढमो सुतखंधो [गाधा सोलसगा, ताई ताव भण्णंति त्ति कातूणं तेण गाधा णिक्खि- 20 वितव्वा सोलस णिक्खिवितव्वा सुतं णिक्खिवितव्वं खंधो णिक्खिवितब्बो ॥ २० ॥ णिक्खेवो गाधाए चउबिहो छबिहो य सोलससु। निक्खेवो ये सुयम्मि य खंधे य चउविहो होइ ॥ २१॥ णिक्खेवो गाधाए० गाथा । [गाधा] णामादि चतुर्विधा। णाम-ठ्ठवणाओ गताओ । दव्वे जाणगसरीरभवियसरीरवइरित्ता पत्तय-पोत्थयलिहिता।भावगाधा दुविधा-आगमतो णोआगमतोय। आगमतो जाणए उवयुत्ते ।णोआगमतोए सोलसयं णामादि छव्विधं । णाम-ठवणाओ तह चेव । वइरित्तं सोलसं सचित्त-अचित्त-मीसगाणि दव्याणि । खेत्तसोलसगं सोलस आगासपदेसा। कालसोलसयं सोलस समया सोलससमयट्ठितीयं वा दव्यं । भावसोलसयं इमाणि चेव सोलस अज्झयणाणि खयोवसमिए भावे । सुते खंधे य चतुक्को णिक्खेवो पूर्ववत् जाव भावखंधो । एतोस चेव सोलसण्हं अज्झयणाणं समुदयसमितिसमागमेणं गाधासोलसयसुतखंधो त्ति लब्भति॥२१॥गाधासोलसयाणं इमे अत्थधिकारा भवंति - ससमय-परसमयपरूवणा य १णाऊण बुज्झणा चेव २।। संबुद्धस्सुवसग्गा ३ थीदोसविवज्जणा चेव ४ ॥२२॥ १ साधुसङ्ग्रहरतः ॥ २ शकुन इत्यर्थः ॥ ३ दो चेव सुतक्खंधा अज्झयणाइं च होंति तेवीसं । तेत्तीसं उद्देसा आयारातो दुगुणमंगं ॥ खं १ खं २ पु २ वृ० । अत्र गाथायां तेत्तिसुदेसणकाला आया इति पाठभेदः पु २॥ ४ अत्र दो चेव य सुतखंधा० इति गाथायाश्चूर्णिः अग्रेतनचूयुक्तार्थसंवादिनी नियुक्तिगाथा तत्प्रतीका दिकं च चिरन्तनकालादेव त्रुटितमिति सम्भाव्यते, नियुक्त्यादर्शष्षप्येतदर्थसंवादिनी गाथा नोपलभ्यते, नापिवृत्तिकृता शीलाऊन व्याख्याता दृश्यते, तदत्रार्थे तज्ज्ञा एव प्रमाणम् ॥ ५ उ सुयम्मी खंधे खं १॥ Jain Education Intemational Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकिय [१ समयज्झयणे पढमो उद्देसओ 10 ससमय-परसमयपरूवणा य० गाधा । पढमज्झयणे ससमय-परसमयपरूवणाए अधियारो १ । बितियज्झयणाधियारो पुण ते ससमयगुणे परसमयदोसे य णाऊणं ससमए संबुझितव्वं २ । ततियज्झयणाधिगारो संबुद्धो संतो जधा उवसग्गेहिं ण चालिज्जइ ३ । चउत्थज्झयणाओ इत्थिदोसविवजणा, ते वि अणुलोमउवसग्गा चेव ४ ॥ २२ ॥ उवसग्गभीरुणो थीवसस्स गैरएसु होज उववाओ ५। एव महप्पा वीरो जयमाह तहा जएज्जाह ६॥ २३ ॥ उवसग्गभीरुणो थीवसस्स० गाधा । पंचमअज्झयणाधियारो जो उवसग्गभीरू इत्थीवसमोगओ य पावं अजिऊण णरएसु उववज्जति ५। छट्ठस्स एवं जाणिऊणं महप्पा महावीरो उवसग्गाणि जिणित्तु इत्थीपसंगदोसा य दोसे जाणित्तु इत्थिगाओ वजेत्ता व्वाणं गतो भगवान् जतो अतो आयरिओ वि एवं चेव सीसस्स उवदिसन्तो वक्खाति-जधा ससमए जतिअव्वं उवसग्गा य णिजिणितव्या इत्थिगाओ वजेतव्वाओ, एवं सीलवं बंभवं च भवति ६ ॥ २३ ॥ णिस्सील-कुसीलजढो सुसीलसेवी य सीलवं चेव । णाऊण वीरियदुगं पंडितविरिए पैयतितव्वं ८ ॥ २४ ॥ णिस्सीलकुसील० गाधा । सत्तमए णिस्सीला गिहत्था, दुस्सीला अण्णउत्थिया, ससमए वि पासत्थादयो कुसीला वजेतव्या, सयं च शीलवता भवितव्यं ७ । अट्ठमस्स सयं सीलवता णाऊण वीरियदुगं पंडितवीरिए पयतितव्वं ८॥२४॥ सेसाणं पुण इमो अहियारो धम्मो ९ समाहि १० मग्गो ११ समोसढा चउसु १२ सव्ववादीसु १३ । सीसगुण-दोसकहणा गंथम्मि सदा गुरुनिवासो १४ ॥२५॥ ऑयाणिय संकलिया आयाणिजम्मि आयतचरित्तं १५ । अप्पग्गंथे पिंडकवयणे गाधाए अहिगारो १६॥ २६ ॥ धम्मो समाधि मग्गो. गाधा । बितिया वि आयाणिय संकलिया० गाधा । एवं पंडितवीरियअभिगमणटताए धम्मो कहिजइ, पंडियवीरियहितो वा धम्म कति ९ दसमस्स समाधिवासो उवदिस्सति, समाधी वा से उवदिस्सति १०णाणादिसंजुत्तो वा से मग्गो उवदिस्सइ, सो वा परेसिं उवदिसति एकारसमस्स ११ । बारसमस्स एवं मग्गप डिवण्णो गामातगं वा उवस्सए वा भिक्खायरियगयं वा दूइज्जमाणं वा परउत्थिगा परउत्थिगभाविता वि गिही चोदे.तोसिं पडिसे. धणटा समोसरणज्झयणे तिण्ह वि तिसट्ठाणं पासंडियसताणं असब्भावकुदिट्ठीओ पडिसेधिजति १२ । तेरसमस्स जधा पडिसेचेन्ता अधवा मग्गो परिकधिजति सव्वे वि ते धम्म समाधिमग्गं वा ण याणंति १३ । चोहसमस्स समाधिमग्गट्ठितस्स वि 28 सीसगुण-दोसा परिकधिजंति, सीसगुणसंपण्णेण य गुरुकुलवासो वसितव्वो १४ ॥ २५ ॥ पण्णरसमस आयाणिजे आत्मार्थिकेन आयतचरित्तेणं भवितव्वं, सुत्तत्थो य पायेण संकलियाणिबद्धो १५ । एतेसिं पण्णरसह वि अज्झयणाणं गाधाए पिंडकवयणेणं अत्थोऽभिव्वज्जति, दरिसिज्जति विभाष्यत इत्यर्थः १६ ॥ २६ ॥ गाधासोलसगाणं पिंडत्थो वण्णितो समासेणं । एत्तो एक्ककं पुण अज्झयणं कित्तयिस्सामि ॥ १॥ तत्थ पढमज्झयणं समयो त्ति । तस्स इमे अणुयोगदारा भवंति । तं जधा-उवक्कमो १ णिक्खेवो २ अणुगमो ३ 15 १नरगेसु खं १॥ २ जाहि खं २॥ ३ परिचत्तनिसील-कुसील सुसील संविग्ग सीलवं चेव ७ सा. वृ० । परिचत्तनिसील-कुसील सुसीलसेवी य सीलवं होइ ७ खं २ पु २ । णिस्सील-कुसीलजढो इत्यादिकथूर्णिकृत्सम्मतः पाठः खं १ प्रतौ . वर्तते ॥ ४ पयइयचं खं २ पु २ । य जइयव्वं खं १ । पयट्टेइ सा०॥ ५आदाणिय संकलिया आदाणिज्जम्मि खं २ पु २॥ ६पिडियवयणेणं होइ अहि सा०॥ ७चोदेजेतेसिं वा. मो०॥ . Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्तिगा० २३-२६] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंग पढमो सुयक्खंधो। णयो ४ । उपक्रम्यते अनेनेत्युपक्रमः, "क्रमु पादविक्षेपे" उप-सामीप्ये, सत्थसामीवीकरणं, सत्थस्स णामदेसमाणयणमिति भणितं होति १ । तथा निक्षिप्यतेऽनेनेति निक्षेपः, "क्षिप प्रेरणे" इति, नियतो निश्चितो क्षेपो निक्षेपः, न्यासः स्थापनेति यावत् २। अनुगम्यतेऽनेनेत्यनुगमः, अणुनो वा सूत्रस्य गमो अनुगमः, अनुरूपार्थगमनं वा अनुगमः, सूत्रानुसरणमित्यर्थः ३ । “णीक प्रापणे" तस्य नय इति भवति, सूत्रप्रापणव्यापारोपायान् नयतीति नयः, नीयते वा अनेनेति नयः, वस्तुनः पर्यायाणां सम्भवतोऽभिगमनमित्यर्थः ।। एतेसिं च उवकमादिदाराणं एसेव कमो, यतो नानपक्रान्तं असमीपीभतं सद् निक्षिप्यते, न च नामादिभिरनिक्षिप्तमर्थतोऽनुगम्यते, न च नयमतविकलो अनुगम इति । जतो सत्थं सम्बन्धात्मकेन उपक्रमेण स्थापनासमीपमानीयते, नामादिन्यस्तनिक्षेपमर्थतोऽनुगम्यते नानानयैः, अतोऽयमेवानुयोगद्वारक्रम इति । सो उवक्कमो छविधो-णामोवक्कमो ठवणो० दव्व० खेत्त० काल. भावउवक्कमो। छव्विहो वि जधा आवस्सए [आव० चूर्णी भाग १ पत्र ८०] तधा परूवेतव्वो। अधवा उवक्कमो छविधो-आणुपुव्वी १ णामं २ पमाणं ३ वत्तव्वया ४ 10 अत्थाधियारो ५ समोतारो ६ । एते वि जधा अणुयोगद्दारे [सू०७० पत्र ५१-१] तधा भासितव्वा जाव समोतारो सम्मत्तो । एवं समयज्झयणं आणुपुव्वादिएहिं दारेहिं जत्थ जत्थ समोतरति तत्थ तत्थ समोतारेयव्वं । आणुपुव्वीए उक्तित्तणाणुपुवीए गणणाणुपुव्वीए य समोतरति।सा तिविहा-पुव्वाणुपुव्वी पच्छाणुपुव्वी अणाणुपुव्वी। समयज्झयणं पुव्वाणुपुव्वीए पढमं, पच्छाणुपुव्वीए सोलसमं, अणाणुपुव्वीए एताए चेव एगादियाए एगुत्तरिआए सोलसगच्छगताए सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवूणो । एत्थ पत्थारविहीकरणं इमं 15 एकाद्या गच्छपर्यन्ताः परस्परसमाहताः । राशयस्तद्धि विज्ञेयं, विकल्पगणिते फलम् ॥ १॥ गणितेऽन्त्यविभक्ते तु, लब्धं शेषैर्विभाजयेत् । आदावन्ते च तत् स्थाप्यं, विकल्पगणिते क्रमात् ॥ २॥ १। णामे छविधणामे समोतरति, तत्थ छव्विधो भावो वणिज्जति, तत्थ वि खयोवसमिए भावे समोतरति, जतो सव्वमेव सुयं खयोवसमिए भावे वट्टति २ । 20 पमाणं चउन्विधं-दव्वप्पमाणं खेत्तप्पमाणं कालप्पमाणं भावप्पमाणं च । प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम् । तत्थ समयो भावात्मकत्वाद् भावप्रमाणगोचरम् । तं भावप्पमाणं तिविधं-गुणप्पमाणं णयप्पमाणं संखप्पमाणं । गुणप्पमाणं दुविधं-जीवगुणप्पमाणं अजीवगुणप्पमाणं च । तत्थ जीवाणण्णत्तणओ समयस्स जीवगुणप्पमाणे समोतारो । जीवगुणप्पमाणं तिविधं-णाणगुणप्पमाणं दसणगुणप्पमाणं चरित्तः । तत्र बोधात्मकत्वात् समयस्स गाणगुणप्पमाणे समोतारो। णाणप्पमाणं चतुर्विधम् -पञ्चक्खं अणुमाणं ओवम्म आगमो। तत्थ समयस्स पायं परोवदेसत्तणतो आगमप्पमाणे समोतरति । आगमो दुविधो-लोइओ लोगु-25 त्तरोय, लोगुत्तरिए समोतरति । सो तिविधो-सुत्ते अत्थे तदुभते त्ति, तिसु वि समोतरति । अधवा आगमो तिति अणंतरागमो परंपरागमो य । तत्थ समयस्स अत्थतो तित्थकरस्स अत्तागमो गणधराणं अणंतरागमो गणधरसिस्साणं परंपरागमो, सत्तत्तो गणधराणं अत्तागमो गणहरसीसाणं अणंतरागमो, तेण परं सुत्त-ऽत्था वि णो अत्तागमो णो अणंतरागमो परंपरागमो । गुणप्पमाणं गतं । इदाणिं णयप्पमाणं, तत्थमूढणेयियं सुतं कालियं तु ण णया समोतरंति इधं । आसज तु सोतारं णए णयविसारतो बूया ॥ १॥ [आव०नि० गा० ७६२] ण इदाणिं णयप्पमाणे समोतरति, पुरा पुण जाव चतुण्ह अणुयोगाण अपुहत्तं आसि ताव सुत्ते णया अवतारिजंता, इयाणिं पुहत्ताणुयोगे णावतारिजंति । 30 १ सुत्तत्थो गण चूसप्र०॥ २°णययं वा० मो० ॥ सूय० सु. ३ Jain Education Intemational Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१ समयज्झयणे पढमो उद्देसओ इदाणिं संखप्पमाणं, तं अट्ठविधं, तं जधा–णामसंखा ठवणसंखा दव्व० खेत्त० कालसंखा परिमाण० पज्जव० भावसंखा चेव, तत्थ परिमाणसंखाए समोतरति । परिमाणसंखा दुविधा–कालियसुतपरिमाणसंखा य दिट्ठिवायसुतपरिमाणसंखा य, कालियसुयपरिमाणसंखाए समोतरति । कालियसुतपरिमाणसंखा दुविधा-अंगपविढं अंगबाहिरं च, अंगपविढे समोतरति । पज्जवसंखाए अणंता पज्जवा, जतो भणितं-"सव्वागासपदेसगं सव्वागासपदेसेहिं अणंतगुणितं पंजवग्गं अक्खरं लब्भति" 5 [नन्दी० सू० ४२] "संज्जा अक्खरा संखेज्जा संघाता संखेज्जा पदा संखेजा सिलोगा संखेज्जाओ गाधाओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा अणुयोगदारा" [अर्थतः समवा० सू० १३७ । नन्दी० सू० ४६] ३। इदाणिं वत्तव्यया, सा तिविधा-ससमयवत्तव्वया परसमयवत्तव्वया ससमयपरसमयवत्तव्वया, तत्थ ससमयवत्तव्ययाए समोतरति । परसमए उभयं वा सम्माहिट्ठिस्स ससमयो जेण । तो सव्वज्झयणाई ससमयवत्तव्वणियताई॥१॥ 10 मिच्छत्तसमूहमयं सम्मत्तं जं च तदुवकारम्मि । वट्टइ परसिद्धंतो तो तस्स तओ ससिद्धंतो ॥२॥४॥ [विशेषा० गा० ९५३-५४ ] अत्थाहिकारो दुविधो-अज्झयणत्थाधिकारो य उद्देसत्थाधिकारो य । तत्थ अज्झयणत्थाहिगारो ससमय-परसमयपरूवणाए । उद्देसत्थाधिकारो इमो-पढमुद्देसए ताव इमे छ अत्थाधिकारा भवंति । तं जधा * मेधपंचभूत १ एकप्पए य २ तजीवतस्सरीरी य ३ । तध य अंकारगवादी ४ आतच्छट्ठो ५ अफलवादी ६ ॥ २७ ॥ ॥ २७ ॥ वितियए चत्तारि अत्थाधिकारा । तं जधा * 'बितिए णियतीवायो १ अण्णाणी २ तह य णाणवादी य ३ । .. कम्मं चयं ण गच्छति चतुविधं भिक्खुसमयम्मि ४ ॥ २८ ॥ * तइए आहाकम्मं १ कड़वादी जध य ते पेवादी तु २। किच्चुवमा य चउत्थे परप्पवादी अविरतेसु ॥ २९ ॥ ततिएऽत्थ अत्थाधिकारो आहाकम्मं परवादिका य । चउत्थे एगो चेव अधिगारो किच्चवमा परप्पवादिगाणं ५ ॥ २९ ॥ एवं समोतारेण जत्थ जत्थ समोतरति तत्थ तत्थावतारितं ६ । उवक्कमो गतो। इदाणिं णिक्खेवो । सो तिविहोओघणिप्फण्णो णामणि० सुत्तालावयणिप्फण्णो त्ति । ओहो णाम-जं सामण्णं सत्थस्स णाम, तं चउम्विधं-अज्झयणं अज्झीणं आयो झवणा । अज्झयणं णामादि चतुर्विधम् , दव्यज्झयणं पत्तय-पोत्थयलिहितं, भावज्झयणं इदमेव समयं ति । अज्झीणं 25 णामादि चतुविधं, दव्वज्झीणं सव्वागाससेढी, भावज्झीणं इदमेव समयज्झयणं, ण खीयति दिजंतं अण्णेसिं । तत्थ गाधाजध दीवा दीवसतं पदिप्पदी सो य दिप्पती दीपो । दीपसमा आयरिया दीप्पंति परं च दीवेति ॥१॥ [अनुयोगद्वारे पत्र २५२-२] इदाणिं आयो-सो वि नामादि चतुविधो, दुव्वओ सचित्तादि, सच्चित्ते दुपयादि ३, मिस्से स एव साभरणाणं दुपदादीणं, अचित्ते हिरण्णादी ४, भावओ इदमेव समयज्झयणं । इदाणिं झवणा-सा वि णामादि चतुविधा, दव्यज्झवणा 15 30 १नन्दीसूत्रे तु पज्जवग्गक्खरं इति पाठः ॥ २णामं १ठवणा २ दविए ३ इति त्रिंशत्तमी गाथा वृत्तिकृता मधपंचभूत इति गाथायाः प्राग व्याख्याताऽस्ति, निर्युक्त्यादर्शेष्वपि च तथैव वर्तते ॥ ३°स्सरीरे य खं १ ख २ पु २ वृ०॥ ४ अगारगवाती खं २ पु २॥ ५ अत्तच्छटो सा० ॥ ६ एतद्गाथाचूर्णिः प्रथमाध्ययनद्वितीयोद्देशकोत्थानिकायां द्रष्टव्या। बीए णियतीवायो १ अन्नाणिय २ तह खं २ पु२॥ ७ उ खं १ खं २ पु २॥ ८ कडवायं जध खं १ ॥ ९पवादीआ खं १ वृ०॥ १० य विर चूसप्र.॥ Jain Education Intemational Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजुत्तिगा० २७-३०] सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो । "ल्हथियाए पत्ती झविज्जति घोडओ विवज्झाए ।" [ ] एवमादि । भावज्झवणा दुविधा - पसत्थभावज्झवणा य अपत्यभावज्झवणा य । पसत्थभावज्झवणा णाणस्स ३ झवणा, अपसत्थभावज्झवणा कोधस्स ४ । चउसु वि एतेसु समयज्झयणं भावे समोतरति । इदाणिं एतेसिं चउण्ह वि णिरुत्तेण विहिणा वक्खाणं भण्णति । तत्थ णिरुत्तगाधाओ जेण सुहज्झप्पयणं अज्झप्पाऽऽणयणमधिअमयणं वा । बोधस्स संजमस्स व मोक्खस्स व तो तमज्झयणं ॥ १ ॥ [ विशेषा० गा० ९६० ] जेण सुहज्झप्पं जणेति अतो अज्झप्पजणं, [प्पगारलोवाओ अज्झयणं । अहवा अज्झप्पस्स आणयणं, ] प्पगार[आकार ]णकारलोवाओ अज्झयणं ति । अधवा बोधादीणं आधिकेण णज्झयणं (अयणं) अज्झयणं, अयनं गमनमित्यर्थः ॥ अज्झीणं दिज्जंतं अव्वोच्छित्तिणययो अलोगो व्व । आयो णाणादीणं झवणा पावाण खवण त्ति ॥ १ ॥ [ विशेषा० गा० ९६१ ] - १९ गतो ओहणिफण्णो णिक्खेवो । [ णामणिप्फण्णे ] समयो त्ति । सो बारसविधो * णामं १ ठवणा २ दविए ३ खेत्ते ४ काले ५ कुतित्थि ६ संगारे ७ । कुल ८ गण ९ संकेरसमए १० गंडी ११ तध भावसमए य १२ ॥ ३० ॥ णाम-ठवणाओ तव २ । वतिरित्तो दुव्वसमओ जो जस्स सचित्तस्स अचित्तस्स वा सभावो । तं जधा — सचित्तस्सोवयोगो, सेसाणं गति-ठिति-अबगाह - गहणाणि । अधिपिधत्तेण दव्वाणं सभावा भवंति वण्ण - गंध-रस- फासेहिं – वणतो कालो भमरो, णीलं उप्पलं, रत्तो कंबलसाडो, पीतिया हरिद्दा, सुकिलो ससी । [ गंवेण ] सुगंधं चंदणादि, 'दुग्गंधो वच्छो ( बच्चो ) 115 रसेण कडुआ सुंठी, तित्तो णिंबो, कसायं-तूविरं कविट्ठ, अम्बं अम्बयं, महुरो गुलो । [ फासतो ] कक्खडो पासाणो, स एव गुरु, लहुगं उलूगपत्तं सीतं हिमं, उण्हो अग्गी, णिद्धं घतं, लुक्खा छारिया एवमादि । अधवा जो जस्स दव्वरसोवयोगका लो सो तस्स समयो, तं जधा — खीरस्स ताव उण्हमणुण्हं सीतमसीतं वा, एवमण्णेसिं पि पुप्फ-फलादीणं विभासितव्यं । अथवावर्षासु लवणममृतं शरदि जलं गोपयश्च हेमन्ते । शिशिरे चाऽऽमलकरसो घृतं वसन्ते गुडो वसन्तस्यान्ते ॥ १ ॥ ३ ॥ [ 20 खेत्तसमयो आगासस्स धम्मता, एगेण वि से पुणे दोहि वि पुण्णे सतं पि मासज्जा । [ लक्खसएण वि पुण्णे कोडिसहस्सं पि माएजा ॥ १ ॥ ] ] १ अत्रार्थे उत्तराध्ययननिर्युक्तिसत्का पल्लुत्थिया अपत्था० इति दशमी गाथा द्रष्टव्या ॥ २ 'वजाए मु० ॥ ३ संकर १० गंडी ११ बोधव्वे भाव खं १ ख २ पु २ ॥ ४ अवगाहणाणि पु० ॥ ५ अपिध मु० ॥ ६ दुग्गंधो ल्हसुणादी, कडुआ मु० ॥ ७ स्वस्वभावः ॥ ८ “शकानां पितृशुद्धिः, आभीरकाणां मन्थनिकाशुद्धिः" इति शीलाङ्कवृत्तौ ॥ For Private Personal Use Only 5 [ अधवा जो जेसिं गामातीणं खेत्ताणं सँसभावो, जधा - गामे गामधम्मो नगरे णगरधम्म इति, देवकुरादीणं वा खेत्ताणं पि जो सभावो, अधवा जधा परिपक्कक्रस सालिखेत्तस्स लुणितव्त्रसमये, अधवा उड्डलोग अधोलोग - तिरियलोगस्स वा जो 25 सभावो ४ । कालसमयो जो जस्स कालस्स सभावो — उस्सप्पिणी अवसप्पिणी, उस्सप्पिणी उस्सप्पति, [अवसप्पिणी अवसप्पति]। तथा - "सुभाणुभावा मुदिता एगंता सुसमा सुभा ।" ] एवं छव्विहो वि कालो वण्णेतव्वो जधा जंबुद्दीवपण्णत्तीए [ वक्ष २ सू० १९ तः पत्र ९२ ] ५ | पासंडसमयो जो जस्स पासंडस्स सभावो धम्मतेत्यर्थः, तं जधा ती आरंभेण धम्मं ववसिता, केसिंचि णाणाण (णाणेण) धम्मो, केसिंच अभिषेचनोपवास- गुरुकुलवासादिभिः ६ । संगारसमयो हि यस्य येन यस्मिन् कालः–अवधिर्दत्तः संगारसमयो, जधा पुव्वकयसंगारेण सिद्धत्थसारधिणा बलदेवो सम्बोधितो, पुट्टिलाए 30 तेयलिपुत्तो [ ज्ञाता० श्रु० १ ० १४ सूत्र १०२ पत्र १८९ - २] पभावतीए उद्दायणो एवमादि [ आव० चूर्णी भाग १ पत्र ३९९, आव० हारि० वृत्ति पत्र २९८ ] ७ । कुलसमयो जो जस्स कुलस्स धम्मो आचार इत्यर्थः, तद्यथा - —शकानां आवपितृशुद्धिः 10 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुति - खुष्णिसमलंकियं [ १ समयज्झयणे पढमो उद्देसओ खण्डशुद्धिः, आभीराणां अमातृमन्थनी शुद्धिः मन्थनी शुद्धी ८ । गणसमयो जो जस्स गणस्स समयो, तं जधा - मलगणस्स जो • मल्लो अणाहो मरति स मल्लैः संस्कार्यते पतितं चैनमुद्धरन्ति ९ । गण्डिसमयो जहा — भिक्खुणं गोसे पेज्जागंडी, मज्झण्हे भावणगंडी, अवर धम्मकधागंडी, संझाए समितिगंडी १० । भावसमयो इमं चैव अज्झयणं खयोवसमिए भावे ११ । एतेण चैव एत्थऽधिगारो, सेसाणि मतिविकोवणत्थं परूविताणि ॥ ३० ॥ णामणिप्फण्णो णिक्खेवो गतो । इदाणिं सुत्ताला वगणित्फण्णो णिक्खेवो, सो पत्तलक्खणो वि ण णिक्खिप्पति, कम्हा ?, लाघवत्थं, जम्दा अत्थि इतो ततियं अणुयोगदारं अणुगमो त्ति, तहिं वा णिक्खित्तं इहं णिक्खित्तं, इहं वा णिक्खित्तं तहिं णिक्खित्तं भवति, तम्हा तहिं चैव णिक्खिविस्सामीति । अह यदि प्राप्तावसरोऽप्यसौ न संन्यस्यते किमिहोच्यते ? इति उच्यते, निक्षेपमात्रसामान्यादसौ केवलमिहोपदर्श्यते, न तु न्यस्यते, गुरुता मा भूदिति । उक्तो निक्षेपः ॥ 5 २० दातयमणुयोगद्वारं अणुगमो न्ति । सो दुविधो— सुत्ताणुगमो निज्जुत्तिअणुगमो । णिज्जुत्तिअणुगमो तिविधो10 णिक्खेवणिज्जुत्तिअणुगमो उवघातणिज्जुत्तिअणुगमो सुत्तफासियणिज्जुत्तिअणुगमो । तत्थ णिक्खेवणिज्जत्ती अणुगता, जं एवं हेट्ठा णिक्खेववक्खाणं भणितं । इदाणिं उवघातणिज्जुत्तिअणुगमो —— उवघातो णाम प्रभवः प्रसूतिः निर्गम इत्यर्थः । मेघेच्छन्नो यथा चन्द्रो न राजति नभस्तले । उपोद्घातं विना शास्त्रं तथा न भ्राजते विधौ ॥ १ ॥ यथा हि दृष्टसङ्गो संवीतवदनो नरः । अभिव्यक्ति न यात्येवं शास्त्रमुद्धातवर्जितम् ॥ २ ॥ ] [ सो य उवघातो इमेहिं छब्बीसाए दारेहिं अणुगंतव्यो । तं जधा उसे १ णिसे य २ णिग्गमे ३ खेत्त ४ काल ५ पुरिसे य ६ । कारण ७ पश्चय ८ लक्खण ९ णये १० समोतारणा ११ ऽणुमते १२ ॥ १ ॥ किं १३ कतिविधं १४ कस्स १५ कहिं १६ के १७ कथं १८ केश्चिरं हवति कालं १९ । कति २० संतर २१ मविरहियं २२ भवा २३ ssगरिस २४ फासण २५ णिरुत्ती २६ ॥ २ ॥ [ आव० नि० गा० १४० -४१ पत्र १०४ ] एताणि जधा सामाइयणित्तीए तथा भाणियव्वाणि । उवग्घायणिज्जुत्ती गता ॥ संपति सुत्तफासिय णिज्जत्ती जं सुतरस वक्खाणं । तीसेऽवसरो सा पुण पत्ता विण भण्णते इधतिं ॥ १ ॥ किं ? जेणाऽसति सुत्ते कस्स तई ?, तं जदा कमप्पत्ते । सुत्ताणुगमे वोच्छिति होहिति तीसे तदाऽवसरो ॥ २ ॥ अत्थाणमिदं तीसे जइ तो सा कीस भण्णए इधरं ? । इध सा भण्णति णिज्जुत्तिमेत्तसामण्णतो णवरं ॥ ३ ॥ [ विशेषा० गा० ९९५ - ९९७ ] अतो एतेण संबंधेण । इदाणिं निज्जुत्तिअणुगमाणंतरं सुत्ताणुगमं भणामि, सुत्तस्स अणुगमो सुत्ताणुगमो, सुत्ताणुसरणमित्यर्थः । किमिह ऊणा-ऽधिक- विपज्जत्थादिदोसदुट्ठस्स आहु णिद्दोसस्स य वक्खाणं आरम्भति ?, [ण] सदोसस्स, अवणीतदोसस्स, अतो सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारयव्वं । सुतेऽगते सुद्धेति णिच्छिते तथ कते पदच्छेदे । सुत्तालावण्णासे णिक्खित्ते सुत्तफासो तु ॥ १ ॥ 30 एवं सुत्तागमो सुत्तालावयकयो य णिक्खेवो । सुत्तप्फासियनिज्जत्ती णया य वचंति समगं तु ॥ २ ॥ [विशेषा० गा० १०००-१] " तत्थ सुत्ताणुगमे सुत्तं उच्चरितव्धं अहीणक्खरं अणञ्चक्खरं अवाइद्धक्खरं अक्खलितं अमिलियं अविश्वामेलितं पडिपुण्णं पsिपुण्णघोसं कंट्ठो विप्पमुकं, तो तत्थ णज्जिहिहि ससमयपदं वा बंधपदं वा मोक्खपदं वा ससमयपदं वा णोससमयपदं 15 20 25 १ मेघच्छत्रे यथा सं० वा० मो० ॥ २ शास्त्रं न राजति तथाविधम् इति पाठभेदो बृहत्कल्प • मलय० वृत्तौ पत्र २ ॥ ३ “सामाइयपयं वा नोसामाइयपयं वा" इति अनुयोगद्वारसूत्रे पाठः सू० १५५ पत्र २६० ॥ For Private Personal Use Only . Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतगा० १-२ ] सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो । २१ वा, तो तम्मि उच्चारिते समाणे केसिंच भगवंताणं केइ अत्याधिकारा अधिगता भवंति, केइ अणधिगता, तो तेसिं अणभिगाणं अत्थाणं अभिगमणट्ठताए पएण पयं वत्तइस्सामि । तत्थ — संहिता य पदं चैव पयत्थो पदविग्गहो । चालणा पञ्चवत्थाणं छव्विधं विद्धि लक्खणं ॥ १ ॥” [ अनुयोगद्वारसूत्रे सू० १५५ पत्र २६१] तत्थ संहितासुत्तं इमं - * १. वुज्झिज्ज तिउहिजा बंधणं परिजाणिया । किमी बंधणं धीरे ? किं वा जाणं तिउहति ? ॥ १ ॥ बुझति । कुत्र बुध्येत ? धर्मे बुध्येत इति, बुज्झितं वा बुज्झेज्ज । बुज्झेज्जा त्रिकालप्रहणम्, बुद्धो तमेवार्थ पुनः पुनर्बुध्यते, बुध्यमानो वा बुध्येत । किं पुनः तं ? बुज्झेज्ज वा उवलभेज्ज वा भिंदेज वा । एवमन्येऽपि ज्ञानार्था धातवो वक्तव्याः, तद्यथा जहेज्ज वा आगमेज्ज वा । समयो ति अधियारो प्रस्तुतः, स च त्रिविधः, तद्यथा - १ पर २ 10 तदुभयश्च ३ । समयः स्वभाव इति कृत्वा तेषां स्वभावं बुध्येत, 'के नु सम्यक्प्रतिपन्नाः ? के मिध्याप्रतिपन्नाः ?” इत्येवं सर्वाध्ययनाधिकारं बुध्यते । अथवा बन्धं बन्धहेतुं वा बुध्येत । अत्राह — अविशिष्टमेवापदिष्टं 'बुध्येत' इति, न त्वपदिष्टम् 'इत्थं नाम बुध्येत बन्धं बन्धहेतुं ?,' उच्यते —— नन्वपदिष्टमत्रैव द्वितीयपादेन 'बंधणं परिजाणिया' इति, तेनानुक्तमपि ज्ञायते यथा 'बन्धं बन्धहेतूंच बुध्येत' । तत्र बन्धहेतुः प्रमादः साम्परायिकस्य कर्मणः, राग-द्वेष-मोहा वा पाणातिवातमातिगाणि वा मिच्छादंसणस ल्लपज्जवसाणाणि आरंभ-परिग्गहा वा, एवं बंधहेतू बुज्झेज्ज । एत एव विवरीता मोक्खहेतवो भवंति ते वि 15 बुज्झितव्त्रा भवंति। उक्तो बन्धहेतुः । बन्धस्तु प्रकृति- स्थित्यनुभाव प्रदेशा वक्तव्याः । तिउट्टेज त्ति त्रोडेज्ज । सा दुविधाtoesोडणा य भावनोडणा य । दव्वे देसे सव्वे य । देसे एगतंतुणा एगगुणेण वा छिण्णेण दोरो त्रुट्टो बुज्झति, सव्वेण वि त्रुटो त्रुटो चैव भणति । भावतोट्टणा भावेणैव भावो त्रोटेतव्वो णाण-दंसण-चरित्ताणि अत्रोडयित्ता तेहिं चैव करणभूतेहिं अण्णाण-अविरति-मिच्छादरिसणाणि त्रीडितव्वाणि जधुदिट्ठा वा पमातादिबंधहेतू त्रोडेज, बंधं च अट्ठकम्मणियलाणि त्रोडेज्ज । [ कहंं ?] उच्यते —— बंधणं परिजाणिया, बन्धस्तद्धेतवचोक्ताः, तं णु जाणणापरिण्णाए णाऊण पञ्चक्खाणपरिणाए 20 तिउट्टे । एतद् बन्धानुलोम्यात् सूत्रं गतम् इतरथा हि बुज्झेज्ज त्ति वा परिजाणेज्ज त्ति वा एकट्ठमिति कातुं तेन शुद्धः सन् बन्धनं परिज्ञाय तत् त्रोडेज्ज । अथवा बुज्झेज त्ति जाणणापरिण्णा गहिता, बंधणं परिजाणेञ्ज ति पञ्चक्खाणपरिणा । किमाहु बंधणं धीरो, किमिति परिप्रश्ने, आहुरिति एकान्तपरोक्षे, भगवति सिद्धिं गते जम्बूस्वामी अजसुधम्मं पुच्छतिकिमाहु बंधणं धीरे ? । तत्थ बंधो अट्टप्पगारं कम्मं । चतुव्विधो बन्धहेतू । अत्राह — इह सूत्रे नोक्ता बन्धहेतवो न चानुतमुक्तं स्यात् एवमुक्तमपि अनुक्तमस्तु, उच्यते — बन्धने उक्त बन्धो बन्धहेतुश्च अपदिष्टो भवति । धीरो इति बुद्ध्यादीन 25 गुणान् दधातीति धीरः । पुनराह — किं वा जाणं तिउद्धति ?, उच्यते - अथातः इहैव व्याकरणे तमेव बन्धं बन्धहेतूंच जाणणापरिण्णाए णातुं पञ्चक्खाणपरिण्णाए पडिसेहेतुं पच्छा तिउट्टति । तिउदृइ ति बंधणाई तोडेइ, सो वा बंधणेहिं भिन्नो टति । अधवा पुव्वद्धेण उद्देसो, पच्छद्वेण पुच्छा, बितियसिलोगेण वागरणं, तेन कारणे कार्यवदुपचारं कृत्वा बन्धनमपदिश्यते ॥ १ ॥ 1 २. चित्तमन्तमचित्तं वा परिगिज्झ 'किसामवि । अण्णं वा अणुजाणांति एवं दुक्खा ण मुञ्चति ॥ २ ॥ चित्तमन्तमचित्तं वा० सिलोगो । उक्तं हि "आरम्भ - परिग्रहौ बन्धहेतू" [ 5 १ तिउट्टेज्जा खं १ खं २ तितुट्टेजा पु १ | तिकुट्टेज्जा पु२ ॥ २ किमाह खं १ ख २ पु २ ॥ ३ वीरे खं १ खं २ पु २ वृ० दी० ॥ ४ खः परः तदु मु० ॥ ७ मतम खं १ ॥ ८ कसामवि खं १ ॥ ९ एवं खं २ पु १ पु २ ॥ ५ तत्तूपदिष्ट पु० ॥ ६ वि त्रुटो चेव वा० मो० ॥ १० मुच्चती खं १ पु १ ॥ ] येsपि च रागादयः तेऽपि 30 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१ समयज्झयणे पढमो उद्देसओ नाऽऽरम्भ-परिग्रहावन्तरेण भवन्तीति, तेन तावेव वा गरीयांसाविति कृत्वा सूत्रेणैवोपनिबद्धौ, तत्रापि परिग्रहनिमित्तं आरम्भः क्रियत इति कृत्वा स एव गरीयस्त्वात् पूर्वमपदिश्यते, पंचण्हं वा पाणातिवातादिआसवाणं परिग्गहो गुरुअतरो त्ति कातुं तेण पुव्वं परिग्गहो वुच्चति । तत्थ चित्तमंतं तिविधं-दुपदं चतुप्पदं अपदं । अचित्तमंतं हिरण्ण-सुवण्णादि । वा विभाषायाम् , मिश्र चेति । परिगिज्झ किसामवि, किसामवीति कृशं तनु तुच्छमित्यनान्तरम् , तृणतुषमात्रमपि । अथवा कषायमपीति इच्छामात्रं 5 प्रार्थना; अथवा कषायतः असत्यपि विभवे कषायतः परिगृह्यमाणानि वस्त्र-पात्राणि परिग्रहो भवति । तमेव सई परिगिण्हइ, अण्णेण परिगिण्हावेति, परिगृहंतं च त्ति सुत्तेण चेव भणियं, अण्णं वाऽणुजाणाति । सूचनामात्रं सूत्रं इति कृत्वा खयङ्करण-कारवणानि अणुमतीए गिहिताइं, णवगो वा भेदो । एवं दुक्खा ण मुञ्चति, एवं सो णवएण भेदेण परिग्गहे वट्टमाणो दुक्खातो न मुञ्चति । तत्र दुक्खं कर्म तद्विपाकश्च । एवं बुज्झेज-सपरिग्गहस्त णियमा पाणादिवायादयो भवंति, तेण पुव्वं परिग्गहो भणिओ, मेथुणं परिग्गहे चेव पडति, समजिगण-णासे य परिग्गहदोसा भाणितव्वा। उक्तं हि-'परिग्रहे10 ध्वप्राप्त-नष्टेषु काङ्क्षा-मोहौ, प्राप्तेषु च रक्षणं, उपभोगे चातृप्तिः" [ ]॥२॥ इदाणीमारंभो, सो य परिग्गहमेव, तत्थ सिलोगो ३. सयं तिवातए पाणे अदुवा अण्णेहिं घातये। हणंतं वाऽणुजाणाति वेरं वड्डेति अप्पणो ॥३॥ सयं तिवातए पाणे० [सिलोगो] । सयमिति स्वतः तिवायए त्ति आयुर्बल-शरीरप्राणेभ्यो त्रिभ्यः पातयतीति 15 त्रिपातयति, त्रिभ्यो वा मनो-वाक्-काययोगेभ्यः पातयति, करणभूतैर्वा मनो-वाक्-काययोगैः पातयतीति त्रिपातयति । अतिपातयतीति वा वक्तव्यम् , अकारलोपं कृत्वाऽपदिश्यते तिपातयति । अदुवा अण्णेहिं घातये, अदुवा अन्यैर्घातयति यथा राजादयः । हणंतं वा अणुजाणाति, जधा उद्दिट्ठभोयिणो पासंडा । अस्मिंत्रितये कश्चित् स्वयं त्रिविधेऽपि करणे वर्त्तते, कश्चिद् द्विविधे, कश्चिदेकविधे। सर्वथाऽपि वर्तमानो वेरं बड्डेति अप्पणो, विरज्यते येन तद् वैरम् , सैंणगवधिति (सुणगवधे वि) ताव परंपरं वट्टमाणे महासंगामे हवेज, किमंग पुण पुरिसवघे गोणादिवघे वा? । एत्थोदाहरणं वारत्तएणं "महुबिंदुम्मि 20 पसंगो"[ ]। अथवा 'वेर मिति अट्ठप्पगारं कम्मं । उक्तं हि-"पावे वेरे वजेति ता वरं" [ प्राणातिपाताचैरारम्भैर्वर्द्धयन्ति, मृषावादा-ऽदत्तादाने अपि आरम्भान्तर्गते एव, एवं बुज्झेज ॥३॥ तत् किमर्थमारभते प्रतिगृह्णाति वा ? उच्यते ४. जसी कुले समुप्पण्णो जेहिं वा संवसे णरे । __ ममाती लुप्पती बाले अण्णमण्णेहिं मुच्छिते ॥४॥ 25 जंसी कुले समुप्पण्णो० सिलोगो। परिग्रहावशेषमेवाभिधीयते-जंसी कुले समुप्पन्नो, यस्मिन्निति अनिर्दिष्टे कुले इति मातृ-पितृपक्षे । जेहिं वा संवसे णरे भज्जा-ससुर-सहवास-मित्तातिएहि । ममाती लुप्पती बालो, ममाती णाम ममैते बान्धवा इति, ममीकारदोसेण य लुप्पति उच्यते तिउट्टणधम्मातो त्ति, द्वाभ्यामाकलितो बालः । अण्णमण्णेहि मुच्छिते त्ति तेसु पुव्वसंथुतेसु पच्छासंथुतेसु वा। एत्थ चउभंगो-सो तेसु मुच्छितो ण ते तत्थ मुच्छिता १ [ते तत्थ मुच्छिता] ण सो तेसु २। सूत्राभिहितस्तु अण्णमण्णेहिं मुच्छिते त्ति सो वि तेसु ते वि तम्मि त्ति ३ चतुर्थः शून्यः ४ । एवं बुझेज्ज ॥ ४ ॥ 30 किञ्चान्यत्, न केवलं स्वजनमूर्च्छिता लुप्यन्ते अन्यत्रापि मूर्च्छिता लुप्यन्ते । तं जधा १ तमेव नो सई परिगिण्हइ, नो अण्णेण चूसप्र० ॥ २ काङ्गा-मोक्षी, प्रा चूसप्र० ॥ ३ शुनकवध-चारत्तकामाल्य-धर्मघोषसाधुसम्बद्धं मधुबिन्दूदाहरणं पिण्डनियुक्तौ छर्दितदोषाधिकारे ६२८ गाथायां तट्टीकायां च वर्तते, पत्र १६९-२ । आव०नि० गा० १३०३ हारि० वृत्ति पत्र ७०९, आव० चूर्णि विभाग २ पत्र १९७॥ ४जस्सि खं १ खं २ पु १ पु २॥ ५"जेहिं वा सद्धिं संवसई" आचा० श्रु० १ अ० २ उ० १ सूत्र २॥ ६ लुप्पति उवत्तेति उदृढ धम्मातो मु.॥ Jain Education Intemational Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ सुत्तगा० ३-७] सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। ५. वित्तं सोदरिया चेव सव्वमेतं न ताणए। संधाति जीवितं चेव कम्मणा उ तिउद्दति ॥५॥ वित्तं सोदरिया चेव० सिलोगो । अधवा जं वुत्तं "अण्णमण्णेहि मुच्छिते" [सू० गा० ४ ] त्ति एषा मूर्छा न त्राणाय भवतीत्यपदिश्यते 'वित्तं सोदरिया चेव' । विद्यत इति वित्तं, तं तिविधं सचित्तादी। सचित्तं त्रिविधं दुपयादि १ अचित्तं हिरण्णादि २ मीसयं तिविधं तदेव दुपदादि वक्तव्यम् ३ । सोदरिया णाम भाता भगिणी णालबद्धा वा समाणो- 5 दरिका सहोदरिका मनुष्यजातयो गृह्यन्ते, तत्रापि ये तमाश्रिता अपरिचयंतो य कधं त्रोटयति(न्ति)?, इहापि ताव भवे ज्ञातयो परिग्रहश्च न त्राणाय, किमङ्ग पुण प्रेत्येति २, पालकपादच्छेदोदाहरणं [आव• हारि० वृत्ति पत्र ६८१, आव० चूर्णी भाग २ पत्र १६९] वक्तव्यम् । किञ्च–यानिमित्तमसौ परिग्रहः परिगृह्यते तदप्यसञ्जातानां संधाति जीवितं चेव, समस्तं धाति संधाति मरणाय धावति, जीवनवत् कामभोगाऽपि हि अग्नि-चौरादिविनाशाय वाधंति (धावंति)। एवं जीवितं कामभोगांश्चानित्यात्मकं जानीहि । मूछीनामस्य कर्माणि बध्यन्ते, तेभ्यः स्वयं तिउद्देज ताणि वा तोडेज । अधवा न केवलं मनसा 10 कर्माणि त्रोडेज, इतरथाऽपि हि कर्माणि चेव त्रोडिज्जति । पठ्यते च-"संखाए जीवितं चेव कम्मणा उतिउति" । संखाए त्ति ज्ञात्वा जाणणासंखाए 'अणिचं जीवितं' ति, तेण कम्माइं कम्महेतू यत्रोडेज ॥ ५ ॥ ६. एते गंथे विउक्कम्म एगे समण-माहणा। अयाणंता वियोसिया सत्ता कामेसु माणवा ॥६॥ एते गंथे विउक्कम्म० सिलोगो। तत्राऽऽरम्भग्रहणेन तिणि आसवा पाणातिवातादयो गहिता, परिग्गहगहणेण 15 मेहुण-परिम्गहा गहिता भवंति । अधवा समयः प्रस्तुतः, ते सामयिकाः एते गंथे विउक्कम्म, एते इति ये प्रागुद्दिष्टाः "चित्तमंतमचित्तं वा" [सू० गा० २] अधवा “वित्तं सोदरिया" [ सू० गा० ५] । आरंभ-परिग्गहो वा अथ्यते येन स ग्रन्थः, ग्रन्थमात्रं वा ग्रन्थः, तं ग्रन्थं ग्रन्थहेतूंश्च विविधमुत्क्रान्ता विउक्तता, अथवा विविधैः प्रकारैः उक्कामंति विउक्कमंति, विउक्कमित्ता पुणरवि तेसु चेव बटुंति, यथा शाक्यादयो, एगे त्ति नास्मदीयाः, श्रमणाः शाक्यादयः, माहणाः परिव्राजकादयः । अयाणंता वियोसिया, अयाणंता विरति-अविरतिदोसे य, विविधं ओसिता विओसिता, बद्धा इत्यर्थः, बीभत्सं वा उत्सृता 20 "विउस्सिता" । कामाः शब्दादयः। मनोरपत्यानि मानवाः। अथवा एतान् सचित्तादीन ग्रन्थान अतिक्रम्य अस्मन्मतका अपि एके न सर्वे समणा लिंगत्था माहणा समणोवासगा, तत्पुरुषो वा समासः, श्रमणा एव माहणा श्रमणमाणाः, नैश्चयिकनयं प्रतीत्य ते हि अयाणका एव, ये ये ज्ञानोपदेशे न तिष्ठन्ति पासत्थादयो ते वि परतित्थिया इव अपारगा, किमंग पुण कामभोगपवित्ता गृहस्था अप्पसत्थिच्छा कामेसु इच्छाकामेसु मयणकामेसु वा सत्ता? ॥ ६ ॥ वुत्ता ओहतो समयपरिक्खा । इदाणिं विभागेण परतित्थियाण तिणि तिसट्ठाणि पौवादियसदाणि परिक्खिजंति । 25 तत्थ पुव्वं पंचमहन्भूतवादिणो भवंति, उद्देसत्थाधिकारे य भणितं-"महपंचभूत एकप्पये अ तज्जीवतस्सरीरी य ।" [नि० गा० २७] तत्थ पंचमहाभूतियाण समयं परूवेति भगवं ७. संति पंच महन्भूता इहमेगेसि आहिता। पुढवी आऊ तेऊ वाऊ आगासपंचमा ॥७॥ संति पंचमहब्भूता० सिलोगो । संतीति विद्यन्ते, पञ्चमहग्रहणं तन्मात्रज्ञापनार्थम् , भूतानि पृथिव्यापस्तेजो वायु-30 राकाशमिति, इहेति इह मनुष्यलोके एगेसिं ण सव्वेसिं, जे पंचमहब्भूतवाइया तेसिं एवं आहिता आख्याताः । तत्र यो १ ताणते खं १॥ २ संखाए जीवितं खं १ ख २ पु १ पु २ चूपा० वृ० दी० ॥ ३ कम्मुणा खं १॥ ४ तमात्रिता पु० विना ॥ ५'रिवयं वा० मो० ॥ ६ आवश्यकचूर्णिकृता पालकस्थाने सुलस इति नाम निर्दिष्टमस्ति, तत् किल पालकस्य नामान्तरं सम्भावनीयम् ॥ ७ मूर्च्छतामस्य मु०॥ ८ विउस्सित्ता ख १ चूपा० वृ० दी । विओसित्ता खं २॥ ९कामेहिं मा ख १ ख २ पु १ पु २॥ १० शक्यादयो चूसप्र० ॥ ११ प्रावादुकशतानि ॥ १२ पुव्वमेव पंच मु०॥ १३ °सिमाहिया खं २ पु १ पु २ ॥ Jain Education Intemational Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१ समयज्झयणे पढमो उद्देसओ ह्यस्मिन् शरीरके कठिनभावो तं पुढविभूतं, 'यावत् किश्चिद् रूपं तं आउभूतं, उसिणस्वभावो कायाग्निश्च तेउभूतं, चलस्वभावं उच्छासनिःश्वासश्च वातभूतं, वदनादिशुषिरस्वभावमाकाशम् ॥ ७ ॥ ८. एते पंच महन्भूता तेभो एगो त्ति आहिता। ___ अध तेसिं विसंयोगे विणासो होति देहिणं ॥ ८॥ 5 एते पंच महन्भूता सिलोगो । एते इति ये उद्दिष्टाः, तेभ्य एक आत्मा भवति, पिष्ट-कण्वो (किण्वो)दकनिमित्तायाः सुराया मदवत् । अथवा-"ते भो! एगो" त्ति सिस्सामत्रणं । एवमाख्याति-भौतिकोऽयं लोकः, चेतनमचेतनद्रव्यं सर्व भौतिकम् । अध तेसिं [वि]संयोगे, अथ इति अव्ययं निपातः, तेषामिति तेषां भूतमयानां प्राणिनां विगतः संयोगो विसंयोगो, विणासो होति देहिणं, विणासो नाम पञ्चस्वेव गमनम् , पृथिवी पृथिवीमेव गच्छति, एवं शेषाण्यपि गच्छन्ति । उक्तं हि जध मजंगेसु मओ वीसुमदिट्ठो वि समुदये होउं । कालंतरे विणस्सति तध भूतगणम्मि चेतण्णं ॥ १ ॥ अस्योत्तरम्पत्तेयमभावातो ण रेणुतेल्लं व समुदये चेता। मजंगेसुं तु मदो वीसं पि ण सव्वसो णत्थि ॥ २ ॥ भमि-धणि-वितण्हयादी पत्तेयं पि हु जधा मदंगेसु । तध जइ भूतेसु भवे ता तेसिं समुदये होन ॥ ३ ॥ जइ वा सव्वाभावो वीसुं तो किं तदंगणियमोऽयं? । तस्समुदयणियमो वा? अण्णेसु वि तो हविज्जाहि ॥४॥ तस्सा(भस्म-)गोमयादिषु । भूताणं पत्तय पि चेतणा समुदए दरिसणातो। जध मज्जंगेसु मयो मति त्ति हेऊ ण सिद्धोऽयं ॥ ५ ॥ [विशेषा० गा० १६५१-५५] स्यान्मतिः-साधूक्तम् , यत् पृथगपि मद्याङ्गेषु मदसामर्थ्यमस्ति, एतदेव हि व्यस्तभूतचेतनायामुदाहरणम् । इह व्यस्तेष्वपि भूतेषु चैतन्यमस्ति, तत्समुदये दरिसणा, मद्याङ्गे मदवत् , यथा मद्याङ्गेषु मदः पृथगणुत्वान्नातिस्पष्टः, तत्समुदये तु व्यक्तिमेति, तथा पृथगू भूतेष्वणीयसी [चेतना तत्समुदाये भूयसी] भवतीति, उच्यते-यथाऽऽत्थ त्वं भूतसमुदयगुणाभिप्रायतो 20 'चेतनायाः तत्समुदये दर्शनात्' इत्ययमसिद्धः, न हि भूतसमुदयस्येयं चेतना, यदि भूतसमुदयस्येयं भवेद् व्यस्तभूतचैतन्यमपि प्रतिपद्येमहि । आह-ननु प्रत्यक्षविरुद्धमिदम्, यत् समुदयोपलभ्या चेतना न समुदायस्येति, यद्वद् घटोपलभ्या रूपादयो न घटस्येति, उच्यते-] न हि समुदयदर्शनादवश्यं तद्गुणत्वम् , अनुमानसद्भावात् , घटरूपादयस्त्वर्थान्तरस्येति नानुमानमस्ति, भवत एव हि प्रत्यक्षविरुद्धमिदं भूतचैतन्यप्रतिज्ञानम् , [अनु]मानाभावात् , भूतविशिष्टमात्रपुद्गलानामेव", न सात्मकानाम् , अविप्रतिपत्तेः । आह-न भूतसमुदयस्य चैतन्यमिति किमनुमानम् ? उच्यते-भूतेन्द्रियातिरिक्तः सञ्चेतयिता, 25 तदुपलब्धार्थानुस्मरणात् , यो हि यैरुपलब्धानर्थानेकोऽनुस्मरति स तेभ्योऽन्यो दृष्टः, यथा गवाक्षरुपलब्धानननुस्मरन तेभ्यो देवदत्तः, यश्च यतो नान्यो नासावेकोऽनेकोपलब्धानामर्थानामनुस्मर्ता, यथा मनोविज्ञानम् । इतश्चेन्द्रियातिरिक्तो १यत किश्चिद द्रवं तं मु०॥ २ ते भो! एगो चूपा० । ते भो! एक्को खं २ पु १ पु २॥ ३ अह तेर्सि विणासे णं वि° खं १ पु १ दी। अह एसि विणासे उ विखं २ पु२ वृ०॥४ देहिणो खं १ वृ० दी० ॥५भवे चेता तो समुदये इति विशेषावश्यके पाठः ॥६"समुदितेषु तद्भस्म-गोमयादिषु मदः स्यात्" इति विशेषावश्यकस्खोपज्ञटीकायाम् । “भस्मा-ऽम्लादिमेलकादावपि स्यान्मदशक्तिः” इति विशेषा. कोट्या. टीकायाम् पत्र ५१७ । “भस्मा-ऽश्म-गोमयादिषु समुदितेषु" इति विशेषा० मलधारीटीकायाम् पत्र ७०७ ॥ ७ हस्तचिह्नमध्यगतः समग्रोऽपि चर्णिग्रन्थसन्दर्भः विशेषावश्यकखोपज्ञटीकायां "भूताणं पत्तेयं०" प्रभृतिगाथाटीकारूपेण वर्त्तते । यच्चात्र कोष्ठकान्तरनुसन्धितं तत् तत एवेति ज्ञेयम् ॥ ८ दर्शना, मद्या वा० मो० । दर्शनात्, मद्या विखो० मु०॥९°मुदायों वा० मो० ॥ १० चैतन्यं प्रतिज्ञानम् वा. मो. मु०॥ ११°मात्रे पुद्ग वा० मो. मु०॥ १२ मेव तदात्मका मु०॥ १३ यथा विवृतगवा: विखो० ॥ १४ यतोऽनन्यो विखो०॥ Jain Education Intemational mational : Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 . सुत्तगा० ८-१० णिज्जुत्तिगा० ३१] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। २५ विज्ञाता, [ तदुपरमेऽपि ] तदुपलब्धार्थानुस्मरणात् , यो हि [ यदुपरमेऽपि ] यदुपलब्धानामर्थानामनुस्मर्ता स तेभ्योऽन्यो दृष्टः, यथा गवाक्षोपलब्धानामर्थानां गवाक्षोपरमेऽपि देवदत्तः, अनुस्मरति चायमात्मा अन्ध-बधिरादिकाले पञ्चेन्द्रियोपलब्धानर्थान् , अतः स तेभ्योऽर्थान्तरमिति । व्यतिरेकः पूर्ववत् । इतश्चेन्द्रियातिरिक्तो विज्ञाता, तब्यापारेऽप्यनुपलम्भतः, यो हि यद्व्यापारेऽपि यदुपलभ्यानर्थान् नोपलभते स तेभ्योऽन्यो दृष्टः, यथा विवृतगवाक्षोऽपि तदर्शनानुपयुक्तस्तेभ्यो देवदत्तः छ [विशेषा० १६५५ तः ५८ गाथानां स्त्रोपज्ञटीका] ॥८॥ इमं पुण णिज्जुत्तीए उत्तरं भण्णति * पंचण्हं संयोगे अण्णगुणाणं चै चेयणादिगुणो। पंचेंदियठाणाणं ण अण्णमुणितं मुणति अण्णो ॥ ३१॥ ॥ समओ समत्तो १॥ सङ्ख्या ईश्वरकारणिका वैदिका वैशेषिका अनभिगृहीतमिथ्यादृष्टयश्च गृहस्थाः सर्वेऽपि भौतिकं शरीरं वर्णयन्ति, 10 तेषां पुनर्भूतव्यतिरिक्तआत्माऽस्तिता ॥ ३१ ॥ वुत्ता पंचमहब्भूतिया । अयमन्यो मिथ्यादर्शनविकल्पः-तत्र केचिद् एकात्मकं जगदिच्छन्ति, तत्र केषाश्चिद् विष्णुः कर्ता, केषाश्चिद् महेश्वरः, स हि कृत्वा जगत् पुनः सङ्क्षिपति । ते पुनर्यदा परैश्चोद्यन्ते 'कथमेकात्मकं विलक्षणं च जगदिति ?' इति चोदिता ब्रुवते ९. जथा य पुढवीथूभे एगे नाणा हि दीसह। एवं भो! कसिणे लोएं विण्णू नाणा हि दीसए ॥९॥ ९. जथा य पुढवीथूमे० सिलोगो । यथेति येन प्रकारेण पृथिव्येव स्तूपः पृथिवीस्तूपः, तत्पुरुषसमासः, स एक एव स्तूपो नानात्वेन दृश्यते । तद्यथा-निनोन्नत-सरित्-समुद्रोपल-शर्करा-सिता-गुहा-दरिप्रभृतिभिर्विशेषैर्विशिष्टोऽपि पृथिवीत्वेन [न] व्यतिरिक्तो दृश्यते, अथवा य एको मृत्पिण्डश्चक्रारोपितः शिबक-स्तूप-च्छन्न-मूल-घटादिभिर्विशेषैरुत्पद्यते । तथा चोक्तम्एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ १॥ 20 . [ब्रह्मबिन्दूपनिषत् श्लोक १२] एवं भो! कसिणे लोए, कसिणग्गहणं न शनीश्वरात्मकं किञ्चिदस्ति । विष्णरिति विद्वान् विष्णुर्वा । नाना अर्थान्तरत्वे देव-मनुष्या-ऽजा-ऽवि-कृमि-पिपीलिका-वृक्ष-गुल्म-लता-वितान-वीरुधादिभिर्विशेषैदृश्यते परिणतः॥ ९॥ १०. एवमेगो त्ति जंपंति मंदा आरंभणिस्सिया। ऐगो किच्चा सयं पावं तेणं तिव्वं णियच्छति ॥ १० ॥ १०.एवमेगोत्ति जपति सिलोगो।एवं अनेन प्रकारेण योऽयमुक्तः एगोत्ति “एक एव पुरुषः” एवं प्रभाषन्ते मंदा नाम मन्दबुद्धयः, आरम्भे नियतं आश्रिता आरम्भनिश्रिताः। तेषामुत्तरम्-यदि विष्णुमयं सर्वं तेन एगो किच्चा सयं पावं, यदीश्वरः कर्ता तेन यदेकस्य सुखं दुःखं वा तत् सर्वेषामस्तु, एकात्मकत्वे हि सति एकः कृत्वा स्वयं पापं कथमस्यै नु वेदको वेदयते ? नान्ये वेदयन्ते ? इति, यस्माच्च य एव पापं करोति स एव वेदयति, नान्यः, तेन एकात्मकत्वं न भवति । तेण तिव्वं णियच्छतित्ति य एव कर्त्ता स एव त्रिप्रकारं कायिकादि कर्म णियच्छति, वेदयतीत्यर्थः । अथवा त्रिभिस्तापयतीति त्रिप्रम. 30, १°कालेऽपीन्द्रियो विखो० ॥ २°पलब्धानर्था चूसप्र० ॥ ३च चेइणाइगुणे पु २॥ ४ मास्तिना ॥ ३१॥ पु० । 'त्मा नास्ति ॥ ३१ ॥ सं० वा. मो० ॥ ५ जहा य पुढवीवूहे एगे णाणिहि दीसंती खं १॥ ६ लोए एगे विजाऽणुवत्तए खं १७० दी। लोए विष्णू नाणा हि दीसए खं २ । लोए विष्णू नाणा हि वट्टई पु १ पु २॥ ७°च्छन्नअस्तल° मु.॥ ८ एवमेगे त्ति खं १ खं २ वृ० दी । एवमेगे ति पु १ पु २॥ ९एगे कि खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ १०पावं तिव्वं दुक्खं निख १ ख २ वृ० दी। पावं तेणं तिव्वं निपु १ पु २॥ ११ निगच्छति दी. ॥ १२ एतद्द्वाथानन्तरं खं २ पु १ पु २ प्रतिषु सर्षगतवादी गतः इति वर्तते ॥ १३ स्य न वेदको चूसप्र० ॥ सूय सु०४ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकिय [१ समयज्झयणे पढमो उद्देसओ किश्च तत् ?, कर्म । किश्चान्यत्-एकात्मकत्वे हि सति पितृ-पुत्रा-ऽरि-मित्रता न घटते । अथवा एकत्वे हि खल्वात्मनो न सुखादयः संविद्यन्ते, सर्वगतत्वात् , इह यत् सर्वगतं न तत् सुखादिगुणम् , यथाऽऽकाशम् । एवं न बध्यते, सर्वगतत्वात्, इह यत् सर्वगतं न तद् बध्यते, यथाऽऽकाशम् , यच्च बध्यते न तत् सर्वगतम् , यथा देवदत्तः । एवं न मुच्यते न कर्ता न भोक्ता [न मन्ता] न संसारीत्यादि । नाऽऽत्मैकत्वे सुखी, बहुतरोपघातात्, इह यो बहुतरोपघातो नासौ सुखी, यथा 5 सर्वरोगावृतो अमुल्येकदेशेऽरोगः, यश्च सुखी नासौ बहुतरोपघातः, यथेष्टविषयसम्पदुपेतो[ऽनुपद्रवो] देवदत्तः । न चासौ मुक्तः, बहुतरोपनिबन्धनात् , इह यो बहुतरोपनिबन्धनो नासौ मुक्त इति व्यपदिश्यते, न चामुक्तः सुखमश्नुते, यथा सर्वाङ्गशीलितो विमुक्ताङ्गुल्येकदेशः पुमान ; यश्च मुक्तो नासौ बहुतरोपनिबन्धनो न च खल्पनिबन्धनः, यथाऽशीलितः पुमान् । त्वपर्यन्तमात्रशरीरव्यापी जीवः, तत्रैव तद्गुणोपलम्भात्, इह यस्य यावति गुणोपलम्भः स तन्मात्रो दृष्टः, यथा घटः, यश्च यत्रासन् न तस्य तत्र गुणोपलब्धिः ; यथाऽग्नेरम्भसि [विशेषा० १५८४ तः ८६ गाथानां स्वोपज्ञटीका ] ॥ १०॥ 10 उक्ता एकात्मवादिनः । इदाणिं तज्जीवतस्सरीरवादी । ते भणंति ११. पत्तेयं कसिणे आया जे बाला जे य पंडिता । संति पेचा ण ते संति णत्थि सत्तोर्वपातिया ॥ ११ ॥ ११. पत्तेयं कसिणे आया० सिलोगो। पत्तेयं नाम पृथग् एकैकं शरीरं प्रति एक एवाऽऽत्मा भवति, न हि सर्वमेकात्मकम् । कसिणो णाम शरीरमात्रः, न तु शरीराद् व्यतिरिच्यते । बाला नाम मन्दबुद्धयः, पंडिता बुद्धिसंपण्णा, अथवा 15 पंडिता जे एतं दरिसणं पवण्णा, तेषां प्रत्येकश एकैक आत्मा । तेषां तु संति पेचा ण ते संति, सन्तीति सन्ति आत्मानः, केवलं तु शरीरं आत्मा भूत्वेह च प्रेत्य न ते यान्ति । प्रेत्य नाम परभवो। कथम् ? न हि सत्ता औपपातिका विद्यन्ते ॥११॥ ___ यतश्चैवं तेण १२. णत्थि पुण्णे व पावे वा णत्थि लोगे इतो परं। ___ सरीरस्स विणासेणं विणासो होति देहिणं ॥१२॥ 20 १२. णत्थि पुण्णे व पावे वा० सिलोगो। न हि किश्चित् तपो-दान-शीलैरप्याचर्यमाणैः पुण्यं बध्यते, हिंसाद्यैर्वा पापम् । णत्थि लोगे इतो परं ति न चास्त्यन्यो लोकः यत्र पुण्य-पापे अनुकूल्येयाताम् । कस्मात् ? सरीरस्स विणासेणं विणासो होति देहिणं । स्यादेतत्-यदि पुण्य-पापे न भवतः तेनायमीश्वरः अनीश्वरो [वा] न विद्यते, नन्वेकस्मादेव पाषाणाद् रुद्रादिप्रतिमा क्रियते पादप्रक्षालनशिला च, न चानयोः पुण्य-पापे स्तः, एवं स्वभावादेव ईश्वरो भवत्यनीश्वरो वा । उक्तं च कण्टकस्य च तीक्ष्णत्वं, मयूरस्य च चित्रता । "पौर्णाश्च नीलताऽऽम्राणां स्वभावेन भवन्ति हि ॥ १॥ तेषामुत्तरम्- विद्यमानकर्तृकमिदं शरीरम् , आदिमत्प्रतिनियताकारत्वात् , इह यदादिमत् प्रतिनियताकारं च तद् विद्यमानकर्तृकं दृष्टम् , यथा घटः; यच्चाविद्यमानकर्तृकं न हि तदादिमत् प्रतिनियताकारं च, यथाऽऽकाशम् ; यत्कर्तृकं चेदं शरीरं स जीवस्तस्मादन्य इति । आदिमत्त्वविशेषणं जम्बूद्वीपादिलोकस्थितिनिषेधार्थम् । विद्यमानाधिष्ठातृकाणीन्द्रियाणि, १ हस्तचिह्नान्तर्गतोऽयं समग्रोऽपि चूर्णिग्रन्थसन्दर्भश्चर्णिकृताऽक्षरशः विशेषावश्यकस्खोपज्ञटीकात आहृतोऽस्ति ॥ २ सम्पद्यन्ते विखो। सङ्कटन्ते मु०॥ ३ पञ्चा खं २ । पिचा वृ० दी० ॥ ४°ववाइया खं २ । विवायया पु १ पु २ ॥ ५ पश्चा वा० मो० ॥ ६ सत्त्वा इत्यर्थः । “न सन्ति' न विद्यन्ते 'सत्त्वाः' प्राणिनः उपपातेन निर्वृत्ता औपपातिकाः, भवाद् भवान्तरगामिनो न भवन्तीति तात्पर्यार्थः ।" इति वृत्तिकृतः ॥ ७परे खं २ पु १ पु २ वृ० दी। वरे खं १॥ ८ देहिणो खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ९ एतद्गाथानन्तरं खं २ पु १ पु २ प्रतिषु तज्जीवतच्छरीरवादी गतः इति वर्तते ॥ १०°स्य विचित्रता वृत्तौ ॥ ११ पौर्णाश्वनीलताऽऽम्ब्राणां स्वभा वा० मो० सं० । पर्णानां नीलता स्वच्छा स्वभा मु० । वर्णाश्च ताम्रचूडानां स्वभा वृत्तौ ॥ १२ हस्तचिहान्तर्गतोऽयं ग्रन्थसन्दर्भश्चर्णिकृता अक्षरशः विशेषावश्यकस्वोपज्ञटीकात आहृतोऽस्ति ॥ Jain Education Intemational Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ११-१४] सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो । २७ करणत्वात्, इह यत् करणं तद् विद्यमानाधिष्ठातृकं दृष्टम्, यथा दण्डादयः कुलालाधिष्ठिताः; यच्चाविद्यमानाधिष्ठातृकं न तत् करणम्, यथाऽऽकाशम्, यश्चैषामधिष्ठाता स जीवस्तेभ्योऽर्थान्तरमिति । विद्यमानादातुकमिदं इन्द्रियविषयकदम्बकम् आदाना -ऽऽदेयभावात्, इह यत्राऽऽदाना-ऽऽदेयभावस्तत्र विद्यमानादातृकत्वं दृष्टम्, यथा संदंशा - ऽयः पिण्डयोरयस्कारादातृकता; यच्चाविद्यमानादातृकं न तत्राऽऽदाना-ऽऽदेयभाव:, यथाऽऽकाशे, यश्च विषयाणामिन्द्रियैरादाता स तेभ्योऽर्थान्तरमात्मेति । विद्यमानस्वामिकमिदं ( विद्यमानभोक्तृकमिदं ) शरीरम्, इन्द्रियादिभोग्यत्वात् इह यद् भोग्यं तद् विद्यमान - 5 भोक्तृकं दृष्टम्, यथाऽऽहार-वस्त्रादि; यच्चाविद्यमानभोक्तृकं न तद् भोग्यम्, यथा खरविषाणम्, यश्चैषां शरीरादीनां भोक्ता स तेभ्योऽर्थान्तरमात्मेति । विद्यमानस्वामिकमिदं शरीरम् इन्द्रियादिसङ्घातत्वात् यत् सङ्घातात्मकं तद् विद्यमानस्वामिकं दृष्टम्, यथा गृहम् ; यचाविद्यमानस्वामिकं तदसङ्घातात्मकम्, यथा खरविषाणम्, यश्चैषां शरीरादीनां स्वामी स तेभ्योऽर्थान्तरमात्मेति । येश्वायं कर्त्ता अधिष्ठाताऽऽदाता भोक्ता अर्थी चोक्तः स शरीरादन्यो जीवः, तथा चैवोदाहृतम् । स्यात् — कुलालादीनां मूर्त्तिमत्त्व -सङ्घाता ऽनित्यत्वादिदर्शनादात्मनोऽपि तद्धर्मता, सा तैर्विरुद्धा प्रायः तच्च न, संसारिणः खल्वदोषात्, 10 संसार्यवस्थायामेवायं साध्यते, न मुक्तावस्थायाम् । अयं चानादिकर्मसन्तानोपनिबन्धनत्वाद् द्रव्य-पर्यायार्थिकनयाभिप्रायाच्च तद्धर्माऽपीत्यदोषः । किञ्च – योऽयं जातिस्मरः स अविनष्ट हायातः, तदनुभूतानुस्मरणात्, योऽन्यदेश-कालानुभूतमर्थमनुस्मरति सोऽविनष्टो दृष्टः, यथा बाल्यकालानुभूतानां यज्ञदत्तः । अथ मन्यसे —— जन्मान्तरविनष्टोऽप्यनुस्मरति, विज्ञानसन्तानावस्थानात्, उच्यते, एवमपि भवान्तरसद्भावः सर्वशरीरेभ्यश्च विज्ञानसन्तानार्थान्तरता सिद्धा, अविच्छिन्नविज्ञानसन्तानात्मकचेत्यात्मेति शरीरादर्थान्तरमेव सिद्धः । ॥ [विशेषा० गा० १५६७ तः ७० तथा १६६७ तः ७२ पर्यन्तगाथानां स्वोपज्ञटीका ] । तथा च - 15 विष्णाणंतरपुव्वं बालण्णाणमिह णाणभावातो । जध बालणाणपुत्र्वं जुवणाणं तं च देहहियं ॥ १ ॥ पढमो थणाभिसी अन्नाहारा भिलासपुव्वोऽयं । जध संपदाभिलासोऽणुभूतितो सो य देहहितो ॥ २ ॥ [ विशेषा० गा० १६६१-६२ ] ।। १२ ।। उक्तस्तजीवतच्छरीरवादी । । इदाणिं अकारकवादिणो भण्णंति । तेषामयं पक्षः - १३. कुव्वं च कौरवं चैव सव्वं कुव्वं ण विज्जति । एवं अकारओ अप्पा एवमेगे पगब्भिया ॥ १३ ॥ १३. कुव्वं च कारवं चैव० सिलोगो । करोतीति कर्त्ता, सः "स्वतन्त्रः कर्त्ता” [ पाणि० सू० १-४-५४ ] इति कृत्वा न विद्यते । कारवं चैवति न चैनमन्यः कारयति विष्णुरीश्वरो वा । सव्वं कुव्वं ण विजति त्ति, सर्व सर्वथा सर्वत्र सर्वकालं चेति, अथवा यदपि च किञ्चित् करोति तथापि सर्वकर्त्ता न भवतीति कृत्वा अकर्त्ता एव भवति । एवं अकारओ अप्पा, एवं अनेन प्रकारेण योऽयमुक्तः । एगे णाम साङ्खयादयः ॥ १३ ॥ १४. जे ते तु वादिणो एवं लोए तेसिं कुँओ सिया । तमातो ते तमं जंति मंदा आरंभणिस्सिता ॥ १४ ॥ १ कुलालाधिष्ठितारः, यच्चा चूसप्र० ॥ २ यथाऽयं चूसप्र० ॥ ३ अर्थाचोक्तः शरी° चूसप्र० ॥ विरुद्धाभिप्रायः विखो० ॥ ५ दोषाः विखो० ॥ ६ सन्तानोपिनिब चूसप्र० ॥ ७ इहार्थतः, तद् बा[ल्यका]लानुभूतानामन्यदेशानुभूतानां वाऽर्थानामनुस्मर्त्ता देवदत्तः । यश्च विनष्टो नासावनुस्मरति यथा जन्मान्तरोपरतः मर्थानामन्यस्याकृतसङ्केतस्यानुस्मरणमस्ति, यथा देवदत्तानुभूतानां यज्ञदत्तस्य । अथ मन्यसे" इति ४ तद्धर्मतासतेविखो० ॥ ८ " यथा न चान्यानुभूतानाविखो० पाठः ॥ ९ भावान्त चूसप्र० ॥ १० शरीरिभ्य° चूसप्र० ॥ ११ 'लासो पुव्वो अन्नाहाराभिलासस्स । जध चूसप्र० । लासो पुव्वं आहारऽभिलसमाणस्स । जध मु० ॥ १२ कारयं चैव खं २ पु १२ ॥ १३ विज्जती खं १ पु १ ॥ १४ एवं ते उ पग खं १ वृ० दी० । ते उ एवं परा' खं २ पु १ पु२ ॥ १५ अनेनैव प्रका पु० ॥ १६ कओ खं २ ॥ १७ मंदा मोहेण पाडता चूपा० ॥ १८ एतद्द्वाथानन्तरं २ पु १ पु २ प्रतिषु अकिरियवादी गया इति वर्त्तते ॥ For Private Personal Use Only 20 25 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१ समयज्झयणे पढमो उद्देसओ १४. जे ते तु वादिणो एवं० सिलोगो । जे ते ति णिहेसे। तु विसेसणे । अकर्तृवादिनो लोकत्वात् सम्यक्त्वलोको ज्ञान० संयमलोको वा, अथवा योऽभिप्रेतो लोकः परोऽन्यो वा स तेषां नास्ति । तेन पुनरनभिप्रेतलोकमेव तमातो ते तमं जति, तम इति मिथ्यादर्शनं अज्ञानं वा, तस्मात् तमसः तम एव यान्ति । तमो हि द्वेधा-द्रव्ये भावे च । द्रव्ये नरकः तमस्कायः कृष्णराजयश्च, भावे मिथ्यादर्शनं एकेन्द्रिया वा । मंदा उक्ताः [सूत्रगा० १०]। आरम्भ द्रव्ये भावे च । द्रव्ये षट्कायवधः, भावे हिंसादिपरिणता असुभसंकप्पा । अथवा-"मोहेण पाउता" मोहः अज्ञानं तेन प्रावृताः समाच्छन्नाः ॥ १४ ॥' उक्ताः अकारकवादिनः । इदाणिं आयच्छट्ठा-ऽफलवादि त्ति १५. संति पंच महन्भूता इधमेगेसि आहिता। आतच्छट्ठा पुणेगाऽऽहु आया लोगे य सासते ॥१५॥ १५. संति पंच महब्भूता० सिलोगो । संति विद्यन्ते। पंच इति तन्मात्रग्रहणम् । महब्भूता इति पृथिव्यादयः । इध 10त्ति इह कुपाषण्डिलोके । एगेसि ति ण सव्वेसिं । आहिता व्याख्याताः । ते तु आतच्छट्ठा पुण एगे आहु-पंचमहब्भूतियं सरीरं, सरीरी छट्ठो, स च आत्मा लोकश्च शाश्वतः । लोको नाम प्रधानः सम्यक्त्वं चेति ॥ १५ ॥ १६. दुहतो ते ण विणस्संति णो य उप्पज्जए असं । सव्वे वि सव्वधा भावा णियतीभावमागता ॥ १६॥ १६. दुहतो ते ण विणस्संति. सिलोगो । दुहतो णाम उभयतो, आत्मा प्रधानं चाक्षुषमचाक्षुषं वा ऐहिका-ऽऽमुष्मिको 15 वा लोकः दुहतो ण विणस्संति त्ति । स एवं आत्मा न जायते न म्रियते कदाचित् , नायं भूत्वा भविता न भूयः । अब्भो (अजो?) नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥१॥ [भगवद्गीता अ० २ श्लो० २०] नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥ १ ॥ अच्छेद्योऽयमभेद्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते । नित्यः सततगः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ २ ॥ [भगवद्गीता अ० २ श्लो० २३-२४] न चोत्पद्यते असदिति असत्कार्यपरिग्रहः, मृत्पिण्डे हि विद्यते घटः । सव्वे वि सव्वधा भावा, सव्वे महतादयो विकाराः । नियतिर्नाम प्रधानम् तामागताः । सा कथं फलवती भवति ? इति, यत् करोति न तस्य लभते फलं आत्मा, न फलति प्रकृतिः, न फलवतीत्यर्थः ॥ १६ ॥ १ चतुर्दशसूत्रगाथाव्याख्यानानन्तरं वृत्तिकृता श्रीशीलाकेनाकारकवादिमतनिरासार्थक नियुक्तिगाथायुगलं व्याख्यातमस्ति । तच्चेदमूको वेएई अकयं ? कयणासो पंचहा गई णत्थि । देव-मणुस्सगया-ऽऽगइ-जाईसरणाइयाणं च ॥१॥ ण हु अफल-थोव-ऽणिच्छित-ऽकालफलत्तणमिहं अदुमहेऊ । णादुद्ध-थोषदुद्धत्तणे णगावित्तणे हेऊ ॥२॥ समओ समत्तो॥ अत्र णगावित्तणे इति स्थाने खं १ प्रतौ णमाइत्तणे इति तथा खं २ प्रतौ णमायत्तणे इति च पाठभेदौ वर्तेते, पु २ प्रतौ पुनः णगावित्तणे इत्येव पाठो वर्त्तते । एतद् गाथायुगलं नियुक्त्यादर्शेषु वरीवृत्यत एव, किञ्च चूर्णिकृता नास्त्यादृतं व्याख्यातं वा ॥ २पुणेगाऽऽहू ख १ । पुणो आहु खं २ पु १ पु २ । पुणेवाऽऽहु वृ० दी० ॥ ३ प्रधानसम्य चूसप्र० ॥ ४ ते विण पु १ पु २॥ ५सव्वया खं २॥ ६ एतद्गाथानन्तरम् खं २ पु २ आत्मस्वच्छ (षष्ठ) वादी गया इति वर्तते । पु १ प्रतौ पुनः आत्मछटवादी गया इति वर्तते ॥ ७ अभिब्भो (अभिजो) वा० मो० ॥ ८ अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च । नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥ इति पाठभेदो गीतायाम् ।। Jain Education Intemational Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १५-१९] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। १७. पंच खंधे वदंतेगे बाला उ खणजोइणो । अण्णो अणण्णो णेगाऽऽहु हेउयं वै अहेउयं ॥ १७॥ १७. पंच खंधे वदंतेगे० सिलोगो । ते इ खंधा इमे-रूपं १ वेदना २ विज्ञानं ३ संज्ञा ४ संस्काराः ५ । रूपणतो रूपम् १ वेत्तीति वेदना २ विजानातीति विज्ञानम् ३ सञ्जानातीति संज्ञा ४ शुभा-ऽशुभं कर्म संस्कुर्वन्तीति संस्काराः ५। ते पुण खणजोडणो क्षणमात्र युजंत इति परस्परतः । न चैतेष्वात्माऽन्तर्गतो [भिन्नो] वा विद्यते, संवेद्यस्मरणप्रसङ्गादित्यादि । तेषामुत्तरम् । अण्णो अणण्णो णेगाऽऽहु, केचिदन्यं शरीरादिच्छन्ति केचिदनन्यम् । शाक्यास्तु केचिद् नैवाच्यम् (नैवान्यं केचिच्च नाप्यनन्यम् ) । तथा स्कन्धमातृका हेतुमात्रमात्मानमिच्छन्ति बीजाङ्कुरवत् । अहेतुकं शून्यवादिकाः हेतु-प्रत्यय-सामग्रीपृथग्भावेष्वसम्भवात् । तेन तेनाभिलाप्या हि भावाः सर्वे स्वभावतः ॥ १॥ ] 10 लोके यावत्संज्ञासामध्यमेव दृश्यते यस्मात् तस्मान्न सन्ति भावाः । भावाः सन्ति, नास्ति सामग्री। एवं जगदपि केचिद्धेतुमत् केचिदहेतुमदिति । अथवा हेतुमदिति विष्णुरीश्वरो वाऽस्योत्पादहेतुरिति, अहेतुमन्नाम येषां स्वभावत एव उत्पद्यते । यथा लोकायतिकानाम्- "कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं०” [ ]॥ १७ ॥ अन्ये ब्रुवते१८. पुढवी आऊ य तेऊ य तहा वाऊ य एकओ। 15 चत्तारि धातुणो रूवं एवमाहंसु जाणगा ॥१८॥ १८. पुढवी आऊ य तेऊ य० सिलोगो । केचिद् ब्रुवते-चत्तारि धातुणो रूवं । एतेसिं उत्तरं जुत्तीए पंचमहभूतवादिणो [ सूत्रगा० ७ अवतरणतः ] आरब्भ ॥ १८ ॥ कथं अफलवाति ? त्ति ताव भण्णति- . ... ... १९. अगारमावसंता वि आरण्णा वा वि पव्वगा। ऐतं दरिसणमावण्णा सव्वदुक्खा विमुचंति ॥ १९ ॥ . ... १९. अगारमावसंता० सिलोगो । यथास्वं एतानि दर्शनानि प्रपन्नाः ते पुनरगारत्वे वा वसन्ति, अरण्ये वा तापसादयः पव्वगा णाम वचइत्ता (पव्वइता ) दगसोअयरियादयो । ते सव्वे वि एतं दरिसणमावण्णा सव्वदुक्खा विमुच्चंति, तचणियाण उवासगा वि सिझंति, आरोप्पगा वि अणागमणधम्मिणो य देवा ततो चेव "णिव्यंति । सायानामपि गृहस्थाः अपवर्गमाप्नुवन्ति । एवं दरिसणमिति एवं सक्कदसरिणं वा जाणि य मोक्खवादिदरिसणाणि वुत्ताई ताई पवण्णो सव्वदक्खाण मुच्चइ त्ति वुत्तं तं च ण भवति । कथं ते दशकुशलात्मके कर्मपथे स्थिता न निर्वान्ति ? यम-नियमात्मके वा 25 साध्यादयः। तेषामर्थत एवोत्तरमनेनैव श्लोकेन अगारमावसंता तु, आरण्णा वा वि पव्वगा। एयं दरिसणमावण्णा, सव्वदुक्खा ण मुंचति ॥ १॥ ॥ १९ ॥ - १णेवाऽऽहु ख १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ २ च खं १ खं २ पु १॥ ३ वेयतीति मु०॥ ४ स्मरणाप्रस वा. मो०॥ ५शक्या चूसप्र०॥ ६ आऊ तेऊ खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ७ यावरे वृ० दीपा० । जाणगा खं १ खं २ पु १. पु २ दी. वृपा०॥ ८य वाऊ य चूसप्र० ॥ ९युक्तयेत्यर्थः । णिजुत्तीए चूसप्र०॥ १० पव्वइया पु१ पु २॥ ११ इमं दरि खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ १२ विमुञ्चती पु २ । विमुञ्चती खं १ ख २ पु १॥ १३ गा वि विज्झति सं० वा. मो० । 'गा विविजंति पु०॥ १४ "णिव्वंति' निर्वान्ति, सिध्यन्तीत्यर्थः । Jain Education Interational Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 ३० 20 किञ्चान्यत् णिज्जुत्ति - चुण्णि समलंकियं २०. तेणा विमं तिणञ्चाणं ण ते धम्मविदूं जणा । जे ते तु वादिणो एवं ण ते ओहंतराऽऽहिता ॥ २० ॥ २१. तेणा विमं तिणञ्चाणं ण ते धम्मविऊ जणा । जे ते तु वादिणो एवं ण ते संसारपारगा ॥ २१ ॥ २२. तेणा विमं तिणञ्चाणं ण ते धम्मविऊ जणा । [ १ समयज्झयणे बिइओ उद्देसओ २०. तेणा विमं तिणच्चाणं ० सिलोगो | तेण त्ति उपासकानामाख्या । कु ( त्रि) ज्ञानेन त्रिपिटकज्ञानेन । [ण ] ते 15 धम्मविदू विद्वांसो भवन्ति । जायन्ते इति जनाः । ये ते तु वादिणो एवं यथाऽऽदिष्टाः, एतच्च वक्ष्यामः । सर्वे न ते ओहंतराऽऽहिता, ओहो द्रव्ये भावे च द्रव्यौघः समुद्रः, भावौघस्तु अष्टप्रकारं कर्म यतः संसारो भवति । न ते तस्य उत्पादका वा आहिताः आख्याताः ॥ २० ॥ ते तु वादिणो एवं ण ते गन्भस्स पारगा ॥ २२ ॥ २३. तेणा विमं तिणचाणं ण ते धम्मविऊ जणा । जे ते तु वादिणो एवं ण ते जम्मस्स पारगा ॥ २३ ॥ २४. तेणा विमं तिणचाणं ण ते धम्मविऊ जणा । जे ते तु वादिणो एवं ण ते दुक्खस्स पारगा ॥ २४ ॥ २५. तेणा विमं तिणञ्चाणं ण ते धम्मविऊ जणा । जे ते तु वादिणो एवं ण ते मारस्स पारगा ॥ २५ ॥ २१, संसारे चैव संसरन् मोहमुपचिनोति, तस्याप्यपारकः ॥ २१ ॥ २२-२५. ततो गर्भ - जन्म - दुःख - माराणि ॥ २२ ॥ २३ ॥ २४ ॥ २५ ॥ २६. "संसारचक्कवालम्मि भमंता [य पुणो पुणो ] । उच्चावयं नियच्छंता गग्भमेसंतऽणंतसो ॥ २६ ॥ त्ति बेमि ॥ ॥ पढेमज्झयणे पढमो उद्देसओ १ ॥ २६. संसारचक्कवालम्मि० सिलोगो । एवमस्मिन् संसारचक्कवाले भ्रमन्तः चक्रवद् भ्रममाणा उच्चावयं णियच्छंता, उच्चाई उत्कृष्टानि अवचाई नीचानि मज्झिमाणि य दुक्खाई ताई अधिगच्छति । अथवा उच्चावचं अनेकप्रकारम् । 25 संसारश्चानेकप्रकारः । तं णियच्छंता गन्भमेसंतऽणंतसो, गब्भो तिरिक्खजोणिय - मणुस्सेसु गब्भातो जम्मं, "एष मार्गणे” तं गब्भं एसंति, अणंतसो त्ति अनंतखुत्तो । अथवा उच्चावयमिति नानाप्रकारं कम्मं तं णियच्छंता तदुपायाद् गर्भ-जन्म १ ते णावि संधि णश्चा खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० । “ते' पञ्चभूतवाद्यायाः 'नापि' नैव 'सन्धि' छिद्रं विवरम्” इति शीलाङ्क२ विओ जणा सा० ॥ ३ वातिणो खं १ | वाइणो खं २ पु १ पु २ ॥ ४-८ ते णावि संधि णच्चा खं १ ख २ पु १ पादाः ॥ पु २ वृ० दी० ॥ ९ ख्या । ज्ञानेन वा० मो० ॥ १० षड्विंशगाथास्थाने खं २ प्रतौ सार्धा सूत्रगाथा वर्त्तते । तथाहि णाणाविहाई दुखाइं अणुभवंति पुणो पुणो । संसारचकवालम्मि मच्चु वाहि जराकुले । उच्चावयाणि गच्छंता गन्भमेसंतऽणतसो ॥ २६ ॥ ति बेमि ॥ वृत्तिकृता श्रीशीलाङ्केन दीपिकाकृता चापि एषा सार्धगाथैव व्याख्याताऽस्ति । खं १ पु १ पु २ प्रतिषु पुनः उपर्युल्लिखितसार्धगाथानन्तरम् नातपुते ( नातपुते पु १ पु २) महावीरे एवमाह ( 'माहु पु १ पु २ ) जिणोत्तमे ॥ २७ ॥ त्ति बेमि । इति गाथार्धयोजनेन गाथायुगलं वर्त्तते । चूर्णिकृत्परम्परायां तु प्रथमगाथापूर्वार्ध-द्वितीयगाथोत्तरार्धवर्जनरूपा एकैव गाथा वर्त्तत इति तैस्तदनुसारेणैव व्याख्यातमस्ति ॥ ११ प्रथमोद्देशकः खं १ ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तंगा० २०-२९] सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो । ३१ मरणानि दुःखान्यनुभवन्ति । तानि तु न एकशः अनन्तशः अणादीयं अणवदां दीहमेद्धं चाउरन्तं संसारकंतारं अणुपरियदृति ॥ २६ ॥ इति परिसमाप्तौ । बेमित्ति भगवन्तादेशाद् ब्रवीमि न स्वेच्छया इति ॥ ॥ समयस्स पढमो उद्देसो सम्मत्तो १-१ ॥ [ समयज्झयणे बिइओ उद्देसओ । ] ते 5 बितियउद्देसयाभिसंबंधो- - स एव सूतकड - सुत्तकडअधियारोऽनुवर्त्तते स एव च ससमयपरूवणाधियारो वट्टए । परसमया यथास्वं स्वं पक्षं ( स्वपक्ष ) क्षेपतः प्ररूप्य प्रत्युत्सृष्टाः, तदाश्रितापायाच उक्ताः, जधा “गन्भमे संतऽणंतसो " [ सूत्रगा० २६] ति । णाणाविधाभिग्गहमिच्छादिट्ठीसु वणिज्जमाणेसु अयमवि अभिग्गहितमिच्छाविद्विविकप्पो वणिज्जति । तस्स इमे चत्तारि अर्थाधिकारा, [ नि० गा० २८] तं जधा - बितिए णियतिवातअत्याधियारो १ अण्णाणवादी २ णाणवादी ३ भिक्खुसमयाधियारो जेसिं चउव्विधं कम्मं चयं ण गच्छति ४ त्ति । एतेहिं चउहिं संसिया गन्भमेसंतऽणतसो ति, तदादीणि य दुक्खाणि पावंति इत्यतस्तं नाऽऽश्रयीत । तत्थ ताव णियतीवाद समयपरूवणत्थमिदमपदिश्यते —— 10 २७. आघायं पुणिहेगेसिं उववण्णा पुढो जिया । वेदयंती सुहं दुक्खं अदुवा लुप्पंति ठाणओ ॥ १ ॥ २७. आघायं पुणिहेगेसिं० सिलोगो । आघातं णाम आख्यातम् । पुनर्विशेषणे । किं विसेसेति ?, पूर्वसमयेभ्यो विशेषयति नियतिवादमिति । इहेति अस्मिँल्लोके समयाधिकारे वा, एकेषां न सर्वेषाम्, उपपन्नास्तासु [ता] पृथक् इति पृथक् पृथग् न त्वेकात्मकत्वम् । जीवो ति वा पाणोति वा एगद्वं । वेदयंती णाणाविधेसु ठाणेसु पृथग् 15 णाणाविधाणि सुह- दुक्खाणि अणुभवंति । ते च तेभ्यो नानाविवेभ्यो दुःख [ स्थानेभ्यः सुख स्थानेभ्यश्च लुप्यन्ते, च्यवन्त इत्यर्थः ॥ १ ॥ येन च ते दुक्खेन लुप्यन्ते तन्नेयम् — २८. ण तं सयंकर्ड दुक्खं र्णं य अण्णकडं च णं । सुहं वा दि वाऽहं सेहियं वा असेहियं ॥ २ ॥ २८. ण तं सयंकर्ड दुक्खं० सिलोगो । येन नियतिः करोति तेण ताव ण तं सयंकडे दुक्खं, न पुरुषकारकृत - 20 मित्यर्थः । यत् स्वयंकृतं न भवति इत्यतो ण [य] अण्णकडं च णं, अन्येन कृतं अण्णकडं । च पूरणे । अन्यो नाम पुरुषः । तदुभयकृतमपि न भवति, न चाकृतम् । तत् कथम् ?, उच्यते - सुहं वा जदि वाऽसुहं, अनुग्रहोपघातलक्षणे सुख- दुक्खे | सेवनं सिद्धिः, निर्वाणमित्यर्थः । इयन्तश्च जीवाश्रया भावाः सर्वे नियतीकृताः, न वीर्यं पुरुषकारोऽस्ति, सर्वमहेतुतः प्रवर्तत इति ॥ २ ॥ एषा णियतिवादिदिट्ठी । अकम्मिकाणं च कालवादीणं च दिट्ठी २९. ण सेई कडं ण अण्णेहिं वेदयंति पुढो जिया । "संगइयं तं तहा तेसिं इहमेगेसिमाहितं ॥ ३ ॥ २९. ण स क म अण्णेहिं० सिलोगो । णियवीसभावमेत्तमेवेदं । संगइयं [तें] तहा तेसिं, संगतियं णाम सहगतं संयुक्तमित्यर्थः, अथवाऽस्याऽऽत्मनः नित्यं सङ्गतानि इति । संगतेरिदं संगतियं भवति, संगतेर्वा हितं संगतिकं भवति । ता १ मई वा उत्तरंता संसार वा० मो० ॥ २ अक्खायं पु१ पु २ ॥ ३ पुण एगेसिं खं १ ख २ पु१ पु २ वृ० दी० ॥ ४ वेदयंति खं १ खं २ पु १ पु २ ॥ ५ लुपंति खं १ ॥ ६ कओ अण्ण खं १ खं २ पु १ २ ० दी० ॥ ७ जति वा दुक्खं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ८ व खं १ ॥ ९ सयं कडं खं १ खं २ पु १ पु २ ॥ १० संगतियं खं १ ॥ ११ °सि आहियं खं १ ॥ १२ अथवा स्यान्मनः सप्र० ॥ For Private Personal Use Only 25 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 5 ३२ विजुत्ति- चुण्णिसमलंकिय [ १ समयज्झयणे विइओ उसओ तेसिं ति जेण 'जधा भवितव्यं ण तं भवति अण्णधा । इहेति इहलोके नियतिवाददर्शने वा एगेसिंण सव्वेसिं आहित आख्यातम् ॥ ३ ॥ ते तु नियतिवादिणो 20 25 — ३०. एवमेताई जंपता० सिलोगो । एवं अवधारणे । कानि ( यानि ) एतानि कुदर्शनानि ताणि सहहंता नियइवायअम्मादी आकस्मिकाः, अहवा परूवेइ नियइवाददर्शनम् । बाला पंडितवादिणो, बालास्तथा पंडितवादिणो अपण्डिताः पण्डितप्रतिज्ञाः । ते हि णियता ऽणियतं संत जे जधा कडा कम्मा ते तधा चेव णियमेण वेदिज्जंति त्ति एवं नियतं । तं 'जधा - णिरुवकमा देव-शेरतिय त्ति, अणियतं सोवकमायुं ति । एतं णियता ऽणियतं संत सम्भूतं अयाणमाणा अबुद्धि, अबुद्धिकाः मन्दुमेधस इत्यर्थः ॥ ४ ॥ ते अमेधस एवमेतं अयाणंता ३०. एवमेताई जंपंता बाला पंडितंवादिणो । णियता - sणियतं संतं अयाणमाणा अबुद्धिआ ॥ ४ ॥ ३१. एवमेगे तु पासत्था० सिलोगो । एवं अवधारणे । न जाणता अजाणता । किमयाणंत त्ति ? तमेव णियतमणियतं च अजाणता विप्रगल्भिता, तेनैव स्वयंविकल्पितमिथ्यादर्शनाभिनिवेशे असज्जना इवासत्कर्मभिर्धृष्टीभूता लज्जनीयेनापि न लज्जते इत्यर्थः । एवं पुवट्ठिता संता, एवं नाम यद्यप्यभिगृह्य तानि नानाविधानि बालतपांसि स्वे स्वे दर्शने यथो15 तमुपास्थिता गुर्वादिविनययुक्ताः सर्वप्रकारेण यथोक्तज्ञानात्मनि न विसीदंति तथाप्यात्मानं न संसाराद् विमोचयन्ति । उक्तं च - " मिध्यादृष्टिरवृत्तस्थः ० " [ ] ॥ ५॥ ३१. एवमेगे तु पासत्थी अजाणता विष्पगन्भिया । एवं वट्ठिता संता त्तदुक्खविमोयगा ॥ ५ ॥ स्यात् कथं ते न संसारपारपारगा भवंति ?, मिथ्यादर्शनेनोपहतत्वात् । दृष्टान्तः ३२. जविणो मिगा जधा संता परिताणेण तंज्जिता । असंकिताई संकंति संकिताई असंकिणो ॥ ६ ॥ 1 ३२. जविणो मिगा जधा संता० सिलोगो । जव एषां विद्यत इति जविनः । के च ते ? मृगाः, तत्रापि वातमृगाः परिगृह्यन्ते । संतग्रहणान्निरुपहतशरीर-वयो ऽवस्था अक्षीणपराक्रमाः । परितन्यत इति परितानः वागुरेत्यर्थः । तज्जिता वारिता, प्रहता इत्यर्थः, न शक्यमेतत् परितानं निस्सर्तुम् । सा च एगतो वागुरा, एकतो हस्त्यश्व - पदातिवती यथाविभवतो सेना, एकतः पाश-कूटोपगा यथाविभागशः । नित्यत्रस्ताः तत्र ते मृगाः स्वजात्यादिभिः परितुद्यमाना मरणभयोद्विमा असंकिता संकंति ॥ ६ ॥ स्यात् — किं शङ्कनीयम् ? किं न ? इति उच्यते 1 ३३. परिताणियाणि संकंता पासिताणि असंकिणो । अण्णाणभयसंविग्गा संपैलिंति तर्हि तहिं ॥ ७ ॥ ३३. परिताणियाणि संकंता ० सिलोगो । परि सर्वतः ततानि परिततानि । यानि वा तानि पुनः वज्झ-पोत-रज्जुमयानि तान्यशङ्कनीयाः परिशङ्किताः । त एवं वराकाः अण्णाणभयसंविग्गा, अज्ञानभयं नाम त एवं न जानते - यथैषा वागुरा दुर्लङ्घया, न चाधः शक्यते निस्सर्तुम् । ततस्तेऽज्ञाना भयेन संविग्ना तहिं तहिं संपलिंति अणुकूडिलेहिं अण्णपासेहि; अथवा १ मेयाणि खं १ खं २ पु १ पु २ ॥ २ पंडियमाणिणो खं २ पु १ पु २ वृ० दी० । पंडियनाणिणो खं १ ॥ ३ णिययाऽणिययं खं १ खं २ पु १ पु २ ॥ ४ अयाणंता अबु खं १ । अजाणता अबु खं २ पु१पु२ ॥ ५ अबुद्ध्या अबुद्धिः मन्द चूसप्र० ॥ ६ स्था ते भुज्जो विप्प खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ७ पवट्टिया दी० ॥ ८ usत्तदुक्ख विमोक्खगा वृ० । ते दुक्खविमोगा दी ० । ण ते दुक्खविमोक्खया खं १ खं २ पु १ पु २ ॥ ९ वज्जिता खं २ पु २ वृ० दी० । तजिता खं १ १ पा० दीपा० ॥ १० परियाणियाणि खं १ खं २ पु १ पु २ ॥ ११ संपरिअंति पु १ वृ० दी० ॥ १२ न वधः चूसप्र० ॥ For Private Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ ___15 सुत्तगा० ३०-३७] सूयगडंगसुत्तं विइयमंग पढमो सुयक्खंधो। एकतः पाशहस्ता व्याधाः, एगतो वागुरा, तन्मध्ये संप्रलीयन्तो भ्रमन्त इत्यर्थः, यावद् बद्धा मारिता वा स तेषामज्ञानदोषः ॥ ७ ॥ ते पुण ३४. अध तं पवेज वज्झं अहे वज्झस्स वा वए । वेधेज पदपासातो तं च मंदे ण पेहती॥८॥ ३४. अध तं पवेज वझं० [सिलोगो] । वधेज पदपासातो, पदं पासयतीति पदपाशः कूडः उपको वा । । पठ्यते च-"मुच्चेज पदपासादी" आदिग्रहणादू बन्ध-घात-मारणानि । तं च मंदे ण पेहती, स भावमन्दः न प्रेक्षति तम् ॥ ८ ॥ स एवं वराकः ३५. अहिते हितपण्णाणा विसमं तेणुवागते । से बद्धे पयपासेहिं तत्थं घंतं नियच्छति ॥९॥ ३५. अहिते हितपण्णाणा० सिलोगो । विसमं णाम कूट-पाशोपगैः आकीर्णं तद् वागुराद्वारं तं विसमं समं च तेण 10 गतः उपागतः । से बद्धे पयपासेहिं, से त्ति स मृगः बध्यते स्म बध्यः, पदं पाशयतीति पदपाशः, स च कूटः उपगो वा। तत्थेति तेहिं पासादिएहि बद्धे । घन्तः घातकः, घातक एवान्तः घन्तः, घातेन वाऽन्तं करोतीति घन्तः। नियतमधिकं वा धन्तं गच्छति नियच्छति ॥ ९॥ ३६. एवं तु समणा एगे मिच्छादिट्ठी अणारिया। असंकिताई "संकिंती संकिताइं असंकिणो ॥ १०॥ ३६. एवं तु समणा एगे० सिलोगो। एवं अवधारणे । तुः विशेषणे । निर्ग्रन्थैर्व्यतिरिक्ता एके न सर्वे । के च ते ?, नियतिवादिनः, जे य अण्णे णाणाविधदिद्विणो । मिच्छादिदि त्ति विपरीतग्राहिणः । अणारिय त्ति णाण-दंसण-चरित्तअणारिया । ते असंकिताई संकिंती, णाण-दसण-चरित्ताई [ असंकणिज्जाइं] ताई तपोभीरुत्वाद् अन्यैश्च जीवबहुत्वादिभिः पदैर्नात्र शक्यते अहिंसा निष्पादयितुमिति संकति ण सद्दहति; संकिताई कुदंसणाई ताई असंकिणो सदहति पत्तियंति ॥१०॥ स्यात्-किं शङ्कनीयम् ? किं न? इति उच्यते३७. धम्मपण्णवणा जा तु तीसे संकंति मूढगा। औरंभाय ण संकंति अवियत्ता अकोविता ॥ ११॥ ३७. धम्मपण्णवणा जा तु० सिलोगो । यावान् कश्चिद् ज्ञेयधर्मः समयेन प्रज्ञाप्यते सा धर्मप्रज्ञापना । अधवा दुविधो धम्मो सुतधम्मो चारित्तो य धम्मो य । दसविधो य समणधम्मो अगारमणगारिओ धम्मो ॥१॥ 1 25 स जेण पण्णविजइ सा धम्मपण्णवणा । तीसे संकंति बेभेन्ति दुक्खं कजति अधवा ण सद्दहति । अधवा किमेवं ण व त्ति वा संकंति, पृथिव्यादिजीवत्वं शंकितं । मूढा अज्ञानेन दर्शनमोहेन आरंभाय ण संकंति दव्वारंभे भावारंभे य १ वझं अहे वज्झस्स इति बंधं अहे बंधस्स इति पाठयुगलं वृत्तिकृता दीपिकाकृता च व्याख्यातमस्ति । तथाहि-"अथ' अनन्तरमसौ मृगस्तद् ‘वज्झ' ति वधं यदि वा बन्धनाकारेण व्यवस्थितं वागुरादिकं वा बन्धनं बन्धकत्वाद् बन्धमुच्यते।" इति । बझं अहे बज्झस्स पु॥ २ मुच्चेज पदपासाओ खं १ ख २ वृ० दी । मुंचेज पयपासाओ पु १ पु २ । मुच्चेज पदपासादी चूपा. वृपा० ॥ ३तं तु मंदे ण देहते खं २ पु २ । तं तु मंदे ण देहती खं १ पु १ वृ० दी० ॥ ४ अहियप्पाऽहियपण्णाणे खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ५विसमतेणुवागते खं १ पु १ वृ० दी० । विसमतेऽणुवायए खं २ पु २ वृपा० दीपा० ॥ ६ पासादी तत्थ खं १ वृ० दी। पासाई तत्थ खं २ । पासायं तत्थ पु २ । पासाओ तत्थ पु १। पासेणं तत्थ सा० ॥ ७ तत्थ घायं नियच्छति खं २ पु २ वृ. । तत्थ घायं निगच्छति खं १ पु १ दी० चूर्णौ च ॥ ८°णा वेगे पु १॥ ९च्छदिट्टी खं २ पु २॥ १०संकंति खं १ खं २ पु १ पु २ । संकिंता वृ० दी० ॥ ११ जा सा तं तु संकति खं १ खं २ पु१पु२ वृ० दी० ॥ १२ आरंभाईण खं १ खं २ पु१पु २ वृ० दी.॥ स्य० सु०५ Jain Education Intemational Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकिय [१ समयज्झयणे बिइओ उद्देसओ वटुंति, कुपासंडिणो तमेव आरंभ बहुमण्णंति । अवियत्ता णाम अव्यक्ताः, णाऽऽरंभादिसु दोसेसु विसेसितबुद्धयः । अकोविता अविपश्चित इत्यर्थः । मिच्छत्तकडदोसेण सब्भूतं णिग्गंथं पवयणं संकंति ण बुझंति ॥ ११ ॥ स्याद् बुद्धिः-यथा मृगाः पाशबद्धाः प्रचुरतृणोदकाद् वनवाससुखात् च्यवन्ते एवं मिथ्यादृष्टयः कुतश्च्यवन्ते ? उच्यते ___३८. सव्वप्पगं विउक्कासं सव्वं णूमं विधुणिया। ___ अप्पत्तियं अकम्मंसे एतमटुं मिए चुते ॥ १२ ॥ __३८. सव्वप्पगं विउक्कासं० सिलोगो । सर्वत्राऽऽत्मा यस्य स भवति सर्वात्मकः, अथवा जे भावकसायदोसा ते वि सव्वे लोभे संभवंतीति सव्वप्पगं । उक्तं च-"लोभो सव्वविणासओ" [ दशवै० म० ८ गा० ३७ ] । विविधं जात्यादिभिर्मदस्थानैरात्मानं उक्कस्सति विउक्कस्सति । नूमं गहनमित्यर्थः । दव्वण्णूमं दुग्गं अप्पागासं वा, भावण्णूमं माया । एते तिण्णि वि कसाया विविधैः प्रकारैः धुणिय विधुणिय, किंचि अप्पत्तियं णाम रूसियव्वं, तदपि अप्पत्तियं अकम्मंसे साधौ, 10 अकम्मंसे एभिः सर्वैर्विधूणितैः अकम्मंसो भवति, न चाऽस्य बालबुद्धिः (द्धेः) अप्पत्तियं अकर्मत्वं भवति, सिद्धत्वमित्यर्थः । अधवा अप्पत्तियं कोधो, तेण जइया अकम्मसे भवति, अंसगणं तिण्णि तिणि कसायंसे से (सेसे) काऊण खवेति, एवं सेसाणऽवि कम्माणि खवेत्ता जीवो अकम्मंसो भवति । तं पुण सम्मइंसण-चरित्त-तवो-विणएहिं खवेति, ण मिच्छादसणअण्णाण-अविरतीहिं । एतमद्रं मिए चुते त्ति जो मियदिटुंतो भणितो [ सूत्रगा० ३२] । यथा मृगः पाशं प्रति अभिसर्पन् प्रचुरतृणोदकगोचरात् स्वैरप्रचाराद् वनसुखाद् भ्रष्टः मृत्युमुखमेति एवं ते वि णियतिवादिणो ॥ १२ ॥ ३९. जे तेतं णाभिजाणंति मिच्छादिट्ठी अणारिया। मिगा वा पासबद्धा ते घायमेसंतऽणंतसो ॥ १३ ॥ ___३९. जे तेतं णाभिजाणंति सिलोगो कठो ॥ १३ ॥ णियतिवादो गतो । इदाणिं अण्णाणियवादिदरिसणंअण्णाणेण वा कतो कम्मोवचयो " भवति तत्प्रतिषेधार्थमपदिश्यते ४०. माहणा समणा ऐंगे सव्वे गाणं सयं वदे। सव्वलोगंसि जे पाणा ण ते जाणति किंचणं ॥ १४ ॥ ४०, माहणा समणा एगे० सिलोगो। माहणा णाम धीयारा। समणा समणा एव । एगे णाम ण सव्वे, जो अण्णाणियवादी; अहवा अम्हंतणए मोत्तण ते सव्वे वि अप्पणो सपक्खं पसंसंता भण्णंति । सव्वलोगंसि जे पाणा ण ते जाणंति किंचणं, अस्मान मुक्त्वा सर्वलोकेऽपि वादिनः सर्वप्राणभृतो वा येऽस्मदर्शनव्यतिरिक्ता ण ते जाणंति संसारं मोक्खं वा॥१४॥ ते हि मिच्छादिविणो सद्भावबुधाऽपि यथा स्वान् स्वान् कुसमयान् प्ररूपयन्तः न तत्र सद्भावं विन्दन्ति । दृष्टान्तः25 ४१. मिलक्खू अमिलक्खुस्स जहा वुत्ताणुभासती। __ण हेतुं से वियाणेति भासियं तऽणुभासती ॥१५॥ .. ४१. मिलक्खू अमिलक्खुस्स० सिलोगो । यथा कश्चिद् म्छेच्छयुवा केनचिद् वृद्धेणाऽऽचार्येण पथि गृहे वाऽपदिष्टः-पुत्र ! कुत आगम्यते ? । ण हेतुं से वियाणेति त्ति यदर्थं तद् वचोऽभिहितम् , दृष्टि-मुखप्रसादादिभिराकारैः परि शुद्धाकारं ज्ञात्वा किन्तु तमेव भाषितं प्रत्यनुभाषते । अथवा पृष्टः किञ्चित् तत्त्वं पृच्छतः सोऽपि तथैवाऽऽह । आर्यकुमारको 30 वा पित्राऽपदिष्टः-भण पुत्र ! सिद्धम् । एष दृष्टान्तः ॥ १५ ॥ 20 विउक्कस्सं खं १ खं २ पु १ पु २॥ २ विधूणिया खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ३जे पतं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ ४मिच्छद्दिही खं २ पु १ पु २॥ ५ वेगे खं १॥ ६ सव्वलोगे वि जे खं २ पु १ पु २ वृ०॥ ७जह खं १ ख २॥ ८°भासए खं २ पु १ पु२॥ ९विजाणाति खं १ खं २ पु १ पु२॥ १० भासए खं २ पु १ पु२॥ Jain Education Intemational Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ३८-४५] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। ४२. एवमण्णाणिया नाणं वयंता वि सयं सयं । __ णिच्छयत्थं ण जाणंति मिलक्खू व अबोधिए ॥ १६॥ ४२. एवमण्णाणिया नाणं० सिलोगो । एवं अवधारणे । निश्चयार्थो नाम यथा भावोऽवस्थितः तह आत्मादिपदार्थान् दर्शयन्तोऽप्यन्येषां अचित्रकालाभिज्ञा इव न सद्भावतो वदन्ति । तदेवोदाहरणं-मिलक्खू व अबोधिए, अबोधिः अज्ञानमित्यर्थः ॥ १६ ॥ स एवं तेषाम् - ४३. अण्णाणियाण वीमंसा णाणे णेव णियच्छति। अप्पणो य परं नालं कुतो अण्णाऽणुसासिउं ॥१७॥ ४३. अण्णाणियाण वीमंसा० सिलोगो । संशयः सन्देहो वितर्कः ऊहा वीमसेत्यनर्थान्तरम् । तेषां हि असर्वज्ञत्वादसौ वीमंसा प्रत्यक्षेष्वपि तावत् पृथिव्यादिषु संदिह्यते किं पुनरात्मादिषु अप्रत्यक्षेषु ? । तदेवं सा वीमंसा इह निश्चयज्ञाने न नियच्छति न युज्यते, न घटत इत्यर्थः । स एवं संदिग्धमतिस्तावदात्मानमपि न शक्नोति प्रत्याययितुं कुतस्तर्हि परम् ? 10 संसारतो वा समुद्धर्तुम् ? ॥ १७ ॥ एवं ते मिच्छादिद्विणो तदुपदिष्टमनुपदिष्टं वा मिच्छादसणं पडिवजंति । उदाहरणम् ४४. वणे मूढे जधा जंतू मूढ-मूढाणुगामिए। दुहतो वि अकोविता तिव्वं सोयं णियच्छति ॥ १८॥ ४४. वणे मूढे जधा जंतू० सिलोगो । जधा कोइ महति वणे दिसामूढेण भण्णति-भ्रातः ! कतरस्यां दिशि पाटलपुत्रम् ? इति । तेनापदिश्यते-अहं ते तत्र नयामीति । ततो सो तेण सह पट्टितो। तौ हि मूढ-मूढानुगामिनौ दुहतो वि 15 अकोविता. दहतो णाम तावेव द्वौ। अधवा-"उभयो विण याणंति" कुतो गम्यते आगम्यते वा ? किं वागतमवशिष्टं वा । अकोविया णाम अयाणगा। तिव्वं सोयं णियच्छति, तीव्र नाम अत्यर्थम् , पर्वता-ऽश्म-सरित्-कन्दरा-वृक्ष-गुल्म-लता-वितानगहनं श्रवन्ति तेनेति श्रोतं भयद्वारमित्यर्थः, नियतमनियतं वा गच्छति नियच्छति । अधवा खंधावारेण महासत्थवाहेण कोइ अग्गिमदेसिओ गहितो, सो य दिसामूढताए अण्णतो णेइ, तत्थ जे मज्झिम-पश्चिमा ते जाणंति, अग्गिमगा ण जाणंति पंथमिति, ते वि मूढा मूढाणुगामिया दुहतो वि अकोविया ॥ १८ ॥ भणितो दिसामूढदिलुतो । इदाणं अंधदिलुतो भण्णति- 20 ४५. "अंधे अंधं पहं णेति दूरमद्धाण गच्छती। ___ आवज्जे उप्पधं "जंतो अदुवा पंथाणुगामिते ॥१९॥ ४५. अंधे अंधं पहं णेति० सिलोगो । जधा कोइ अंधो अद्धाणे अद्धाणट्ठाणे वा किंचि अन्धमेव समेत्य ब्रवीतिअहं ते अभिरुयितं गाम णगरं वा णेमि त्ति तेण सँध पट्ठितो । गच्छति दूरमद्धाणं ति नासौ जानाति यत्र वस्तव्यं यातव्यं वा इत्यतस्तस्य तदपरिमाणमेव अध्वानमित्यतो दूराध्वानम्। आवजे उप्पधं जतो. स एवं पधेणं पत्थितो वि क्षणान्तरं पादस्पर्शन 25 गत्वा उत्पथमापद्यते यत्र विनाशं प्राप्नते प्रपात-कण्टका-हि-श्वापदादिभ्यः, अथवा यहच्छया पन्थानमेवानुपतति । अधवा अन्धलएहिं बहुगेहिं दिटुंतो-वुग्गाहेतूण अन्धलया पव्वयं परियंचावेतूण अग्गिल्लं पच्छिल्लयस्स लाएउं पलाओ धुत्तो । ते वि 'इच्छितव्वं वयं भूमि वच्चामो' त्ति तत्थेव भमंति, सेसं तं चेव । “आवजे उप्पधं जंतू" घुणाक्षरवत् ॥ १९ ॥ एते दिटुंता दव्वदिसामूढेण चक्षुअंधेण य वुत्ता । तत्समवतारः १ वयंतो खं १॥ २णिच्छियत्थं खं २ पु १ पु २ ॥ ३ अबोहिया वृ० दी । अबोहितो खं १ । अबोहिए खं २ पु १ पु२॥ ४ अन्नाणे नो नियच्छती खं १ वृ० दी । णाणे व नियच्छती खं २ । णाणे णो व नियच्छती पु १ पु २॥ ५'सासया पु १ पु २॥ ६मूढे णेयाणुगामिए खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ७दो वि एए अकुविया तिव्वं खं २ । दो वि एए अकोवीया तिव्वं पु १ पु २ । दो वि अकोविया संता तिव्वं वृ० दी । उभयो वि ण याणति तिव्वं चूपा०। ८ निगच्छती खं १॥ ९°नुगमिती दु चूसप्र०॥ १० अंधो अंधं पहं णितो दूर खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ११ जंतू खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी. चूपा० ॥ १२ अहवा खं २ पु १ पु २॥ १३ सह इत्यर्थः ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१ समयज्झयणे बिइओ उद्देसओ ४६. एवमेगे णियायट्ठी धम्ममाराहगा वयं । अदुवा अधम्ममावज्जे ण ते सव्वुजगं वए ॥२०॥ ४६. एवमेगे णियायट्ठी० सिलोगो । एवं अवधारणे। एगे ण सव्वे, भावदिसामूढा भावंधा य । नियतो नाम मोक्षः, नियतो नित्य इत्यर्थः, नियाकेन यस्यार्थः स भवति नियाकार्थः । वयमेव धर्माराधकाः नान्ये । ते एवंप्रतिज्ञाः 5 अपि अधम्ममावजे, अपिपदार्थः सम्भावने । मूलपाठस्तु “अदुवा अधम्ममावजे" अदुवा णाम स्मरणार्थमेव, अप्येवं र्ममापद्यन्ते, यथाशक्त्या आरम्भप्रवृत्ता धर्मायोत्थिता अधर्ममेव आपद्यन्ते। येऽपि च कष्टतपःप्रवृत्ता आजीविकादयः तेऽपि धर्म अधर्मानुबन्धिनं प्राप्य पुनरपि गोशालवत् संसारायैव भवन्ति । ण ते सव्वुजगं वए, सव्वुञ्जगो णाम संजमो, सर्वतो ऋजुः अकुटिलः निरुपधः, न कस्याश्चिदवस्थायामकल्पानुज्ञानमलिनो भवतीति ॥ २० ॥ पुनरपि विशेषोपलम्भात् स एवार्थ उपसंह्रियते४७. एवमेगे वितकाहिं णो अण्णं पज्जुवासिया। अप्पणो य वितकाहिं अयमंजूं हि दुम्मती ॥ २१॥ ४७. एवमेगे वितकाहिं० सिलोगो । उक्तं हिपुव्वभणितं [तु] जं [एत्थ] भण्णती तत्थ कारणं अस्थि । पडिसेधमणुण्णा कारणं विसेसोवलंभो वा ॥ १ ॥ [कल्पलघुभाष्ये गा० २५५४ ] 15 अधवा द्वौ दृष्टान्तावुक्तौ, उपसंहारावपि द्वावेव । एवं अवधारणे । एते इति ये उक्ताः परतत्रतीर्थकराः । वितको मीमांसेत्यनन्तरम् । एवं स्यादिति, ते तु नान्यं पर्युपासितवन्तः, अन्ये नाम ये छद्मस्थलोकादुत्तीर्णाः सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः । तानुपास्य अप्पणो य वितकाहिं चशब्दादन्यमतेश्व, यथा व्यासः अमुकेन ऋषिणा एवमुक्तमितिहासमानयति, यथा कणादोऽपि महेश्वरं किलाऽऽराध्य तत्प्रसादपूतमनाः वैशेषिक[मत]मकरोत् । एतैरात्मवितः परोपदेशैश्च यथावं अयमस्मिन् मार्गः ऋजुः अऋजुर्वा । शेषाः प्रदुष्टमतयो दुर्मतयः ॥ २१ ॥ 20 ४८. एवं तकाए साधेता धम्मा-ऽधम्मे अकोविदा। दुक्खं ते णातिवदंति सउणी पंजरं जधा ॥ २२ ॥ ४८. एवं तकाए साता० सिलोगो । एवं अवधारणे । स्वमतिवितर्काभिः साधयन्तः योजयन्तः कल्पयन्त इत्यर्थः। धर्मों नाम यथाद्रव्य-पर्याय-स्वभावावस्थानम् , विपरीतोऽधर्म इति । अथवा धर्मोऽभ्युदय-नैःश्रेयसिकः सुखक दुःखकारणमधर्मः, तत्र अकोविदा धर्मा-ऽधर्माकोविदाः, असम्बुद्धा इत्यर्थः । दुक्खं ते णाति०, दुःखं संसारो तं नाति25 वर्तन्ते, न उत्तरंतीत्यर्थः । अथवा कारणे कार्यवदुपचारं कृत्वाऽपदिश्यते संसार-दुःखकारणमधर्मः । दिलुतो-सउणी पंजरं जधा, यथा शुकः कोकिला मदनशिलाका द्रव्यपञ्जरं नातिवर्त्तते एवमिमे परतित्थिया दुक्खविमोक्खकारिणो भावपञ्जरं नातिवर्त्तन्ते । "तिउति" त्रोटयन्ति अतिवर्तन्ते वा ॥ २२ ॥ त एवं परतत्राः ४९. सयं सयं पसंसंता गैरहंती परं वदि । जे उ तत्थ विउस्संति "संसरंते विउँस्सिया ॥ २३ ॥ १ अहवा अधम्म पु १ पु २ । अपि अधम्म चूपा० ॥ २ सव्वज्जुयं खं २ पु १ पु २ । सव्वजय खं १॥ ३°मालिनो चूसप्र० ॥ ४ नो यऽण्ण खं २ पु २ । नो य णं पु १। नो परं वृ० दी० ॥ ५ मंजूहिं खं २ पु १ पु २ ॥ ६एते इति एगे इत्यस्य रूपान्तरम्, एते एके इत्यर्थः । सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्रे हि एतद् रूपं प्राचुर्येण दृश्यते ॥ ७ न्यासः चूसप्र० ॥ ८ अयस्मिन् चूसप्र०॥ ९ अकुब्विया खं २ । य कोविया पु १॥ १०णाइतुटुंति वृ० दी० । ण तिउति चूपा० । णातिउटृति खं १ खं २ पु १ पु२॥ ११ गरहंता य परं वदिं खं १। गरहंता परं वयं खं २ । गरहंता परं वई पु १ पु २ ।। १२ संसारं ते खं १ खं २ पु १ पु२ वृ. दी० ॥ १३ वि उसिया खं १ वृपा० दीपा०॥ Jain Education Intemational Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ४६-५१] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। ३७ ४९. सयं सयं पसंसंता० सिलोगो । खं खं नाम आत्मीयमात्मीयं प्रशंसन्तः स्तुवन्तः ख्यापयन्तः-इदमेवैकं सत्यमिति, नान्यमतानि । गर्हन्ति परेषां वचनानि दोषं प्रकटीकुर्वन्ति । एवं ते परस्परविरुद्धदर्शनाः कुसमयतीर्थकराः मुमुक्षवोऽपि न संसारपञ्जरमतिवर्त्तन्ते। येऽप्यन्ये तानाश्रितास्तेऽपि जे उ तत्थ विउस्संति, विशेषेण उस्संति इदमेवैकं तत्त्वमिति विशेषेण उच्छ्यंति गव्वेणं उस्संतीति, ते संसरंतो विउस्संति ॥ २३ ॥ अण्णाणिया वादी परिसमत्ता । इदानीं यत् "कर्म चतुर्विधं चयं ण गच्छति” त्ति णिज्जुत्तीए [नि० गा० २८ ] वुत्तं शाक्यानां तत्प्ररूपणार्थमपदिश्यते ५०. अधावरं पुरक्खायं किरियावादिदरिसणं । कम्मचिंतापणहाणं दुक्खक्खंधविवद्धणं ॥ २४ ॥ ५०. अधावरं पुरक्खायं० सिलोगो । अथेत्ययं निपातः पूर्वप्रकृतापेक्षः । तेभ्यः समयेभ्यः प्रकृतेभ्यः अथ इदमपरं पूर्वमाख्यातं पुरक्खायं । त एवं ब्रुवते-“गंगावालिकासमा हि बुद्धाः, तैः पूर्वमेवेदमाख्यातम्” । अथवा पुराख्यातमिति पूर्वेषु मिथ्यादर्शनप्रकृतेष्वाख्यातम् । अथवा प्रख्यातं पुराख्यातम् । क्रिया कर्मेत्यनर्थान्तरम् , कर्मवादिदर्शनमित्यर्थः, 10 विगतं बीभत्सं वा दर्शनम् , अशोभनमित्यर्थः । कम्मचिंता णाम यथा येन यस्य येषु च हेतुषु प्रवर्त्तमानस्य कर्म बध्यते ततो कर्मचिन्तातः प्रनष्टाः । अथवा अतिकर्मामीरुत्वात् तैः कर्माश्रवाः केचिदबन्धायापदिष्टाः, तत् तेषां कुदर्शनं दुःखस्कन्धविवर्द्धनम् , कर्मसमूहवर्द्धनमित्यर्थः, तेषां हि विज्ञानो[प]चितं ईर्यापथं स्वप्नान्तिकं च कर्म चयं न यातीत्यतस्ते कम्मचिंतापणा । स्यात्-कथं पुनरुपचीयते ?, उच्यते, यदि सत्त्वश्च भवति १ सत्त्वसंज्ञा च २ सञ्चिन्त्य सञ्चिन्त्य ३ जीविताद् व्यपरोपणं प्राणातिपातः ४ । अत्र भङ्गाश्चत्वारः-जीवो जीवसण्णा य, जीवो नजीवसण्णा य०, प्रथमे भङ्गे बन्धः, 15 थवा सत्त्वश्च भवति १ सत्त्वसंज्ञा च २ संञ्चिन्त्य सञ्चिन्त्य ३ जीविताद् व्यपरोपणम् ४, चतुसु पदेसु सोलस भंगा, पढमे बंधो, सेसेसु अबंधो ॥ २४ ॥ अधवा ५१. जाणं कारणं णाऽऽउट्टे अबुहो जे य हिंसती। . पुट्ठो वेदेति परं अवियत्तं खु सावजं ॥ २५ ॥ ५१. जाणं कारण णाऽऽउट्टि (ट्टे). सिलोगो। जानानः सत्त्वं यदि कायेण णाऽऽउदृति। कायाउट्टणं णाम जिघांसया 20 उत्थानं हत्थ-पादादिव्यापारो। स एवमणाउट्टमाणो जइ वि हिंसति तधा वि अबंधगो । अबुहोजे य हिंसति त्ति, माता प्रसुप्ता पुत्रं मारयति स्तनेन मुखमावृत्य, अन्यतरेण वा गात्रेण । अधवा स एव अबुहो बालको यदा पिपीलिकादीन् सत्त्वान् घातयति माता-पितरौ किश्चिदवचनं ब्रवीति न चास्य कर्मोपचयो भवति । यद्यपि च कश्चिद् भवति स तद्यथाऽस्माकमीर्यापथं तथा पुट्ठो वेदेति परं, पुट्ठो णाम स्पृष्टमात्र एव तत् कर्म वेदेति, मुश्चतीत्यर्थः । अव्यक्तं नाम सूक्ष्मतन्तुबन्धनवत् शीघ्रमेव छिद्यते । सह अवद्येन सावद्यम् । __अथवा जानन्निति षडभिज्ञस्य बुद्धस्य हिंसतोऽपि पापं न बध्यते, कारणं णाऽऽउट्टति त्ति स्वप्नान्ते घातयन्नपि सत्त्वं न कायेन आउट्टति, न समारभते इत्यर्थः । अबहो णाम अप्रबुद्धेन्द्रियो बालः, सो हिंसादिकर्मसु बर्तमानोऽपि अबन्धक एव । अधवा अबुधो बालश्च यश्च पथि वर्तते, न च पथ्युपयुक्तः, असावपि अबुध्यमानो यानि सत्त्वानि व्यापादयति नानयोः पापोपचयो भवति । पुट्ठो वेदेति परं, एतानि चउरो वर्जयित्वा योऽन्यः स स्पृष्टः कर्मणा भवति, बध्यते इत्यर्थः, तं णियमा वेदयति । चतुर्यो बन्धहेतुभ्यः परत इत्यर्थः, तच्चाव्यक्तं सावद्यम् , अमूर्त्तमित्यर्थः, अथवाऽव्यक्तं तेषां त्रिकोटीशुद्धं 30 मांसमपि भक्ष्यम् , अन्यथा त्वभक्ष्यमित्यतोऽव्यक्तं स्यात् ॥ २५ ॥ कथं पापं बध्यते ?, उच्यते 25 १°वाईण दर खं २॥ २ संसारपरिवडणं खं १ । संसार[स्स विवद्धणं वृपा० । संसारस्स पवडणं खं २ पु १ पु २ दी। दुक्खक्खंधविवद्धणं इति चूर्णि-वृत्तिकृत्सम्मतस्तु पाठो नोपलब्धः कुत्राऽप्यादर्श ॥ ३ अविज्ञोपचित इति वृत्तौ ॥ ४-५ सञ्चित्य सञ्चित्य वा० मो०॥ ६°ण[s]णाउट्टी खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ७जं च हिं खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ ८ जानंति त्ति (जाणं ति) चूसप्र० ॥ ९ हिन्सतोऽपि पु० विना॥ १०°ण अणाउट्टिति चूसप्र० ॥ ११ हिन्सादि पु० सं०॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१ समयज्झयणे तइयो उहेसओ ५२. संतिमे तयो आदाणा जेहिं कीरइ पावगं । अभिकम्माय पेसाय मणसा अणुजाणिया ॥ २६ ॥ ५२. संतिमे तयो आदाणा० सिलोगो। संतीति विद्यन्ते । आदान प्रसूतिराश्रयो वा । यैः क्रियते पापं कर्म, तं च अभिकम्माय पेसाय अभिमुखं क्रम्य अभिक्रम्य स्वयं घातयित्वेत्यर्थः, प्रेष्य नाम अन्यैः कारयित्वा, हतं हन्यमानं वा 5 मनसाऽअनुजानन्ति ॥ २६ ॥ ५३. एते तु ततो आदाणा जेहिं कीरइ पावगं । एवं भावणसुद्धीए णेवाणमभिगच्छती ॥ २७॥ ५३. एते तु ततो आदाणा० पुव्वद्धं कंठं । एवं भावणसुद्धीए, भावयन्ति तां भाव्यते वाऽनयेति भावना । शुद्धिर्नाम नात्र विचिकित्सामुत्पादयन्ति ॥ २७ ॥ किञ्च-एवं तस्य भावनाशुद्धात्मनः त्रिकोटीशुद्धभोजिनः यद्यपि कश्चित् ५४. पुत्तं "पि ता समारंभ आहारहमसंजते। भुंजमाणो वि मेधावी कम्मुणा णोवलिप्पते ॥ २८ ॥ ५४. पुत्तं पिता समारंभ० सिलोगो। अपि पदार्थसम्भावने । उक्तं हि"प्राणिनः प्रियतराः पुत्राः" [ तेन पुत्रमपि तावत् समारभ्य, समारम्भो नाम विक्रीय मारयित्वा तन्मांसेन वा द्रव्येण वा, किमंग णरपुत्र शूकर 15 वा छागलं वा आहारार्थ कुर्याद् भक्तं भिक्खूणं ? । अस्संजतो णाम भिक्खूव्यतिरिक्तः, स पुनरुपासकोऽन्यो वा । तं च भिक्षुः त्रिकोटिशुद्धं भुञ्जानोऽपि मेधावी कम्मुणा णोवलिप्पते । तत्रोदाहरणम् उपासिकाया भिक्षुः पाहुणओ गतो। ताए लावगो मारेऊण ओवक्खडेत्ता तस्स दिण्णो । घरसामिपुच्छा । अहो ! णिघिण त्ति । ताधे तेण भिक्खुणा कृतकशूलं कृतम् । मा कप्पारेण, हस्ताभ्यां गृहीत्वा स्वेदय, माऽङ्गारानिति, त्वमेव दह्यसे नाहम् ; एवं मत्कृते घातक एव बध्यते, नाहम् ॥ २८ ॥ एषामुत्तरम् ५५. मणसा जे पदस्संति चित्तं तेसिंण विज्जती। _अणवजं अतधं तेसिं ण ते संवुडचारिणो ॥ २९॥ ५५. मणसा जे पदुस्संति सिलोगो । पूर्वं हि सत्त्वेषु निघृणतोत्पद्यते, पश्चादपदिश्यते —यः परः जीववहं करोति न तत्र दोषोऽस्तीति । ते हि पुण्यकामकाः मातुरपि स्तनं छित्त्वा तेभ्यो ददति । अप्रदुष्टा अपि मनसा दुष्टा एव मन्तव्याः य उद्देशककृतं भुञ्जते । एवं तेषां सङ्घभक्तादिषु मत्स्याद्यशनेषु च मूञ्छितानां प्रामादिव्यापारेषु च नित्याभिनिविष्टानां 25 कुशलचित्तं न विद्यते, अशोभनं चित्तं व्याकुलं वा तदचित्तमेव, यथा अशीलवती । लोकेऽपि दृष्टम्-व्याकुलचित्ता भवति (भणंति)-अविचित्तओ हं । एवं तेषां सावद्ययोगेषु वर्तमानानां अणवजं अतधं तेसिं, न तहं अतह, नास्तीत्यर्थः । का तहि भावना?, न तेषामनवद्ययोगोऽस्ति, नित्यमेव हि ते असंवुडचारिणो बन्धहेतुषु वत्तेन्ते, असंवृतत्वात् , ते हि तत्प्रदोषनिह्नव-मात्सर्यादिष्वाश्रवद्वारेषु यथास्वं वर्तमानास्तदनुरूपमेव च यथापरिणामं कर्म बध्नन्ति । दव्वसंवुडा पावसियाल-चौरादयः, भावसंवुडा साधवः । संवृतचारिणो नाम संवृतः संयमोपक्रमः तच्चरणशीलः संवृतचारी॥ २९ ॥ १ अहिकमाय खं १ पु १॥ २ भावविसोहीए खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ३ नेव्वाणं अहिगच्छती खं १॥ ४"पिता' जनकः” इत्येकपदत्वेन वृत्ति-दीपिकाकृतां व्याख्या ॥ ५ खं १ खं २ पु१पु २ आदर्शेषु चर्णिप्रतीके च समारंभ इत्येव पाठो वर्त्तते । किञ्च-तृतीयोद्देशकप्रारम्भोत्थानिकायामेतत्पाठोद्धरणे पुनः समारब्भ इति पाठोऽस्ति, दृश्यतां पत्रं ३९ ॥ ६ आहारेज असं खं १ खं २ पु १ पु २॥ ७य खं १ खं २ पु १ पु २॥ ८ “पुत्रं' अपत्यं 'पिता' जनकः 'समारभ्य व्यापाद्य" इति वृत्तिकृतो दीपिकाकृतश्च व्याख्या ॥ ९णिक्षिण चूसप्र० ॥ १० नित्याभिविनष्टानां चूसप्र० ॥ Jain Education Intemational Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतंगा० ५२-५९ ] सूयगडंग सुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो । ५६. इच्चेताहिं दिट्ठीहिं सातागारवणिस्सिता । 'हियं ति मण्णमाणा तु सेवंती अहियं जणा ॥ ३० ॥ ५६. इच्चेताहिं दिट्ठीहिं० सिलोगो । इति उपप्रदर्शनार्थः । एताहिं ति इहाध्याये या अपदिष्टा नियतिकाद्याः । सातागारको नाम शरीरसुक्खं तत्र निःसृताः (निः श्रिताः ) अज्झोववण्णा इत्यर्थः । हियं ति मण्णमाणा एवमस्माकं हितं भविष्यतीति मूर्खास्तु एतद् अहितमेव सेवन्ते ॥ ३० ॥ अथवा अस्मिन्नर्थेऽयं दृष्टान्तः ५७. जेधा आस्साविणिं णावं जातिअंधो दुरुभिया । इच्छतो पारमागंतुं अंतरा य विसीयति ॥ ३१ ॥ ५७. जधा आस्साविणिं णावं० सिलोगो । आश्रवतीति आश्राविणी अकतकोट्ठा भुण्णकोट्ठा वा । जात्यन्धग्रहणं नासौ नावामुखं पृष्ठं वा जानीते, यो वा अवल्लक- पत्रादेरुपकरणस्य यथोपयोगः । स एवमिच्छन्नपि पारं समुद्रपारं वा अन्तरा विषीदति सप्लव एव ह्रियते निमज्जते वा । सो हि णिछिडुं पि ण सक्केइ वट्टावेतुं, किमंग पुण सयछि ? ।। ३१ ।। 10 एस दिहंतो । उवसंहारो एसो— ५८. एवं तु समणा एगे मिच्छादिट्ठी अणारिया । संसार पारमिच्छता संसारे अणुपरियद्वंति ॥ ३२ ॥ त्ति बेमि ॥ ॥ बितिओ उद्देसओ सम्मत्तो २ ॥ ५८. एवं तु समणा एगे० सिलोगो । एवं अनेन प्रकारेण । तुः विशेषणे । [ एगे ] अस्मान मुक्तत्वा मिच्छादिट्ठी 15 अणारिया णाम चरित्ताणारिया अणारियाणि वा कम्माणि कुव्वंति । ते संसारपारमिच्छंता संसारे चेवऽणुपरियदृंति । अवि णाम सो जातिअंधो देवतापभावेण वा अण्णेण वा के[ण] इ उत्तारिज्जेज्ज, ण या मिच्छादिट्ठी संसारादुत्तरंति ॥ ३२ ॥ ॥ बितिओ उद्देसओ सम्मत्तो १-२ ॥ [ समयज्झयणे तइओ उद्देसओ ] >* ३९ समयाधिकारोऽनुवर्त्तत एव । तत्र प्रथमे द्वितीये च कुदृष्टिदोषा अभिहिताः । तृतीये तेषामेवाऽऽचारदोषा अभि - 20 धीयन्ते । अथ द्वितीयावसाने सूत्रम् - " पुत्तं पि ता समारम्भ आहारट्ठमसंजते" [ सूत्रगा० ५४ ] आचारदोष उक्तः, इहापि स एवाssचारदोषोऽभिधीयते दृष्टिदोषाश्च । तेषामेव तेरासिगवत्तत्वतं च भणिहिति इत्यतोऽपदिश्यते— ५९. जं 'किंचि उ पूतीकडं संड्डी आगंतु ईहियं । सहस्संतरकर्ड भुंजे दुपक्खं चेव सेवति ॥ १ ॥ 5 ५९. जं किंचि उ पूतीकडं० सिलोगो । यदिति अणिद्दिट्ठस्स णिसो । किंचिदिति यदहारिमं उवधिजातं वा 125 पूतिप्रहणादाधाकर्मणि गृहीतं आधाकर्मिकम्, एवं हि पूतिं यदि च तदवयवोऽपि वर्त्तते । कथं तर्हि आधाकर्म तग्रहणाच १ सरणं ति मण्णमाणा सेवंती पावगं जणा खं १ खं २ पु २ जह खं १ ॥ ३ आसाविणि खं २ पु २ । अस्साविणि पु १ ॥ खं १ । इच्छेजा पारमागंतुं पु १२ ॥ ५ च्छद्दिट्ठी खं १ ७ प्रथमस्य द्वितीयः खं २ पु १२ ॥ पु २ वृ० दी० ॥ २ ॥ १० सङ्घीमागंतुमीहियं खं १ खं २ पु १ पु २ ॥ खं २१२ ॥ ९३ यथाऽऽहा चूसप्र० ॥ १ पु २ वृ० दी० । दीपिकायां जणा स्थाने नरा इति पाठो वर्त्तते ॥ ४ इच्छई पारमागंतुं खं २ वृ० दी० । इच्छेज पारमागंतू ख २ पु १ पु २ ॥ ६ पारकंखी ते संसारं खं १ खं २ पु १ ८ उत्तारेज पु० ॥ ९ किंचि विपू° खं १ खं २ पु १ । किंची ११ सहसंतरियं भुंजे खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ १२ दुप्पक्खं Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० णिज्जुत्ति - चुण्णि समलंकियं [१ समयज्झयणे तइओ उद्देसओ सर्वा अविशोधिकोटिर्गृहीता ?, "एगग्गहणे गहणं" ति काउं तज्जातियाण सव्वेसिं तिणि विसोधिकोडी वि गहिता । श्रद्धा अस्यास्तीति श्राद्धी, आगच्छन्तीत्यागन्तुकाः, तैः श्राद्धीभिरागन्तूननुप्रेक्ष्य प्रतीत्य उवक्खडियं । अधवा सड्डि ि वसंत तानुद्दिश्य कृतम्, तत् पूर्व-पश्चिमानां आगन्तुकोऽपि यदि सहस्संतरकर्ड भुंजे दुपक्खं णाम पक्षौ द्वौ सेवते, तद्यथागृहित्वं प्रव्रज्यां च । अम्हंतणओ वि जो असुद्धं भुंजति सो वि दुपक्खं सेवति । कथं ? दव्वतो लिंगं भावतो असंजतो । 5 एवं ते प्रब्रजिता अपि भूत्वा आधाकर्मादिभोजने गृहस्था एव सम्पद्यन्ते ॥ १ ॥ ६०. तमेवं अविजाणता विसमंसि अकोविता । मैच्छा वेसालिया चेव उद्गैस्स अभिआगमे ॥ २ ॥ ६०. तमेवं अविजाणता० सिलोगो । तमिति निर्देशे, यथोद्दिष्टमेतदर्थं एवं अनेन प्रकारेण मूलगुणे उत्तरगुणे तदुप - घातं च अवियाणता अविशुद्धभोगदोसेण । जधा - " आधाकम्मण्णं भंते ! भुंजमाणे किं पकरेति किं चिणाति०” । [ भगवती श० १ 10उ० ९ सू० ७८, श० ७ उ० ८ सू० २९८ ] । विसमो णाम बंध मोक्खो, कम्मबंधो वि विसमो, जतो एक्केकं कम्ममणगप्पगारं अणेगेहिं च पगारेहिं बज्झते अतो विसमंसि अकोविता, असम्बुद्धा इत्यर्थः । ते अयाणगा प्रत्युत्पन्नगृद्धाः अनागतदोष (षा)दर्शनाद् आधाकर्मादिभिर्दोषैः कर्मबद्धा संसारे दुःखमाप्नुवन्ति । मच्छा वेसालिया चेव, विशालः समुद्रः, विशाले भवाः वैशालिकाः बृहत्प्रमाणाः, अथवा विशालकाः वैशालिकाः । पठ्यते च – “मच्छे वेतालिए चेव" वैताली कूलमिष्यते, लोकसिद्धमेवैतदभिधानम्, यथा- पूर्ववैताली दक्षिणाऽपरेति । सामुद्रकुलोद्भवो स वैशालिको वैतालीकूलो वा मत्स्यः 15 सामुद्रकैर्त्रीचिप्रहारैर्मत्स्यैश्चान्यैर्वहद्भिर्न बाध्यते स कथञ्चिदेव ततो निरुपसर्गान्निष्कण्टकात् समुद्रवेलया निसृष्टकायः यानारूढ इव पुमान् परप्रयोगेन अतुद्यमानः स दूरमपहृतः । उद्गस्स अभिआगमे त्ति, उद्गस्य अभ्यागमो नाम समुद्रान्निस्सरणम् केचित्तु पुनः प्रवेशः ॥ २ ॥ स एवं शरीरसुखाय अजानानस्तत्रापायान्— केहि य कंकेहि य आमिसासीहि ते दुही ॥ ३ ॥ ६१. उदगस्सऽप्पभावेणं० सिलोगो । अप्पभावो णाम उदगस्स अल्पभाव:, प्रत्यावृत्ते उदगे शुष्का एव वालुका संवृत्ता पङ्को वा । अथवा अर्धस्स भावः अप्पभावः, स्तोक इत्यर्थः, स च महाकायत्वान्न तत्र शक्नोति तर्तुम्, परिवर्त्तमानो वा नदीमुखे लग्यते, एवं अप्पकातो वि । घर्तमेतीति घनघातेन वा अन्तं करोतीति घन्तः, "कर्मवत् कर्मकर्त्ता" इति कृत्वाऽपदिश्यते— स्वयमेवासौ धातारं एति प्राप्नोतीत्यर्थः । अथवा घंतो णाम मच्चू तं ममेति । कैः ? उच्यते—टंकेहि य कंकेहि य० सिलोगो पच्छद्धं । एतेनान्ये आमिषाशिनः शृगाल-पक्षि- मनुष्य - मार्जारादयः क्रुधन्ति तत्रैव । यदृच्छया च 25 केचित् पुनः वीचीमासाद्य वर्द्धमाने च उदके समुद्रमेव विशन्ति । दुहि त्ति तैस्तीक्ष्णतुण्डैः पिशिताशिभिरश्यमानास्तीव्रं दुःखमनुभवन्तो अट्टदुहट्टवसट्टा मरंति । एस दिट्ठतो ॥ ३ ॥ 20 ६१. उदगस्सऽप्पभावेणं सुकंसि घंतमेति तु । ६२. एवं तु समणा एगे वट्टमाणसुहेसिणो । मच्छा वेसालिया चेव घंतमे संतऽणतसो ॥ ४ ॥ ६२. एवं तु समणा एगे० सिलोगो । एवं अनेन प्रकारेण वर्त्तमानमेव जिह्वासुखमिच्छन्ति अण्णउत्थिया पासत्थादयो 30 वा एगे समुद्रमुत्तरितुं अविसुद्धाणि आहारादीणि गवेसंता जधा मच्छा एगभवियं मरणं पावेंति एवमणेगाणि जीइतव्वमरितव्वाणि पावंति । एवं पासत्थादयो वि जोएव्वा ॥ ४ ॥ १ तमेव खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ २ अवियाणंता विसमम्मि खं १ खं २ ॥ ३ मच्छे वेतालिए चेव चूपा० ॥ ४ 'गस्सऽभि खं २ पु १ पु २ । गस्सऽहियागमे खं १ ॥ ५ उदगस्स पभावेणं खं १ पु १ वृ० दी० । “उदकस्य प्रभावेन नदीमुखमागताः" इति वृत्ति- दीपिकाकृतः ॥ ६ सुक्खंसि ग्धायमेन्ति उ खं १ । सुक्कम्मि घातमिति उ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ७ आमिसत्थेहि खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ८ अप्पस्वभावः चूसप्र० ॥ ९ अल्पकाय इत्यर्थः ॥ १० घातयतीति चूसप्र० ॥ ११ घातं एति पु० ॥ १२ घातमेळ खं १ खं २ पु १ २ ॥ १३ जनितव्य - मर्त्तव्यानि ॥ १४ योजयितव्याः द्रष्टव्या वा इत्यर्थः ॥ For Private Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ६०-६५ ] सूयगडंग सुत्तं बिइयमंगं पढमो सुक्खंधो । ६३. इणमण्णं तु अण्णाणं इहमेगेसिमाहितं । देवउत्ते अयं लोगे बंभउत्ते त्ति आवरे ॥ ५ ॥ ६३. इणमण्णं तु अण्णाणं० सिलोगो । इदमिति जं भणिहामि जधा लोको उप्पज्जति विणस्सति य । इहेति इहलोगे । एगेसिंण सव्वेसिं । अधवा एगे णाम न ज्ञानसहायाः । तं कहूं ? देवउत्ते अयं लोगे० सिलोगो [ पच्छद्धं ] | इ भणंति - देवेहि अयं लोगो कतो, उत्त इति बीजवद् वपितः आदिसर्गे, पश्चादङ्कुवद् विसर्पमानः क्रमशो विस्तरं गतः । 5 देवगुतो देवैः पालित इत्यर्थः । देवपुत्तो वा देवैर्जनित इत्यर्थः । एवं बंभउत्ते वि तिणि विकप्पा भाणितव्या — बंभउत्तः भगुत्तः बंभपुत्त इति वा ॥ ५ ॥ ६४. ईस्सरेण कते लोगे पहाणाति तहावरे । जीवा - जीवेहिं संजुत्ते सुह- दुक्खसमणिए ॥ ६ ॥ ६४. इस्सरेण कते लोगे ० सिलोगो । “ईश ऐश्वर्ये" ईश्वरः प्रभुः महेश्वरोऽन्यो वाऽभिप्रेतः । तथा प्रधानादि 10 अन्ये इच्छन्ति, प्रधानमव्यक्तमित्यर्थः । जीवाश्चाजीवाश्च जीवाजीवाः, तैः जीवा - जीवैः संयुक्तः । सुखं च दुक्खं च सुखदुक्खे, सम् एकीभावेन अन्वितः सुख-दुःखसमन्वितः । अन्वितः अनुगत इत्यर्थः ॥ ६ ॥ तथाऽन्ये इच्छंति— ६५. सयंभुणा केते लोगे इति वृत्तं महेसिणा । मारेण संयुता माया तेण लोए असासते ॥ ७ ॥ 15 ६५. सयंभुणा कते लोगे ० [ सिलोगो ] । स्वयं भवतीति स्वयम्भूः, स तु विष्णुरीश्वरो वा ब्रह्मा वा । इति वृत्तं ति, इतिरिति उपप्रदर्शनार्थः, 'उक्त' कथितमित्यर्थः । महऋषी नाम स एव ब्रह्मा, अथवा व्यासादयो महर्षयः, यो वा यस्याभिप्रेतः स तं ब्रवीति महर्षिमिति । एवं यो यस्याभिप्रेतः स तं लोककर्तारमिच्छति । केचित् पुनस्त्रयाणामपि साधारणं कर्तृकत्वमिच्छन्ति । तद्यथा— एका मूर्त्तिस्त्रिधा जाता ब्रह्मा विष्णुर्महेश्वरः । कर्त्ता विष्णुः क्रिया ब्रह्मा करणं तु महेश्वरः ॥ १ ॥ ४१ ] तत्र तावद् विष्णुकारणिका ब्रुवते - विष्णुः स्वर्लोकादेकांशेनावतीर्य इमान् लोकानसृजत् स एव मारयतीति कृत्वा मारोऽपदिश्यते, ततस्तेन मारेण संस्तुता माया । एके ब्रुवते यदा विष्णुना सृष्टा लोकास्तदा अजरामरत्वात् तैः सर्वा एवेयं मही निरन्तरमाकीर्णा, पश्चादसावतीवभराक्रान्ता मही प्रजापतिमुपस्थिता | नागार्जुनीयाख पठन्ति — अतिवडीयजीवाणं मही विण्णवते पभुं । ततो से मायासंजुते करे लोगस्सऽभिवा ।। १ उत्ति ति खं २ पु १ पु २ ॥ २ ईसरेण कडे खं १ खं २ पु १ पु २ ॥ दी० ॥ ४ प्रधानादन्ये चूसप्र० ॥ ५ कडे लोए इती खं १ ख २ पु१पु२ ॥ ६ विष्णुसलोकदेकांशे चूसप्र० ॥ सूय० सु० ६ ततस्तेन परित्रा[णा ]य स्वयं मह्या विज्ञप्तेन 'मा भूल्लोकः सर्व एव प्रलयं यास्यति इति, भूमेरभावात्' तां च भयविह्नलाङ्गी अनुकम्पता व्याधिपुरस्सरो मृत्युः सृष्टः । ततस्ते धर्मभूयिष्ठाः प्रकृत्यार्जवयुक्ता मनुष्याः सर्व एव देवेषूपपद्यन्ते स्म । ततः स्वर्गोऽपि अतिगुरुभाराक्रान्तः प्रजापतिमुपतस्थौ, ततस्तेन मारेण संस्तुता माया, मारो णाम मृत्युः, संस्तवो नाम साङ्गव्यम्, उक्तं हि मातृपुव्वसंथवः, मृत्युसहगता इत्यर्थः । ततस्ते मायाबहुला मनुष्याः केचिदेकमृत्युधर्ममनुभूय नरकादिषु यथाक्रमत उपपद्यन्ते स्म । उक्तं च जानन्तः सर्वशास्त्राणि छिन्दन्तः सर्वसंशयान् । न ते तथा करिष्यन्ति गच्छ स्वर्गं न ते भयम् ॥ १ ॥ [ 1 For Private Personal Use Only ३ जीवसमाउते खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० 20 25 30 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ४२ णिजुत्ति- चुण्णिसमलंकिय येन वा मारेण संस्तुता माया बितिया तेण लोए असासते || ७ || अन्ये तु — ६६. माहणा समणा ऐगे आह अंडकडे जगे । असो तत्तमकासी य अयाणंता मुखं वेदे ॥ ८ ॥ ६६. माहणा समणा एगे० सिलोगो । माहणा धीयारा । समणा साङ्ख्यादयः । एगे ण सव्वे । अण्डात् कृतः, ब्रह्मा 5 किलाण्डमसृजत्, ततो भिद्यमानात् शकुनवल्लोकाः प्रादुर्भूताः । एवमेते सर्वेऽपि लोकोत्पादवादिनः स्वं स्वं पक्षं प्रशंसन्त ब्रुवते - असो तत्तमकासी य अयाणंता मुसं वदे, असाविति असावेकः योऽस्मदभिप्रेतः विष्णुरीश्वरो वा तत्रं नाम, असावेव नान्यः लोकमकार्षीत् शेषास्तु लोकोत्पादमजानन्तो मुसं वदे । अथवा वयं ब्रूमः - ते वराका लोकस्वभावं अयातासं वदे । कथम् ? जं ते वदन्ति - देव - मणुस्सा तिरिक्ख-गारगा सुहिता दुःखिता, राज-जुवराजादि, सुत्थाणि वा विग्गहाणि वा, सुभिक्खाणि वा दुभिक्खाणि वा, सर्वमेतद् विष्णुकृतम् । ये चान्ये तत् सर्वं अयाणंता मुखं वदे ॥ ८ ॥ किंच जं ते 25 ६७. सएण परियाएण, लोयं बूया कडे विधिं० [ सिलोगो ] | स्वपर्यायो नाम आत्माभिप्रायः अप्पणिजो गमकः, य एवं स्वेन पर्यायेण ब्रुवते लोगस्स कडविधी, विधिर्विधानं प्रकार इत्यर्थः । तेषामुत्तरम् - तत्तं ते ण वि जाणंति, 15 तस्य भावस्तत्त्वम् लोकसद्भाव इत्यर्थः, यथा उत्पद्यते प्रलीयते च स्वकर्मभिः एतत् तत्त्वं न जानन्तीति । उक्तं हि - "अनंता जीवघेणा उपज्जित्ता णिलिज्जंति” [ ] एवं परिता वि इत्यर्थः । कर्मभिरुत्पद्यमानः प्रलीयमानश्च सन्ततीः प्राप्य नायं नासीत् कदाचिदपि नित्यः, दव्वट्टताए सासतो पज्जवट्टता असासतो || [ १ समयज्झयणे तइओ उद्देसओ ६७. सएण परियाएण लोयं बूया कडेविधिं । तत्तं ते ण वि जाणंति णायं णाऽऽसि कैयाति वि ॥ ९ ॥ अधवा सव्व एवायं उत्तरसिलोगो - तेषां कडवादीनां विप्रसृतानि निशम्य सएण परियाएण बूया लोए कडेविधिं, अप्पणियाणं परियाओ णाम गमागमवक्तव्यता बूया, लोए कडे वा ण वन्ति ते उ सव्वे कुवादिणो तत्तं ते ण वि जाणंति 20 णायं णाऽऽसि कयाति वि । तत्त्वं यथा भगवद्भिरुपदिष्टम् — “किमिदं भंते ! लोके त्ति पञ्चति ?, पंच अत्थिकाया” [ भग० श० १३ उ० ४ सू० ४८१ ] । तथा " दव्वतो णं लोगे ण कयाइ णासि जाव णिच्चे, एवं क, भावतो जे जधा भावा पज्जवा उप्पज्जंति विणस्संति च ते पडुञ्च अणिच्चो” [ भग० श० ११ उ० १० सू० ४२० ] । पठ्यते च - "लोकं बूया कडे ति च" । चशब्दादकडे ति च नित्य इत्यर्थः द्रव्यतः, भावं पडुच्च कडे ॥ ९ ॥ किञ्चान्यत्-ते सर्वज्ञा नैव दुक्खं जाणंति, चदुक्खुपायं नैव तन्निरोधम्, कथं तर्हि लोकोत्पादं ज्ञास्यन्ति १ । कथम् ? - ६८. अमणुण्णसमुप्पादं दुक्खमेव विजाणिया । समुप्पादमयाणता किह णाहिंति संवरं ? ॥ १० ॥ ६८. अमणुण्णसमुप्पादं० सिलोगो । अमणुण्णो णाम असंजमो, न हि कस्यचिदसंजमतत्त्वं परेणाऽऽत्मनि क्रियमाणमिष्टम् इत्यतः असौ दुष्टाशीविषवत् सर्वस्यैवावमन्यः असंजमः । तेषां च यत् पूर्वं नासीत् पश्चाज्जातं तत् सर्वं दुक्खं, जं पि किंचि सुखसण्णितं तं पि दुक्खमेव, कम्मितं दुक्खं, एवं ठिति आसितं सेयं दुक्खं, छुधा विधींतगत्तणं पि दुक्खं । 30 एवमादीणि पुव्वं णासी पश्चाज्जायन्त इति दुक्खाणि तानि चेश्वरकृतानि नास्माभिरिति । त एवं तस्य दुःखस्य समुप्पादम १ वेगे खं २ पु १ पु २॥ २ वते खं २ पु १ पु २ ॥ ३ सतेहिं परियातेहिं लोयं ब्रूया कडे ति या खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ४ बूया लोए कडेविधिं इति लोयं बूया कडे ति च इति चूर्णो पाठभेदौ ॥ ५ णाभिजाणंति वृ० दी० । ण वि जाणती खं १ ख २ पु १ पु २ ॥ ६ण विणासि खं १ खं २ पु १ पु २ ० दी० ॥ ७ कयाइ ति दी० ॥ ८ चक्कम्मितम्मि ( तं पि) दुक्खं पु० सं० ॥ ९ शयनमित्यर्थः ॥ १० तृप्तत्वमपीत्यर्थः ॥ For Private Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ६६-७१] सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो । ४३ याता कि णाहिंति संवरं ? । का तर्हि भावना ? - तद्धि तैरात्मनैव पूर्वं पापं कृतम्, पश्चाद् हेत्वन्तरतः तेष्वपि विपकं, तद्यथानाम कृष्यादीनि कर्माणि स्वयं कृत्वा तत्फलमुपभुञ्जाना ब्रुवते - यदस्मासु किश्चित् कर्म विपच्यते तत् सर्वमीश्वरकृतमिति । एवं तस्स दुक्खस्स समुत्पादमयाणंता कहमणिपुणा संसारगतयो ( गतीः) ज्ञास्यन्ति ? संसारदुक्खणिस्सरणोवायं च कथं णाहिंति संवरं ॥ १० ॥ भणिया कडवादिणो । तेरासिइया इदाणिं ते वि कडवादिणो चेव । तेरासिया णाम जेसिं ताई ऐक्कवीस सुत्ताइं तेरासियासुत्तपरिवाडीए ते भांति ६९. सुद्धे अपावए आसी इहमेगेसि आहितं । 'कीलावण-पदोसेण रजसा अवतारते ॥ ११ ॥ ६९. सुद्धे अपावए आसी० सिलोगो । तेषां हि यथोक्तधर्मविशेषेण घटमानोऽयमात्मा इह सुद्धाचारो भूत्वा मोक्खो अपापको भवति, अकर्मा इत्यर्थः । इहेति इहलोके मिथ्यादर्शनसमूहे वा । स मोक्षप्राप्तोऽपि भूत्वा कीलावण-पदोसेण रजसा अवतारते, तस्य हि स्वशासनं पूज्यमानं दृष्ट्वा अन्यशासनान्यपूज्यमानानि [च] क्रीडा भवति, मानसः प्रमोद इत्यर्थः, 10 अपूज्यमाने वा प्रदोषः, ततोऽसौ सूक्ष्मे रागे द्वेषे वाऽनुगतान्तरात्मा शनैः शनैः निर्मलपटवदुपभुज्यमानः कृष्णानि कर्माण्युपचित्य स्वगौरवात्तेन रजसाऽवतार्यते ॥ ११ ॥ ततः पुनरपि - ७०. यतश्चैवम् — इह संवडे भवित्ताणं सुद्धे सिद्धीए चिट्ठती । पुणो कालेऽणणं तत्थ से अवरज्झती ॥ १२ ॥ ७०. इह संबुडे भवित्ताणं सुद्धे सिद्धीए चिट्ठती० [सिलोगो] । इहेति इह आगत्य मानुष्ये वयः प्राप्य प्रव्रज्यामभ्युपेत्य 15 संवृतात्मा भूत्वा जानको नाम जानक एव आत्मा, न तस्य तज्ज्ञानं प्रतिपतति । यदि वा - एतत् शासनं न ज्वलति तत एवं प्रज्वाल्य किश्चित् कालं संसारेऽवस्थित्य " प्रेत्य पुनरपापको भवति" मुक्त इत्यर्थः । एवं पुनरनन्तेनानन्तेन कालेन स्वशासनं पूज्यमानं वा अपूज्यमानं वा दृष्ट्वा तत्थ से अवरज्झती, अवराधो णाम रागं दोसं वा गच्छति, ततः सापराधत्वात् चौरवद् रागद्वेषोत्थैः कर्मभिर्बाध्यते, ततः कर्मगुरुत्वात् पुनरवतार्यते, तेनैव क्रमेण शासनं प्रज्वाल्य निर्वाति च । उक्तं चदग्धे पुनः पुनरुपैति भवं प्रमध्य, निर्वाणमप्यनवधारितमी रुनिष्ठम् । मुक्तः स्वयं कृतभवश्च परार्थशूरस्त्वच्छासनप्रतिहतेष्विह मोहराज्यम् ॥ १ ॥ [ सिद्ध० द्वा० २ श्लो० १८ ] ॥ १२ ॥ ७१. एताणुवीय मेघावी बंभचेरं न तं वसे । पुढो पावादिया सव्वे अक्खातारो सयं सयं ॥ १३ ॥ ७१. एताणुवी मेधावी० सिलोगो | एवं त्रैराशिकमते चान्ये प्रागुक्ताः कुवादिनः, तांश्च स्वच्छन्दबुद्धिविकल्पैः पूर्वा-पराधिष्ठितमतीन् अनुचिन्त्य ज्ञात्वेत्यर्थः नैते निर्वाणायेति द्रव्यब्रह्मचेरं न तं वसे त्तिण तं रोएज्जा आयरेज्जा वाहिं समं वञ्जा संसरिंग वा कुर्यात् तेहिं ति, मा भूत् सेहमतिं वुग्गाहेज्जा । उक्तं हि —“शङ्का काङ्क्षा १ ‘“इच्चैइयाईं बावीसं सुत्ताइं तिकणइयाई तेरासियमुत्तपरिवाडीए” इति पाठो समवायाङ्गसूत्रे सूत्र १४७ पत्र १२८ - २ तथा नन्दीसूत्रे सूत्र ५६ पत्र २३६ - २ मध्ये दृश्यते ॥ २ आया इह खं १ खं २ पु १ पु २० दी० ॥ ३ पुणो किड्डा-पदो सेणं से तत्थ अवरज्झति खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० । किड्डा स्थाने खं २ पु १ पु २ कीडा पाठः ॥ ४ °रात्मना शनैः पु० ॥ ५ इह संबुडे मुणी जाते पच्छा होति अपावर । वियडं व जहा भुज्जो नीरयं सरयं तहा ॥ खं १ खं २ पु १ पु २ ० दी० ॥ ६ पेच्चा होति अपावर ७ यतचै ( ) तत् वा० मो० ॥ ८ दग्धेन्धनः पुनरुपैति इति द्वात्रिंशिकायां पाठः ॥ १० बंभचेरे ण ते वसे । पुढो पावादुया खं १ खं २ पु १ पु २ ब्रु० दी० ॥ चूपा० ॥ ९णुवीति खं १ खं २ पु १ पु २ ॥. 5 For Private Personal Use Only 20 25 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 10 णिजुत्ति- चुण्णि समलंकियं [ १ समयज्झयणे चउत्थो उद्देसओ जुगुप्सा च०" [ ] । सव्वे व ते पुढो पावादिया सव्वे अक्खातारो सयं सयं, पुढो णाम पृथक् पृथग् यथामति विकल्पशो वा स्वं स्वमिति स्वं स्वं सिद्धान्तं प्रशंसन्ति, परसिद्धान्तं च निन्दन्ति ॥ १३ ॥ 20 ४४ ७२. सएसए उट्ठा० सिलोगो । स्खे स्वे आत्मीये [ आत्मीये ] उपतिष्ठन्ति तस्मिन्निति उपस्थानम् । सिद्धिरिति निर्वाणम् । एवं अवधारणे । नान्यथेति नान्येन प्रकारेण मुच्यन्ते सत्त्वाः । अन्येषां तु स्वाख्यातचरणधर्मविशेषादिहैवाष्टगुणैश्वर्यप्राप्तो भवति, तद्यथा — अणिमानं लघिमानमित्यादि । अहवा अधोधि होति वसवत्ती, अधोहि नाम अवधिज्ञानः । वशवर्त्ती नाम वशे तस्येन्द्रियाणि वर्त्तन्ते, नासाविन्द्रियवशकः । सव्वकामसमप्पियो णाम सर्वकामसमर्पितस्य यथेच्छातः उपनमन्तेत्यर्थः, तस्य सर्वकामा अर्पिताः, सर्वकामानां वा समर्पितः ॥ १४॥ ७२. सए सए उवट्ठाणे सिद्धिमेव न अन्नहा । अधोधि होति वसवत्ती सव्वकामसमप्पियो ॥ १४ ॥ ७३. सिद्धा य ते अरोगा य० सिलोगो । ते हि रिद्धिमन्तः शरीरिणोऽपि भूत्वा सिद्धा एव भवन्ति नीरोगाश्च । नीरोगा णाम वातादिरोगैरागन्तुकैश्च न पीड्यन्ते, ततः स्वेच्छातः शरीराणि हित्वा निर्वान्ति । एवं सिद्धिमेव पुराकाउं आसएहिं गढिता रा, सिद्धिं पुरस्कृत्येति सिद्धा एव वयम्, अनेन वाऽऽचारेण सिद्धिं यास्यामः, पूजापुरस्कारकारणात् । 15 हिंसादिषु आश्रवेषु गढिता णाम मूच्छिताः, संसक्तभावात् ॥ १५ ॥ त एवं सिद्धाः सिद्धवादिनः ये चान्ये आश्रवगढितावादिनस्ते— ७३. सिद्धा य ते अरोगा य इहमेगेसि आहितं । सिद्धिमेव पुराकाउं आसएहिं गढिता णरा ॥ १५ ॥ ७४. असंवुड अणादीयं भमिहिंति पुणो पुणो । कम्पकालुववज्जंति ठाणा असुर-किब्बिस ॥ १६ ॥ त्ति बेमि ॥ ॥ ततिओ उद्देसओ सम्मत्तो १-३ ॥ ७४. असंबुडा० सिलोगो । अणादीयं भमिहिंति पुणो पुणो, एतत् कण्ठ्यम् । कप्पकालुववजंति ठाणा असुरकिब्बिसा, कल्पपरिमाणः कालः कप्पकालः, कप्प एव वा कालः । तिष्ठन्ति तस्मिन्निति स्थानम् । आसुरेषूपपद्यते किल्बिषिकेषु च । ततो उव्वट्टा अणतं कालं हिंडंति संसारे । इच्चेते कुसमये बुज्झेज तिउट्टेज ति ॥ १६ ॥ ॥ ततिओ उद्देसओ सम्मत्तो १-३ ॥ [ समयज्झयणे चउत्थो उद्देसओ ] AB 25 उद्देसाभिसंबंधो– “किच्चुवमा य चउत्थे" [ नि० गा० २९ ] णिज्जुत्तीए वृत्तं । किच्चेहिं कृत्यैरुपमीयन्ते इत्यतः कृत्योपमाः । सूत्रस्य सूत्रेण सह सम्बन्धने मोक्षार्थमुपस्थितः आत्मनोऽपि ताव सरणं न भवति जेण कप्पकालुववजंती, किमंग पुनरन्येषाम् ? इत्यतोऽपदिश्यते १ सते सते खं १ खं २ पु १ पु २ ॥ ३ अबोधि चूस• ॥ ४ अबोहि चूसप्र० ॥ २१२ ॥ ७ आसुर - किन्विसिय खं २ अहो व होति वस° खं १ खं २ पु १ वृ० दी० । अहो इहेव वस° २ ॥ ५ सासए गढिता खं १ खं २ पु १ पु २ ० दी० ॥ ६ कालमुवजंति खं १ १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ For Private Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा०७२-७७] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। ७५. एते जिता भो ! न सरणं बाला पंडितमाणिणो। जहित्ता पुव्वसंजोगं सितकिच्चोवगा सिया ॥१॥ ७५. एते जिता भो! [न] सरणं० सिलोगो। एते इति य उद्दिष्टाः, श्रयन्ति तमिति शरणम् , भो ! इति शिष्यामत्रणम् , जिता नाम विषय-कषायैस्ते जिता न भवन्ति शरणाय, दुर्बला इत्यर्थः । अधवा-"एते [जिता] भो ! असरणं" परीषहजितत्वात् अत्तणो य परेसिं च । स्यात् कथं अशरणाय भवन्ति ? उच्यते, येन बाला पंडितमाणिणो । अथवा पयण-पया-5 वणादिआरंभ-विहार-धण-धण्ण-गो-महिस-सयणा-ऽऽसणादिपरिच्छंदा णाणाविधेहिं दुक्खेहिं अभिभूता आत्मनः सरणं मण्णंते ते कधं अण्णेसिं सरणं भविस्संति ?, ते असरणे सरणबुद्धिया बाला पंडितमाणिणो । संजमो य भावसरणं अत्तणो य ताव परेसिं च । तं प्रति जिता जहिता पुव्वसंजोगं, के ते ?, कुतित्था लिंगत्था य, पुव्वसंयोगो णाम स्वजन-धन इत्यादि । तं च हित्वा सितकिचोवगा सिया, सिताः बद्धा इत्यर्थः, सितानां कृत्यानि सितकृत्यानि, तद्यथा-पचन-पाचना-ऽऽरम्भ-परिग्गहादीनि, उपगा नाम योग्याः । अथवा सितकृत्योपगा इति सिताः गृहस्थाः, नित्यमेवारम्भोपजीवित्वाद् असुभाध्यवसिता: 10 पापोपगा भवन्ति, ततश्च नरकोपका इति । एत्थ दिटुंतो सुयिवादिषोडेणं (? खोट्टेणं ? बोड्डेणं)-अंतरदीवे एकरस भिण्णवाहणियस्स पुव्वपविट्ठस्स उच्छुखाइयस्स समुद्रकूलावस्करस्थाने सुक्कसणं 'गुलमट्टियं' ति काऊण भक्षयति इतरदर्शनम् । सब्भावे कधिते ‘णत्थि किंचि सुईत्ति सगिहं चेव हव्वमागते ॥ १ ॥ यतश्चैवं तेण ७६. तं च भिक्खू परिणाय विजें तेसु ण मुच्छए। अणुकसाए अणवलीणे मज्झिमेण मुणि जावए ॥२॥ 15 ७६. तं च भिक्खू परिण्णाय० सिलोगो । तदिति तत् तेषां आरम्भादि सितकृत्योपगत्वं चशब्दात् कुदर्शनग्रहणं अन्यच्च छउमत्थं चउपज्जवं जाणणापरिण्णाए परिजाणिया [पञ्चक्खाणपरिण्णाए] पच्चक्खातुं तदाचारस्य विजं नाम विद्वान संस्कृतापभ्रंशः न मूछा तेषु कुर्यात् , यथा एते वि णिव्वाणाय । अथवा यत् तेषां परैः क्रियते "ण तत्थ मुच्छए"। अमूर्छमान एव च अणुक्साए अणवलीणे, अणुक्कसायो नाम तणुकसायो, यथाऽणुत्वात् परमाणु!पलभ्यते एवमस्यापि यद्यप्यक्षीणाः कषायास्तथाप्यणुत्वान्नोपलभ्यन्ते, निगृहीतत्वान्नोदीर्यन्त इत्यर्थः । पठ्यते चान्यथा सद्धिः-"अणुक्कसाए (अणुकसे) अणवलीणे" तत्र अणुक्कसो णाम न जात्यादिभिर्मदस्थानैरुत्कर्ष गच्छति, अपलीयते स्म अपलीनः, यो हि जात्यादिरहितः पूर्वमासीत् स नापलीयेत, न ग्राहयेदात्मानमित्यर्थः । तत आत्मोत्कर्षत्वा-ऽपलीनत्वे वर्जयित्वा मज्झिमेण मुणि जावए नोन्नमते न लज्जते इत्यर्थः । अथवा-राग-द्वेषौ हित्वा तयोः “मध्येन" मुनिर्यापयेत् , अरक्त-दुष्ट इत्यर्थः ॥ २ ॥ अथवा मध्यमिति___७७. सपरिग्गहा य सारंभा इहमेगेसिं आहितं । ___ अपरिग्गहे अणारंभे भिक्खू जाणं परिव्वए ॥३॥ ७७. सपरिग्गहा य सारंभा० सिलोगो। परिग्रहा-ऽऽरम्भावुक्तौ प्रथमोद्देशके [ सूत्रगा० १४ चूर्णौ ] । इहेति इहलोके, एके न सर्वे आहितं आख्यातम् । यदेषामारम्भ-परिग्रहावाख्यातौ निर्वाणाय अतत्त्वम् । साधवस्तद्विपरीताः, तन्मध्ये अपरिग्गहे अणारंभे, ज्ञानवान् ज्ञानी, भिक्षुः पूर्वोक्तः, समन्ताद् व्रजेत् परिव्रजेत् ।। ३ । स्यादेतत्-अनारम्भा-ऽपरिग्रहह्वतो भो! असरणं चूपा० । भोऽसरणं खं १ पु १॥ २ जत्थ बालेऽवसीयति खं १ खं २ पु १ पु २ वृपा० दी० । बाला पंडियमाणिणो वृ० दीपा० ॥ ३ हेच्चा णं पुव्व खं १ खं २ पु १ पु २॥ ४ सिता किच्चोवदेसिता खं २ पु १ पु २ वृषा० । सिया किच्चोवदेसगा खं १॥ ५ विजं ण तत्थ मुच्छए चूपा० । विजं तेसि ण मुच्छए पु १ पु २ ॥ ६ अणुक्कस्से अप्पलीणे खं १ खं २ वृ० दी० । अणुक्कसे अप्पलीणे पु १ पु २ । अणुक्कसे अणवलीणे चूपा० ॥ ७ मझेण खं १ खं २ वृ० दी. चूपा० ॥ ८ जावते खं १ खं २ पु १ पु २॥ ९ सिमाहिये खं २॥ १०भिक्खू ताणं परिव्वते खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी। Jain Education Intemational Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ णिज्जन्ति - चुण्णिसमलं कियं [ १ समयज्झयणे चउत्थो उद्देसओ अपरिचयस्य च भिक्षोः कथं शरीरयापनाप्रक्रिया स्यात् ? इति न च शारीरो धर्मो भवति, तत उच्यते — कडेसु घासमेसेज० सिलोगो । अथवा " जावए " त्ति वुत्तं [ सूत्रगा० ७६ ] सा चेयं यापना ७८. कडेसु घासमेसेज विऊ दत्तेसणं चरे । अगिद्धे विमुक्ते य ओमाणं परिवज्जए ॥ ४ ॥ 5 ७८. कडेसु घासमेसेज० । तैरेवाऽऽरम्भ - परिग्रहवद्भिः पचमानकैः अर्थाय कृतेषु प्रासुकीकृतेष्वित्यर्थः, प्रस्यत इति ग्रासः, तेषु कृतवत्सु स भिक्षुर्याचेत, यदुक्तमेषणीयं चरेत्, “चर गति-भक्षणयोः” भुञ्जीतेत्यर्थः । एवमाहार- उवधि- सेजाओ वि । तदपि भुञ्जानः अगिद्धे विप्पमुक्के य, अगिद्धो अरक्त इत्यर्थः, बायालीसदोसविप्पमुक्कं एसणं चरेदिति गवेसणा गहणेसणा य गहिताओ । अगिद्धे त्ति घासेसणा । विप्पमुक्के न्ति न तेष्वाहारादिषु ममीकारः कर्त्तव्यः, यत्र वा इष्टो आहारो लभ्यते तत्रापि कुले ग्रामे वा न सङ्गः कार्य इत्यतो विष्पमुक्तो य । ओमाणं परिवञ्जए त्ति, सपक्ख-परपक्खओमाणपेल्लियं 10 च खेत्तं वज्जेतव्यं, ना भूद् एवं दोषाः स्युरिति । उवहि- सेज्जादि वि जोएज्जा आदिग्गहणं ॥ ४ ॥ किचुवमाधिकारो गतो । समयाधिकारो ऽनुवर्त्तत एव । लोकस्य च पाषण्डलोकस्य च तदधिकारेऽनुवर्त्तमाने इदमपदिश्यते— ७९. लोगावायं णिसामेज इहमेगेसि आहितं । विपरीत पण्णसंभूया अण्णोष्णबुइताणुगा ॥ ५ ॥ ७९. लोगावायं णिसामेज • सिलोगो । लोका नाम पाषण्डा गृहिणश्च, लोकस्य लोकयोर्वा वादः लोकवादस्तावत्15 "अनपत्यस्य लोका न सन्ति गावान्ताः नरकाः, तथा गोभिर्हतस्य गोन्नस्य नास्ति लोकः ।" [ ] तथा सिं सुणया क्खा विप्पा देवा पितामहा काया । ते लोगदुव्वियड्ढा दुक्खं मोक्खा विबोधितुं ॥ १ ॥ [ 1 तथा पुरुषः पुरुष एव, स्त्री स्त्रीत्येव । तथा पाषण्डलोकस्यापि पृथक् तयोरिव प्रसृताः — केषाञ्चित् सर्वगतः असर्वगतः नित्योऽनित्यः अस्ति नास्ति चात्मा, तथा केचित् सुखेन धर्ममिच्छन्ति केचिद् दुःखेन, केचिद् ज्ञानेन, 20 केचिदाभ्युदयिकधर्मपराः नैव मोक्षमिच्छन्ति । इहेति इहलोके आहितं आख्यातम् । पठ्यते च – “लोकावादं णिसामेत्ता " णिसामेत्ता जाणत्तायण सदहेज्ज, लोकस्वभावो नाम अज्ञानिध्याद् यत्किञ्चिद्भाषिता । उक्तं च— 1 एवंस्वभावः खलु एष लोकः न स्वार्थहानिः पुरुषेण कार्या । [ J अथ कस्मान्न श्रद्धेयाः परसमयाः ? इति यस्मात् ते विपरीतपण्णसंभूया त्रयाणामपि ज्ञानानां विपरीतया प्रज्ञया 25 सम्भूताः । उक्तं हि – “मति श्रुत-विभङ्गा विपर्ययश्च" [ तत्त्वा० भ० १ सू० ३२ ], विपरीतप्रज्ञा सञ्जाता येषां ते विपरीतपण्णसंभूता । अन्योन्यस्य बुइतं अणुगच्छंतीति अण्णोष्णवुइताणुगा । तत् कथ्यं ( कथम् ? ), व्यासोऽपि हि इतिहास्यमानयनम(? यन्न)न्यस्य वचः प्रमाणीकरोति, तद्यथा - 'अनुकपेन ऋषिणा एवं दृष्टम्, अन्येनैवम्' इति, नान्योन्यस्य वचनमतिवर्त्तते, प्रायेण हि वार्तानुवार्त्तिको लोकः । तथा चोक्तम् — “तानुगतिको लोकः०” [ ] ॥५॥ अस्यामेव लोकचिन्तायां केचित् पाषण्डास्तच्छ्रावकाचैवं प्रतिपन्नाः १ विज्जू १ ॥ २ 'जते खं १ खं २ पु १ पु २ ॥ ३ लोगवायं णिसामेजा खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० । लोकावादं णिसामेत्ता चूपा० ॥ ४ संभूतं अण्णत्ततयाणुगं वृ० दी० । संभूतं अण्णण्णबुतिताणुयं खं १ । 'संभूतं अणु (ण्णु) ण्णबुतिताणुगं पु१२ । संभूतं अण्णं ति बुतिताणुगं खं २ ॥ ५ लोकवादं पु० सं० ॥ ६ "गतानुगतिको लोको न लोकः पारमार्थिकः । पश्य मूर्खेण लोकेन हारितं ताम्रभाजनम् ॥” इति सम्पूर्णः श्लोकः ॥ For Private Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 सुत्तगा०७८-८२] सूयगडंगसुत्तं विइयमंग पढमो सुयक्खंधो। ८०. अणंते णितिये लोए सासते ण विणस्सए । __अंतवं णितिए लोए एवं वीरोऽधिपासति ॥६॥ ८०. अणते णियते (णितिये ) लोए [सिलोगो] । अनन्तो नाम नास्ति परिमाणमस्य क्षेत्रतः कालतोऽपीति । णितिये नित्य इत्यर्थः । तनुः (ते तु) के ? साङ्ख्याः , तेषां सर्वगतः क्षेत्रज्ञः कूटस्थः ग्रहणम् । [सासते ति] यथा वैशेषिकाणां परमाणवः शाश्वतत्वेऽपि सति क्रियावन्तःण विणस्सए त्ति न तेषां कश्चिद् भावो विनश्यति उत्पद्यते वा । अन्ये 5 • तु ब्रुवते-'अंतवं णितिए लोए, यथा पौराणिकानां सप्त द्वीपाः सप्त समुद्राः क्षेत्रलोकपरिमाणम् , कालतस्तु नित्यः, केषाञ्चिदन्तवान् नित्यश्च । एवं अवधारणे। वीरो जावकः। अधिकं अन्येभ्यः सत्त्वेभ्योऽन्यतीर्थकरेभ्यो वा पश्यति अधिपश्यति ॥ ६ ॥ किश्चान्यत् ८१. अमितं जाणती वीरे इहमेगेसि आहितं । सव्वत्थ सपरिमाणं इति वीरोऽधिपासती ॥७॥ ८१. अमितं जाणती वीरे० [सिलोगो] । न मितं अमितम् । का तर्हि भावना ?-केषाञ्चित् सर्वज्ञवादिनां अनन्तं ज्ञानं सर्वत्र चाप्रतिहतमिति, अधवा लोगमेव अमितं जाणंति । अमितो णाम अपरिमाणो लोकः, तच्च सर्वज्ञो वीरः तथैव जानाति । अन्ये पुनः- सव्वत्थ सपरिमाणं इति वीरो त्ति, सर्वत्रेति तिर्यगूर्द्धमधश्चेति क्षेत्रतः, कालतः केषाश्चिद् दिव्यं वर्षसहस्रं केषाञ्चिदन्यथा, इति उपप्रदर्शनार्थः, वीरः उक्तः, अधिकं पश्यतीति अधिपश्यति ॥ ७ ॥ एवं यस्य परिमाणमिष्टं स तेनार्थाभिप्रेतेन परिमाणेन नानन्तलोकमिच्छति । तत्र ये ब्रुवते-"अणंते णितिए लोए"15 [सूत्रगा० ८०] त एवं ब्रुवते-यो हि यथा भावः स तथैवात्यन्तमविकल्पो भवति । तद्यथा-यत्रसस्त्रस एव स्थावरः स्थावर एव, सर्वकालं [न त्रसत्वं जहाति ] न स्थावरत्वं जहाति, एवं देवा देवा एव, मनुष्येषु स्त्री-पुं-नपुंसका इति । अथवा यदुक्तम "लोकावाद णिसामेज" [सूत्रगा० ७९] ते च लोकवादा उक्ताः । अथवा स्त्री स्त्री एव. एवं त्रसस्त्रस एव । भट्टारगो भणति-मिच्छा एतं, जो जधा सो तहेव अव्वत्तं भण्णति । अयं तु स्वभावो ८२. जे केइंति तसा पाणा चिद्रूतऽदव थावरा। परियाए अत्थि से जायं जेण ते तस-थावरा ॥८॥ ८२. जे केइति तसा पाणा० सिलोगो। जे त्ति अणिहिट्ठणिद्देसे । केचिदिति न सर्वे त्रसाः, न स्थावराः। तत्र वसन्तीति त्रसाः, तिष्ठन्तीति स्थावराः। परियाए अत्थि से जायं, पर्यायो नाम पर्यायः प्रकार इत्यर्थः । अथ कोऽर्थः ? अस्त्यसौ कश्चित् प्रकारः येन ते त्रसा भवन्ति स्थावरा वा । तत्र तावत् त्रसनिवर्तकानि कर्माण्युपचित्य सा भवन्ति । एवं स्थावरा अपि ॥ 25 नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-सनामउदयेण त्रसं न तु स्थावरोदयनामेन । उक्तं च-"अणिच्चमावासमुविंति जंतवो, पलोइया सोच्च समेञ्च इंतयं ।" तथा चोक्तम्-"ठाणी विविधा ठाणा" [ सूत्रगा० ४१९]। अन्यच्चोक्तम्-"अशाश्वतानि स्थानानि" [ ] । यो हि यथाकर्मा स तथा भवतीति, तद्यथा-नारगो तिर्यङ् मनुष्यो देवो वा, तथा स्त्री-पुं-नपुंसकं वा, न तु जातिमनुष्योऽस्ति जातिस्त्री वेत्यादि । यतश्चैवं तेनायमन्यः पर्यायो भवतीति वाक्यशेषः, येन १स्सति खं १ खं २ पु १ पु २॥ २ इति धीरोऽतिपासति खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ३ अणंतेवं चूसप्र० ॥ ४ अपरिमाणं विजाणाति इह खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ५ इति धीरोऽतिपासति खं १ खं २ पु १ पु २ ० दी० ॥ ६ लोकवादं पु० सं० ॥ ७ केति तसा खं १ खं २ पु १ पु २॥ ८ चिटुंति अदुव खं १॥ ९से अंजू खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ १० तेण खं १ पु २ वृ० दी० ॥ ११ अत्र स्थाने नागार्जुनीयाचार्याणां कोऽपि पाठभेदो वाचनाभेदो वा नास्ति, किन्तु व्याख्याभेद एवात्र दृश्यते ॥ १२ आचाराङ्गसूत्रद्वितीयश्रुतस्कन्धे विमुक्त्यध्ययनाख्यचतुर्थचूलायाम् “अणिच्चमावासमुविंति जंतुणो पलोयए सुचमिणं अणुत्तरं ।” (गा. १) इतिरूपः पाठो वर्त्तते ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१ समयज्झयणे चउत्थो उद्देसओ ते त्रसा भवन्तीति स्थावरा वा । किञ्चान्यत्-इहैव तावद् दासो भूत्वा राजा भवति, राजा भूत्वा द्रमकः, तथा बाल-कौमारयौवन-मध्यम-स्थाविर्याण्यन्योपमर्दैन प्रमर्देन प्राप्नोति, गति-स्थान-शयना-ऽऽसन-स्वप्न-बोधादयोऽन्येऽपि विशेषा बक्तव्या इति ॥ ८ ॥ किश्चान्यत्-प्रत्यक्षेण परोक्षं साध्यते, न त्वमी सत्त्वाः ८३. उरालं जगतो जोगं विवज्जासं पलिंति य। सब्वे अकंतदुक्खा ये अतो सव्वे अहिंसगा ॥९॥ ८३. उरालं जगतो जोगं० सिलोगो । उरालं प्रागडं स्थूलम् । जगतो योगो. तद्यथा-गर्भ-बाल-कौमार-यौवनमध्यम-स्थाविर्याणि उरालानि प्रागडानि जुज्जति विजुजति । तथा च तस्मिन्नेव वयसि कश्चिद् दासो भूत्वा राजा भवति, ईश्वरश्च भूत्वा निर्धनो भवति । “अस भुवि" विपरीततामेवैति विपर्यासः, विपर्यासेन प्रलीयन्ते, अन्यथाभावगमनेनेत्यर्थः । चशब्दान्न सर्वथा प्रलीयन्ते, द्रव्यतो हि अवस्थिता एव, अनेन प्रत्यक्षदृष्टेन सामान्येनानुमानेनैव साध्यन्ते । यथेह जातिस्मरणाद्वा 10 बहवो विशेषा दृश्यन्ते एवं भवान्तरगतस्य अप्रत्यक्षा गति-कायेन्द्रिय-लिङ्ग-त्रस-स्थावर-राज-युवराज-ईश्वरादि-दास-भृतकद्रमकादयश्चोत्तमाद्या विपर्यासा भवान्तरेष्वपि प्रत्येतव्याः। एते तु प्रत्यक्ष-परोक्षास्तांस्तान् पर्यायविशेषान् परिणमन्तः सव्वे अकंतदुक्खा य, सर्वे इत्यपरिशेषाः कान्तं प्रियमित्यर्थः, न कान्तमकान्तम् , दुक्खं अणिटुं अकंतं अप्पियं जाव अमणामं दुक्खं । अनुकूलमपि चैतद् ज्ञायते—तधा सव्वे इट्ठा सुभा, कंता सुभा, जाव मणामा सुभा । अतो इति अस्मात् कारणाद् अहिंसगा एवं ज्ञात्वा सर्वसत्त्वानि अस्य साधोरहिंसनीयानि ॥ ९ ॥ किं कारणम् ? तदुच्यते15 ८४. एतं खु णाणिणो सारं जंण हिंसति किंचणं । ___अहिंसासमयं चेव एतावंतं वियाणिया ॥१०॥ ८४. एतं खु णाणिणो सारं० सिलोगो । एतदिति यदुक्तम् उच्यते वा सारं, विद्धीति वाक्यशेषः । यत् किम् ?, उच्यते-जंण हिंसति किंचणं, किंचिदिति त्रसं स्थावरं वा, अहिंसा हि ज्ञातागमस्य फलम् । तथा चाह—“योऽधीत्य शास्त्रमखिलं."[ ] "एवं खु णाणिणो सारं जं न भासति अलियपयं" एवं अदत्तं मेहणं परिग्गहं च । जं च रागा20 दिअज्झत्थदोसे विवजेति तदप्युच्यते एतं खुणाणिणो सारं । स्यात्-किं कारणं सत्त्वा न हिंसनीयाः ?, उच्यते-अहिंसासमयं चेव, अहिंसासमया नाम तुल्यता, यथा मम दुक्खमप्रियं एवं सर्वसत्त्वानाम् । एतां अहिंसां समतामात्मनः सर्वजीवैः एतावंतं वियाणिया "न हिंसति कंचणं" इति वर्त्तते । एतावांश्च ज्ञानविषयः यदुत सर्वत्र सँमया भाव्येति । तथाऽनृता-ऽदत्तादानादिष्वपि आश्रवेषु यथासम्भवमायोज्यमिति ॥ १० ॥ उक्ता मूलगुणाः । उत्तरगुणसिद्धये व्यपदिश्यते ८५. वुसिए य विगतगेही आयाणं सारक्खए। चरिया-ऽऽसण-सेज्जासु भत्त-पाणे य अंतसो ॥११॥ ८५. वुसिए य विगतगेही आयाणं० सिलोगो । वुसिते त्ति स्थितः, कस्मिन् ?, धर्मे । विगतगृद्धिरिति अलुद्धः । "आदिरन्त्येन सहिते"ति अक्रुद्धः अमानः अमायावी । पठ्यते [च]-"अकसायी सदाधिगतंगेधी" कषायाः क्रोधाद्याः, ग्रेधिः लोभः, “एगग्गहणेण गहण"मिति "आदिरन्त्येन सहिते''ति वा प्रेधिग्रहणात् सर्वे आकृष्टाः । आदाणं सारक्खए त्ति आत्मानं सारक्खति असंजमातो; आदीयत इति आदानं ज्ञानादि, तं सारक्खति मोक्खहेतुं । किं च-चरिया-ऽऽसण30 सेजासु भत्त-पाणे य अंतसो, सारक्खते इति वर्त्तते, चरिय त्ति इरियासमिती गहिता, चरिआए पडिबक्खो आसण १विपरीयासं पलेति य खं २ । विपरीयंसं पलिंति य खं १ पु १ पु २॥ २ अकंत खं १ ख २ पु २ वृ० दी० । अकंत' पु १ वृषा. दीपा० ॥ ३ त खं २॥ ४ अहिंसिया खं १ पु २ वृ० दी० ॥ ५ कंचणं खं २ पु १ वृ० दी० ॥ ६ इत्तावत्तं विखं २ । इत्तावय विखं १ पु १ पु २॥ ७ समता इत्यर्थः॥ ८ अकसायी सदाऽधिगतगेधी चूपा० । जुसिए य विगतगेही य आ खं १ । वुसिए य विगतगेही य आ° खं २ पु १ पु २॥ ९संर खं २ पु १॥ १० गतबोधी" चूसप्र०॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ८३-८७ ] सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो । सयणे, एत्थ आदाणं सारक्खति । अथवा चरियागहणेण समितीओ गहिताओ, आसण-सयणगहणेण कायगुत्ती, "एक्कग्गहणेण गहणं” ति काऊण मण-वइगुत्तीओ वि गहिताओ । भत्त- पाणग्गहणेण एसणासमिई, एवं आदाण-परिट्ठावणियाई सूइयाओ । अंतसो इति जाव जीवितान्तः ॥ ११ ॥ ८६. एतेहिं तिहिं ठाणेहिं 'संजमेज सया मुणी । उक्कासं जलणं ममज्झत्थं च विगिंचए ॥ १२ ॥ ८६. एतेहिं तिहिं ठाणेहिं० सिलोगो । एतानीति यान्युक्तानि । इरिया एगं ठाणं १ आसण-सयणं ति बिइयं २ भत्त- पाणे ति ततियं ३ | अहवा एतेसु चेव इरियाइगेसु मणो-वयण-काएणं, अहवा इरियं मोत्तूण सेसेसु उग्गम-उप्पायनेसणासु संजमेज सया मुणी, सदा सर्वकालम् । इयाणिं एतेसु संजमंतो इमानन्यानध्यात्मदोषान् परिहरेत्, तद्यथा — उक्कासं जलणं णूमं० सिलोगो [पच्छद्धं] । उक्कस्यतेऽनेनेति उक्कासो मानः । ज्वलत्यनेनेति ज्वलनः क्रोधः । नूमं णाम अप्रकाशं माया । अज्झत्थो णाम अभिप्रेतः, स च लोभः ॥ १२ ॥ स एवं 'परसमयाः न सद्भावः' इति मत्वा सम्यग्दृष्टि - ज्ञानवान् यथोक्तेषु मूलोत्तर - 10 गुणेषु यतमानः ८७. समिते तु सदा साधू पंचसंवरसंवुडे । सितेहिं असिते भिक्खू आमोक्खाए परिव्वज्जासि ॥ १३ ॥ त्ति बेमि ॥ ॥ पैढमं अज्झयणं सम्मत्तं १ ॥ १ संजते सततं मुणी खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० । णूमं ६ पाताद्याः, चूसप्र० ॥ सूय० सु० ७ ८७, समिते तु सदा साधू० सिलोगो । समिते तु तेषामेवोत्तरगुणानां पूर्वोक्तानां परिसमाननं क्रियते । सदा 15 नित्यम् । तुः विशेषणे । साधयतीति साधुः । पञ्च संवराः प्राणातिपातविरमणाद्याः, तत्संवृतत्वान्न पापमादत्ते इति । स एवं संवृतत्वात् सितेहिं असिते भिक्खू, सिता बद्धा इत्यर्थः, गृहि- कुपाषण्डादिभिर्गृह-कलत्र-मित्रादिभिः सङ्गैः सिताः, तेषु सितेषु असितः अबद्ध इत्यर्थः, तैर्याच्यमानः ता[न] नाश्रितो वा अणसितः । एवं कथम् ?, उक्तं हि - " जणमज्झे व वसंतो एगंतो ०" [ ] आङ् – मर्यादा-ऽभिविध्योः, परि - समन्ताद् आदि-मध्या - ऽवसानेषु, यावन्न ताव आमोक्खाएँ परिव्वज्जासि त्ति बेमि, शिष्योपदेशः ।। १३ ।। गतः सूत्राणुगमो । इदाणिं णया— I से णायम्मि हितव्वे० गाधा ॥ सव्वेसि पि णयाणं० गाधा || ॥ प्रथमाध्ययनं समाप्तम् १ ॥ १ पु २ वृ० दी० ॥ २ उक्कसं खं १ ख २ पु १ मज्झं च १ ॥ ४ आमोक्खा य पु २ सा० वृ० दी० ॥ ७ खाये पवा० मो० ॥ ४९ 5 पु २ ॥ ३ णूमं मज्झत्थं च खं २ ५ समयज्झयणं सम्मत्तं पु २ ॥ 20 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० णिजत्ति-चुण्णिसमलंकियं [२ वेयालियज्झयणे पढमो उद्देसओ [॥ विइयं वेयालियज्झयणं ॥] [पढमो उद्देसओ] अज्झयणाभिसंबंधो-ससमयगुणे णाऊण परसमयदोसे य ससमए जयमाणो कम्मं विदालेन्जासि त्ति वेतालियज्झयणमागतं । तस्सुवकमादि चत्तारि अणुयोगद्दारा। अज्झयणत्थाधिकारो कम्मं वेयालियव्वं ति । उद्देसत्थाधिकारो पुण पढमे संबोधि अणिच्चया ये १ बितियम्मि माणवजणता। अहिगारो पुण भणिओ तहा तहा बहुविहो तत्थ २॥१॥ ३२॥ पढमे संबोधि अणिचया य० गाहा। पढमे उद्देसए हिताहिता संबुज्झितव्वं अणिञ्चता य, "डहरे बुड्ढे य पासधा०" [ सूत्र गा० ८९] एवमादि १ । बितिउद्देसए माणवजणता माणो वजेतव्यो, “जे यावि अणायए सिदा" 10[ सूत्र गा० ११२] एवमादि २ ॥ १ ॥३२॥ उद्देसम्मि य तैतिए मिच्छत्तचितस्स अवचयो भणितो ३ । वजेयब्वो य सया सुहप्पमाओ जइजणेणं ॥२॥ ३३ ॥ उद्देसम्मि [य] ततिए० गाहा । ततिए मिच्छत्तादिचितस्स कम्मरस अवचयो, “संवुडकम्मस्स भिक्खुणो" [सूत्र गा० १४२ ] एवमादि ।। २ ॥ ३३ ॥ णामणिप्फण्णे णिक्खेवे वेतालियं ति । तत्थ गाधा15 * वेतालियम्मि वेतालगो य वेतालणं वितालणियं । तिणि वि चउक्कगाई वितालगो एत्थ पुण जीवो ॥ ३॥ ३४ ॥ तत्थ वेतालगो णामादि चतुविधो । णाम-ट्ठवणाओ तधेव । दव्ववेतालगो जो हि जं दव्वं वितालयति रथकारादिः । भावे णोआगमतोभावविदालगो साधुः । जीवो कम्मं विदालयति कम्मं वा जीवं ॥ ३ ॥ ३४॥ विदालणं पि णामादि चतुश्विधं, तत्थ गाधा20 दव्वं च परसुमादी दंसण-णाण-तव-संजमा भावे । दव्वं च दारुगादी भावे कम्म विदालणियं ॥ ४ ॥ ३५ ॥ दव्वं च परसुमादी० गाधा । विदालणमिति करणभूतम् । तत्र द्रव्ये परश्वादि । ज्ञानाद्यात्मकेन भावेन भाव एव मिथ्यात्वादिरूपो विदार्यते । भावे विदारणं णाण-दसण-चरित्ताणि । विदालणियं पि नामादि चतुर्विधम् । णाम-ठवणाओ तव । द्रव्यविदालणियं दारुगं । भावे अट्ठविधं कम्मं विदारिजति ॥४॥३५॥ वेतालियस्स गाधाए णिरुत्तं भण्णति25 वेतालियं इहं देसियं ति वेतालियं ततो होति । वेतालियं इहं वित्तमत्थि तेणेव य णिबद्धं ॥ ५ ॥ ३६॥ वेतालियं इहं देसियं ति वेतालियं ततो होति । एतदेव करणभूतं वैतालिकमध्ययनम् । किं विदारयति ?, तदेव कर्म । आह—यद्येवं कर्मविदालणत्वाद् वैतालिकम् , तेन सर्वाध्ययनानां वैतालिकत्वं प्रसज्यते, न वा तानि कर्म . १संबोधो खं २ पु २ वृ०॥ २ य बीयम्मि खं १ खं २ पु २॥ ३ तइए अण्णाणचियरस खं १ खं २ पु २ वृ०॥ ४ वेयालियं ति वे खं १ बृ०॥ ५ वियालणगं ख १॥ ६वियाल खं १ ख २ पु २॥ ७ वेतालीयं इह दे ख २॥ ८ वेयालिकं तओ खं १ खं २ पु २॥ ९ लिकं तहा वित्त खं १ ख २ पु २॥ Jain Education Intemational Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० णिजुत्तिगा० ३२-३८] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंग पढमो सुयक्खंधो। ५१ विदालणानि, विशेषो वा वक्तव्यः, उच्यते यो विशेषः–वेतालियं इहं वित्तमत्थि तेणेव य णिबद्धं, वैतालियनामवृत्तजातितया वा बद्धत्वाद् वैतालियं ॥ ५ ॥ ३६ ॥ अस्योपोद्धातः * कामं तु सासतमिणं कधितं अट्ठावयम्मि उसभेण । अट्ठाणउतिसुताणं सोऊण य ते वि पव्वइता ॥ ६॥ ३७॥ भरधेण भरधवासं णिजिऊण अट्ठाणउती वि भातरो भणिता-ममं ओलम्गध, रज्जाणि वा मुयध त्ति । अद्रावते 5 भगवन् उसमसामी पुच्छितो-एवं भरधो भणति, किमेत्थ अम्हेहिं करणीयं ? ति । ततो भगवता तेसिं अंगारदाहगदिटुंतं भणिऊण इदमध्ययनं कथितम् । यद्यपि चेदमध्ययनं शाश्वतं तथापि तेन भगवता पुत्राः सम्बोधिता इति कृत्वा स एव विशेषस्तीर्थकरैरप्यस्योपोद्धातेऽनुवय॑ते स्म इति । एवं उवघातणिज्जत्तीए "उद्देसे निइसे य णिग्गमे०" [आव०नि० गा० १४०-४१] त्ति अक्खाणगं समोतारेतव्वं ।। ६ ॥ ३७ ॥ स भगवान् तान् तत्संसारविमुमुक्षुराह ८८. भो! संबुज्झह किण्णु बुज्झहा ? संबोधी बलु पेच्च दुल्लभा। __णो ह्रवणमंति रोतिओ णो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥१॥ ८८. भो! संबुज्झह किण्णु बुज्झहा. वृत्तम् । सम्यक् सङ्गतं समस्तं वा बुध्यते संबुज्झध । स्यात् कुत्र बुध्यते ?, धर्मे । किमिति परिप्रश्ने । स्यात् किं कारणं बुध्यते ? उच्यते, संबोधी खलु पेच्च दल्लभा, सम्बोधिस्त्रिविधा–णाण-दंसणचरित्ताणि । खलु विशेषणे । चारित्रसम्बोधिरधिक्रियते मनुष्यत्वे, न शेषगतिष्विति । अधवा बुज्झध "किं रज्जेहिं विसएहिं कलनेहिं वा करेस्सध ?' [ ]। प्रसुप्तस्य सम्बोधिर्भवतीत्यतः सुप्ता एव वक्तव्याः । एत्थ णिज्जुत्तिगाधा-15 * दव्वं णिहावेतो दैरिसण-णाण-तव-संजमो भावो। अधिकारो पुण भणितो णाणे तह दंसण चरित्ते ॥७॥ ३८॥ ॥ इति प्रथमः ॥ सुत्तो दुविधो-दव्वसुत्तो भावसुत्तो य । तत्थ दुव्वसुत्तो दुविहो-उपचारसुत्तो णिहासुत्तो य । उपचारसुप्तः पतित ओदनः । निद्रासुप्तो नाम निद्रावेदोदयाविष्टः स्वपिति, पश्चानामपि विषयाणां तत्कालमावन्नो । भावसुप्तस्तु ज्ञानादि-20 विरहितः अज्ञानी मिथ्यादृष्टिरचारित्री च । जो दव्यसुत्तो सो भावतो विभइतो । एवं जागरिओ वि । द्रव्यजागरता भावसुप्तेन चाधिकारः॥ ७ ॥ ३८ ॥ __ स्यात् कथं सम्बोधिदुर्लभा ?, उच्यते, "माणुस्स-देस-कुल-काल.” गाधा। [ मरणसमाधिप्रकीर्णके गा० ६३३ ] इतश्च सम्बोद्धव्यं धर्मे यस्मात्–णो हूवणमंति रातिओ णो सुलभं पुणरावि जीवियं, न ह्यतिक्रान्तरात्रयः पुनरुपनमन्ते । कथम् ? न हि बालरात्रयो यौवनरात्रयो वाऽतिक्रम्य पुनरुपनमन्ते। का तर्हि भावना ?-न वृद्धो भूत्वा पुनरुत्तानशायी 25 क्षीराहारो बालको भवति, न वा शिल्पक-कलाग्रहणसमर्थः कुमारको रक्तगण्ड-मंसू भवति, न वाऽभिनवश्मश्रुभूषिताधरोष्ठकपोल: कामभोगोल्बणमना युवा भवति । अत्रोदाहरणं लौकिकम् नन्दः किल मृत्युदूतैराकृष्ट आह-कोटीमहं दद्यां यद्येकाहं जीवेत् , तथापि न लब्धवानिति । अतः णो सुलभ पुणरावि जीवितं, जहण्णेण अंतोमुहुत्ताऊहि उक्कोसेणं पुव्वकोडीआयुगेहि अधियाऊहि ॥ १ ॥ एत्यंतरे कस्सइदुपक्कमो होज, तं पुण छिण्णं ण सक्कति पुणो वड्ढावेतुं, सदोपक्रमो अनियतो, तद्यथा- 30 १ सोऊणं ते खं २ । सोऊण वि ते खं १ पु २॥ २ भो! इति पदं खं १ खं २ पु १ पु २ बृ० दी. नास्ति । ३ किन्न बु' लं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ४ पुण दी० ॥ ५ राइओ खं १ पु २॥ ६णिद्दावेदो खं १॥ ७दसण खं १ खं २ पु २ ॥ ८°संजमा खं २ पु २॥ ९भावे खं १ खं २ पु २ वृ०॥ १० "माणुस्स-देस-कुल-काल-जाइ-इंदिय-बलोवयाण च । विण्णाणं सद्धा दसणं च दुलह सुसाहूर्ण ॥ ६३३॥" पूर्णा गाथा ॥ ११ कस्यचिदुपक्रमः ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [२ वेयालियज्झयणे पढमो उद्देसओ ८९.'डहरा वुड्डा य पासधा गब्भत्था ये चयंति माणवा। सेणे जह वयं हरे एवं आउखयम्मि तुद्दई ॥२॥ ८९. डहरा वुड्डा य पासधा गब्भत्था य चयति माणवा । मनोरपत्यानि मानवाः, मानवग्रहणेन मनुष्याणां कथ्यते, अथवा सर्व एव मानवा अपदिश्यन्ते । सेणे जह वयं हरे, यथेति येन प्रकारेण, वडगा नाम तित्तिरजातिरेव ईषदधिकप्रमाणा उक्ता वार्तकाः । एवं अवधारणायाम् । आयुषः क्षयः आयुःक्षयः, स उपक्रमादन्यथा वा तुइ त्ति विद्यते (त्रुट्यति) जीवः [ शरीरात् ] शरीरं वा जीवात् , अथ मनुष्यजीवितात् त्रुट्यति स्वजनादिभिर्वा ॥२॥ योऽपि नाम कश्चित् स्वजनात् प्रमत्तो न बुध्यते-यथा माता-पितरौ मे वृद्धौ, ताभ्यां मृताभ्यां धर्म करिष्यामीति, एतदप्यकारणम् । कथं तर्हि ? उच्यते ९०. माताहि पिताहि लुप्पते णो सुलभा सुगती ये पेचओ। 10 - एताणि भयाणि देहिया आरंभा विरमेज सुव्वते ॥३॥ पिताहि लुप्प० वृत्तम् । मातृभ्य इति सर्वमातृग्रामो गृह्यते । पितृभ्य इति पितृग्रामः । लुप्पत इति छिद्यते, तेषु जीवत्स्वेव कदाचित पूर्वतरं म्रियते, न च सैव माताऽन्यत्रापि भवति पिता वा, अथैकेन्द्रि माताऽन्यत्रापि भवति पिता वा, अथैकेन्द्रियादिषु प्रक्षिप्तः नैव माता-पितृसम्बन्धं लभते । न वा सुगतिः प्रेत्य सुलभा भवति, सुगतिर्नाम [सु]कुलम् , प्रेत्ययोनिरेव । नागार्जुनीयास्तु पठन्ति माता पितरो य भातरो विलभेजसु केण पेच्चए ? । नारक-देवैकेन्द्रिया- संज्ञिषु च । यतश्चैवं तेण एताणि भयाणि देहिया, एतानि यान्युक्तानि “णो हूवणमंति राइओ" [सू० गा० ८८ ] पेक्खिया देहिया पस्सिया । आरम्भो नाम असंयमः, अनुक्तमपि ज्ञायते परिग्रहाच्च । कथम् ? आरम्भपूर्वको परिग्रहः, स च निरारम्भस्य न भवतीत्यत आरम्भग्रहणम् ॥३॥ स्यादारम्भादनिवृत्तस्य को दोषः ?, उच्यते ९१. जमिण जगती पुढो जगा कम्मेहिं लुप्पंति पाणिणो। सयमेव केडेऽभिगाहए णो तेणं मुच्चे अपुट्ठवं ॥४॥ ९१. जमिणं जगती पुढो जगा. वृत्तम् । यदिति यस्मात् कारणात् तस्मिन् जगति पुढो नाम पृथक् कम्मेहिं ति यथाकर्मभिः लुप्पंति त्ति नरकादिषु विविधैर्दुःखैलृप्यन्ते सर्वसुखस्थानेभ्यश्च च्यवन्ते । किञ्च-सयमेव कडेऽभिगाहए, ण इस्सरादीकतपच्चयेन, यथा कर्म कृतमसम्बोधिदोषाद् अष्टप्रकारं आत्मनि अवगाहति, आत्मा कर्मसु वा, अकारलोपं कृत्वा 25 तमेव अवगाहति । णो तेणं मुच्चे अपुढवं नासौ तेन कर्मणा मुच्यतेऽस्पृष्टमस्यास्तीति । आह हि-"पावाणं च भो ! कडाणं कम्माणं"। [ दशवै० चूलिका १] ॥४॥ किश्च-न केवलमिहानित्यभावना भवति, अन्यत्राप्येषणा भवत्येव । तथा ९२. देवा गंधव्व-रक्खसा असुरा भूमिगता सिरीसिवा। राया-गैर-सेहि-मौहणा ठाणा ते वि चयंति दुक्खिया ॥५॥ १दहरा खं १॥ २ वि खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ३ आतुखयम्मि खं २ । आउखयं ति पु १॥ ४ माता ति पिता ति लुप्पति खं १। माया इ पिया इ लुप्पई पु २ । माता पितरो य भातरो विलभेजसु केण पेच्चए इति नागार्जुनीयः पाठभेदः चौँ ॥ ५ वि खं १ वृ०॥ ६ एयाति भयातिं पेहिया खं २ । एयाइं भयाइं पेहिया पु १ पु २ । एयाइं भयाइं देहिया खं १॥ ७सद्विते वृपा० दीपा०॥ ८प्रेतयोस्त्विनिरेव पु० विना ॥ ९कडेहिं गाहतीणो तस्सा मुच्चे खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी। कडेहिं स्थाने खं १ कडेभि इति पाठो वर्त्तते ॥ १० भूमिचरा खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ११ णर-अधिप-माहणा चूपा० (१)॥ १२°माहणा ते वि चयंति ठाणाई दुक्खिया खं २ पु १॥ १३ दुक्किया खं १॥ Jain Education Intemational Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ८९-९५] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। ५३ ९२. देवा गंधव्व-रक्खसा असुरा० वृत्तम् । अथवा मा भूत् कश्चिद् देवसुखेसु सङ्गं करिष्यतीत्यतस्तदनित्यत्वज्ञापनार्थ अपदिश्यते-देवा गंधव्व-रक्खसा. देवग्रहणाद् वाणमन्तरभेदाः, असुराणां प्रतिपक्षः सुरा बैग गता असुरा एव, अथवा भूमिगता भूमिजीवा एव, अथवा भूमिगता सरीसृपा गृह्यन्ते । इहापि च राया-णर-सेट्ठि-माहणा, राजानः चक्रवर्त्याद्याः, नराः पृथग्जनाः, सेट्ठी णेगमाद्यधिपाः । [अथवा-"अधिपा]स्तु" अधिकं पान्तीत्यधिपाः, ते तु मत्रि-महामत्रिगणक-दौवारिकादयः । माहनग्रहणाद् जातिभेदः। त एते सर्व एव या (? वा ) स्थानेभ्यश्यवन्ते, दुःखिता 5 नाम न वा स्यात् कस्यचिन्मरणमिष्टम् । उक्तं च-"मरणमिति महद्भयं०" [ ]॥५॥ तदपि च कालवशेन, किम् ? योऽपि कामनिमित्तं नोद्यमते तत्प्रत्यादेशः ९३. कामेहि य 'संथवेहि य कम्मसहे कालेण जंतवो। ताले जध बंधणचुतो एवं आउखए वि तुद्दति ॥ ६॥ ९३. कामेहि य संथवेहि य० वृत्तम् । कामा अप्पसत्थिच्छाकामा मयणकामा य, अविशिष्टा वा शब्दादयः । 10 कामोपग्रहाश्च रूयादयः संस्तुता वर्त्तन्ते, अथवा संस्तुता इति पूर्वा-ऽऽपरसंस्तवो गृह्यते । स एवं तेभ्यः कामेभ्यः संस्तवेभ्यश्च कम्मसहि त्ति कर्मभिः सह त्रुट्यतीति, कोऽर्थः ? , न ते कामाः संस्तुताश्चैनं गच्छन्तमनुयास्यन्ति । कालेनेति सोपक्रमेणान्यतरेण वा। जायन्त इति जन्तवः। ताले जध बंधणञ्चतो, तले जातं तालं, तालं हि गुरुत्वाद् दूरपाताच्च शीघ्रं पततीत्यतस्तद्रहणम् । तालस्यापि द्विधा पात:-उपक्रमात् कालेन च । एवं आउखए वि तुति जीवोऽपि सोपक्रमेणान्यथा वा ॥६॥ किञ्च न केवलं कामेषु संस्तुतेषु च सक्ता गृहिणस्तावत् पतन्ति, अन्येऽपि हि तथैव । तं जधा 15 ९४. जे यावि भवे बहुस्सुता धम्मिय माहण भिक्खुए सुयी। अभिनूमकरहिं मुच्छिया तिव्वं ते कम्मेहिं किचंति ॥७॥ ९४. जे यावि भवे बहुस्सुता धम्मिय माहण भिक्खुएँ सुयी । धर्मे नियुक्तो धार्मिकः । बृहन्मना ब्राह्मणः । भिक्खणसीलो भिक्खू । सुचिरिति यथावत् स्वधर्मव्यवस्थितः परिव्राजको वा । अभिनूमकरेहि मुच्छिया, नूमं नाम कर्म माया वा, अभिमुखं नूमीकुर्वन्तीति अभिनूमकराः विषयाः, तेषु मूच्छिताः गृद्धाः, लोभो गृहीतः । “एगग्गहणे गहणं" ति 20 सेसकसाया वि गहिता । कथं तं नेच्छन्ति पेच्छंति पेच्छिज्जति च अण्णेहिं ? ते हि आहारादिसु कामेसु सक्ताः इह च परत्र च तीव्रमेव तदुपचितैः कर्मभिः कृत्यन्ते कामजनितैरित्यर्थः ॥ ७ ॥ स्यात्-कथं ते कर्मभिरेव कृत्यन्ते न निर्वान्ति ?, उच्यते९५. अह पास विवेगमुद्विते अवितिण्णे इह भासती धुतं । णाहिसि आरं कतो परं? वेहासे कम्मेहिं किञ्चति ॥ ८॥ 25 ९५. अध पास विवेगमुट्ठिते. वृत्तम् । अथेति प्रकृत्य(ता)पेक्षम् । अथवा किं न पश्यसि विवेगमुद्विते ? । विवेगो नाम स्वजन-गृहादिभ्यः प्रव्रज्यास्थानमैनुत्तरम् । अथवा-"कम्मविवागो" यत्र स्थिताः कर्मनिर्वाणायेत्यर्थः । विविधं तीर्णा वितीर्णाः, न वितीर्णा अवितीर्णाः, न कामभोगाभावतीर्णाः । इहेति अस्मिल्लोके । अथवा इहेति पूरणार्थः । धुतं णाम येन कर्माणि विधूयन्ते, वैराग्य इत्यर्थः । चारित्रमपि केचिद् भणन्ति, वयं स्वतः विरताः, विरताः अपापकर्माणः । अथवा "अपि" सम्भावने, तीर्णा अपि गृहादिसङ्घन्थं केवलं भाषन्ते, न तु कुर्वन्ति । स एवं भाषमाणः पाषण्डी पाषण्डगणो वा, 30 १संथवेहि गिद्धा कम्म पु १ पु २ ० दी० ॥ २ कम्मसहा खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ३ आउखयम्मि तु खं १ खं २ पु २ वृ० दी । आउखयं ति पु । ४जे यावि बहुस्सुते सिया धम्मिय माहण भिक्खुए सिया खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी । भिक्खुए स्थाने खं २ भिक्खए इति पाठः॥ ५ अभिणूमकडेहिं मुच्छिए तिव्वं से कम्मेहिं किच्चती खं १ ख २ पु १ पु २ । किच्चती स्थाने खं १ कच्चति इति पाठः ॥ ६°ए बहुसुयी चूसप्र०॥ ७ विवाग चूपा० ॥ ८ अवि तिण्णे चूपा० ॥ ९ धुवं खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ १० ण णाहिसि चूपा०॥ ११ कच्चति खं १॥ १२°मन्यतरम् पु० विना ॥ Jain Education Interational Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [२ वेयालियज्झयणे पढमो उद्देसओ "अणेगेसु च एकादेशो भवत्येव" । णाहिसि आरं कतो परं, ज्ञास्यसि आरं गृहस्थत्वम् , परं प्रव्रज्या । किमुक्तं भवति ? न त्वं जानीषे कैः कर्मभिः गृही भवति प्रव्रजितो वा ? अजानन् कथं कुशलानि वेत्स्यसि ? । अथवा आरमिति अयं लोकः, परस्तु परलोकः । अयं सौत्रोऽर्थः-आरः संसारः, परः मोक्षः। तदिति आरं पारं वा न ज्ञास्यति, कुतः ? कुमार्गाश्रयात् । अथवा-"ण णाहिसि"त्ति न जानयिष्यसि मोक्षमात्मानं परं वा । तत्राऽऽत्मा आरं, परं पर एव । अथवा णाहिसि 5 गिही ण पव्वइतो, आरः गृही, परः प्रव्रजितः । वेहासं नाम अन्तरालम्, न गृहित्वे नापि श्रामण्ये, अन्तराले वर्त्तते । ते हि आहारादिषु कामेषु सक्ता इह परत्र च तीव्रमेव तदुपचितैः कर्मभिः कृत्यन्ते, कामजनितैरित्यर्थः ॥ ८ ॥ ___आह—एते तावदवितीर्णत्वाद् मा भूवन निर्वाणाय, अथ ये इमे उद्दण्डिकाः चूर्णिकादयश्च एते कथं न तन्निर्वाणाय ?, उच्यते ९६. जइ वि य णिगिणे किसे चरे जइ वि य भुंजिय मासमंतसो। जैइ विह मायादि मिजती आगंता गम्भादणंतसो ॥९॥ ९६. जइ वि [य] णिगिणे किसे चरे० वृत्तम् । यदीति अभ्युपगमे । णिगिणो नाम नग्नः । कृशस्तपोनिष्टप्तत्वाद् आतापनादिभिः । मासो सङ्ख्यातप्रतिभाग इति कृत्वा मासस्य अन्ते सकृद् भुत इति मासान्तशः। चउत्थ-छट्ठ-ऽट्ठमदसम-दुवालसमेहिं स एवं तपोनिष्टप्तशरीरोऽपि जइ विह मायादि मिजती, अणिहिट्ठणिदेसा माया आदिर्येषां कषायाणाम् , आदीयत इत्यादिः, "माङ् माने" कथं मीयते पूर्यत इत्यर्थः? मायादीनां कषायाणां योजनम् । अथवा मीयत इति-यथा 15 धान्यस्य कुडो मीयते एवं मायादिभिः कषायैः स मीयते, पूर्यत इत्यर्थः । स एवं कषायाणामाकण्ठं मितः मरणमेता आगंता गब्भादणंतसो, आगमिष्यतीति आगन्ता, गर्भः आदिर्यस्य संसारक्रमस्य स भवति गर्भादिः, तद्यथा-गर्भ-प्रसव-बाल्यकौमार-यौवन-मध्यम-स्थाविर्य-मरण-नरकदुःखान्त इति । उत्तीर्णस्य च नरकात् स एव ध्रुवः, पुनः स एव क्रम इति ।। ९॥ यतश्चैवं मिथ्यादर्शनोपहतं तपोऽपि न दुर्गतिनिवारकमित्यतो मद्दर्शितमार्गमास्थाय ९७. पुरुसोरम पावकम्मुणा पलियंतं मणुयाण जीवितं । सन्ना इह काममुच्छिता मोहं जति नेरा असंवुडा ॥१०॥ ९७. पुरुसोरम पावकम्मुणा० वृत्तम् । पुरुशयनात् पुरुषः, हे पुरुष ! पुरुषाः ! वा, उपेत्य रम उपरम । पापानि प्राणातिपातादीनि मिच्छादसणसल्लंताणि अट्ठारस ठाणाणि । स्यात् कामभोग-जीवितनिमित्तं नोपरमः स्याद् इत्यतोऽपदिश्यतेपलियंतं मणुयाण जीवितं, परि समन्तात् आदिजीवितस्य परं वर्षशतम् , अथवा प्रलीयं कर्म यावदायुर्निर्वर्तितं तत्परिक्षयान्तम्, अथवा यस्यान्तोऽस्ति तत् प्राप्तमेव वेदितव्यमिति । आह हि-"दूरस्थमपि भावित्वाद् आगतमेव" 25[ ]। तथा उदधीन्यपि दिवि उषितो । जे पुण असंजमजीवितेण कलत्रादिपङ्कावसना इह मनुष्यलोके शब्दादिविषयेषु मूच्छिता अध्युपपन्नाः । मोहं जंति नरा असंवुडा, मोहो नाम कर्म तं जंति, मोहतश्च गर्भ-जन्म-मरणादिः स एव संसारक्रमः । असंवुडा हिंसादिएहिं इंदिएहिं वा ॥ १० ॥ यतश्चैवं तेन ९८. जैतयं विहराहि जोगवं अणुपाणा पंथा दुरुत्तरा । अणुसासणमेव परक्कमे वीरेहिं सम्मं पवेदितं ॥११॥ 30 ९८. जतयं विहराहि जोगवं० वृत्तम् । जतयं नाम “गामे एगरादीयं नगरे पंचरादीय" [ दशाश्रु० अ० ८ सू० ११९] यत्नतः । योगो नाम संयम एव, योगो यस्यास्तीति स भवति योगवान् । जोगा वा जस्स वसे वटुंति स भवति १मासमेत्तसो ख १॥ २ जे इह खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ३ मायावि दी । मायाति खं २ पु १ पु २ ॥ ४°भाय खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ५ भोजनम् चूसप्र० ॥६पुरिसों खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ७°कम्मुणो खं २ दी.॥ ८ सत्ता पु १॥ ९ असंवुडा नरा खं २ पु १॥ १० जततं खं १ । जयतं खं २ पु १ । जययं पु २॥ ११ अणुपत्थि पाणा दुरु° चूपा० (१)॥ १२ पक्कमे खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ १३ धीरेहिं खं २॥ Jain Education Intemational Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 सुत्तगा० ९६-१०१] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। योगवान् णाणादीया । अथवा योगवानिति समिति-गुप्तिषु नित्योपयुक्तः, स्वाधीनयोग इत्यर्थः, यो हि अन्यत् करोति अन्यत्र चोपयुक्तः स हि तत्प्रवृत्तयोगं प्रति अयोगवानेव भवति । लोकेऽपि च वक्तारो भवन्ति-विमना अहं, तेन मया नोपलक्षितमिति । अतः स्वाधीनयोग एव योगवान् । स्यात्-किमर्थं नित्योपयोगः ?, उच्यते, अणुपाणा पंथा दुरुत्तरा, अणवः प्राणा येषु ते इमे भवन्ति अणुपाणाः, सूक्ष्मा यदुक्तं भवति । तानविराधयद्भिः [दुःखेन ] उत्तीर्यन्त इति दुरुत्तराः अतः । [अथवा-] "अणुपत्थि पाणा" अणुपत्थि बीय-हरितादि। अणुसासणमेव परक्कमे, अनुशास्यतेऽनेनेति अनुशासनं सूत्रम् , यद् यथा सूत्रोपदेशेनानुशास्यते यच्चाऽऽचार्यैस्तदन्तरा, अनुशासनमेव पराक्रमः भृशं क्रमेः । स्यात् केनेदमनुशासनम् ?, उच्यते, वीरेहिं सम्मं पवेदितं. "नित्यमात्मनि गुरुषु च बहुवचनम् । ] तेन वीरेहिं सम्मं पवेदितं, अथवा सर्व एवार्हन्तो वीरास्तैः प्रवेदितम् ॥ ११ ॥ स्यादेतत्-के वीराः ? इति, उच्यते ९९. 'वीरा विरता हु पावका कोधा-कातरियादिपीसणा।। पाणे ण हणंति सव्वसो पापातो विरताऽभिणिव्वुडा ॥ १२॥ ९९. वीरा विरता हु पावका० वृत्तम् । यो विरतः स वीरः । कुतः ? पापात् । अथवा विराजमानाः विदालयन्तीति वा वीराः सम्यगुत्थिताः संजमसमुट्ठाणेणं । स्यात् किं पापकं यतस्ते विरताः ?, उच्यते, कोधा-कातरियादिपीसणा. कातरिया णामा माया, कोधग्गहणाद् मानोऽपि गृहीतः, कातरियाग्रहणाल्लोभः, पीसणा णाम क्रोध-कातरिकादयः कषायाः, किं पीषयन्ति ? ज्ञान-दर्शन-चारित्राणि, अथवा त एव वीराः पीषणाः । पीषणा दव्वे भावे य । दव्वे कुंकुमादिपसत्थव्वपीसणा विषादिअप्पसत्थदव्वपीसणा । भावे पसत्थभावपीसणा य अप्पसत्थभावपीसणा य, अपसत्थभावपीसणेहिं अधि-15 कारो । त एवं पीसणा पाणे ण हणंति सव्यसो, सव्वसो नाम सव्वप्पकारेण योगत्रिक-करणत्रिकेण । पापं नाम कर्म, येन च हिंसादिकर्मणा तत पापं बध्यते तस्मिन् कारणे कार्यवदुपचारात् कृत्वाऽपदिश्यते पापातो विरताऽभिणिव्वडा. अभिमुखं णिव्वुडा अभिणिव्वुडा अभिप्रसन्नाः, यथोष्णमुदकं सीतं भूतं णिव्वुडमित्यपदिश्यते एवम् , अथवा कषायोपशमाच्छीतीभूता अभिनिव्वुडा वुचंति ॥ १२ ॥ स्यात्-तस्याभिनिर्वृतात्मनः साधोः परीषहोपसर्गाः प्रादुर्भवेयुः, ततस्तेन इदमालम्बनं कृत्वा अधियासेतव्या- 20 १००. ण वि ता अहमेव लुप्पधे लुप्पंती लोगंसि पाणिणो। एवं सहितेऽधिपासए अणिहे से पुट्ठोऽधियासए ॥ १३ ॥ १००. ण वि ता अहमेव लुप्पधे० वृत्तम् । नाहमेक एव शीतोष्ण-दंश-मशकादिभिः परीषहोपसगैलृप्यामि, अन्ने वि असंयताः पुत्र-दारभरणादिभिः क्लेशैलृप्यन्ते, तथा च चोर-पारदारिकादयः पराधीना लुप्यन्ते, अनपराधिनोऽपि कर्षकादयः करभर-वि(वे)ष्टयादिभिरुपक्लेशैलृप्यन्ते । एवं सहिते, एवं अनेन प्रकारेण सहिते णाणादीहिं, आत्मनो वा हितः सहितः, 25 अधिकं पृथग्जनान् पश्यति अधिपश्यति । अनिहो नाम परीषहोपसगर्न निहन्यते, तव-संजमेसु वा संतपरक्कम ण णिहेति । से इति णिहेसे । स एव भिक्षुः कथश्चित् परीषहोपसर्गः स्पृश्यते ततः सो पुट्ठोऽधियासए, अकारलोपो द्रष्टव्यः ॥ १३ ॥ स एवं परीषहसहिष्णुः १०१. धुणिया कुलियं व लेववं कसए देहमणासणादिहिं । ___ अविहिंसामेव पव्वए अणुधम्मो मुणिणा पवेदितो ॥१४॥ १०१. धुणिया कुलियं व लेववं० वृत्तम् । धुणिया णाम धुणेज्जा कम्मं । कधं ?, जधा करणकुटुं उभयोपासलित्तं चिरेण कालेण जुण्णलेवं सततं लिप्ते वा जोगं वा लेतीमं, उपमाने वति । कसए त्ति कृशं कुर्यात् । दिद्यत इति देहः । यथा 30 १°पयुक्तः ? पु० ॥ २ विरया वीरा समुट्ठिया कोहाका खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ३ लुप्पए खं १ खं २। लुप्पह पु १ पु २॥ ४ लोगम्मि पु १ पु २॥ ५ सहिएहिं पासए खं २ पु १ । सहिए वि पासते खं १ पु २॥ Jain Education Interational Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ णिजुत्ति - चुण्णिसमलंकियं [ २ वेयालियज्झयणे पढमो उद्देसओ कुड्डुं लकुटादिभिः प्रहारै: लेपापगमात् कृशीभवति एवं साधुरपि अनशनादिभिः तपोविशेषैः कृशं देहं कुणति, देहे च सम्यक्तपोभिरेव कृश्यमाणे कर्मदेहोऽप्यपकृश्यत एव । द्रव्यकर्षणा कुड्ये शरीरे वा, भावकर्षणा राग-द्वेषौ कर्षयति यः । एवं अनशनादितपोयुक्तः राग-द्वेषापकृष्टः अविहिंसामेव पव्वए, न विहिंसा अविहिंसा, अतस्तामविहिंसां पव्वए । कथमहिंसकः स्यादिति ? अनुधर्मो अनु पश्चाद्भावे, यथाऽन्यैस्तीर्थकरैस्तथा वर्द्धमानेनापि मुनिना प्रवेदितम् । अणुधर्मः सूक्ष्मो वा धर्मः । 5 पुष्पवद् वृन्तम् अप्पसत्थभावे धुणणं, तम्मि विधुए कम्मर यो विधुत एव भवति ॥ १४ ॥ स्यात् कथं धूयते ?, १०२. सउणी जध पंसुगुंडिता० वृत्तम् । सउणि काउली धूलीए वालेट्टितुं तद् रजः पक्षावुभौ धुन्वती ध्वंसयति, सितं बद्धं, रञ्जयतीति रजः, एष दृष्टान्तः । एवं दविओवधाणवं दविओ राग-दोसरहितो, द्रव्यमात्रमेव उदधा 10 उपधानम्, तदस्यास्तीत्युपधानवान् । कर्म क्षपति तवस्सि माहणो, समणेत्ति वा माहणे त्ति वा ॥ १५ ॥ अथ तं कश्चित् — १०२. सउणी जध पंसुगुंडिता विधुणिय धंसयती सितं रयं । एवं दविओवधाणवं कम्मं खवति तवस्सि माहणो ।। १५ ।। 20 १०३. उट्टितमणगारमेसणं समणं ठाणठितं तेवस्सियं । १०३. उट्ठितमणगारमेसणं० वृत्तम् । उडितो णाम धर्मे प्रव्रज्यायाम् । नास्यागारं विद्यते अनगारः, अनगारत्वमेषति, 15 अधवा मोक्षमेव एषति । समणं ठाणठितं चरित्ते णाणातिसु वा, तपःस्थितं तपस्सियं, बारसविधे तवे । तमेवं धम्मे दृढप्रतिज्ञं डहरा बुड्ढा य पत्थए, डहरि ति पुत्त - णत्तु आदयः, तेसु विसेसतो णेहो भवति कालुणियं करेंतेसु । वडमाति-पतिमातुल-पितृव्यादयः पत्थए त्ति उप्पव्वावेतुं इच्छति । ते अज्जेमएण ठिता तण्हाए छुहाए य अवि सुस्से ण [य] तं लभे जो अवि मरेज, ण वि उप्पव्वावेतुं सक्केति, जनानामधर्मव्यवस्थितत्वाद् जनवत् स तान् पश्यति न तु स्वजनवत् ॥१६॥ १०४. जइ कालुणियाई से करे जइ रोयंति य पुत्तकारणा । दवियं भिक्खुं समुट्ठितं णो लब्भंति णं संण्णवेत्त ॥ १७ ॥ १०४. जइ कालुणियाई से कए (करे ) ० वृत्तम् । कालुणिया णाम णाह ! पिय ! कंत ! सामिय ! [ ? अहंसण ! णिप्पणत्त ! भुवणम्मि । सव्वं सुण्णं पणइणि - ] पुत्ता ते पितुवियोगवेलप्पा ॥ १ ॥ सेणी गामो गोही गणो व तं जत्थ होसि सणिहितो । दिप्पति सिरीए सुपुरिस ! किं पुण णियगं घरहारं ? ॥ २ ॥ [ ] 25 पुत्रकारणाद् एकमपि तावत् कुलतन्तुवर्द्धनं पितृपिण्डदं धनगोप्तारं च पुत्रं जनयस्व, ततो यास्यसि, एवं कलुणाणि रुदंता । दवियं ति, दविओ राग- दोसरहितो । भिक्खणशीलो भिक्खू । सम्यगुत्थितं समुट्ठितं, संजमुट्ठाणेण समु ति । णो लब्भंति णं ति ण सक्केंति सण्णवेत्तए ति आतुं ॥ १७ ॥ डहरा बुड्ढा य पत्थए अवि सुस्से ण य तं लभे जणो ॥ १६ ॥ १ कम्म खवेति खं १ ॥ २ तवस्सिणं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ३ लभे जणं खं १ खं २ पु २ । लभे जणं पु १ । लभे जणा वृ० दी० ॥ ४ अजेमकेन अभोजनेनेत्यर्थः ॥ ५°याणि कासिया जति खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ६ रोवंति व पुत्त ं खं १ खं २ पु १ पु २॥ ७ भिति खं १ पु २ वृ० दी० । लजंति पु १ ॥ ८ संथवित्तए खं १ खं २ वृ० दी० । संठवित्तए पु १ पु २ ॥ ९ चूर्ण्यादर्शेष्वियं गाथा खण्डितरूपैवोपलभ्यते, सा च श्रीसागरानन्दपादैर्यथानुसन्धितैवात्र मुद्रिताऽस्ति । वृत्तिकृता पुनरियं गाथा पाठभेदेनोद्धृताऽस्ति । तथाहि re! fur ! कंत ! सामिय ! अइवल्लह ! दुल्लहो सि भुवणम्मि । तुह विरहम्मि य निक्किव ! सुष्णं सव्वं पि पडिहाइ ॥ १ ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १०२-२०८] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। १०५. जइ णं कामेहि लाविया, जंह आणेज ण बंधिता घरं ।। तं जीवित णावकंखिणं, णो लब्भंति ण संण्णवित्तए ॥ १८॥ १०५. जइ ण कामेहि लाविया० वृत्तम् । यदीति अभ्युपगमे । कामा सद्दाति धणाति वा । लाविय त्ति णिमंतणा । जइ कामेहिं धणेण वा बहुप्पगारं उवणिमंतेज बंधित्ता वा घरं आणेज । तं जीवित णावकंखिणं. तमिति तं साधुं जीवितं असंजमजीवितं नावकाङ्क्षति नावकातिणम् । णो लब्भंति ण सण्णवित्तए, नोकारः प्रतिषेधे, लब्भिति त्ति ण ते 5 लभंते सण्णवेत्तए ॥ १८ ॥ किञ्च १०६. सेहिंति अ णं ममायिणो, माति पिति थि पती य भायरो। पासाहि ण पासओ तुमं, परलोगं पि जहाहि उत्तमं ॥१९॥ १०६. सेहिंति अणं ममायिणो० वृत्तम् । असंजमं ममायंति त्ति ममायिनः, ते माति-पिति-स्त्रि-पति-भायरो सेहंते त्ति सेहवेन्ति । कथं सेहवेंति ? पासाहि ण पासओ तुमतुम अतीव पासओ जं अतीव पस्ससि लोगनिरिखितो 10 भवान्, जतो एक एवात्यपायभीरू पासए त्ति प्रवचनवयणेणं, कहं अम्हेहिं दुक्खिताणि ण पासति ? त्ति । यदि त्वं एवं दीर्घदर्शी तो परलोग पि जहाहि उत्तम ति, इमो ताव त्वया लोगो जढो, अम्हेहि य तुज्झ णिमित्तेण अद्धितीए किलस्समाणेहिं अम्ह य वुड्डत्तणे सुस्सूसाए अकीरमाणीए पुत्त-दारे य अभरिजमाणे य परलोगो वि ते ण भविस्सति । उक्तं चया गतिः क्लेशदग्धानां गृहेषु गृहमेधिनाम् । पुत्र-दारं भरन्तानां तां गतिं व्रज पुत्रक ! ॥ १॥ ] 15 उत्तमो नाम स तव एवं माता-पितृसुश्रूषया उत्तमो लोको भविष्यति, अन्यथा त्वधमः ॥ १९ ॥ एवं तैरुपसर्गः क्रियमाणैः किञ्चिदेवं धर्मकातरः १०७. अण्णे अण्णेहिं मुच्छिता, मोहं जंति जरा असंवुडा।। विसमं विसमेहि गाहिया, ते पावेहि पुणो पगम्भिता ॥ २० ॥ १०७. अण्णे अण्णेहिं मुच्छिता० वृत्तम् । अन्योन्येषु मूछिताः । तद्यथा-कश्चिद् भार्यायाम् , कश्चित् पुत्रे, 20 कश्चिन्मातरि पितरि च । मोहं जंति णरा असंवुडा, मुह्यते येन स मोहः कर्म अज्ञानं वा, तत्कृतो वा नानायोनिगहनः । स्वजनस्नेहमोहिताः कृत्या-ऽकृत्ये न जानन्ति । न संवृताः असंवृताः इन्द्रिय-नोइन्द्रियतः संवररहिताः। विसमं विसमेहि गाहिया, विसमो णाम असंजमो, तं असंजमं असंयतैरेव ग्राहिताः। ते पावेहि पुणो पगम्भिता, पापानि छेदन-भेदन-विशसन-मारणादीनि प्राणवधादीनि वा, तेषु पापेषु वर्तमानाः पुणरवि गब्भीभूया उन्मार्गमाचरन्तो न लज्जन्ते, पुराणश्मशानचितकमांसखादकपिशाचहस्तावसारणम् ॥२०॥ अहं संसारस्स ण बीभेमि कुतस्तर्हि तव?, यतश्चैवम्-25 १०८. दैविएव समिक्ख पंडिते, पावातो विरतोऽभिणिव्वुडो। पणता वीरा महाविधि, सिद्धिपधं णेआउअं सिवं" ॥ २१ ॥ १०८. दविएव समिक्ख पंडिते. वृत्तम् । दविकः उक्तः, एवं अनेन प्रकारेण योऽयमुक्तः, सम्यग् ईक्ष्य समीक्ष्य, १जइ तं का खं १ पु १ पु २।जह वि य का खं २ वृ० दी० ॥२ जइणेजाहि ण बंधिउं घरं खं १ ख २ पु १ पु २॥ ३ जह जीवित णावखए खं १ खं २ । जइ जीवित णावकंखती पु १ पु २ । जइ जीवित णाभिकंखए वृ० दी०॥४संथवित्तए खं १ खं २ वृदी। संठवित्तए पु १ पु २॥ ५माय पिया य सुया य भारिया खं १ ख २। माय पिया य सुण्हा य भारिया पु १ पु २॥ ६णे खं २ पु १॥ ७ लोग परं पि जहाहि पोसणे खं १ पु २ । लोग परं पि जहासि पोसणे पु १ वृ० दी । लोग परं पिचयाहि पोसणे खं २ ॥ ८ एवाऽऽत्मापाय मु०॥ ९ असंवुडा नरा खं २ पु १ पु २॥ १० तम्हा दविइक्ख पंडिते खं १ ख २ पु १ पु २ वृत दी० चूपा० ॥ ११ पणए वीरे महावीहिं खं १ पु १ पु २ । पणता वीधेतऽणुत्तरं सिद्धि चूपा। पणता वीरा महावीही इति आचा० श्रु० १ अ० १ उ० ३ सू० २॥ १२ धुवं खं २ पु १ पु २ वृ० दी० चूपा० । धुयं खं १॥ सूय० सु०८ जइ जीवित । माय पिया पोसणे पुल विक्ख Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [२ वेयालियज्झयणे बिहभो उद्देसओ पापं हिंसादि । अन्यथा पाठस्तु-"तम्हा दविइक्ख पंडिते" तस्मादेवं ज्ञात्वा विरताणं अविरताणं च गुण-दोसे । पावातो विरतो अट्ठारसट्ठाणातो सयणातो वा विरतो भवाहि, अभिणिव्वुडो असंजमउण्हातो सीतीभूतो । पणता वीरा महाविधि, भृशं नताः प्रणताः, प्रणेतार इत्यर्थः, कतरं ?, जो हेट्ठा संबोहणमग्गो भणितो, वीराः उक्ताः, वीही नाम मार्गः चक्रवीथिवत्, महती वीही महावीही, अधवा [भाववीही एव महावीधी । तत्र द्रव्यवीधी नगर-ग्रामादिपथाः, भाववीधी तु 5 'सिद्धिपन्थाः णेआउअं सिवं । पाठविशेषस्तु--"पणता वीधेतऽणुत्तरं" एतदिति भाववीधी जं भणिहामि, अणुत्तरं असरिसं अणुत्तरं वा ठाणादि । सेहनं सिद्धिः, पद्यत इति पन्थाः । नयतीति नैयायिकः । शिवं नीरोगम् । “धुवं" वा, धुवो सासतो॥ २१ ॥ स एवं प्रणतः १०९. वेतालियमग्गमागतो, मण वयसा काएण संवुडे । चेचा वित्तं च णातयो, आरंभं च सुसंवुडे चैरे ॥ २२ ॥ त्ति बेमि ॥ ॥ वेतालियस्स पढमो उद्देसओ समत्तो २-१॥ १०९. वेतालियमग्गमागतो० वुत्तं । वैतालिकं उक्तम् । अथवा विदालयतीति वैदालिकः भगवानेव । वैतालिकस्य मार्गः वैतालिकमार्गः तं आगतः प्राप्त इत्यर्थः । मण वयसा कारण संवुडे त्ति तिगुत्तो । चेचा वित्तं च णातयो, चेचा णाम त्यक्त्वा । वित्तं बाह्यमभ्यन्तरं च, बाह्य गो-महिष्यादि, अभितरं हिरण्ण-सुवण्णादि, अथवा आभ्यन्तरं विद्या-बुद्धिकौशल्यादि, शेषं बाह्यम् । णातयो त्ति पुव्वा-ऽवरसंस्तुताः । आरम्भस्तु पचन-च्छेदनादि प्राणातिपातो वा, चशब्दात् शेषा15 श्रवा अपि, चेचा अपि वर्त्तते । संवुडे इंदिएहिं । चरेदिति अनुमतार्थे । अथवा-"परिचएजासि त्ति बेमि" ॥ २२ ॥ ॥ वेतालिए पढमो उद्देसओ सम्मत्तो ॥२-१॥ 10 [वेयालीयज्झयणे बिइओ उद्देसओ] उद्देसत्थाधिगारो-माणो वज्जेतव्यो । तत्थ गाधा * तव-संजमणाणेसु वि जति माणो वजितो महेसीहिं । अत्तसमुक्कसणटुं किं पुण हीला नु अण्णेसिं ? ॥८॥ ३९॥ महातवस्सिणा संजमे अतीव अप्पमत्तेणं अतीव च बहुस्सुतेण जइ ताव माणो वज्जितो, तेन तपस्वित्वे अप्रमत्तत्वे बहुश्रुतत्वे वा गव्यं न याति, किमंग पुण नातिकृत्स्नतपोयुक्तेन प्रमादवता अल्पश्रुतेन वा गव्वो कायव्वो ? परो वा हीलेतब्बो ? ॥ ८ ॥ ३९ ॥ किश्चान्यत् * जइ ताव णिजरमतो पडिसिद्धो अट्ठमाणमहणेहिं । अवसेस मयट्ठाणा परिहरितव्या पयत्तेण ॥९॥४०॥ ॥ वेयालियेस्स णिजुत्ती सम्मत्ता २॥ ॥९॥ ४० ॥ भणियो उद्देसत्याधियारो । सुत्ताभिसंबंधो पुण-उक्तं प्रथमस्यान्ते "चेचा वित्तं च णातयो" [सूत्रगा० १०९] स एव वित्तं स्वजनारम्भं विहाय तपसि स्थितत्वात् - १ मुक्तिपन्थाः पु०॥ २°मातओ, मण पु ॥ ३ नायओ खं १ ख २॥ ४ च परिचएज्जासि ॥ त्ति चूपा०॥५चरेजसि खं १ । चरेजासि खं २ पु १ पु २॥ ६ वेतालीयस्य प्रथमोद्देशकः खं २॥ ७ करिसत्थं ख १ खं २ पु २॥ ८ उ खं १ खं २ पु २॥ ९°लीयस्स पु २॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १०९-१३ णिज्जुत्तिगा० ३९-४०] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। ११०. तय सं व जहाइ से रयं, इति संखाय मुणी ण मजए। ___ गोयण्णयरेण जे विदू, अहऽसेयकरी अण्णेसि इंखिणी ॥१॥ ११०. तय सं व जहाइ से रयं० वृत्तम् । तया णाम कंचुओ, स्वामित्यात्मीयाम् , उपमाने व त्ति उरगवत् , से इति स पूर्वविवक्षितः साधुः, रज्यत इति रजः । तत् केन जहाति ? अकषायत्वेनेति वाक्यशेषः, अकषायस्य हि सर्पत्वगिवावहीयते रजः । इति संखाय मुणी ण मजए, इति उपप्रदर्शने, एवं संखाए त्ति एवं परिगणेत्ता, एवं ज्ञात्वेत्यर्थः, ण मञ्जए । त्ति न मदं कुर्यात् । तत् केन मजते ? गोयण्णयरेण जे विदू, गोत्रं नाम जातिः कुलं च गृह्यते, अन्यतरग्रहणात् क्षत्रियः ब्राह्मण इत्यादि, अथवा अन्यतरग्रहणात् शेषाण्यपि मदस्थानानि गृहीतानि भवन्ति । इंखिणी णाम खिंसणा जिंदणा हीलणा, अन्ये ब्रुवते रिक्तता । अधवा-"गोतण्णतरेण माहणे" माहणो साधू, अहिंसगो सुन्दरो, अण्णे असोभणा ॥ १॥ स्यात्-य एषां मदानां एकेनानेकैर्वा मदस्थानैर्मत्तः परं परिभवति तस्य को दोषः ?, उच्यते१११. जो परिभवती परं जणं, संसारे परियेत्तती चिरं।। 10 अद इंखिणिया तु पाविया, इति संखाए मुणी ण मज्जए॥२॥ १११. जो परिभवती परं जणं० वृत्तम् । परो नाम आत्मव्यतिरिक्तः सपक्षः परपक्षो वा, अथवा परः अस्वजनः। परिभवो नाम अहं जात्यादिश्रेष्ठः त्वं हीनजातिरिति, एवं कुलादिषु, नान्यत्रापि । सो अणादीए अपजते अणवदग्गे संसारे परियत्तती चिरं. सर्वतो वर्तते परिवर्त्तते, चिरमिति अणंतं कालं, विसेसेण सुकुच्छितासु जातीसु एगेंदिय-बेइंदियादिसु । यतश्चैवं तेन अदु इंखिणिया तु पाविया, अदु इति यदुक्तकारणाद् इंखिणिका प्रागुक्ता पातयति नीचगोत्रादिषु संसारे व त्ति 15 पाविया । अथवा इह परत्र च भयेषु पातयतीति "पातिका" वानरपिटिका, इह सुघरादृष्टान्तः [कल्पभाष्ये गा० ३२५२१. परलोके कोकिलकश्च परिभट्ठओ ससुणओ जाओ। ]। इति उपप्रदर्शनार्थम् , एवं संखाए एवं परिगण्य मुणी ण मजए मदं न कुर्यात् ।। २ ।। ११२. जे यावि अणातए सिया, जे वि य पेसगपेसगे सिया। ईद मोणपदं उवहिते, णो लज्जे समतं सदा चरे ॥३॥ ११२. जे यावि अणातए सिया० वृत्तम् । जे त्ति अणिहिटणिद्देसे । नान्यो नायकोऽस्यास्तीति अनायकः चक्रवर्ती । बलदेवो वासुदेवो महामंडलिओ वा । वासुदेवो ण पव्वयति, निदानकृतत्वात् , तेन नाधिकारः। पेस्सगपेसगो णाम तेसिं चेव चकिमादीणं "जो पिढिगावाहगो प्रव्रजितः स्यात् , असावपि चक्रवर्तिप्रव्रजितः तं पूर्वदासदासं बारसावत्तेण वंदणेण वंदति । वंदमाणोऽपि वा इदं मोणपदमुवद्विते त्ति, इदमिति आरुहतं मुनेः पदं मौनपदम, पद्यतेऽनेनेति पदम, मोक्षं गम्यत इत्यर्थः, उपेत्य स्थितः उवाद्वितो। न तेन पूर्वस्वामिना लज्जा कर्त्तव्या-जहाऽहं पुवदासदासं बंदाविज्जामि । इतरेणापि 25 न गर्वः-अहं सामिगसामिणा पूइज्जामि । समतं ति अराग-द्वेषवानित्यर्थः, सदा सर्वकालं चरेदित्यनुमतार्थः ॥ ३ ॥ स्यात्-कथं ताभ्यां लज्जा-मदौ न कर्त्तव्याविति ?, उच्यते११३. समयण्णयरम्म संजमे, संसुद्धे समणे परिव्वए। जी आवकधा समाहिते, दविए कालमकासि पंडिते ॥४॥ १चयाइ खं २॥ २ण माहणे अह खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० चूपा० ।°ण जे विदू अह वृपा० ॥ ३ अहऽसेउ अण्णेसि खं १॥४रीयत चूसप्र० ॥ ५ यत्तती महं खं १ पु१ पु २ वृ० दी । 'यत्तती चिरं खं २ वृपा० दीपा० ॥६पातिका चूपा०॥ ७जे आवि अणायगे सिया खं १ खं २ पु २ । जे णाय अणाय पासिया पु १ । जे यावि भवे अणायगे चूपा. ११३ सूत्रगाथाचूर्णौ ॥ ८पेसगपेसपेसिया ख १॥ ९जे मोण° खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ १० सता चरे पु १। तदा चरे खं १॥ ११ जो पढिगावा० मो० ॥ १२ मारुहतं चूसप्र०॥ १३ सम अण्णयरम्मि संजमे खं १ पु २ वृ० दी । समे अण्णयरम्मि संजमे खं २ पु १ । समयण्णतरम्मि वा सुते चूपा० । समे+अण्णयरम्मि-समयण्णयरम्मि इति अत्र सूत्रे सन्धिविवेकः ॥ १४ जे आव खं १ ख २ पु १ पु२॥ Jain Education Intemational Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [२ वेयालियज्झयणे बिइओ उद्देसओ ११३. समयण्णयरम्म संजमे० वृत्तम् । तौ हि संयतत्वं प्रति समावेव, अथवाऽयमपि छेदोपस्थानीये, एवं परिहारविशुद्धिकादिषु शेषेष्वपीति । अथ समे त्ति एकस्मिन्नेव तौ संयमस्थाने वर्त्तयेताम् , अण्णयरे व त्ति विसमे वा छट्ठाणपडितस्स, तेसु सम्यक्त्वादपि पूज्यः संयम इति कृत्वा अन्यतरे अधिके वर्तमानः पूज्यः, संयतत्वादेव । अधवा "जे यावि भवे अणायगे, जे विय पेस्सगपेस्सए" [गा० ११२ ] त्ति लोगिगो मानाई उक्तः, इह तु "समयण्णतरम्मि वा सुते" समे 5 विसुए ण ममं परिचिततरं ति काउं समाणो ण कायव्वो, लहुं वा मे अधीतं ति । अण्णयरं तु एगो गणी एगो वायगो, पूर्वगतं वाचितं येन स वाचकः, न च वाचकेन मानः कार्यः । संसद्धो णाम स एव संयमः शुद्धः यत्रासौ वर्त्तते, अथवा स एव लज्जा-मद-दोसादिएहिं संसुद्धो। समणे त्ति सम्यग् मणे समणे वा समणे । परि समंता सव्वातियारसुद्धो सव्वतो वा वए परिव्बए । स्यात् कियच्चिरं कालम् ?, उच्यते, जा आवकधा समाहिते, यावदस्य कथा प्रवर्तते देवदत्तो यज्ञदत्तो वा। दविओ णाम राग-दोसरहितो। स्यात्-मृतस्यापि कथा प्रवर्त्तते तत उच्यते-कालमकासि पंडिते यावत् कालं न करोषि 10 तावन्मानादिदोषरहितेन भवितव्यम् ॥ ४ ॥ स्यात्-किमालम्बनं कृत्वेति यतितव्यम् ?, उच्यते ११४. दूरं अणुपस्सिया मुणी, तीतं धम्ममणागतं तधा। पुढे फैरुसेहि माहणे, अवि-हण्णू समयंसि रीयती ॥५॥ ११४. दूरं अणुपस्सिया० वृत्तम् । दूरं नाम दीर्घ अनुपश्य । तीतं धम्ममणागतं तधा, धर्मः स्वभाव इत्यर्थः, वर्तमानो धर्मो हि कालानादित्वाद् दूरः वर्तमानः, स तु अविरतत्वान्मानादिमदमत्तस्य दुक्खं भूयिष्ठोऽतिक्रान्तः। किश्च15 "इमेण खलु जीवेण अतीतद्धाए उच्च-णीय-मज्झिमासु गतीसु असतिं उच्चगोते असतिं णीयगोते होत्था" [भग० श० १२ उ०७], तथा च अतीतकाले प्राप्तानि सर्वदुःखान्यनेकशः, एवमनागतधर्ममपि । अथवा दूरमणुपस्सिअ त्ति दढं पस्सिय, अथवा मोक्षं दूरं पस्सिय दुर्लभबोधितां पस्सिय, जात्यादिमदमत्तस्य च दूरतः श्रेयः एवमणुपस्सिय इत्येवमाद्यतीता-ऽनागतान् धर्मान् अणुपस्सिता । पुढे फरुसेहि माहणे, फरुसा नाम स्नेहवियुक्ताः तैः, वाचिकाः कायिकाश्चोपसर्गाः क्रियन्ते । तत्र वाचिकाः आक्रोश-हीलनाद्याः, कायिकास्तु वध-बन्धन-ताडना-ऽङ्कन-च्छेदन-मारणान्ताः । अथवा प्रतिलोमाः फरुसा । तैरुदीर्णैः अवि20 हण्णू अपि हन्यमानाः, अविहण्णू यथा खन्दकशिष्याः, न तु खन्दकः [कल्पभा० गा० ३२७१-७४ पत्र ९१५] । समयसि रीयति त्ति यथा समयेऽपदिष्टं तथा रीयते, चरेदित्यर्थः । पठ्यते च-"अविहण्णू समयाधियासए" । अस्यार्थः-अवि सम्यग अधियासए । अधवा अविहण्ण इति हन्यमानो न हन्यात कञ्चित् । अथवा धर्ममस्योपदिशेत् स कीटकधर्मकथिक उच्यते ॥ ५॥ ११५. पण्हसमत्थे सदा जए, समिता धम्ममुदाहरेज मुणी। सुहुमे हुँ सया अलूसए, णो कैप्पे णो माणि माहणे ॥६॥ ११५. पण्हसमत्थे सदा जए० वृत्तम् । पृच्छन्ति तमिति प्रश्नः, यावत् प्रश्नान् परः पृच्छेत् तं व्याकर्तुं समर्थः । पठ्यते च-"पण्हसमत्ते सदा जते" समाप्तप्रश्न इत्यर्थः, सदा जते त्ति ज्ञानवान् अप्रमत्तश्च, अयतस्य हि क्षीरं परिचिकित्सकस्येव न वचः प्रमाणं भवति । उक्तं हि-"अद्वितो ण ठवेति परं" [ ___]। समिता णाम सम्म धम्मं उदाहरेज. "जहा पुण्णस्स कत्थती तथा तुच्छस्स कत्थती" [आचाराङ्ग श्रु० १ अ० २ उ० ६ सू० ५] । सहमे ह सया 30 अलूसए, सुहुमो नाम संयमः, स हि सुहुमेण वि अतिचारेण लूसिज्जति, कथयतो वा सूक्ष्मेणापि आत्मोत्कर्षेण परहीलया वा लूसिज्जति, पूया-गारव-सकारहेतुं वा कथयतो लूसेति । अहवा सुहुमे त्ति सूक्ष्मबुद्धिः कथयेत् । अलूषकस्तु स १ स्थापनीये पु०॥ २ इयं तु चूसप्र० ॥ ३ परुसेहि खं २॥ ४ अविहण्णू समयाऽधियासए चूपा० वृपा० दीपा० ॥ ५रीयप्रश्न इत्यर्थः चूसप्र० ॥ ६ पण्णसमत्ते खं १ खं २ पु २ वृ० दी। पण्हसमत्ते चूपा० । पण्हसमत्थे वृपा० दीपा०॥ ७ समता वृ० दी०॥ ८ उ खं १ ख २ पु १ वृ० दी । अ पु २॥ ९ कधयंतो ण परं [णु कोवये चूपा० ॥ १० कुज्झे खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी ॥ Jain Education Intemational Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ११४-१७] सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो । ६१ एवमनाशंसी न च मार्गविराधनां करोति । अपरियच्छंते य परे ण कुप्पेज, णेव य कधणलद्धीसंपण्णताए माणी माहणो होज्जा । अधवा -“कधयंतो ण परं [ णु ] कोवये" अन्यतरं कषायं गमयेत् ॥ ६ ॥ स एवम्— ११६. बहुजणणमणम्मि संवुडे, सव्वट्ठेसु सदा अणिस्सिते । हरदे वतुमे (? पतुमे) अणाइले, धम्मं प्रादुरकासि कासवं ॥ ७ ॥ 1 ११६. बहुजणणमणम्मि संबुडे ० वृत्तम् । बहुजनं नामयतीति बहुजननामनः, बहुजनेन वा नम्यते, स्तूयत इत्यर्थः, 5 स धर्म एव । सर्वलोको हि धर्ममेव प्रणतः, न हि कश्चित् परमाधार्मिकोऽपि ब्रवीति - अधम्मं करेमि । तत्रोदाहरणम्सेणिओ राया । तस्स अत्थाणीए धर्मजिज्ञासायां 'के धम्मिया ?' इति । ततो पारिसदेहिं भण्णति - दुल्लभा धम्मिया, पायं अधम्मिओ लोओ। अभयो भणति - लोगस्स ताव पाएण एस पइण्णा जधा 'वयं धम्मिया' इति । परिसाए असद्दहं तीए अएण भणति - परिक्खामो । ततो रायाणुमए सिताऽसिताणि दुवे भवणाणि कारवेत्ता पउर-जणवता भणिया-जे तुम्हं धम्मिया ते धवलं गिद्दं पविसंतु, अधम्मिया असियमिति । ततो ते सव्वे पउरजणा धवलगृहमणुपविट्ठा । अधिगारिगेहिं 10 पुच्छिता - किं भवंतो धम्मं करेह ? त्ति । तत्थेगो भणति -अँध करिसगो, तत्थ मे अणेगेहिं सउणसहस्सेहिं धण्णं उवजीविज्जति । अण्णो भणति - अहं वणिजो, कलोपजीवी, बंभणो मे णिच्चगं भुंजति त्ति । अण्णो भणति - अहं कुटुंबभरणपवित्तो किलेसभागी । किं बहुणा ?, सोयरियादयो वि 'कुलधर्मानुवर्त्तित्वाद् वयमपि धम्मिया' एवं धैवलगिधमणुपविट्ठा। उक्तं च- "सोतसुतघोररणमुह ०" [ ] । अध तत्थ दुवे सावगा सकृन्मद्यपाननिवृत्तिकृतभङ्गा असितभवणमणुपविट्ठा पुच्छिता भगति - सुसाधुणो सुसावगा य धम्मिया जे सया अपमत्ता, अम्हे पुण पमादिणो स्वकृतमद्य - 15 पाननिवृत्तिकृतभङ्गा ण धवलगिहारुहा, अतो असितभवणमणुपविट्ठा इति ॥ एवं बहुजननमितो धर्म इति, तस्मिन् बहुजननमिते संवृतात्मा भवेदिति वाक्यशेषः । अन्ये त्वाहुः - बहुजननमनः लोभः, सर्वो हि लोकस्तस्मिन् प्रणतः । असंयतास्तावत् सर्वे शब्दादिविषयप्रणताः प्रमत्तसंयता अपि तत्रैव केचित् प्रणताः, वीतकषायास्त्वप्रणताः, जे य जंयणो अप्पमत्ता इति तेऽपि न प्रणताः । उक्तं च - "कोधस्स उदयणिरोधो वा उदयपत्तस्स वा को विलीकरणं” [ भग० श० २५ ३०७ सू० ८०२ पत्र ९२२, औपपा० सू० १९ पत्र ४० ] | एवं योगेन्द्रियाणामपि वक्त - 20 व्यम् । संयतो नाम विरतः, निवृत्त इत्यर्थः । सव्वसु सदा अणिस्सिते त्ति सव्वेसु इंदियत्थेसु यावंतो वा असंयमार्थाः अथवा ऐहिका-ऽऽमुष्मिकेषु अणिस्सितो णाम नाऽऽकाङ्क्षति । हरंदे वतुमे (? पतुमे ) अणाइले, हरदे त्ति महासमुद्रः, स हि नक्रादिभिर्महामत्स्यैः स्फुरद्भिरपि नाऽऽकुलजलो भवति, न क्षुब्धजल इत्यर्थः, पद्म-महापद्मादयो वा ह्रदाः स्वच्छ-प्रसन्न - गम्भीरजला:, गम्भीरत्वादनाकुलाः; एवमसावपि पूर्वा ऽपरज्ञेयपरिशुद्ध स्वच्छज्ञानवान् प्रसन्नवाङ - मनाः न च परप्रवादिभिः शक्यते विक्षोभयितुं इत्यनाकुलः । कोधादीहि वा अणाइलो । अधवा अणाइल इति निरुद्धाश्रवः, अनातुरो न म्लायति धर्मं कथयन् । 25 धम्मं प्रादुरकासि कासवं ति, प्रादुः प्रकाशने, स भगवान् आर्यसुधर्मः अण्णतरो वा गणधरो हृद इवानाकुलः धर्म प्रादुरकार्षीत्, एवमन्येऽपि स्थविराः प्रादुरकार्षीत् ( ? कार्षुः ) प्रादुष्कुर्वन्ति करिष्यन्ति च । कश्यपस्यायं काश्यपः, स एवंलक्षणकं धर्मं अहिंसादिलक्षणं धर्मं कथयति ॥ ७ ॥ तं जधा ११७. बहवो पाणा पुढोसिया, पत्तेयं संमियं उवेहाए । जे मोणपदं उवट्ठिते, विरंतिं तत्थमकासि पंडिते ॥ ८ ॥ १°णमणंसि खं १ पु २ ॥ २ सव्वट्टेहिं णरे अणि खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ३ हरए व सया अणाविले खं १ वृ० । हरए व सिया अणाविले खं २ दी० । हरए व सया अणाइले पु १ । हरए व सया अणाउले पु २ ॥ ४ वतुमे पद्मद इत्यर्थः ॥ ५ पादु° खं १ खं २ पु पु २ ॥ ६ अहम् इत्यर्थः ॥ ७ धवलगृहम् ॥ ८ धवलगृहार्हाः ॥ ९ यतयः ॥ १० हरदे तुमे पद्मनामा हद इत्यर्थः ॥ ११ समयं समीहिया वृ० । समयं उवेहिया खं १ ख २ पु १ पु २ वृपा० दी० । समिया उवेहिता १२ विरती तत्थ अकासि खं १ खं २ पु १ पु २ । पु १ विरती स्थाने विरयं इति पाठभेदः ॥ चूपा० ॥ For Private Personal Use Only 30 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [२ वेयालियज्झयणे बिइओ उहेसमो ११७. बहवो पाणा पुढोसिया. वृत्तम् । अथवोपदेश एवायम्-बहवो प्राणा पुढोसिता, बहव इति अनन्ताः, पृथक् पृथक् सिता पुढोसिता, तं जधा-पुढविकाइयत्ताए । तेषां तु प्रत्येकं अनन्तानामप्येको धर्मः समान एव 'सुखप्रियत्वम्' । समियं उवेहाए त्ति, समिता णाम समता, प्रत्येकाश्रयेऽपि सति अभीष्टसुखता दुःखोद्वेगता च समानमेतत् , अथवा-“समिया इति समं उवेहिता" । जे मोणपदं उवहिते, मुनेरिदं मौनम् । विरमणं विरतिः, तेषामतिपातादीनां 5 अकासि त्ति करिष्यसि । पापाद् डीनः पण्डितः । का भावना ?-यथा तवैते इष्टा-ऽनिष्टे सुख-दुःखे एवं पाणाणमवि इत्येवं मत्वा विरतिं तत्थमकासि पंडिते, स एव विरतात्मा ॥ ८ ॥ ११८. धम्मस्स य पारए मुणी, आरंभस्स य अंतए ठिते। __ सोयंति य णं मैमायिणो, णो लभती णितियं परिग्गहं ॥९॥ ११८. धम्मस्स य पारए मुणी० वृत्तम् । धम्मो दुविहो सुतधम्मो चरित्तधम्मो य, तयोः पारं गच्छतीति पारगः, 10 श्रुतज्ञानपारङ्गतः चोदसपुवी, पारं वा काङ्क्षति एवं पारङ्गतः, काङ्कति वा अकषायः, तस्य च चरित्रमधिकृत्यापदिश्यते । आरम्भो नाम जीवकायसमारम्भः, तस्यान्ते व्यवस्थितः, नारभत इत्यर्थः । जे य पुण आरंभ-परिग्गहे वटुंति ममायंति वा ते तं परिग्गहं णट्ठविणढं सोयंति य णं ममायणो, अलभ्यमानमपि यथेष्टं परिग्गहं सोयंति णं ममाइणो । उक्तं हि-"परिग्रहेष्वप्राप्त-नष्टेषु काङ्खा-शोकौ, प्राप्तेषु च रक्षणम् , उपभोगे चातृप्तिः" । णो लभति णितियं परिग्गहं ति, अग्गिसामण्णताए चोरसामण्णताए "णितिओ ण भवति । अयमपरकल्पः तमिव-"धम्मस्स य पारए मुणी, आरंभस्स य अंतिए ठितं । 15 सोयंति य णं ममाइणो" अम्हे सुहिता, तुम्हें संतविभवो वि अतिदुक्करं तव-चरणं करेसि । जेणं ममायंते तेण ममायिणो माता-पुत्रादयो । णो लभंति णितियं परिग्गहं ति, स तेषां नित्यं वशकः आसीदिति नित्यं परिग्रहपरः, ततस्तत्प्रत्ययिक णो लभंति णितियं परिग्गहं ॥ अमुमेवार्थ नागार्जुनीया विकल्पयन्ति-- सोऊण तयं उवहितं, केयि गिही विग्घेण उद्विता । धम्मम्मि इधं अणुत्तरे, तं पि जिणेज इमेण पंडिते ॥ ॥९॥ 20 ११९. इहलोग दुहावहं विदा, परलोगे य दुहं दुहावहं। विद्धंसणधम्ममेवे या, इति विजं कोऽगारमावसे ? ॥१०॥ ११९. इहलोग दुहावहं विदा परलोगे य दुहं दुहावहं० वृत्तम् । कृषि-भृतक-चौरादीनां इहलोग एव दुधावधं धणं । उक्तं हि अममा जनयन्ति काविताः, निहिता मानसचौरज भयम् । विन्दन्ति जना हि."| 28 परलोकेऽपि च दुहं अस्माद् धनोपार्जनदुःखात् सुमहत्तरं दुःखं समावहन्तीत्यतो दुहावहं । अथवा-"दुहा दहावहा" पुनरनन्ते संसारे पर्यटन्तः शरीरादिदुःखं समावहन्ति । विद्धंसणधम्ममेव या, अग्नि-चौराद्युपद्रवैः कालपरिणामतश्च विद्धंसणधम्ममेव या, इति एवं विद्वान् मत्वा को नाम अगारमावसे? ॥ १० ॥ सति सतीषसुपु० वा. मो० । सति सतीष्टसु° सं०॥ २°तिपातनं अचूसप्र० ॥ ३°स्स पयारए पु २ । लिपिमेदविकतोऽयं पाठमेदः ॥ ४ अंतिए ठिए खं १ खं २ । अंतिए ठितं चूपा० ॥ ५ममाइणो खं १ खं २ पु१पु २ चूपा० ॥६णो कति णितियं खं १चूपा । नो य लभंति णियं खं २ बृ० दी । ण लभंती निययं पु१। णो लहई निययं पु २॥ ७णितओ पु. विना ॥ ८ममायणो पु० विना ॥ ९“अत्रान्तरे नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-सोऊण तयं उवट्रियं, के गिही विग्घेण उट्रिया। धम्मम्मि अणुत्तरे मुणी, तं पि जिणिज्ज इमेण पंडिए ॥” इति वृत्तौ ॥ १०विऊ खं १. पु १ पु २ वृ० दी.॥ ११ दुहा दुहावहा चूपा० ॥ १२ व तं, इखं २ वृ० दी। वया, इखं ११ वय,इपु१पु२॥ Jain Education Intematonal Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ११८-२३] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खधो। किश्चान्यत्- पव्वइतेण वि न सकार-बंदण-णमंसणाओ बहुमण्णितव्वा । उक्तं च तत्थ१२०. महता पलिगोह जाणिया, जा वि य वंदण-पूयणा इधं । सुहुमे सल्ले दुरुद्धरे, विदु मंता पयहेज्ज संथवं ॥११॥ १२०. महता पलिगोह जाणिया० वृत्तम् । परिगोहो णाम परिष्वङ्गः, दवे परिगोहो पंको, भावे अभिलाषो बाह्या-ऽभ्यन्तरवस्तुषु । परस्परतः साधूनां जा वि वंदणा णमंसणा सा वि ताव परिंगोहो भवति, किमंग पुण सद्दादि-5 विसयासेवणं, अथवा प्रव्रजितस्यापि पूजा सत्कारः क्रियते, किमङ्ग पुण रायादिविभवासंसा? । मुहमे सूचनीयं सूक्ष्मम् , कथम् ? शक्यमाक्रोश-ताडनादि तितिक्षितुम् , दुःखतरं तु वन्द्यमाने पूज्यमाने वा विषयैर्वा विलोभ्यमाने निःसङ्गता भावयितुमिति, एवं सूक्ष्मं भावशल्यं दुःखमुद्धर्तुं हृदयादिति वाक्यशेषः । इत्येवं मत्वा विद्वान् पयहेज संथवं, सम्यक् स्तवः सतो वा स्तवः संथवो ॥ नागार्जुनीयास्तु पठन्ति पलिमंथ महं विजाणिया, जा वि य वंदण-पूयणा इधं । सुहुमं सल्लं दुरुद्धरं, तं पि जिणे एएण पंडिते ॥ ॥ ११ ॥ १२१. एगे चरे ठाण आसणे, सयणे एग समाहितो चरे। भिक्खू उवहाणवीरिए, वइगुत्ते अज्झप्पसंवुडे ॥१२॥ १२१. एगे चरे ठाण आसणे० वृत्तम् । द्रव्ये एगल्लविहारवान् , भावे राग-द्वेषरहितो वीतरागः, “गच्छगतो वि य णिग्गहपरमो०” [ ] राग-द्वेषयोः वीतराग इव वीतरागः । ठाणं काउस्सग्गो । आसणं पीढ-15 फलगं भूमिपरिग्गहो वा । सयणं तणुवण्णो । एगो राग-दोसरहितो, सव्वत्थ पवाद-णिवाद-सम-विसमेसु ठाण-णिसीयण-सयणेसु एगभावेण भवितव्वं, णाणादिसमाहितो चरेदिति अणुमतार्थे । भिक्खू उवहाणवीरिए, उपधानवीर्यवानिति तपोवीर्यवान् । वडगुत्ते त्ति वयिगुत्ती गहिता । अज्झप्पसंवुडे त्ति मगोगुत्ती गहिता । पूर्वार्द्धन तु कायगुप्तिः ॥ १२ ॥ इदाणं जो सो एगल्लविहारी तं पडुच्चा घरे य णिक्कारणेण भण्णति १२२. णो पीहे ण यावऽचंगुणे, दारं सुण्णघरस्स संजते । __ पुट्ठो ण उदाहरे वैयिं, ण समुच्छति णो संथडे तणे ॥ १३ ॥ १२२. णो पीहे ण यावऽवंगुणे० वृत्तम् । पिहितं णाम ढक्कियं । अवंगुतदुवारिए सुण्णघरे वा भिन्नघरे वा। शुनां हितं शून्यं, शून्यं वा यत्रान्यो न भवति । पुट्ठो ण उदाहरे वयि, चत्तारि भासाओ मोत्तूण उदाहरति वयिं, अवस्सं संबुज्झितुकामस्स वा एगनायं एगवागरणं वा जाव चत्तारि । णिसीयणट्ठाणे मोत्तूण सेसं वसधिं ण समुच्छति त्ति ण पमजति, णो संथडे तणे त्ति ण वा तणाई संथरेति, किमंग पुण कित्तिं पोत्तिं वा? ॥ १३ ॥ स एवं शरीरोवस्सयादिसु अप्रतिबद्धः अणियतवासित्वात्१२३. जत्थऽत्थमिते अणाइले, सम-विसमाइं मुणीऽधियासए । चरगा अदु वा वि भेरवा, अदु वा तत्थ सिरीसिवा सिया ॥ १४ ॥ १२३. जत्थऽत्थमिते अणाइले० वृत्तम् । जत्थ से अत्थमेति सूरो जले थले वा तत्थ वसति अणाइलो णाम १ महयं पलिगोव जा' खं २ पु १ बृ. दी. । महया पलिगोव जा खं १ पु २ ॥ २ विदुमं ता वृ० दी. व्याख्याभेदः ॥ ३ पजहेज संठवं खं २ पु १। परिहेज संथवे खं १ पु २ ॥ ४ ठाणमासणे खं २ पु १॥ ५ समाहिए सिया खं १ पु १ पु २ वृ० दी । समाहिमासिया खं २॥ ६ अज्झत्थसं खं १ पु १ पु २॥ ७ पेहए खं २॥ ८नावपंगुणे खं १ पु १ पु २॥ ९ नोयाहरे खं २ ॥१० वर्ति खं १॥ ११ ण समुच्छे णो संथरे तणं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ १२ अणाउले पु २ वृ० दी. ॥ १३ माणि मुणीऽहियासए खं १ खं २ पु १ पु २॥ 20 25 Jain Education Intemational Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [२ वेयालियज्झयणे बिइओ उद्देसओ परीषहोपसर्गः नः समुद्रवद् नाऽऽकुलीक्रियते । सम-विसमाई ठाण-सयणा-ऽऽसणाई मुणीऽधियासए न राग-द्वेषं गच्छेत् । तत्थ से अच्छमाणस्स चरगा अदुवा वि भेरवा, चरन्तीति चरकाः पिपीलिका-मत्कुण-घृतपायिकादयः, भेरवा पिशाच श्वापदादयः, सरीसृपाः अहि-मूषकादयः, सव्वे अहिआसए त्ति ॥ १४ ॥ एवमन्येऽपि १२४. तिरिया मणुसा य दिविया, उवसग्गा तिविहीं वि सेविया। लोमादीयं पि ण हरिसे, सुण्णागारगते महामुणी ॥ १५ ॥ १२४. तिरिया मणुसा य दिग्विया० वृत्तम् । तिरिया चतुविधा । उवसम्गा तिविहा वि सेविया नाम सेवित्वा अणुभूय लोमादीयं पि ण हरिसे, लूयत इति लोम । लोमहरिसो दुधा भवति-प्रतिलोमैर्भयात् १ अनुलोमैः प्रहर्षेण हासतः २ । आदिग्रहणाद् दृष्टि-मुखप्रसादो दैन्यं वा । सुण्णागारगते महामुणी, स तैभैरवैरप्युपसर्गरुदीर्णैश्छिद्यमानो मार्यमाणो वा ॥१५॥ १२५. णो जावऽभिकंख जीवितं, णो वि य पूयणपत्थए सिया। अन्भत्थमुवंति भेरवा, सुण्णागारगतस्स भिक्खुणो॥ १६ ॥ १२५. णो जावऽभिकंख जीवितं० वृत्तम् । अनुलोमै; उदीर्णैः असंजमजीवितं ण वा पूया-सक्कारं पत्थेज । तेनैवं जीवितमनाकाङ्क्षता पूजा-सत्कारौ च, भयानके वाऽऽवसथे वसता अब्भर्थमुवंति भेरवा, अभ्यस्ता नाम आसेविता असकृद् असकृत् सहमानेन जाता उदिता आसेविता अभ्यस्ता इति, अतः उवेंति उपयान्ति भयानकाः। पठ्यते च-"अब्भत्थ(अप्पञ्चइय) मुर्वेति मेरवा" अल्पाः न बहवः पिशाच-श्वापद-व्यालादयः जीवितात्ययिका उवेंति, शीतोष्ण-दंश-मशकादयस्तु 15 उदीर्णा अपि शक्या अधिषोढुमिति, अभ्यस्तत्वात् , नीराजितवारणस्येव भैरवा एव भवन्ति ।। १६ ॥ तस्यैवम् १२६. उवणीततरस्स ताइणो, भयमाणस्स विवित्तमासणं। सामाइयमाहु तस्स तं, जो अप्पाण भए ण दंसए ॥१७॥ १२६. उवणीततरस्स ताइणो० वृत्तम् । भिक्षोः धर्ममुपनीतः परीपहजयं वा, अयं चोपनीतः अयं चोपनीतः अयमनयोरुपनीततरः, ज्ञान-दर्शन-चारित्रेषु यस्याऽऽत्मा उपनीततरः स भवति उपनीततरः । त्रायतीति त्राता, सच 20 त्रिविधः-आत्म० पर० उभयत्राता जिनकल्पिका-ऽर्हद्-गच्छवासिनः । भयमाणस्स विवित्तमासणं, इत्थी-पसु-पंडगविरहितं विवित्तं, आसनग्रहणादुपाश्रयोऽपि गृहीतः । सामाइयमाहु तस्स तं, समभावः सामाइयं, तस्सेवंगुणजातीयस्स सामायिकम् , कतरं ?, चारित्तसामाइयं, आह उक्तवानिति, तित्थकरो अजसुधम्मो वा सिरसागं कधेति । तस्य चारित्रधर्मः किं करोति ?, यः आत्मानं भये न दर्शयति, न क्षुभ्यत इत्यर्थः ॥ १७ ॥ किञ्चान्यत् १२७. उसिणोदग-तत्तभोयणो, धम्महिस्स मुणिस्स हीमतो।। संसग्गि असाधु रायिहिं, असमाधी तु तधागतस्स वि ॥ १८॥ १२७. उसिणोदग-तत्तभोयणो० वृत्तम् । उसिणग्रहणात् फासुगोदग-सोवीरग-उण्होदगादीणि गहिताणि, तप्तग्रहणात स्वाभाविकस्याऽऽतपोदकादेः प्रतिषेधार्थः । धर्मेण यस्यार्थः स भवति धम्मट्टी। "ही लज्जायाम्" असंयमं प्रति वीर्यस्यास्ति स ह्रीमान् , तस्य ह्रीमतः, स हि लोके शीतोदकं पिबन् लज्जते, हीयत इत्यर्थः । तस्यैवमप्रमत्तस्य सतः संसग्गि असाधु रायिहि राजादिभिस्तस्यासाध्वी । कथम् ?, रिद्धिं दृष्ट्वा तां मा भून्मूच्छा कुर्यात् , मूर्च्छतश्च असमाधी भवति तथागतस्स 30 वि त्ति वैराग्यगतस्यापि । अथवा यथाऽन्ये, यथा ज(जि)नादयो गता वीतरागा तथा सो वि अप्रमादं प्रति गतः ॥ १८ ॥ १ मणुया य दिव्वगा खं २ । मणुया व दिब्धिगा खं १ पु १ पु २॥ २°हाऽहियासिया खं २ वृ० दी । हाऽधियासिया खं १ पु २ । हाऽधियासए पु १॥ ३ लोमायियं पिखं १ पु १ पु २ ॥ ४णो आवऽभिकखे जी खं १ । णो अभिकंखेज जी खं २ पु १ वृ० दी। णो अभिकंखेइ जी पु २॥ ५ अब्भत्थ (अप्पऽच्चइय) मुवेंति चूपा० । अब्भत्थमुवेंति खं २ । अज्झत्थमुर्विति पु १ पु २॥ ६त्थ भवंति चूसप्र० ॥ ७विविकमा ख २॥ ८ खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ९ देसए पु १॥ १०°ग-भत्त खं २॥ ११ भोइणो पु १ पु २॥ १२ धम्मठियस्स खं १ ख २ पु १ पु २ वृ. दी० ॥ १३ ह्रीमतो खं १ खं २ पु २॥ १४ रायहिं खं २ पु २॥ Jain Education Intemational Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १२४-३१] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। इदाणिं प्रमत्ता उच्यन्ते१२८. अधिकरणकरस्स भिक्खुणो, बदमाणस्स पंसज्झ दारुणं। अहे परिहायते धुवं, अधिकरणं ण करेज संजते ॥ १९ ॥ १२८. अधिकरणकरस्स भिक्खुणो० वृत्तम् । अधिकरणं करोतीति अधिकरणकरः । प्रसह्येति आक्रम्य परं परिभवात् । सम्बन्धस्नेहसन्ततिं दारयतीति ततः दारुणं । अढे परिहायते धुवं, अर्थो नाम मोक्षार्थः, तत्कारणादीनि च ज्ञानादीनि । परिहायति । [उक्तं च-] जं अज्जियं समीखल्लएहिं तव-णियम-बंभमइएहिं । मो हु तयं छड्डेहिध बहुतरयं सागपत्तेहिं ॥ १ ॥ [कल्पभाष्ये गा० २७१४,५७४६] एतेण कारणेणं अधिकरणं ण करेज संजते, स्वपक्ष-परपक्षाभ्यामिति वाक्यशेषः ॥ १९ ॥ तस्यैवाधिकरणमकुर्वाणस्य 10 १२९. सीतोदगपडिदुगुंछिणो, अपडिण्णस्स लवावसक्षिणो। सामायिकमाहु तस्स तं, जं गिहिमत्तेऽसणं ण भक्खति ॥ २० ॥ १२९. सीतोदगपडिदुगुंछिणो० वृत्तम् । सीतोदगं णाम अविगतजीवं अफासुगं प्रतिदुगुंछति णाम ण पिबति, यो हि यन्नाऽऽसेवति स तद् जुगुप्सत्येव, जधा धीयारा 'गोमांस-मद्य-लसुन-पलण्डु दुगुंछंति, न केवलं धीयारा गोमांसं दुगुंछंति तदाशिनोऽपि जुगुप्सति । अपडिण्णो णाम अप्रतिज्ञः, नास्य प्रतिज्ञा भवति यथा मम अनेन तपसा इत्थं णाम भविष्यतीति, 15 तं जधा-"णो इधलोगट्ठताए तवं करोति०" [दशवै० अ० ९ सू० ९] जधा धम्मिल्ल-यंभदत्ता [धम्मिल्लहिंडी पत्र ५२, उत्तरा० अ० १३] आहार-उवधि-पूयाणिमित्तं वा अप्रतिज्ञः । लवं कर्म, येन तत् कर्म भवति तत आश्रवात् स्तोकादपि अवसक्कति । तस्यैवंविधस्य सामायिकमाह तस्स तं तदेवास्य सामायिकं चारित्रसामायिकम् । यत् किं न करोति ? जं गिहिमत्ते असणं ण भक्खति, मा भूत् पच्छाकम्मदोसो भविस्सति । णटे हिते वीसरिते स एव सीतोदगवधः स्यादिति ॥ २० ॥ किञ्च १३०. ण य संखतमाहु जीवितं, तध वि य बालजणो पगभति। बाले पावेहि मिजती, इति संखाय मुणी ण मजती ॥ २१ ॥ १३०. ण य संखतमाहु जीवितं० वृत्तम् । ण हि छिण्णतन्तुबद् इदं जीवितं पुनः शक्यते संस्कर्तुम् । तथेति तेन प्रकारेण बालजणो णाम असंयतजनः प्रगल्भीभवति, प्राणातिपातादिषु प्रवर्त्तमानो धृष्टो भवतीत्यर्थः । स एव बालः पापेषु कर्मसु प्रगल्भीभवन तैरेव बाले पावेहि मिर्जेती हिंसादीहिं तज्जणिएण वा कर्मणा मानांण्डमिव मीयते पूर्यत इत्यर्थः, "मार्यते" वा संसारे । इति संखाय मुणी ण मन्जती, इति संखाय त्ति एवं परिगणय्य ण मजति त्ति न मदं कुर्यात् 25 न क्रुध्येत ॥ २१ ॥ मानाधिकार एव अस्मिन्नुदेशके वर्ण्यते, तेण इति संखाए मुणी ण मजती । क्रोधो मानेऽपि गृहीतो। लोभस्तु १३१. "छंदेण पैलेतिमा पया, बहुमाया-मोहेण पाउडा। वियडेण पलेति माहणे, "सीयुण्हं वयसाधियासए ॥ २२॥ १ अहिगरणकडस्स खं १ खं २ पु १ पु २॥ २ पसज्ज खं १ पु २॥ ३°यती बहू खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ ४ज पंडिए खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ५ “तं दाइ पच्छ नाहिसि छ तो सागपत्तेहिं ।” इति रूपमुत्तरार्द्ध कल्पभाष्ये ॥ ६°सप्पिणो वृ० दी० ॥ ७ तस्स जं, जो गिहिमत्तेऽसणं न भुंजती खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी । गिहिमत्ते स्थाने गिहिमत्त इति पाठः खं १ ख २॥ ८ "अविला-करहीखीरं लसुण पलंड सुरा य गोमंसं । वेयसमए वि अमयं” इति पिण्डनियुक्ती गा० १९४ पत्र ७१-२॥ ९धम्मिल्लब्रह्मदत्तावित्यर्थः ॥ १० "असंखयं जीविय मा पमायए" उत्त० अ० ४ गा० १॥ ११°ब्भती खं १ खं २ पु १पु२॥१२ मज्जती पु१ चूपा० ॥ १३ संखात खं १ पु १॥ १४ मजति चूसप्र० ॥ १५ °दीएहिं पु० ॥ १६ भण्ड पु० विना ॥ १७ छण्णेण चूपा॥ १८ पलेइमा पया खं १ पु २॥ १९ सीउण्हं खं १ खं २ पु १ पु २॥ सूर्य० सु०९ 20 Jain Education Intemational Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 भावेनेति वा वर्णयन्ति । मोहो नाम अज्ञानं तेन णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [२ वेयालियज्झयणे विइओ उद्देसओ १३१. छंदेण पलेतिमा पया० वृत्तम् । छंदो णाम लोभः इच्छा प्रार्थना, तेण छंदेण प्रलीयतेयं प्रजा तासु तासु गतिषु भृशं लीयते गच्छति । पठ्यते च-"छण्णेण पलेतिमा पया" छण्णेणेति डंभेगोवहिणा वा कूटतुल-कूटमानादिभिः, तथा हिंसादिषु कर्मसु प्रवर्त्तते दम्भेनैव, पलायितुमिच्छति कर्मबन्धात् । यथा मारतो वि य देवस्सुवरि छुभत्ति-महर्षि । तथा चित्तं न दषयितव्यमिति । पाषण्डिनोऽपि शाक्यादयः छण्णेण पलायितुमिच्छन्ति कर्मबन्धात, 5 तद्यथा-सङ्घसंतगा ग्रामाः दासी-दास-हिरण्यादि च, ते उपासगसंता वा। भागवता ब्रुवते-सव्वं देवो करेति । यथा छण्णेण तथा लोभादिभिरपि । बहमायेति उक्कंचणादि, पापण्डिनोऽपि मायाबहुला कुक्कडेहिं लोअं उवचरंति । उक्तं हिकुक्कुटसाध्यो लोको नाकुक्कुटतः प्रवर्त्तते किञ्चित् । तस्माल्लोकस्यार्थे पितरं सत्कुर्कुटं कुर्यात् ॥ १॥ [ चित्तप्रामाण्यं वर्णयन्ति । मोहो नाम अज्ञानं तेन प्रावृताः छादिता इत्यर्थः । शासनाश्रितास्तु वियडेण पलेति माहणे, 10 भावेनेति वाक्यशेषः, तेनाकुडिलेन अविकुत्थितेनाजिम्हेन । कुतः प्रलीयते ?, संसारात्, न केवलमात्मशुद्ध्या पलीयते, बाह्येनापि प्रलीयते । तद्यथा-सीयेण्हं वयसाऽधियासए, सीते अप्रावृतः, उष्णे आतापयति, अथवा सीता अनुलोमाः, उष्णाः प्रतिलोमाः, वयसेति वाचा । यथा वयसा तथा मणसा वि, एवं सेसिंदियदमो वि ॥ २२ ॥ किंच जं बहुप्पसणं तं गेण्हाहि चिढ़ते१३२. कुजए अपराजिते जधा, अक्खेहिं कुसलेहिं दिववं । कडमेव गहाय वा णो कलिं १, णो त्रेतं ३ णो चेव दावरं २॥ २३ ॥ १३२. कुजए अपराजिते जधा० वृत्तम् । कुत्सितो जयः कुजयः, द्यूतकरत्वमित्यर्थः । कुजयः जूतेण थोवं विढप्पति । यद्यपि अपराजितो अक्खेहि देवताप्रसादेन वा अक्ख हितएण वा अपराइतो तथापि कुच्छित एव जयः । अक्खा पासका। "दिव क्रीडा-व्यवहारयोः" अक्षैर्दीव्यतीति दिव्यम्, दिव्यं चास्यास्तीति दिव्यवान क्रीडावान् । जध सो दिव्ववं कडमेव गहाय का णो कलिं १ णो त्रेतं ३ णो चेव दावरं २ ॥ २३ ॥ उवसंहारः20 १३३. एवं लोगंसि ताइणो, बुंइतेऽयं धम्मे अणुत्तरे । तं गेह हितं ति उत्तम, कडमिव सेसज्वहाय पंडिते ॥ २४ ॥ १३३. एवं लोगसि ताइणो० वृत्तम् । एवं अनेन प्रकारेण, अस्मिल्लोके पाषण्डलोगे वा, ताइणो त्ति आत्म-परोभयत्रायिणो जिन-तीर्थकर-स्थविराः, बुइते उक्तः, अयं ति इमो जइधम्मो सुत-चरित्तधम्मो य, अणुत्तरे बहुफले, अतुल्ये इत्यर्थः । तं गेण्ह हितं ति उत्तम, तमिति तं धर्म गेण्हाहि इहलोए परलोए य हितं. इहलोए आमोसहि माइलद्धीओ 25 [आव० नि० गा० ६९-७० ], परलोए सिद्धी देवलोग-सुकुलपच्चायादी । ते इति तस्य ग्राहकस्य निर्देशः। उत्तमः प्रधानः, धर्म इति वर्त्तते कडमिव द्यूतकरवत् सेसा तिणि आता पासत्था अण्णतित्थिया गिहत्था य अवहाय छड्डेत्ता। को भवति ?, उच्यते, पंडितो भवति ॥ २४ ॥ किञ्च-एषां हि शब्दादीनां त्वक्परीषह एव गरीयान् अत एवोच्यते १३४. उत्तर मणुयाण आहिता, गामधम्म इति मे अणुस्सुतं । जंसी विरता समुहिता, कासवस्स अणुधम्मचारिणो ॥ २५॥ 30 १३४. उत्तर मणुयाण आहिता० वृत्तम् । उत्तरा नाम शेषविषयेभ्यः ग्रामधर्मा एव गरीयांसः । यथा मयाऽनुश्रुतं स्थविरेभ्यः, तैः पूर्वं श्रुतम् , पश्चात् तेभ्यो मयाऽनुश्रुतम् । उक्तं हि 15 १पितरमपि सकुर्कुट वृत्तौ ॥ २सीउण्हं वा. मो० ॥ ३ बहुप्पण्हलं तं चूसप्र०॥ ४ दीवयं खं २ वृ० दी। दिव्वयं पु १ पु २॥ ५का इति चतुःसंख्याद्योतकोऽक्षराङ्कः, ४ इत्यर्थः ॥ ६ तेयं खं १ खं २ पु १ पु २॥ ७ लोगम्मि खं १ ख २ पु १ पु २ ॥ ८ ताइणा खं १ खं २ वृ० दी। तातिणा पु १॥ ९ बुइए जे धम्मे खं २ पु १ वृ० दी०॥ १०गिण्ह खं २ पु १ पु २॥ ११ उत्तिम पु १॥ १२ °धम्मा ति मे खं २ । धम्मा इ मे पु १। धम्मे इइ मे पु २ ॥ Jain Education Intemational Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १३२-३७] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंग पढमो सुयक्खंधो। सुखस्यातिरसः स्वर्गः, स्वर्गस्यातिरसः स्त्रियः । गवामतिरसः क्षीरं, क्षीरस्यातिरसो घृतम् ॥ १॥ सर्व एव [वा] विषयमामधर्माः । अथवा उत्तराः शब्दादयो ग्रामधर्मा मनुष्याणां चक्रवर्ति-बलदेव-वासुदेव-मण्डलिकानाम् । तेसु उत्तरेसु वि जंसि विरता समुट्ठिता जासु इथिगासु सम्यग् उत्थिताः समुत्थिताः । कासवस्स अणुधम्मचारिणो, काश्यपः वर्द्धमानस्वामी, काश्यपचीर्णानुचरणशीला: कासवस्स अणुधम्मचारिणो । अथवा ऋषभ एव काश्यपः, तेन 5 चीर्णमनुचरन्ति यथोद्दिष्टम् ॥ २५ ॥ १३५. जे एत करंति आहितं, णायएण महता महेसिणा। ते उहित ते समुहिता, अण्णोण्णं सारेंति धम्मतो ॥२६॥ १३५. जे एत करंति आहितं० वृत्तम् । जे इति अणिहिट्ठणिद्देसो । जे अणुधम्मचरितं कुर्वन्ति आहितं आख्यातम् । केण ?, णायएण महता ज्ञातकुलीयेन । केन महता? इति, ज्ञातृत्वेऽपि सति राजसूनुना केवलज्ञानवता वा । महाँ-10 श्वासौ ऋषिश्च महर्षिः, अधवा मोक्षेसिणा । ते उहित ते समुहिता, उत्थिता नाम मोक्षाय, सम्यगुत्थिताः समुत्थिताः, न यमालिवत् [भगवती श० ९ उ० ३३ ]। शाक्यादयोऽपि हि मोक्षार्थमभ्युत्थिताः । अन्योन्यं च सीदतं सारेंति धर्मत इति धर्मे सीदन्तं धम्मियाए पडिचोदणाए, अथवा धर्मे स्खलितं स्खलन्तं वा धम्मियाए पडिचोदणाए धम्मिएणं पडोआरेणं ॥ २६ ॥ धर्म सम्यगवस्थितश्च भूत्वा १३६. मा पेह पुरा पणामए, अभिकंखे उवधिं धुणित्तए । जे दूंवणतेहि णो णता, ते जाणंति समाहिमाहितं ॥ २७॥ १३६. मा पेह पुरा पणामए० वृत्तम् । “अ-मा-नो-नाः प्रतिषेधे" [ ] मा प्रेक्षस्ख, पुरा नाम पुत्वकालिए पुव्वरत-पुव्वकीलितादि । प्रणामयन्तीति प्रणामकाः दुग्गतिं संसारं वा प्रति धर्मे स्थितम् । सङ्केपार्थस्तुपुव्वकीलितं ण सुमरेजा, धर्म वा प्रति प्रणामयेदात्मानम् । उवधि दवे हिरण्णादि, भावोवधिं अहविधं कम्मं । अभिमुखं कखेजासि त्ति अभिकंखे उवधिं धुणित्तए । मानाधिकारेऽनुवर्त्तमाने जे दूवणतेहि णो णता, जे इति अणिहिट्ठणिहेसो, 20 दुष्टं प्रणताः दूपनताः शाक्यादयः, ते हि मोक्षाय प्रपन्ना अपि विषयेषु प्रणता रसादिषु, नेति प्रतिषेधे, आरम्भ-परिग्रहेषु ये न नताः। ते जानन्ति समाहिमाहितं, त एव ज्ञानवन्तः ये सम्यङ्मार्गाश्रिताः, न तु अज्ञानिनः, न वा समाधिं याणंति । समाधिर्नाम राग-द्वेषपरित्यागः ॥ २७ ॥ स एवं समाधिमार्गावस्थितः १३७. णो काधीए होज्जा संजते, पासणिए ण य संपसारए। णचा धम्म अणुत्तरं, कतकिरिए य णं यावि मामके ॥ २८ ॥ १३७. णो काधीए होजा संजते. वृत्तम् । कथयतीति कथिकः, अक्खाणगाणि गोयरग्गगतो उवस्सयगतो वा अप्रतिमानो कथयति कथिकः । पासणिओ णाम गिहीणं व्यवहारेषु प्रस्तुतेषु पणियगादिषु वा प्राश्निको न भवति, अपाया तत्थ, जो जिव्वति तस्स अप्पियं भवति । संपसारको नाम सम्प्रसारकः, तद्यथा-इमं वरिसं किं देवो वासिस्सति ण व ? त्ति, किं भंडं अग्घहिति वा न वा?, उभयथाऽपि दोषः, अधिकरणसम्भवात् अग्घिहिति ण वहि त्ति । णचा धम्मं अणुत्तरं एवंविधेन न भाव्यम् । कतकिरिओ णाम कृतं परैः कर्म पुट्ठो अपुट्ठो वा भणति शोभनमशोभनं वा एवं कर्त्तव्यमासीद् न 30 वेति वा । मामको णाम ममीकारं करोति देशे ग्रामे कुले वा एगपुरिसे वा ॥ २८ ॥ १एय चरंति खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ २णातेणे महता खं १ पु १ पु २॥ ३ हणित्तए वृ० । धुणित्तए दी० ॥ ४दूमणतेहि खं १ खं २ पु १ पु २ वृपा० दी० ॥ ५ काहिते होज खं १ खं २ पु १ पु २॥ ६ण तावि खं २॥ ७ मामते Jain Education Intemational Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [२ वेयालियज्झयणे बिइओ उद्देसओ किश्च-अयं चान्यः कर्मविदालनोपायः, तद्यथा१३८. छण्णं च पसंस णो करे, ण य उक्कास पगास माहणे। तेसिं सुविवेगमाहिते, पणता धम्मे सुज्झोसितं धुतं ॥ २९॥ १३८. छण्णं च पसंस णो करे० वृत्तम् । द्रव्यच्छन्नं निधानादि, भावच्छन्नं माया । भृशं शंसा प्रार्थना लोभः । 5 उक्कासो मानः । प्रकाशः क्रोधः, स हि अन्तर्गतोऽपि नेत्र-वक्रादिभिर्विकारैरुपलक्ष्यते । उक्तं हि- "कुद्धस्स खरा दिट्ठी." ] य एवं कषायनिग्रहोद्यताः तेसिं सुविवेकः गृह-दारादिभ्यो विवेको बाह्यः, आभ्यन्तरस्तु कषायविवेकः, आहितं आख्यातम् । सुविवेगो त्ति वा सुणिक्खंतं ति वा सुपव्वज त्ति वा एगढं । भृशं नताः प्रणताः । कुत्र नताः ?, धर्मे वा । सुज्झोसितं ति “जुषी प्रीति-सेवनयोः”। धूयतेऽनेनेति धुतं । ज्ञानादि संयमो वा येषां सुज्झोसितं स्वभ्यस्तं तेसिं सुविवेगमाहिते ॥ २९ ॥ स एवं विदालनामार्गमाश्रितः १३९. अणिहे सहिते सुसंवुडे, धम्मट्ठी उवधाणवीरिए । विहरेज समाहितेंदिएँ, आतहितं दुक्खेण लभते ॥ ३०॥ १३९. अणिहे सहिते सुसंवुडे० वृत्तम् । अनिहो नाम अनिहतः परीषहैः, तपःकर्मसु वा नाऽऽत्मानं निधयति । ज्ञानादिषु सम्यग् हितः सहितः, णाणादीहि ३ आत्मनि वा हितः स्वहितः, अथवा यस्त्रिगुप्तः सं सहितः। धर्मेण यस्यार्थः स भवति धम्मट्ठी । भावोवधाणवीरियसंयुक्तः तवे वारसविधे । स एवंगुणजुत्तो विहरेज समाहितेंदिए अनियत15 वासित्वं गृह्यते, समाहितो निगृहीतेन्द्रियत्वं च । उक्तं हिसहेसु य भद्दय-पावएसु सोतविसयं उवगतेसु । तुटेण व रुटेण व समणेण सदा ण होतव्वं ॥ १ ॥ [ज्ञाता० श्रु० १ अ० १७ सू० १३५ पत्र २३३-१] एवं सेसिंदियविसएसु वि । स्यात्-किमर्थं एवंविधः प्रयत्नः क्रियते अतिदुःखश्च ?, उच्यते, आतहितं दुक्खेण लब्भते, तं जधा-"माणुस्स खेत्त जाती." [भाव०नि० गा० ८३१] गाधा ॥३०॥ 20 स्यात्-कथं अनादिमति संसारे अयमात्मा न पूर्वमेवानेन पथा प्रयातः ? इति, उच्यते १४०. ण हि गुण पुरा मैंऽणुस्सुतं, अदुवाऽवितधं णो अधिहितं । मुणिणा सामाइगं पदं, णातएण जगसव्वदंसिणा ॥ ३१ ॥ १४०. ण हि णूण पुरा मऽणुस्सुतं० वृत्तम् । नेति प्रतिषेधे । हि पादपूरणे । नूनं अनुमाने । पुरा इति अतिक्रान्तकालग्रहणम् । अनुगतं श्रुतं अनुश्रुतम् । किञ्च तत् ?, उच्यते, वैश्यते हि-"मुणिणा सामाइयं पदं ।" अथवा सुणेत्ता वि 25 अवितधं णो अधिद्वितं, अवितहं णाम यथावत् , अधिहितं णाम करणे । तदिदं मुनिना सामाइगं पदं आख्यातमित्यर्थः । समता सामाइयं, तच्च अनेकप्रकारम् । कतरेण मुणिणा तदाख्यातम् ?, णातएण जगसव्वदंसिणा, जगे सव्वं पस्सतीति जगसव्वदंसी ॥ ३१ ॥ १च विवेग वृ० दी० । सुविवेग वृपा० दीपा० ॥ २°ता जेहिं सुखं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ३ अणहे वृपा०॥ ४ हिइंदिए, आयहिय खु दुहेण लब्भई खं १ खं २ पु १ पु २॥ ५ सम्यगाहितः समाहितः, णाणा चूसप्र. ॥ ६ समाहितः चूसप्र०॥ ७ मे+अणुस्सुतं मऽणुस्सुतं । अणुस्सुतं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ• दी०॥ ८ अदुवा तं तह णो समुट्टियं खं १ खं २ पु १ पु २ । अदुवा तं तह णो अणुट्ठियं वृ० । अदुवाऽवितहं णो अणुटियं वृपा० ॥ ९सामाइताऽऽहितं, णा खं १ पु १ पु २ । समयाहियाहियं, णा खं २॥ १० णाएणं जग° पु १ पु २॥ ११ इति क्रमाद् अति वा० मो० ॥ १२ अस्यामेव सूत्रगाथायाँ तृतीयचरणरूपेण ॥ Jain Education Intemational Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १३८-४३] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। १४१. एवं माता महंतरं, धम्ममिमं सहिता बहू जणा। गुरुणो 'छंदाणुवत्तगा, विरता तिण्ण मैधोघमाहितं ॥ ३२ ॥ ति बेमि ॥ ॥[वेतालियस्स] बितिओ उद्देसओ सम्मत्तो २-२॥ १४१. एवं माता महंतरं० वृत्तम् । एवं अवधारणे । महदन्तरं मत्वा ज्ञात्वा । तत् कस्य कयोः केषां वा?, उच्यते, सुत्तस्स य असुत्तस्स य, विरतीए अविरतीए, मोक्खसुहस्स संसारसुहस्स य, सच्छासनस्य मिथ्यादर्शनानां च । । अथवा-"इमं धम्मं महत्तरं मत्वा" कुप्रवचनेभ्यः । सहिता नाम ज्ञानादिभिः बहवो जना इति अणंतातीतकाले सिद्धाः संपदं च । गुरुणो छंदाणुवत्तगा, गुरवः तीर्थकरादयः, छन्दः अभिप्रायः । विरता भूत्वा विषय-कषायेभ्यः तीर्णा मधोघं तरन्ति च । द्रव्यौधः समुद्रः, भावौघस्तु संसारः । आहितं आख्यातं कथितमित्येकोऽर्थः ॥ ३२ ॥ ॥ इति [वैतालीये ] द्वितीयोदेशकः समाप्तः २-२॥ [वेयालियज्झयणे तइओ उद्देसओ] ___10 सूयणाधिकारे प्रस्तुते विदारणाधिकारोऽनुवर्तते । उक्तं हि-"उद्देसगम्मि ततिए अण्णाणचियस्स अवचयो होहि ।" [नि० गा० ३३] स च सुहसातस्स ण भवति, परीषहसहिष्णोर्भवति । स कथम् ?, उच्यते १४२. संवुडकम्मस्स भिक्खुणो, जं दुक्खं पुढं अबोधिए। तं संजमतो विचिजती, मरणं हेच वयंति पंडिता ॥१॥ १४२. संवुडकम्मस्स भिक्खुणो० वृत्तम् । संवृतानि यस्य प्राणवधादीनि कर्माणि स भवति संवुडकम्मा । इन्द्रि-15 याणि वा यस्य संवृतानि स भवति संवृतः, निरुद्धानीत्यर्थः । यस्य वा यत्नवतः चंकमणादीणि कम्माणि संवृतानि, अथवा मिथ्यादर्शना-ऽविरति-प्रमाद-कषाय-योगा यस्य संवृता भवन्ति स संवृतकर्मा । भिक्खणसीलो भिक्खु । जमिति अणिहिट्टणिदेसो । दुक्खमिति कम्मं । पुढें णाम बद्ध-पुट्ठ-णिवत्त-णिकाइतं । अबोधिए णाम अण्णाणेण धम्मं अ ताव सुबध्यते स्म । तं संजमतो विचिज्जती, तं पंचणालिविहाडिततडागदृष्टान्तेन निरुद्धेसु च नालिकामुखेषु वाता-ऽऽतपेनापि शुष्यते, ओसिच्चमाणं च सिग्घतरं सुक्खति, एवं संयमेन निरुद्धाश्रवस्य पूर्वोपचितं कर्म क्षीयते । आह-तपः कर्मक्षयाय ?, 20 उच्यते, संयमोऽपि तपोऽभ्यन्तर एव उक्तः, देशप्रकारा इन्द्रियादिसलीनता उक्ता-इंद्रियपडिसंलीणता ५ जोगपडिसंलीणता ६ कसायपडिसलीणता १० । संवृतात्मनस्तु अनशनी-ऽवमौदर्यादितपोयुक्तस्य उत्सिच्यमानमिवोदकं क्षिप्रं कर्मापचीयते, सेलेसिं पडिवण्णो उक्कोसो संवुडो । मणुस्ससंतियं मरणं हेच्च वयंति पंडिता 'मोक्षम् , अथवा म्रियते येन तद् मरणम् , तच्च कर्म संसारो वा, तं हित्वा व्रजन्ति मोक्षं पण्डिताः ॥ १॥ येऽपि नाम न मोक्षं तेनैव भवग्रहणेन व्रजन्ति तान् प्रतीत्यापदिश्यते १४३. जे विण्णवणाहिऽसिता, संतिण्णेहि समं वियाहिता। तम्हा उडे ति पासधा, अदक्खू कामाणि रोगवं ॥२॥ 25 १एवं मंता महत्तरं धम्ममिणं संखं २ वृ० दी। एवं मत्ता महंतरं धम्ममिणं स खं १ पु १ पु २। एवं माता महत्तरं धम्ममिमं स चूपा०॥ २ छंदोऽणुयत्तगा खं १ पु२॥ ३ महोघ खं १ खं २ पु १ पु २॥ ४ बहुवचना चूसप्र० ॥ ५भाषौघं चूसप्र०॥ ६ मओऽवचिज्जई खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ७ भगवत्यां श० २५ उ० ७ सू०८०२ पत्र ९२१ तथा औपपातिकोपाङ्गे सू० १९ पत्र ४० मध्ये संलीनता सप्रभेदा व्यावर्णिता वर्तते ॥ ८°नाव्यामादितपो चूसप्र०॥ ९ मोक्खं, वा. मो०॥ १० ऽझोसिया खं १ खं २ पु २ । अजोसिता पु १ ॥ ११ उडे तिरियं अधे तिधा चूपा० बृपा० । तिधा स्थाने वृपा० तहा वर्तते ॥ बहुवचना चूसप्र०॥ श० २५ उ० ७ ते ॥ ८ नाव्या Jain Education Intemational Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० णिजत्ति-चुणिसमलंकियं [२ वेयालियज्झयणे तइओ उद्देसओ १४३. जे विण्णवणाहिऽझूसिता० वृत्तम् । विज्ञापयन्ति रतिकामाः विज्ञाप्यन्ते वा मोहातुरैर्विज्ञापनाः स्त्रियः, "जुषी प्रीति-सेवनयोः" अझषिता नाम अनाद्रियमाणा इत्यर्थः, विज्ञापनासु हि पञ्चापि विषयाः स्वाधीनाः शब्दादयः। उक्तं हिपुप्फ-फलाणं च रसं सुराए मंसस्स महिलियाणं च । जाणता जे विरता ते दुक्करकारए वंदे ॥ १॥ [ 5 अस्पृष्टा वा ताभिः कौमारब्रह्मचारिणः ते संतिण्णेहि समं वियाहिता, सम्यक् तीर्णाः संवृतात्मानो भूत्वा संसारौधं तीर्णाः, मोक्षं जिगमिषवोऽपि हि अतीर्णा अपि तीर्णा इव प्रत्यवसेयाः। विविधं आहिता वियाहिता । तम्हा उर्दु ति पासधा, तस्मादिति तस्मात् कारणाद् यस्माद् विज्ञापनासु अजूषिता संतिण्णेहि समं वियाहिया । तीर्णमबन्धकत्वं च प्रति समाः । ऊर्द्धमिति मोक्षः तत्सुखं वा, तं दृष्ट्वा कामभो गा रोगवद् द्रष्टव्याः, पक्कार्बुदपरिश्रावणवत् व्रणालेपनवद्वा । पठ्यते च-"उर्दू तिरिय अधे तिधा" उड़ दिव्या कामा, अधे भवणवासिणं, तिरियं तिरिक्ख-मणुस्सजोणि-वाणमंतरा। ते तिविधे वि य 10 दृष्ट्वा कामाणि रोगवद अधिकं अत्यर्थं वा । यथा रोगा दुक्खावहा एवं कामा अपि, अट्ठविधकम्मरोगापन्नो सो भवति । एवं सेसाणि वि आसवदाराणि जोएयव्वाणि ॥ २ ॥ एवं संवुडत्तणं विरइं च कहं तरेज ? दिदंतो १४४. अग्गं वणिएहि आणियं, धारेती रायाणया इहं । एवं परमाणि महव्वताणि, अक्खाताणि सरातिभोयणाणि ॥३॥ १४४. अग्गं वणिएहि आणियं० वृत्तम् । यदुत्तमं किञ्चित् तदग्गं, तद्यथा वर्णतः प्रकाशतः प्रभावतश्चेत्यादि, तच्च 15 रत्नादि, तत्तु द्रव्यं वणिग्भिरानीतं राजानो धारयन्ति तत्प्रतिमा वा । तत्तु वस्त्रमाभरणादि वा, तथैव चाश्वो हस्ती स्त्री पुरुषो वा, यो वा यस्मिन् क्षेत्रे प्रधानः स तत्र तत् प्रधानं द्रव्यं धारयति, शब्दादिविषयोपगतः परिभुत इत्यर्थः । राजस्थानीया जीवाः, जेहिं मिच्छत्तादिदोसा खविता खयोवसममाणिता वा बारसविधा वा कसाया ते परमाणि महव्वतरयणाणि रातीभोयणवेरमणछट्ठाणि राजान इवाग्राणि रत्नानि वणिम्भिरानीतानि धारयन्तीति । अग्रं प्राधान्यम् । पूर्वदिग्निवासिनामाचार्याणामर्थः । प्रतीच्यापरदिग्निवासिनस्त्वेवं कथयन्ति–तेते "जे विण्णवणाहिं अझोसिता संतिण्णेहि समं वियाहिता" 20[सूत्रगा० १४३] ते, न सर्व एवायं लोकः महाव्रतानि प्रतिपद्यते [इति] उच्यते--अग्गं वणियेहि आहितं, अग्गाणि वराणि रयणाणि वणिग्भिरानीतानि धारयन्ति शतसाहस्राण्यनर्धेयाणि वा राजान एव धारयन्ति, तत्तुल्या तत्प्रतिमा वा। कियन्तो लोके हस्तिवणिजः क्रायिका वा ? एवं परमाणि महव्वताणि रत्नभूतान्यतिदुर्द्धराणि, तेषामल्या एवोपदेष्टारो धारयितारश्च ॥ ३ ॥ १४५. जे इध सायाणुगा णरा, अज्झोववण्णा कामेसु मुच्छिता। किमणेण समं पगम्भिता ?, ण वि जाणंति समाहिमाहितं ॥४॥ 25 १४५. जे इध सायाणुगा णरा० वृत्तम् । जे इति अणिहिट्ठणिद्देसो। सायं अणुगच्छंतीति सायाणुगा इहलोग परलोगनिरवेक्खा । एवं इडि-रस-सायगारवेसु अज्झोववण्णा अधिकं उपपण्णा अज्झोववण्णा, तस्मिन्नेव सोतिंदियादिसाए इच्छा-मदणकामेसु य मुच्छिता गिद्धा गढिता अज्झोववण्णा । किमणेण समं पगम्भिता, ते वि अइयारेसु पसज्जमाणा यदा परैश्चोद्यन्ते तदा ब्रुवते-किमनेन स्वल्पेन दोषेण भविष्यति ?, वितधं वा दुप्पडिलेहित-दुब्भासित-अणाउत्तगमणादि ?। एवं थोवथोवं पावमायरंता पदे पदे विसीदमाणा सुबहून्यपि पापान्याचरन्ति । उक्तं च30 करोत्यादौ तावत् सघृणहृदयः किञ्चिदशुभं० [ १°या तृष्टुमब चूसप्र० ॥ २ आहियं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० चूपा० । आहितं आहृतमिति वा योऽर्थः ॥ ३ राईणिया खं १ खं २ पु १। रायाणिया पु २॥ ४एवं परमा महव्वता, अक्खाया उ सराइभोयणा खं १ खं २ पु १ पु२॥ ५°णामार्थः। प्रतीच्या अपर' चूसप्र० ॥ ६ एते इत्यर्थः ॥ ७ आहितं आहृतम् , आनीतमित्यर्थः ॥ ८ कामेहिं वृ० दी०॥ ९किवणेण खं २ पु १० दी। किमणेण इति खं १ पु २ वृपा० दीपा०॥ १० श्रोत्रेन्द्रियादिसाते श्रोत्रेन्द्रियादिसुखे इत्यर्थः॥ Jain Education Intemational Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 सुत्तगा० १४४-४७] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। ७१ दिटुंतो जधा-एगस्स सुद्ध वत्थे पंको लग्गो । सो चिंतेति-किमेत्तियं करिस्सति ? त्ति तत्थेव ह्रसितं, एवं बितियं मसि-खेल-सिंघाणग-सिणेहादीहि सव्वं मइलीभूतं ॥ अधवा मणिकोट्टिमे चेडरूवेण सण्णा वोसिरिता, सा तत्थेव घट्टा । एवं खेल-सिंघाणादीणि वि 'किमेताणि करिस्संति ?' त्ति तत्थेव तत्थेव घट्ठाणि । जाव तं मणिकोट्टिमं सव्वं लेक्खादीहि-श्लेष्मादिभिः मलिनीभूतं दुग्गंधिगं च जातं । भद्दगमहिसो वि एत्थ दिटुंतो भाणितव्यो [ ]। आवंभक्खी राया दिटुंतो य [उत्त० अ०७ गा० ११]। 5 एवं पदे पदे विसीदंतो किमणेण दुब्भासितेण वा स्तोकत्वादस्य चरित्तपडस्स मलिणीभविस्सति ? जाव सव्वो चरित्तपडो मइलितो अचिरेण कालेण, चरित्तमणिकोट्टिमं वा । ण वि ते जाणंति समाहिमाहितं, ते हि णिच्छयणयतो अण्णाणिणो चेव लब्भंति ॥ ४ ॥ पदे पदे विसीदमाणा जया साधम्मिएहिं परेहिं वा चोइता भवंति तदा १४६. वाहेण जधा व विच्छते, अबले होति गवं पैचोदिते। ___जेण तस्स तहिं अप्पथामता, अचयंतो खलु सेऽवसीदती ॥५॥ १४६. वाहेण जधा व विच्छते. वृत्तम् । वाहो णाम लुद्धगो, तेण सरेण तालितो मृगोऽन्यो वा, स तेण ताव परद्धो यावत् श्रान्तश्चत्तारि वि पादे विन्यस्य व्यवस्थितः ततो मरणं चाऽऽसः । अयं तु सौत्रो दृष्टान्तः-वाहेण जहा व विच्छते वाहतीति वाहः शाकटिकोऽन्यो वा, यथेति येन प्रकारेण तेन वाहेन विषमतीर्थे श्रान्तो वा अवहन् प्रतोदेन विविधं क्षतः अबलो नाम क्षीणबलः भरोद्वहने श्रान्तो वा, गच्छतीति गौः, भृशं चोदितः चोद्यमानोऽपि न शक्नोत्युद्वोढुम् । जेण तस्स तहिं अप्पथामता, तस्येति तस्य गोः तस्मिन्निति पांसूत्करे विषमे वा अप्पथामया णाम जेण अवहंतो तोत्तगप्पहारे सहति, 15 जइ थामवं होतो तो ण तुत्तगप्पहारे सहतो । सव्वत्थापि अचयंतो खलु से तीक्ष्णैः प्रतोदाप्रैः तुद्यमानो अवसीदति । अथवा-"से अन्तए अन्त्यायामप्यवस्थायां अन्तशः णातिचए ण सक्केति अवसे विसीदती" । एवं सो वि संयमादिनिरुद्यमः॥५॥ १४७. एवं कामेसणा विदू, अज सुए यहामि संथवं । कामी कामे ण कामए, लद्धे वा वि अलद्धे कण्हुई ॥६॥ 20 १४७. एवं कामेसणा विद्० वृत्तम् । एवं अवधारणे । उक्ता कामैषणा काममार्गणा । विदुरिति विद्वान् । कामविपाकं विदन्निह परत्र च कामपिशाचपीड्यमानश्चिन्तयति-अज्ज सुए पयहामि संथवं, संथवो णाम पुव्या-ऽवरसंबंधो, तं संथवं अद्य श्वः परश्वो वा प्रहास्यामि, स हि तं संथवं उत्सिसृक्षुरपि मुमुक्षुरपि कुटुम्बभरणादिदुःखैरेव हि विवक्षितो गौरिव न शक्नोति उत्स्रष्टुम् । अथवोपदेश एवायम्-एवं कामेसणं विदू० वृत्तम् । एवं अनेन प्रकारेण । काम्यन्त इति कामाः । “एष मार्गणे"। विदारिति विद्वान् , ना विद्वान् । कुटुम्बभरणे दुस्त्यजान् मत्वा तत्र चाशक्तो गौरिवावहन् तुद्यते, कृषि-पशुपाल्या-25 दिषु च कर्मसु वर्तमानो बाध्यते । एवं बह्वपायान् कामान् मत्वा अञ्ज वा सुते वा [पयहेज ] संथवं, श्रुत्वा च संथवं कामी कामे ण कामए, कमणीयाः काम्यन्ते वा कामाः । इन्भेसु वि जधा पण्डुमधुर-उत्तरमधुराइब्भयोः संयोग-विप्पयोगो [ ]। णिमंतिजमाणो वा जधाजो कण्णाए धणेण य णिमंतियो जोव्वणम्मि गहवतिणा । णेच्छति विणीतविणयो तं वडररिसिं णमंसामि ॥ १ ॥ [आव०नि० गा० ७६८]। 30 १आव्वंभक्खी वा. मो० । आम्रभक्षी राजा इत्यर्थः ॥ २ विजए पु १॥ ३ पवोचिते खं १॥ ४ से यांतसो अप्पथामए, णातिवहति अबले विसीयति खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी। णातिवहति स्थाने खं २ णातिवमए इति पु१ णाइवव(ध)ते इति पाठभेदौ दृश्येते । से अंतए अप्पथामए, णातिचए अवसे विसीदति चूपा०॥ ५ सणं विदू खं १ ख २ पु १ चूपा० । °सणे विऊ पु २ ॥ ६ पयहेज खं १ खं २ पु २ वृ० दी० । पजहेज पु १॥ ७ यावि खं १ । आवि पु २॥ ८ अलद्ध खं २ पु१॥ Jain Education Intemational Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ - णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [२ वेयालियज्झयणे तइओ उद्देसओ अलद्धे असंते पत्थेति, उव जिणित्ता भुंजीहामि । कण्हुइ ति क्वचिद् प्रामे वा पुरे वा ॥ ६ ॥ अथवा हीनोत्तम-मध्यमे उपदेशः क्रियते तेसु तेसु पमत्तस्स १४८. मा पच्छ असाधुता तवे, अचेही अणुसासे अप्पगं । अधियं च असाधु सोयती, से थणती परितप्पती बहुं ॥७॥ 5 १४८. मा पच्छ असाधुता तवे० वृत्तम् । मा पच्छेति इयं असाधुता तप्स्यते । असाधुता नाम हिंसादिकर्मप्रवृत्तिः मरणकाले तप्स्यते परत्र वा । उक्तं हिजधा सागडिओ जाणं समं हेच्चा महापहं। विसमं मग्गमोतिण्णे अक्खे भग्गम्मि सोयते ॥ १ ॥ [उत्त० अ० ५ गा० १४] वञ्च बहुं-"अपच्छं आम्वकं भोच्चा, राया रजं तु हारए।" [उत्त० अ० ७ गा० ११] एवं ज्ञात्वा अच्चेही अणुसासे 10 अप्पगं, अतीव अतीहि अत्यन्तं क्रम इत्यर्थः, कुतः ? प्रमादात्, आत्मानमेवाऽऽत्मना अनुशास्ति । किंच-अधियं च असाध सोयती, जधा जधा असाधुता तधा तधाऽधिगं सोयति, इहापि ताव चोराती असाधूणि कम्माणि कातुं गहिता सोयंति, किमु परत्र ?। स्तनति च शरीरादिभिर्दुःखैर्वाध्यमानाः। शोचनं मानसस्तापः, निस्तननं तु वाचिकं किश्चित् कायिकं च । सर्वतस्तप्यते परितप्यते बहिरन्तश्च काय-वाङ्-मनोभिर्वा । बहुं ति अपरिमाणं, पंकोसण्णनागवत् [उत्त० अ० १३ गा०३०] ॥७॥ किञ्च १४९. इह जीवितमेव पैस्सधा, तरुणगो वाससयस्स तिउद्दति । 15 इत्तरवासं व बुज्झधा, गिद्ध नरा कामेसु चिप्पिता ॥ ८॥ १४९. इह जीवितमेव पस्सधा० वृत्तम् । इहेति इह मानुष्ये । जीवति येन तद् जीवितम् । एव अवधारणे । तरुणगो णाम असम्पूर्णवया अन्यो वा कश्चित् । पठ्यते च-"दुर्बलं वाससयं परमायुः" ततो तिउद्दति छिद्यते प्रत्यपायबहुलात् । वक्ष्यति हि-गब्भाय(यि) मिजंति बुया-ऽबुयाणा० [सूत्रगा० ३८७]। इत्तरवासं व बुज्झधा, इत्तरमिति अल्पकालमित्यर्थः, तं बुध्यत अवगच्छत, एवमल्पेऽप्यायुषि बह्वपाये वा । तथापि नाम गृद्धा नरा कामेसु चिप्पिता 20 आक्रान्ताः, न पुनरुत्तिष्ठन्ति तदुल्लङ्घनाय ॥ ८ ॥ किश्च १५०. जे इध आरंभणिस्सिता, आतदंड एगंतलूसगा। गंता ते पावलोगगं, चिरकालं आसूरियं दिसं ॥९॥ १५०. जे इध आरंभणिस्सिता० वृत्तम् । जे इति अणिहिट्ठणिदेसो । इहेति इह मनुष्यलोके पाषण्डिनोऽपि भूत्वा शाक्यादयः । आरंभो हिंसादि तण्णिस्सिता, परदण्डप्रवृत्ता आत्मानमपि दण्डयन्ति, अथवा ण तेसिं इमो लोगो न परलोगो 25 तेनाऽऽत्मानं दण्डयन्ति । एगंतलूसगा एगंतहिंसगा इत्यर्थः, येऽपि न स्वयं घातयन्ति तेऽपि उद्दिश्यकृतभोजित्वाद् वधनमनुमन्यन्ते । एवंविधाः गंता ते पावलोगगं, गंतारो नाम गमिष्यन्ति, पापानि पापो वा लोकः नरकः । चिरकालं ति बहूणि पलितोवम-सागरोवमाणि । आसूरिका दव्वे भावे य । आसूरियाणि न तत्थ सूरो विद्यते, अधवा एगिदियाणं सूरो णत्थि इना.. १भवे खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ २ °सास खं १ खं २ पु १ पु २॥ ३ सोतती खं १ पु १॥ ४ परिदेवती खं १ ख २ पु १ पु २ वृ. दी० ॥ ५मा तेति चूसप्र०॥ ६ वर्चोंबहुरित्यर्थः ॥ ७ पासहा खं १ ख २ पु १ पु २॥ ८ तरुणए वाससयस्स तुट्टति खं २ । तरुणए (तरुणे पु २) वाससयाउ तुट्टति खं १ पु २ वृपा० । तरुणे वाससयस्स तुट्टति वृ० दी। दृब्बल वाससयाउतिउति चूपा० ॥ ९ वासे य बुखं २ पु १। वासे व बु° खं १ पु२॥ १०कामेसु मुच्छिया खं २ वृ० दी। कामेहि मुच्छिया खं १ पु १ पु२॥ ११°य मिजिति त्ति गब्भाया। इत्तर पु० सं० । °य मितिजिति त्ति गम्भाया। इत्तर वा० मो० ॥ १२ लोगतं खं १ पु १। लोगयं खं २ पु २॥ १३ चिररायं आसुरियं खं १ खं २ पु १ पु २० दी.॥ Jain Education Intemational Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा०१४८-५४] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। ७३ जाव तेइंदिया असूरा वा भवंति । दिसं ति दिश्यत इति दिगू। दिग्ग्रहणादष्टादशप्रकारा भावदिक [आचा० नि० गा० ४० तः ६२ ] । एवं गिहिणो वि जे इधं आरंभणिस्सिता आतदंडा एगंतलूसगा ते नरकं यान्ति ॥ ९ ।। १५१. ण ये संखयमाहु जीवितं, तह वि य बालजणो पगब्भती। पचुप्पण्णेण कारितं, के दटुं परलोगमागते ? ॥१०॥ १५१. ण य संखयमाहु जीवितं० वृत्तम् । असंस्करणीयं असंस्कृतं । उक्तं हि दंडकलितं करेन्ता वच्चंति हु इणो य दिवसा य । आयुं संवेल्लेन्ता गता य ण पुणो णियत्तिन्ति ॥ १॥ तह वि य णाम बालजणो हिंसादिषु पापकर्मसु प्रवर्त्तमानः प्रगल्भीभवति धृष्टीभवतीत्यर्थः । यदापि च पापकर्माण्याचरन् परेणोच्यते-'किं परलोगस्स ण बीभेसि ?' ततो भणति-पचुप्पण्णेण कारितं के दर्दु परलोगमागते ?, प्रत्युत्पन्नेनैव सौख्यन कार्यम् , को हि दृष्ट्रा स्वर्ग मोक्षं वा तत्सुखं वा परलोकादायातः ? ॥१०॥ कथं वा साक्षाददृश्यमानः परलोकोऽस्तीत्यध्यवसेयः ? उच्यते१५२. अदक्खुव दक्खुवाहितं, सद्दहसू अदक्खुदंसणा!। हंदि! ह सुनिरुद्धदंसणे, मोहणिएण कडेण कम्मुणा ॥११॥ १५२. अदक्खुव दक्खुवाहितं० वृत्तम् । न पश्यतीति अदक्खुं, अदक्खुणा तुल्यं अदक्खुवत् । दक्खू णाम द्रष्टा । दक्खुणा व्याहृतं दक्खुवाहितं श्रद्दधस्व हे अदक्खुदंसणा! । कधं अदक्खुदसणो ? योऽपि कार्या-ऽकार्यानभिज्ञो सोऽपि 15 अन्ध एव, न दक्खुदर्शनी । हंदि ! हु सुनिरुद्धदंसणे, हन्दीति सम्प्रेषणे, हि पादपूरणे, दृश्यते येन तद्दर्शनम् , निरुद्धं दर्शनं यस्य स भवति निरुद्धदर्शनः, तत् केन ?, मोहनीयेन कर्मणा निरुद्धं, मिच्छादिट्ठी । एवं चारित्रनिरोधेन चरित्ते अचरित्ते वा भावना । निरुद्धं तव ज्ञानं सन्निकृष्टम् , केन ज्ञास्यसि परलोकम् ?, अथवा निरुद्धमिति नानन्तम् , न चक्षुर्दर्शनम् , तत् कथं परलोकं द्रक्ष्यसि ? इति । आत्मादीनि चाचाक्षुषाणि द्रव्याणि ॥११॥ १५३. दुक्खी मोहे पुणो पुणो, "निविदेज सिलोग-पूयणं । एवं सहितेऽधिपासिया, आयतुले पाणेहि भवेजसि ॥१२॥ १५३. दुक्खी मोहे पुणो पुणो० वृत्तम् । दुःखमस्यास्तीति दुःखी, तैस्तैर्दुःखैः पीड्यमानः पुनः [ पुनः ] मोहमुपार्जयति । मुज्झति जेण मोहिज्जति वा स मोहः, कर्मेत्यर्थः, तेन संसारमनुपरीति । यतश्चैवं ततो निविदेज सिलोग-पूयणं, सिलोगो नाम श्लाघा यशःकामता, पूजा आहारादिभिः, दोणि वि णिव्विदेज गरहेज, सत्कार-पुरस्कारौ न प्रार्थयेदयमर्थः । एवं सहितेऽधिपासिया, एवं अनेन प्रकारेण सहितो णाम ज्ञानादिभिः, अधियं पस्सिया अधिपस्सिया । आयतुले 25 पाणेहि भवेजसि त्ति, यदात्मनो नेच्छसि तत् परेषामिति ॥ १२ ॥ योऽपि तावत् १५४. गारं पि य आवसे णरे, अणुपुव्वं पाणेहि संजते। समया सवत्थ सुव्वते, देवाणं गच्छे सलोगतं ॥१३॥ १५४. गारं पि य आवसे गरे० वृत्तम् । अगारत्वम् , अपिशब्दार्थः सम्भावने, किमुतानगारत्वम् ?, आवसतीति आवसे । अनुपूर्व नाम पूर्वं श्रवणम् , ततो ज्ञान-विज्ञाने संयमासंयमश्च, इह तु संयमासंयमो अधिकृतः, दुवालसविधं 30 सावगधम्मं फासितो । समया सव्वत्थ सुव्वते, समभावः समता तां समताम् , सव्वत्थ भावसमता, कडसामाइओ हि १"असंखयं जीविय मा पमायए०" उत्त० अ० ४ गा० १॥२ त खं १ पु१॥३रायणो वा० । राइओ वृ०॥ ४ अक्खु व! वृ० दी.॥ ५ णिजेण खं २ पु १॥ ६मोहं खं २॥ ७निच्छिदिज खं २॥ ८°ऽहिपासते, आयतुलं पाणेहि संजते खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी। तुलं स्थाने तुले खं २ । पाणेहि स्थाने पालेहिं पु १॥ ९ अणुपुब्बि खं २ पु २॥ सूय. सु. १० Jain Education Intemational Jain Education Intermational Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ૪ णिज्जुत्ति - चुण्णि समलंकियं [ २ वेयालियज्झयणे तइओ उद्देसओ सव्वत्थ समतां भावयति । तदनु चाकृतसामायिकः शोभनत्रतः सुव्रतः देवाणं गच्छे सलोगतं समानलोगतं सलोगतं, विविक्कतव-बंभचेर-देवाणं सलोगतं, किं पुण जो महव्वताइं फासेति ? ॥ १३ ॥ यतश्चैवं श्रावका अपि देवलोकं गच्छन्ति जिनेन्द्रवचनानुशास्ताः तेण - 15 १५५. सोच्चा भगवाणुसासणं० वृत्तम् । अनुशास्यते येन तदनुशासनम्, श्रुतज्ञानमित्यर्थः । अथवा अनुशासनस्य श्रावकधर्मस्य फले सच्चे तत्थ करेहुवकमं, सत्ये अवितथे, सद्भ्यो वा हितं सत्यं सत्यवचनं नानृतं संयमो वा, तत्र कुर्यादुपक्रमम् । उपक्रमो नाम यथोपदेशः । अथवा - " सत्यमिति सत्यम् तत्थ करेज उवकमं" ति न वितथं । सव्वत्थ विणीत मच्छरे, सर्वत्रेति सर्वार्थेषु येन विनीतो मत्सरः स भवति विनीतमत्सरः । मत्सरो नाम अभिमानपुरस्सरो रोषः । 10 स चतुर्द्धा भवति, तं जधा - खेत्तं पडुच्च १ वत्युं पडुच्च २ उवधिं पडुच्च ३ सरीरं पडुच्च ४ । एतेसु सव्वेसु उप्पत्तिकारणे विनीतमत्सरेण भवितव्वं । तथा जाति-लाभ तपो - विज्ञानादिसम्पन्ने च परे न मत्सरः कार्यः - यथाऽयमेभिर्गुणैर्युक्तोऽहं नेति, तद्गुणसमाणे वा । दव्वुंछं उक्खलि-खलगादि, भावुछं अज्ञातचर्या । विसुद्धं नाम उग्गममादीहि अकल्पतश्च । आहरे आदद्यात् ॥ १४ ॥ एवम्― १५५. सोचा भगवाणुसासणं, सचे तत्थ कैरेहुवकमं । 30 सव्वत्थ विणीत मच्छरे, उंछं भिक्खु विसुद्धमाहरे ॥ १४ ॥ गुत्ते जुत्ते सदा जते, आत-परे परमायतट्ठिते ॥ १५ ॥ १५६. सव्वं गच्चा अधिट्ठए० वृत्तम् । सर्वं ज्ञेयं यावत् शक्तिर्विद्यते तावदुध्येयम्, ज्ञात्वा च अकृत्यं न कर्त्तव्यम्, कृत्यमाचर्त्तव्यमिति । उक्तं हि – "ज्ञातागमस्य हि फलं ० " [ ] | अधि धम्मं णाणादीणि वा | धम्मेण जस्स अत्थो स भवति धम्मट्ठी तथोपधानवीर्यवान् । गुत्ते जुत्ते सदा जते, [गुत्ते ] त्रिगुप्तः, जुत्तो णाम णाणादीहिं तव-संजमेसु वा, सदा नित्यकालं यतेत यत्नवान् स्यात् । कुत्र यतेत ? तदिदं आत्म-परे आत्मनि परे च आत20 परे, णो अत्ताणं अतिवातेज्ज णो परं अतिवातेज्जित्ति । आत्मनः परं आत्मसु वा परम् किं तं ?, आयतार्थिकत्वम्, अत्थो णाम णाणादि, आयतो णाम दृढप्राहः, आयतविहारकमित्यर्थः ॥ १५ ॥ १५६. सव्वं णच्चा अधिट्ठए, धम्मट्ठी उवधाणवीरिए । १५७. वित्तं पसवो य णीतयो, बालजणो सरणं ति मण्णती । ते मम तेसु वी अहं, णो ताणं सरणं च विज्जती ॥ १६ ॥ १५७. वित्तं पसवो य णातयो० वृत्तम् । वित्तं हिरण्णादि । पसवो 25 पिति-संबंधिणो । बालजणो सरणं ति मण्णती, एतान् बालजनः शरणं मन्यते तं च न भवति । कथम् ?, इह तावत् — च, सयणस्स वि मज्झगतो रोगाभिहओ किलिस्सए एगो । सयणो वि य से रोगं ण विरिंचति णेव णासेति ॥ १ ॥ [ मरण० प्र० गा० ५८३ ] गो-महिसा ऽजा ऽविगादि । णातयो माताएते हि मां दुःखात् परित्रास्यन्ति इह परत्र [ ] सव्वणय-हेतुमुद्धं अप्पाणं जाण णिच्छएणेक्कं । यथा ते मम न त्राणाय तथाऽहमपि न तेषां त्राणं शरणं चेति, इतश्च न भवति शरणम् ॥ १६ ॥ यतः - १ वाण अणु° २ ॥ २ सच्चं चूपा० ॥ ३ करेजव वृ० दी० चूपा० ॥ ४ त्थ अवणीत पु २ वृ० दी० ॥ ५ उक्खल्लख मो० वा० ॥ ६ ततोपधा वा० मो० ॥ ७ आयकवि चूसप्र० ॥ ८ णायतो खं १ पु २ । नातिओ पु १ ॥ ९ तं बाले सरणं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ १० ति खं १ ख २ पु १२ ॥ १९ हेतुसिद्धं पु० विना ॥ For Private Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १५५-६१] सूयगडंगसुतं बिडयमंगं पढमो सुयक्खंघो। १५८. अब्भागमियंसि वा दुहे, अहवोवक्कमिते भवंतए । एगैस्स गती वे आगती, विदु मंता सरणं ण मण्णती ॥१७॥ १५८. अब्भागमियंसि वा दुहे. वृत्तम् । अभिमुखं आगमिकं अभ्यागमिकं व्याधिविकारः, स तु धातुक्षोभादागन्तुको वा । उपक्रमाज्जातमिति औपक्रमिकम् , अनानुपूर्व्या इत्यर्थः, निरुपक्रमायुःकरणम् । भवंतो नाम भवान्तो मरणमेव, का भावना ?, तद्धि यद् बालमरणं न भवति, जरा-कामायुपक्रमतो वा फलप्रपातवत् । तस्यैवंविधमृतस्य एगस्स गती व 5 आगती, एकस्येति पशु-ज्ञातृहीनस्य । एवं विदुः मत्वा न तो वित्त-पशु-नातून शरणं मन्यते ॥ १७ ॥ एवम् १५९. सव्वे सयकम्मकप्पिया, अवियत्तेण दुहेण पाणिणो। हिंडंति भयाकुला सढा, वोधि-जरा-मरणेहऽभिदुता ॥ १८॥ १५९. सव्वे सयकम्मकप्पिया० वृत्तम् । सर्वे इति अपरिशेषाः स्वैः कर्मभिः कल्पिताः, प्रविभक्तविशेषा इत्यर्थः, तद्यथा-पृथिवीकायिकत्वेन० । “कृती छेदने" न विकृतं अच्छिन्नमित्यर्थः, अवियत्तेन वा अधिगच्छन्तेनेत्यर्थः, दहेणेति 10 दुःखिनः प्राणिनः जीवाः हिंडंति भयाकुला सढा, भयैः आकुला भयाकुलाः, भयानि सप्त, भयानि वा दुःखं तेनाऽऽकुलाः, भूता वा, पापकर्मभिः ओतप्रोता इत्यर्थः । वाधि-जरा-मरणेहऽभिहुता, नारक-तिर्यग्मनुष्येषु व्याधिः, जरा तिर्यगू-मनुष्येषु, मरणं चतसृष्वपि गतिषु ॥ १८ ॥ १६०. ईणमो य खणं वियाणिया, णो सुलभं "बोधी य आहितं । एवं सहिते"ऽहिपस्सिया, आह जिणे इणमेव सेसँगा ॥१९॥ १६०. इणमो य खणं वियाणिया. वृत्तम् । इणमो त्ति इदम् , क्षीयत इति क्षणः, स तु सम्मत्तसामाइयादिचतुर्विधस्यापि एकेकस्स चतुर्विधो खणो भवति, तं जधा-खेत्तखणो कालखणो कम्मखणो रिक्ख(क)खणो, एते चत्तारि वि जधा लोगविजए पढमे उद्देसए "खणं जाणाहि पंडिए" त्ति सुत्ते [आचा० श्रु. १ अ०२ उ०१ सू०५ चूर्णी ] भणिता तथा भाणितव्या । विविधं जाणिया विजाणिया । णो सुलभं बोधी य आहितं, बोधी णाणाति तिविधो, आहितं आख्यातम् । उक्तं चलद्धेल्लियं च बोधि अकरेंतो अणागतं च पत्थितो । अण्णं दाई बोधि लब्भिसि कयरेण मोल्लेणं ? ॥ १॥ 20 [आव० नि० गा० १११० पत्र ५०९, उपदेशमाला गा० २९२] विराहितसामण्णस्स हि दुल्लभा बोधी भवति, अवई पोग्गलपरियट्टं उक्कोसेणं हिंडति । एवं सहितेहिपस्सिया, एवं मत्वेति वाक्यशेषः, णाणातिसहितो अधिपासए परीसहे । पठ्यते च-"एवं सहितेऽधियासए" अधियं वाऽऽसए अधियासए। यदुक्तमेवमेतत् क एवमाह ?-आह जिणे इणमेव सेसगा, रिसभसामी भगवं अट्ठावए पुत्तसंबोधणत्थं एवमाह, इदमेव ये चाऽजिताद्याः शेषका जिनाः ते प्राहुः ॥ १९ ॥ किमतिक्रान्ता अनागताश्चैवं जिनाः कथितवन्तः कथयिष्यन्ति च ?, ओमित्युच्यते१६१. अभविंसु पुरा पि भिक्खवो!, आएसा वि भविंसु सुव्वता । एताइं गुणाई आह ते, कासवस्स अणुधम्मचारिणो ॥ २० ॥ 15 १'गमितम्मि वा खं १ पु १ । गमियम्मि वा खं २ पु २॥ २ अहवा उक्कमिते वृ० दी० । अहवा उवकमिए खं २ पु १ वृ० दी० ॥ ३ भवंतरे वृ० दी । भवंतर खं २ वृपा० दीपा०॥ ४ एक्कस्स खं १ खं २ पु १ पु २॥ ५य खं १ वृ० दी० ॥ ६ तद्वैयड्ढवाल पु० सं० । तद्वियद्वबाल वा. मो० ॥ ७ तानित्यर्थः ॥ ८ अव्वत्तेण खं १ पु २ वृ० दी० ॥ ९जाति-जरा खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ १० इणमेव खं १ पु १ पु २ वृ० दी । इणमेय खं २ ॥ ११ विताणिता खं १ ॥ १२ बोधिं च आ° खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ १३ °तेऽहिपासए खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी । तेऽधियासए चूपा. वृपा० दीपा० ॥ १४ सेसता खं १ पु १॥ १५ भिक्खु वो! पु २॥ १६ भवंति खं २ पु १ पु २॥ १७ आहु ते खं २ पु १ वृ० दी । आहिए खं १ पु २ ॥ Jain Education Interational Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्ति - चुण्णिसमलंकियं [३ उवसग्गपरिण्णज्झयणे पढमो उद्देसओ १६१. अभविंसु पुरा पि भिक्खवो० वृत्तम् । अभविष्यन् अतिक्रान्ताः, भिक्षवः ! इति आमन्त्रणम् । आएसा वि भविसु सुव्वता, आदेसा इति आगमेस्सा । एताइं गुणाईं आह ते, एते ये उक्ता इहाध्ययने अप्रमादादिगुणाः सिद्धिगमणसफला । काश्यपः उसभस्वामी वद्धमाणस्वामी वा । अनुगतो वा अनुकूलो वा अनुलोमो वा अनुरूपो वा धर्मः अनुधर्मः, काश्यपस्यानुचरणधर्मशीलाः । द्विधा समासः क्रियते - कासवो जं अणुधम्मं चरति जो वा कासवरस अणुधम्मं चरति 5 ॥ २० ॥ ते च गुणा उक्ताः । पुनरपि चोच्यन्ते— १६२. तिविधेण विपाण मा हणे० वृत्तम् । त्रिविधेन योगत्रय - करणत्रयेण प्राणाः आयुः - बलेन्द्रियाः प्राणाः ते माह । आत्मनो हितं आत्महितं । अणिदाणो ण दिव्व माणुस्सएसु कामभोगेषु आसंसापयोगं करेति । इंदिय-गोइंदिएसु 10 संवुडो | एवं सिद्धा अणंतगा, एवं मग्गं अणुपालेत्ता अतीतकाले अणंता सिद्धा, संपतं संखेज्जा सिज्यंति, अणागते अणता सिज्झिस्संति । अवरे नाम ये वर्त्तमाना आगमिष्याश्चेति ॥ २१॥ 15 20 ७६ 25 १६२. तिविधेण विपाण मा हणे, आयहिए अणियाण संबुडे । एवं सिद्धा अनंतंगा, संपत जे य अणागताऽवरे ॥ २१ ॥ १६३. एवं से उआहु अणुत्तरणाणी अणुत्तरदंसी० । एवं अवधारणे । से इति सो उसभसामी अट्ठाव प अट्ठाणउती सुताणं आह कथितवान् अणुत्तरणाणी अणुत्तरदंसी अणुत्तरणाण- दंसणधरो, एतेण एकत्वं णाण- दंसणाणं ख्यापितं भवति । अरहा णायपुत्ते पूजादीनर्हतीति अर्हा, नास्य रहस्यं ति विद्यते वा अरहा । ज्ञातस्य पुत्रः ज्ञातपुत्रः, णातकुलपसूते सिद्धत्थखत्तियसुते । भगवान् ऐश्वर्यादियुक्तः । वेसालीए ति गुणा अस्य विशाला इति वैशालीयः, विशालं शासनं (विशालशासने ) वा इक्ष्वाकुवंशे भवो वैशालीयः । "विशाला जननी यस्य, विशालं कुलमेव वा । विशालं प्रवचनं चास्य, तेन वैशालिको जिनः ॥ १॥ १६३. एवं से उआहु अणुत्तरणाणी, अणुत्तरदंसी अणुत्तरणाण- दंसणधरे । अरहा णायपुत्ते भगवं, वेसालीए वियाहिते ॥ २२ ॥ त्ति बेमि ॥ ॥ ततिओ उद्देसओ । बितियं वेतालीयं सम्मत्तं ॥ २ ॥ [ ] वियाहितो व्याख्यातः ॥ २२ ॥ इति एवं जम्बूस्वामिन: वृद्धभगवान् आर्यसुधर्मा कथयति - " एवं से उदाहु जाव वियाहितो" । इतिः परिसमाप्तौ अथवा एवमर्थः, एवं इति बेमि, सुधम्मसामिस्स वयणमिदं - भगवता सर्वविदा उवदिट्ठ अहमवि बेमि ।। नयाः पूर्ववत् ॥ ॥ [ इति वैतालीयाख्यं ] द्वितीयाध्ययनं समाप्तम् ॥ १ पाणि खं १२ ॥ २° तसो सं खं १ पु १ पु २ दी० ॥ ३° पति जे खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ४ एतद्द्वाथानन्तरं खं १ १२ आदर्शषु चूर्णि वृत्ति-दीपिकाकृद्भिरनङ्गीकृता एका गाथाऽधिका दृश्यते । सा चेयम् इति कम्मवियालमुत्तमं, जिणवीरेण सुदेसियं सया । जे आचरंति आहियं खवितरया, वह हिंति ते सिवं गतिं ॥ ति बेसि । पु १ प्रतौ गतिं इति नास्ति ॥ For Private Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GO सुत्तगा० १६२-६३ णिजुत्तिगा०४१-४४] सूयगडंगसुत्तं विइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। [ तइयं उवसग्गपरिणज्झयणं ] [पढमो उद्देसओ] इदाणिं उवसग्गपरिण त्ति अज्झयणं । तस्स वि चत्तारि अणुयोगदारा परूवेतव्वा । अत्याधियारो दुविधो-अज्झयणत्याधियारो उद्देसत्याधियारो य । अज्झयणस्थाधियारो-सव्वे उवसग्गा जाणित्ता सम्म अधियासेतव्वा । उद्देसत्थाधियारो-5 पढमम्मि य पडिलोमा १ मायादि अणुलोमगा य वितियम्मि २। ततिए अज्झत्थुवदंसणा य परवादिवयणं च ३॥१॥४१॥ पढमम्मि य पडिलोमा० गाथा । पढमे उद्देसए पडिलोमा, जधा "पुढे [य] दंस-मसएहिं तणफासमचाइता" [सूत्रगा० १७५], आय-पर-तदुभयसमुत्था उवसग्गा भणंति १ । बितिए तु मायादिअणुलोमा उवसग्गा, अण्णे य रायमादी पाएण अणुलोमे उवसग्गे उप्पायति २ । ततिए उद्देसए अज्झत्थविसेसोवदंसणं भण्णिहिति, “के जाणंति विओवातं इत्थीओ10 उदयातो वा ? ।" [ सूत्रगा० २०६] परवादिवयणं,-"संबद्धसमकप्पा हु अण्णमण्णेहि मुच्छिता।" [सूत्रगा० २११ ], परसमयिका परति त्थियभाविता य उवसग्गा उप्पाएन्ति ३ ॥ १॥४१॥ हेउसरिसेहिं अहेउऐहिं ससमयपडितेहिं णिउणेहिं । सीलखलितपण्णवणा कया चउत्थम्मि उद्देसे ४ ॥२॥४२॥ हेउसरिसेहिं० गाथा । चउत्थुद्देसए हेतुसरिसा अहेतू भण्णिहिन्ति, "जधा मंधातई णाम" [सूत्रगा० २३४ ], 15 सीलक्खलिता कुतित्थिया एवं पण्णविंति एवं परूविंति हेत्वाभासादि । अहेतवो भूत्वा हेतुमिवाऽऽत्मानमाभासयन्ति हेत्वाभासाः। ससमयपडितेहिं ससमयजोग्गेहिं, जो (जा) तेसिं समया जुज्जमाणया णिउणा भणिता । अथ आयरिओ ससमयपडितेहिं णिउणेहिं दिटुंतेहिं तेसिं सीलखलिताणं अण्णउत्थियाणं पण्णवणं करेति चउत्थे ४ ॥ २ ॥ ४२ ॥ एवं दुविधो वि अत्याधियारो भणितो । इदाणिं णामणिप्फण्णो णिक्खेवो । तत्थ गाधा उवसग्गम्मि य छक्कं दव्वे चेयणमचेयणं दुविहं। __ आगंतुगो य पीलाकरो य जो सो उवस्सग्गो ॥३॥४३॥ उवसग्गम्मि य छकं० गाधा । णाम-ठवणाओ तधेव । वइरित्तो दव्योवसग्गो दुविधो-चेतनव्वोबसग्गो य अचेतनदव्वोक्सग्गो य । चेतनदव्विगं जं तिरिक्ख-मणुआ णियगसरीरावयवेण आहणंति । अचेतनदव्विगं तं चेव लउडादीहिं । अधवा अभिघातो तडिमादि उवरिं पडति । अथवा उवसग्गो दुविधो-आगंतुगो पीलाकरो य । आगंतुगो चतुप्पदलउडादीहि । पीलाकरो वातिय-पेत्तियादि ॥ ३ ॥ ४३ ॥ खेत्तोवसम्गो जं खेत्तं बहुओघभयं कालो एगंतदूसमादीओ। भावे कम्मस्सुदओ सो दुविहो ओघुवक्कमिओ ॥४॥४४॥ खेत्तं बहुओघभयं० गाधा । ओघो बहुगं उप्पण्णं बहूपसग्गो, जधा बहूपसग्गो लाढाविसयो जहिं भट्टारगो पविट्ठो 25 १'मा नाइकयणुलोमगा य बीयम्मि खं १ ३० । °मा हुँती अणुलोमगा य बितियम्मि खं २ पु २॥ २ अज्झत्थविसीदणा य ख १ ख २ पु २ वृ० चूपा० । तृतीयाध्ययनतृतीयोद्देशकसत्कचूर्णिप्रारम्भोपक्रमणिकायामयमेव पाठो निर्दिष्टोऽस्ति ॥ ३°पहिं समयपतिएहिं ख १ ख २ । “खसमयप्रतीतैः निपुणभणितैर्हेतुभिः” इति वृत्तिकृतः ॥ ४ सो उ उवसग्गो खं २ पु २ ॥ ५°ओघपयं खं १ ख २ पु २ वृ० । ओघभयं वृपा०॥ ६ दुस्समाईओ ख १॥ त्यप्रतीतेः निपुणभ्ययनतृतीयोदेशकासहती अणुलोमगा य Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [३ उवसग्गपरिणज्झयणे पढमो उद्देसओ आसि छतुमत्थकाले, सुणगादीहिं तत्थ गिद्धम्मा खावेंति । ओहभयं भवति जधा भरधवासे । कालोवसगो एगंतदूसमा । सीतकाले वा सीतपरीसहो वा णिदाघकाले उसिणपरीसहो वा, एवमादि कालोवसग्गो भवति । भावोवसग्गो कम्मोदयो। सो पुण दुविधो-ओहतो उवक्कमतो वा । ओहतो जधा णाणावरणं दसणमोहणीयं असुभणामं णियागोतं अंतरायिकं कम्मोदयं ति । उवक्कमियं जं वेदणिज्ज कम्मं उदिजति । दंडै कस सत्थ रज० गाधा [आव० नि० गा० ७२५] ॥४॥४४॥ उँवकमिए संजमविग्घकारए तत्थुवक्कमे पगतं । दब्बे चउविधो देव-मणुस-तिरिया-ऽऽयसंवेतो ॥५॥४५॥ उवकमिए संजमविग्घकारए० गाधा । जे संजमाउ उवक्कामेंति उवसग्गा तेहिं अहियारो । जेण वा दव्वेण दव्वेहि वा तं कम्मं उदीरिजति, जेण संजमातो उवकमाविजति तेण वि अधियारो। ते चउविधा-दिव्वा तिरिक्खजोणिया माणुस्सा आयसंवेतणिया । दिव्वा चउव्विधा-हासा पदोसा वीमंसा पुढोवेमाता। मणुस्सा वि चउव्विधा-हासा पदोसा वीमंसा 10 कुसीलपडिसेवणता । तिरिया चउव्विधा-भया पदोसा आहारा अवच्च-लेणसारक्खणता । आयसंवेतणीया चउव्विधा-घट्टणता लेसणता थंभणता पवडणता, अधवा वातिता पेत्तिया संभिया सन्निवाइया ॥ ५ ॥ ४५ ॥ एवेक्केको चउव्विहो अट्टविहो वा वि सोलसविहो वा ।। घडण जयणा य तेसिं एत्तो वोच्छं अंहीयारे ॥६॥४६॥ ॥तइयज्झयणणिज्जुत्ती सम्मत्ता ॥३॥ 15 एवेकेको चउबिहो० गाधा । अट्ठविहो कहं होति ?, एक्केको अणुलोमो पडिलोमो य । अधवा सव्वे वि सोलसविधा उवसग्गा, चत्तारि चउक्गा सोलस भंगा भवंति । एवं उवसग्गा जाणितव्वा जाणणापरिण्णाए, पञ्चक्खाणपरिणाए अधियासेतव्वा । परिहरंतेण तधा तधा घडितव्वं परिक्कमितव्वं जधा परीसहा णिज्जेज त्ति ॥६॥४६॥ गतो णामणिप्फण्णो । सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारेतव्वं१६४. सूरं मण्णति अप्पाणं जाव 'जेयं ण पस्सति । जुज्झंतं दढधम्मा(?न्ना)णं सिसुपालो व महारधं ॥१॥ १६४. सूरं मण्णति अप्पाणं० सिलोगो । कश्चित् सङ्ग्रामे उपस्थितो स्वाभिप्रायेण शूरमित्यात्मानं मन्यमानो वाग्भिविस्फूर्जन्नुपतिष्ठति जाव जेयं ण पस्सति, जियति जिनाति वा । गर्जते कलभस्तावद् घनमाश्रित्य निर्भयः । गुहान्तरविनिष्क्रान्तं यावत् सिंहं न पश्यति ॥ १ ॥ तावद् गजः प्रश्रुतदानगण्डः, करोत्यकालाम्बुदगर्जितानि । यावन्न सिंहस्य गुहास्थलीषु, लाङ्गुलविस्फोटरवं शृणोति॥२॥ 25 णिदरिसणं-जुज्झंतं दढधम्मा(ना)णं, जुज्झमाणं जुझंतं, दृढं धनुर्यस्य स भवति दृढधन्वा तं दृढधन्वानम् । सिसुपालो व महारचं, मधारधो केसवो, शिशुपालेन तुल्यं शिशुपालवत् । स किल माद्रीसुतः चतुर्भुजो जातः । भीतया पश्चात् तया नैमित्ती पृष्टः-किमिदं रूपम् ? । तेनापदिश्यते-महाद्भुतमेतत्, यं दृष्ट्वाऽस्य एतौ द्वौ भुजौ स्वाभाविको भविष्यतः ततोऽस्य मृत्युरिति । ततः सा माद्री दारकजन्मवर्द्धापकानामागतानां तं दारकं दर्शयति स्म, यथाहं च पादेष्वपातयत् । 30 वासुदेवस्य चाऽऽगतस्य तमालोक्य तौ भुजौ नष्टौ । पश्चात् तस्य मात्रा वासुदेवोऽभयं याचितः । तेनापदिश्यते-अपराध १ छद्मस्थकाले ॥ २ दयितं । उ वा० मो० ॥ ३ "दंड कस सत्थ रजू अग्गी-उदगपडणं विसं वाला। सी-उण्डं अरइ भयं खुहा पिवासा य वाही य ॥ ७२५ ॥ मुत्त-पुरीसनिरोहे जिण्णा-ऽजिण्णे य भोयणे बहुसो । घंसण घोलण पीलण आउस्स उवक्कमा एए॥ ७२६॥" ४ ओवकमिओ संजमविग्घकरो तत्थुवक्कमे खं २ पु २ । ओवक्कमिओ संजमविघायकारि तमुवक्कमे खं १॥ ५ सिभिया पु०॥ ६ एकेको य चउ खं १ खं २ पु २ वृ०॥ ७°विहो दिबाई होइ सोलसविहो उ खं १ वृ०॥ ८ अहीयारो खं २ पु २ वृ० दी०॥ ९जेतं पु १॥ १०°पाले महा खं १ पु २ । पालो व्व महा° खं २॥ ११ “दृढः-समर्थों धर्मः-खभावः. सङ्ग्रामाभङ्गरूपो यस्य स तथा तम्" इति वृत्ति-दीपिकाकृतोर्व्याख्यानम् ॥ Jain Education Intemational Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ सुत्तगा० १६५-६७ णिज्जुत्तिगा० ४५-४६ ] सूयगडंगसुत्तं विइयमंगं पढमो सुयक्खंधो । शतमस्य क्षमयिष्यामि । ततोऽसौ प्रवृद्धं वासुदेवं समक्षं परोक्षं वा गोपाल-वत्सपालादिभिराक्रोशैराक्रुष्टवान् , आज्ञाप्रतिषेधादींश्चापराधान् कृतवान् । ततोऽपराधशते पूर्णे कचिदेवाभिमुखमापतन्तं आक्रोशन्तं 'मत्पथोऽवसर्पस्व' इति, 'नाहमपथा गच्छामि' । अल्पेनैवाऽऽयासेन चक्रधुक सुदर्शनचक्रधारातिपातेन शिरश्छिन्नं कृतवानिति परोक्षो दृष्टान्तः ॥ १॥ अयं तु प्रत्यक्ष: १६५. पयाता सूरा रणसीसे संगामम्मि उवहिते। ___ माता पुत्तं ण याणाति जेतेण परिविच्छते ॥२॥ १६५. पयाता सूरा रणसीसे० वृत्तम् (सिलोगो)। भृशं याताः प्रयाताः, शपति शप्यते वा शूरः, महता उक्किट्ठि-सीहणात-बोल-कलकलसद्देणं पयाताः रणसीसं णाम अग्गाणीकं । समस्तं अस्यते ग्रस्यन्ते वा तस्मिन्निति सङ्ग्रामः । उपस्थिते णाम अन्योन्यबलेषु सभामायोपस्थितेषु । माता पुत्तं ण याणाति, अमाता-पुत्रो यदा सङ्ग्रामो भवति । का भावना ?-तस्यामवस्थायां माता पुत्रं मुक्तं उत्तानशयं क्षीराहारमजङ्गमं भयोद्धान्तलोचना अप्पा(चा)दण्णा ण याणाति, 10 नो(ना)पेक्षते, न त्राणायोद्यमते, हस्तात् कटीतो वा भ्रश्यमानं भ्रष्टं वा न जानीते । जेतेण परिविच्छते, जयतीति जेता अतस्तेन जेत्रा, तेण जेएण परि सव्वतो भावे, समन्ताद् बाणादिभिरायुधैस्तैः क्षतः परिविच्छते, सव्वतो छिण्ण-परिच्छिण्णमित्यर्थः ॥२॥ १६६. एवं सेहे वि अप्पुढे भिक्खुचरियाअकोविदे। सूरं मण्णति अप्पाणं जाव लूहं ण सेवति ॥ ३ ॥ १६६. एवं सेहे वि अप्पुढे० सिलोगो । अप्पुट्ठो णाम अप्पुट्ठधम्मो, अस्पृष्टो वा परीषहैः, अदृष्टधर्मा इत्यर्थः । भिक्खूणां चरिया भिक्खुचरिया, कोविदो विपश्चित् , न कोविदो अकोविदो. न तावत् परीषहोपसर्गः विकोविदः । सो पव्वयंतो चिंतेइ भणति य-किं पव्वजाए दुक्करं कातुं ति ?, किं णिच्छियस्स दुक्करं ?, णणु सीह-वग्घेहिं वि समं जुज्झिज्जति, संगामे य पविसिज्जति, अग्गिपडणं च कीरइ । एवं अदिट्ठपरीसहो सूरं मण्णति अप्पाणं, तपःशूरम् । जधा दव्वसंगामे कुंता-ऽसि-बाणगहणे जुद्धे उवहिते केइ परबलसई सोऊण चेव णस्संति, केइ प्रवृत्ते प्रहताः अप्रहता वा, केइ मारिजंति । एवं 20 भावसंगामे वि सूरं मण्णति अप्पाणं जाव लूहं ण सेवं(व)ति, रूक्षः संयम एव, रूक्षत्वात् तत्र कर्माणि न श्लिष्यन्ति, रूक्षपटे रजोवत्। तत्र केचिद् दृष्ट्रय साधून जल्लादीहिं लिप्ताङ्गान् केचिदर्द्धकृते लोचे केचित् परिसमाप्ते केशान् स्रष्टुं गताः, तत एव यान्ति ॥३॥ उक्ता ओघउपसर्गाः । इदानी विभागश उपदिश्यन्ते । तत्थोवसग्गा परीसहा य एगं चेव काउं उवदिस्संति १६७. जदा हेमंतमासम्मि सीतं फुसति सँवातगं। तत्थ मंदा विसीदति रट्टहीणा व खत्तिया ॥४॥ 25 १६७. जदा हेमंतमासम्मि० सिलोगो । यत्रातीव शीतं भवति, वर्ष-वर्दलादयो वा तीव्रवाता भवन्ति, वातग्रहणात सीह-वग्घ-विरालोपाख्यानं, यधा पोसे वा माहे वा । तत्थ मंदा विसीदंति तस्मिन् काले तत्र, मन्दा उक्ताः, विविधं सीदन्ति विसीदन्ति–अहो! इमा सुदुक्करा पव्वज्जा, बहवो परीसहोवसग्गा विसंधितव्वा । ते एवं चिंतेंता सीयाभिभूता रहहीणा व खसिया, जधा परबलेण उच्छादिते रहे हितसारे य परबलकंते विलुप्यमाणो वा खत्तिओ णाम राया सो जधा सोयति एवं सेहो वि गिरग्गिमरणो वुत्तावगुत्तासु वसधीसु सीताभिहुते विचिंतेति-किमेवंविधाए पव्वज्जाए गहियाए ? 30 ॥ ४ ॥ भणितो सीतपरीसहो । एष एवोपसर्गः, तत्पुरुषोऽयं समासः । तदिदाणी उण्हपरीसहोऽपदिस्सति 15 १ विक्खते खं २ ॥ २ अब्भुट्टे खं १ ॥ ३ भिक्खाचरिया खं २ पु १ वृ० दी । भिक्खाचरिए खं १ पु २॥ ४ संजम वा. मो०॥ ५रजवत् वा० मो०॥६इदाणि वा. मो०॥ ७सवायगं खं २ पु २ । सव्वगं वृ० दी०॥ ८ रजहीणा खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ९ विषोढव्याः । Jain Education Intemational Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [३ उवसग्गपरिणज्झयणे पढमो उद्देसओ १६८. पुट्ठो गिम्हाभितावेणं विमणे सुपिपासिते। तत्थ मंदा विसीदति मच्छा अप्पोदए जधा ॥५॥ १६८. पुट्ठो गिम्हाभितावेणं० सिलोगो । अभिमुखं तापयतीति अभितापः । अशोभनमनाः विमनाः कर्पूरवासितोदकं धाराघरादि वा चिंतेंतो। अथवा तपं प्रति विगतं मनोऽस्य स भवति विगतमनाः । पातुमिच्छा पिपासा । 5सुट्ट पिपासितो। मच्छा अप्पोदए जधा, तदल्पत्वादतीव तप्यन्ते, बहिरुदकतापेन अन्तश्च मनस्तापेन तप्यमानाः यथा सीदन्ति, एवमसावपि जल्ल-मल-खेद क्लिन्नगात्रो बहिरुष्णाभितप्तः शीतलान् जलाश्रयान् धारागृहाणि च चन्दनादींश्चोष्णप्रतीकारान् अनुस्मरन् भृशं अनुशोचते व्याकुलचेता भवति ॥ ५ ॥ वुत्तो उष्णपरीसहो । इदाणी जातणापरीसहो १६९. सदा दत्तेसणा दुक्खं जायणा दुप्पणोल्लिया। कैम्मंता दुब्भगा चेव इच्चाऽऽहंसु पुढोजणा ॥ ६॥ 10 १६९. सदा दत्तेसणा दुक्खं० सिलोगो । सदेति सव्वं कालमविश्रामम् , दत्तग्रहणाद् जातितं च दत्तं च, दत्तमप्येसणीयं च । दुक्खं छुधा-तिसाभिभूतेहिं परिहरितुम् , दुक्खं च पडिसेहिज्जति अणेसणिजं, साम्प्रतसुखाभिलाषी पडुप्पण्णभारिओ जीवो, दितगा य रुस्संति । जायणा दुप्पणोल्लिया दुःखं प्रणुद्यते जायणा, बलदेववत् । वत्तारो य भवंतिकम्मंता दुब्भगा चेव, कृषी-पशुपाल्यादिभिः कुर्मान्तैः आप्ताः (आर्ताः) अभिभूता इत्यर्थः, स्त्री-मित्र-ज्ञाति-स्वामिनां दुब्भगा । इति आहुः पृथक् पृथग् जना विस्तरतो वा जनाः पृथग्जनाः ॥ ६॥ १७०. एते सद्दे अचाएंता गामेसु नगरेसु वा । तत्थ मंदा विसीदति संगार्मम्मि व भीरुणो ॥७॥ १७०. एते सद्दे अचाएंता. सिलोगो । शब्द्यतेऽनेनेति शब्दः । अचाएंता णाम अशक्नुवन्तः सोढुम् । कोदीर्यन्ते ? उच्यते-गामेसु नगरेसु वा, वा विकल्पे, खेड-कब्बडादीसु वि । तत्थ मंदा विसीदंति संगामम्मि व भीरुणो, भीरवो हि सङ्ग्रामे प्राप्ते मरणभयाद् विषीदन्ति, ऊरू खंभइज्जति, खिन्नचित्ता भवन्ति ॥ ७ ॥ १७१. अप्पेगे खुज्झितं भिक्खू सुणी देसति लूसए। तत्थ मंदा विसीदति तेपुट्ठा व पाणिणो ॥८॥ १७१. अप्पेगे खुज्झितं भिक्खू० सिलोगो । अपि एके न सव्वे । खुज्झितो णाम क्षुधितः पिपासुर्वा, तं क्षुत्-तृष्णाप्रतियोगार्थमटन्तं सुणी दसति, श्वसतीति सुणी, लूषयतीति लूषकः भक्षक इत्यर्थः । तत्थ मंदा विसीदति संयमोद्यम प्रति सीदन्ति । दिटुंतो तेऊपुट्ठा व पाणिणो, तेजो नाम अग्निस्तेन दवाग्निना अन्यतमेन वा तेजसा शश-मूषक-मार्जार-कोल25 वृक-शुपक-लता-वितान-वृक्षादयो दह्यमानाः सङ्कुचन्ति । प्राणिग्रहणात् सर्वप्राणिनोऽपि दह्यमाना विसीदन्ति ॥ ८ ॥ १७२. अप्पेगे परिभासंति पाडिपंथियमागता। पडियारगता एते जे एते एवजीविणो॥९॥ १पुढे गिण्हाधिता खं १ खं २ । पुढे गिम्हेऽहिता पु २॥ २ कम्मत्ता दूभगा खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ३"कर्मभिरार्ताः पूर्वखकृतकर्मणः फलमनुभवन्ति, यदि वा कर्मभिः-कृष्यादिभिः आत्ताः-तत् कर्तुमसमर्था उद्विग्नाः सन्तः" इति वृत्ति-दीपिकयोर्व्याख्या ॥ ४ अचाईता खं २ । अभाएंता खं १ । अचायंता पु १ पु २॥ ५ गामंसि नगरंसि वा खं २॥ ६°गामंसि व खं २ पु १॥ ७ भीरुया खं २॥ ८°चिंता चूसप्र० ॥९ जुज्झितं खं १ खं २ पु २ । झुज्झियं पु१खुधियं वृ० दी. ॥१० भिक्खं खं १ खं २ पु १ पु २॥ ११ डसइ खं १ पु १ पु २॥ १२ तेउपु खं २ पु २ । तेजपु. खं १ पु १॥ १३ पडिभा खं २ वृ० दी.॥ १४ तदारवेतणिजे ते जे एते चूण.॥ Jain Education Intemational Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 सुत्तगा० १६८-७५].. . सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। १७२. अप्पेगे पडि(रि)भासंति० सिलोगो । समन्ताद् भाषन्ते परिभाषन्ते । पद्यतेऽनेनेति पन्थाः, पन्थानं प्रति योऽन्यः पन्थाः स प्रतिपथः प्रतिपन्था वा, तेन गच्छतीति प्रातिपथिकः, तं गामाणुगाम रीयंतं केइ पाडिपंथगाः पडिभासंति। अथवा यो यस्य विलोमकः स तस्य प्रातिपथिको भवति, ते तु सर्वे एव कुतीर्थाः सन्मार्गविलोमकाः । कथम् ? अणुसोयपट्ठिए बहुजणम्मि साधवो हि प्रतिश्रोतसा मोक्षमभि प्रस्थिताः, कुतीर्थास्त्वनुश्रोतसा । किं भाषन्ते ? पडियारगता एते. करणं कृतिर्वा कारः, कारं प्रति योऽन्यः कारः प्रतिकारः, तं गताः पडियारगताः पडियाई कम्माई वेदंति, एतेहि अण्णाए । जातीए पंथा उच्छूढा तेण णिय॑णा हिंडंति, ण य दत्ताइं दाणाइं तेण न लभंति, लद्धं पि य ण गेण्हंति, ण वा उदगाणि दत्ताणि तेण ताणि ण पिबंति । जे एते एवजीविणो त्ति जे एते एवंजीवणसीला, तं जधा-कंजिग-उसिणोदगादीहिं अन्ताहारेण य जीवंति । पठ्यते च-"तदारवेतणिज्जे ते" जेहिं चेव दारेहिं कतं तेहिं चेव वेदिजति त्ति तदारवेदणिजं । जधा-अदत्तदाणा तेण ण लभते, सेसं तघेव ॥ ९॥ १७३. अप्पेगे वेइं जुजति चरगा पिंडोलगाऽहमा । ___ मुंडा कंडूविणटुंगा उजल्ला असमाहिता ॥१०॥ १७३. अप्पेगे वई जुंजंति [सिलोगो] | अप्येके न सर्वाः (सर्वे ) वाचं मुंजंति वाचमुदीरयन्तीत्यर्थः । अहो! एते चरगा पिंडोलगा पिंडेसु दीयमानेसु उल्लेति पिंडोलगा । अधमा णाम अधमजातयः, ब्राह्मणा युत्तमाः, क्षत्रियाः वैश्या मध्यमाः, शूद्रा अधमाः । ब्राह्मणस्य किल भिक्षा इष्टा क्षेत्रियर्षीणां च, शेषास्तु यद्यटन्ति क्लेशं कुर्वन्ति ते तत् पिण्डं ति । मुण्डेति अशिखाः । स्वेद-मल-मत्कुणादिभिः खाद्यमाना अङ्गुल-नखशुक्ति-शलाकादीनां कण्डुकितमार्गः विणहूंगा। उजल्ल15 त्ति उवचितजल्ला मलसकटाच्छादिताङ्गाः । “उआय" ति वा पठ्यते च, उजातो मृगो नष्ट इत्यर्थः, उजातमृगसमाः । असमाहित त्ति अशोभना विवृताङ्गत्वात् , अथवा असमाहिता दुक्खिता ॥ १० ॥ १७४. एवं विपडिवण्णेगे अपणा उ अजाणगा। तमातो ते तमं जंति मंदा मोहेण पाउता ॥११॥ १७४. एवं विप्पडिवण्णेगे० सिलोगो । एवं अनेन प्रकारेण, न सम्यक् प्रतिपन्नाः विप्रतिपन्नाः, एगे मिध्यादृष्टयः 20 स्वयमजानकाः न च ज्ञानवतां शृण्वन्ति । अज्ञानं हि तमः, ते ततो अण्णाणतमातो तमंतरं कायाइ उक्कोसकालद्वितीयं मोहणिज्जं कम्मं बंधति, एवं णाणावरणिजं दसणावरणिज, एगिंदियादिसु वा एगंततमासु जोणीसु उववजंति, णिचंधकारेसु वा णरएसु । बुद्धीए मंदा । मोहो अण्णाणं । पाउता छण्णा । अधवा-"मतिमंदा इत्थिगाउ या" मंदविण्णाणा उ स्त्रीमोहेन ॥ ११ ॥ उक्ताः शब्दाः । इदाणिं फासा १७५. पुट्ठो य दंस-मसएहिं तणफासमचाइता। न मे दिट्टे परे लोएं किं परं मरणं सिया ? ॥ १२॥ १७५. पुट्ठो य दंसमसएहिं० सिलोगो । सिंधु-तामलित्तिगादिसु विसएसु अतीव दंसगा भवंति, अप्रावृतास्ते भृशं बाध्यमानाः शीतेन च अत्थरण-पाउरणट्ठताए तणाई सेवमाणा तेहिं विझंति अचाइता अधियासमिति वाक्यशेषः । इदं च दुःखमपि सह्यते यदि नाम परः लोकः स्यात्, स च न मे दिउ परे लोए किं परं मरणं सिया, न हि मयाऽन्येन वा स १ नग्ना इत्यर्थः ॥ २ वयि खं २ । वति खं १॥ ३ नगिणा ख १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ४ उज्जाया चूपा०॥ ५ क्षत्रिये कृषी, अवशेषास्तु अवलगन्ति क्लेशं कुर्वन्ति तेन तत् पिंडोलगा । मुंडे मुद्रिते ॥ ६ यद् घटन्ति पु०॥ ७ अशिषाः चूसप्र० ॥ ८ मतिमंदा इत्थिगाउ या चूपा० ॥ ९पाउडा खं १ खं २ पु १ पु २॥ १०चायिया खं १। चाइया पु १ पु २॥ ११°५ जद पर ख १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ १२ अणधि चूसप्र० ॥ सूय० सु०११ Jain Education Intemational Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [३ उवसग्गपरिणज्झयणे बिइओ उद्देसमो साक्षात् परलोको दृष्टः यनिमित्तं लेशः सह्यते । लेशान् सहमानस्य हि परं मरणं सिया, तदप्यनिष्टम् , मरणमिहेच्छेद् यद्यसौ परलोकः स्यादिति, संदिग्धे तु परलोके किं दुःखेन तपसा कृतेन ? इति । अयमदर्शनपरीषहोपसर्गः ॥ १२ ॥ किश्च १७६. संतत्ता केसलोएणं बंभचेरपराइता। तत्थ मंदा विसीदंति मच्छा पविट्ठा व केयणे ॥१३॥ १७६. संतत्ता केसलोएण. [सिलोगो] । समस्तं तप्ताः [संतप्ताः ] । क्लिश्यन्त एभिराकृष्टा इति केशाः । दुःखमीरवो हि केचित् केसलोयपराजिता विप्पडिवजंति तेषां स एवोपसर्गः । बंभचेरं इत्थिपरीसहो तेण पराइता उवसम्गिता अणुवसम्गिता वा तत्थ मंदा विसीदंति मच्छा पविट्ठा व केयणे, केयणं णाम कडवल्लसंठितं, मच्छा पाणिए पडिणियत्ते उत्तारिजंति इत्यर्थः, खुड्डमादी, तत्थ ते पविट्ठा वरागा सोयंति विसीदति परिघोलंति जैया व पाणियं पि घुलितं ॥ १३ ।। १७७. आयदंडसमायारा मिच्छासंठितभावणा। हरिस-प्पदोसमावण्णा केयि लूसेंति अणारिया ॥ १४ ॥ १७७. आयदंडसमायारा० सिलोगो । आत्मानं दण्डयितुं शीलं येषां ते भवन्ति आत्मदण्डसमाचाराः । मिच्छत्तसंठिता भावणा जेसिं ते भवंति मिच्छासंठितभावणा । ते नु कथमात्मानं दण्डयन्ति ? उच्यते, ते साधून दृष्ट्वा हर्षात् प्रदोषाद्वाऽवपिट्टेन्ति, जधा सो पुरोहितपुत्रः । केयि त्ति ण सव्वे, लूसेंति अक्कोसेंति पिटेंति य अनार्या सणादीहिं ३ ॥१४॥ १७८, अप्पेगे पलियंतम्मि चारो चोरो त्ति सुव्वयं। . 15 . बंधति भिक्खुयं बाला कसाय-वसणेहि य ॥ १५॥ १७८, अप्पेगे पलियंतम्मि० सिलोगो । अपि एके न सर्वे, पडियंतं समन्तादन्तं परियन्तं । कस्य ? देशस्य । तस्मिन्नदेशे पर्यन्ते रीयन्तं कञ्चिद् भाषन्ते-चारिकोऽयम्, चारयतीति चारकः, येषां परस्परविरोधः ते चारिकमित्येनं संवदन्ते । चोरं वा तं सुव्वयं पि सङ्गतं शोभनं व्रतम् । संकिता वा णिस्संकिया वा भूत्वा बंधंति भिक्खुयं बाला, जधा गोसालो बद्धो आसीत् [भाव०नि० गा० ४८४] ।कसाय-वसणेहि य त्ति, तत्पुरुषः समासः द्वन्द्वो वाऽयम्, सभावत एव 20 केचित् साधून दृष्ट्वा कसाइज्जति, वसणं केसिंच भवति-कप्पडिग-पासंडियाँ बाहेति णच्चावेंति वा ॥ १५ ॥ तेष्वेव पर्यन्तेषु मध्यदेशेषु वा कंचि रियमानं कश्चिद् बालो__१७९. तत्थ दंडेण संवीते मुट्टिणा अदु फलेण वा । णातीणं संरती बाले इत्थी वा कुद्धगामिणी ॥ १६॥ १७९. तत्थ दंडेण संवीते० सिलोगो । दंडो णाम खीलो दंडप्पहारो वा । मुट्ठी मुट्ठीरेव । फलं चवेडाप्रहारः । 25 संवीतः सम्प्रहत इत्यर्थः । णातीणं सरती बाले, जइ णाम णातयो केयि एत्थ होत्था (होता) भाति-मित्तादयो णाहमेवंविधां आवतिं पावेतो। इत्थी वा कुद्धगामिणी, जधा सा अचंकारितभट्टा [ दशाश्रु० अ० ८ नि० गा० ५३-५६ चूर्णौ ] कुद्धा गच्छतीति कुद्धगामिणी ॥ १६ ॥ १८०. एते भो ! फैरुसा फासा कसिणा दुरधियासगा। हत्थी वा सरसंवीता कीवा वसगा गया गिहं ॥ १७ ॥ ति बेमि ॥ ॥तृतीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः ३-१॥ १पराजिया खं १ खं २ पु १॥ २°च्छा विट्ठा खं १ पु २॥ ३ जया वि पाणियं धुलितं पु० ॥ ४ लूसंतऽणारिता खं २ पु १ पु २ । लूसंति णारिया खं १॥ ५ पञ्चकल्पमहाभाष्ये एतदुदाहरणं द्रष्टव्यम् ॥ ६ यंतंसि खं १ ख २ पु १ पु २॥ ७°वयणेहि खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ८ या वा होंति ण चूसप्र०॥ ९कैश्चिद् चूसप्र०॥ १० दंडेहिं खं २॥ ११ सरए खं १ पु २॥ १२ कसिणा फासा फरुसा दुर खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ १३ कीवाऽवस गया गिहं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० । तिव्वसढगा गता गिहं चूपा । तिव्वसड्ढे गया गिहं वृपा० ॥ Jain Education Intemational Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , सुत्तगा० १७६-८३]. सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंघो। ८३ १८०. एतेभो ! फरुसा फासा० सिलोगो । फरुसा नाम स्नेहवियुक्तैरुदीरिताः। दुक्खं अधियासिज्जति दुरधियासगा अप्पसत्तेहिं । ते अणधियासेमाणा हत्थी वा सरसंवीता शरप्रहारैरित्यर्थः, यथा रौद्रसङ्ग्रामे हस्तिनः शरसंवीता नश्यन्ति एवं भावसङ्ग्रामादपि परीसहपरायिता क्लीबा वशका नाम परीषहे वशकाः पुनरपि गृहं [गताः] गच्छन्ति गमिष्यन्ति च। पठ्यते च-"तिव्वसढगा गता गिहं । ति बेमि" तीव्र शठाः तीव्रशठाः, तीत्रैर्वा शठाः तीव्रशठाः, तीत्रैः परीषहैः प्रतिहताः॥१७॥ ॥ इति [ तृतीयोपसर्गपरिज्ञाध्ययने उद्देशः] प्रथमः ३-१॥ [उवसग्गपरिणाए बिइओ उद्देसओ] स एव उपसर्गाधियारो अणुवत्तत एव । . १८१. अध इमे सुहुमा संगा भिक्खूणं जे दुरुत्तरा। जत्थं मंदा विसीदति ण चएत्ता जवइत्तए ॥१॥.. 10 १८१. अध इमे सुहुमा संगा० सिलोगो । अथेत्यानन्तर्ये, पडिलोमोवसग्गा गता, इदाणिं अणुलोमा । उक्तं हि"पढमम्मि य पडिलोमा णाती अणुलोमगा य वितियम्मि।" [नि० गा० ४१] सुहुमा णाम णिउणा, न प्राणव्यपरोपणवत् स्थूरमूर्तयः, उपायेन धर्माच्यावयन्ति । उक्तं हि-"शक्यं जीवितविघ्नकरैरप्युपसर्गेरुदीर्णैः माध्यस्थ्यं भावयितुम् ।" [ ] अनुलोमा पुण पूजा-सत्कारादयः भिक्खूणं दुरुत्तरा भवंति । वक्ष्यति हि-"पाताला व दुरुत्तरा"' [श्लो० १९२] सज्जते यत्र स सङ्गः। संगो त्ति वा विग्यो त्ति वा वक्खोडो त्ति वा एगहुँ । अल्पसत्त्वानां दुस्तराः न 15 तु सत्त्ववताम् । जत्थ मंदा विसीदंति, मंदा उक्ताः, विसेसेण सीयंति । ण चएत्ता णाम असकेंता जवइत्तए त्ति वा लाढेत्तए त्ति वा एगटुं॥१॥ .. १८२. अप्पेगे णातयो दिस्स रुयंति परिवारिया। पोसणे तात! पुट्ठो सि केस्स परिचयासि णे? ॥२॥ १८२. अप्पेगे णातयो दिस्स० सिलोगो । अपिः पदार्थसम्भावने । एके न सर्वे ज्ञातयो माता-पित्रादि पव्वयंतं 20 पुव्वपव्वइतं वा दट्ठणं रुयंति । किधं ?, किवण-करुणाणि-"नाध ! पिय! कंत ! सामिय!.” । [ ..] परिवारिया दव्वतो भावतो य । वयं वृद्धा कर्मासहिष्णवः, तदिदानी पोसाहि णे, आबाल्यात् पुट्ठो माँदादिभिः ॥ २॥ १८३. पिता ते थेरतो तात ! ससा ते खुड्डिया इमा। भातरो ते संवा तात! सोदरा किं जहासिणे? ॥ ३ ॥ १८३. पिता ते थेरतो तात० सिलोगो । तात ! इत्यामत्रणम् । उक्तं हि 25 पिता ते स्थविरो तात! वयं च गतयौवनाः । न च तत् कर्म जानासि यज्जानात्यपरो जनः॥१॥ १ अहिमे खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी०॥२'त्थ एगे विखं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥३चएंति ख १ । चयति खं २ पु१पु २ । “शक्नुवन्ति" इति वृत्ति-दीपिकाकारौ॥ ४ जवित्तए खं १ पु २ । जहित्तए ख २ पु १॥ ५ नायया खं १ पु २। णायओ खं २ पु १॥६दिस्सा ख १ ख २॥ ७ रोयंति खं १ खं २ पु १ पु २ ॥ ८परियारिया पु १॥ ९कस्स तात! चयासि णो ख १ ख २ पु २ वृ० दी । कस्स ताय ! जहासिणे पु१ ॥ १० मात्रादिभिरित्यर्थः ॥ ११ पिता त थे खं १। पिया य थे° पु२ ॥ १२ सया पु १। सगा ख १ ख २ पु २ वृ० दी० ॥ १३ चयासि खं २ वृ. दी०॥ ... Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुति- बुण्णिसमलंकियं [३ उवसग्गपरिण्णज्झयणे बिइओ उद्देसभ त्वां हि मुक्त्वा अस्यां दशायां कोऽन्यः पोषयिष्यति ? । तं तु सद्भावतो ब्रूते, कौतुकाद्वा अन्येष्वपि पुत्रेषु विद्यमानेषु ब्रवीति — पोसणे तात ! पुट्ठो सि, कस्स णाम तुमं अम्हे अणाहारं परिचयसि ? । किश्च कश्चिद् ना [जनैः ] सुहृद्भिर्वा निष्क्रामन्नुपदिश्यते--पिता ते थेरतो तात !, थेरगो दंडधरित गहत्थो अत्यन्तदशां प्राप्तः युक्तं त्वयि जीवमाने मल्ल पिंडमडतो ? कथं च तव धर्मः स्यादस्मिन् विलपमाने ? । खसा नाम ते भगिनी, सा य खुड्डलिया भद्र! बृहत्तमा कन्या 5 वा, कोऽस्या निर्वहणं करिष्यति ? । एवमादीणि कार्यसहस्राणि संताणि असंताणि वा उदीरंति । भातरो ते सवा तात ! शृण्वन्तीति श्रवाः आणा उववाय- वयणणिसे य चिट्ठति । समानोदराः सोदराः । सोदरमहणाद् अन्येऽपि ताव एकपित्रादयो छंडिज्जंति सुहं, न तु सोदराः ॥ ॥ किन— વધુ १८४. मातरं पितरं पोस एवं लोगो भविस्सति । 10 १८४. मातरं पितरं पोस० सिलोगो । मातापितरौ हि शुश्रूषा ताविदानीं पुष्णाहि । एवं लोको भविष्य अयं परा । अस्मिंस्तावद् यशः कीर्त्तिश्च भवति मङ्गलं च । उक्त हि 25 एवं खु लोइयं तात ! जे पालंति उ मातरं ॥ ४ ॥ गुरवो यत्र पूज्यन्ते यत्र धान्यं सुसम्भृतम् । अदन्तकलहो यत्र तत्र शक्र ! वसाम्यहम् ॥ १ ॥ [ 1 परलोकश्च भवति गुरुशुश्रूषया । एते हि पदीवसत्थिया समणगा भवंति जे माया- पितरं ण सुस्सूसंति, तेण तेर्सि 15 गुरुपडिणीयाणं कतो लोगो धम्मो वा भविस्सति ? ॥ ४ ॥ किञ्चान्यत् १८५. उत्तरा महुरुल्लावा पुत्ता ते तात ! खुड्डुगा । 20 १८५. उत्तरा महुरुल्लावा ० सिलोगो । उत्तरा नाम प्रतिवर्षमुत्तरोत्तरजातकाः समघटच्छिन्नगाः । पठ्यते च" इतरा मधुरोल्लावा" इतरा णाम खुड्डुलगा अव्यक्तमद्दुरोल्लावकाः । पुत्ता ते तात ! खुड्डगा, तात इत्यामन्त्रणम्, खुड्डग 0 त्ति अप्राप्तवयसः अकर्मयोग्या वा । भारिया ते णवा तात !, भरणीया भार्या, नवा नाम नववधूः अप्रसूता गर्भिणी वा, मासा अण्णं जणं गमेज उब्भामए वा करेज्ज, जीवंत एव तुमम्मि अण्णं पतिं गेण्हेज्जा ततो तुज्झ वि अद्धिती भविस्सति, अम्ह वि य जणे छायाघातो अवण्णओ य भविस्सतीति ॥ ५ ॥ किच-जो जधा पुव्वमासी तस्स हि स एव उवसग्गो पायो भवति, यो नान्यथा ब्रवीति । तद्यथा - यः कृष्यादिकर्मपराजितः तं दृष्ट्वा ब्रुवते भारिया ते णवा तात ! मा सा अण्णं जणं गमे ॥ ५ ॥ १८६. एहि ताव घरं जामो मा तं कम्मसहा वयं । " बितियं पितात ! पासामो जामो ताव सयं गिहं ॥ ६ ॥ १८६. एहि ताव घरं जामो० सिलोगो । जाणामो - जधा तुमं अतिकम्मा भीतो पन्त्रइतो, इदाणि वयं कम्म मत्था कम्मसहा कम्मसहायकत्वं प्रति भत्रतः, तदिदानीं कुमार ! [किं] अतिभणिएण ? चंपगाणि वि हत्थेण मा छिवाहि, तणं वा उक्खिवाहि—त्ति दूरगतं च णं दट्टण भगति । आसण्णं वा गृहम् आगच्छ, बितियं तात ! पासामो जामो ताव सयं गिहं, बितियं पितात ! पासामो, स्वे गृहे तिष्ठन्तमिति वाक्यशेषः, बितियं पि ताव पेच्छामु सव्वाइं णिलगाई ॥ ६ ॥ १ एस पु १ ॥ २ लोप भविस्सती खं १ पु १ पु २ ॥ ३एयं खं १ पु १ ॥ ४ खलु खं २ ॥ ५ जे पोसेति उ मातरं खं १ । जो पोसइ उ मायरं पु १ । जे पोसे पिउ-मायरं पु २ ॥ ६ इतरा मधुरोलावा चूपा० । उत्तरा मधुरोल्लावा खं १ खं २ वृ० दी० ॥ ७ अण्णजणंगमा पु २ ॥ ८ वि य अद्धितीया भवि वा० मो० ॥ ९ ताय ! खं १ खं २ पु १ पु २ दी० ॥ १० बीयं खं १ पु १ पु २ ॥। ११ ताया ! पु २ ॥ १२ जामु खं १ खं २ पु १ पु २ ॥ For Private Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १८४-९१] सूयगडंगसुत्तं विइयमंगं पढमो सुयक्खंधो । १८७. गंतुं तात ! पुणाऽऽगच्छे ण तेणासमणो सिया। __ अकाम परक्कमंतं को तं वारेतुमरहति ? ॥७॥ . १८७. गंतुं तात ! पुणाऽऽगच्छे० सिलोगो । गत्वा स्वजनपक्षं दृष्ट्वा पुनरागमिष्यसि, न हि त्वं तेनाश्रमणो भविष्यसि यस्त्वं स्वजनमवेलोकयित्वा पुनरायास्यसि । अकामकं परक्कमंत, अकामको नाम अणच्छिओ, परक्कमंतं ति पडिजयंतं । अथवा यदा त्वं परं (?) प्राप्य निष्क्रान्तो भविष्यसि भुक्तभोगित्वात् तदा अकामकं पराक्रमन्तं को तं । ॥ ७॥ धरेन्तगं वा पव्वइयगं भगंति१८८. जं किंचि अणगं तात ! तं पि सव्वं समीकतं। . हिरणं ववहाराती तं पि दासामो ते वयं ॥८॥ १८८. जे किंचि अणगं तात ! तं पि सव्वं समीकतं० [सिलोगो । समीकतं ति वा ] उत्तारियं ति वा विमोक्खितं [ति] वा एगहें । हिरण्णं ववहाराती, जो वा णियगो खीगभंडमुल्लो पव्वइतो तं भणंति-हिरण्णं ते कताकतं दासामो, 10 आदिग्रहणात् सुवण्णं वा भंडमुल्लं वा दासामो जेणेव ववह रिस्ससि, व्यवहारार्थ व्यवहाराय । अपि पदार्थादिषु, तच्च ते दासामो, अन्यच्च यद् वक्ष्यसि ॥ ८॥ १८९. इचेवं णं सुसिक्खंतं कालुणतो उवद्विता। विबद्धो जातिसंगेहिं ततो गारं पहावती ॥९॥ १८९. इच्छेवं णं सुसिक्खंतं० सिलोगो । साधुक्रिया सुट्ठ सिक्खंतं सुसिक्वंतं । पाठान्तरम् “सुसेहिति" वा 15 ओसिक्खावेतीत्यर्थः । कालुणतो उवहित त्ति कलुणाणि कंदंता य रुयंता य णिरिक्खता य तं उवसर्गेति समुट्ठिता उप्पव्वावेतुं । स च तेहिं णाणाविधेहिं विबद्धो णातिसंगेहिं ततो गारं पहावती, गारं नाम अगारत्वं भृशं वा धावति [पधावती] ॥९॥ किश्चान्यत्. १९०. वणे जातं जधा रुक्खं मालुया पडिबंधती। ऎवं "ण परिवेति गातओ असमाधिए ॥ १० ॥ 20 १९०. वणे जातं जथा रुक्ख० सिलोगो कंठो । एवंणा परिवेटंति द्रव्यतः । भावतश्च परिवेढणं असमाधीए त्ति तं तं भणंति करेंति य येनास्यासमाधिर्भवति । अथवा असमाधिता ते द्रव्यतो भावतश्च, स तैः करुणादिभिः ॥ १० ॥ १९१. विबद्ध णातिसंगेहिं हत्थी वा वि णवग्गहे। पिट्ठतो परिसप्पंति सूतिय व्व अदूरतो॥११॥ १९१. विबद्धे णातिसंगेहिं हत्थी वा वि णवग्गहे [ पुव्वद्धं ]। कञ्चित् कालं कासारोच्छुखण्डादिभिरनुवृत्त्य पश्चाद् 25 आराप्रहारैर्बाध्यते । तेऽप्येनं पुनर्जातमिव मन्यमानाः तस्याभिनवानीतस्य पिट्ठतो परिसप्पंति । को दृष्टान्तः ?, सूतिय व्व अदरतो, यथा तदिनसूतिका गृष्टिः स्तनन्धकस्य पीतक्षीरस्य इतश्चेतश्च परिधावतो ईषदुन्नतवालधिः सन्नतग्रीवा रम्भायमाणा १पुणो गच्छे खं २ पु १ पु २॥ २ण याय तेण समणो खं २ । ण तेण समणो खं १ पु १ । नेएण समणो पु २ ॥ ३ मगं परकम्म को ते वा खं १ खं २ पु १ । मगं परकंतं को ते वा पु २॥ ४ धारेतु वृपा. दीपा० ॥ ५ °मवलोक्य पुन पु०॥ ६अकामं ते परक्कम अकामको चूसप्र०॥ ७ अनर्थिक इत्यर्थः ॥ ८ 'धरेन्तर्ग' ऋणवन्तम् इत्यर्थः ॥ ९ समीगयं खं १ खं २॥ १० दासामु खं १ खं २ पु १ पु २॥ ११ इञ्चेव णं सुसेहिंति का खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ १२ कालुणिया समुडिया खं १ पु २ । कालुणीय समुट्टिया खं २ । कालुणिया समुवट्टिया पु १ वृ० दी० ॥ १३ निबद्धा पु १॥ १४ णायसं ख २ । णाइसंपु १ पु २॥ १५ जहा रुक्खं वणे जायं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी॥ १६ एव ख १ खं २ पु २ ॥ १७ तं पु१॥ १८ पडिबंधंति खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ १९ नायओ खं १ खं २ पु १ २॥ २०°माधिणा खं १ सं २ पु २'माहिए पु१॥ २१ विबद्धो खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ २२ सूनी गोव्व खं २ पु १ पु २ ० दी० ॥ २३ अदूरगा पु १ वृ. दी। अदूरए खं १ खं २ पु २॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [३ उवसग्गपरिणज्झयणे बिहओ उद्देसओ पृष्ठतोऽनुसर्पति, स्थितं चैनं उल्लिखति, अदूरतोऽस्यावस्थिता स्निग्धया दृष्टया निरीक्षते; एवं बंधवा अप्यस्य उदकसमीपं वाऽन्यत्र वा गच्छन्तं 'मा णासिस्सेहिति' त्ति पिट्ठतो परिसप्पंति, चेडरूवं वा से मग्गतो देन्ति, शयानमासीनं चैनं नेहमिवोद्गिरन्त्या दृष्टया अदूरतो निरीक्षमाणा अवतिष्ठन्ते ॥ ११ ॥ १९२. एते संगा मणुस्साणं पाताला वे अतारिमा। कीवा जत्थ विसण्णेसी णातिसंगेहि मुच्छिता ॥१२॥ १९२. एते संगा मणुस्साणं० सिलोगो । एते इति ये उद्दिष्टाः, सज्यते येन स सङ्गः, मनुष्याधिकार एव वर्त्तते तेन मनुष्यग्रहणम् । पाताला नाम वलयामुखाद्याः, सामयिकोऽयं दृष्टान्तः । उभयाविरुद्धस्तु पातालो समुद्र इत्यपदिश्यते । न तारिमा अतारिमा न शक्यते बाहुभ्यां तर्तुमिति । कीवा कातरा जत्थ विसण्णेसी विसणं एसंतीति विसण्णेसी णाति संगेहि मुच्छिता, विसण्णा वा आसंति विसण्णासी णातिसंगेहि मुच्छिता । अथवा-"कीवा जत्थावकीसंति" अपकृष्यन्ते 10 मोक्षगुणातो धम्मातो वा ॥ १२ ॥ किंणिमित्तं णातिसंगेहि मुच्छिता? १९३. तं च भिक्खू परिण्णाय सव्वे संगा महासवा । ___ जीवितं नावकंखेजा सोचा धम्ममणुत्तरं ॥ १३ ॥ १९३. तं च भिक्खू परिण्णाय सव्वे संगा महासवा [पुव्वद्धं] । तदिति यदेतदुक्तं अथवा तं उपसर्गगणं दुविधाए [ परिणाए] परिण्णाय, सव्वे इत्यपरिशेषाः, संगा एव महान्ति कर्माण्याश्रवन्तीति 15 [महाश्रवाः ।........ .........................................................] ॥ १३ ॥ १९४. अहो ! इमे संति याऽऽवद्या कासवेण पवेइता। बुद्धा जत्थावसप्पंति सीदति अबुधा जहिं ॥ १४ ॥ १९४. [अहो!] इमे संति याऽऽवट्टा० सिलोगो । अहो ! दैन्य-विस्मया-ऽऽमत्रणेषु । अथवा-["अध ] इमे संति आवट्टा" अथेत्यानन्तर्ये, इमे वक्ष्यमाणाः, सन्तीति विद्यन्ते, द्रव्यावर्ता नदीपूरो, भावावर्ता यैः प्रकारैरावर्तन्ते 20 संयमभीरवः । कासवेण पवेइता प्रदर्शिता इत्यर्थः । बुद्धा जत्थावसप्पंति, बुद्धा दुविधा-दव्वे भावे. य, दव्वे णिद्दाबुद्धा, भावे णाणातिबुद्धा, अवसप्पन्ति नाम अवगच्छन्ति । सीदति अबुधा जहिं ॥ १४ ॥ किञ्च-यः कश्चित् संयतः कस्सति रण्णो पुत्तो वा अरायवंसिओ वि को वि रूवसंपण्णो विजा-मंत-कलागुणसंपण्णो वा । तं जधा १९५. रायाणो रायमचा य माहणा अदुव खत्तिया। ___णिमंतयंति भोगेहिं भिक्खुअं साधुजीविणं ॥ १५॥ 25 १९५. रायाणो रायमचा य० सिलोगो । रायाणो चक्कवट्टिमादी, तत्थ बंभदत्तेण चित्तो निमंतिओ । [उत्त० अध्य० १३] रायमच्चा इस्सर-तलवर-माडंबिगादि । माहणा भट्टा । खत्तिया नाम गणपालगा, गणभुत्तीए वा भ्रष्टराज्याः, जे वा अरायाणो अरायवंसिया । णिमंतयंति भोगेहिं भिक्खुअंसाधुजीविणं ति, साधुविहीए फासुएण पडोआरेण जीवति त्ति साधजीवी । अथवा साध्विति प्रशंसायाम् , शोभनेन जीवनेन जीवतीति, संयमजीवितेनेत्यर्थः ॥ १५॥ - के च ते भोगाः? इमे १पच्छतो पु० सं० ॥ २ व दुरुत्तरा १८१ सूत्रगाथाचूर्णौ पाठान्तरम् ॥ ३ जत्थ य कीसंति नाति खं १ पु १ पु २ वृ० दी । जत्थऽवकिस्संति नाति खं २ । जत्थ विसण्णासी णाति' इति जत्थावकीसंति णाति इति च चूर्णी पाठभेदौ ॥ ४ नातिकं खं १ । नाहिकं पु २॥ ५ अहिमे खं १ खं २ पु २ वृ० दी० । अध इमे पु १ चूपा० । अहो! इमे वृपा०॥ ६आवद्या सं १ खं २ पु १ पु २ चूपा० ॥ ७'त्थ पस खं १ पु २॥ ८अदु ख पु २ । ऽदुव खपु १॥ Jain Education Intemational Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० १९२-२००]... सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। १९६. हत्थ-ऽस्स-रह-जाणेहिं विहारगमणेहि य। . .... भुंजाहिमाइं भोगाइं महरिसी ! पूजयामु ते ॥१६॥ १९६. हत्थ-ऽस्स-रह-जाणेहिं० सिलोगो । हत्थि-अस्स-रधादीणि पसिद्धाणि । जाणाणि 'सीदा-संदमाणिगादीणि । तं पुण जले थले य, जले णावादि, थले 'सीता-संदमाणिगादी । विहारगमणा इति उज्जाणियागमणाई। चशब्दादन्यैश्व श्रोत्रादिभिः इन्द्रियक्षमैर्विषयैर्यथेष्टतः भुंजाहिमाई भोगाई, इमानीति विद्यमानानि प्रत्यक्षाणि वा महरिसि! त्ति । एवमपि 5 भवस्सिरे श्चेव पूजनीयश्च ॥ १६ ॥ किश्चान्यत् तमेवं णिमंतयंति १९७. वत्थ-गंध-मलंकारं इत्थीओ सयणाणि य । भुंजाहिमाई भोगाई आयसो! पूजयामि ते ॥१७॥ १९७. वत्थगंधमलंकारं० सिलोगो । वत्थाणि अयिणगादीणि । गंधा कुष्टादयः । अलंकारा हारादयः । स्त्रियः अहं ते धूतं भगिणी वा देमि अण्णं वा जं इच्छसि । सयणाई अत्थुत-पञ्चत्थुताणि । चशब्दादु लोही-लोह-कडाह-कडुच्छुगा-10 दीणि सव्वो घरोवक्खरो सहीणो, जारिसो चेव मम परिच्छतो तारिसं चेव दलयामि । तेनोपचितो भुंजाहिमाई भोगाइं मया विधीयमानानि । आयसो! पूजयामि ते साम्प्रतमेभिर्वस्त्रादिभिः पूजयामि पूजयिष्यामश्च त्वाम् , सर्वस्य त्वं वशयिता भविष्यसि ॥ १७ ॥ किश्चान्यत्-न च तवास्माभिरभ्यर्यमानस्य कृततपःप्रणाशो भविष्यति । कथम् ? १९८. जो तुमे णियमो चिण्णो भिक्खुभावम्मि उत्तमो। अगारमावसंतस्स सव्वो सो चिट्ठती तधा ॥१८॥ 15 १९८. जो तुमे णियमो चिण्णो० सिलोगो । इंदिय-णोइंदिएहिं चीर्णो कृतः। भिक्खुभावम्मि उत्तमो, भिक्खुभावो णाम पव्वज्जा, उत्तमो असरिसो । अगारमावसंतस्स सव्वो सो चिट्ठती तथा । “संविजते" वा, न विनश्यतीत्यर्थः, लोकसिद्धमेवेतं-सुकयस्स विपुंजयोः ।। १८ । किञ्चान्यत्र १९९. चिरं दूइज्जमाणस्स 'दोसो दाणिं कुतो तव ?। इच्चेव णं णिमंतेंतिणीयारेण व सूयरं ॥१९॥ स्स० सिलोगो । चिरं तुमे धम्मो कतो, दूइज्जता य णाणापगारा देसा दिट्ठा तवोवणाणि तित्थाणि य । दोष इदानीं कुतस्तव ? किं त्वया चौरत्वं कृतं पारदारिकत्वं वा ? । अथवा दोसो पावं अधर्म इत्यर्थः, स कुतस्तव ?, क्षपितस्त्वया, कृतं सुमहत् तपः, ण य ते उप्पव्ययंतस्स वयणिजं भविस्सति, किं भवं चोरो पारदारिगो वा?, ननु तीर्थयात्रा अपि कृत्वा पुनरपि गृहमागम्यते । एवमादिभिः हस्त्यश्व-रथ-वस्त्रादिभिः निमन्त्रणैश्च ते णियल्लगा अणियल्लगा वा इच्चेव णं णिमंतेति णीयारेण व सूयरं, णीयारो णाम कुंडगादि, स तेण णीयारेण हितो घरसूयरगो अडविं ण वच्चति 25 मारिजति य, एवं सो वि असारेहिं णिमंतितो ते भोत्तुं मरण-णरगादियाइं दुक्खाई पावेति ॥ १९ ॥ २००. चोदिता भिक्खुचरियाए अचयंता जैवइत्तए। तत्थ मंदा विसीदति उजाणंसि व दुब्बला ॥ २० ॥ 20 १ ज भोगे इमे सग्घे मह खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ २°यामु तं खं २ वृ० दी० । 'याम ते पु २॥ ३-४ शिबिका-स्यन्दमानिकादीनि ॥ ५ आउसो! पूजयामु तं खं १ ख २ पु २ ० दी । आयसो! पूजयामु ते पु १ ॥ ६सुव्वता! खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ७ आगार ख १ ख २॥ ८सव्वो संविजय तधा खं १ खं २ पु. १ पु २ वृ० दी० चूपा० ॥ ९दोसे दाणि कओ तव खं १ पु २॥ १०तं चेव खं १ पु२॥ ११ नीवारेण खं १ खं २ पु १ पु २॥ १२°चजाए खं १ खं २ पु १ पु २॥ १३ अचएंता खं २॥ १४ जवित्तए खं १ पु १ पु २ वृ० दी० । जहेत्तर खं २ ॥ १५ उजाणम्मि व खं १ पु २॥ Jain Education Intemational Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ca णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [३ उवसग्गपरिणज्झयणे तइओं उद्देसओ २००, चोदिता भिक्खुचरियाए सिलोगो। चोदिता नाम अवधिता तज्जिता बाधिता इत्यर्थः । चरणं चर्या चक्कवालसामायारी । जवइत्तए त्ति वा लाढेत्तए त्ति वा एगढं । तत्थ मंदा विसीदति उजाणंसि व दुबला, केइ आयसमुत्थेहिं [ केइ परसमुत्येहिं ] केई उभयसमुत्थेहिं, ऊद्धं यानं उद्यानम् , तत्र (तञ्च) नदी तीर्थस्थलं गिरिपब्भारो वा, तत्थ पुंगवा वि य आरुभंता सीतिजति, किमंग पुण दुब्बला दुपदा चउप्पदा वा ?, एवं के वि पव्ययंता चेव ताव भावदुब्बला 5 सीदति ॥२०॥ किञ्च २०१. अचयंता ये लुहेणं उवधाणेण तजिता। तत्थ मंदा विसीदंति पंकसि व जरग्गवा ॥ २१॥ २०१. अचयंता य लूहेणं० सिलोगो । अचएंता अशक्नुवन्तः । लूहं दव्वे य भावे य, दवे आहारादि, भावलूह संयम एव । तवोवधाणेण तज्जिता अवहत्थिता । तत्थ मंदा विसीदति, पङ्के जीर्णगौः जरद्ववत् ॥ २१ ॥ 10. २०२. ऐयं निमंतणं लड़े मुच्छिता गिद्ध इत्थिसु। . अझोववण्णा कामेसु चोइज्जंता गिहं गय ॥ २२॥ त्ति बेमि ॥ ॥उवसग्गपरिणाए बितिओ उद्देसओ सम्मत्तो॥ २०२. एयं णिमंतणं लटुं० सिलोगो। एतं णिमंतणं ति जं हेट्ठा भणियं, लद्धं प्राप्तुम् । मुच्छिता विसएसु । गिद्धा इत्थिगासु । अझोववण्णा कामेसु, कामा-इच्छा-मदणकामा । चोइअंता णाम णिन्भत्थिजंता परिस्सहेहिं णिमंतिजमाणा 15 वा गिहं गय त्ति बेमि, पुनर्गृहं गताः, पुनर्गृहस्थीभूता इत्यर्थः ॥ २२ ॥ ॥ [उवसग्गपरिणाए बितिउद्देसओ] ३-२॥ [ उवसग्गपरिणज्झयणे तइओ उहेसओ] णिज्जुत्तीए वुत्तो दुविधो उवसग्गो-ओहे ओवकमे य [नि० गा० ४४] अज्झत्थ विसीयणा य [नि० गा..], स च बालपव्वइतो तरुणीभूतश्चिन्तयति-चिरकालं प्रव्रज्या दुष्करा कर्तुमित्यतोऽवसीदति । दृष्टान्त: २०३. जधा संगामकालंसि पच्छतो भीरूवेहति। वलयं गहणं णूमं को जाणेति पराजयं ॥१॥ २०३. जधा संगामकालंसि० सिलोगो । येन प्रकारेण यथा । सनामकालो नाम समभिचारितं युद्धम् । तत्थ कोइ वचतो भीरू पच्छतो उवेहति । वलयं गहणं णूम, वलयं णाम एक्दुवारो गड्डापरिक्खेवो वलयसंठितो वलयं भण्णति, गृह्यते यत् तद् गहनं वृक्षगहनं लता-गुल्म-वितानादि च, नूमं नाम अप्रकाशं जत्थ णूमेति अप्पाणं गडाए दरीए वा । को 25 जाणेति पराजयं ति दैवायत्तो हि पराजयो ॥ १॥ २०४. मुहुत्ताणं मुहुत्तस्स मुहुत्तो हँवति तारिसो। पराजियाऽवसापामो इति "भीरू उवेहती ॥२॥ २०४, मुहुत्ताणं मुहुत्तस्स० सिलोगो । मीयतेऽनेनेति मुहूर्तः। बहूनां हि मुहूर्तानां एक एव मुहूर्तो भवति यत्र विजयो भवति पराजयो भवति वा । जयश्चेद् इत्यतः शोभनम् , पराजयश्चेदित्यतोऽवरम् , पराजिया मो अवसर्पिष्यामः । अवसर्पितो इति भीरू उवेहती॥२॥ एस दिट्ठतो । अयमर्थोपणयो १ अपहृताः॥ २ व खं १ खं २ पु १ पु २॥ ३ वियदृति खं १॥ ४सिरंसि व जर खं १ पु २ । उजाणंसि जर खं २ । थलंसि व जर° पु १॥ ५ एवं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ६ कामेहिं खं १ खं २ पु १ पु २॥ ७°ता गया गिह ॥ ति खं २॥ ८ गत्वा पुनर्गृहस्थीभूत्वा चूसप्र.॥ ९°कालम्मि पिट्टतो भीरु पेहती ख १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ १० होति खं २ पु १॥ ११ भीरु खं : खं २ पु १ पु २ ॥ Jain Education Intemational Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा. २०१-८] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंग पढमो सुयक्खंधो। २०५. एवं तु समणा एगे अवलं णचाण अप्पगं । अणागयं भयं दिरंस अवकप्पंतिमं सुतं ॥३॥ २०५. एवं तु समणा एगे० सिलोगो । एवमनेन प्रकारेण । तु पूरणे । एगे ण सव्वे । संजमे तैस्तैः प्रकारैः अबलं ज्ञात्वा अप्पगं अणागयं [ भयं] दिस्स, अणागतं णाम अपत्तं ‘मा णाम एवं होज' त्ति । ततः अवकप्पंतिम सुतं, सुतं अव[म] रक्षणादि अवकल्पयन्ति, अधीयन्त इत्यर्थः । इमानीति अर्थोपार्जनसमर्थानि गणिय-णिमित्त-जोइस-वाय-5 सद्दसत्थाणि ॥ ३ ॥ २०६. को जाणति वियोवातं इत्थीतो उदगातो वा। चोदिज्जंता पवक्खामो ण णे अत्थि पकप्पियं ॥४॥ २०६. को जाणति वियोवातं० सिलोगो । विओवातो णाम व्यापातः, सो उण इत्थीपरीसहतो भवति, ण्हाणपियणादिणिमित्तं उदगातो वा, वा विकप्पे, जो वा जस्स पलिओवमादि । परिसहजिता अमुकेण चेव लिंगेण कोंटल-वेंटलादीहिं 10 कज्जेहिं अट्टज्झाणेण चोदिजंता पवक्खामो, चोदिजंता पुच्छिज्जंता, प्रायशः कुण्टलट्ठीओ लोगो समणे पुच्छति तत्थ चरेस्सामो विज्जा-मंते य पउंजिस्सामो। ण णे अत्थि पकप्पियं ति ण किंचि अम्हेहिं पुव्वोवज्जितं धणं पेइयं वा । एवं णच्चा पावसुतपसंग करेंति ॥ ४ ॥ २०७. ईच्चेवं पडिलेहंति वलयाइपडिलेहिणो। वितिगिंछंसमावण्णा पंथाणं व अकोविता ॥५॥ २०७. इच्चेवं पडिलेहंति० [सिलोगो] । इति एवं इच्चेवं, पडिलेहंति णाम समीक्षन्ते सम्प्रहारेंति, भाववलय. भावग्गहण-भावणूमाइं पडिलेहंति । वितिगिछसमावण्ण त्ति, किं संजमगुणे सकेस्सामो ण सकेस्सामो? त्ति । उक्तं हि "लुक्खमणुण्हमणियतं कालाइकंतभोयणं विरसं।" [ दिद्वैतो-पंथाणं व अकोविता. जधा अदेसितो विगलपधे चितेंतो अच्छति-किमयं पंथो इच्छितं भूमि जाति ?। एगत्तो वि ण णिव्वहंति अकोविया अयाणगा ॥ ५ ॥ उक्ता अप्पसत्था । इदाणिं पसत्था २०८. जे तु संगामकालम्मि णाता सूरपुरंगमा। ण ते पितो पेहंति किं परं मरणं भवे ॥६॥ २०८. जे तु संगामकालम्मि० सिलोगो । जे त्ति अणिदिट्ठणिदेसे । तुः विसेसणे । ज्ञाता णाम प्रत्यभिज्ञाता नामतः कुलतः शौर्यतः शिक्षातः । तद्यथा-चक्रवर्ति-बलदेव-वासुदेव-माण्डलीकादयः । प्राकृताश्च वीरपट्टगेहिं बद्धगेहिं सण्णद्ध-बद्ध-वम्मिय-कवया उप्पीलियसरासणपट्टिया गहियाउध-पधरणा समूसियधयग्गा सूरा एव चक्रवर्त्यादीनां पुरतो 25 गच्छंति सूरपुरंगमा, न ते वलयादीणि पडिलेहन्ति । ते तु संपहारेंतितरितव्या व पइणिया, मरितव्यं वा समरे समथएणं । असरिसजणउल्लावया, ण हु सहितव्वा कुले पसूयएणं ॥ १ ॥ [भाव. नि० गा० १२५६ हारिवृ. पत्र ५५७-२] परबलं जेतव्यं वा मरितव्वं वा । ण ते पिट्ठतो पेहंति, अपत्ते जुद्धे जुद्धमाणे वा । किं परं मरणं भवेत् ?, मरणादप्यनिष्टतमं अश्लाध्यत्वम् , मरणादपि विशिष्यते भग्नप्रतिज्ञजीवितम् ॥ ६ ॥ 15 20 30 १अकरंण खं १॥ २दिस्सा खं २॥ ३ के जाणंति विओवातं ४१ नियुक्तिगाथाचूर्णी पाठान्तरम् ॥ ४ जाणाति खं १ खं २ पु २॥ ५ विऊवातं खं १ खं २ । विओवायं पु १ पु २॥ ६ नो णे पु १ ॥ ७ व्युपातः वा० मो० ॥ ८ इच्चेवण पखं २ पु १॥ ९°गिच्छं स ख २ वृ० दी०॥ १० वा खं २॥ ११ पिट्ठमुवेहिंति खं २ वृ० दी० । पिट्ठ उवेहिंति पु १ पुटमुवेहिंति खं १ । पुढें उवेहंति पु २॥ १२ सिता खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ १३ गृहीतायुध-प्रहरणाः ॥ सूय सु० १२ Jain Education Intemational Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..."णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [३ उवसग्गपरिणज्झयणे तइओ उद्देसओ उक्तः प्रशस्तदृष्टान्तः । तदुपसंहारः प्रशस्त एव२०९. एवं समुट्टितं भिक्खुं वोसिज्जाऽगारबंधणं। आरंभं [वि]तिरियं कद्दु अत्तत्ताए परिव्वए ॥७॥ २०९. एवं समुद्वितं भिक्० सिलोगो । सम्यग् उत्थितं समुत्थितं दव्यसमुत्थाणेण भावसमुत्थाणेण य । अगार5बन्धनं छित्त्वा अज्झत्थतो अवसीतमाणं आरंभ [वि] तिरियं कटु त्ति दव्वे भावे चाऽऽरम्भः, वितिरियं णाम वितिरिच्छं वोलेंति, अनुलोमेहिं दुक्खमतिकाम्यन्ते नदीश्रोतोवत् । परीसहोवसम्गाणि जिणिऊण जेव्वाणरजकंखी अत्तत्ताए आत्महिताय सर्वतो संब्रजेत्, सिद्धिगमनोद्यतेन मनसा । अथवा-आतो मोक्षः सञ्जमो वा अस्यार्थः “आतत्थाए"। अथवा आप्तस्याऽऽत्मा आप्तात्मा, आप्तात्मेव आत्मा यस्य स भवति आप्तात्मा इष्टः, वीतराग इव ब्रजेदित्यर्थः ॥७॥ अज्झत्थविसीदण त्ति गतं । इदाणिं परवादवयणं । तं अत्तत्ताए परिव्वयंत10 २१०. तमेगे परिभासंति भिक्खुयं साहुजीविणं ।। ___ "जे ते उ एवं भासंति अंतए तेऽसमाहिते ॥ ८॥ २१०. तमेगे पडिभासंति० सिलोगो । तमिति तं अत्तयाए पसंवुडं रीयमाणं, एगे ण सव्वे, समंता भासंति परिभासंति, आजीवकप्रायाः अन्यतीर्थिकाः, सुत्तं अणागतोभासियं च काऊण बोडिगा। साधुजीविणं ति णाम साधुवृत्तिः, अपापजीविनमित्यर्थः । जे ते [उ] एवं भासंति अंतए तेऽसमाहिते, अंतए नामं आभ्यन्तरतः दूरतः तेऽसमाहिए, 15 णाणादिमोक्खा परमसमाधी, अत्यन्तअसमाधौ वर्तन्ते । असमाहिए अकारलोपं कृत्वा, संसारे इत्यर्थः ॥ ८ ॥ किं प्रभाषन्ते ?२११. संबद्धसमकप्पा हुँ अण्णमण्णसमुच्छिता। पिंडवातं गिलाणस्स जं सारेध दलाध य ॥९॥ २११. संबद्धसमकप्पा हु० सिलोगो । समस्तं बद्धाः संबद्धाः पुत्र-दारादिभिम्रन्थैर्गृहस्थाः, सम्बद्धैः समकल्पाः 20 तुल्या इत्यर्थः, जधा गिहत्था "माता मे पिता में" [आचा० श्रु० १ अ० २ उ० १ ० १] त्ति एवमादिभिः सङ्गैर्बद्धाः। अण्णमण्णसमुच्छिता णाम माता पुत्ते मुच्छिता पुत्तो वि मातरि, एवं भवन्तोऽपि शिष्या-ऽऽचार्यादिभिः परस्परं संबद्धाः । अन्यच्चेदं कुर्वीत-पिंडवातं गिलाणस्स जं सारेध दलाध य, पिण्डस्य पातः पिण्डपातः भैक्षम्, एवं पिंडवायं गिलाणस्स आणेत्ता देध, यच्च परस्परतः सारेध वारेध पडिचोदेध सेजातो उट्ठवेध त्ति, जं च गिलाणस्स आयरिय-वुड-मामाएसु आहार-उवधि-वसधिमादिएहि य उवग्गहं करेह ॥ ९ ॥ 25 २१२. एवं तुम्भे सरागत्था अण्णमण्णमणुव्वसा। णट्ठसप्पधसब्भावा संसारस्स अपारगा ॥१०॥ २१२. एवं तुब्भे सरागत्था अण्णमण्णमणुव्वसा० सिलोगो । रागत्थिता सरागत्था सदोस-मोहा । अन्योन्यस्य अनुगता वशं अणुव्वसा । णट्ठसप्पथसब्भावा, शोभनः पन्थाः सत्पन्थाः ज्ञानादि, सतो वा भावः सद्भावः, सत्पथसब्भावो नाम यथार्थोपलम्भः । संसारस्स अपारगा पारं गच्छन्तीति पारगाः, न पारगा अपारगाः ॥ १० ॥ एवं भासमाणेसु १एवं समुट्टिए भिक्खू खं १ ख २ पु १ पु २ बृ० दी० ॥ २आतत्ताए पु १। आतत्थाए चूपा० ॥ ३ एतद्गाथानन्तरं खं २ पु १ प्रतौ अध्यात्मविषीदनार्थाधिकारो गतः इति वर्तते ॥ ४ जे ते उ परिभा खं १ खं २ पु १ पु २ । जे एवं परिभा वृ० दी०॥ ५ अंतरे पु १॥ ६ ते समाहिए वृ० दी०॥ ७ अतियार वा० मो० ॥ ८ नाम नाभ्य° चूसप्र० ॥ ९क्खो प° वा० मो० ॥ १० दु ख १ । उ पु २॥ ११ मण्णेसु मुखं ११ पु २ वृ० दी । मण्णे समु° खं २॥ . Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० २०९-१५] सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो । २१३. अह ते पंडिभासेज भिक्खू मोक्खविसारदो । एवं तुभेऽवभासंता दुवक्खं चेव सेवधा ॥ ११ ॥ २१३, अह ते पडिभासेज [सिलोगो] । अथेत्यानन्तर्ये, तान् प्रतिभाषते भिक्खू मोक्खविसारदो, विसारदो नाम सिद्धान्तविज्ञायकः । स किं पडिभासति ?, एवं तुन्भेऽवभासंता दुवक्खं चैव सेवधा । दुपक्खो णाम संपराइयं कम्मं भणति गृहस्थत्वं वा ॥ ११ ॥ किञ्च २१४. तुम्भे भुंजह पाएस गिलाणो अभिहडं ति य । तं च बीओदगं भोच्चा तमुद्देसाद जं कडं ॥ १२ ॥ २१४. तुम्भे भुंजह पाएसु० सिलोगो । तुब्भे जेहिं भिक्खाभायणेहिं भिक्खं गेण्हध तेहि आसंगं करेध, आजीवका रात कंसपादेसु भुंजंति, आधारोवकरण-सञ्झाय-ज्झाणेसु य मुच्छं करेध, गिलाणस्स य पिंडवातपडियाए गंतुमसमत्थस्स भत्तं मत्तेहिं कुलगेण वा अण्णतरेण वा मत्तेहिं अभिहडं भुंजध, एवं तुग्भेहिं पायपरिभोगेधिं बंधोऽणुण्णा तो 10 भवति, अन्तरा य कायवधो सो य दुध णिमित्तं, आणंतो भत्तिमतो वि कम्मबंधेण लिप्पति, पाणिपायं पि ण य कायन्वं जति पोदे दोसो, स च किं तुज्झ देतो णट्ठसप्पधसब्भावो ? उदाहु संप्पधि वट्टति ? । अविण्णाणा य मिगसरिसा तुब्भे, जेण असंकिताई संकध संकितट्ठाणाई ण संकध त्ति-तं च बीओदगं भोच्च त्ति कंदमूलाणि ताव सयं भुंजध, सीतोदगं पिबध, एवं पुढवि-उ-वावधे वट्टध, जं च छक्कायवधणणिष्कण्णं उद्देसियं तं भुंजध, तुब्भे चैव गिहत्थसरिसा पावतरा वा गिहत्थेहिं, येन ते गृहस्था अनभिगृहीतमिध्यादृष्टयोऽपि भवन्ति, न तु भवन्तः, जेण अभिग्गिहीतमिच्छद्दिट्ठिणो साधुपरिवार्य 15 च करेध । दव्वं खेत्तं कालं सामत्थं चप्पणो वियाणित्ता की तकड - ऽच्छेज्जादिसु वि दोसा भाणितव्वा ।। १२ । ते एवं असंजतेहिंतो वि पावतरा कता समाणा महता अपत्तिएण - उज्जुया पु २ ॥ सं० मो० ॥ २१५. लित्ता तिव्वाभिंतावेणं उज्जाता असमाहिता । णातिकंडुइयं साधु अरुकस्सार्वैरज्झति ॥ १३ ॥ २१५. लित्ता [ तिव्वाभितावेणं० सिलोगो ] । तिव्वाभितावो णाम तीव्रोऽमर्षः । दंसणमोहणिज्ज कम्मोदरणं 20 कोध-माण-कसायोदएण य लित्ता । उज्जाता णाम शून्या । एतदेव व्याचष्टे - अण्णाणां दंसण-चरितेहिं असमाहिता, तैरेव विहीणा । णातिकंडुइयं साधु त्ति जधा कंडुइयं [ण] साधुति, तं अरुकस्स अवरज्झति, पच्चुय पीडाहेतुत्वात् एवं साधुहीणा व अपव्था । अधवा - " लित्ता तिव्वाभिलेवेणं" तेण मिच्छादंसणा र्धमलेवेण लित्ता गुणेहिं शून्या बुद्ध्यादीहिं असमाहिता आतुरीभूता भणति - जुत्तं णाम तुब्भेहिं अम्हे गिहत्थसरिसा काउं पापतरा वा, तेऽत उच्यन्ते - गातिकंडुइतं साधु, साधु णाम सुहु, अरुअं हि रुज्जमाणं खज्जइ, तं जतिण (? जन्तेण) सुठु कंडूइज्जइ, "तेतेणातिकंडूइणं ण साधु, अवरुज्झति 25 अरुगस्स अरुअइत्तस्स वा, अर्थात् प्राप्तं अतिकंडुइयं ति भृशमपराध्यते, नातिरूढव्रणस्य, एवं यद्यहं त्वया नातिनिष्ठुरं उक्तों भविष्यति ततोऽहमपि नातिनिष्ठुरमेवापशपत् (?) त्वया वाऽहं यत्किञ्चन प्रलापिनाऽसम्बद्धसमकल्पोऽपदिष्टः, न चाहं तैर्गुणैर्युक्तः, भवन्तस्तु कन्दमूलोदकभोजिनः उद्दिश्यकृतभोजिनश्च सच्छासनप्रत्यनीकाश्च तेन न कथं गृहस्थैः पापतरं ? इति ॥ १३ ॥ एवम् - १ परिभासिज्जा खं २ पु १ पु २ वृ० दी० । परिहासिजा खं १ ॥ २ भे पभासेंता खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० । भे विभासेंता पुचपा० ॥ ३=से विभा पु० ॥ ४ गिलाणा अभिहडं ति य खं १ पु २ । गिलाणाभिहडं ति य खं २ । गिलाणाभिहडम्मि य पु १ ५ बीतोदगं खं २ ॥ ६ परकीयेषु कांस्यपात्रेषु भुञ्जन्ति, आहारोपकरण - ॥ ७ पात्रपरिभोगैः ॥ ८ तव ॥ ९ पात्रे ॥ १० सत्पथे ॥ ११ भिलेवेणं चूपा० ॥ १२ उज्झिया वृ० दी० । उज्जया खं १ पु १ በ । उजुत्ता खं २ । १४ वरुज्झति पु २ चूपा० ॥ १५ णाण दंस' पु० १८ वापशवत् पु० । वापश्ययत् वा० मो० ॥ १६ ९१ १३ सेयं अरुयस्सा खं धवले' सं० वा० मो० ॥ १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ १७ तेतेण एतेनेत्यर्थः ॥ For Private 5 Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजत्ति-चुण्णिसमलंकियं [३उवसग्गपरिणाझयणे ताओ उसयो २१६. तत्तेण अणुसहा ते अपडिण्णेण जाणया। _ण एस णितिएं मग्गे असमिक्ख वती किती ॥१४॥ २१६. तत्तेण अणुसहा ते० सिलोगो । तत्त्वं तथ्यं सद्भूतं नानृतमित्यर्थः । अणुसट्टा णाम अणुसासिता । ते इति आजीविकाः बोडियादयो ये चोदिश्यभोजिनः पाखण्डाः । अपडिण्णेणं ति विसय-कसायणियत्तेण जाणएण एवं वुत्ता भणति-ण एस णितिए मग्गे. णितिओ णाम नित्यः अव्याहतः एषः, असमीक्ष्य वाचिकी कृतिर्वा । कृति म कुशलकृतिः, पौर्वापर्यसम्बन्धसद्भावार्थोपलम्भस्तु सर्वज्ञज्ञानाद् युक्तः । अथवोपदेश एवायम्-तत्तेण अणुसहा ते अपडिण्णेण जाणएत्ति । कहमणुसट्टा ?, ण एस णितिए मग्गे, न एष भगवतां नीतिको मार्गः, 'नेतिको नाम नित्यः । एष हि असमीक्ष्य भवद्भिरेव वाचा चटकरमात्रा वा कृतिः कृता ॥ १४ ॥ किश्वान्यत् २१७. एरिसा जा वई एसा अग्गि बेल्ल व्व करिसिता। 'गिहिणो अभिहडं सेयं भुंजितुं ण तु भिक्खुणो ॥ १५ ॥ २१७. एरिसा जा वई एसा० सिलोगो । एरिसा णाम येयमुक्ता 'तुब्भे संबद्धसमकप्पा वयं न' [ श्लो० २११] इति एषा न निर्वाहिका । कथं ?, अग्गि बेल्ल ब्व करिसिता, बिल्वो हि मूले स्थिरः अग्रे कर्षितः, एवमियं वाग् भवतां संकल्पस्थूरा, निश्चयकृता न हि भवन्तः, न सम्बद्धकल्पाः, तञ्चोक्तम्- 'कन्दमूलादि-उद्दिश्यभोजित्वाच' [श्लो० २१४]। यतश्चैवं तेन नैष भवतां वानिश्चयः सुन्दरः । अथवा-"एरिसा मे वई एसा अग्गे वेलु व्व करिसिति" त्ति, जधा व 15 वंसीकडिल्ले वंसो[s]मूलच्छिण्णो न शक्यते अन्योन्यसम्बन्धत्वान्न शक्यतेऽधस्ताद् उपरिष्टाद्वा कर्षितुम् । यथाऽसौ वंसो ण णिव्वहति एवं भवतामपि इयं वाग न निर्वाहिका, तत्र अनिर्वाहिका गिहिणो अभिहडं सेयं, भवन्तो हि सम्प्रतिपन्नाः 'निर्मुक्तत्वात् संसारान्तं करिष्यामः' तन्न निर्वहति, कथम् ?, यद् भवतां ग्लायतामग्लायतां गृहस्थः कन्दादीनां मात्रेणाऽऽनयित्वा ददाति तत् किल भोक्तुं श्रेयः, न तु यद् भिक्षुणाऽऽनीतमिति, एषा हि वाग् भवतां न निर्वाहिका । कथम् ? गृहस्था ईयों न शोधयन्ति, आगच्छतो चास्य कश्चिद् व्यापादः स्यात् । कश्चानुक्त एवं ब्रूयात् ? यथा-गृहिणो 20 अभिहडं सेयं, भुंजितुं ण तु भिक्खुणो॥ १५ ॥ किश्च २१८. धम्मपण्णवर्णा एसा सारंभाण विसोधिया। ण तु एताहिं दिट्ठीहिं पुव्वमासि पॅकप्पितं ॥१६॥ २१८. धम्मपण्णवणा एसा० सिलोगो। धम्मस्स पण्णवणा ऐसा हिया, इदाणिं धम्मपण्णवणा 'गिहत्थाणीयं सेयं, ण पव्वइताणीतं' इति । सारंभाण विसोधिया. सारंभा णाम गिहत्था तेषां पापविशोधिका, ते हि भवयो ददतो 25 विशुध्यन्ते, न तु प्रव्रजिताः दाणधम्मेण संयुज्यन्ते, स्यादानयन्ति ते गृहीभूत्वा यतयः पापेन सम्बध्यन्ते । ण तु एताहिं दिट्ठीहि, नेति प्रतिषेधे, दृष्टि[भिर्नाम ग्रहैः, न भवद्भिरेताभिदृष्टिभिः पूर्व प्रकल्पितमासीत् । प्रकल्पितं प्रदर्शितमित्यर्थः । का दृष्टयः ?, यादृशं किल गृहस्थानां तादृशमस्माकमपि अन्योन्यं किल सारयित्वा........:, न चानुकम्पताम् , अनुभवन्तोऽपि ग्लानकृत्यं गृहस्थैः कारयन्ति, अत्र तावदावयोः साम्यम् , येन भवन्तो गृहस्थैः कारयन्ति प्रागुक्तं ग्लानस्य न कार्यम् , मा भूत् सम्बद्धसमकल्पाः अभविष्यन् । इदानीं स एव ग्लानो गृहस्थैः कारयन् तत्कृतमनुजानते, भवन्तश्च तत्कारिणः 30 तहेषिणश्च एतां दृष्टिं भावयन्तः कथं सम्बन्धसमकल्ला न स्युः ? इति ॥ १६ ॥ किश्च त एवम् १णियए मग्गे पु १ वृ० दी । नितओ मग्गो खं १ । निइओ मग्गो पु २॥२ मिक्खा खं १ ख २ पु १ पु २॥३गिती पु १॥ ४ नितिको सं० मा० मो०॥ ५एरिसा मे वई एसा अग्गे वेलु व्व चूपा० । एरिसा जावई एसा अग्गे वेणु व्व खं १ पु१पु २ वृ० दी । एरिसा ते वई एसा अग्गे वेणु व्व ख २॥ ६ गिहिणं खं १ पु १ पु २ चूपा० ॥७ भिक्खुणं सं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ८ गिहिणी अभिहितं शेषं भवन्तो चूसप्र० ॥ ९°णा जा सा खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ १० पकप्पियं खं १ पु १ पु २ । पगप्पियं खं २॥ ११ परिसायियइंदाणि पु० एरिसाहियइंदाणि सं० । एसिसाहियइंदाणि वा० मो० ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० २१६-२०] ... सूयगडंगसु बिइयमंग पढमो सुरक्खंधो। ___ २१९. सव्वाहिं अणुजुत्तीहिं अचएंता वित्तए। ततो वादं 'णिरे किच्चा ते भुजो वि' पगम्भिता ॥ १७ ॥ २१९. सव्वाहि अणुजुत्तीहिं. सिलोगो । योजनं युक्तिः, अनुयुज्यत इति अनुयुक्तिः, अनुगता अनुयुक्ता वा युक्तिः अनुयुक्तिः । सर्वैः हेतु-युक्तिभिः सतर्कयुक्तिभिर्वा अचएंता अशक्नुवन्तः जवित्तए त्ति णिज्जूढमित्यनान्तरम् । कधंण चएंति ?, यथा कश्चित् कुबलीवर्द भग्नं वाउवसयसरीरं विचिक्रीषुः परेणोच्यते - उत्थाप्यतां तावदयं गौः, ततो यदि शक्ष्यति । तत एव ग्रहीष्यामि । स जानानः 'नैष शक्ष्यति' इति ब्रवीति- यदि ते रोचते एवमेवायं गृह्यताम्, नन्वेषोऽव्यङ्गशरीरो निरुपहतवपुर्न दृश्यते ?॥ एवं सामयिक आह -मरुको वा समय इति । परैरुच्यते-येन परीसहेन परीक्षामहे । ततो ब्रूते - किमत्र परीक्षया ?, प्रत्यक्ष एवायं दृश्यते बहुजनपरिगृहीतः, ईश्वरस्वामिनं प्रतिपन्नाः, यदि नैतं तत्त्वं स्याद् नैवात्र बहुजनोऽभिप्रसज्यते । लौकिका अपि ब्रुवते 10 आज्ञासिद्धानि चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुभिः । भारतं मानवा धर्माः साङ्गो वेदश्चिकित्सितम् ॥ १॥ एषामुत्तरःएरंडकट्ठरासी जघेह गोसीसचंदणपलस्स । मोल्लेण होज सरिसो कत्तियमेत्तो गणिज्जतो ? ॥१॥ तध वि णिगरातिरेगो सो रासी जध ण चंदणसरिच्छो । तह णिविण्णाण महाजणो वि सोझे विसंवदति ॥ २ ॥ 15 एक्को सचक्खुगो जध अंधलयाणं सएहिं बहुएहिं । होति पहे गहियव्यो बहुगा वि ण ते अपेच्छंता ॥ ३ ॥ एव बहुगा वि मूढा ण पमाणं जे गति ण याणंति । संसारगमणगुविलं णिउणस्स य बंध-मोक्खस्स ॥ ४ ॥ ततो वादं णिरे किचा, तत इति ततः कारणात् , वादो णाम छल-जाति-निग्रहस्थानवर्जितः, निरं णाम पृष्ठतः, वाद निरे कृत्वा ते इति ते आजीविकाद्याः सामयिकाः मरुकाश्च विविधाः प्रगल्भिता दृष्टीभूता इत्यर्थः ॥ १७ ॥ 20 २२०. राग-दोसाभिभूतप्पा मिच्छत्तेण अभिड्या। ____ अकोसे सरणं जति टंकणा इव पव्वतं ॥१८॥ २२०. रागदोसाभिभूतप्पा० [सिलोगो] । रज्यते येन आत्मपक्षे स रागः, परपक्षे द्वेषः, अभिभूताः पराजिता इत्यर्थः, राग-द्वेषाभ्यामभिभूतो येषामात्मा ‘तेमे राग-दोसाभिभूयप्पा । मिच्छत्तेण अभिया अभिभूया इत्यर्थः । त एवमुक्ताः रोषवशा लोहिताक्षाः भृशममर्षोद्गमप्रस्पन्दिताधरौष्ठाः जिता अवदातैहेतुभिर्निर्ग्रन्थसूत्रैः पराजिताः अक्कोसे सरणं 25 जंति, प्रायेण दुर्बलस्य रोषो उत्तरं भवति आक्रोशश्व, रुदितोत्तरा हि स्त्रियः बालकाच, क्षान्त्युत्तराः साधवः । दृष्टान्त:टंकणा इव पव्वतं, टंकणा णाम म्लेच्छजातयः पार्वतेयाः, ते हि पर्वतमाश्रित्य सुमहन्तमवि अस्सबलं वा हत्थिबलं वा प्रारभन्ते आगलिन्ति, पराजिताः सुशीघ्र पर्वतमाश्रयन्ति, [एवं ] कुतीर्थाः पराजिताः आक्रोशयन्ति यष्टि-मुष्टिभिश्चोत्तिष्ठन्ति, न ते प्रत्याक्रोष्टव्याः । इदमालम्बनं कृत्वा १जहित्तते खं २॥ २णिराकिच्चा खं १ खं २ पु २ ३० दी० ॥ ३ विप्पगभियं खं १॥ ४ परीसहेन इति पु० सं० नास्ति ॥ ५"पुराणं मानवो धर्मः साङ्गोपाङ्गचिकित्सकः । आज्ञासिद्धानि चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुभिः॥" मनुस्मृतौ अ० १२ श्लो० ११० अनन्तरं प्रक्षेपकः ॥ ६ निर्विज्ञानः महाजनः अपि ॥ ७ आओसे खं २ पु २ । आतोसे खं १॥ ८'तेमे' ते इमे इत्यर्थः॥ Jain Education Intemational Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 15 શ્રેષ્ઠ णिज्जुत्ति- चुण्णि समलंकिय [३ उवसग्गपरिण्णज्झयणे वउत्थो उद्देसभो अक्कोस-हणण-मारण-धम्मब्भंसाण बालसुलभाणं । लाभं मण्णति धीरो जधुत्तराणं अलाभम्मि ॥ १ ॥ [ ] ॥ १८ ॥ 25 ] इति, अधवा " ‘“लौकिक-परीक्षकाणां यस्मिन्नर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तः हेतु प्रतिज्ञादयः ।" [ feat aar | आत्मसमाधिर्नाम “दव्वं खेत्तं कालं सामत्थं चऽप्पणो वियाणित्ता ।" [ अयं पुरिसे ? कं च णते ?” [ आचा० श्रु० १ अ० २ उ० ६ सू० ४] त्ति, एवं तथा तथा यथाऽऽत्मनो समाधिर्भवति । 10 उक्तं हि "पडिपक्खो णायव्वो ०" [ ] । अधवा आत्मसमाधिर्नाम यथा परतो न घातो भवति बाधा वा । किंच - जेणऽणे पण विरुज्झेञ्ज, येन चोक्तेन अण्णस्स उवघातो ण भवति, तथा प्रतिज्ञादयो वक्तव्याः यथा च सिद्धान्तविरुद्धा न भवन्ति ॥ १९ ॥ २२१. बहुगुणप्पकरपाइं कुज्जा आतसमाहितो । जेणे ण विरुज्झेज्ज तेण तं तं समायरे ॥ १९ ॥ २२१. बहुगुणप्पकप्पाइं० सिलोगो । गुणा पकप्पिज्जंति जेहिं ताइं गुणप्पकप्पाहं । गुणप्पकप्पो णाम येनाऽऽत्मपक्षः प्रसाध्यते परपक्षश्वोभामीयते, अथवा सर्वपरीक्षकाविरुद्धो दृष्टान्तोऽबाध्यो हेतुर्वा । उक्तं हि कथं विरुध्यते ?, यो ब्रूयात्-त एव हि कृतोद्दिश्यभोजित्वाद् गृहितुल्याः साधवस्तु मूलोत्तरगुणोद्यताः शरीरे चानपेक्षाः, ततश्चातिप्रसक्तस्य लक्षणस्य निवृत्तये त्वपदिश्यते—इमं च धम्ममादाय० सिलोगो । अथवा तैः परतन्त्रैरपदिष्टम् - नकृत्यं हि न कर्तव्यम् मा भूत् सम्बद्धसमकल्पः, तदेतमपदिश्यते— २२२. इमं च धम्ममादाय कासवेण पवेदिदं । कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स अॅगिलाणेण समाधिए ॥ २० ॥ २२२. इमं च धम्म० [ सिलोगो ] । न यथा भवतां निरनुकम्पो धर्मः अस्माकं हि इमं च धम्ममादाए कासवेण पवेइयं । अथवा ये ते उक्ता उपसर्गा एते हि अग्लायता सोढव्याः, ग्लायतो हि द्रव्यपरीषहा भवन्ति, नग्लायमानस्य 20 कर्त्तव्यम्, कथं ? इमं च धम्ममादाय इति यद् वक्ष्यामः तं धर्ममादाय गृहीत्वा कासवेण पवेदिदं कासवग्रहणात् तीर्थकरेणैवेदं स्वयं प्रवेदितम्, न तु स्थविरैः । किञ्चान्यत्-कुर्याद् भिक्खू गिलाणस्स ग्लायते रोगेणान्यतरेण वा प्रथमद्वितीयादिपरीषहादिना, अगिलाणेण अनार्दितेन अव्यथितेन राजाभियोगवत् समाधिए त्ति आत्मनः समाधिहेतोः कर्त्तव्यम् । ग्लानस्य वा अथवा समाधीए कायव्वं, ण मणोदुक्कडेण ॥ २० ॥ किन न केवलं उवसग्गा एव अहियासेयव्वा ज्ञात्वा सोढव्याः ] आतसमा २२३. संखाय पेसलं धम्मं दिट्टिमं परिणिव्वुडे । उवसग्गे अधियासेंतो अमोक्खाए परिव्वज्जासि ॥ २१ ॥ त्ति बेमि ॥ ॥ उवसग्गपरिण्णाए ततिओ उद्देसओ सम्मत्तो ॥ ३-३ ॥ २२३. संखाय पेसलं धम्मं० सिलोगो । संखा अट्ठविधा, तं जधा - णामसंखा ठवणसंखा दव्वसंखा ओवम्मसंखा परिमाणसंखा गणणासंखा जाणणासंखा भावसंखा । तत्थ जाणणासंखाए अधियारो । संख्याय ज्ञात्वा । पेसलं दव्वे भावे 30य, दव्वे जं दब्धं पीतिमुत्पादेति आहारादि, भावपेसलस्तु सर्ववचनीयदोषापेतो भव्यानां धर्म एव । सो धर्मो दुविधो-सुत ११ ॥ २ अत्तसमाहिते खं १ खं २ पु१पु२ ॥ ३ जेणऽण्णो ण सं १ खं २ पु १ पु २ ॥ ४ मायाय ११२ । मादाए चूपा० ॥ ५ अगिलाए स सं १ खं २ पु १ पु २० दी० ॥ ६ संखाए खं १ ख २ पु१पु २ ॥ ७ सग्गे नियामित्ता आमोक्खाए खं २ पु १ ० दी० । सग्गे नियापत्ता आमोक्खार खं १ । सग्गे नियामित्ता आमुक्खाय पु २ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा०२२१-२७] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। धम्मो चरित्तधम्मो य । कस्य तौ प्रीतिमुत्पादयेयाताम् ?, दृष्टिमानिति दृष्टिमतः । सम्यग्दृष्टिः परिनिर्वृतः शीतीभूत इत्यर्थः । उवसग्गे अधियासेन्तो उपसर्गा ये उक्ताः ये च वक्ष्यमाणाः तान् सर्वानधिया[सय]न सहन्नित्यर्थः । अ[मोक्खाए] मोक्षापरिसमाप्तेः । समन्ता वयेज्जासि परिवयेजासि । मोक्षो द्विविधः-भवमोक्षो सव्वकम्ममोक्खो य। उभयहेतोरपि अमोक्षाय परिव्रजेः इति ब्रवीमि ॥ २१ ॥ ॥ उपसर्गपरिज्ञायां तृतीयोद्देशकः ४-३॥ [उवसग्गपरिण्णज्झयणे चउत्थो उद्देसओ] 10 वुत्तं निजुत्तीए "हेतुसरिसेहिं अहेउएहिं" [गा० ४२ ] हेत्वाभासैरित्यर्थः । कथमहेतवो हेतुसदृशाः ?, वक्ष्यति हि"सुहेण सुहमजेमो' वणिजवत् [श्लो० २२९] । तथा च "जधा गंडं पिलागं वा" [श्लो. २३३] एवं सीलक्खलिया अण्णउत्थिया तब्भावुकाश्च ॥ २२४. आहंसु महापुरिसा पुट्विं तत्ततवोधणा। भोचा सीतोदगं सिद्धा तेत्थ मंदे विसीदति ॥१॥ २२४. [ आहेसु महापुरिसा० सिलोगो।] आहंसुरिति आहुः । के ते ? महापुरिसा पहाणा पुरिसा, राजानो भूत्वा वनवासं गता पच्छा णिव्वाणं गताः । पुव्वि तत्ततवोधणा, पुग्विमिति अतीते काले केचित् त्रेतायां द्वापरे च, तप एव धनं तपोधनम् , तप्तं तपोधनं यैस्त इमे तत्ततवोधणा पश्चामितापादि । लोइयाणं तेते' महापुरिसा, अस्माकं तु यदा सामन्नं प्रतिपन्नाः तदा महापुरिसा । भोचा सीतोदकं सिद्धा, सीतोदगं णाम अपरिणतं, तेण सोयं आयरंता ण्हाण-पाण-13 हत्थादीणि अभिक्खणं सोएंता तथाऽन्तजेले वसन्तः सिद्धि प्राप्ताः सिद्धाः। एवं परम्परश्रुति श्रुत्व जिताः तत्थ मंदे विसीदंति, तत्रेति तस्मिन्नस्नानकव्रते फासुगोदयपाणे व ति ॥ १॥ तत्थ से २२५. अभुंजिय मी वेदेही रोमाउत्ते य भुंजिया। - बाहुए उदयं भोच्चा तथा नारायणे रिसी ॥२॥ २२६. आसिले देविले चेव दीवायण महारिसी।। 20 पारासरे दगं भोचा बीताणि हरिताणि य॥३॥ २२७. एते पुस्विं महापुरिसा आहिता इह सम्मता। भोचा "सीतोदगं सिद्धा जह मेतमणुस्सुतं ॥४॥ १ उदएण सिद्धिमावना खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी । उदतेण खं २ ॥ २ तत्थ मैदे विसीयति खं १ पु २ । तत्थ मंदो विसीयति खं २ । तत्थ मंदाऽवसीयति पु १॥ ३ 'तेते' एते इत्यर्थः ॥ ४ उत्तराध्ययनसत्के नवमे नमिपव्वजज्झयणे नमिराजर्षिः॥ ५रामउत्ते खं १ पु १। रामगुत्ते खं २ पु २ वृ० दी० । ऋषिभाषितेषु त्रयोविंशे रामपुत्तियज्झयणे रामपुत्ते इति नाम वर्तते ॥ ६ऋषिभाषितेषु बाहुकज्झयणं चतुर्दशम् ॥ ७ तारागणे खं १ खं २ पु १ पु २ । तारायणिजज्झयणं षटूत्रिंशत्तमं ऋषिभाषितेषु । नारायणे वृ० दी.॥ ८ असिले खं १ । “आसिले इत्यादि । आसिलो नाम महर्षिः, तथा देविलो द्वैपायनश्च तथा पराशराख्य इत्येवमादयः शीतोदकबीज-हरितादिभोगादेव सिद्धा इति श्रूयते।” इति वृत्ति-दीपिकयोर्व्याख्याने आसिलो देविल इति च पृथगृषितया निर्दिष्टौ स्तः, किञ्च ऋषिभाषितेषु तृतीयमध्ययनं दविलज्झयणं नाम वर्तते तत्र “असिएण दविलेणं अरहता इसिणा बुइतं" इत्यत्र पाठे असिएणं इति गोत्रोक्तिर्वर्तते न पृथगृषिनाम, नापि ऋषिभाषितेषु आसिलनामकमध्ययनमन्यद् दृश्यत इत्यत्रार्थे तज्ज्ञैर्विचार्यम् ॥ ९पारासरियज्झयणं ऋषिभाषितेषु नास्ति ॥ १० पुव्वं महा खं १ पु १ पु २ । पुवमहा खं २॥ ११ अक्खाया इह पु २ ॥ १२ बीओदगं सिद्धा इति मेतम खं १ खं २ पु १ २ वृ० दी.॥ Jain Education Intemational Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजत्ति-चुण्णिसमलंकियं [३ उपसग्गपरिण्णजायणे चउत्थो उद्देसओ २२५-२२७. एते पुबि महापुरिसा० [सिलोगो]। प्रधानाः पुरुषाः महापुरुषाः । आहिता आख्याताः । इह सम्मत त्ति इहापि ते इसिभासितेसु पढिजंति । णमी ताव णमिपव्वजाए [उत्त० भ० ९], सेसा सव्वे अण्णे इसिभासितेसु । आसिले देविले चेव त्ति बंधाणुलोमेण गतं, इतरधा हि देविला-ऽऽसिल इति वक्तव्यम् । एतेसिं पत्तेयबुद्धाणं वणवासे चेव वसंताणं बीयाणि हरिताणि य मुंजंताणं ज्ञानान्युत्पन्नानि, यथा भरतस्य आदंसगिहे णाणमुप्पण्णं, तं तु तस्स भावलिंगं 5 पडिवण्णस्स खीणचउकम्मस्स गिहवासे उप्पण्णमिति । ते तु कुतित्था ण जाणंति-कस्मिन् भावे वर्तमानस्य ज्ञानमुत्पद्यते ? कतरेण वा संघतणेण सिज्झति ? । अजानानास्तु ब्रुवते ते नमी आद्या महर्षयः भोचा सीतोदगं सिद्धा, भोच त्ति भुञ्जाना एव सीतोदगं कन्दमूलाणि च जोइं च समारम्भन्ता । जह मेतमणुस्सुतं ति भारध-पुराणादिसु । एवं एताहि कुस्सुतीउवसग्गेहिं उवसग्गिज्जमाणाणं[ण ] केवलं सारीरा एव उवसग्गा मानसा अपि उपसर्गा विद्यन्ते, यां श्रुतिं श्रुत्वा मनसा विनिपातमापद्यन्ते ॥२॥३॥४॥ कथम् ? उच्यते10 २२८. तत्थ मंदा विसीदति वाहच्छिण्णा व गद्दभा। पिढेतो अणुधावंति 'पीढसप्पीव संभमे ॥५॥ २२८. तत्थ मंदा विसीदंतिः । तस्मिन्निति कुश्रुतिउपसर्गोदये मंदा अबुद्धयः विसीतंति फासुएसणिज्जे छक्काएसु अ परिहरितव्वेसु । दिटुंतो-वाहच्छिण्णा व गद्दभा भारेणेत्यर्थः, खन्धेन पृष्ठेन वा । एवं ते परसामयिका कर्मगुरुगा "लुक्खमणुण्हमणियतं"। ] एरिसेण लूहेण अजवेन्ता अस्नानादि-तव-संजमगुणे य गुरुए अचएन्ता 15 वोढुं त्वरितमोक्षाध्वगानां साधूनां लघुभूतानां पीढाभ्यां परिसर्पतीति पीढसप्पी, सम्भ्रमन्ति तस्मिन्निति सम्भ्रमः, जनस्यान्यस्य स्वरितमग्गिभयात् णस्सितुकामो किल पीढसप्पी दूरातोज्झितोऽपि जणं धावंतं पितोष्णुधावंति, एवं ते वि किल संसारभीरवो मोक्षप्रस्थिताः सीतोदगादिसङ्गात् संसार एव पडन्ति ॥ ५ ॥ इदानीं शाक्याः परामृश्यन्ते. २२९. इहमेगे तु मण्णंते सातं सातेण विजती। जिते त्थ आयरियं मग्गं परमं ति समाधिता ॥ ६॥ 20 २२९. इहमेगे तु मण्णंते सातं सातेण विज्जती० [सिलोगो] । सायं णाम सुखं श्रोतादि, तं सातं सातेणेव लभ्यते, सुखं सुखेन लभ्यत इत्यर्थः, वयं सुखेन मोक्षसुखं गच्छामः, दृष्टान्तो वणिजः । तुब्भे पुण परमदुक्खितत्वात् जित स्थ आयरियं मग्गं, जिता नाम दुःखप्रव्रज्यां कुर्वाणा अपि न मोक्षं गच्छत, वयं सुखेनैव मोक्षसुखं गच्छाम इत्यतो भवन्तो जिताः, तेनास्मदीयार्यमार्गेण परमं ति समाधित त्ति मनःसमाधिः परमा । असमाधीए शारीरादिना दुःखेनेत्यर्थः ॥ ६॥ २३०. मा एतं अवमण्णंता अप्पेणं बहु लुपध । एतस्स अमोक्खाए अयहारीव जूरधा ॥७॥ २३०. मा एतं अवमण्णंता० सिलोगो । अ-मा-नो-नाः प्रतिषेधे, अथ तद् बुधप्रणीतं सुखात्मकं मार्गमवमन्यमानाः आत्मानमात्मना वञ्चयतेत्यर्थः, दूर दूरेण सुखातो छिन्दध । दिटुंतो-एतस्स अमोक्खाए अयहारीव जूरधा । त एवं वदन्तः प्रत्यङ्गिरादोषमापद्यते । कधं ?, इधमेगे तु मण्णंता सातं साते ण विञ्जते. इहेति इह नैर्ग्रन्थशासने सातं साते न विद्यते । का भावना ?-न हि सुखं सुखेन लभ्यते । यदि चेतमेवं तेनेह राजादीनामपि सुखिनां परत्र सुखेन भाव्यम् , १ एतत् चूर्णिकृत्समाधानं न सम्यगवगम्यते ॥ २पिटुतो परिसप्पंति खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ३ पिट्टिसप्पीव पु २॥ ४ भासंति खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी । मण्णंते वृपा० ॥ ५जे तत्थ खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ६ आरितं म खं १ पु १ पु २॥७च खं१ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० चूपा० २३० गाथाचूर्णौ ॥ ८ समाहिए खं १ । समाहितो खं २ । समाहियं पु १ पु२॥ ९मा तेतं खं २॥ १० अवमंतित्ता खं १॥ ११ अप्पेणं लुपहा बहुं खं १ खं २ पु १ पु २॥ १२ आमो' खं २ पु १॥ १३ अओहारे व्व जूरहा खं २ । अयहारि व्व जूरहा खं १ पु १ पु २॥ १४ २२९ सूत्रगाथा पुनरावर्त्यते ॥ Jain Education Intemational Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श सुत्तगा० २२८-३४] सूयगडंगसुतं विइयमंग पढमो सुयक्खंधो। नारकाणां तु दु:खितानां पुनर्नरकेनैव भाव्यम् । तेन सायासोक्खसंगेन जित त्थ आयरियं मग्गं, जिता नाम शिरस्तुण्डमुण्डनमपि कृत्वा सम्यग्मार्गमास्थाय मोक्षं गच्छन्ति । परमं च समाधिता मोक्खसमाधिं, इह वा जाऽसंगसमाधि । उक्तं हिनवास्ति राजराजस्य तत् सुख नैव देवराजस्य । यत् सुखमिहेव साधोलांकव्यापाररहितस्य ॥ १ ॥ [प्रशम० मा० १२८] मा एतं अवमण्णंता, अ-मा-नो-नाः प्रतिषेधे । एतं ति एतं आरुहंतं मग्गं अवमण्णता आत्मानमात्मना बहुं लंपध । बहुं परिभविजध । को दृष्टान्तः ?, एयस्स अमोक्खाए अयहारि व्व जूरधा ॥ ७ ॥ कधं ?, जेण तुन्भेव २३१. पाणातिवादे वहता मुसावादे वेऽसंजता। अदिण्णादाणे वदंता मेहुणे य परिग्गहे ॥८॥ २३१. पाणातिवादे वटुंता० सिलोगो। स्यात्-कथं प्राणातिपाते व महे ?, येन पचना[नि] पाचनानि चानुज्ञातानि । उक्तं हि पचन्ति दीक्षिता यत्र पाचयन्यथवा परैः । औदेशिकं च भुञ्जन्ति न स धर्मः सनातनः ॥ १ ॥ 10 15 मुसावादे वि असंजता संजत त्ति अप्पाणं भणध । अदत्तादाणे वि जेसिं जीवाणं सरीराइं आहारैति तेहिं अदत्ताई औएह । धेनूनां वत्सवृद्ध्यै नियुञ्जितुं मैथुनेऽपि प्रेष्य-गो-पशुवर्गाणाम् । परिग्रहेऽपि धन-धान्य-प्रामादिपरिग्रहः । एवं कोध माण जाव मिच्छादसणसल्ले इति । एवं तावत् शाक्याः अन्ये च तद्विधाः कुतीर्थाः ॥ ८॥ २३२. एवमेगे तु पासत्था पण्णवेंति अणारिया। इत्थीवसगता बाला जिणसासणपरम्मुहा ॥९॥ २३२. एवमेगे तु पासत्था० सिलोगो । एवं अवधारणे । एते इति एते शाक्याः अन्ये च तद्विधाः । पार्थे तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः, केषाम् ?-अहिंसादीनां गुणानां णाणादीण वा सम्मइंसणस्स वा । किम् ?, पण्णवेंति सुहेण सुहं । अथवा इमं पण्णवेंति दगसोयरियादयो सुखलिप्ता वा अजितेन्द्रियाः इत्थीवसगता बाला जिणसासणपरम्मुहा । किं 20 पण्णवेति ?-विसणिग्यातणे तु कन्जमाणे णत्थि अधम्मो, अप्पणो परस्स वा सुखमुत्पादयतः अप्येवं धर्मो भवति, न त्वधर्मः ॥९॥ को दृष्टान्तः ? २३३. जधा गंडं पिलागं वा णिप्पीलेत्ता मुहुत्तगं । एवं विणवण त्थीसु दोसो तत्थ कुतो सिया ? ॥१०॥ २३३. जधा गंडं पिलागं वा० सिलोगो । जधा कोइ अप्पणो परस्स वा गंडं पिलागं णिप्पीलेचा पूर्व सोणितं 25 । अधम्मो ?, एवं जो कोइ इत्थिशरीरे शुक्रविषनिघोतं कुयोत् तत्र को दोषः स्यात् । एवं विण्णवण त्थीसु, एवं अनेन प्रकारेण विज्ञापना नाम परिभोगः एकार्थिकानि, आसेवनादोषः तत्र कुतः स्यात् ? ॥ १० ॥ किञ्च २३४. जधा मंधातह प्रणाम थिमितं पियति दगं। एवं विण्णवण त्थीसु दोसो तत्थ कुओ सिया ? ॥ ११ ॥ १पाणादिवाए खं १॥ २ असंजता खं २ पु २॥ ३ आह च धेनूनां च सत्वध्या नियुचूसप्र०॥ ४ इत्थीवसगा बाला खं १ पु १। इत्थीसंगता बाला खं २॥ ५-६ 'एते' एके इत्यर्थः ॥ ७ वा परिपीलेज खं १ खं २ पु १ पु २ । वा परिपीलेत्ता वृ० दी०॥ ८°वणित्थीसु खं १ खं २ पु १ पु २॥ ९कओ सिता खं १ पु १॥ १० मंधादती खं १ खं २ । मंधादए पु २ वृ० दी । मंधायती पु १॥ . ११ भुंजती खं १ खं २ पु १ पु २॥ १२°वणित्थीसु खं १ ख २ पु १ पु २॥ १३ कओ खें ११ ॥ सूय० सु. १३ Jain Education Interational Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्ति-धुण्णिसमलंकियं [३ उवसग्गपरिण्णज्झयणे चउत्थो उद्देसओ . २३४. जधा मंधातइ ण्णाम० सिलोगो । मंधातई णाम मेसो । सो जधा उदगं अकलुसेन्तो यण्णुएहिं णिसोदितुं (? णिसीदितुं) गोप्पए वि जलं अणाडुआलेतो पियति, एवमरागो चित्तं अकलुसेन्तो जइ इत्थिं विण्णवेति को तत्थ दोसो ? । उक्तं च-"प्राप्तानामुपभोगः शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्धानाम् ।" [ ]॥ ११ ॥ किश्च' २३५. जधा विहंगमा पिंगा थिमितं पियति दर्ग। एवं विण्णवण त्थीसु दोसो तत्थ कुतो सिया ? ॥ १२॥ २३५. जघा विहंगमा पिंगा० सिलोगो । विहायसा गच्छन्ती विहंगमा पिंगा पक्खिणी आगासेणऽवचरंती उदगे अभिलीयमाना अविक्खोभयंती तज्जलं चंचूए पिबति । एवं विण्णवण त्थीसु, एवमरजमाणो यदि सम्प्राप्तान् भोगान् भुञ्जीत अत्र को दोषः ? । उत्तरदाणं–णणु तेसिं आसेवणा चेव संगकरणं 'मेधुणभावं आसेवामि' त्ति । जैध णाम मंडलग्गेण सीसं छेत्तूण कस्सई पुरिसो | अच्छेज पराहुत्तो किं णाम ततो ण घेप्पेज्ज ? ॥ १॥ जध वा विसगंडूसं को म तुहिक्को । अण्णेण अदीसंतो किं णाम ततो ण वि मरेज ? ॥२॥ जध वा वि सिरिघरातो कोई रयणाणि णाम घेत्तूणं । अच्छेज पराहुत्तो किं णाम ततो ण घेपेज्जा ? ॥३॥ ॥१२॥ - २३६. एवं तु समणा एगे मिच्छादिट्ठी अणारिया। ... अज्झोववण्णा कामेहिं पूयणा इव तरुणए ॥ १३ ॥ २३६. एवं तु समणा एगे० सिलोगो । एवं अनेन प्रकारेण, तु विसेसणे, [समणा] नास्मदीयाः परे, एके त्ति परेषामपि न सर्वे एके मिथ्यादृष्टयः अनार्या मिच्छाद्दिट्ठी अणारिया, अथवा मिथ्यादृष्टित्वेऽपि कर्मभिरनार्याः । अज्झोववण्णा कामेहि, दुविहेहि वि कामेहिं । दिटुंतो-पूयणा इव तरुणए, पूयणा णाम औरणीया, तस्या अतीव तण्णगे छावके स्नेहः । जतो जिज्ञासुभिः कतरस्यां कतरस्यां जातौ प्रियतराणि स्तन्यकानि ?, सर्वजातीनां छावकानि अनुदके कूपे प्रक्षिप्तानि । ताश्च सर्वाः पशुजातयः कूपतटे स्थित्वा सेच्छावकानां शब्दं श्रुत्वा रम्भायमाणास्तिष्ठन्ति, नाऽऽत्मानं कूपे मुश्चन्ति, 20 तत्रैकया पूतनया आत्मा मुक्तः ॥ १३ ॥ त एवं पूतणा इव तरुणए मुच्छिता गिद्धा कामेसु २३७. अणागतमपासंता पचुप्पण्णगवेसणा। ते पच्छा अणुसोयंति झीणाऽऽउम्मि जोव्वणे ॥१४॥ २३७. अणागतमपासंता० सिलोगो । अनागतकाले किम्पाकफलाहारवद् विषयदोषानपश्यन्तः पचुप्पण्णविसयगवेसणा णाणाविहेहिं उवाएहिं विसयसुहं उप्पायंता ते पच्छा अणुसोयंति, ते इति अण्णउत्थिया परलोकं प्राप्ता अनु25 शोचन्ते देवदुर्गतौ, यत्र वाऽन्यत्रोपपद्यन्ते । दृष्टान्तः-झीणाऽऽउम्मि जोवणे, यथाऽतिक्रान्तवयसः क्षीणेन्द्रिय-शरीर-बुद्धिबल-पराक्रमाः नानाविधैः क्रीडाविशेषैः तरुणान् क्रीडतो दृष्ट्वा वयमप्येवं क्रीडितवन्तः [इति] तीव्रमनुशोचन्ति, एवं तेऽपि परलोकं प्राप्यानुशोचन्ति, इह च मरणकाले नास्माभिर्जितेन्द्रियत्वं भावितं वैराग्यं वा । उक्तं हि हतं मुष्टिभिराकाशं तुषाणां कुट्टनं कृतम् । यन्मया प्राप्य मानुष्यं सदर्थे नाऽऽदरः कृतः॥१॥ उक्तं बहु चरित्रं च स्वार्थश्च न प्रहावितः । तत्रे(त्रै)व मन्ये शोचन्ते [ ॥ १४ ॥ १ भुंजती खं १ ख २ पु १ पु २ ॥ २°वणा थीसु खं २ । वणित्थीसु खं १ पु १ पु २ ॥ ३ को खं १ पु १॥ ४ मेजल वभूए पु० सं० । मे जलं वभूए वा० मो० ॥ ५ एतास्तिस्रोऽपि गाथा वृत्तिकृता शीलाकेन नियुक्तिगाथात्वेन निर्दिष्टा व्याख्याताश्चापि सन्ति, नियुक्त्यादर्शेष्वपि च दृश्यन्ते, किन्तु चूर्णिकृता नियुक्तिगाथात्वेन निर्दिष्टा व्याख्याता वा न सन्ति, तदत्र तज्ज्ञा एव प्रमाणम् ॥ ६°ण सिरं छेत्तृण कस्सइ मणुस्सो खं १ ख २ पु २॥ ७ एवमेगे उ पासत्था मि खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ८पूइणा खं २ ॥ ९खशावकानामित्यर्थः ॥ १० °मपस्संता खं १ खं २ पु १ पु २॥ ११°सगा ख १ ख २ पु २ वृ० दी। सप पु १॥ १२ परितप्पंति झीणे आउम्मि खं १ पु १ पु २ वृ० दी० । परितप्पंति झीणे अतीतम्मि खं २॥ १३ खण्डनं पु० । कण्डनं वृत्तौ॥ Jain Education Intemational Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतगा० २३५-४१ ] यथा के ? उच्यते सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो । २३८. जेहिं काले परिक्कतं सुकडं तेसिं सामण्णं । ते धीरा बंधमुक्का णावकंखंति जीवितं ॥ १५ ॥ २३८. जेहिं काले परिक्कंतं० सिलोगो । जे इति अणिद्दिट्ठणिद्देशे । कालो नाम तारुण्यं मध्यमं वयः, यो वा यस्य कालो ध्यानस्याध्ययनस्य तपसो वा । तेषामेकेषां सुकृतं नाम श्रामण्यम्, त एव च श्रमणाः त एव मोक्षाकाङ्क्षिणस्त एव साधवो साधर्मिका वा । ते धीरा बंधणुम्मुक्का त एव धीराः त एव बंधणविमुक्का । बन्धनं कलत्रादि कर्म वा । ये किं. कुर्वन्ति ?, जे णावकंखंति जीवितं पुव्वरत-पुव्वकीलितादिअसंजमजीवितं [न] वान्छन्ति ॥ १५ ॥ 1 २३९. जधा नदी वेतरणी दुत्तरा इह सम्मता । एवं लोगंसि नारीओ दुरुत्तराओ अमतीमया ॥ १६ ॥ २३९. जधा नदी वैतरणी • सिलोगो । यथेति येन प्रकारेण । वेगेन तस्यां तरन्तीति वेतरणी नाम परोक्षा 10 श्रवादिषु । सा हि तीक्ष्णश्रोतस्त्वाद् विषमतटत्वाच्च दुःखमुत्तीर्यते इति दुस्तरा । सर्वलोकप्रतीतैवासौ, पाखण्डिनांच केचित् इहेति इह प्रवचने, वक्ष्यमाणमपि च “जहितं नदी वैतरणीति दुत्तरा" [ ]। एवं लोगंसि नारीओ दुरुत्तराओ, एवं अनेन प्रकारेण सर्वोपसर्गेभ्योऽनुलोमेभ्यः प्रतिलोमेभ्यश्च दुस्तरतरा नार्यः, ता हि नानाविधैवभाव-विलासैरुत्तितीर्षुनभिभवन्ति, वैतरण्यां तत्रैव तत्रैव निमज्जापयन्ति । ता हि दुक्खं द्रव्य-भावतः परिह्रियन्ते अमतीमय त्ति न मतिमान् अमतिमान् तेनामतिमता ॥ १६ ॥ २४०. 'जेहिं ते णारिसंजोगा पूराणा पिट्ठतो कता । सव्वमेयं णिरे किचा ते ठिता सुसमाधीए ॥ १७ ॥ २४०. जेहिं ते णारिसंजोगा ० सिलोगो । य इत्यनिर्दिष्टनिर्देशः । त्रिविधा नार्यः, नारीभिः संयोगा नारीसंयोगाः, मैथुनसंसर्गा इत्यर्थः । पूयणा पिट्ठतो कत त्ति, पूयणा नाम वस्त्राऽन्नपानादिभिः स्नाना-ऽङ्गरागादिभिश्च शरीरपूजैना । उक्तं हि - "णो सायासोक्खपडिबद्धे भवेज्जा" [ ] । अथवा त एव नारीसंयोगाः पूतनाः पातयन्ति 20 धर्मात् पासयन्ति वा चारित्रमिति पूतनाः, पूतीकुर्वन्नित्यर्थः । पृष्ठतो कृता नाम उज्झिता । सव्वमेवं णिरे किच्चा, सर्वमिति येऽन्ये उपसर्गाः क्षुत्-पिपासा - शीतोष्णादयः निरे नाम पृष्ठे कृत्वा, अथवाऽनुलोमाः प्रतिलोमाश्च । सोभणाए समाधीए ण उवसग्गेहिं खोहिज्जंति ॥ १७ ॥ किश्व – २४१. एते ओहं तरिस्संति सेमुद्दे व ववहारिणो । जत्थ पाणा विसण्णासी कैचंती सह कम्मणा ॥ १८ ॥ २४१. एते ओहं तरिस्संति० सिलोगो । एते णाम जेहिं एते इत्थिपरीसहादयः उपसर्ग जिताः । द्रव्यौघः समुद्रः, भावौघस्तु संसारः । तरिस्संति ते, नान्ये, न वा भावेन । दृष्टान्तः - समुद्दे व ववहारिणो समुद्रतुल्यं समुद्रवत्, व्यवहरन्तीति व्यवहारिणो वणिजः पोतैस्तरन्ति । जत्थ पाणा विसॅण्णासी, यस्मिन् यत्र एते पाषण्डाः गृहस्थस्वभावं गताः विषयजिता विषण्णा आसते गृहिणश्च, इह परत्र च कच्चंती सह कम्मणा । कृत्यन्ते छिद्यन्त इत्यर्थः ॥ १८ ॥ ތް ४ जीवितुं खं १ ० ॥ ८ जेहिं नारीण सं १ परकंतं न पच्छा परितप्पर खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ २ वीरा खं १ पु १ पु २ ॥ ३णोमुक्का खं १ ५ दुरुत्तरा पु २ ॥ ६ लोगम्मि पु १ ॥ ७ दुत्तरा अम' खं १ खं २ पु १ ० दी ० | दुरुत्तरा पु २ ॥ माहिए खं १ खं २ पु १ १४ सयकम्मुणा खं १ खं २ खं २ ॥ ११ 'जनात् पु १ पु २ वृ० दी० ॥ १५ विसरणेसी चूसप्र० ॥ १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ९ निराकिच्चा खं १ सप्र० ॥ १२ समुदं वव खं १ खं २ पु १ पु २ ॥ पु २ वृ० दी० ॥ १० १३ किच्चंती पु १ ॥ For Private Personal Use Only 15 25 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० -णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं . : [४ इत्थीपरिण्णायणे पढमो उद्देसओ २४२. तं च भिक्खू परिणाय सुव्वते समिते चरे। . मुसावादं विवजेज अदिण्णादि च वोसिरे ॥१९॥ २४२. तं च भिक्खु परिण्णाय० सिलोगो । दुविहाए परिणाए परिज्ञाय जाणणापरिण्णाए उवसग्ग-परीसहे जाणित्ता पक्षक्खाणपरिणाए उहितो ते अहियासेमाणो सुव्बते समिते चरे, समितग्रहणाद् उत्तरगुणा गृहीताः । मूलगुणा 5 पुण इमे-मुसावादं विवजेज, कस्मान्मृषावादः पूर्वमुपदिष्टः ? न प्राणातिपातः ? इति, उच्यते, सत्यवतो हि व्रतानि भवन्ति, नासत्यवतः, अनृतिको हि प्रतिज्ञालोपमपि कुर्यात् , प्रतिज्ञालोपे च सति किं व्रतानामवशिष्टम् ?, तं मुसावादं विसेसेण वज्जए विवजए । अदिण्णादि च वोसिरे, अदिण्णमादिर्यस्याऽऽश्रवगणस्य सोऽयं अदिण्णाद्याश्रवगणः, तं अदिनादि विवजए । तं जधा-पाणादिवादादि जाव परिग्रहम् ॥ १९ ॥ प्राणातिपातप्रसिद्धये त्वपदिश्यते २४३. उई अहे तिरियं वा जे केई तस-थावरा। 10 सव्वत्यै विजं विरतिं संति-णेव्वाणमाहितं ॥ २०॥ २४३. उ8 अहे तिरियं वा० सिलोगो । ऊर्ध्वमधस्तिर्यगिति क्षेत्रप्राणातिपातो गृहीतः । जे केई तसथावरा इति द्रव्यप्राणातिपातः । सर्वत्रेति प्राणातिपातभावश्च सर्वावस्थासु, विजं विद्वान, सर्वत्र विरतिं सर्वविरतिं विद्वान् कुर्याद् इति वाक्यशेषः । विरति एव हि संतिणेव्वाणमाहितं, विरतीओ वा विरतस्स वा संतिणेव्वाणमाहितं, शान्तिरेव निर्वाणमाख्यातं संतिणेव्वाणमाहितं । अहवा संति त्ति वा व्वाणं ति वा मोक्खो त्ति वा कम्मखयो त्ति वा एगहुँ, तेनापदिश्यते 15 संति णेव्वाणमाहितं ॥ २०॥ उक्ता उपसर्गाः, ते च सर्व एव सोढव्याः । आत्मसञ्चेतनीयोपसर्गापवादस्तु नाऽशरीरो -धर्मो भवतीति कृत्वा २४४. इमं च धम्ममायाय कासवेण पवेदितं । . कुजा भिक्खू गिलाणस्स अगिलाए समाहिते ॥ २१॥ * २४५. संखाय पेसलं धम्म दिट्टिमं परिणिव्वुडे । 20 उवसंग्गे णिरे किच्चा आमोक्खाए परिव्वएजासि ॥ २२ ॥ त्ति बेमि ॥ ॥ उवसग्गपरिगणा ततियं अज्झयणं सम्मत्तं ॥३॥ ॥ उपसर्गपरिज्ञाध्ययनं समाप्तम् ॥ ३ ॥ [ग्रन्थानम्-३०००] ॥ १विवजेजाऽदिण्णादाणाइ वो खं १ पु २ वृ० दी। च वजेजा अदिण्णादाणं च वो खं २ । विवजेजाऽदिण्णादाणं च वो पु १॥ २ उड्महे खं १ खं २ पु १ पु २॥ ३'त्थ विरतिं कुज्जा संति खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ ४°मायाए पु१॥ ५संखाए खं १ पु १॥ ६°सग्गे नियामेत्ता आ° पु २ बृ० दी । सग्गे नीयाएत्ता आ खं १ । सग्गेऽहियासेत्ता आ° खं २। सग्गे निययत्ता आ° पु १॥ ७°ण्णज्झ पु २॥ Jain Education Intemational Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० २४२-४५ णित्तिगा० ४७-४९] सूयगडंगसुतं विश्यमंग पढमो सुयक्खंधो । [चउत्थं इत्थीपरिणज्झयणं] [पढमो उद्देसओ] इदाणिं इत्थिपरिण्ण त्ति अज्झयणं । उवक्कमादि चत्तारि अणुयोगदारे परूवेऊणं अत्याधियारो। सो दुविधो-अज्झयणस्थाधियारो उद्देसत्याधियारो य । अज्झयणत्याहियारो जाणणपरिणाए तिविधाउ वि अत्थिगाउ जाणित्तु पञ्चक्खाणपरिण्णाए 5. ताओ परिहरितव्वाओ। उद्देसत्याधियारे इमा गाहा पढमे संथव-संलोवाइएहिं खलणा उ होति सीलस्स । बितिएँ इहेव खलियस्से विलंबणा कम्मबंधो य ॥१॥४७॥ पढमे संथवसंलावाइएहिं० गाहा । पढमे उद्देसए यथा येन प्रकारेण संवाससंथवेण संबद्धवसधिमादीहि य दोसेहिं गमणा-गमणमादिपुच्छाहि य उल्लाव-संलाव-भिण्णकधाहि य इत्थीहिं सद्धिं सीलक्खलणं भवति पढमुद्देसे । विलंबणाओ 10 लभति चोदिजंतो बितिउद्देसए खलितो समणधम्माओ, विलंबणा पाविजति लिंगत्थओ होतो, स वा लिंगाओ अप्पं वा लिंगं वा सपक्ख-परपक्खातो य हीलणं पावति ॥ १॥ ४७ ॥ णामणिप्फण्णे णिक्खेवे इत्थिपरिण्णा । इत्थि परिण्णा य दुपदं णाम । तत्थित्थीए दव्वाऽभिलाव चिंधे वेदे भावे य इत्थिणिक्खेवो। अभिलावे जह सिद्धी भावे 'वेदम्मि उवउत्तो ॥२॥४८॥ 16 दव्वामिलाव चिंधे० गाधा । जाणगसरीरभवियसरीरवतिरित्ता दुविधा-मूलगुणणिवत्तणाणिव्वत्तिया य उत्तरगुणनिव्वत्तणानिव्वत्तिया य । मूलगुणे इत्थिसरीरगं विप्पजढं जीवेणं, उत्तरगुणे कट्ठकम्मादिसु । अथवा दव्वत्थी तिविधाएगभविया बद्धाउया अभिमुहणामा-गोता । अभिलावुत्थी जधा साला माला वेला सिद्धी इत्यादि । चिंधित्थी अवगतवेतं इत्थीशरीरगं, तं पुण छउमत्थरस केवलिस्स वा । वेदित्थी इथिवेदं वेयमाणी। भावित्थी आगमतो णोआगमतो य । आगमतो इत्थिवेदजाणओ तदुवउत्तो। [णोआगमतो] इत्थिवेदणाम-गोताई कम्माइं वेदयमाणो जीवो ॥ २ ॥४८॥ इत्थि भणिया । इदाणिं परिणा, सा जधा सत्थपरिणाए [आचा० नि० गा० ३७ ] । जधा संजताणं इथिपरिणा तधा संजतीणं पुरिसपरिण्णा । इत्थीपडिपक्खो पुरिसो तेण तस्स वि णिक्खेवो भाणितव्यो णामं ठवणा दविए खेत्ते काले य पंजणणे कम्मे ।। भोगे गुणे य भावे दस एते पुरिसणिक्खेवा ॥३॥४९॥ णाम ठवणा दविए० गाधा । णामे जधा घडो पडो कलसो । ठवणापुरिसो कढकम्मादिकता जिणपडिमा वासुदेव-25 पडिमा एवमादि । दव्वे जाणगसरीरादि जधा इत्थी तधा भाणियव्यं । खेत्ते जो जत्थ खेत्ते पुरिसो, जधा सोरदो सावगो मागधो वा एवमादि, यस्य वा यत् क्षेत्रं प्राप्य पुंस्त्वं भवति, अन्यत्र न भवति । कालपुरुषोऽपि यावन्तं कालं पुरुषो भवति, जधा-"पुरिसे णं भवंते पुरिसो त्ति कालतो केवचिरं होति ?, जधण्णेगं एगं समयं उक्कोसेणं सागरसयपुहत्तं" १ 'अत्थिगाउ' स्त्रिय इत्यर्थः ॥ २ संलवमाइहिं खं २ पु २॥ ३उ होज खं १ ख २ वृ०॥४बीर खं १॥ ५°स्सऽणवत्था कम्म° खं १ । स्स अवस्था कम्म खं २ पु २॥ ६°धियादी वा० मो० ॥ ७ खलिंतो चूसप्र० ॥ ८ अभिलावो खं १॥ ९वेयसि खं १॥ १० पजणण पु२॥ Jain Education Intemational Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ णिज्जुत्ति - चुण्णिसमलंकियं [ ४ इत्थीपरिष्णज्झयणे पढमो उद्देसभ [ प्रज्ञा० पद० स्० ] । यो वा यस्मिन् काले पुरुषो भवति, [ जहा कोइ एगम्मि पक्खे पुरिसो, ] एगम्मि पक्खे णपुंसगो । प्रजन्यते अनेनेति प्रजननम् तद् यस्य केवलमस्ति न पुंस्त्वं स प्रजननपुरुषः । कम्मपुरुसो नाम यो हि अतिपौरुषाणि कम्माणि करोति, यथा वासुदेवः, स कर्मपुरुषः । भोगपुरिसो चक्काट्टी | गुणपुरिसो णाम यस्य पुरुषगुणा विद्यन्ते इमे । तद्यथा 5 व्यायामो विक्रमो वीर्यं सत्त्वं च पुरुषे गुणाः । कान्तित्वं च मृदुत्वं च विक्लवत्वं च योषिताम् ॥ १ ॥ [ ] भावपुरिसो आगमतो णोआगमतो य । आगमतो पुरिसो पुरिसजाणगो तदुवउत्तो । गोआगमतो पुरिसणाम - गोताई कमाई वेदयंतो । दस एते पुरिसणिक्खेवा इति ॥ ३ ॥ ४९ ॥ पढमे संथव० गाधा, जे निहिता पढमे संथव-संलावादिगेहिं पुव्वत्तं— 10 20 25 सूरा मो मण्णता० गाधा । सूरा मो मण्णंता, इत्थिहि अपडिविरत त्ति वाक्यशेषः । कैतवं नाम माया, कैतवयुक्ताः कैतविकाः । उवधी नाम अन्येषां वशीकरणम् । अधिका कृतिः निकृतिः नियडी । तत्प्रयोगाद् गहिता तु अभय - पञ्जोत- कूआधारादिणो, सूरो पज्जोतो, कूवया (धा) रो तबस्सी, एवमादिणो जीवा इत्थिदोसेण इह परभवे य णाणाविधाई 15 दुखाइं पाति हत्थ - पायच्छेदादीणि ॥ ४ ॥ ५० ॥ सूरा मो मण्णता केइतवियाहि उवहि-नियडिप्पहाणाहिं । हिता तु अभय - पज्जत - कूआधारादिणो बहवे ॥ ४ ॥ ५० ॥ * तम्हाण हुँ वीसंभो गंतव्वो णिचमेव इत्थीणं । पढमुद्दे से भणिता जे दोसा ते गणंतेणं ॥ ५ ॥ ५१ ॥ * सुसमा वि असमत्था कीरंती अप्पसत्तिया पुरिसा । दिस्संति सूरवादी णारीवसगा ण ते सूरा ॥ ६ ॥ ५२ ॥ धर्मं प्रति असमर्थाः । अप्पसत्तिया नाम परीसहभीरुणो । रणसूरवादिणो वि णारीवसगा दीसंति, जधा ते चैव पजोदादयो ॥ ५ ॥ ६ ॥ ५१ ॥ ५२ ॥ को पुण सूरो ?, उच्यते— * धम्मम्मि जो दढमेई सो सूरो सत्तिओ य वीरो य । मणिरुच्छाहो पुरिसो सूरो सुबलिओ वि" ॥ ७ ॥ ५३ ॥ जो धम्मम्मि दढो सूरो सत्तिगो य, ण उ जो धम्मणिरुच्छाहो, धर्मं प्रति सूरो भवति । यद्यपि बलवानसौ सरीरेण: तथाऽप्यसौ दुर्बल एव ॥ ७ ॥ ५३ ॥ * एते चैव य दोसा पुरिसपमादे वि "इत्थिगाणं पि । तम्हा तु अप्पमादो विरागग्गम्मि तासि पि ॥ ८ ॥ ५४ ॥ ॥ चउत्थमज्झयणं सम्मत्तं ॥ ४ ॥ 'पुरिसोत्तरिओ धम्मो' त्ति काउं तेण इत्थीपरिण्णा वृत्ता । इत्थीण वि एसा चेव विवरीता पुरिसपरिणा 30॥ ८ ॥ ५४ ॥ गयो णामणिष्कण्णो । सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारेतव्यं अखलितादि जाव पंचधा विद्धि लक्षणमिति । सुत्तस्स सुते १ कतियवियाहिं उयहिप्पहा खं १ पु २ वृ० ॥ २ गहिया हु अभ° खं १ खं २ पु २ ॥ ३ 'कुलवारादि खं १ । "कूलवालादि खं २ पु २ वृ० ॥ ४ उखं २२ ॥ ५ इत्थी सुं खं २ पु २ ॥ ६ स्थाasसम खं २ पु २ ॥ ७ दीसंति खं १ खं २ पु २ ॥ ८ ॰वायी नारी खं १ ॥ ९°मदी खं २ पु २ ॥ १० धम्मि णि० वा० मो० ॥ ११ य खं १ ॥ १२ पुरिससमाए विसं १ खं २ पु २ वृ० ॥ १३ इत्थिकाणं खं १ ॥ १४ मग्गंसि खं १ | मग्गम्मि वार्सिसु खं २ ॥ For Private Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ सुत्तगा० २४६-४८ णिजुत्तिगा० ५०-५४] सूयगडंगसुत्तं विडयमंगं पढमो सुयक्खंधो। संबंधो-"आमोक्खाय परिव्वएज्जासि" [ गा० २४५] त्ति पडिलोमे उवसग्गे अधियासेन्तो इमे इत्यन्ये अनुलोमाः । उपोद्धात एव तस्योपदिश्यते-पूर्व प्रव्रजति पश्चादुपसर्गान् सहतीत्यतोऽपदिश्यते २४६. 'ये मातरं च पितरं च, विप्पजधाय पुव्वसंजोगं । एगे सहिते चरिस्सामि, आरतमेधुणो 'विवित्तेसी ॥१॥ २४६. ये मातरं च पितरं च० वृत्तम् । ये इति अणिहिट्ठणिदेसो । चशब्दोऽधिकवचनादिषु, भ्रातरं भगिनी[मि]-5 त्यादि । विविधं प्रधाय विप्रधाय तृणमिव पटान्तलग्नम् । पूर्वसंयोगो गृहसंयोगः, अथवा जातः सन् यैः सह पश्चात् संयुज्यते स संयोगः, स तु भार्या-श्वशुर-पुत्र-दुहित्रादि, अथवा सर्व एव पूर्वापरसहसम्बन्धः पूर्वसंयोगो भवति । अथवा द्रव्य-भावतः पूर्वसंयोगः । द्रव्ये स्वजनसंस्तवो नोस्वजनसंस्तवश्च । स्वजने पूर्वापरसंस्तवः । नोस्खजनसंस्तवस्त्रिविध:सञ्चित्तादि । सञ्चित्ते दुपद-चतुप्पदा-ऽपदं, द्विपदे दासी-दास-भृत्य-मित्रवर्गादि, चतुष्पदे हस्ति-अश्व-गो-महिष्यादि, अपदे आरामोद्यान-पुष्प-फलादि १। अचित्ते हिरण्णादि २। मिश्रे साधारणालङ्कार-प्रहरण-हस्त्यश्वादि ३ । भावे मिच्छत्ता-ऽविरति-10 अण्णाणादि । एगे सहिते चरिस्सामि, एगो णाम राग-दोसरहितो, सहितो णाणादीहि, आत्मनो वा हितः स्वहितः, चरति गच्छति चयूर्यते चैकोऽर्थः । आरतमेधुणो णाम उपरतमैथुनः । कतर आरतः ? विवित्तेसी, विवित्तं द्रव्ये शून्यागारं स्त्री-पशुवर्जितम्, भावे तत्सङ्कल्पवर्जनता, विविक्तान्येषतीति विवित्तेसी मार्गयतीत्यर्थः, विविक्तानां-साधूनां मार्गमेषतीति विवित्तेसी । अथवा-कर्मविवित्तो मोक्खो तमेवमेषतीति "विवित्तमेसी" ॥ १॥ २४७. सुहुमेण तं परकम्म, छण्णपदेण इत्थीओ मंदा। __ जाणंति ता उवायं च, जध लिस्संति भिक्खुणो एगे ॥२॥ २४७. सुहुमेण तं परकम्म० वृत्तम् । सुहुमेनेति निपुणेन, उपायेनेति वाक्यशेषः । परकम्म ति पराक्रम्य अभ्यासमेत्य, वन्दनपूर्वकेन सूक्ष्मेनोपायेन । छन्नपदेनेति अन्यापदेशेनऍत्तकिडगा य णत्तुय-भातीकिडगा य पीतिकिडगा य । एते जोव्वणकिडगा पच्छन्नपती महिलियाणं ॥१॥ [ 20 अथवा छमपदेनेति छन्नतरैरभिधानैराकारैश्चैनं अभिसर्पति । तद्यथाकाले प्रसुप्तस्य जनार्दनस्य, मेघान्धकारासु च शर्वरीषु । मिथ्या न भाषामि विशालनेत्रे ! ते, प्रत्यया ये प्रथमाक्षरेषु ॥१॥ 10 जाणंति ता उवायं च, उपायो नाम विविक्तविश्रम्भरसो हि कामः, स तु एको आत्मद्वितीयो वा, गच्छगतस्य किं करिष्यति ? । तस्यैवं देश-कालं छक्कं च जध लिस्संति त्ति येन प्रकारेण लिश्यन्ते सम्बध्यन्त इत्यर्थः । एके, न सर्वे, अन्ये 25 हि स्त्रीजनालिङ्गिता अपि न ताभिः सम्बध्यन्ते, पवनबलसमीरिता वह्निज्वाला इव चैनां मन्यन्ते ॥ २॥ ते तूपाया इमे-यथा यथा ह्यग्निः सन्निकृष्टो भवति तथा तथा दहति इत्येवं मत्वा- २४८. पासे भिसं णिसीयंति, अभिक्खणं पोसर्वत्थं परिहिंति । कायं अधेवि दंसेंति. बाहह कक्खं परामसे ॥३॥ १ जे खं १ ख २ पु १ पु २॥ २विवित्तेसु वृ० दी० । विवित्तेसी खं १ खं २ पु १ पु २ वृपा० । विवित्तमेसी चूपा॥ ३ उवायं पिताउ जाणंति जह वृ० दी । उवायं पिताउ जाणिंसु जह खं १ खं २ पु १ पु २ बृपा० । खं १ पु १ ताउ स्थाने तातो॥ ४ "पिय-पुत्त-भाइकिडगा णत्तकिडगा य सयणकिडगा य।" इतिरूपं पूर्वार्ध वृत्तौ वर्तते ॥ ५निसीतंति खं १ ख २॥ ६ वत्थ' खं १ ख २ पु१पु२॥ ७बाहुमुट्ट खं १ पु २।बाहु उद्धटु पु १॥ ८ कक्खमणुव्वजे खं १ ख २ पु १ पु २ वृ. दी। Jain Education Interational Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ णिजुक्ति-चुण्णिसमलंकियं [४ इत्थीपरिण्णायणे पढमो उद्देसमो ..२४८. पासे भिसं णिसीयंतिक वृत्तम् । भृशं नाम अत्यर्थे प्रकर्षे, ऊरुणा ऊरुं अक्कमित्ता, दूरगता हि नातिनेहमुत्पादयन्ति विश्रम्भदा तेण अद्धासणे णिसीदंति सन्निकृष्टा वा । परिभुजमाना पुंसा पुष्यन्तेऽनेनेति पोषकम् , तन्निमित्तं वा कामिभिर्वस्त्रा-ऽन्न-पानादिभिः पुष्यत इति पोषकम् , पोसवत्थं णाम णिवसणं, तमभीक्ष्णमभीक्ष्णमायरबद्धमपि शिथिलीकृत्वा परिहिंति । णिविहाउद्वित्ताओ य आसन्नगताओ होइऊण कार्य अधे वि दंसेंति जंघा वा दुन्निविट्ठलक्खेण वा 5 जधणेण हिता वा संती णिवेसयंती गुह्यमिति प्रकाश्य पुनर्वीलामंचेति । बाहुट्ट उद्धटु नाम उत्सृज्य कक्षां परामृशति, एवमादीनि अन्यान्यपि भ्रूकटाक्षविक्षेपादीनाकारान् करोति ॥ ३ ॥ किश्च २४९. सयणा-ऽऽसणेहिं जोग्गेहिं, इत्थीओ एगता णिमंतेंति । एताणि चेव से जाणे, पासाइं विरूवरूवाइं ॥४॥ . २४९. सयणाऽऽसणेहि जोग्गेहि० वृत्तम् । तमेकाकिनं व्याकुलसीयं वा मत्वा सयणे णिमंतेंति, सयणं णाम 10 उवस्सयं, सीतं इदाणिं साहु अंतो, अतीव गिम्हे वा पवारण णिमंतेंति, धूलिं वा कतवरं वा उवस्सग्गाउ णीगंति, अण्णतरं वा सम्मज्जणा-ऽऽवरिसीयणाति उवस्सगपकम्मं करेंति । आसणेणं ति पीढएण वा कट्ठमएण आसंदएण वा णिमंतेंति । योग्यमिति यस्मिन् काले हितं निवातं प्रवातं वा । स्यात्-किमासां भिक्षुणा प्रयोजनम् ? नन्वासामन्ये कामतत्रविदः तत्प्रयोजनिनश्च गृहस्था विद्यन्ते ?, उच्यते, कुयोषितो विधवा विप्रवसितधवाः, तासां हि विरूपोऽपि तावद् वयस्थोऽभिकाम्यो भवति, दुर्मुखोऽप्यायतार्थिकोऽपि एकान्तरुचिरपि, किमु यः सरलः सुरूपो विचक्षणः ? । उक्तं च-"माधुर्य प्रमदाजने च 15 ललितं" [ ]। ता हि सन्निरुद्धाः सधवा विधवा वा, आसन्नगतो हि निरुद्धाभिः कुब्जोऽन्धोऽपि च काम्यते, किमु यो सकोविदः ? । उक्तं हि अंबं वा निबं वा अब्भासगुणेण आरुभति वल्ली। [ एवं इत्थीतो वि य ज आसन्नं तमिच्छति ॥१॥) दूरस्थं चैनं मत्वा यात्-अम्हे हि ण सकेमो सकम्मादण्णाओ वंदितुं णमंसितुं वा, इमाणि अम्हं सयणाणि वा। 20 अथवा योग्यग्रहणाद् उच्चार-पासवण-चंकमण-स्थाण-ज्झाण-ऽज्झयणभूमीओ घेप्पंति । सा जइ कदाइ सड्डी भवेज जाणइ जाई साधुजोग्गाई । इत्थी/ओ एगता णिमंति, एकस्मिन् काले एकदा, यदा यदा स एकाकी भवति व्याकुलसखायो वा, अथवा वरिसारत्तादिसु जत्थ सयणा-ऽऽसणोवयोगो भवति । सयणमिति संथारगो घेप्पति उवस्सओ वि । एताणि चेव से जाणे पासाई विरूवरूवाई, एतानीति यान्युद्दिष्टानि शयना-ऽऽसननिमश्रणानि । स भिक्षुः । पासयन्तीति पासा, त एव हि पासा दुश्छेद्याः, न केवलं हाव-भाव-भ्रविभ्रमेङ्गितादयः न हि शक्यमुल्लङ्घयितुम्, न तु ये दान-मान-सत्काराः शक्यन्ते 20 छेत्तुम् । उक्तं हि जं इच्छसि घेत्तुं जे पुटिव ते आमिसेण गेण्हाहि । आमिसपासणिबद्धो काही कजं अकजं पि ॥१॥ . विविधरूवाई ताणि पुण पासाणि विरूवरूवाणि सम्बाधन-उपगृहन-आलिङ्गनादीनि । जधा ताणि परिहरणीयाणि तथा तद्भयादेव सयणा-ऽऽसणणिमंतणादीणि परिहरितव्वाणि ॥४॥ ताणि पुण कथं परिहरितव्याणि ?, उच्यते २५०. णो तासि चक्खु संधेजा, णो वि य साहसं समणुजाणे । णो सद्धियं पि विहरेजा, एवमप्पा रक्खित्तु सेओ॥५॥ 30 १ वीलामंचेति ब्रीडां प्राप्नोति इत्यर्थः ॥ २ सणेण जोगे(ग्गेण इ° पु २ वृ० । सणेहिं जोगे(ग्गे)हिं खं १ खं २ पु १ दी.॥ ३ पासादि खं १ । पासाणि पु १ पु २॥ ४ संखायं सं० वा. मो० । °संख्यायं पु० ॥ ५ तासु खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ६ समभिजाणे खं १ ख २ पु १ पु२॥ ७सद्धितं खं १॥ ८°प्पा सुरक्खितो होति खं १ खं २ पु१पु२ ३०दी.॥ Jain Education Intemational Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० २४९-५२] सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। २५०. णो तासि चक्खु संधेजा० सिलोगो (? वृत्तम् ) । चक्षुसंधणं णाम दिट्ठीए दिद्विसमागमो, अकुटुओ विकुटुओ विय तासु णिच्चं भवेजा, कार्येऽपि सति अस्निग्धया दृष्ट्या अस्थिरया अवज्ञया चैनामीपनिरीक्षते । साहसमिति परदारगमनम् , न ह्यसाहसिकस्तत् करोति, सङ्घामावतरणवत्, तत्र हि सद्यो मरणमपि स्यात्, हस्तादिच्छेद-बन्ध-घातो वा, खदारमपि तावद् दीक्षितस्य साहसम्, किमु परदारगमनम् ? । अथवा साहसं मरणम् , प्राणान्तिकेऽपि न कुर्यात् । अथवा यदसौ स्त्री चापल्यात् साहसं कुर्यात् तदस्या न समनुजानीयात् । उक्तं हि-"पुरुषे विद्यते सत्त्व" [ ] मिति । । जो सद्धियं पि विहरेजा, नेति प्रतिषेधे, सद्धियं ति ताहिं सह गामाणुगाम विहरेज, जत्थ वा ताओ ठाणे अच्छंति तत्थ ण चिट्ठितव्वं, कयाइ पुलिंब ठितस्स रत्तिं एज ततो णिगंतव्वं, क्षणमात्रमपि न संवस्याः । एवमप्पा रक्खित्तु सेउ त्ति आत्मेति सरीरमात्मा च, स इह परे च लोके अतिरक्षितो भवति, ये इह मैथुनानाचारदोषास्तस्य न भविष्यन्तीत्यतोऽतिरक्षितो भवति ॥५॥ पुनरिदानी पाशाः २५१. आमंतिय ओसवियं वा, भिक्खं आयसा र्णिमंतेति। एताणि चेव से जाणि, सहाणि विरूवरूवाणि ॥६॥ २५१. आमंतिय ओसवियं वा० वृत्तम् । काचित् सन्निकृष्टगृहवासिनी सेज्जायरी प्रातिवेशिकी वा अहनि विरहाद्यलम्भात् ब्रूयाद्-अहं निश्यागमिष्यामि, नास्ति मेऽहनि क्षणो विरहो वा, तद् अस्या न समनुजानीयाद् धर्म श्रोतुमितरप्रयोगेन वा । यदि चेद् मम भर्तुः शङ्कसे तत एनमहं आमत्र्य आगमिष्यामि, आमत्रय नाम पुच्छितुं तत्प्रयोजनावसितं वा स्थापयित्वा । अथवा ब्रूयात्-असावहनि कृष्यादिकर्मपरिश्रान्तः भुक्तः सन् निष्पन्नमात्र एव मृतवच्छेते, भद्रक एवासौ. 15 न मम रुस्सिहिति त्ति, जइ वि से परपुरिसेण सह गच्छमाणि पेच्छति तधा वि न विरूसेज, अथवा शङ्केत । ननु ते भर्ता न विरूँष्येत ?, सा ब्रवीति-आमंतिय ओसविया णं, आमंतिय ओसविया व तमहमागता, तुब्भे वीसत्था होह, विविक्तविश्रम्भरसो हि कामः । यच्च पृच्छसि किमागता विकाले ? इति, नं धर्म श्रोतुम् । ब्रूयाद्वा-ममाऽऽणत्तियं देव यन्मया कर्त्तव्यमिति शुश्रूषा-पादशौच-म्रक्षणादि, यद् वा किश्चिदस्मद्गृहेऽस्ति तत् सर्वमहं च भवत्सन्तकं आयसा नाम आत्मसा, अप्पएण वि णिमंतेति-तुभंचयं इमं शरीरगं, अहं ते चलणोवधातकारिया, एवं भिण्णकधादीहिं सम्बन्धः । 20 सम्बाधना-ऽऽलिङ्गन-उपगृहन-कंठावलम्बणादीणि वा कुर्वती निवारिता ब्रूयात्-कुत्र वा ममान्यत्रोपयोगः, एताणि चेव से जाणि सहाणि, एतानात यान्युद्दिष्टानि स इात तानीति यान्युद्दिष्टानि से इति स भिक्षुः, शब्दा नाम ये शब्दादिविषयाः कथिताः, न केवलं गीताऽऽतोद्यशब्दा वाः, आत्मनिमश्रणादयो हि सुदुस्तराः शब्दाः। अथवा यानि सीत्कारादीनि सहाणि कजति तान्येवैतानि विद्धि निमन्त्रणादीनि शब्दानि, पठन्ति च-सहाणि विरूवरूवाणि, तासु हि पंचलक्खणा विसया संति विभासितव्वा । विविधं विसिटुं वा रूवं विरूवं, विरूवाणि रूवाणि जेसिं ताणिमाणि विरूवरूवाणि । णाह ! पिय! कंत! सामिय! दइत! वसुल! होल! गोल! गुललेहि। जीए जियामि तुब्भं पभवसि तं मे सरीरस्स ॥१॥ ]॥६॥ इमानि चान्यानि च शब्दानि२५२. मणबंधणेहि णेगेहिं, कलुण-विणीय,पक्कमित्ता णं । अदु मंजुलाई भासंति, आणमयंति भिण्णकधाहिं ॥७॥ १ क्षेत्रमात्र चूसप्र० ॥ २°ओसविया णं, मि° चूपा० ॥ ३ आतसा खं २। आयया पु २॥ ४णिमंतेति पु१ वृ० दी० ॥ ५जाणे खं १ खं २ पु २ वृ० दी०॥ ६ विरूप्येत पु०॥ ७ आत्मना इत्यर्थः ॥ ८°कंठोवलंब सं० वा० । कंठोलंब मो० ॥ ९°धणेहऽणे खं १॥ १०°मुषगसित्ताणं खं १ ख २ पु १ पु २ वृ• दी०॥ ११ आणवयंति मि खं २ वृ० दी। आणमंति तेणं मिखं १ । आणमयंति णं मिपु १ आणवयंति णं मिपु२॥ सूय० सु० १४ Jain Education Interational Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [४ इत्थीपरिणज्झयणे पढमो उद्देसओ २५२. मणबंधणेहि णे० वृत्तम् । मनसो बन्धनानि मनोबन्धनानि, तानि तु गतयश्च निरन्तरोरूमन्दा यस्मिन् । करुणमाकारतो वाक्यतश्च, विनीतवद् वन्दन-पूजनं पादादिसम्बाधनं उपक्कमित्ता अल्लिइत्ता अदु मंजुलाई भासंति, मणसि लीयते मनोऽनुकूलं वा मञ्जलम् , मदनीयं वा मञ्जलम् । मित-मधुर-रिभितजंपुल्लएहि ईसिकडक्खहसितेहिं । सविकारेहि विरागं हितयं पिहितं मयच्छीए॥१॥ भेदकरी कधा भिण्णकधा। तं जहा-तुम सि किं वत्तवीवाहो पव्वइतो ण व ? त्ति, वृत्तवीवाह इति चेत् कथं सा जीवति त्वया विनैवंविधरूपेण ? इति, कुमार इति चेद् अनपत्यस्य लोका न सन्ति, किं ते तरुणगस्स पव्वज्जाए ?, दारिका वरिजासु, मया वा सह भुञ्ज भोए, स्यात् कथं वैराग्यं वा ? । कामभोगपरम्पराज्ञः भुक्तभोगः कुमारगो वा तत्प्रयोजनात्यन्तपरोक्षः आनम्यते ॥ ७ ॥ कथम् ? २५३. सीहं जधा व कुणिमेणं, निब्भयमेगचरं पासेणं । ___ एवेत्थियाउ बंधंती, संवुडमेगतियमणगारं ॥ ८॥ २५३. सीहं जधा व कुणिमेणं० वृत्तम् । येन प्रकारेण यथा सहस्तिकोऽपि स्कन्धावारः सिंहेनैकेन भज्यते, कचिच्च पन्थाः सिंहेन दुर्गाश्रयेण निःसञ्चरः कृतः, स च तद्हणोपायविद्भिः पुरुषैश्छगलकं मारयित्वा तद्गोचरे निक्षिप्य पाशं च दद्यात्, तेन कुणिमकेन बध्यते, एकचरो नाम एक एवासौ चरति, न तस्य सहायकृत्यमस्ति । उक्तं च-"न सिंहवृन्दं भुवि 15 दृष्टपूर्व०" [ ] । एवेत्थियाउ बंधंति, भावबन्धेन । द्रव्यसंवुतो हि समुद्रकूर्मो । “पिहिता आश्रवा यस्य भावतः स तु संवृतः।" [ ] भावैकचरः द्रव्यतो भाज्यः । भावपाशास्त्विमे-गति-विभ्रमेङ्गिताकार-हास्यादयः, यै वो बध्यते । संवृतोऽपि तावद् बध्यते किमु योऽल्पवृत्तिरिति ॥ ८ ॥ २५४. अह तत्थ पुणो नमयंति, रहकारो व णेमि आणुपुवीए। बद्धे मिए व पासेणं, 'फंदतो वि ण मुच्चती ताहे ॥९॥ 20 २५४. अह तत्थ पुणो नमयंति० [वृत्तम् ] । तस्मिन्निति तत्र, मूर्च्छित इति वाक्यशेषः । असंयमनतं पुनरने कैरुपायैर्नमयन्ति यद् यदिच्छन्ति तत् तत् कारयन्ति, यथा रथकारः नेमिकाष्ठं तक्षन क्रमशः । यदि स एवं नतः बद्धे मिए व पासेणं, यथाऽसौ मृगः पाशेन बद्धः मुमुक्षुः स्पन्दमानोऽपि न मुच्यते एवमसावपि विषमदामैर्बद्धः कुकुटुम्बे कुतत्तीहिं व्याप्रियमाणोऽपि पुनर्विजिहीर्षुरपि न शक्नोत्यवसर्पितुं क्रव्यगृद्ध इव सिंहः। भावगाय कुकुटुम्बव्यापारैः स कृष्यादिभिः व्याप्तः कर्मभच्छितः ॥९॥ २५५. अह सेऽणुतप्पती पच्छा, भोचा पायसं व विसमिस्सं । ___ एवं विवागमण्णिस्सा, संवासो ण कप्पते दविए ॥१०॥ २५५. अह सेऽणुतप्पती पच्छा. वृत्तम् । यथा कश्चिद् जानन अजानन् वा विषमिश्रं पायसं भुक्त्वा तत्परिणामे वेदनोदये भृशमनुशोचते । एवं विवागमण्णिस्सा, एवमिति योऽयमुक्तः विवागो [वि]पाकः दारभरणादिपरिक्लेशः । "विवेग" इति चेद् भवति विविच्यते येन भवः कर्म वा स विवेगः संयमः। “एवं विवेगमाताते" स्त्रीभिः सङ्गमो न कार्यः, 30 काष्ठकर्मादित्रीभिरपि तावत् संवासो न कल्पते, किमु सचेतनाभिः ? । दविओ नाम राग-दोसरहितो, एगतो वासः संवासः, तदासण्णे वा संवसतो संथव-संलावादिदोसा असुभभावदर्शनं भिन्नकथा वा स्यात् । उक्तं हि-"तदिन्द्रियालोचनसक्तद्रव्याः०" [ ]॥ १० ॥ १°कारु व्व खं १ पु २॥ २णेमि खं १ खं २ पु २॥ ३ फंदंते विण मुच्चई खं २ पु १ पु २॥ ४ विवागमादाय वृ० दी । विवेगमण्णिस्सा चूपा० । विवेगमाताते खं १ खं २ चूपा० धूपा० । विवेगमायाए पु १३२॥ Jain Education Intemational Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ सुत्तगा० २५३-५८ ] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंघो। २५६. तम्हा हु वजए इत्थी, विसलित्तं व कंटगं णच्चा। ओये कुलाणि वसवत्ती, आघाति ण से र्विं णिग्गंथे ॥११॥ २५६. तम्हा हु वजए इत्थी वृत्तम् । तस्मादिति तस्मात् कारणात् । इत्थी तिविधा । कधं वज्जए ? विसलितं व कंटगं णच्चा, विषेण दिग्धो विषदिग्धः आगन्तुना सहजेन वा, अविषदिग्धोऽपि तावत् परिह्रियते किं पुनः सविष इति, स तु मरणभयात् परिह्रियते, स्त्रियस्तु संयममरणभयात् । किञ्च-ओये कुलाणि वसवत्ती, ओयो णाम राग-दोसरहितो। वसे । वर्त्तत इति वशवर्तीति, पूर्वाध्युषितत्वाद् यदुच्यते तत् कुर्वन्ति ददति वा, स्त्रियो वा येषां वशे वर्तन्ते, किं पुनः स्वैरस्त्रीजनेषु, वश्येन्द्रियो वा यः स वशवर्ती, गुरूणां वा वशे वर्त्तते इति वशवर्ती । आघाति नाम आख्याति गत्वा गत्वा धर्म निष्केवलानां स्त्रीणां सहितानां पुंसाम् असावपि तावन्न निर्ग्रन्थो भवति, किमु यस्ताभिर्भिन्नकथां कथयति ? । यदा पुनर्बद्धवा सहागता पुरुषमिश्रा वा वृन्देन वाऽऽगच्छेयुः तदा स्त्रीनिन्दा विषयजुगुप्सां अन्यतरां वा वैराग्यकथां कथयति । कदाचिद् ब्रूयात-यदि वा गृहमागन्तुं न कथयसि तो भिक्ख-पाणगादिकारणेणं एजध, दृष्टिविश्रामतामपि तावत् त्वां दृष्ट्वा करिष्यामः, 10 अपश्यन्त्या हि मे त्वां शून्यमेव हृदयं भवति ॥ ११॥ एवमुक्त्वा वा २५७. जे एवं उंछंतष्णुगिद्धा, अण्णयरा हु ते कुसीलाणं ।। सुतवस्सिए वि से भिक्खू, णो विरहे सहणमित्थीसु॥१२॥ २५७. जे एवं उंछंतऽणुगिद्धा० वृत्तम् । जे इति अणिद्दिट्ठणिद्देसो। एतदिति यदुक्तं गिहिणिसेज्जा, जे वा एवंविधाणि इच्छन्ति (?उञ्छन्ति) गवसंतेत्यर्थः, अणुप्रयायंते, एतदपि तावद् भवतु यदि रहो नास्ति समागमो वा, अण्णयरा 15 हते कुसीलाणं पासस्थादीणं । कुत्सितसीला कुशीला पासस्थादयः पंच णव वा। पंच त्ति-पासत्थ-ओसण्ण-कुसील-संसत्तअधाछंदा । णव त्ति-एते य पंच, इमे य चत्तारि-काधिय-पासणिय-संपसारग-मामगा। एतेषां हि ते अन्यतरा भवन्ति । स्याद-गृहिनिषद्यातः स्त्रीसमागमाद्वा को दोषः ?, उच्यते, सुतवस्सिए वि से भिक्ख, अथवा अन्यतरो वा भवति कुशीलानां सष्ठ तपस्सितः सुतपस्सितः, योऽपि तावत् तपोनिष्टप्तविग्रहः स्याद् मासोपवासी वा द्विमासोपवासी वा अथवा श्रुतमाशृतः “सुतमस्सितो" गणी वायगो वा, नो प्रतिषेधे, विरहो नाम नक्तं दिवा वा शून्यागारादि पइरिक्कजणे वा स्वगृहे, 20 सहणं ति देसीभासा सहेत्यर्थः । एवं ज्ञात्वा स्त्रीसम्बद्धा वसधी वा । कूयवारो दृष्टान्तः ॥ १२॥ कतराः स्त्रियो वाः ?, उच्यते, असङ्कनीया अपि तावद् वाः, किमु शङ्कनीयाः ? । तद्यथा २५८. अवि धूअराहिं सुण्हाहिं, धातीहिं अदु व दासीहिं। __ मैहल्लीहिं वा कुमारीहिं, संथवं से 0 कुज्जा अणगारे ॥१३॥ २५८. अवि धूअराहिं सुण्हाहिं० [वृत्तम् । अवि संभावणे । धूयरो पुत्तिया। पुत्तवहुयाओ] नाम सुण्हा । धीयत 25 इति धाती। दासीग्रहणं व्यापारक्लेशोवतप्ताः दास्योऽपि वाः, किमु स्वतत्राः स्वैरसुखोपेताः। महल्लीहिं वा कुमारीहि, महल्ली वयोऽतिक्रान्ताः वृद्धाः, कुमारी अप्राप्तवयसा भद्रकन्यकाः । संथवो उल्लाव-समुल्लाव-हास्य-कन्दर्प-क्रीडादि । मातृभिर्भगिनीभिश्च नरस्यासम्भवो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामः पण्डितोऽप्यत्र मुह्यति ॥ १॥ ] ॥१३॥ स्यात् किमत्र ? 30 १उ खं १ खं २ पु २ वृ० दी० ॥ २ इत्थि खं २॥ ३ आघाते ण खं २ पु १ । अक्खाइ ण पु २॥ ४ व.णिग्गंथो खं १ खं २ पु १॥ ५ उंछं अणुगि खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ६ सुतमस्सिए चूपा० ॥ ७ विहरे सह णं इ. खं १ खं २ १ पु २ वृ० दी०॥ ८°मरिष्भतो सं० वा. मो०॥ ९ ाः ? शृण्वते, अस वा० मो०॥ १०धूतराहिं खं १ खं २ पु १॥ ११ महतीहिं खं १ ख २ पु १ पु २॥ १२ णेव कुखं १ खं २ पु १ पु २॥ Jain Education Intemational Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [४ इत्थीपरिण्णज्झयणे पढमो उहेसओ २५९. अदु णातीणं व सुहीणं वा, अप्पियं दटुं एकदा होति। गिद्धा सत्ता कामेहि, रक्खण-पोसणे मणुस्सो सि ॥१४॥ २५९. अदु णातीणं व सुहीणं वा० वृत्तम् । अदुरिति अधवा । णातीणं वा, णातयो णाम कुलघरे वसंतीए पितृ-भ्रात्रादयः, अथवा स्त्री येषां दीयते त एव तस्याः सगोत्रा भवन्ति ज्ञातकाश्च । सुहिणो णाम जे सण्णायका मित्राः तेषामप्रियं भवति, यद्यपि न प्रतिषेधयन्ति । एकदा कदाचिद उभ्रामिकेयं उक्ता वा यात-एष पुत्रमस्तको यथा, नैतत सत्यम् । सा च तस्मिन् रूपवति मूर्च्छिता ब्रूयात्-मा मे पुनरेवं वक्ष्यसि । गिद्ध त्ति वा सत्त त्ति वा मुच्छिय त्ति वा एगहुँ, ब्रूयादिति वाक्यशेषः, ब्रूयात्-अहो ! इमीसे वयं रक्खण-पोसणे करेमो, इमो पुण सेसमणुओ मणुस्सकजं करेइ । भणिज्ज वा-हे खमण ! इमीसे रक्खण-पोसणं करेहि, त्वमेवास्था मनुष्य इति, एस तुमे सद्धिं दिवसं उल्लाविती अच्छइ । अयमपरः कल्प:-हे खमण ! रक्खण-पोसणे मणुस्सो भवति, न कधाहिं किञ्चन, “अन्यो नाप्युदरे कृत्ये दण्डायासोऽपदिश्यते ।" [ 10 ] तत् त्वमेवास्या रक्षणपोषणं कुरु, मनुष्योऽसि, राउले च ते कड्ढामो । अधवा भणेज-हे साधु ! एसा अम्हचिया गिद्धा सत्ता तुमंसि अम्हे णो आढाति णो परिजाणाति, नरकस्त्वमेनां रक्षणेन, पोषणस्त्वमेनां पोषणेन, मनुष्यस्त्वमस्याः॥ १४ ॥ किश्च २६०. सेमणं पि वढदासीणं, तत्थ वि ताव एंगे कुप्पंति । अदु भोयणेहिं णत्थेहिं, इत्थीदोससंकिणो भवंति ॥१५॥ 16 २६०. समणं पि दट्टदासीणं० वृत्तम् । कदाचिदसौ तस्मिन् रूपवति साधौ गृद्धा खरसौष्ठवोपेते वा गृद्धा तच्चित्ता तम्मणा अच्छेज, अभिक्खणं वा अभिक्खणं तम्मतेण दीसेज, पडिचोदिजंती वा अच्छीयमाणी तथैवाऽऽह । समणं पि ददुदासीणं, तमपि तथैव तञ्चित्तं तम्मणं स्वाध्याय-ध्यान-प्रत्युपेक्षणादिसंयमकरणोदासीणं तिष्ठन्तं दृष्ट्वा जानानाश्च 'यथैषोऽस्याः निमित्तेण संयमकरणोदासीणो चिट्ठति' तत्थ वि ताव एगे कुप्पंति, भणंति वा-किमेवं अज्ज लक्खसि ? । अन्यथा च पठ्यते "समणं पि हुदासीणा" उदासीणा णाम येषामप्यसौ भार्या न भवति बान्धवी वा, अपि पदार्थादिषु, तां च 20 पोषितुम, किमु यस्यासौ भार्या बान्धवी वा तामगणयंती?। अथवा उदासीनमिति उदासीनमपि भावात् श्रमणं दृष्ट्या स्त्रीसहगतं एके कुप्यन्ते, किमु सविकारप्रायम् ? इति । अदु भोयणेहिं णत्थेहि, न्यस्तानि उपनीतानि उपेत्य नीतानीत्यर्थः, न गृहिणो, तस्स हत्थातो वा, सो य धण्णगसमणगो गिहिणिसेजवाही वा भिक्खाए आगतो, अथवा न्यस्तमिति तद्गतमनसं दहूं कूरो दत्तो न तावद् व्यञ्जनम्, स चाऽऽगतः, सा तत्रातिसम्भ्रमेणाऽऽतुरीभूता सद्योतकस्यान्यस्य वा दातव्यं तं न प्रयच्छति, अन्यस्मिन् वा दातव्ये कर्तव्ये वा अन्यत् प्रयच्छति करोति वा । निदर्शनं जधा8 कहिंचि गामे पदोसे गट्टे णट्टेण तालिते महले काइ वधू ससुरादीए परिवेसंती भोयणेसु दिण्णेसु कूरमानेति । ताए य तण्डुला इति कातूण राइआओ अवस्सायाओ। ततो णाए कूरो त्ति काउं ससुरस्स उक्किण्णाओ। सो य आणक्खेत्तुं तुसिणीओ महत्थिया संचिट्ठति । पतिणा से आसादेतुं पिट्टिता ॥ ___ एवं तं पि साधुणिमित्तं संभंतं दद्दूण गृहिषु आत्मसु वाऽनादृतां तस्याः भोतकाद्या इत्थीदोससंकिणो भवंति, इत्थीदोसो णाम व्यभिचारिणी ॥ १५॥ स्याद्-एवंविधाः अपि दोषाः कस्यचिद् दृष्टा अभूवन् भवन्ति वा ?, ओमित्युच्यते30 २६१. कुव्वंति संथवं ताहि, पन्भट्ठा समाधिजोगेहिं । तम्हा संमणा! तु जधाहि, आतहिओ सण्णिसेज्जाओ॥१६॥ १णातिणं व सुहिणं खं १ खं २ पु १ पु २॥ २होही खं १॥ ३ उभ्रामत्वियं चूसप्र०॥ ४ कुत्सितो नरः नरक इत्यर्थः ॥ ५समणं दट्टणुदासीणं खं १ पु २ कृपा० । समणं पि दट्टदासीणा चूपा० ॥ ६ एगे पकुपु १॥ ७ अदुवा भो खं २ । अहवा भो खं १ । अह भोपु १ पु २ । “अथवा" इति वृत्तौ॥ ८होंति खं १ खं २ । हुँति पु१ पु२॥ ९उज चूसप्र०॥ १० समणा ण समेंति आतहिताए सण्णि खं १ खं २ वृ० दी० । समणा ण समेंति आयहिताय सण्णि पु १पु २ । समणा! उ जहाहि आअहिताओ सणि वृपा० । समणा ण समिति आतहिओ सण्णि चूपा० । समिति स्थाने समेंति इत्यपि चूपा०॥ Jain Education Intemational Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा०२५९-६३] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। २६१. कुव्वंति संथवं ताहि० वृत्तम् । संथवो णाम गमणा-ऽऽगमण-दाण-सम्प्रयोग-प्रेक्षणादिपरिचयः । ताभिरिति ताभिः स्त्रीभिः । पब्मट्ठा णाम णाण-दसण-चरित्तजोगेहिं । जतो एते दोसा तम्हा समणा! तु जधाहि, तस्मादिति तस्मात् कारणात् श्रमण ! इत्यामश्रणम् , अथवा श्रमणस्त्वम् , किं तवैवंविधैर्व्यापारैः ?, एते गार्हस्थानामेव युज्यन्ते, तुर्विशेषणे, जहाहि । पठ्यते च-"तम्हा समणा ण समिन्ति आतहिओ" न इति प्रतिषेधे, समिति समन्तात्, न समग्रमित्यर्थः, अधवा ण समेन्ति ण समुपागच्छन्ति, आत्मने हितं आत्महितम् , आत्मनि वा हितं आत्महितम्, तासि पि अविरतियाणं तं । हितं इह परलोगे य । सण्णिसेजा णाम गिहिसेज्जा संथव-संकथाओ य ॥ १६॥ स्यात्-प्रव्रज्यामुपेत्यापि एवं कुर्यात् ?, ओमित्युच्यते २६२. बहवे गिहाणि अवहह, मिस्सीभावपण्हया। धुवमग्गमेवे भासिंसु, वायावीरियं कुसीलाणं ॥१७॥ २६२. बहवे गिहाणि अवहट्ट. वृत्तम् । प्रभूताः अपहृत्यापहृत्य उत्सृज्येत्यर्थः । दव्वलिंगेण अच्छमाणा वि मिस्सी-10 भावपण्हया, मिश्रीभावो नाम द्रव्यलिङ्गमिति, न तु भावः, अधवा पव्वजा गिहवासो वि, पण्हता णाम गौरिव प्रस्लुता, एवमेषां कर्मभयादा मिश्रीभावः । प्रियतत्वे कतरः पक्षः? विसय-सायासोक्खपडिबंघेणं भणंति लिंगच्छत्तणमेव वधाणं चिरपम्होमित्ता वि (?) कंखामोहणिज्जकम्मदोसेण कयाइ अधेसप्तमीआ] उअं बंधेज्जा इति । अण्णे पुण अदृदुहट्टवसट्टा असमाधिगता त एवं पंडितत्तणेण धुवमग्गमेव भासिंसु, धुवमग्गो णाम संजमो विरागमम्गो वा, तं जधा-बहुमोहा वि णं पुम्बि विहरिता अह पच्छा संवुडे कालं करेज्जा आराधए भवति, तं तेर्सि वायावीरियमेव केवलं ढक्करिपुत्ताणं, न तु करणवीरियं । 18 उक्तं हि-"जो जत्थ होति भग्गो ओवासं०" [ ] गाधा । वायावीरियं णाम जो भणति ण य करेति भिलङ्गशकुनवत् ॥ १७ ॥ अथवेदं वायावीरियं २६३. सुद्धं रवति परिसाए, अध रहस्सम्मि दुक्कडं कैरेति । जाणंति य णं तधावेता, माइल्ले महासढेऽयं ति ॥१८॥ __२६३. सुद्धं रवति परिसाए० वृत्तम् । सुद्धमिति वेरगं, अथवा शुद्धमिति शुद्धमात्मानम्, ततः पूजा-सत्कारहेतोः 20 परिषदि रौति भाषत इत्यर्थः । अध रहस्सम्मि दुकडं करेति त्ति, एवमुक्त्वा रहस्सम्मि दुक्कडं करेइ त्ति । दुक्कडं णाम पावं, अथवा दुक्खं तद् लिङ्गस्थैः क्रियत इति दुक्कडं । किञ्च-जाणंति य णं तधावेता, स हि जाणीते-न मां कश्चित् जानाति, अथ चैनं तथावेदा जाणंति । तथा वेदयन्तीति तथावेदाः, कामतत्रविद इत्यर्थः, ते हि कामयमानं आकार-विकारैर्जानन्ति । उक्तं हिअकामिनां कामविपाण्डुराणि, तनूनि गात्राणि च कामुकानाम् ।। ] नख-दशनच्छेदनैर्वा सूच्यन्ते यथैतेऽकृत्यकारिणः । यथा अन्धो उच्चाराद्युत्सृजन् दृश्यमानोऽपि परैर्मन्यते 'न मां कश्चित पश्यति' एवमसावपि राग-द्वेषान्धो जानीते 'न मां कश्चित् पश्यति' ज्ञायते च परिव्रजन्नूनजलभृतवत् । अथवा यो यथावस्थितो भावतः तं तथावेदाः प्रत्यक्षज्ञानिनः, ते हि आवीकम्मं रहोकम्मं सव्वं जाणंति । ये पुनस्ते तद्विद्यास्ते ब्रुवते-अहो ! इमो माइल्लो महासढो जो णाम इच्छति अम्हे वि पत्तियावेतुं । ण वि लोणं लोणिज्जति ण य तोप्पिज्जइ घयं व तेल्लं वा । किह सका वंचेतुं अत्ता अणुहूयकल्लाणो? ॥१॥ [ ]॥ १८ ॥ १'भावं पत्थुया वृ० । भावं पणता दी । °भावं पणता पगे। धुव पु १। भावं पत्थुया एगे । धुव खं १ ख २ पु२॥ २°मेव पवदंति खं १ पु १।मेव पवयंती खं २ पु २॥ ३ कुणति खं १ पु १ पु २॥ ४ तहावेदा खं १ पु १। तहावेया खं २ पु २ । “तथाविदः" वृत्तौ ॥ ५मातिल्ले पु१।मायिले पु२॥ 25 Jain Education Intemational Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [४ इत्थीपरिणज्झयणे पढमो उहेसओ २६४. सयदुक्कडं अवदते, आउट्ठो वि पकत्थति बाले। . वेदाणुवीयी मा कासि, चोइजंतो गिलाति से भुजो ॥१९॥ २६४. सयदुक्कडं अवदते. वृत्तम् । एवं तावदसौ स्वयं दुक्कडकारिणं आत्मानं न वदति-यथाऽहं दुकडकारीति । जो वि य गूढायारं प्रवचनवात्सल्यात् तद्धितमिच्छन् वा चोदयति तत्थ वि णिण्हवति । आक्रुष्टो नाम चोदितः आघ्रातः 5 अभिशप्तो वा "कत्थ श्लाघायाम्" भृशं कत्थयति श्लाघत्यात्मानमित्यर्थः, अहं नाम अमुगकुलप्पसूतो अमुगो वा होतओ एवं करेस्सामि ?, येन मया कनकलता इव वातेरिता मदनवशविकम्पमाना भार्या परित्यक्ता सोऽहं पुनरेवं करिष्यामि ? । यदि सम्भाव्यपापोऽहमपापेनापि किं मया ? । निर्विषस्यापि सर्पस्य भृशमुद्विजते जनः ॥ १॥ अथापि ब्रूयाद्वा-को ब्रवीति यथाऽऽहमेवङ्कारी ? इति, स भावेन च ह्येवकारी। उक्तं हि-"स्वेनानुमानेन परं 10 मनुष्याः०” राउले व णं कड्ढावेमि । वेदाणुवीयी मा कासि, वेदः प्रवेदः तस्य अनुवीचिः अनुलोमगमनं मैथुनगमनमित्यर्थः, तस्यानुलोमं मा कार्षीः प्रतिलोमं कुरु । एवं चोदितो माणुक्कडताए सम्मचिट्ठो विव [गिलाति] किलामिजति, "ग्लै हर्षक्षये" दैन्यमायातीत्यर्थः, किमेष मामेवं चोदयति ? इत्यर्थः ॥ १९॥ २६५. उसिता वि इत्थिपोसेहिं, पुरिसा इत्थिवेदखेःण्णा । पण्णासमण्णिता ऐगे, णारीण वसं उर्वणमंति ॥ २०॥ 15 २६५. उसिता वि इत्थिपोसेहिं० वृत्तम् । उसिता नाम वसिता । पोषयन्तीति पोषाः भगं स्त्रियो वा । पुष्णन्तीति पोषकाः भुक्तभोगिनः । इत्थिवेदो हि फुफुमअग्गिसमाणो अवितृप्तः। नाग्निस्तृप्यति काष्टानां नापगानां महोदधिः। नान्तकृत् सर्वभूतानां न पुंसां वामलोचनाः॥१॥ 20 स्त्रियो वा येन वेद्यन्ते स स्त्रीवेदो भवति । वैशिकतत्रेऽप्युक्तम् एता हसन्ति च रुदन्ति च अर्थहेतोः, विश्वासयन्ति च नरं न च विश्वसन्ति । तस्मान्नरेण कुल-शीलसमन्वितेन, नार्यः श्मशानघटिका इव वर्जनीयाः॥१॥ समुद्रवीचीव चलस्वभावाः, सन्ध्याभ्ररेखेव मुहूर्तरागाः।] स्त्रियः कृतार्थाः पुरुषं निरर्थकं, निष्पीडितालक्तकवत् त्यजन्ति ॥२॥ तथाअण्णं भणंति पुरतो अण्णं पासे णिवज्जमाणीओ। अण्णं च तासि हिअए जं च खमे तं करेंति महिलाओ॥१॥ प्रज्ञया समन्विताः लोक-लोकोत्तरशास्त्रविदः उत्पत्त्यादिबुद्धियुक्ताः एके न सर्वे णारीण वसं उवणमति । दृष्टान्तो वैशिकपाठक: एगो किल जुआणो वेसियअहिजणणिमित्तं गिहातो णिग्गतो । पाटलिपुत्तं गच्छंतो अन्तरा एगम्मि गामे एगाए इत्थीए भण्णति-सुकुमालसरीरो तुम कत्थ वच्चसि । तेण भण्णति-वेसियसत्थसिक्खगो वच्चामि । ताए भण्णइ-अधिज्जितं मम मज्झेण एज्जाधि । सो तं अधिज्जितुं तीए समीवमागतो। सा य संभमेण उहिता, तत्प्रयोजनार्थीनि चाकाराणि दर्श १०डं च अवयंति आइटो वि खं 11 इंच अवयंते आइडे वा पु १1 °डं च न वदंते आयट्टो विखं २ । °डं च न वयइ आइटेवि पु २॥ २ उसियावेइ इ खं २॥ ३°पोसेसु पु ख १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ४ खेतण्णा खं १ पु १ ॥ ५ वेगे खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ६ उवकसंति खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ Jain Education Intemational Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा०२६४-६८] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंग पढमो सुयक्खंधो। यति, अब्भंगुव्वलण-हाणाणि उव्वरगे कातुं जहिट्ठपाण-भोयणं मुंजावेन्ती ते आगारे करेति । तेण 'मं इच्छति' त्ति काउं हत्थे गहिता। तीए धाहाकतो । जणो पुच्छितो गताउलो । गलंतिओ उदगं तस्सुवरिं पक्खिविऊण भणति-एसऽग्गगले लग मणं ण मतो। पच्छा जणे गते भणति-किं ते अधीतं ? को इत्थीणं भावं जाणितुं समत्थो ?-त्ति विसज्जितो गतो ॥२०॥ २६६. अदु हत्थ-पादच्छेन्जाइं, अदुवा वद्धमंसं उकंते।। अदु तेयसाभितवणाई, तच्छेतुं खारसिंचणाई च ॥ २१॥ २६६. अदु हत्थ-पादच्छेजाइं० वृत्तम् । अथ इति आनन्तर्ये । परदारप्रसक्ता हि नरा नार्यश्चापि हस्त-[पाद]च्छेदम् । अदुवा वद्धमंसं ति पृष्ठीवाणि उत्कृत्यन्ते, मांसानि चोत्कृत्य काकिणीमांसानि खाविति । अदु तेयसाभितवणाई, तेयसाभितवणं ति तेजः-अग्निः तेनाभितप्यन्ते । तच्छेतुं वासीए सत्थएण वा खारेण ओसिञ्चंति कलकलेण वा ॥ २१ ॥ २६७. अदु कण्णच्छेनं णासं वा, कंठकिजणं तितिक्खंति। इति एत्थ पावसंतत्ता, ण य बेंति पुणो ण करिस्सामो ॥ २२॥ २६७. अदु कण्णच्छेजं० वृत्तम् । कण्णा छिज्जति, णासाउ छिज्जंति, कंठे किजंति त्ति गलच्छेदः, तितिक्खंति पुरुषो वा ता वा स्त्रियः सहन्त इत्यर्थः । एवं विलंबिज्जंता वि इति एत्थ पावसंतत्ता अस्मिन् पापे संतप्ताः, पापं मैथुनं परदारं वा । ण य ३ति पुणो ण करिस्सामो, का तर्हि भावना ? अपि मरणमभ्युपगच्छन्ति, न च ततः पापाद् विनिवर्तन्ते । अपरः कल्पः-यदाऽसौ स्त्री केनचिदुक्ता भवति 'त्वमेवं अकार्षीः' इति । पश्चादसौ ब्रवीति-"अदु हत्थ-पादच्छेजाई" [वृत्तं २६६ ] इमेते पादे छिंदाहि, जीवितस्यापि, मा च मेतं वयणं ब्रूहि, पट्टीवज्झाणि व मे उकंताहि, कागणिमंसाणि व 15 मे खावेहि, मा या मे असब्भावं भणाहि, “अदु तेयसाभितवणाई" [वृत्तं २६६ ] कडग्गिणा व मे डहाहि उम्मुएण वा मे डंभेहि, कुंभिपाएण मे पयाहि, तच्छेऊण वा मे गाताई खारेण सिंचाहि, कण्णं णासं कंठं वा मे छिंदाहि, मा एतं बितियं भणाहि, एत्तो वि मे विब्भंगणाओ वेदणातो वा खलियतरं अब्भाइक्खणं। . तृतीयो विकल्पः-अभिशप्ता वाऽसौ ब्रूयात् हस्तौ वा मे पादौ वा मे छिंदाहि, पृष्ठीवाणि वा मे उत्कृत्य काकणिमांसाणि वा मे खावय वा, अदु तेयसाभितवणाई तेयसा वा मां तृणैरावेष्टय अभितावय, शस्त्रेणान्यतरेण वा मे गात्राणि 20 तक्षित्वा खारेण सिञ्च, अदु कण्णच्छेनं कर्णौष्ठौ वा नासां वा छिन्द, कंठं वा छिन्द । इति एत्थ पावसंतत्ता, पापं तदेव परदारगमनं तत्राऽऽसक्ताः। स्त्रियः ण य न काहं ति, अतीव हि ममासौ मनोऽनुकूलः, तस्य वाऽहं, नाहं तेण विना क्षणमात्रमपि जीवितुमुत्सहे, तं पुण मे वसयसि, जं जाणसि तं करेहि ॥२२॥ एवमेव पुरुषा अपि कामसंतप्ताः निवार्यमाणा ब्रुवते२६८. सुतमेवमेतमेगेसिं, इत्थीवेदे वि हु सुयक्खायं। एवं पिता वदित्ताणं, अंध पुण कम्मुणा अवकरेंति ॥ २३ ॥ २६८. सुतमेवमेतमेगेसिं० वृत्तम् । श्रूयते स्म श्रुतम् । श्रुतमिति विज्ञानं लोकश्रुतिष्वपि तत् श्रूयते, यथा-स्त्रियश्चलस्वभावा दुष्परिचया अदीर्घाप(प्रे)क्षिण्यो लहुसिकाः गर्विताः, एवं लोके आख्यायिकासु आख्यानकेषु च श्रूयते । इथिवेदो नाम वैशिकम् तत्राप्युपदिष्टम्-“दुर्विज्ञेयो हि भावः प्रमदानाम्” [ ] इति । .. १ मणस्स ण गतो वा० मो० ॥ २ अवि हत्थ-पादच्छेदाए, अदु वा वद्धमंस उ° खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ३अवि ते खं १ खं २ पु १ पु २॥ ४ तच्छिय खा खं १ खं २ पु १ पु२॥ ५ अह पु १॥ ६कण्णणासियाछेजं, कंठच्छेदणं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० । खं २ णासिया स्थाने णास इति वत्तेते ॥ ७काहिं(ह) ति खं १ खं २ पु१पु २ चूपा०॥ ८ सुतमेतमेवमें खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ९इत्थीवेदम्मि य सुपु १॥ १० अदुवा क°खं १ ख २ पु २ वृ० दी। अहवा कपु १॥ Jain Education Intemational Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [४ इत्थीपरिणज्झयणे पढमो उद्देसओ दुर्गाचं हृदयं यथैव वदनं यद् दर्पणान्तर्गतं, भावः पर्वतमार्गदुर्गविषमः स्त्रीणां न विज्ञायते । चित्तं पुष्करपत्रतोयचपलं नैकत्र सन्तिष्ठते, नार्यो नाम विषाड्डरैरिव लता दोषैः समं वर्द्धिताः ॥ १॥ अपि चसुहृ वि जितासु सु१ वि पियासु सुङ वि य लद्धपसरासु । अडईसु य महिलासु य वीसंभो भे ण कायव्वो ॥१॥ हक्खुवउ अंगुलिं ता पुरिसो सव्वम्मि जीवलोअम्मि । कामेंतएण लोए जेण ण पत्तं तु वेमणसं ॥२॥ अह एताण पगतिया सव्वस्स करेंति वेमणस्साई । तस्स ण करेज मंतु जस्स अलं चेय कामतंतएण ॥ ३ ॥ एवं पिता वदित्ताणं, यदा तु प्रस्थिता निवारिया भवति-मैवं कार्षीः, तदा 'न भूयः करिष्यामि' इति एवं पिता 10वदित्ताणं अध पुण कम्मुणा अवकरेंति, अपकृतं नाम यद् यथोक्तं यथा प्रतिपन्नं वा न कुर्वन्ति ॥ २३ ॥ तासां हि अयमेव स्वभावः२६९. अण्णं मणेण चिंतेंति, अण्णं वायाइ कम्मुणा अण्णं । तम्हा णो सद्दहेतव्वं, बहुमायाओ इथिओ णचा ॥ २४ ॥ २६९. अण्णं मणेण चिंतेंति० वृत्तम् । कथम् ? क्षणराँगत्वात् । तद्यथाआचार्या मर्कटा बालाः स्त्रियो राजकुलानि च । मूर्खा भण्डाश्च नीचाश्च विज्ञेयाः क्षिप्ररागिणः ॥१॥ 16 यतश्चैवं तम्हा णो सद्दहेतव्वं, यदि नाम हाव-भावादीनाकारान् कुर्यात् , वायाए वा पत्तियावेज्ज, एवमादि तासां विज्ञाप्यं न श्रद्धेयम् । दत्तो वैशिकः किल एकया गणिकया तैस्तैः प्रकारैर्निमत्रीयमाणोऽपि नेष्टवान् तदाऽसावुक्तवती त्वत्कृतेऽग्निं प्रविशा20मीति । तदाऽसौ यद् यत् तयोच्यते तत्र तत्रोत्तरमाह 'एतदप्यस्ति वैशिके' । तदाऽसौ पूर्वसुरुङ्गामुखे काष्ठसमूहं कृत्वा तं प्रज्वाल्य तत्रानुप्रवेश्य सुरुङ्गया स्वगृहमागता । दत्तकोऽपि च-एतदप्यस्ति वैशिके । एवं विलपन्नपि धूतात्तिकैश्चितकायां प्रक्षिप्तः । एवं तम्हा तु णो सद्दहितव्वं ॥ २४ ॥ २७० जुवती समणं बूया, चित्तवत्था-ऽलंकारविभूसिया।। विरता चरिस्स हैं लूह, धम्ममाइक्ख णे भयंतारो! ॥२५॥ 25 २७०. जुवती समणं बूया. वृत्तम् । चित्राणि अन्यतरवर्णोज्ज्वलानि अनेकवर्णानि वा । सा हि वस्त्रायलङ्कारवि भूषिता श्रमणसमीपमागत्य विरता चरिस्स हं लूहं, णिविण्णाऽहं समणा! घरवासेणं, भर्ता मेऽन्यप्रशक्तः, तस्य चाहमनिष्टा, स च ममेति, तेन विरता भूत्वा चरिष्याम्यहं लूहं । लूहो नाम संयमः । तं धम्मं तावदाचक्षखेति । भयात् त्रायतीति भयत्रारः । एवं सम्भाषमाणा प्रीति-विश्रम्भावुत्पादयति ॥ २५ ॥ २७१. अदु साविया पवादेण, अधगं साधम्मिणी य तुम्भं ति। 30 ___ जतुकुंभे जधा उवजोति, संवासेणं विदू वि सीदेजा ॥२६॥ १ वाया अण्णं च क खं २॥ २ तम्हा ण सइहे भिक्खू, बहु खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ३°गित्वा पु० सं०॥ ४व्या उ चित्तऽलंकार-वत्थगाणि परिहेत्ता खं २ पु २ । बूया य चित्तलवत्थाणि परिहत्ता खं १ पु १॥ ५हंमोणं धखं १ पु२ वृपा । है रुक्खं धपु१॥ ६ मे पु १॥ ७भतारो खं १॥ ८अहगं साहम्मिणी य समणाणं खं १ खं २ पु १ पु २॥ ९वुवजोति खं १॥ १०°से विदू खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ Jain Education Intemational Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 सुत्तगा० २६९-७५] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। - २७१. अदु साविया पवादेण० वृत्तम् । श्राविकासु विश्रम्भ उत्पद्यते, नीषिधिकयाऽनुप्रविश्य वन्दित्वा विश्रामणालक्षण सम्बाधनादि कूयवारकवत् । काइ तु लिंगत्थिगा सिद्धपुत्ती वा भणति-अधं साधम्मिणी तुब्भं ति, स एवमासन्नवर्तिनीभिः श्लिष्यते । दृष्टान्तो यतुकुम्भः, जतुमयः कुम्भः यतुकुम्भः जतुलिप्तो वा, ज्योतिषः समीपे उपज्योति, गलतीति वाक्यशेषः । एवं संवासेण विदुरपि सीदति, किं पुनरविद्वान् ? इति । उक्तं हितज्ज्ञानं तच्च विज्ञानं स तपः स च निश्चयः । सर्वमेकपदे नष्टं सर्वथा किमपि स्त्रियः॥ १ ॥ ]॥ २६ ॥ एवं तावदासन्नाभ्यः प्रातिवेशिकस्त्रीभ्यो दोषः । एकतस्तु संवासे शीघ्रमेव विनाशः । जधा २७२. जतुकुंभे जोतिमुवगूढे, आसुऽभितत्ते णासमुवजाति। एवित्थिगासु अणगारा, संवासेणाऽऽसु विणस्संति ॥ २७॥ २७२. [जतुकुंभे जोतिमुवगूढे० वृत्तम् । ] जतुकुंभे जोतिं उपगूढः अमावाहितः अग्निमध्यमितो वा समन्ततो 10 भत्रिभिः प्रज्वलितेन आशु अभितप्तो नाशमुपयाति, एवित्थिगासु अणगारा आत्म-परोभयदोषैः आशु चारित्रतो विनश्यन्ति ॥ २७ ॥ किञ्च २७३. कुवंति पावकम्मं, पुट्ठा वेगेवमाहंसु । __णाहं करेमि पावं ति, अंकेसाइणी ममेस त्ति ॥ २८ ॥ २७३. कुव्वंति पावकम्म० वृत्तम् । पापमिति मैथुनं परदारं वा । [ पुट्ठा] एगपुरिसेण संघसमितीय वा आहंसु-15 रिति आख्यान्ति–णाहं करेमि पावं ति, एषा हि मम दुहिता भगिनी नप्ता वा । अङ्के शेत इति अङ्कशायिनी, पूर्वाभ्यासादेवैषा मम अङ्के शेते निवार्यमाणा पर्यङ्के वा ॥२८॥ २७४. बालस्स मंदयं वितियं, जं च कडं अवजाणती भुज्जो। दुगुणं करेति से पावं, पूयणकामए विसण्णेसी ॥ २९ ॥ २७४. बालस्स मंदयं बितियं० वृत्तम् । द्वाभ्यामाकलितो बालो। मंदो दवे य भावे य, दव्वे शरीरेण उपचया- 20 ऽपचये, भावमन्दो मन्दबुद्धी अल्पबुद्धिरित्यर्थः । मन्दता नाम अबलतैव । कोऽर्थः ? तस्य बालस्य बितिया बालता यदसौ कृत्वाऽवजानाति नाहमेवंकारीति, ण वा एवं जाणामि । दुगुणं करेति से पावं, मेधुणं पावं, बितियं पुणो पूया-सक्कारणिमित्तं, अवि य अवलवति सकारणिमित्तं मा मे परो परिभविस्सति । विसण्णो असंजमो तमेसति विसण्णेसी ॥२९ ।। २७५. संलोकणिजमणगारं, आतगतं णिमंतणेणाऽऽहंसु। वत्थं व ताति! पातं वा, अण्णं पाणगं पडिग्गाहे ॥ ३०॥ २७५. संलोकणिजमणगारं० वृत्तम् । संलोकणिजो णाम द्रष्टव्यो दर्शनीयो वा । तत्थ काइ मुच्छिता आतगतं णाम अप्पाणएणं णिमंतेत्ति, अथवा आत्मगतः तस्या अशुभो भावः 'संबंधामि ताव णं, ततो काहिति वयणं' । आहंसुरिति आहुः। वत्थं व ताति ! पातं वा, त्रायतीति त्राती। अण्णं वा पाणं वा यच्चान्यदिच्छसि तत्तदहं सदैव दास्यामीति, एवं संबद्धो ण तरति उव्वरितुं ॥ ३० ॥ भगवन् भवति (भगवान् भणति) 25 १ वेश्मक वा० मो०॥ २ तिमव खं २ । 'तिसुव खं १पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ३ मुवयाति । एवित्थियाहिं अण° खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी.॥४°सेण णासमुवयंति खं २ वृ० दी । सेण णासमुति खं १ पु १ पु २ ॥ ५ पावगं कम्म खं १ ख २ पु १ पु २॥ ६ वेगे एवं खं १ खं २ पु १ पु २॥ ७ पावगं अंके पु १॥ ८°तणाऽऽहंसु खं १ ख २ पु १ पु २॥ ९ ताय! खं २॥ १० अण्ण-पाणयं खं १ पु२॥ ११ आगतागतं चूसप्र०। “आत्मगतं आत्मज्ञम्" इति वृत्तौ व्याख्या ॥ सूय० सु०१५ Jain Education Intemational Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ 15 २७६. णीयारमेव पुच्छेख ( बुज्झेज )० वृत्तम् । निकरणं निकीर्यते वा निकिरः, यदुक्तं भवति निकीर्यते गोरिव 5 चारी, जधा वा सूकरस्स धण्णकुंडगं कूडादि णिगिरिज्जति पुट्ठो य वहिज्जति, गलो वा मत्स्यस्य यथा क्रियते; एवमसावपि मनुष्यशूकरकः वस्त्रादिनिकिरणेन णिमंतिज्जति, पच्छा संयमजीवियाओ ववरोइज्जति, वक्ष्यमाणमपि च नानाविधानि अकृत्यानि कारयन्ति । यतश्चैवं तेण संसारबंधं संसारपासं च भावनिकारमेतद् बुद्धा दूरतोऽपि तद् ग्रामं नगरं वा जत्थ निमंतिज्जति तं परिहरंतो णो इच्छेञ्ज अगारं गंतुं इति अगारत्वम् । अधवा “ अगारमावत्तं" अगारमेव आवर्त्तः अगारमावर्त्तः, कारणे कार्यवदुपचारात् संसारावर्त्तः । यः पुनरत्र सम्बध्यते संबद्धो विसयदामेहिं, महिस-सूयरादीणं वधादीनि दामकानि, 10 नरसूकराणं तु विसयदामगाणि । दाम्यन्ते एभिरिति दामकानि बन्धनानीत्यर्थः, तैः बद्धः मोहमावञ्जति पुणो मंदे, मोहः संसारस्तमेवाऽऽगच्छतीति । अथवाऽनुकम्पया मन्दः, स वराको मन्दो विषयपराजितः प्राप्यापि प्रव्रज्यां पुनरपि मोहमागच्छतीति ॥ ३१ ॥ [ ॥ इत्थीपरिण्णज्झयणे पढमुद्देसओ सम्मत्तो ॥ ४-१॥ ] णिजुत्ति- चुण्णि समलंकियं २७६. णीयारमेव बुझेज्ज, णो ईच्छेज अँगारं गंतुं । संबद्ध विसयदामेहिं, मोहमावजति पुणो मंदे ॥ ३१ ॥ त्ति बेमि ॥ ॥ इत्थिपरिण्णाए पढमो उद्देसओ समत्तो ॥ ४-१ ॥ [ ४ इत्थीपरिण्णज्झयणे बिइओ उद्देसओ [ इत्थीपरिष्णज्झयणे विइओ उद्देसओ ] स एवाधिकारोऽनुवर्त्तते । प्रथमोद्देश कोक्तैराकारैराकृष्टा इहैव स्खलितधर्माणो णाणाविधाई खलीकरणाइं पाविज्जंति, वक्ष्यमाणमपि "सुहिरीमणा वि ते संता" [ गा० २९३ ] । सम्बन्धो हि द्विविधः, तद्यथा - अनन्तरसूत्र सम्बन्धः परम्परसूत्रसम्बन्धश्च । [ तत्रानन्तरसूत्रसम्बन्धः ] " णीयारमन्तं बुज्झेजा" बुद्धा ओयाभूतो भवेज्जासि न्ति, ओजो विषमः, यदा बद्धस्तु "भोगकामी पुणो विरजेज" [ सूत्रं २७७ ] । परम्परसूत्र सम्बन्धस्तु “ संलोकणिञ्जमणगारं " [ सूत्रं २७५] कदाचिन्निमन्त्रयति तत्र य ओजः स सदा न रज्जेज, अनोज इतरस्तु कदाचिद् रज्जेज्ज । द्रव्य-भावसम्बद्धस्य तु इहैव वाहन-ताडनादयो 20 विलम्बनाप्रकारा भवन्ति, तादृशस्य वा बन्धनादयो दोषाः, कर्मबन्धाश्च नरकादिविपाकः । एवं विपाकं मत्वा २७७. ओए सदा ण रज्जेज्ज, भोगकामी पुणो वि-रज्जेज्जा । भोगे समणाण सुणेधा, एगे किल जधा भुंजते ॥ १ ॥ २७७. ओए सदा ण रजेज० वृत्तम् । द्रव्यौजो हि असहायत्वात् परमाणुः । भावोजो राग-दोसरहितो । स एवमोजः पूर्वापरसंस्तवं जधाय ण तेसु अण्णत्थ वा पुणो रज्जेज्ज । भोगकामी पुणो वि रजेञ्ज गिज्झेज्जा, अथवा यद्यपि 25 भोगकामी स्यात् तथापि पुणो विरजेज, मा भूद् अत्यन्तरागवान् स्यात् । ते य समभोगे समणाण सुणेधा भोगान् किलैषाम्, ते निश्चयेन गृहिणामपि भोगा विलम्बना, किमु लिङ्गिनाम् ?, ते य सुणेध । एगे किल जधा भुंजंते, एगे न सव्वे, केइ आउक्कायरियसायासोक्खपडिबंघेणं लिंगगच्छत्तणं करेंति, ण तु मोहदोसेणं ॥ १ ॥ २७८. अध तं तु भेदमावण्णं, मुच्छियं भिक्खुं कामेसु अतिअहं । पलिभिंदियाण तो पच्छा, पादुद्धहु मुद्धि पहणति ॥ २ ॥ १ णीवारमेव खं १ खं २ पु १ पु २ । णीयारमंतं चूपा० ॥ २ इच्छे अगारमागंतुं खं १ नं २ पु १ पु २ ॥ ३ अगारमावत्तं चूपा० वृपा० ॥ ४ बद्धे य विसयपासेहिं खं १ खं २ पु २० दी० । बद्धे य विसयदामेहिं पु १ ॥ ५°मागच्छती पुणो खं १ पु २ बृ० ॥ ६ सुणेह, जह भुंजंति भिक्खुणो पगे खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० । सुणेह स्थाने सुणेहा खं २ पु१ ॥ ७ कारि ८ काममतिवङ्कं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ पु० ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० २७६-८१] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। २७८. अध तं तु भेदमावण्णं० वृत्तम् । अथेत्यानन्तर्ये । तुः विशेषणे । भावभेदं चरित्रभेदमावण्णं, ण तु जीवितभेदं शरीरभेदं लिंगभेदं वा । मुच्छियं कामेसु दवभिक्खं, कामेसु अतिअट्ट कामेसु अतिगतं कामेसु वा पलिभिंदियाण पडिसारेऊण-'मए तुज्झ अप्पा दिण्णो, सर्वस्वजनश्वावमानितः, ण इमो लोगो जातो ण परलोगो, तुमं पि णवरिं खीलगप्पातो मजायं जातिं वा ण सारेति, अप्पयं ताव अप्पएण जाणाहि, कस्स णाम अण्णस्स मए मोत्तूण तुमे कजं कतं लुत्तसिरेण जल्लमइलितंगेणं दुगंधेणं पिंडोलएणं कक्षा-वक्षो-बस्तिस्थानयूकावसथेन ? । स एवं पडिभिण्णो तीसे चलणेसु । पडति, ताघे सा पंडतं 'मा मे अल्लियसुत्ति वामपादेणं मुद्धाणे पहणति । अणोयिंघणो वि ताव तस्मिन् काले हन्यते, किं पुण ओपिंधणो?। उक्तं च व्याभिन्नकेसरबृहच्छिरसश्च सिंहाः, नागाश्च दानमदराजिकृशः कपोलैः। मेधाविनश्च पुरुषाः समरे च शूराः, स्त्रीसन्निधौ वचन कापुरुषा भवन्ति ॥ १॥ 1॥२॥ 10 कयाइ सा अगारी भणेज, पुव्वभजा व से अण्णा वा कायि२७९. जइ केसियाए मए भिक्खू !, णो विहरे सहणमित्थीए । केसे वि अहं लुचिस्सं, णण्णत्थ मए विचरेजासि ॥३॥ २७९. जइ केसियाए मए भिक्खू !० वृत्तम् । केशाः अस्याः सन्तीति केशिका । जइ मए केसइत्तीए हे भिक्खू! णो विहरे सहणं ति सह मया, कोऽर्थः ? जइ मए सवालिआए लज्जसि ततो केसे वि अहं लुचिस्सं, णऽण्णत्थ मए 15 विचरेज्जासि त्ति मा पुणाई मे छड्डेऊण अण्णत्थ विहरेज्जासि त्ति ॥३॥ एवमसौ ताए संबद्धो तदनुरक्तः तीसे णिदेसे चिट्ठति ततोऽसौ२८०. अध णं से होति उवलद्धे, ततो णं देसेति तधारूवेहिं । अलाउच्छेदं पेहेहि, वग्गुफलाणि आहराहि त्ति ॥ ४॥ २८०. अधणं से होति उवलद्धे० वृत्तम् । उवलद्धो नाम यथैषो मामनुरक्तो णिच्छुभंतो वि ण णस्सइ त्ति । ततो 20 पं देसेति तहासवेहिं. तधारूवाई णाम जाई लिंगत्थाणुरूवाइं, न तु कृष्यादिकर्माणि गृहस्थानुरूपाणि । अलाउच्छेदं णाम पिप्पलगादि, जेण भिक्खाभायणस्स मुखं छिज्जति, जेण वा णिमोइज्जइ बाहिरा वा तया अवणिज्जत्ति । वग्गफलाणि त्ति वग्ग णाम वाचा तस्याः फलाणि वग्गुफलाणि, धर्मकथाफलानीत्यर्थः, तुमं दिवसं लोगस्स बोल्लेण गलएण धम्म कहेसि, जेसिं च कहेसि ते ण तरसि मग्गितूणं ?, अथवा जोइस-कोंटल-वागरणफलाणि वा ॥४॥ २८१. दारूणि अण्णपायाय, पज्जोतो वा भविस्सती रातो।। पाताणि य मे रयावेहि, एहि य ता मे पट्टि उम्महे ॥५॥ २८१. दारूणि अण्णपायाय० वृत्तम् । दारुगाणि आणय, आनीय विक्रीणीहि अण्णपागाय पढमालिया वा उवक्खडिजिहित्ति, दोच्चगं वा परिताविजिहिति सीतलीभूतं, तेहिं पंजोतो वा भविस्सति रातो भृशमुद्योतः, दीवतेल्लं पि पत्थि, तेहिं उज्जोते सुहं हत्थी (व्वी)हामो वियावेहामो वा । पाताणि य मे रयावेहि, काममयणिअल्लियाए इह पाताणि, १ अनुपबृंहण इत्यर्थः ॥ २ उपबृंहण इत्यर्थः ॥ ३ यामए खं १ खं २ पु १ पु २॥ ४णं इत्थीए खं १ ख २ पु १ पु २ ॥ ५ केसाणि विहं लंचिंसु, णण्णत्थ मए चरेजासि खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ६ तो पेसेंति तहाभूतेहिं खं १ खं २ पु१पु २ वृ० दी । स्थाने पेसेति खं १॥ ७ लाउ°खं १ खं २ पु १ पु २॥ ८ पेहाहिं खं २॥ ९दारूणि सागपागाए ख १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० । दारूणि अण्णपागाए वृपा०॥ १० उम्मद्दे खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ११ आनीत्य चूसप्र०॥ १२ पक्तो ताव भवि चूसप्र० ॥ 25 Jain Education Intemational Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ णिज्जत्ति-चुण्णिसमलंकियं [४ इत्थीपरिण्णज्झयणे बिहओ उद्देसओ तेतेण तुमं चेय आलत्तगं आणेहि, अधवा पादाई ति भायणाई, लेवो घट्टगो, एवं कस्स अण्णेमि सेयं वाऽणंतरंगेहिं ?, लिंपावेहि ठाणं । एहि य ता मे पट्टि उम्महे, पुरिल्लं कायं अहं सक्केमि उव(म्म)हेतुं पिढे पुण ण तरामि ॥ ५ ॥ २८२. वत्थाणि य मे पंडिलिहे, अण्ण-पाणं वा मे आहराहि । गंधं च रैयोहरणं च, कासवगं चे मे आणयाहि ॥ ६॥ 5 २८२. वत्थाणि य मे पडिलिहे. वृत्तम् । इमाणि वत्थाणि पेच्छ सुत्तदरिहयं गयाणि, णग्गिया हं जाया । अहवा किण्ण पस्ससि मइलीभूताणि तेण धोवेमि ?, रयगस्स वा णं णेहि । अहवा वत्थाणि मे पेहाहि त्ति जतो लभेज । अहवा एयाई वत्थाई वेंटियाए पडिलेहेहि, मा से पुगारियाई खजेज । वेहारूवगवातएण वा भणेज-मम वत्थाणि पडिलेहेहि, अण्ण-पाणं वा मे आहराहि, णाहं सकेमि हिंडिउं । गंधं च रयोहरणं च, गंधाणि ताव कोट्ठादीणि आहोहि (?आणेहि) चुण्णाणि वा जेण गायाई भुरुकुंडेत्ता । पठ्यते च-"गंथं व रयोहरणं वा" ग्रन्थ इति ग्रन्थः संघाडी रयहरणं सुन्दरं मे 10आणेहि । कासवगं हावियमाणयाहि, ण तरामि लोयं कारवेत्तए ॥ ६॥ २८३. अदु अंजणिं अलंकारं, कुकुहगं च मे पयच्छाहि । लोद्धं च लोद्धकुसुमं च, वेल्पलासी च गुलियं च ॥७॥ २८३. अदु अंजणि अलंकारं० वृत्तम् । अंजणभाणियम्मि अ अंजियं आणेहि । अलंकारे हार-नृकेशाद्यलङ्कारं वा सकेसियाण । कुक्कुहगो जाम तंबवीणा । लोद्धं च लोद्धकुसुमं च, लोभ्रं कषायणिमित्तं, लोद्धस्सेव कुसुमं,तं तु गंध15 संजोए उवउज्जति । वेलुपलासी णामं वेलुमयी सण्हिका कंबिगा, सा दंतेहि य वामहत्थेण य घेत्तूणं दाहिणहत्थेण य वीणा इव वाइज्जइ, पिच्छोला इत्यर्थः । [गुलिया णाम ] एक्का ताव ओसहगुलिया अत्थगुलिया अगतगुलिया वा ॥ ७ ॥ २८४. कोडं तगरं अगरुं च, संपिढें सैम हिरिबेरेणं । तेल्लं मुंहे भिलंगाय, वेलुफलाई सण्णिधाणाए ॥ ८॥ २८४. कोढुं तगरं अगरुं च० वृत्तम् । हिरिबेरं णाम उसीरं। सेसाणि कंठाणि । एतानि हि प्रत्येकशः गंधंगाणि 20 भवति । समं हिरिबेरेणं ति संयोगश्च भवति । तेल्लं मुहे मिलंगाय मुहमक्खणयं तेल्लं आणेहि । भिलिंगाय त्ति देसीभासाए मक्खणमेव । वेलुफलाई ति वेलुमयी संबलिका संकोसको पेलिया करण्डको वा सण्णिधाणाए त्ति तत्थ सण्णिधेस्सामो किंचि पोत्तं वा कत्तं वा ॥८॥ २८५, णंदीचुण्णगाइं पाऽऽहराहि, छत्तगं जाणाहि उवाहणाउ वा। सत्थं च सूवच्छेदाए, आणीलं च वत्थयं रावेहि ॥९॥ २८५. [णंदीचुण्णगाई पाऽऽहराहि० वृत्तम् । ] गंदीचुण्णगं नाम जं "संजोइमं ओट्ठमक्खणगं येन तेन वा प्रकारेण भृशं आहराहि, अधवा चुण्णाई वट्टमाणाई । वरिसारत्ते वा गिम्हे वा छत्तगं जाणाहि उवाहणाउ वा, जाणाहि त्ति आणेहि जतो जाणासि ततो त्ति, किं मए एतमवि जाणितव्वं जधा णत्थि ? त्ति । सत्थं च सूवच्छेदाए, सत्थं आसि १पादेहि इति चूसप्र०॥ २ पडिलेहेहि, अण्णं पाणमाह° खं २ वृ० दी० । पडिलेहेहि, अण्णं पाणं च मे आह खं १ पु१ पु २॥ ३गंथं व वृपा० चूपा० ॥ ४ रतोहरणं खं २॥ ५ च समणुजाणाहि खं १ खं २ पु १ पु २ । च समणs]णुजाणाहि वृ० दी.॥ ६ सुत्तदरिद्दयं गयाणि जीर्णानीत्यर्थः॥ ७ वैहारिकवादेन वैहारिकवातेन वा इत्यर्थः॥ ८ कुक्कययं वृ० दी। कुक्कयं पु ॥ ९ वेणुपलासियं च खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ १० णामित्तंवधीणा चूसप्र० । “कुक्कययं' खुखुणकं 'मे' मम प्रयच्छ येनाहं सर्वालङ्कारविभूषिता वीणाविनोदेन भवन्तं विनोदयामि ।" इति वृत्तौ। “कुक्कययं घर्घरम्” इति विशेषप० । खुणओ घ्राणसिरा इत्यर्थः ॥ ११ अगुरुं खं १ खं २ पु १॥ १२ समं उसीरेण खं २ . दी । सह उसीरेण खं १ पु १ पु २॥ १३ मुहं मिलिजाए खं १ पु १ वृ० दी । मुहं सिभिजाए पु २ । मुहं सिलिंगाए खं २ ॥ १४ वेणुपडाई खं १ ॥ १५ भणं(ण)ति पु० सं०॥ १६ छत्तोवाहणं च जाणाहि। सत्थं खं १ ख २ वृ० दी०॥ १७ वत्थयं रयावेहि खं २। वत्थं रयावेहि खं १ पु १ पु २॥ १८ संजमोइम उउडम चूसप्र० । “नंदीचुण्णगाई' ति द्रव्यसंयोगनिष्पादितोष्टम्रक्षणचूर्णोऽभिधीयते" इति वृत्तिकृतः॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० २८२-८८] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। ११७ यगादि, सूवं णाम पत्रशाकम्, जेण तं छिज्जति । आनीलो नाम गुलिया सावलिया, एतेण साडिगा सुत्तं कंचुगं वा रावेहि णीलीरागे वा इमं वत्थं छहाहि । अधवा सा सयमेव कुसुभगादिरागेण जाणति वत्थाणि रावेतुं तेण अप्पणो वा कजे वत्थरागं मग्गति, जेसिं वा रइस्सति मोल्लेण ॥९॥ २८६. सुफणितं सूवपाताए, आमलगी दगाहरणिं च । तिलकरणिं अंजणिसलागं, प्रिंसु मे विधूवणं जाणाहि ॥१०॥ २८६. सुफणितं सूवपाताए० वृत्तम् । फणितं णाम पकं रद्धं वा, सुखं फणिज्जति जत्थ सा भवति सुफणी, लाडाणं जहिं कत्ति तं सुफणि त्ति वुच्चति, सुफणी वराडओ पत्तुल्लओ थाली पिहुडगो वा । तत्थ अप्पेण वि इंधणेणं सुहं सीतकुसुणं उप्फणेहामो । सूवपागाए त्ति सूवमादी कुसुणप्पगारा सिज्झिहिंति, सुक्खकूरो णाम हिंडतेहि वि लब्भति । आमलगा सिरोधोवणादी-भक्खणार्थं वा । उक्तं हि-"भुत्तो फलाणि भक्षे बिल्वा-ऽऽमलकवर्जानि" [ ]। दगाहरणी णाम कुंडो कलसिगावा। "दगधारणी" आलुगा अरंजरगो वा। चशब्दात् तेल्ल-घताहरणिं च। तेसिं चाउक्काइयाणं सव्वं णवग- 10 संठप्पं कातव्वं ति तेण सव्वस्स घरोवक्खरस्स कारणा तं चड्डेइ, सो य तं सव्वं हट्ठपहट्ठो करेति । तिलकरणिं अंजणिसलागं ति, तिलकरणी णाम दंतमइया सुवण्णगादिमइया वा, सा रोयणाए अण्णतरेण वा जोएणं तिलगो कीरइ, तत्थ छोड़े भमुगासंगतगस्स उवरि ठविज्जति तत्थ तिलगो उठेति, अथवा रोचनया तिलकः क्रियते, स एव तिलककरणी भवति, तिला वा जत्थ कीरति पिस्संति वा । अञ्जनं अञ्जनमेव श्रोताञ्जनं जात्यञ्जनं कज्जलं वा, अंजनसलागा तु जाए आक्खि अंजिज्जति । प्रिंसुरिति गिम्हासु मम धर्मातया वीजनार्थं विधूवणं जाणाहि, वधूयतेऽसौ विधी(धू)यते वा अनेनेति विधूवनः तालियंटो 15 वीयणको वा ॥१०॥ २८७. संडासगं च फणिगं च, सीहलिपासयं च आणाहि । आतंसगं पयच्छाहि, दंतपक्खालणं पंवेसेहि ॥११॥ २८७. संडासगं च फणिगं च सीहलिपासयं च० वृत्तम् । संडासओ कप्परुक्खओ कज्जति सोवण्णिओ, जस्स वा जारिसो विभवो। अधवा संडासगो जेण णासारोमाणि उक्खणंति । फणिगाए वाला जमिजंति ओलिहिजंति जूगाओ 20 वा उद्धरिजंति । सीहलिपासगो णाम कंकणं, तं पुण जधाविभवेण सोवण्णिगं पि कीरति । सिहली णाम सिहंडओ, तस्स पासो मिहलीपासगो। आतंसगं पयच्छाहि. आयंसगं ता मे "केजणा पाडिवेसिगघराओ वा. जत्थ अप्पाणं मंडेत्ता महं पेसामि ( ? पेच्छामि), पेच्छंती वा मुहं सुहं मंडेहामि त्ति । दंतपक्खालणं दंतकट्ठाणं पवेसेहि त्ति अडईओ घरं पवेसेहि, अथवा सोवणे चेव ठिता भणति-दंतपक्खालणं वा इहेव पवेसेहि, वरं सुहं खाइतुं णिगच्छंती हं ॥ ११ ॥ २८८. पूयप्फलं तंबोलं च, सूचिं जाणाहि सुत्तगं । ___ कोसं च मोयमेहाए, सुप्पुक्खैल मुसल खार गलणं च ॥१२॥ २८८. पूयप्फलं तंबोलं च० वृत्तम् । पूयफलग्रहणात् पञ्चसौगन्धिकं गृह्यते । सूचिं जाणाहि [सुत्तगं], सुत्तगं णाम सिव्वणादोरगं, अप्पणो कंचुगं साडि वा सिवामि, कदाइ सा कंचुगासीविगा चेव होज्जा तो परेसिं। कोसे णाम मत्तओ. १सुफणिं च सागपागाए खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ २ गाणि दगाहरणं च खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी। दगधारणिं चूपा० ॥ ३ तिलगकरणिमंजणस खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ४ विधूणय विजाणाहिं खं २ वृ० दी। विधयणं विजाणाहि खं १ पु १ पु २॥ ५'तकृणं चूसप्र०॥ ६ फणिहं च, आणाहि सीहलिपासगं च खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ७ आदंसगं खं २ । आयंसगं खं १ पु १ पु २॥ ८पवेसेहिं खं १ खं २ पु १ पु २॥ ९च पसगं च पसलियं च चूसप्र०॥ १०क्रयणादित्यर्थः ॥ ११ सूती सुत्तगं च जाणाहि खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ १२ मोतमे° खं १॥ १३ सुप्युक्खलगं च खारगलणं च खं २ । सुप्पुक्खलं च गोरगलणाए खं १। सुप्पुक्खलग च खारगलणाए पु१। सुप्पुदुखलं च खारगालणं च पु२ वृ० दी.॥ - Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [४ इत्थीपरिणज्झयणे बिइओ उहेसओ मुच्यत इति मोयं कायिकम् , “ मिह सेचने" मेहं मोचं च मोघं मोयं मेखं तं कोसकोसं मोयमेहाथ मेयमेहाथ मेयमेह(?) सुप्पं णाम सूर्पम् , उक्खलं मुसलं च खारगलणं च जाणाहि ॥ १२ ॥ २८९. 'वंदालगं च करगं च, वच्चघरगं च आउसो खणाहि । सरपादगं च जाताए, गोरधगं च सामणेराए ॥ १३ ॥ 5 २८९. वंदालगं च करगं च० वृत्तम् । वंदालको नाम तंबमओ करोडओ येनाऽहंदादिदेवतानां अच्चणियं करेहामि, सो मधुराए वंदालओ वुञ्चति । करकः करक एव, सोयकरको मद्यकरको वा चक्करिककरको वा । वच्चघरगं हाणिगा, तं वञ्चघरं पच्छन्नं करेहिं कूविं चऽत्थ खणाहि, आउसो! त्ति आमन्त्रणं हे आयुष्मन् !। सरपादगं च जाताए, सरो अनेन पात्यत इति शरपातकं धणुहुल्लकम् , जायत इति जातः पुत्रः, जातार्थः जाताया वरं मे एस पुत्तो धणुहुल्लएण रमंतो । गोरहगो णाम सगडिला भेल्लिया पुत्तिगा, श्रमणस्यापत्यं श्रामणेरः तस्मै श्रामणेराय कुरु, रघे सुद्धे (? रधमुद्धे) तत्थ दि 10 चेडरूवेहिं समं रमतो, एवमादि रधकारकता भवति ॥ १३॥ २९०. घडिकं सह डिंडिमएणं, चेलगोलं कुमारभूयाए। वासं इममभिआवणं, आवसधं जाणाहि भत्ता!॥१४॥ २९०. घडिकं सह डिंडिमएणं० [वृत्तम् ] । घडिगा णाम 'कुंडिल्लगा चेडरूवरमणिका । डिण्डिमगो णाम पडहिका डमरूगो वा। चेलगोलो णाम चेलमओ गोलओ तन्तुमओ । स तेनापदिश्यते-किमेसो रायपुत्तो ? । सा भणति15 माता हता रायपुत्तस्स, एसो मम देवकुमारभूतो, देवतापसादेण चेवाहं देवकुमारसच्छहं पुत्तं पसूता, मा हु मे एवं भणेज्जासु । वासं इममभियावण्णं, अभिमुखं आपन्नं अभिआवण्णं, तेण णिवायं णिप्पगलं च आवसधं जाणाहि भत्ता, जेणं चत्तारि मासा चिक्खल्लं अच्छंदमाणा सुहं अच्छामो । उक्तं च "मासैरष्टभिरह्रा च पूर्वेण वयसाऽऽयुषा । तत् कर्त्तव्यं मनुष्येण यस्यान्ते सुखमेधते ॥ १॥ स, रघे सुद्धे (? रधमुद्ध) तत्थ विलग्गो 20 इधई वा इमो आवसहो सडित-पडितो एतं संठवेहि त्ति ॥ १४ ॥ २९१. आसंदियं च णवसुत्तं, पाउल्लगाइं संकमट्ठाए। __ अदु पुत्तदोहलहाए, आणप्पे भवति दासमिव ॥ १५॥ २९१. आसंदियं च णवसुत्तं० वृत्तम् । आसंदिगा णाम वेसणगं । णवसुत्तगो णवएण सुत्तेण उणट्ठिया (उण्णुट्टिया)पट्टेण धम्मेण वा । पाउल्लगाई ति कट्ठपाउगाओ, ताहि सुहं चिक्खल्ले संकमिज्जत्ति, रत्तिविरत्तेसु संकमं वा करेसि चिक्ख25ल्लस्स उवरिं। अद् पुत्तदोहलहाए, जाहे सा गम्भिणी तइयमासे दोहिलणिगा भवति तो णं दासमिव आणवेति, आगलफलाणि वि मग्गइ त्ति, भत्तं मे ण रुच्चइ, अमुगं मे आणेहि, जइ णाऽऽणेहिं तो मरामि गब्भो वा पडेति, स चापि दासवत् सर्वं करोति आणत्तियं । जे वि इह ण कारिजति ते वि संसारे णाणाविधाइं दुक्खाई पाविजंति विलंबणाओ य॥ १५ ॥ २९२. जाते फले समुप्पण्णे, गेण्हाहि व णं छड्डेहि व णं। अध पुत्तपोसणो एगे, भरवाहो भवति उद्यो वा लहितओ ॥१६॥ १चंदालगं पु १ बृ० दी० ॥ २ जाताते खं २ ॥ ३ घडियं च सर्डिडिमयं च, चेल खं २ पु १ पु २॥ ४ वासं समभिआ खं २ पु २ । वासं समणाहिआ खं १ पु१॥ ५‘सहं च जाण भत्तं च खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ६कुंडल्लिगा सं० । कुंटुल्लिंगा वा० मो० । “घटिका मृन्मयकुल्लडिका" इति वृत्तौ ॥ ७ पाउल्लाइं खं १ पु १ पु २॥ ८ पुत्तस्स डोह खं १ पु १ पु २ चूपा० २९४ सूत्रचूर्णौ ॥ ९ आणप्पा हवंति दासा वा खं १ खं २ वृ० दी० ॥ १० सुत्ता णाणवराण सुत्तेण चूसप्र० ॥ ११ गेण्हसु वा णं अहवा जहाहि खं १ पु १ पु २ वृ० दी० । गेण्हसु वा णं वा णं जहाहि खं २॥ १२ अह पुत्तपोसिणो एगे, भारवहा हवंति उट्टा वा खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी । एगे स्थाने चेगे खं २॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ सुत्तगा०२८९-९४] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। २९२. जाते फले समुप्पण्णे० वृत्तम् । फलं किल मनुष्यस्य कामभोगाः, तेषामपि पुत्रजन्म । उक्तं च- . इदं तु स्नेहसर्वस्वं सममाढ्य-दरिद्रिणाम् । अचन्दनमनौशीरं हृदयस्यानुलेपनम् ॥ १॥ यत् तत् थ-प-न-केत्युक्तं बालेनाव्यक्तभाषिणा । हित्वा सायं च योगं च तन्मे मनसि वर्त्तते ॥२॥ लोके पुत्रमुखं नाम द्वितीयं मुखमात्मनः । [ साऽथ जाधे किंचि आणत्ता भवति ताधे भणति-दारके वामहत्थे तुमं चेव करेहि । अतिणिब्बंधे वा तस्स अप्पेतुं भणति-एस ते, गेण्हाहि व णं छड्डेहि वा णं । अण्णत्थ व रोसिता भणति-एस मए णव मासे कुच्छीए धारितओ, तं दाणिं एस ते, गेण्हाहि व णं छड्डेहि व णं, एतस्स पेयालं गहिएल्लयं । एवं वुच्चमाणो एस णिब्भच्छिज्जमाणो वा ण णासति । अध पुत्तपोसणो एगे, पुत्रं पोषयतीति पुत्रपोषणः, जाहे गामंतरं कयाइ गच्छति भावदंतारगं उवक्खरं वा वहतो भरवाहो भवति उद्यो वा लहितओ, गामंतराओ धण्णं वा भिक्खं वा वड्डाहिं करंकाहिं गोरसं वा वहतो लहितगो भरवाहो भवति उट्टो वा । अण्णे पुण केइ अणंतसंसारिया तं पुरिसाडेतुं वा उट्ठवेतुं वा अप्पसागारियं णिक्खणितुकामा वा वहतका भारवधा भवंति ।।१६।। 10 पूर्वं हि प्रतिपालनोक्ता । इदानीं तत्प्रतिपक्षभूता अप्रतिपालना, एतं पुण पडिपक्खेण गतं । "अध पुत्तपोसणो एगे” त्ति२९३. राओ वि उहिता संता, दारगं संण्णवेंति धाव इवा । सुहिरीमणा वि ते संता, वत्थाधुवा भवंति हंसो वा ।। १७ ॥ २९३. राओ वि उद्विता संता दारगं सण्णवेति धाव इवा० [वृत्तम् ] । यदा सा रतिभरश्रान्ता वा प्रसुप्ता भवति, इतरधा वा पसुत्तलक्खेण वा अच्छति, चेएन्तिया वा गव्वेण लीलाए वा दारगं रुअंतं पि णण्णति (ण गेण्हति) ताधे सो 15 तं दारगं अंकधावी विव णाणाविधेहिं उल्लापएहिं परियंदन्तो ओसोवेति सामिओ में णगरस्स य णक उरस्स य, हत्थवप्प-गिरिपट्टण-सीहपुरस्स य । अण्णतस्स भिण्णस्स य कंचिपुरस्स य, कण्णउज्ज-आयामुह-सोरिपुरस्स य ॥ १॥ सुहिरीमणा वि ते संता, "ही लज्जायाम्” लज्जालुगा वि ते भूत्वा कोट्टवातिगामस्पृशिनो वा शौचवादिका गृहवासे प्रव्रज्यायां वा सुट्ठ वि आतट्ठिया होऊण एगंतसीला वा सूयगवत्थाणि धोयमाणा वत्थाधुवा भवंति हंसो वा, हंसो नामा 20 रजकः, दारु(र)गरूवेण वा ओहण्णविउहण्णा सम्मुद्दमाणा धुवमाणा य ॥ १७ ॥ २९४. एतं बहूहिं कडपुव्वं, भोगत्थाएं इत्थियाभिआवण्णा। दासे मिए व पेस्से वा, पसुभूते व से ण वा "केयि ॥१८॥ २९४. एतं बहूहिं कडपुव्वं० वृत्तम् । एतदिति यदुक्तं तीसे णिमित्तेण दारगणिमित्तेण वा । तीसे णिमित्तेण ताव "वंदालयं च करगं च० सरपादयं च जाताए" [सूत्र २८९] त्ति, दारगणिमित्तं जधा-"पुत्तस्स दोहलहाते" सूत्रं २९,125 "जाते फले समुप्पण्णे० अध पुत्तपोसिणो एगे" | सत्र २९२1"रातो वि उहितो संतो० सुहिरीमणा वि" [सनं २९१1 एतं पुत्तणिमित्तं, अधवा सव्वं पि तण्णिमित्तमेव । बहूहिं ति बहूहिं कृतपूर्वमेतत् , तथा कुर्वन्ति करिष्यन्ति च । ते तु के ?, जे भोगत्थाए इत्थियाभिआवण्णा, अभिमुखं आवण्णा । सो पुण जो तासु अभितावण्णो सो तेसिं दासे मिए व पेस्से वा, दासवद् भुज्यते, मृगवच्च भवति, यथा मृगो वशमानीतः पच्यते मार्यते वा मुच्यते वा, प्रेष्यवच्च प्रेष्यते णाणाविधेसु कम्मेसु, पसुभूते इति पशुवद् वाह्यते, न च मदान्धत्वात् कृत्याभिज्ञो भवति । पशुभूतत्वान्मृगभूतत्वाञ्च न वा केयि त्ति, 30 १एगे राओ वि उट्टिता दारगं खं १ पु १ पु २ ॥२ संठवेंति धाती वा खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ३ वत्थधुवा हवंति हंसा वा खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ४ सि वृत्तौ ॥ ५ हत्थकप्प वृत्तौ ॥ ६ उण्णतस्स वृत्तौ ॥ ७ कुच्छिपुर° वृत्तौ ॥ ८ एवं बहूहिं कयपुव्वं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ९भोगत्ताए खं १ प्र० । “भोगत्वाय” इति वृत्तिप्रत्यन्तरे पाठः ॥ १०°ए जेऽभियावन्ना खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ११ केइ खं २ पु १। के वि खं १ पु २ । केति चूपा० ॥ Jain Education Intemational Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५. एतं खुतासि वेण्णप्पं, संथवं संवासं च चतेज । तज्जाइया इमे कामा, वज्जकरा एवमक्खाता ॥ १९ ॥ २९५. एतं खुतासि वेण्णप्पं० वृत्तम् । एतदिति एतद् ज्ञात्वा इहलोग-परलोगिए दोसे । तेण संथवं संवासं च ताहि चतेज | संथवो णाम उल्लाव- समुल्लावा ऽऽदाण- ग्गहण - संपयोगादि । संवासो एगगिहे तदासन्ने वा । एतदेव तासि वेण्णप्पं जो ताहिं संथवो संवासो वा । संथव-संवासेहिं चैव इतरा वि विष्णत्ती भवति - तञ्जाइया इमे कामा, तजातिया णामा तव्विधजातिया । चतुर्विधा कामा, तं जधा - सिंगारा १ कलुणा २ रोहा ३ बीभच्छा तिरिक्खजोणियाणं पासंडीणं च ४ । एतदुक्तं भवति - बीभच्छवेसानां तेषां बीभच्छा एव कामा, आकारीहि वि समं तं चेव, अथवा तदेव जनयन्तीति तज्जातिया 10 मैथुनं ह्यासेवते तदिच्छा एव पुनर्जायते । उक्तं हि 5 १२० णिजुत्ति चुण्णिसमलंकियं [ ४ इत्थीपरिण्णज्झयणे बिइओ उद्देसओ एभ्योऽप्यसौ पापीयान् संवृत्तः, यस्य न केनचिच्छक्यते औपम्यं कर्तुम् । अथवा ण वा केति त्ति नासौ प्रब्रजितो न वा गृहस्थो जातः, नापि इहलोके नापि परलोके ॥ १८ ॥ 20 "आलस्यं मैथुनं निद्रा सेवमानस्य वर्द्धते ।” [ ति वा चोण्णं ति वा, तत् कुर्वन्तीति वज्जकरा एवमाख्याताः तीर्थकरैः ॥ १९ ॥ 15 25 २९६. एतं भयण्ण सेयाए० वृत्तम् । इहलोकेऽपि तावद् भयमेतत् कुतस्तर्हि परलोके ? । यत एव च भयंकरा इत्यतो श्रेयसे न भवन्ति, तेन श्रेयः कामेभ्यः अप्पाणं निरुंभित्ता, इहलोकेऽपि तावद् णिरुद्धकामेच्छस्स श्रेयो भवति, कुतस्तर्हि परलोकः ? । उक्त हि नैवास्ति राजराजस्य तत् सुखं नैव देवराजस्य । यत् सुखमिहैव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य ॥ १ ॥ [ प्रश० आ० १२८ ] तणसंथारणिवण्णो वि मुणिवरो भग्गराग - मय- दोसो । जं पावति मुत्तिसुहं ण चक्कवट्टी वि तं लभति ॥ १ ॥ [ संस्तारकप्र० गा० ४८ ] स तु कथं निरुध्यते आत्मानं कामेभ्यः ?, उच्यते - णो इत्थि णो पसू भिक्खू, इत्थी मणुस्सी, पसू त्ति सव्वा एव तिरिक्खजोणीओ | णो सयपाणिणा णिलेजं ति हत्थकम्मं न कुर्यात्, निलंजनं नाम करणं, अथवा स्वेन पाणिना तं प्रदेशमपि न लीयते जहा पाणिसंहरिसो वि न स्यादिति, कुतस्तर्हि करणम् ? ॥ २० ॥ ] वखकर तिवज्जमिति कम्मं, वज्जं ति वा पातं २९६. एैतं भयण्ण सेयाए, इह सेयऽप्पगं णिरुंभित्ता । णो इत्थि णो पसू भिक्खू, णो सयपाणिणा णिले ॥ २० ॥ २९७. सुविसुद्धलेस्से मेधावी, परकिरियं च वज्जते णाणी । मणसा वैसा कायेणं, सव्वफाससहे अणगारे ॥ २१ ॥ २९७, सुविसुद्धलेस्से० वृत्तम् । सुविसुद्धलेस्से नाम सुक्कलेस्से । परकिरिया नाम नो इत्थीपाए आमज्जेज्ज वा मज्जेज्ज वा संवाहणत्ति जाव छत्तमउडं ति चशब्दादात्मक्रियां च वर्जयेत् । सिया से इत्थी पाए आमज्जेज्ज वा [ पमज्जेज्ज बा] तत्थ वि दोसो । मणसा वयसा कायेणं ति ओरालिए कामभोगे मणसा ण गच्छति ण गच्छावेति गच्छंतं णाणुमोदति ३, 30 एवं वायाए ३ कारण वि ३, एवं दिव्वे वि ९ एते अट्ठारस भेदा । एवं जधा इत्थिपासं मणसा वयसा कारणं ति वज्जेति । एवमन्येऽपि फासे सितोसिण - दंसमसगादि अधियासेज्जासि ॥ २१ ॥ १ तासु विण्णप्पं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० । तासि वृपा० ॥ २ च वज्जेज्जा खं २ ॥ ३ एवं भयं ण सेयाए, इति से अप्पखं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ४ णिर्लिजेजा खं १ ख २ पु २ । णिलिज्जेजा पु १ वृ० दी० ॥ ५ वयस खं १ पु १५२ ॥ For Private Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० २९५-९८] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। १२१ २९८. इच्चेवमाहु से वीरे, धूतरायमग्गे सभिक्खू । ___ तम्हा अज्झत्थविसुद्धे, आमोक्खाए परिव्वएज्जासि ॥ २२ ॥ त्ति बेमि ॥ ॥ इत्थिपरिण्णा चउत्थमज्झयणं समत्तं ॥४॥ ___२९८. इच्चेवमाहु से वीरे० वृत्तम् । इति एवं इच्चेवं आहुः । क एवमाहुः ? स भगवान् वीरः रूयादिषु रागवस्तुषु धूतमेवेति धूतरागमार्गमेवाहुः । सोभणो भिक्खू सभिक्खू । अथवा भिक्खुग्गहणा असावपि भगवान्, न तु यथा पंडरंगाणं 5 महेश्वरः सराग आसीत् सभार्यश्च, ते किल निर्युक्ताः । उक्तं च-"क्षितौ वासः सुरेष्वाज्ञा०" [ यतश्चैवं तम्हा अज्झत्थविसुद्धे, अज्झत्थं णाम संकप्पातो विसुद्धं, संकप्पविसुद्धं राग-द्वेषविप्रमुक्तम् , समो माना-ऽवमानेषु समदुःखसुखं पश्यति आत्मानं च परं च मन्यते तुल्यम् । तथा चोक्तम्कस्य माता पिता चैव ? स्वजनो वा कस्य जायते । न तेन कल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि ॥१॥ ]10 आमोक्खाए परिव्वएजासि त्ति० यावन्मोक्षं न प्राप्नोषि ताव विहरेज्जासि त्ति ॥ २२ ॥ ॥ स्त्रीपरिज्ञाध्ययनं समाप्तम् ॥ ४॥ छ । १धुयरए धुयमोहे से भिक्खू खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० । धूतरायमग्गे स भिक्खू वृपा०॥ २ सुद्धे सुविमुक्के, आमोक्खाय परि' खं १ ख २ पु २ वृ० दी । वृत्तौ सुमुक्के पाठानुसारेण व्याख्याऽस्ति । सुद्धे, सुविमुक्के विहरे आमुक्खाए ॥ त्ति बेमि पु १॥ सूय० सु० १६ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [५णिरयविभत्तिअज्झयणे पढमो उद्देसओ [पंचमं णिरयविभत्ती अज्झयणं] [पढमो उद्देसओ] णिरयविभत्तीए अज्झयणस्स चत्तारि अणुयोगद्दारा । ते परूवेऊण अज्झयणस्थाधिगारो णरगावासा जाणितव्वा णेरइया य, जो य णरगाणं णेरइयाणं संधावो । उद्देसत्थाधिगारो दोसु वि उद्देसएसु णेरइयाणं णाणाविधाओ वेदणाओ। णामणिप्फण्णो णिक्खेवो णरगस्स छक्को । तथा चाह णिरए छक्कं दव्वणिरया उ इहमेव जे भवे असुभा। खेत्तं करगावासा कालो णिरएसु चेव ठिती ॥१॥५५॥ णिरए छकं० गाधा । दव्वणिरओ तु इहेव जे तिरिय-मणुएसु असुद्धठाणा चारगादि खडा-कडिल्लग-कंटगा वंसकरिल्लादीणि असुभाई ठाणाई, जाओ य णरगपडिरूवियाओ वेयणाओ दीसंति, जधा सो कालसोअरिओ मरितुकामो वेदणासमण्णागओ अट्ठारसकम्मकम्मकारणाओ वा वाधि-रोग-परपीलणाओ वा एवमादि । अधवा कम्मदव्वणरगो [णोकम्मदव्वणरगो] य । तत्थ कम्मदव्वणरगो णरगवेदणिज्जं कम्मं बद्धं ण ताव उदिज्जत्ति, तं पुण एगभविय-बद्धाउय-अभिमुहणामगोयं । 10णोकम्मदव्वणरगो णाम जे असुभा इहेव सद्द-फरिस-रस-रूव-ांधा। खेत्तणरगा णरगावासा चतुरासीतिणरयावाससतसहस्सा। कालणरगा वा जस्स जेचिरं णरगेसु द्विती ॥ १ ॥ ५५ ॥ भावे उ रयजीवा कम्मं वेदंति णरगपायोगं । सोऊण गैरयदुक्खं तव-चरणे होति जइतव्वं ॥ २ ॥ ५६ ॥ [भावे उ णरयजीवा० गाधा । ] भावणरगा जे जीवा णरगाउअं वेदंति णरगपायोग वा जं कम्मं उदिण्णं, अधवा 15सह-1 रूव-रस-गंध-फासा इहेव कम्मुदयो णेरइयपायोग्गो, जधा कालसोअरियस्स इहभवे चेव ताई कम्माई नेरइयभावभाविताई भावनरकः । सोऊण णरयदुक्खं तवचरणे होति जइतव्वं ॥ २ ॥५६ ॥ उक्ता नरकाः । इदाणिं विभत्ती । सा णामादि छव्विधा । तं जधा णामं ठवणा दविए खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो उ विभत्तीए णिक्खेवो छविधो होति ॥३॥५७ ॥ [णामं ठवणा दविए० गाधा। णामविभत्ती ठवणविभत्ती०। णामविभासा कंठ्या। ठवणविभत्ती कट्ठकम्मभासावत्तव्वता। दव्वविभत्ती दुविधा-जीवविभत्ती य अजीवविभत्ती य । जीवविभत्ती दुविधा, तं जधा-संसारत्थजीवविभत्ती असंसारत्थजीवविभत्ती य। असंसारत्थजीवविभत्ती दुविधा-दव्वे काले य। दम्वतो तित्थसिद्धादि पंचदसभेदा, कालतो वि पढमसमयसिद्धादि । संसारत्थजीवविभत्ती तिविधा, तं जधा-इंदियविभत्ती जातिविभत्ती भवतोविभत्ती । से समासतो[इंदियविभत्ती] एगिदियविभत्ती०, जातिविभत्ती पुढविकायियादि, भवतो णेरइतभवादि । अजीवविभत्ती दुविधा-रूविया25 जीवपविभत्तीय अरूवियाजीवपविभत्ती य। रूवियाजीवपविभत्ती चतुविधा, तं जधा-खंधा खंधदेसा खंधपदेसा परमाणुपोग्गला । अरूविअजीवपविभत्ती धम्मत्थिकाए १ धम्मत्थिकायस्स देसे २ धम्मत्थिकायस्स पदेसे ३, एवं अधम्म०३ आगास० ३ अद्धासमये य, धम्मत्थिकायादि दसविधा । खेत्तविभत्ती चतुव्विहा-ठाणतो दिसतो दुव्वतो सामित्ततो। ... १ स्वभाव इत्यर्थः ॥ २णिरओगासो खं १ खं २ पु २ वृ०॥ ३निरय खं १ खं २ पु २॥ ४ कम्मुदओ चेव निरयपाउग्गो खं १ खं २ पु २ वृ०॥ ५निरय खं २ ॥ Jain Education Intemational Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ णिज्जुत्तिगा० ५५-६०] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंग पढमो सुयक्खंधो। ठाणतो वि लोगविभत्ती विमाणिंदग-णिर-इंद-जंबुद्दीव-समुद्दकरणायि विभासा । दिसतो पूर्वस्यां दिशि०। क्षेत्रं चतुर्विधम्दव्वतो सालिखेत्तादि । सामित्ते देवदत्तस्य क्षेत्रं यज्ञदत्तस्य वेति। अधवा क्षेत्रं आयरिअं अणारिअं च। अणारिअं सगजवणादि । आयरियं अद्धछव्वीसतिविधं रायगिहमगहादि । कालविभत्ती तीता-ऽणागत-वट्टमाणसुसमसुसमादि फुदिवस-रत्ति युगपदयुगपत् क्षिप्रमक्षिप्रमित्यादि, अथवा समयादिया। समयस्स परूवणा तुण्णागदारगादि । भावविभत्ती दुविधा-जीवभावविभत्ती य अजीवभावविभत्ती य । जीवभावविभत्ती उदइगादि ६ । तत्थोदइओ-गति-कसाय-लिङ्ग-मिच्छादसण-ऽण्णाणाऽसंजता-ऽसिद्ध-लेस्साओ जधासंखेण चतु-चतु-तिण्णि-एक्केकेकेक-छभेदा, गती णारगादि चतुविधा, कसाया कोधादि ऐक, लिङ्गभेदा थी-पुरिस-णपुंसगा, लेस्सा कण्हलेस्सादि ६, सेसा एगभेदा, एसो एकवीसतिभेदो उदइओ भावो । उवसमिओ दुविधो-उवसमिओ य वसमणिप्फण्णो य, औपशमिके सम्यक्त्व-चारित्रे तूपशमश्रेण्याम् । [खओवसमिओ-ज्ञाना-ऽज्ञानदर्शन-दानलब्ध्यादयश्चतुस्त्रि-त्रि-पश्चभेद -३-३-५ सम्यक्त्व-चारित्रे संयमासंयमश्च, णाणं चतुविधं-मति-सुता-ऽवधिमणणाणाणि, अण्णाणं तिविहं-मति-सुतअण्णाण-विभंगाणि, दंसणं त्रिभेदम्-चक्षुः-अचक्षुः-ओहिदसणाणि, लद्धी पंचभेदा-10 दान-लाभ-भोगोपभोग-वीरियलद्धिरिति, सम्मत्तं चारित्तं संयमासंयम इति, एस अट्ठारसविधो खओवसमिओ भावो । जीवभव्या-ऽभव्यत्वादीनि, जीवत्वं भव्यत्वं अभव्यत्वं चेत्येते त्रयः पारिणामिका भावा भवन्ति, आदिग्रहणेन अस्तित्वं अन्यत्वं कर्तृत्वं भोक्तत्वं गुणवत्त्वं असर्वगत्वं अनादिकर्मसन्तानबद्धत्वं सिप्रदेशकत्वं अरूपित्वं नित्यत्वं एवमादयोऽप्यनादिपारिणामिका जीवस्य भावा भवन्ति । सण्णिवातिको दुसंयोगादीओ। गता जीवभावविभत्ती। अजीवाणं मुत्ताणं वण्णादि ४, अमुत्ताणं गति-ठिति-अवगाहादि । एताए एव छविधाए विभत्तीए जं जत्थ जुज्जति तं जोएतव्वं ॥३॥ ५७ ।। केरिसं तत्थ वेदणं वेदेति ?, उच्यते पुढविप्फासं अण्णाणुवकमं णिरयपालवधणं च । तिसु वेदेति अताणा अणुभावं चेव सेसासु ॥ ४ ॥५८॥ पुढविष्फासं अण्णाणुवकमं० गाधा । केरिसं पुण पुढविष्फासं ?, “से जधाणामते असिपत्ते त्ति वा०" [जीवाभि. प्रति० ३ सू०४३] विभासा। तीसु पुढवीसु णेरइया उसिणपुढविफासं वेदेति । अण्णाणुवक्कमो णामा “मोग्गर-मुसुंढिकरकय." 20 जीवाभिः संग्र० पत्र १२०-१ अधवा लोहितकुंथुरूवाणि छट्ठी-सत्तमीसु पुढवीसु विउव्वंति। णिरयपाला णाम “अंबे अम्बरिसे चेव." [नि० गा० ५९] ते पुण जाव तच्चा पुढवी, सेसासु णत्थि । सेसासु पुण अणुभाववेदणा चेव वेदेति । अणुभावो णाम "इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रइया केरिसयं फासं पञ्चणुब्भवमाणा विहरंति ?, से जहाणामए असिपत्ते ति वा०, गंधे वि से जहाणामए अहिमडे ति वा गोमडए इ वा, वण्णा काला कालोभासा, एवं उस्सासे अणुभावे सव्वासु पुढवीसु" [जीवाभि० प्रति० ३ सू० ८३ आदि] ॥ ४ ॥ ५८ ॥ णिरयपालवधणं ति वुत्तं ते इमे पण्णरस परमाधम्मिया णिरयपाला । तं०48 अंबे १ अंबरिसे २ चेव सामे ३ सबले ४ त्ति यावरे । रुद्दो ५ वरुद्दो ६ काले ७ य महाकाल ८त्ति यावरे ॥५॥ ५९॥ * असि ९ पत्तधणुं १० कुंभे (असि ९ असिपत्ते १० कुंभी) ११ वालू १२ वेतरणी १३ ति य। खरस्सरे १४ महाघोसे १५ एते पण्णरसाऽऽहिते ॥ ६ ॥ ६॥ ___ 30 15 25 १फु इति षट्सङ्ख्याद्योतकोऽक्षराङ्कः ॥ २ क इति चतुःसङ्ख्याद्योतकोऽक्षराङ्कः ॥ ३ उवसमणिप्फण्णो य । ज्ञाना-ज्ञानदर्शन-दानादिलब्ध्यादयश्चतुस्त्रि-त्रि-पञ्चमेदाः सम्यक्त्व-चारित्रे तूपशमश्रेण्याम् इ-३-३-५ संयमाश्च । णाणं चतुन्विधं इतिरूपः पाठः सर्वासु चूर्णिप्रतिधूपलभ्यते, किञ्चायं पाठो लेखकप्रमादजोऽसङ्गतश्चापि वर्तते ॥ ४ इति चतुःसङ्ख्याद्योतकोऽक्षराङ्कः ॥ ५ लसहणं खं १॥ ६ भागं चेव खं १ ख २ पु २॥ ७ अंबरिसी खं १ खं २ पु २ वृ० आसं०॥ ८सामे य सबले विय खं २ पु २॥ ९रोदो ५ वरुद्द ६ खं १ खं २ पु २ आसं० ॥ १० असिपत्ते ९ घणु १० कुंभे ११ ख १ खं २ पु २ । असि ९[असि पत्तधणुं १० कुंभी ११ वृ०॥ Jain Education Intemational Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति- चुण्णिसमलंकियं [ ५ णिरयविभत्तिअज्ायणे पढमो उद्देसभ जो जारिसवेदणकारी सो तेण अभिधाणेण अभिधीयते अंबरादीनं ति ।। ५ ।। ५९ ।। ६ ।। ६० ।। तत्थ अंबरं आगासं विउव्वंति, तत्थ रइए १२४ 5 धार्डेति पधार्डेति य० गाधा । विंधिंति णस्समाणे य सरेहिं । णिसुंभंति त्ति आघदूरपतिट्ठाणे अन्धतमसे । केइ पुण साभावि चैव आगासे अंबरतले वा सत्तट्ठतलप्पमाणमेत्ताइं उव्वहित्ता पाडिन्ति १ ।। ७ ।। ६१ ।। अंबरिसाओहहते यं हिते णिस्सण्णे कप्पणीहिं कप्पेंति । बिदलक-चतुलगछिण्णे अंबैरिसा तत्थ णेरतिए २ ॥ ८ ॥ ६२ ॥ 20 ओहहते य हिते० गाधा । उपेत्य हता ओहता । हता ताडिता । णिस्सण्णा नाम मूर्च्छावशान्निःसंज्ञीभूताः, 10 ताचे णिश्चेयणे विव भूमितलगते कप्पणीहिं मंसमिव कप्पेन्ति । सागडिका वा रधकारा वा जधा कुहाडेहिं तच्छंति । बिदलको नाम बिदलं जहा फार्डेति दिग्घगं, चतुलगच्छिण्णे कडेंति २ ॥ ८ ॥ ६२ ॥ सामा 25 धार्डेति पधार्डेति य हणंति विंधिंति तह णिसुंभंति । पीडिंति अंबरतले अंबा खलु तत्थ णेरतिए १ ॥ ७ ॥ ६१ ॥ साड तोडण तुत्तण विंधण रज्जू-लत-प्पहारेहिं । रतियाणं पवत्तयंती अपुण्णाणं ३ ॥ ९ ॥ ६३ ॥ सामा साडण पाडण तोडण० गाधा । ते अंगोवंगाई साडेन्ति, संघीओ त्रोडंति, तुत्तएण तुदंति, सूईहिं विज्झणीहि य 15 विंधंति, रज्जेहिं [ बंधंति ], तार्लेति लताहिं लउडेहि य, करतल- कोप्परपहारेहि य संभग्गमहिए करेंति ३ ॥ ९ ॥ ६३ ॥ सबला पुण सबलगुणरूवाइं विउव्विऊण विउव्वावेंति वा रइए— अंतगय- फिफिसाणि य हिययं कालेज फुप्फुसे वक्के । सबला रतियाणं कँड्ड विकतऽपुण्णाणं ४ ॥ १० ॥ ६४ ॥ अंतगय फिप्फिसाणि य० गाधा । कण्ठ्या ४ || १० || ६४ || रुा णामअसि सत्ति- कोंत-तोमर - सूल-तिसूलेसुँ सूईसु हलीसु । पोपंति कंदमाणे रुद्दा खलु तत्थ णेरइए ५ ॥ ११ ॥ ६५ ॥ ५ ।। ११ ।। ६५ ।। तर्हि उवरुद्दा णाम * भंजंति अंगमंगे ऊरू बाहू सिराणि कर-चरणे । कप्पंति कप्पणीसु य उवरुद्दा पावकम्मरया ६ ।। १२ ।। ६६ ॥ लउल-मुसुंदी ६ ।। १२ ।। ६६ ।। काला पुण कालं कालोभासं अग्गिं विव्वित्ता-* सीतेसु (? मीरासु) सुंठएस य कंडूसुं य पयणगेसु य पयंति । कुंभीय लोहीसु य पयंति काला तु णेरइए ७ ॥ १३ ॥ ६७ ॥ खीलगेण णिक्खित्ता रइए मीरासु पयंति ७ ॥ १३ ॥ ६७ ॥ महाकाला पुण ४ साडण १ मुंचति खं २ ० आहावृ० । मुच्यंति खं १ ॥ २ य तहियं णि खं १ ॥ ३ अंबरिसी खं १ खं २ वृ० ॥ पाडण तोदण खं १ खं २ पु २ ० आहावृ० ॥ ५ विधणा र° खं १ ॥ ६ कति तहिं अण्णाणं खं २ पु २ वृ० ॥ ७ सु सूइचियगासु । पोपंति रुद्दकम्मा उ णरगपाला तहिं रोद्दा ५ खं २ पु २ वृ० आहावृ० । सूइचियगासु स्थाने सूइयग्गेसु इ संशोधितोऽपि पाठः खं २ दृश्यते । 'लेसु य बहुस्स पोति । रुहा य रोद्दकम्मा रुहा ( ?ट्ठा) खलु तत्थ नेरइया खं १ ॥ ८ अंगमंगाणि ऊ° खं १ ख २ पु २ ॥ ९ 'णीहिं उव' खं १ खं २ पु २ वृ० आहावृ० ॥ १० पर्यंडसुखं १ ० ॥ For Private Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ णिज्जुत्तिगा० ६१-७३] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। कप्पेंति कागिणिमंसगाणि छिंदंति सीसपुंच्छाणि । खावेंति य णेरइए महकाला पावकम्मरेता ८॥१४॥६८॥ महल्ले चवगे चुल्लीसु य दहंति, अच्छिण्णे अभिण्णे व णेरइए तत्थाऽऽरुभेत्ता महादवामाविव दुद्धिगेव पउलेता पच्छा कप्पणीहिं कप्पेऊण कप्पेऊण कागिणिमंसाणि खावेंति । कागिणिमंसा णाम कागिणिमेत्तं मंसं छेत्तुं पर ८ ॥ १४ ।। ६८ ।। असी णाम हत्थे पादे ऊरू बाहु सिरी पास अंगमंगाणि । छिंदंति पगाम तू असि रईए णिरयपाला ९॥ १५ ॥ ६९ ॥ हत्थे पादे ऊरू० गाधा। ते असीओ विउव्वेत्ता तसिं गेरइयाणं हत्थ-पादमादीणि अंगोवंगाणि छिंदंति ९ ॥ १५॥ ६९ ॥ असिपत्ता णामकैण्णोट्ठ-णास-कर-चरण-दसण-थण-फिग्ग-ऊरु-बाहूणं ।। 10 छेयण भेयण साडण असिपत्त धणूहिं ( ? वणेहिं ) पाडेंति १० ॥ १६ ॥७॥ कण्णोदणास० गाधा। ते असिपत्तवणं विउव्वित्ता, तओ ते तत्थ छायाबुद्धीए पविसंति, पच्छा वातं विउव्वंति, पच्छा वातकंपितेहिं असिपत्तेहिं छिज्जति । ण केवलं तत्थ असिसरिसाणि चेव पत्ताणि, अण्णाणऽवि खुरुप्प-फरुसमादिसरिसाइं । तेसिं कण्ण-णास-ओढे छिंदंति । उक्तं हिछिन्नपाद-भुज-स्कन्धाः छिन्नकर्णीष्ठ-नासिकाः । भिन्नतालु-शिरो-मेण्दाः भिन्नाक्षि-हृदयोदराः॥१॥ 15 १० ॥ १६ ॥ ७० ॥ कुंभी णाम कुंभीसु य पयणेसु य लोहीसु य कंडुलोहिकुंभीसु । कुंभी य णरयपाला हणंति पाडंति णरएसु ११ ॥ १७ ॥ ७१ ॥ कुंभीसु य पयणेसु य लोहीसु य० गाधा । ते कुंभकारा विव णाणाविहाई कुंभि-लोहिमाइगाई भायणाणि विउव्वित्ता कलगलतउअपुण्णेसु नेरइये पक्खिवंति ११ ॥ १७ ॥ ७१ ॥ वालुगा णाम तडतडतडैस्स भजति भायणे कलंबवालुगापट्टे । वालूगा णेरइया लोलेंती अंबरतलम्मि १२ ॥ १८ ॥ ७२ ॥ तडतडतडस्स भजति० गाधा । ते कलंबवालुगं विउव्वंति । कलंबवालुगा णाम कलंबगपुप्फमिव उद्बुसिताओ, सो जधा उप्फुरुहंसिगा मुम्मुरभूता, तत्थ घोसाए दुक्खं खुप्पंति वाउद्धृताए य अंगमंगेसु, णिवयमाणेसु, णिवयमाणीए मुम्मुरेण व अंगमंगाई डझंति, पाडेऊणं च तत्थेव लोलाविज्जति १२ ॥ १८ ॥ ७२ ॥ वेतरणी णाम [वस-पूय-रुहिर-केस-ऽविवाहिणी कलकलंतजलसोया। वेयरणि णिरयपाला णेरइए ऊ पवाहंति १३ ॥ १९ ॥७३॥ विस] पूयरुहिरकेसढि० गाधा । वेगेन तरन्ति तामिति वेतरणी, ते अणोरपारं गंभीरतडं णदिं विउव्वंति। तीसे पुण पाणियं पूय-रुहिरं १३ ॥ १९ ॥ ७३ ॥खरस्सरा णाम 20 25 १सीहपुच्छाणि खं २ पु २ वृ० आहावृ० । “सीहपुच्छाणि' त्ति पृष्ठिवर्धा" इति वृत्तिकृतः॥ २°रए खं २ पु २ आहावृ०॥ ३ सिराऽऽपाय अंग खं २ पु २ । सिरा तह य अंग आहावृ०॥ ४ इगा उनेरइए खं १ खं २॥ ५कंठोट' खं १ वा ६ थणपुतोरु खं २ पु २ । थण-पूअ-ऊलं आहावृ०॥ ७“असिप्रधानाः पत्रधनुर्नामानः नरकपालाः" इति वृत्तिकृतः॥ ८ उखं १॥ ९पाचिंति खं १ वृ० । पाएंति आहावृ०॥ १०°ड त्ति भखं १॥ ११ भज्जेति भजणे कलंबु खं २ पु २ आहावृ०॥ १२ णरय खं १॥ Jain Education Intemational Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [५ णिरयविभत्तिअज्झयणे पढमो उद्देसओ कप्पति करकएहिं कडेति परोप्परं फेरुसएहिं । सिंबलितमारुभंती खरस्सरा तत्थ णेरइए १४ ॥२०॥ ७४ ॥ कप्पंति करकएहि० गाधा । ते जंतेऊणं च कहूं जधा फाडेंति कप्पेंति करकएहिं ति । परोप्परं च जुज्झाउँति । सिंबलिगि विउव्वित्ता तत्थाऽऽरुभिऊणं कडेति । अंछमाणेसु य खरं रसंतो [ खरस्सरा] १४ ॥ २० ॥ ७४ ॥ 5 महाघोसा णाम भीते पलायमाणे समंततो तत्थ ते णियत्तेति । पसुणो जधा पसुवहे महघोसा तत्थ णेरतिए १५ ॥२१॥ ७५ ॥ ॥पञ्चमाध्ययनं समाप्तम् ॥५॥ भीते पलायमाणे समंततो० गाधा । गोवाले विय गाविओ णियत्तेति य पिटुंति य, एक्कतोखुत्तो य धाडेंति, चारे 10 य पक्खिवंति १५ ॥ २१ ॥ ७५ ॥ णामणिप्फण्णो गतो । इदाणिं सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारेतव्यं ति २९९. पुच्छिसु हं केवलियं महेसिं, कहंऽभितावा णरगा पुरत्था ?। अविजाणओ मे मुणि ! ब्रूहि जाणं!, कहं णु बाला णरयं उवेंति ?॥१॥ २९९. पुच्छिसु हं केवलियं महेसिं० वृत्तम् । सुधम्मसामी किल जंबुसामिणा गरगे पुच्छितो-केरिसा णरगा ? केरिसेहिं वा कम्मेहिं गम्मति ? केरिसाओ वा तत्थ वेदणाओ? । ततो भणति-पुच्छिसु हं पृष्टवानहं भगवन्तं यथैव भवन्तो 15 मां पृच्छन्ति । केवलमेवैकं तस्य ज्ञानमित्यतः केवली । अथवा कृत्स्नं प्रतिपूर्ण केवलमित्यर्थः, संपूर्णज्ञानी केवली । महरिसी तित्थगरो। कथमिति परिप्रश्ने। अभिमुखं भृशं वा तापयन्तीति अलोपाद् भितावा । नीयन्ते तस्मिन् पापकर्माण इति नरकाः, न रमन्ति वा तस्मिन्निति नरकाः। पुरस्तादिति इह पापकतुस्ते पुरस्ताद् भवन्ति, भावनरकान् पृच्छति, द्रव्यनरकास्तु इहैव दृश्यन्ते । अविजाणतो मे मुणी! ब्रूहि [जाणं!], हे ज्ञानिन् ! नाहं जाने-कैः कर्मभिः कथं वा नरकेषूपपद्यन्ते ?, तद् यैः कर्मभिर्यथा चोपपद्यन्ते तमजानतो ममोच्यताम् ॥ १॥ ३००. एवं मया पुढे महाणुभागे, इणमब्बवी कासवे आसुपण्णे। पंवेदइस्सं दुहमह दुग्गं, आदाणियं दुकडिणं पुरत्था ॥२॥ ३००. एवं मया पुढे महाणुभागे० वृत्तम् । एवमनेन प्रकारेण, पुट्ठो णाम पुच्छितो, महानस्यानुभागः । द्रव्यानुभागो हि आदित्यस्य प्रकाशः, तदनुभागाद्धि चक्षुष्मन्तः अहि-कण्टका-ऽग्नि-प्रपातादीनि च परिहरन्ति । भावानुभागस्तु केवलज्ञानं श्रुतं वा, तदनुभावादेव च साधवोऽकुशलानि परिहरन्ति मोक्षसुखं चानुभवन्ते । अनुभवनमनुभावः, महान्ति वा 25 ज्ञानादीनि भजति सेवत इत्यर्थः । इदमब्रवीत् यद् वक्ष्यामः, काश्यपगोत्रो भगवान् , आसुपण्णे त्ति न पुच्छितो चिंतेति, आशु एव प्रजानीते आशुप्रज्ञः । एवं पृष्टो मया आह–पवेदइस्सं दुहमह दुग्गं, साधु वेदयिष्ये प्रवेदयिष्ये, प्रदर्शयिज्यामीत्यर्थः । दुःखस्यार्थ दुखमेवार्थः दुःखप्रयोजनो वा दुःखनिमित्तो वा अर्थः दहमदं। तस्य दुःखस्य कोऽर्थः ?, वेदना, शरीरादिसुखार्था हि देवलोकाः, दुःखार्था नरकाः । दुर्ग नाम विषमम् । आदानिक अथवा "आदीनं नाम” पापं दुक्कडिणं ति दुक्कडकारिणं दुःखोत्पादकानां पुरस्तादिति अप्रतः । अथवा आदीणिकं दुकडिणं पुरत्थेति, तेसिं आदीणिगपावकम्मदुक्कड30 कारिणं पुरस्तात् पूर्वभवदुक्कडकारिणामित्यर्थः । दुक्कडं ति महारंभादीहिं ॥ २ ॥ १तच्छेति खं १ ख २ पु २ वृ०॥ २परसुएहिं खं १ पु २ वृ० आहावृ. ॥ ३ भीते य पलायंते खं १ खं २ पु २ आहावृ०॥ ४ णिरुंभंति खं १ ख २ पु २ वृ० आहावृ०॥५पुच्छिस्स हं खं १ खं २ पु १ पु २ ॥६कहेहि ता वा णरया खं १ ॥ ७ अजाणओ खं १ ख २ पु २ वृ० दी० ॥ ८ मते खं २ । मए खं १ पु १ पु २॥ ९ भावे इणमोऽ° खं २ पु २ वृ० दी० ॥ १० पवेतइस्सं खं १ । पवेयइस्सं पु १ पु २॥ ११ मट्ठ-दुग्गं वृ०॥ १२ आदीणियं खं १ खं २ पु १ वृ० दी० चूपा० । आईणियं पु २॥ १३ दुक्कडियं वृ० दी । दुक्कडिणं पु १ वृपा०॥ १४ वक्ष्यमाणः का वा० मो० ॥ १५ असपुण्णे चूसप्र. ॥ वृ० ॥ २ परसुपहिं व ६ ख २ पु १ पु २ ॥६ ३ २ १० दी० ॥ १० पत३३ दुक्कडियं Jain Education Intemational Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० २९९-३०३ णिजुत्तिगा० ७४-७५ ] सूयगडंग सुत्तं बिइयमंगं पढमो सुक्खंधो। ३०१. जे केइ बाला इह 'जीवितट्ठी, कुराई कम्माई करेंति रोद्दा | ते घोररूवे तिमिसंधयारे, तिव्वाणुभावे णरए पडंति ॥ ३ ॥ ३०१. जे केइ बाला इह जीवितट्ठी • वृत्तम् । जे त्ति अणिदिट्ठणिदेसो । द्वाभ्यामाकलितो बालः । ये केचन बाला इहेति तिरिय-मणुएसु असंजमजीवितट्ठी तत्प्रयोगजीवितार्थी च । कूराई कम्माई करेंति रोद्दा, कूराई हिंसादीणि रौद्राध्यवसायाः रौद्राकाराश्च रौद्राः । ते घोररूवे तिमिसंधयारे, कुंभी वेतरणी यत्र 'हण छिन्द भिन्द' इत्यादिभिर्भयानकैर्घोररूपै - 5 र्घोररूपो घोररूपा वा ते नरका जत्थ सो उववज्जति । तिमिसंधकारो नाम जत्थ घोरविरूविणं पस्संति, जं किंचि ओहिणा पेक्खति तं पि कागदूसणियासरिसं पेच्छं पेच्छंति तैमिरिका वा । " कण्हलेसे णं भंते ! णेरइए कण्हलेस्सं रइयं पणिधाय ओहिणा सव्वओ समंता समभिलोएमाणा केवतियं खेत्तं जाणंति ? केवतियं खेत्तं पासंति ?, गोयमा ! णो बहुतरयं खेत्तं जाणइ णो बहुतरयं खेत्तं पासति, तिरियमेव खित्तं पासति जह लेस्सुद्देसए” [ प्रज्ञा० पद १७ सू० २२३ पत्र ३५५-१]। तिव्वाणुभावे त्ति अनुभवनमनुभावः, तीव्रवेदनानुभावाः ॥ ३ ॥ कथमुपैति ? " से जधाणामए पवगे पवमाणे” [ ] । ते तु कैः कर्मभिर्यान्ति— ३०२. तिव्वं तसे पाणिणो थावरे य, जे हिंसती आयसुहं पडुच्चा । जे लूँसए होति अदत्तहारी, ण सिक्खती सेविययस्स किंचि ॥ ४ ॥ ३०२. तिव्वं तसे पाणिणो थावरे य० वृत्तम् । तीव्राध्यवसिता जे तस थावरे पाणे हिंसंति न चानुतप्यन्ते, ये मन्दाध्यवसायाः त्रस-स्थावरान् प्राणान् हिंसंति ते त्रिषु नरकेषूपपद्यन्ते । अथवा तीत्रमिति तीव्राध्यवसायाः तीव्रमिथ्या - 15 दर्शनिनश्चातीव्रमिध्याध्यवसिताश्च संसारमोचक- याज्ञिकादयः थावरे पूरदाहगादिः आत्मसुखार्थं आत्मसुखं पडुच्च, हि परार्थं हिंसंति तत्रापि तेषां मनःसुखमेवोत्पद्यते पुत्र-दारे सुखिन्यपि । अत्र वा जे लूसए होति अदत्तहारी, लूसको नाम हिंसक एव, जो वा अंग-पञ्चंग भिन्दति भंजति वा, अदत्तं हरतीति अदत्तहारी, सो य विगयसंयमः । सिक्खा गहणसिक्खा आसेवणा सिक्खा य, न किंचिदपि आसेवते संयमठाणं, तस्स एगपाणाए वि दंडेण णिक्खित्तो ॥ ४॥ 1 ३०३. पागभि पाणे बहुणं तिवादि, अणिव्वुडे घातगतिं उवेंति । णिधोणतं गच्छति अंतकाले, अहो सिरं कहु उवेति दुग्गं ॥ ५ ॥ जयतु वसुमती नृपैः समग्रा, व्यपगतचौरभया वसन्तु देशाः । जगति विधुरवादिनः कृतघ्नाः, [० ३५०० ] नरकमवाशिरसः पतन्तु शाक्याः ॥ १ ॥ [ ] ३ तिव्वाभितावे खं १ खं २ पु १ १ जीविट्ठा १ ॥ ४ याऽऽयसुहं खं २ पु १ ॥ खं २ ॥ ३०३. पागब्भि पाणे बहुणं ति० वृत्तम् । न तस्य कर्तुकामस्य कृत्वा वा किचन मार्दवमुत्पद्यन्ते, यथा सिंहस्य कृष्णसर्पस्य वा । बहूणं तिवादि मत्स्यबन्धाद्याः स्वयम्भुरमणमत्स्या वा येषां चाऽन्या वृत्तिरेव नास्ति बक- सिंहादीनाम्, त्रिभ्यः पातयति त्रिभिर्वा पातयति मनो-वाक्काययोगैरित्यर्थः, एवं परिग्रहोऽपि वक्तव्यः । अणिव्वुडे अणुवसंते आसवदारेहिं, स एवं दाहिणगामिए अधम्मा पक्खिएस बहु पावकम्मं कलिकलुस संमज्जिणित्ता " से जधाणामए अयगोले ति वा" इत्तो 25 चुत्ता घातगतिं उवेंति, घातगतिर्नाम व्यधतिर्वेदनागतिरित्यर्थः, घातकानां वा गतिः, धंतगतिं गच्छति । अंतकाले निधोगतिः अधोगतिः अधोभवद्भिः शिरोभिर्न्यग्भवद्भिः शिरोभिः, ओनतं अप्रकाशं अधोगच्छद् अधःकारमित्यर्थः । अन्तकाल नाम जीवितान्तकालः । अधोशिरा इति उक्तं हि २ पावाई कखं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ५ लूसते खं १ पु १ ॥ ६ तिवादी खं १ खं २ । तिपाती पु १ । तिवाई पु२ ॥ ९ समजाणित्ता चूसप्र० ॥ ८ घातमुवेति बाले । णिहो णिसं गं खं १ खं १२७ २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ For Private Personal Use Only 10 पु २ वृ० दी० ॥ ७ अणिते 20 30 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ णिजुत्ति-चुणिसमलंकियं [५ णिरयविभत्तिअज्झयणे पढमो उद्देसओ दूरात् पतने हि शिरसो गुरुत्वाद् अवाशिरसः पतन्ति, स एवोपचारः इहानुगम्यते, न तेषां तस्यामवस्थायां शिरो विद्यत इति ।। ५ ॥ एकसमयिक-दुसमयिग-तिसमएण वा विग्गहेण उववजंति, अंतोमुहुत्तेण अशुभकर्मोदयात् शरीराण्युत्पादयन्ति, निर्द्धनाण्डजसन्निभा निजपर्याप्तिभावमागताश्च शब्दान् शृण्वन्ति ३०४. हण छिंदध भिंदध णं दहह, सद्दे सुणेत्ता परधम्मियाणं । ते णारगा तू भयभिण्णसण्णा, कंखंति कं णाम दिसं वयामो ? ॥६॥ ३०४. हण छिंदध भिंदध णं दहह० वृत्तं कण्ठ्यम् ।। ६ ॥ ततस्तान् शब्दानकर्णसुखान् भैरवान् श्रुत्वा तद्भयात् पलायमानाः ३०५. इंगालरासिं जलितं सजोति, ततोवमं भूमि अणोकमंता । ते डज्झमाणा कलुणं थणंति, अरहस्सरा तत्थ चिरहितीया ॥७॥ 10 ३०५. इंगालरासिं जलितं सजोति० वृत्तम् । जधा इंगालरासी जलितो धगधगेति एवं ते नरकाः स्वभावोष्णा एव, ण पुण तत्थ बादरो अग्गी अस्थि, णऽण्णत्थ विग्गहगतिसमावण्णएहिं । ते पुण उसिणपरिणता पोग्गला जंतवाडचुल्लीओ वि उसिणतरा। ततोवमं भूमि अणोकमंता तत्राऽऽयसकभल्लतुल्लं ते डज्झमाणा कलुणं थणंति, कलुणं दीणं, स्तनितं नामं मीषत्कृजितं यद लाडानां निस्तनिस्तनितम् । अरहस्सरा णाम अरहतस्वराः अनुबद्धा सरा इत्यर्थः । चिरं तेसु चिट्ठतीति चिरद्वितीया, जहण्णेणं दस वाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ।। ७ ।। त एवं प्रतिपद्यमाना नदी पश्यन्ति16 ___ ३०६. जइ ते सुता वेतरणीऽभिदुग्गा, खुरो जधा णिसितो तिक्खसोता। ___ तरंति ते वेतैरणीऽभिदुग्गं, असिचोइता सत्तिसु हम्ममाणा ॥८॥ ३०६. जइ ते सुता वेतरणीभिदुग्गा० वृत्तम् । यदि त्वया श्रुतपूर्वा वैतरणी नाम नदी, लोकेऽपि ह्येषा प्रतीता। वेगेन तस्यां तरन्तीति वैतरणी, अभिमुखं भृशं वा दुर्गा अभिदुर्गा गम्भीरतटा परमाधार्मिककृता, केचिद् ब्रुवते स्वाभाविकै वेति । खुरो जधा णिसितो यथा क्षुरो निशितश्छिनत्ति एवमसावपि जइ अंगुली छुभेज ततः सा तीक्ष्णश्रोतोभिः छिद्यते, 20 तीक्ष्णता वा गृह्यते यथा क्षुरधारा तीक्ष्णवेगा। ततस्ते तृष्णार्दिता प्रतप्ताङ्गारभूतां भूमि विहाय खिण्णासवः पिपासवश्च तत्रावतरन्तीति, अवतीर्य चैनां मार्गाभिदुर्गा प्रतरन्ति । नरकपालैरसिभिः शक्तिभिश्च पृष्ठतः प्रणुद्यमाना उत्तितीर्षवश्च ततः शक्तिभिः कुन्तैश्च तत्रैव क्षिप्यन्ते ॥ ८ ॥ ३०७. कोलेहिं विज्झंति असाधुकम्मा, णावं उर्वती सइविप्पडणा। भिण्णेत्थ सूलाहि तिसूलियाहिं, दीहाहि विभ्रूण अधे करेंति ॥९॥ 25 ३०७. कोलेहि विनंति असाधुकम्मा० वृत्तम् । तत्थ परमाधम्मिएहिं णावाओ वि विउव्विताओ लोहखीलगसंकुलाओ, ते ताओ अल्लियंता पुत्वविलग्गेहिं णिरयपालेहिं विझंति । कोलं नाम गलओ। उक्तं हि-"कोलेनानुगतं बिलम्" भुजङ्गवदसाधूनि कर्माणि येषां ते इमे असाधुकर्माणः, णावं उर्वति उवल्लियति । तेसिं तेण चेव पाणिएण कलकलकलभूतेण सव्वसोत्ताणुपवेसणा स्मृतिः पूर्वमेव नष्टा, पुनः कोलैर्विद्धानां भृशतरं नश्यति । भिन्नेत्थ मूलाहि तिसूलियाहिं त्रिशूलिकाभिर्दीर्घाभिर्विद्धाः अधे हेहतो जलस्स अधोमुखे वा ॥९॥ १ डहह खं१। डहेह पु २ । डहा पु १॥ २ सुणती खं २ पु १॥ ३ भूमिमणुक्क खं १ खं २ पु २॥ ४ णिसितो जहा खुर इव तिक्ख खं १ खं २ पु १॥ ५ वेयरणि भि खं २ पु १॥ ६ उसुचों खं १ ख २ पु १ ३० दी.॥ ७कीलेहिं पु १॥ ८ कम्मी खं २ पु १॥ ९उवेंते पु १ वृ० दी०॥ १० अण्णे उ सूपु १ वृ० दी। अण्णेत्थ सूखं १ ख २॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ३०४-१०] सूयगडंगसुतं बिइयमंग पढमो सुयक्खंधो । ततः कथञ्चिदेव चिरादुत्तीर्णाः सन्तः नरकपालैर्विकुर्वितां (? तं) नरकमुपयान्ति । केतरम् ? - ३०८. असूरियं णाम महाभितावं, अंधतमं दुप्पतरं महंतं । उड्डुं अधे या तिरियं दिसासु, समाहितो जत्थऽगणी झियाति ॥ १० ॥ ३०८. अस्सूरियं णाम० वृत्तम् । यत्र सूरो नास्ति, अथवा सर्व एव नरका: असूरिकाः । महाभितावं णाम कुम्भीपाकसदृशो महान् अभितापो यस्मिन् । अन्धतमोभूतम्, यथा जात्यन्धस्य अहनि रात्रौ च सर्वकालमेव तम एवं तत्रापि 5 स तु अगाधगुहासदृशः। दुःखं तत्थ पयरंति त्ति दुष्प्रतरम् । महान्त इति विस्तीर्णाः, उड्डुं अधे या तिरियं दिसासु, ऊर्ध्वमिति उवरिल्ले तले अधे भूमीए तिरियं कुड्डेसु, तत्थ कालोभासी अचेयणो अगणिक्कायो समाहितो सम्यगू आहितः समाहितः एकीभूतः, निरन्तैर इत्यर्थः । पठ्यते च - " समूसिते जत्थऽगणी झियाति" समूसितो नाम उच्छ्रुतः, सो पुण जंतचुलीतो उसितरो ॥ १० ॥ ३०९. जंसी गुहाए जलणातियट्टे, अविजाणतो डज्झति लुत्तपणे । सदा कलणं पुण घम्मठाणं, गाढोवणीतं अतिदुक्खधम्मं ॥ ११ ॥ ३०९. जंसी गुहाए जलणातियट्टे० [वृत्तम् ] गुहाए [ ए ]गतोदारा विउव्विता किण्हागंणी हूहूयमाणी हूहूयमाणी चिट्ठति । जलणं अति [ यट्टति] अतो जलणातियट्टे । अविजाणतो डज्झति लुत्तपणे, अविजाणतो नाम नासौ तस्यां विजानाति 'कुतो द्वारम् ?' इति । अथवाऽसौ जानाति 'अध ( ? इध ) मे उसिणपरित्राणं भविष्यति' इह चासौ अविज्ञायक आसीद् यस्तद्विधानि कर्माण्यकरोत् । लुप्ता प्रज्ञा यस्य स भवति लुत्तपण्णो न जानाति 'कुतो निर्गन्तव्यम् ?” इति, वेदनाभिर्वाऽस्य प्रज्ञा सर्वा हता, अथवा " अहिते हितपण्णाणे" [सू० ३५ ] । इदमन्यद् वेदनास्थानम् -सदा कलणं पुण घम्मठाणं, सदेति नित्यम्, न कदाचिदपि तस्मिन् हर्षः प्रहासो वा, घर्मणः स्थानं धर्मस्थानम्, सर्व एव हि उह - वेदना नरकाः धर्मस्थानानि, विशेषतस्तु विकुर्वितानि स्थानानि दुःखनिष्क्रमण - प्रवेशानि । गाढं उन्हं दुक्खोवणितं गाढैर्वा दुर्मोक्षणीयैः कर्मभिस्तत्र उपनीतः, स वा तेषामुपनीताः, अथवा गाढमिति निरन्तरमित्यर्थः, गाढवेदणं अतिदुक्खधम्मं ति, धर्मः स्वभाव इत्यर्थः, स्वभावप्रतप्तेष्वेव तेषु ॥ ११ ॥ तत्थावि 15 1 20 ३१०. चत्तारि अंगणीओ समारभित्ता, जहिं कूरकम्माऽभितविंति मंदी | ते तत्थ चिभितप्पमाणा, मच्छा व "जीवं उवजोति पत्ता ॥ १२ ॥ ३१०, चत्तारि अगणीओ समारभित्ता० वृत्तम् । अथवा इदमेव तद् धर्मस्थानम्, यदुत चत्तारि अगणीओ समारभित्ता चउद्दिसिं अग्निं समारभित्ता णाम समुद्दीवेत्ता, जहिं ति यत्र क्रूराणि कर्माणि यैः पूर्वं कृतानि ते क्रूरकर्माणः नारकाः, अथवा ते क्रूरकर्माणोऽपि णरयपाला जे णरयग्गितत्ते वि पुनरपि अभितापयन्ति यत एव हि मंदा नरकपाला 25 मन्दबुद्धय इत्यर्थः, नरकप्रायोग्यान्येव कर्माण्युपचिन्वन्ति भृशं तप्यमाना अभितप्पमाणा । जीवं नाम जीवन्त एव । ज्योतिषः समीपे उपजोति पत्ता समीपगताभितापवद् मत्स्यास्तप्यन्ते, किमंग पुण तत्ते त एव छूढा अयोकवले वा, सीतयोनित्वाद्धि मत्स्यानां उष्णदुःखानभिज्ञत्वाश्च अतीवामौ दुःखमुत्पद्यते इत्यतो मत्स्यग्रहणम् ॥ १२ ॥ किञ्चान्यत् ९ नवमगाथानन्तरं वृत्ति-दीपिकाकृद्भ्यां व्याख्याता खं १ ख २ पु १ सूत्रप्रतिषु एका सूत्रगाथाऽधिका उपलभ्यते । सा चेयमूसिंचि बंधित्तु गले सिलाओ, उदगंसि बोलेंति महालयंसि । कलंबुयावालय मुम्मुरे या, लोलेंति पञ्चंति य तत्थ अपने ॥ अत्र केसिंचि स्थाने केसिंच तथा पश्यंति स्थाने पउलिंति इति पाठभेदः खं १ वर्त्तते ॥ २ महब्भितावं खं १ पु १ ॥ ॥ य ३ समूसिते जत्थ चूपा० वृपा० ॥ ४ झियायती पु १ ॥ ५° तरमित्य इउट्टे खं २ ॥ ७ अजाणतो खं १ वृ० दी० ॥ ८ लूपन्ने पु १ ॥ कसिणं वृपा० दीपा० ॥ १० गणाणा हुहू' पु० सं० । गणणा हुहू • दी० । बाला पु १ ॥ १३ चिट्ठेतिऽभि खं १ | चिट्ठेति अभि° सूब०सु० १७ ६ जलणेऽतिवट्टे पु १ वृ० बी० । जलणाकलुणं खं १ खं २ पु १ वृ० दी० । सया य ११ अगणीयो पु १ ॥ १२ बालं खं १ खं २ जीवंतुव खं १ ख २ पु १ ० वी० ॥ For Private १२९ वा० मो० ९ सया वा० मो० ॥ १ ॥ १४ Personal Use Only 10 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 १३० णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [५ णिरयविभत्तिअज्झयणे पढमो उद्देसओ ३११. संतच्छणं णाम महंति तावं, ते णारया जत्थ असाधुकम्मी। हत्थेहि पादेहि य बंधिऊणं, फलगं व तच्छेति कुहाडहत्था ॥ १३॥ ३११. संतच्छणं णामक वृत्तम् । समस्तं तच्छणं संतच्छणं णाम जत्थ विउव्विताणि वासि-परसु-पट्टिसाणि, लिओ जहा खइरकहूं तच्छेति एवं ते वि वासीहिं तच्छिजंति, अण्णे कुहाडएहिं कट्ठमिव तच्छिजंति । महन्ति तावं णाम 5 महंताणि वि तत्ताणि तच्छणाणि भूमी वि तत्ता । असाधूणि कम्माणि जेसिं ते असाधकम्मी। हत्थेहि पादेहि य बंधिऊणं, य णियलेहि य अंदुआहि य किडिकिडिगाबंधेणं बंधिऊणं मा पलाइस्संति उद्धेस्सेति वा चलेस्सेंति वा ताधे पुरकवाडफलग इव कुहाडहत्था तच्छेति ॥ १३ ॥ स एवं संतच्छित्ता. ३१२. रुहिरे पुणो वचसमूसितंगो, भिण्णुत्तिमंगे पैरियत्तयंता । पयंति णं णेरइए फुरते, सज्जो व्व मच्छे व अयोकवल्ले ॥ १४ ॥ 10 ३१२. रुहिरे० वृत्तम् । रुहिरे पुणो वच्चसमूसितंगो, रुधिरं जंते छिजंताणं परिगलति । पुव्वं च तेषां वर्चस्युषितान्यङ्गानि, ते वर्चसा आलित्तंगे कुहाडपहारेहिं भिण्णुत्तिमंगे अयकवल्लेसु तम्मि चेव णियए रुधिरे उव्वत्तेमाणा परियत्तेमाणा य पयंति णं णेरइए फुरते, उक्कारिगा व धूवं वा जधा सिलिसिलेमाणा फुरफुरुते य, सञ्जो ज(व्व) मच्छे व अयोकवल्लेसु पयंति । सोमच्छे त्ति जीवंते । अथवा "सज्जोकमत्थे" सज्जो हते, अप्पणिजिगाए चेव वसाए । अयोकवल्लाणीति अयो'मयाणि पत्राणि ॥ १४ ॥ एवमपि ते छिन्नगात्रास्ताड्यमानास्तक्ष्यमाणाः पच्यमानाच ३१३. नो चेव ते तत्थ मसीभवेति, ण मिजती तिवऽतिवेदणाए। कैम्माणुभागं अणुवेदयंती, दुक्खंति सोयं इह दुक्कडेणं ॥१५॥ ३१३. नो चेव ते तत्थ मसीभवेति० वृत्तम् । छारीभवंति वा । न वा म्रियन्ते, तिव्वा अतीव वेदणा, बन्धानुलोम्यादेवं गतम्, इतरधा तु 'अतितिव्ववेदणाई' त्ति पठ्येत । कम्माणुभागं णरगाणुभागं सीतं उसिणाणुभागं वेदिती, भूयो वेदयन्ति अणुवेदयंति, तेण दुक्खेणं दुक्खंति सोयं जूरंति इह दुक्कडेण हिंसादीहिं अट्ठारसहिं हाणेहिं ॥ १५ ॥ 20 ३१४. "तेहिं पि ते लोलुअसंपगाढे, गाढं सुतत्तं अगणिं वयंति। ण तत्थ सादं लेभंतीभिदुग्गे, अरहिताभितावे तध वी तर्विति ॥१६॥ ३१४. तेहिं पि ते लोलुअसंपगाढे० वृत्तम् । तस्मिन्नपि ते पुनः लोलुगसंपगाढे वि अण्णं पगाढतरं सुंतत्तं विउव्विएल्लयं अगणिहाणं वयंति।लोलंति येन दुःखेन तद् लोलुगं, भृशं गाढं प्रगाढं निरन्तरमित्यर्थः। गाढतरं सुहृतरं गाढं सततं. तत्तो वि साभाविगातो णरगउसिणग्गीओ अधिकतरं, अथवा साभाविगअगणिणा तत्तं सीतवेदणिज्जा वि लोलुगा तेसु वि 2 णेरइया सीएण हिमुक्कडअहुणपक्खित्ताई व भुजंगा लल्लकारेण सीतेणं लोलाविजंति । अण्णेसिं पुण णरगाणं चेव लोलुअग्गि त्ति णामं, जधा लोलुए महालोलुए। [ण] तत्थ सादं लभंतीभिदुग्गे, निरयपालानन्तरेणापि तावत् ण तत्थ सासं( ? सातं) लभंति । उक्तं हि "अच्छिणिमीलियमेत्तं णत्थि सुहं किंचि कालमणुबद्धं ।" [जीवा० प्रति० ३ ० ९५ पत्र १२९-१] अतिदुग्गे वा भृशं महभितावं खं १ ख २ पु १। महाहितावं सा०॥ २°कम्मा खं १ पु १० दी.॥ ३ रजेहिं पु०॥ ४ मूसितंतो ० । 'मसितंगो वृपा०॥ ५परिवत्ततंता खं २ ॥ ६ सज्जोकमत्थे चूपा० । सजीवमच्छे खं १ ख २ पु १ . दी०॥ ७°हारपहिं वा० मो०॥ ८भिण्णंतिमंगे चूसप्र०॥ ९णिमजती खं २॥ १० तिव्वभि खं १ ख २ पु १ वृ० दी । ११ तमाणुभागं अणुवेदयंता वृ० दी० । तमाणुभावं अणुवेदयंता खं १। तमाणुभार्ग परिवेतयंता खं २। तमाणुभागं परिवेदयंति पु१॥ १२ ति दुक्खी इह खं १ खं २ पु १ वृ० दी० ॥ १३ "तथा तत्तीवाभिवेदनया नापरमग्निप्रक्षिप्तमत्स्यादिकमप्यस्ति यद् • "मीयते' उपमीयते, अनन्यसदृशीं तीव्र वेदना, वाचामगोचरामनुभवन्तीत्यर्थः” इत्यपि व्याख्यानं वृत्ती ॥ १४ तहिं च ते लोलणसंप खरपु १.० दी। तहिं च ते लोलुतसंप खं १॥ १५ लभतीऽतिदुग्गे खं २॥ १६ रहिब्भितावे खं १। रहिब्भियावा पु१॥ १७ सुतिव्वं विउ पु०॥ १८°णिगाढं ट्राणं वा० मो०॥ Jain Education Intemational Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ३११-१७] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। १३१ दुर्गे वा, ण चेव तत्थ काइ समा भूमी अत्थि । अरहिता अभितावं तस्मिन्नपि अरहिते अभितावे तधावि तविजंति अयोक तेषां चरकाणां गण्डस्योपरि पिटका इव जातास्ते ते स्वाभाविकेन नरकदुक्खेण विशेषतश्च नरकपालोदीरितेन पुनः पुनः समोहन्यमानाः प्रायं वेदनासमुद्धातैरिव कालं गमयन्ति ॥ १६ ॥ तत्र पुनर्महाघोषनरकपालोदीरितस्तेषां च परस्परतो हन-छिन्दभिन्द-मारयाऽतिकृयित-स्तनितशब्दैश्च३१५. से सुवती गामवधे व सद्दे, उदिण्णकम्माए पयाय तत्थ । उदिण्णकम्माण उदिण्णकम्मा, पुणो पुणो ते सहरिसं दुहंति ॥ १७॥ ३१५. से सुव्वती गामवधे व सद्दे० वृत्तम् । से जधानामए इध गामघाते वा णगरघाए वा सर्वस्वहारे च बन्दिग्गहे वा महाणगरडाहे वा डक्कुरिजंतेसु वा णगर-गामेसु वा समंता हाहाकारारवा अमातृ-पुत्राः श्रूयन्ते, एवं तेष्वपि उदिण्णकम्माए पयाय त्ति णरगपयाए णरगलोगस्स महाभैरवसहो सुव्वते । उदिण्णकम्माण तेसिं असातावेदणिज्जादिगाओ ओसणं असुभाओ कम्मपगडीओ उदिण्णाओ, असुरकुमाराण वि तेसिं मिच्छत्त-हास-रतीओ उदिण्णाओ इति, अतस्ते उदिण्णकम्मा 10 रइयाणं शरीराणीति वाक्यशेषः, उदीर्णकर्माणोऽसुराः पुनः पुनरिति अनेकशः, संघात-मारणाणि सह हरिसेण सहरिसं दुःखापयंति दुहंति । “विधंति" वा पठ्यते ॥ १७ ॥ ३१६. पाणेहिं णं पाव विजोजयंति, तं भे पवक्खामि जधातघेणं । दंडेहिं तत्था सरयंति बालं, सोहिं दंडेहिं पुराकतेहिं ॥ १८॥ ३१६. पाणेहिं णं पाव विजोजयंतिक वृत्तम् । प्राणाः शरीरेन्द्रिय-बलप्राणाः, तान् ते पावा तैस्तैर्वेदनाप्रकारैः 15 छेद-भेदप्रकारैश्च वियोजयंति विश्लेषयन्तीत्यर्थः । स्यात्-किमर्थं ते तेषां वेदनामुदीरयंति ? कीदृशी वा ?, उच्यते, तं मेऽहं पवक्खामि जधातघेणं, भृशं साधु वा वक्ष्यामि जधातधं ति जहिं इधं येन प्रकारेण पावाई कम्माई कताई ते तहिं तहेव वेयणाओ पाविजंति । का तर्हि भावना ?-तीव्रोपचितैस्तीवा वेदना भवन्ति मन्दैर्मन्दा मध्यैर्मध्या नरकविशेषतः स्थितिविशेषतश्च । अधवा जधातधं ति राजत्वे वा राजामात्यत्वे चारकपालत्वे लुब्धकत्वे वा सौकरिक-मत्स्यबन्धत्वे वा वध-घात-मांसोपरोध-पारदारिक-याज्ञिक-संसारमोचक-महापरिग्रहेत्येवमादयो दण्डा यैर्यथा कृतास्तान् तथैव दंडे तत्थ सरयंति बालं. तैरेव 20 यथाकृतैर्दण्डैः स्मारयन्ति यातयमानाः सरयंति त्ति स्मारयन्ति । न तथा छिद्यन्ते एव मार्यन्ते वध्यन्ते विध्यन्ते सह्यन्ते, एवं यावन्तो यथा च दण्डप्रकाराः कृतास्तावद्भिस्तथा च सारयन्ति ।। १८॥ ३१७. ते हम्ममाणे णरगं उवेंति, पुण्णं दुरूअस्स महभिता । ते तत्थ चिटुंति दुरूवभक्खी, तुटुंति कम्मोवंसगा किमीहि ॥ १९ ॥ ३१७. ते हम्ममाणे णरगं उर्वति० वृत्तम् । त एवं बालाः हन्यमाना इतश्चेतश्च पलायमाणा णिलुक्कणपधं मग्गंता 25 नरकमेवान्यं भीमतरवेदनं प्रविशन्ति, जध इह चोरेहिं चोरा चारिजंता कडिल्लमनुप्रविशन्ति, तत्रापि सिंह-व्याघ्रा-ऽजगरादिभिः खाद्यन्ते, एवं ते बाला पलायमाणा नरकपालभया तं नरकं पतंति । अण्णं पुण्णं दुरूअस्स, दुरूयं णाम उच्चार-पासवणकद्दमो, “से जधाणामए अहिमडे ति वा” [जीवा० प्रति ३ सू० ८३ पत्र १०६] मत-कुहित-विणिट्ठकिमीणं, तदपि दुरूवं तप्तं महभितावं। [ते] तत्थ चिट्ठति दुरूवभक्खी, दुरूवं भक्खयन्तीति दुरूवभक्खी, ते णिरयपालेहि दुरूवं खाविजंति । तुद्यन्त इति तुद्यमानाः खाद्यमानाः कृमिभिः कम्मोवसगा णाम कर्मयोग्या कर्मवशगा वा, तत्थ दुरूवे 30 विष्ठाकृमिसंस्थाना विउव्विया किमिगा तेहिं खजमाणा चिट्ठति, गुणमाणा य तत्थ किच्छाहिं गच्छंति, परिस्संता य तत्थेव १ नगरवधे खं १ वृ० दी० ॥ २ दुहोवणीताण पदाण तत्थ खं १ खं २ पु १ वृ० दी० ॥ ३ सरहं दुहेंति खं १ ख २ पु १ वृ० दी । सहरिसं विधंति चूपा० ॥ ४ सन्धती पु० । सव्वती सं० वा० मो० ॥ ५ आमात्यपुत्राः चूसप्र० ॥ ६ डंडेहिं तत्था सरतंति खं १॥ ७बाला खं १ खं २ पु १॥ ८ कृतस्नानतच्छेव चूसप्र०॥ ९°माणा णरए पडंति, पुण्णे दुरूवस्स महब्भितावे खं १ ख २ पु १ वृ० दी । णरए स्थाने णरते खं १॥१०°वगता कि खं १ ख २ वृ० दी.॥११ भक्षय वा० मो० ॥ Jain Education Intemational Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ णिजत्ति-चुण्णिसमलंकियं [५णिरयविभत्तिअज्झयणे पढमो उहेसयो लोलमाणा किमिगेहिं खजंति, "छट्ठ-सत्तमासु णं पुढवीसु णेरइया मुत्तमुहन्ताइं लोहितकुंथुरूवाइं विउव्वित्ता अण्णमण्णस्स कायं समतुरंतेमाणा अणुखायमाणा चिट्ठति" [अर्थतः जीवा० प्रति ३ सू० ८९ पत्र ११७-१] ॥ १९ ॥ किश्चान्यत्३१८. सदा कसिणं पुण धम्मठाणं, गाढोवणीतं अतिदुक्खधम्मं । अंदूसु पक्खिप्प हणंति बालं, "वेधेहिं विंधति सिराणि तेसिं ॥२०॥ ३१८. सदा कसिणं [पुण ] घम्मठाणं० वृत्तम् । सदेति नित्यं कसिणं णाम सम्पूर्ण तत्रोष्णं [घम्मठाणं] कुंभीपागअणंतगुणाधियं । जो वि तत्थ वातो सो वि लोहारधमणी व अणंतगुणउसिणाधिको । गाढेहि कम्मेहिं तत् तेषामुपनीतम्, ते वा तत्थुवणीता। आवायानीह गाढान्युष्णस्थानानि इष्टकापाकादीनि तैस्तदुपमीयते उपनीयते त्ति वा उवपदरिसितं ति वा एगढं। अतिदुःखस्वभावं अतिदुःखधर्मम् , तधा वि अतिदुक्खधम्मे अंदसु पक्खिप्प हणंति बालं हत्थंदूसु पक्खिविऊण 10विहण्णंति । विणिहणित्ता खीलगेहिं चम्ममिव ततो वितडियसरीराणं वेधेहिं विधति सिराणि तेसिं, वेध्यस्थानानि येषु वा ते वेधाः, तद्यथा-अक्षि-कर्ण-नासा-मुखानि । अदान्तेन्द्रियाणां पूर्वत एव एतानि पूर्वमदान्तान्यभूवन , साम्प्रतं दाम्यन्ते । अधवा सीसावेढेण तावेन्ति सीसं दुक्खावेंति ॥२०॥ किञ्चान्यत् तत्राऽसिपत्रा नाम नरकपालाः ३१९. छिदंति बालस्स खुरेण णकं, ओढे वि छिंदंति दुवे विकण्णे। जिन्भं विणिकिस्स विहत्थिमेत्तं, तिक्खाहिं सूलाहिं निपातयंति ॥ २१॥ 18 ३१९. छिंदंति बालस्स खुरेण णकं ओढे वि छिंदंति दुवे वि कण्णे० [वृत्तम् ] । एतानि हि पूर्वमच्छिन्नदोषान्य भूवन् अच्छिन्नतृष्णानि चाऽऽसन् तत् साप्रतं स्वयमेव छिद्यन्ते । जिब्भं विणिकिस्स विहत्थिमेत्तं, एषा हि पूर्व मांसासिनी अलीकभाषिणी चाऽऽसीत् । परस्परं च विकुन्वितेहिं छिंदंति बालस्स खुरेण णकं । तिक्खाहिं सलाहि ति, लोहखीलगा सूवका य, यावत् कृकाटिकातो निर्गता निपातयंति त्ति विधंति ॥ २१ ॥ त एवं विद्धा ३२०. ते तिप्पमाणा तलसंपुडऽच्चा, रातिंदियं तत्थ थणंति "मंदा। समीरिता सरुधिर-मंसदेहा, पज्जोविता खारपयच्छितंगा ॥२२॥ ३२०. ते तिप्पमाणा तलसंपुडऽच्चा० वृत्तम् । विनितप्यमानाः तिप्पमाणाः कंदमाणाः पीड्यमाना हेरिकादिषु । तलसंपलिता णाम अयतबंधता हस्तयोः कृता, यथैषां करतलं चैकत्र मिलति एवं पादयोरपि, अथवा करतलेन किञ्चित् पीयन्ते । एवं तेषां चप्पडगेहिं जंतेहि य तलसंपुडियच्चा, अच्चा सरीरं भण्णति । रातिदियं तत्थ थणंति मंदा, रात्रिंदिनप्रमाणमात्रं कालं णित्थणंति अच्छंति, मंदा नाम मन्दबुद्धयः ग्लाना वा । समीरिता सरुधिर-मंसदेहा पजोविता खारपयच्छितंगा. त एवं समन्तोदीरिता समीरिता सर्वतो रुधिरं गलाविता इत्यर्थः, सर्वतश्च मांसैरवकृष्टः अण्णायभूमीय थरथरायंतो अण्णाक्कथलंचगाइं देहो वि खंडखंडाइं केसिंच कातो पज्जोविततो, सर्वतो पलीविता वेढेऊण केइ खारेण पतच्छितंगा वासीमादीहिं तच्छेतुं खारेण सिंचंति ॥ २२ ॥ किञ्च ३२१. जइ ते सुता लोहितापागपायी, बालागणी तेयगुणा परेणं । ___ कुंभी महंतोऽहियपोरुसीया, समूसिता लोहितपूयपुण्णा ॥ २३ ॥ १मभूमुहत्ताई सं० । मत्तमुहत्ताई वा० मो० । "बहूमहंताई" इति जीवा भिगमसूत्रे पाठः । २ सया य क पु १॥ ३°प्प विहत्तु देह, वेहेण सीसं सेऽभितावयंति खं २ वृ० दी० । ८प विहन्न देहं, वेहेण तं सेऽभितवेंति सीसं खं १ पु १॥ ४ वेढेण तावेंति सि चूपा० ॥ ५°प्पयंति बा चूसप्र० ॥ ६मुख-नासानि पु०॥ ७ णासं खं १ पु १॥ ८°हि भितावयंति कृ. दी। हिं तिवातयति खं १ पु १ वृष । हिं निवायतंति खं २॥ ९°ड व राखं १ खं २ पु १ वृ० दी० ॥ १० जत्थ खं १॥ ११ वाला खं २ पु १ वृ० दी० ॥ १२ गलंति ते सोणित पूति-मंसं, पज्जोविता खारपदिद्धितंगा खं १ पु १ वृ० दी । गलंति ते सोणिअ-पूह-मंसं, पजोविया खारपतच्छितंगा खं २॥ १३ विभितप्प चूसप्र०॥ १४ पीड्यमानाः। एवं वा. मो.॥ १५ यत्थिमंगा चूसप्र०॥ १६ थरवरा पु० सं०॥ १७°चक्कावलिंच पु० सं० ॥ १८ लोहितपूतपाती, बाखं १ खं २ पु १ वृ० दी.॥ १९ ताधियपोरिसीणा खं १ पु १॥ Jain Education Intemational Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ सुत्तगा० ३१८-२४] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। ३२१. जइ ते सुता लोहितापागपायी बालागणी तेयगुणा परेणं० [वृत्तम् ] । यदि त्वया कदाचित् श्रुता, लोकेऽपि ह्येषा श्रुतिः प्रतीता-तत्र कुंभीओ विजंति । लोहितस्याऽऽपाकः लोहितापाकः, पच्यते यस्यां सेयं लोहित पायी । बालस्य ह्यग्नेः अधिकस्तापो भवति, परिशुष्केन तस्याभिनवप्रज्वालितस्य, स हि अधिकं दीप्यते दहति च, तेयगुणा एत्तो वि परं अणंतगुणउण्हो अग्गी । कुंभी महंता कुम्भप्रमाणाधिकप्रमाणा कुम्भी भवति, जाधे वि चउसु वि पासेसु प्रज्वालितेनाग्निना तप्ता लोहिका त्रपु-ताम्रपूर्णो() दुरासया, एवं ताओ वि कुंभिकेहिं निरयपालेहिं विउव्विताओ कुंभीओ । महंति-महंतीओ पुरुषप्रमाणातीता अधियपोरुसीया, यथाऽस्यां प्रक्षिप्तो नारकः पश्यतीति, ण वा चक्केइ कण्णेसु अवलंबिउं उत्तरित्तए । सम्रसिता अद्दहिता लोहित-पूयमादीणं असुभाणं सरीरावयवाणं पुण्णा । अधवा कुंभी उट्टिगा, अधियपोरिसुच्चा ऊणा [वा] कीरति तत्थ विच्छोभणा भवति ॥ २३ ॥ ३२२. पक्खिप्प तासुं पपयंति वाले, अदृस्सरं ते कलुणं रसंते। तण्हाइया ते तउ-तंबतत्तं, पज्जिजमाणऽदृतरं रसंति ॥ २४ ॥ 10 ३२२. पक्खिप्प तासुं० वृत्तं कंठं । णवरं-अदृस्सरं ति आर्तस्वरमिति, आतॊ हि यावत्प्रमाणं रसति, नासौ । लज्जा धैर्य वा तस्मिन् काले गणयति ॥ २४ ॥ ३२३. अप्पेण अप्पं इह वंचइत्ता, भवाधमे पुंवा सतसहस्से। चिट्ठति तत्था बहुकूरकम्मा, जधाकडे कम्मे तधा सि भारे ॥ २५ ॥ ३२३. अप्पेण अप्पं इह वंचइत्ता० वृत्तम् । अप्पं णाम आत्मानं इहेति इह मनुष्यलोके वंचइत्ता कूडतुलादीहिं । 15 अधवा "अप्पाण" परोवघातसुहेण अप्पाणं वंचइत्ता भवाधमे भवानामधमः अतस्तस्मिन् भवाधमे पुव्वा सतसहस्से त्ति जाव तेत्तीसं सागरोवमे चिट्ठति । तत्था बहुकूरकम्मा जधाकडे कम्मे तधा सि भारे, बहूणि कूराणि कम्माणि येषां ते जे य पञ्चंति सव्वे ते बहुकूरकम्मा । जधाकडे कम्मे त्ति यथा चैषां कृतानि कर्माणि तथैवैषां भारो वोढव्य इत्यर्थः, बिभर्ति भ्रियते वाऽसौ भारः । का तर्हि भावना ?-यादृशेनाध्यवसायेन कर्माण्युपचिनोति तथैवैषां वेदनाभारो भवति, उत्कृष्टस्थितिर्वा मध्यमा जघन्या वा, ठितिअणुरूवा चेव वेदना भवति, अथवा यादृशानीह कर्माण्युप-20 चिनोति तथा तत्रापि वेदनोदीर्यते तेषां स्वयं वा परतो वा उभयतो वा। उभयकरणेण तद्यथा-मांसादाः स्वमांसान्येवाग्निवर्णानि भक्ष्यन्ते । रसकपायिनः पूय-रुधिरं कलकलीकृतं तउ-तंबादीणि य द्रवीकृतानि । व्याध-घौत-सौकरिकादयस्तु तथैव छिद्यन्ते मार्यन्ते च । चारकपाला अष्टादशकर्मकारिणः कार्यन्ते च । आनृतिकानां जिह्वास्तक्ष्यन्ते तुद्यन्ते च । चौराणां अङ्गोपाङ्गान्यपह्रियन्ते, पिण्डीकृत्य चैनान ग्रामघातेष्विव वधयन्ति । पारदारिकाणां वृषणाश्छिद्यन्ते अग्निवर्णाश्च लोहमय्यः स्त्रियः अवगाहाविज्जति । महापरिग्रहारम्भैश्च येन येन प्रकारेण जीवा 25 दुःखापिताः सन्निरुद्धा जातिता अभियुक्ताश्च तधा तधा वेयणाओ पाविजंति । क्रोधनशीलानां तत् तत् क्रियते येन येन क्रोध उत्पद्यते-ण एवं रुसिज्जति, एवं रुसिज्जति, इदानी वा किं न ऋध्यसे ? किं वा ऋद्धः करिष्यसि ? । माणिणो हीलिज्जति । मायिणो असिपत्तमादीहिं शीतलच्छायासरिसेहि य तउअ-तंबएहिं प्रवंचिजति । लोभे जधा परिग्गहे । एवमन्येष्वपि आश्रवेष्वायोज्यमिति । अतः साधूक्तं जधा कडे कम्मे तधा से भारे इति ॥ २५ ॥ ३२४. समन्जिणित्ता कलुसं अणज्जा, इटेहि कंतेहि य विपहीणा। 30 ते दुन्भिगंधे कसिणे य फासे, कम्मोवगा कुणिमे आवसंति ॥२६॥ त्ति बेमि ॥ ॥ नरगविभत्तीए पढमो उद्देसओ सम्मत्तो॥५-१॥ १ अदृस्सरे वृ० दी० । अट्टस्सलं खं १॥ २ अप्पाण चूपा० ॥ ३ पुव्वसते स खं १ खं २ पु १॥ ४ कम्म खं १॥ ५°घातास्यकरि चूसप्र०॥ ६विप्पडूणा खं १ खं २ पु १॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [५णिरयविभत्तिअज्झयणे बिओ उद्देसओ ३२४. समजिणित्ता कलुसं अणज्जा. वृत्तम् । जधा अधम्मपक्खे बुज्झिहिन्ति अधम्मिए अधम्माणुए त्ति हणछिंद-भिंदवयंतए त्ति जाव णरगतलपतिद्वाणे भवति । कलुषमिति कर्मैव, चिरस्य हि तत् प्रसीदेति । हिंसादिअणारिया कम्मा अणारिया, इष्टाः शब्दादयः, कामनीयाः कान्ताः, त एव विषयाः, अथवा कान्ता बान्धवा, तैर्विप्रहीणाः । अहवा जत्तिआई इह इट्ठाणि य कंताणि य पियाणि य तेहि विप्पहीणा ते दुरभिगंधे दुरूतकद्दमे य पूग-वसा-रुधिरकद्दमे य, “से जधाणामए अहिमडे ति वा" [जीवा० प्रति०३ उ० १ सू० ८३ पत्र १०६] कसिणे संपुण्णे असुभभावेण स्पृशन्तीति स्पर्शाः, चशब्दात् सद्दे रूवे रसे गंधे फासे त्ति, रयणप्पभाते अणिट्ठा फासादयो, सेसासु कमेण अणिद्वतरा। कर्मयोग्याः कर्मोपगाः जारिसा कम्मा कता, तिव्वेहिं तिव्वा । कुणिमे त्ति न कश्चित् तत्र मेध्यो देशः, सव्वे चेव मेद-वसा-मंस-रुधिरपुव्वाणुलेवणतला । आ स्थितिपरिसमाप्तः वसन्तीति आवसंत इति ॥ २६॥ ॥ [पञ्चमे ] प्रथमोद्देशकः ॥ [णिरयविभत्तीए बिइओ उद्देसओ] स एव भावनरकाधिकारः । यानि दुःखानि प्रथमे उक्तानि द्वितीयेऽपि तादृशान्येवोक्तानि । नरकपोलकृतैश्च परस्परकृतैश्च विशेष उच्यते ३२५. अहावरं सासतदुक्खधम्म, तं मे पवक्खामि जहातहेणं । __ बाला जधा दुक्कडकम्मकारी, वेदेति कैम्माणि पुरेकडाइं ॥१॥ 18 ३२५. अहावरं सासतदुक्खधमं० वृत्तम् । अथेत्यानन्तर्ये । अपर इत्यन्यो विकल्पः । शाश्वतमिति नित्यकालं यावदायुः । “अच्छिणिमीलितमेत्तं०" [ जीवा० प्रति० ३ उ० ३ सू० ९५ पत्र १२९-१] गाधा । दुःखस्वभावं दःखधम्मा । तंभे पवक्खामि भृशं प्रकारैर्वा वक्ष्यामि पवक्खामि, अथवा आदितः इदानीं वक्ष्यामि प्रवाचयिष्यामि । यथेति येन सर्वज्ञो हि यथैवाव स्थितो भावः तथैवैनं पश्यति भाषते च । बाला यथा दुक्कडकम्मकारी, येन प्रकारेण यथा, कुत्सितं कर्म दुक्कडं, दुक्कडाई कम्माइं करेंति दुक्कडकम्मकारिणः, हिंसादीनि महारम्भादीनि च । वेदेति त्ति अणुभवंति, पुरेकडाई तिर्यमनुष्यत्वे त्रिविधकरणेनापि निकाचितानि, तानि तु स्वयं वेदयन्ति निरयपालैश्च वेदाविजंति ॥१॥ ३२६. हत्थेहिं पादेहि य बंधिऊणं, उदराइं फोडेंति खुरेहिं तेसिं। गेण्हित्तु बालस्स विहण्ण देहं, वज्झं थिरं पिट्टतो उद्धरंति ॥२॥ ३२६. हत्थेहिं पादेहि य बंधिऊणं० वृत्तम् । जधा इह राया रायपुरिसा वा अवकरिसा वा अवकारिणो खंधे बंधित्ता सरेहिं विधंति, एवं ते वि णिरयपाला खंधेसु बद्धाणं पाडिताण वा हत्थ-पादंदुयिताणं उदराई फोडेंति खुरेहिं तेसिं । "खुरासितेहिं"वा, असिता णिसिता तिण्हा, अथवा ण सिता मुण्डा इत्यर्थः । कृष्णावातेहिं (?) मुंडेहिं दुःखाविज्जति मारिजंति वा-त्वया उदरनिमित्तं सत्त्वानि घातितानि। अधवा-"खुरा-ऽसिगेहिं" खुरेहिं असिगएहि य । अण्णे पुण गेण्हित्तु बालस्स विहण्ण देहं, गृहीत्वेति णस्यमाणं वा वशमानयित्वा विहण्णेति विहणित्ता खीलएहिं वझं थिरं पितो उद्धरंति, स्थिरो नाम अत्रोडयन्तः, पृष्ठतो नाम पण्हिगाओ आरद्धं जाव कृगाडिगातो उद्धांति उप्पाडेंति । एवं पार्श्वतोऽपि अग्रतोऽपि ॥२॥ किश्चान्यत् ३२७. बाहू पकत्तंति य मूलतो से, थूलं वियासं मुहे आडहंति । ___ रहंसि जुत्तं सरयंति घालं, आरुब्भ विंधंति तुदेण पिढे ॥३॥ १बन्धेवा चूसप्र० ॥२°पालकृतैस्तु परस्परकृतैः सपरस्परकृतैश्च विशे चूसप्र०॥ ३ पावाइं पुरे खं १ पु १॥ ४ उदरं विकत्तंति खुरासिएहिं खं १ ख २ पु १ वृ० दी० ॥ ५खुराऽसितेहिं चूपा० । खुरा-ऽसिगेहिं चूपा । "क्षुरप्र-ऽसिभिः' नानाविधैरायुधविशेषैः” इति वृत्तिकृतः॥ ६ विहत्तु देहं पु १। विभित्तुं खं २॥ ७ पादंतदु चूसप्र०॥ ८ बाहा पकत्तंति य मूखं १ । बाहू पकप्पंति य मूखं २ । बाहू पकप्पंति समू पु१॥ ९ थुलं खं १ पु ॥१॥ १० आरुस्स विज्झंति खं १ पु १ वृ० दी । आरुस्स विंधति खं २। ११°ण पेट्टी खं २ ।'ण पट्टे खं १ पु१॥ . Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 सुत्तगा० ३२५-३१] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। ३२७. बाहू पकत्तंति य मूलतो से० वृत्तम् । बाधयति तेनेति बाहू । मूलतो नाम उद्गमादारभ्य उवकच्छगमूलतो प्रारभ्य । लोहकीलएणं चतुरंगुलप्रमाणाधिकेणं थूलं मुहं विगसावेतूणं । थूलमिति महत् , मा संवुडेहिंति वा रडिहिंति व त्ति, आरसतोऽपि न तस्य परित्राणमस्ति, तथाप्यातुरत्वादारसंति । आडहंति त्ति वु(?ड)झंति । किंच-रहंसि जुत्तं सरयंति ति ति गच्छंति वाडेतीत्यर्थः. पापकर्माणि च स्मारयन्ति । त एव च बालास्तत्र युक्ता ये चैनां वाहयन्ति त्रिविधकरणेनापि तेयस्सरूविणो रघे सगडे वा, गुरुगं विउव्वितं रधं अवधंता य तत्तारैरिव आरुब्भ विधति आरुह्य विधति।। तुदन्तीति तुदा तुत्रकाः, गलिबलीवर्दवत् पृष्ठे ॥ ३ ॥ सा च भूमी ३२८. अयं व तत्तं जलितं संजोति, तदोवमं भूमिमणोकमंता। ते डज्झमाणा कलुणं थैणंति, उसुचोदिता तत्तजुगेसु जुत्ता ॥४॥ ३२८. अयं व तत्तं० वृत्तम् । तप्तं हि किश्चिदयः कृष्णमेव भवति, सा तु भूमी ज्वलितलोहभूता सज्योतिषा सज्योतिः, ज्वलितेन ज्योतिषा तप्ता, न तु केवलमेषोष्णा । ज्वलितज्योतिषाऽपि अणंतगुणं हि उष्णा सा, तदस्या औपम्यं 10 तदोपमा । अणोक्कमंता णाम गच्छंता । ते डज्झमाणा कलुणं [थणं]ति, ते तं इंगालतुलं भूमिं पुणो पुणो ख़ुदाविजंति, आगत-गताणि कारविजंता य अतिभारोकंता डज्झमाणा कलुणाणि रसंति । इषुभिः तुत्रकैश्च प्रदीप्तमुखैश्चोदिताः तप्तेषु युगेषु युक्ताः, तप्तानि वा युगानि येषां रथानां त इमे तप्तयुगाः, अतस्तेषु तप्तयुगेषु युक्ताः ॥ ४ ॥ त एवम् ३२९. बाला बला भूमि अणोकमंता, विपन्जलं लोहपहं व तत्तं । जंसीऽभिदुग्गे बहुकूरकम्मा, पेसे व दंडेहिं पुराकरेंति ॥५॥ ३२९. बाला [बला] भूमि अणोकमंता० वृत्तम् । बाला मन्दा बालादिति । बलादणुक्कमंता बलात्कारेण, अथवा बला घोरबला इत्यर्थः । विविधेण प्रज्वलं नाम पिच्छलेण पूय-सोणिएण अणुलित्ततला । विगतं ज्वलं विज्जलं जलेज, विजलाविष्टतेन जलेण वसाय पूय-सोणितेणं । लोहमयः पथः लोहपथः, यथा लोहमयः पथः तप्तः तथा सोऽपि । जंसीऽभिदुग्गे बहुकूरकम्मा, अभिदुग्गं भृशं दुर्ग वा, दंड-लउडमादीहिं हत्वा हत्वा । पुनः पुनः प्रेष्यन्त इति प्रेस्याः दासा भृत्या वा, पुरतः कुर्वन्तीति अग्रतः कृत्वा वाह्यन्ते गोणा इव, अणिच्छंता पिट्टिजति तुद्यन्ते च ॥ ५ ॥ किञ्च- 20 ३३०. ते संपगाढेम्मि पवजमाणा, सिलाहिं हम्मंतिर्भिपातिमाहिं । संतावणी णाम चिरद्वितीया, संतप्पते जत्थ असाधुकम्मी॥६॥ ३३०. ते संपगाढम्मि पवजमाणा० वृत्तम् । नानाविधाभिर्वेदनाभिर्भृशं गाढं सम्प्रगाढं निरन्तरवेदनमिति वा । अधवा सम्बाधः पथः सम्प्रगाढः, ते अतिभारभराक्रान्ताः शर्करा-पाषाणपथं प्रपद्यमानाः सिलाहिं हम्मंतिऽभिपातिमाहिं तीर्णाभिक्रियादिभिरभिमुखं पतन्तीभिः, अभिपात्यमाना नान्यत्र पतन्तीत्यर्थः। किञ्च संतावणी नाम चिरद्वितीया, 25 सर्व एव नरकाः सन्तापयन्ति, विशेषेण तु वैक्रियाग्निसन्ता[पिता]। चिरं तिष्ठन्ति ते हि चिरद्वितीया, जधण्णेण दस वाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीससागरोवमाणि संतप्पंते शरीरेण मणसा च । असाधूणि कर्माणि येषां ते इमे असाधुकर्मी, तम्हि चेव संतावणीसंज्ञके नरके ॥ ६ ॥ ३३१. कंडूसु पक्खिप्प पयंति बालं, ततो विडा {ण उप्फिडंति । ते उडकाएहिं विलुप्पमाणा, अवरेहिं खजति सणप्फतेहिं ॥७॥ १सजोयं पु १॥ २ तत्तोवमं भूमिमणोकमेत्ता पु १ । तत्तोवमं भूमि अणोकमेत्ता खं १॥ ३ कणंति पु १॥ ४०मिमणुक्क खं २ पु १ पु २॥ ५पविजलं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ६"दुग्गसि पवजमाणा पेस व्व खं १ खं २ पु १ वृ० दी०॥ ७विजला विपुतेन जलेन साय पु०॥ ८°ण एवसाय वा. मो० ॥ ९°ढसि प°खं १ पु १ पु २॥ १०°पातिणीहिं खं २ पु १ वृ० दी। पातियाहिं खं १ पु २॥ ११ पती जखं १ खं २ पु १ पु २॥ १२°कम्मा पु १ पु २ वृ० दी.॥ १३ बाले खं १॥ १४ विउद्या खं १ पु २॥ १५ पुणरुप्पतंति । ते उड्ढकाएहिं पखजमाणा खं १ खं २ पु १ पु २ वृ०दी। पुण उप्पयंति इति खं २ पाठाः॥ Jain Education Intemational Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [५ णिरयविभत्तिअज्झयणे बिइओ उद्देसओ ३३१. कंडूसु पक्खिप्प पयंति वालं० वृत्तम् । अयकोह-पिट्ठ-पयणगमादीसु पयणगेसु पक्खिप्प । बाला ते भयतो भुजिगा इव डज्झमाणा उप्फिडंति, “णेरइयाणोप्पातो उर्दू पंचेव जोअणसयाइं।" [जीवा० प्रति० ३ उ० ३ सू० ९५ पत्र १२९-१]। ते उड्डकाएहिं विलुप्पमाणा, उड्डकाया णाम द्रौणिकाकाः, ते उप्फिडिंता वि सन्ता उड्ढकाएहिं विविधेहिं अयोमुहेहिं खजंति । खजमाणा भक्खितसेसा भूमिसंपत्ता अवरेहिं खजंति सणफतेहिं, न शक्यते धारयितुमित्यर्थः, सिंघ5 व्याघ्र-मृ?)ग-शृगालादयः विविधाः ॥७॥ _३३२. समूसितं णाम विधूमठाणं, विगिचमाणा कलुणं थणंति।। अधोसिरं कटु 'विगंतिऊणं, अयं व सत्थेहिं समूसवेंति ॥८॥ ३३२. समृसितं णाम विधूमठाणं० [वृत्तम्] । तत्थ ते णेरइया समूसविजंति, ओसवितं असवितं विनाशितमित्यर्थः । विधूमोऽग्निस्थानम् , विधूमो नामाग्निरेव, विधूमग्रहणाद् निरिन्धनोऽग्निः स्वयं प्रज्वलितः, सेन्धनस्य ह्यग्नेरवश्यमेव 10 धूमो भवति। अथवा विधूमवद्, विधूमानां हि अङ्गाराणामतीव तापो भवति, यदि त्वया तनुतं (?) वा न वा यस्मिन् विकृत्यमानाश्च छिद्यमानाश्च कलुणं थणंति, कलुणमिति अपरित्राणं निराक्रन्दमित्यर्थः, सपरित्राणा हि यद्यपि स्तनन्ति कूजन्ति वा तथापि तन्नातिकरुणम् । अथवा "यत्र उवियंता" छुभमाना इत्यर्थः । अथवा "जंसि विउक्तता" विविधमनेकप्रकारं उत्क्रान्ता विउक्ता । अधोसिरं कट्ट विगंतिऊण, अधोसिरं काउं केइ विगित्तंति, केइ विगंतिऊणं पच्छा अधोसिरं बंधति । अयो छगलगो, अयेन तुल्यं अयवत् , यथा अय इव कप्पणी-कुहाडीहिं केइ कुसितं कधंचि चकम्ममाणं फुरुफुरेंतं वा कप्पणि15 कुहाडीहिं सत्थेहिं समूसवेंति छिंदंति, एवं ते एवं कुसितं अकुसितं वा छिदंति । अधवा अयमिति लोहं, जधा लोहं तत्तेल्लयं छिज्जति एवं वा ॥ ८॥ किश्च ३३३. समूसिता तत्थ विसूणितंगा, पक्खीहिं खजंति अयोमुहेहिं । 'संजीवणा णाम चिरद्वितीया, जंसी पया हम्मति पापचेता ॥९॥ ३३३. समूसिता तत्थ विसणितंगा. वृत्तम् । समूसिता नाम खंभेसु उड्डा बद्धा, तत्थ विसूणिताणि अंगाणि 20 जेसिं तेमे विसूणितवदनाः, तएवं सरसविसूणितंगा काक-गृध्रादिभिर्भक्ष्यन्ते । संजीवणा णाम चिरद्वितीया, एवं यथोद्दिष्टै वेदनाप्रकारैर्भक्ष्यमाणाश्च स्वाभाविकैर्निरयपालकृतैर्वा पक्ष्यादिभिः छिन्नाः कथिता वा मूर्च्छिताः सन्तो वेदनासमुद्भातेन समोहता सन्तो मृतवदवतिष्ठन्ति । यथेह मूच्छिता उदकेन सिक्ताः पुनरुज्जीविता इत्यपदिश्यन्ते एवं ते मूच्छिताः सन्तः पुनः पुनः सञ्जीवन्तीति सञ्जीविनः, सर्व एव नरका संजीवणा । चिरद्वितीया णाम जधण्णेण दस वाससहस्साणि उक्कोसेणं तेत्तीससागरोवमाणि । अथवा चिरं मृता हि ठंतीति चिरद्वितीया, नरकानुभावात् कर्मानुभावाच यद्यपि पिष्यन्ते सहस्रशः 25 क्रियन्ते तथापि पुनः संहन्यन्ते, इच्छन्तोऽपि मैत्तु तथापि न म्रियन्ते । पापचेत त्ति पूर्व पापचेता आसीत् सा प्रजा, साम्प्रतमपि न तत्र किश्चित् कुशलचेता उत्पद्यते येनापापचेता सा प्रजा स्यादिति ॥ ९ ॥ अयं चापरो यातनाप्रकारः ३३४. तिक्खाहिं सूलाहिं वधेति बाला, वसोवगं सोवरिया व लड़े। ते सूंलविद्धा कलुणं थणंति, एगंतदुक्खं दुहतो गिलाणा ॥१०॥ ३३४. तिक्खाहिं सूलाहिं वधेति बाला० वृत्तम् । लोहमयैः शूलैत्रिशूलैश्च यथा नामनिष्पन्ने निक्षेपे वधयन्तीति 30 विधंति, वशं उपगता वशोपगाः, शावरिका इव वशोपगं महिषं वधयन्ति । पठ्यते च-"वसोपगं सावरिया व लढे" सबरा १°णगमणादीसु चूसप्र०॥ २ उक्कोसं पंच जो इति जीवा० पाठः॥ ३°ठाणं, जं सोयतत्ता कलुर्ण खं १ ख २१ पु २ वृ० दी। 'ठाण, जंसि उवियंता कलुणं चपा० । ठाणं, जसि विउक्कंता कलुणं चूपा० ॥ ४ वियत्तिऊणं खं १ पु १। विगसिऊणं खं २ पु २॥ ५समोस' खं १ ख २ पु १ पु २॥ ६संजीवणी खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ७मृत्यु त° वा. मो० ॥ ८सूलाहितिवाययंति, वसोगयं सावययं व लद्धं वृ० दी। सूलाहिऽमितावयंति, वसोवर्ग सोअरियं व लई खं १ पु १ । सुलाहि निवाययंति, वसोवगं सोवरियं व लद्धं खं २ पु २॥ ९ वसोपगं साबरिया व लद्धं चूपा० ॥ १०सूलभिन्ना खं १ पु२॥ Jain Education Intemational Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ३३२-३९] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंग पढमो सुयक्खंधो। १३७ म्लेच्छजातयः, ते यथा कन्दर्पात् कर्पाटकमादि विंधति छगलगमादिं वा एवं ते वि तं नेरइयं छिंदति भिंदति । सौकरिकग्रहणं ते हि तत्कर्मनित्यसेवित्वाद् निर्दया भवन्तीत्यतः । ते मूलविद्धा कलुणं थणंति, कलुणं णाम दीणं, थणंति नाम कन्दन्ति । एकान्तेनैव दुक्खं दुहओ त्ति अंतो बहिं च, जमकाइएहिं नेरइएहिं च न तत्र समाश्वासोऽस्ति । नित्यग्लाना इति महाज्वराभिभूता इव निष्प्राणा निर्बला नित्यमेव च नारका दसविधं वेदणं वेदेति ॥१०॥ इदं चान्यदसातदुक्खधम्म ३३५. सदाजलं णाम णिहं महंतं, जंसी जलती अगणी अकहा। चिट्ठति तत्था बहुकूरकम्मा, अरहितस्सरा केति चिरद्वितीया ॥११॥ ३३५. सदाजलं णाम णिहं महंतं. वृत्तम् । सदा ज्वलतीति सदाज्वलम् । अधिकं तस्यां हन्यत इति निहं [ग्रन्थानम्-४०००] ज्वरोदुपानवस्थितम् महदिति गम्भीरं विस्तीर्ण च । यस्मिन्निति यत्र । विना काष्ठैः अकाष्ठा वैक्रियकालभवा अग्नयः अघट्टिता पातालस्था अप्यनवस्था । चिट्ठति तत्था बहुकूरकम्मा, नरकपालैः प्रक्षिप्ताः, बहूणि कूराणि कम्माणि जेसिं ते बहुकूरकम्मा । कूरं णाम निरनुक्रोशं हिंसादि कर्म, यत् कृत्वा कृते च नानुतप्यन्ते । अरहितः स्वरो येषां 10 कूजतां याचतां उत्तारयत उत्तारयतेति अन्यैश्च बहुविधैर्विलापैर्विलपन्तो अरहितस्वराः । चिरं तिष्ठन्तीति चिरद्वितीया, विविधेन सन्निरुद्धा वेदनार्दिताः ताहिं ताहिं चिरा तिट्ठति ॥ ११॥ किञ्च ३३६. चिया महंतीउ समारभित्ता, छुब्भंति ते तं कलुणं रसंतं। आवद्दती तत्थ असाधुकम्मा, सप्पी जेधा छूढं जोतिमज्झे ॥१२॥ ३३६. चिया महंतीउ समारभित्ता० वृत्तम् । चीयन्त इति चितकाः । महंतीओ नाम नारकशरीरप्रमाणाधिक-15 पारका मायन्ते । समारभति त्ति तिविघेण वि डझंति । स एव प्रक्षिप्तः आवद्दती तत्थ असाधुकम्मा, असाधूणि कम्माणि जेसिं पुरा आसीत् ते असाधुकम्मा । सप्पि त्ति घतं, यथा सर्पि छूढं जोतिम्मि णिमए खइरिंगालाणं खड्डाए भरिताए अग्गिवण्णे वा अयोकवल्लेणं चणंतीव । सर्पिग्रहणं तु इतरोऽपि सो गृह्यते मत्स्यो वा ॥१२॥ अयमपरो यातनाकल्पः३३७. सदा कसिणं पुण धम्मठाणं, गाढोवणीतं अतिदुक्खधम्म । हत्थेहि पादेहि यबंधिऊणं. सत्त व डंडेहि समारभंति ॥१३॥ ३३७. सदा कसिणं पुण धम्मठाणं० वृत्तम् । सम्पूर्णदुःखस्वभावेन गाद्वैः कर्मभिस्ते तत्रोपनीताः, तद्वा तेषामुपनीतं अतिदुःखस्वभावम् । हत्थेहिं पादेहि य बंधिऊणं, चउरंकप्पादं बवा शत्रुमिव निर्दयं हन्यते वशीकृतः यथा न जीवतीति न चाऽऽशु म्रियते, मा भूदु वेदनां न प्राप्स्यतीति । समारभंति त्ति पिटेंति ॥ १३॥ त एवं हणतो णिरयपाला ३३८. भंजंति बालस्स वषेण पहि, सीसं पि भंजंति अयोधणेहिं। ते भिण्णदेहा फलगावतद्रा, तत्ताहि आराहि णिजोजयंति ॥१४॥ ३३८. भंजंती बालस्स वधेण पटुिं० वृत्तम् । लेउडादिघातैर्यथा तैरन्यत्र भन्नानि पृष्ठानि एवं तेषामपि । सीसं पि भंजंति से पदार्थादिषु, पढि पि भंजंति सीसं पि विधंति, अण्णाणऽवि अंगोवंगाणि संचुण्णित-मोडितानि करेंति । ते भिण्णदेहा फलगावतही, त एवं भनाङ्ग-प्रत्यङ्गाः फलका इव उभयथा प्रकृष्टाः करकयमादीहिं तच्छिता मोग्गरेहि य पहता शीताभिरुष्णाभिर्वा वेदनाभिरभिभूतास्तप्ताभिः दीर्घाभिराराभिर्विध्यन्ते, उत्तिष्ठोत्तिष्ठेति गच्छ गच्छेति ॥ १४ ॥ किञ्च- 30 ३३९. अभियुंजिया रोहअसाधुकम्मा, उसुचोइया हत्थितुलं वहंति ।। एग दुरुहित्तु दुवे तयो वा, आरुब्भ विंधति किंकाणतो सि ॥१५॥ १सताजलं ठाण निहं खं २ पु १ वृ. दी॥ २ जलंतो अगणी अकट्ठो वृ० दी० ॥ ३ बद्धा ब खं २ वृ० दी० ॥ ४ अरहस्सरा खं १ ख २ वृ० दी० ॥ ५ जहा पडितं जोइ खं २ पु १ . दी० । जहा पतितं जोति ख १ । जहा पइयं जोति पु २॥ ६ सप्पति घनां यथा चूसप्र० ॥ ७ सत्तुं व खं १ पु १ पु २॥ ८पि भिंदंति खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ ९लउलादि पु० सं०॥ १०°त्थिवहं व खं १ ख २ पु १ वृ० दी० ॥ ११ दुए ततो वा खं २ :पु १ पु २॥ १२ आरुस्स विझंति ककाणओ से सं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ सूय० सु०१८ 20 25 अयाघाह, आ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [५ णिरयविभत्तिअज्झयणे बिइओ उद्देसओ ३३९. अभियुजिया रोद्दअसाधुकम्मी. वृत्तम् । अभियुजिता तिविधेण वि रौद्रादीनि कर्माणि असाधूनि येषां ते रोद्दअसाधकम्मा अभियुञ्जते रौद्रैः । ते च रौद्राः पूर्वमभवन् , तत्रापि रौद्रा एव परस्परतो वेदनां उदीरयन्तः हस्तित वहन्तीति हस्तिवत् , हस्तितुल्यं भारं वहन्तीत्यर्थः, हस्तिरूपं वा कृत्वा वाह्यन्ते, अश्वोष्ट्र-खरादिरूपं वा, यैर्यथा वाहिताः । किंच एगंद दवे तयो वा, हस्यादिरूपं विकुर्वितमविकुर्वितं वा एकं वराकं अन्यो वा अन्ये वा गुरुत्वादवहतश्च 5 गलिबलिवर्दानिव यातारो आरोह्य किं न बहसीति किंकाणतो सि त्ति कृकाटिकाए विधंति ॥ १५ ॥ किञ्च ३४०. बाला बला भूमि अणोकमंता, पविजलं कंटइलं महंतं ।। विबद्ध तप्पेहि विसण्णचित्ते, समीरिता कोवलिं करिति ॥१६॥ ३४०. बाला बला भूमि अणोकमंता० वृत्तम् । बालाः इत्यजानकाः । बाल इति न स्ववशाः, बलादनुक्राम्यन्ते । भूमि पूय-वसा-शोणितप्रविज्वलं लोहकंटकचितं । महतीति अनोरपारा, न तत्रान्या भूमिर्विद्यते या एवंविधा न स्यादिति । 10 विबद्ध तप्पेहिं अन्ये पुनरगाधेषूदकेषु प्रगाहिताः पश्चाद् विबध्यन्ते त्रप्पकेषु । त्रप्पका नदीमुखेषु विदलया वंशफालीमया पिंडिगासंठिता कजंति, ताचे ओसरते उदगे ठविजंति हेट्ठाहुत्ता, पच्छा मच्छगा जे तेहिं अकंता ते गलिते उदगे संपुंजिता घेप्पंति, एवं तेऽपि बहवः त्रप्पकैराक्रम्यन्ते, ततः निसृते उदके समीरिता नाम सम्पिण्ड्य कुट्टयित्वा कल्पनीभिः खण्डशो बलिं क्रियन्ते । अधवा कोट्टं णगरं वुञ्चति, णगरबली वि क्रियन्ते ॥ १६ ॥ किञ्चान्यद् ३४१. वेतालिए णाम महाभितावे, एगायते पच्चतमंतलिक्खे। हम्मति तत्था बहुकूरकम्मा, परं सहस्साण मुहुत्तगस्स ॥१७॥ ३४१. [वेतालिए णाम महाभितावे. वृत्तम्।....................] अन्तरिक्षः छिन्नमूल इत्यर्थः, आकाशस्फाटिकत्वाद् न दृश्यते, अन्धकारत्वाद्वा न दृश्यते, केवलमारुभणमार्गो दृश्यते, हत्थपरिमोसका एव ततस्ते नाऽऽरुभन्ति, आरुभणपधेण विलग्गाश्चेत् स च पर्वतः संहन्यते । अन्ये पुनः ब्रुवते-दृश्यत एवासौ, भूमिबद्ध एव चोपलक्ष्यते, न च सम्बद्धः, ततस्तेन संहतीभूतेन हम्मति तत्था बहुकूरकम्मा बहूणि कूराणि हिंसादीनि कर्माणि जेसिं । परं सहस्राणामिति 20 परं सहस्रेभ्योऽनेकानि सहस्राणीत्यर्थः, मुहूर्तयेति मुहूर्तस्य हन्यन्ते पुनः पुनः संहन्यमानेन वियुज्यमानेन च ॥ १७ ॥ तएवं ते संहन्यमानाः३४२. संबाधिता दुक्कडिणो थणंति, अहो यं रातो परितप्पमाणा। एगंतकूडे णरए महंते, कूडेण तत्था विसमे हता तु ॥ १८॥ ३४२. संबाधिता दुकडिणो थणंति० वृत्तम् । सम्बाधिता नाम स्पृष्टाः । अहश्च रात्रौ च विरहो नास्ति वेदणाए। त्रिभिस्तप्यमानाः परितप्यमानाः। अधवा-"आदीणियं दुक्कडिणो थणंति" अत्यर्थं दीनं आदीनम् , दुष्कृतानि येषां सन्ति ते इमे दक्कडिणो, अरहितस्वरं चिरं तिष्ठन्तीति, तत्थ य चिट्ठति चिरं संहाविता । किश्च-एगंतकूडे णरए महंते, एगंतकूडो णाम एकान्तविषमः, न तत्र काचित् समा भूमिर्विद्यते यत्र ते गच्छन्तो न स्खलेयुरिति न प्रपतेयुर्वा । महदिति क्षेत्रतः कालतच, खेत्ततो जहण्णेणं जंबुद्दीवप्रमाणमात्रा उक्कोसेण असंखेज्जाई जोयणाई, कालतो जहण्णेणं दस वाससहस्साई कोसे तेत्तीसं सागरोवमाणि । तधाषि तम्मि विसये कूडाणि तत्थ देसे से उत्तारोतार-णिग्गम-पवेसेसु य अदृश्यानि यत्र 30ते 'वध्यन्ते' मृगा इवासकृद् वध्यन्ते, तत इतरे कप्पणि-कुहाडिहत्थगता मृगानिवैतान् कल्पयन्ति, ये इह व्याघ्रादयो आसीरन , विषमः स एव नरकः। यत्र वा तानि कूडानि रयिताणि, उतारोत्तारपथ-निर्गमणपथा वा हता इति ता॥१८॥ किञ्च 15 भमिमणक ख २ पु १ पु२॥ २ विषण्ण° खं १खं २ पु१पु२॥ ३ कट्ट (? कुट्ट) बाल पु २० दी ।कोटबार्ल वपा०॥४किरेंति खं २ पु २॥ ५महब्भितावे खं १ खं २ पु१पु२॥ ६°त्तगाणं खं १ ख २३१पु २७० दी.॥ ७ आदीणियं दु. चूपा०॥ ८त खं १॥ ९ सहातिता पु० सं०॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ 10 15 सुत्तगा० ३४०-४६] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। ३४३. अणासिया णाम महासियोला, पैगन्भिता तत्थ सदा वकोप्पा । खायंति तत्था बहुकूरकम्मा, अदूरगा संकलियाहि बद्धा ॥ १९ ॥ ३४३. अणासिया णाम महासियाला० वृत्तम् । तानहिकूडैः वध्वन (?वघेण) बद्धान् , न अशितः अनशितः, क्षुधित इत्यर्थः । यथा इह क्षुधिताः शृगालाः किश्चित् सिंहादिशेष मृगादिरूपं भक्षयन्ति लक्कलक्काहिं, एवं तेऽपि । महानिति अतिमहच्छरीरा । पगम्भिता अतिधृष्टा रौद्ररूपा निर्भयाः सदेति भक्षयित्वा न तृप्ता भवन्ति । सदा वा अकोप्पा अनिवार्या । अप्रतिषेध्या इत्यर्थः, 'कर्षापणो अकोप्पा' इत्यपदिश्यते । अधवा-"अकोप्पं" ति [न] कुप्पितुं इत्युक्तं भवति । खायति तत्था बहकूरकम्मा, बहकरकम्मा इत्युभयावधारणार्थम्, ये च खादयन्ति ये च खाद्यन्ते । लोहसंकलाबद्धाः खादन्ति के वि स्वैराः प्रधावन्तोऽनुधावन्तो, अनुधावितुं पाटयित्वा खादन्ति, महाघोषा छिच्छिक्करंति, अण्णे सलक्खगं धारेति ॥ १९ ॥ किञ्च ३४४. सयाजला णाम णदीभिदुग्गा, पविजला लोहविलीणतत्ता। जंसीऽभिदुग्गंसि पवजमाणा, एकाणिकाऽणुकमणं करेंति ॥ २०॥ ३४४. सयाजला. वृत्तम् । सतजला णाम णदीभिदुग्गा, सदा ज्वलतीति सदाज्वला । भृशं दुर्गा अभिमुखं दुर्गा वा अभिदुर्गा । प्रविसृतजला पविजला, विस्तीर्णजला उत्तानजलेत्यर्थः, न तु यथा वैतरणी गम्भीरजला वेगवती च, सा हि उत्तानकूला लोहविलीनसदृशोदका । लोहानि पञ्च काललोहादीनि । जसीहिदुग्गंसि पवजमाणा, अभिमुखं दुग्गा भृशं दुग्गा वा अभिदुग्गा, प्रपद्यमाना गच्छन्त इत्यर्थः । एकानिका असहाया इत्युक्तम् , अल्पसहाया इत्यर्थः अद्वितीया वा। अनुक्रमन्तीति अनुक्रमणम् ॥ २० ॥ ___३४५. एताणि फासाणि फुसंति बालं, णिरंतरं तत्थ चिरद्वितीया । णे हम्ममाणस्स तु अत्थि ताणं, एगो सयं पचणुहोति दुक्खं ॥ २१॥ ३४५. एताणि फासाणि फुसंतिक वृत्तम् । एतानीति यान्युद्दिष्टानि द्वयोरप्युद्देशकयोः । फुसंतीति फासाणि, एगग्गहणे गहणं, सहाणि वि रूव-रस-गंध-फासाणीति । स्पर्शग्रहणं तु ते तत्रोत्कटा दुःखतमाश्च । निरन्तरमितिअच्छिणिमीलियमेत्तं णत्थि सुहं णिच्चमेव अणुबद्धं । णरए णेरइयाणं अधोणिसं पञ्चमाणाणं ॥ १॥ 20 [जीवा० प्रति० ३ उ० १ सू० ९५ पत्र १२९-१] चिरद्वितीय त्ति उक्ताः। ण हम्ममाणस्स तु अत्थि ताणं, न तत्र हन्यमानस्य वा किञ्चित् त्राणमस्ति, पल्ललं भणति-हण छिन्द भिन्दध त्ति मारे त्ति पच पचे त्ति । एवं यां यां कारणां कश्चित् कारयति तां तामनुबंहयन्ति बुभूषन्ति च । एगो सयं पच्चणुहोति दुक्खं, एक एवासौ स्वयं अशुभकर्मफलमनुभवति, अनु पश्चाद्भावे, पूर्वं तन्निमित्तं तदन्येषु भवति, पश्चादसावनन्तगुणं तदनुभवति, तं पूर्वकृतं प्रत्यनुभवति ॥ २१ ॥ ३४६. जंजारिसंपन्चमकासि कम्म. तधेव आगच्छति संपरागे। एगंतदुक्खं भवमंजिणित्ता, 'वेदेति एगो तमणंतकालं ॥ २२ ॥ ३४६. जंजारिसं० वृत्तम् । जं जारिसं पुव्वमकासि कम्म, जारिसाणि तिव्व-मंद-मज्झिमअज्झवसाएहिं जधण्णमझिमुक्किट्ठठितीयाणि कम्माणि कताणि तं तधा अणुभवंति । संपरागो णाम संसारः, संपरीत्यस्मिन्निति सम्परायः, कर्म१ अष्टादशगाथाया अनन्तरं वृत्तिकृता एका गाथाऽधिका व्याख्याताऽस्ति, सूत्रादर्शेष्वपि सोपलभ्यते । सा चेयम् भंजंति णं पुव्वमरी सरोसं, समुग्गरे ते मुसले गहेउं । ते भिन्नदेहा रुहिरं वमंता, ओमुद्धगा धरणितले पडंति॥ २°सिताला खं १॥ ३ पगब्मिणो खं १ खं २ पु १। पागन्भिणो पु २॥ ४ सतायकोवा खं १ खं २ पु १ पु २। सदा वऽकोवा वृ० दी। सदा वकोप्पं चूपा०॥ ५खजति खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ६ पविजलं वृ० दी । पविजला वृपा०॥ ७एगायताणु खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ८'तीतं खं १।तीयं खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ९नो खं १ पु २॥ १० तु होति ताणं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी.॥११ पुवकयाऽऽसि कम्म, तमेव खं २ पु १ वृ० दी० ॥१२ मजइत्ता पु २॥ १३ वेदेति दुक्खी तमणतदुक्खं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ 26 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [५णिरयविभत्तिअज्झयणे बिइओ उद्देसओ फलोदयेन वा नरगं संपरागिज्जतीति सम्परागः । ततः कर्मविशेषात् तिर्यग्-मनुष्येष्वपि एगंतदुक्खं भवमजिणिता, कतरं भवम् ?, गरगभवो, पच्छा सो वेदेतेगो अणंतकालं प्रभूतम् ॥ २२ ॥ तम्हा ३४७. एताणि सोचा णरगाणि धीरो, णो हिंसए कंचण सव्वलोएँ। एगंतदिट्ठी अपरिग्गहे , बुज्झेज लोभेस्स वसं ण गच्छे ॥ २३ ॥ ३४७. एताणि सोचा गरगाणि धीरो० वृत्तम् । एतानीति यान्युद्दिष्टानि । दधातीति धीरः । श्रुत्वोपदेशात् तद्भयाच्च णो हिंसए कंचण सव्वलोए, किञ्चिदिति सव्वं, हिंसका हि नरकं गच्छन्तीत्यतः । सव्वलोके त्ति छज्जीवणिकायलोके णवएण भेदेण प्राणवधं न कुर्यात् ।एगंतदिट्टी अपरिग्गहे य, एकान्तदृष्टिरिति इदमेव णिग्गंथं पावयणं । अपरिग्गहे त्ति पंचमहव्वयग्रहणम्, तद्ब्रहणान्मध्यमान्यपि गृहीतानि । बुज्झेज त्ति अधिज्जेज्ज, अधीतुं च सुणेज्ज, सोतुं बुझेन । लोभस्स वसं ण गच्छेज त्ति कसायणिग्गहो गहितो, सेसाण वि कोधादीणं वसं ण गच्छेज्जा । अट्ठारस वि हाणाइं एताई 10 सोचा गरगाई धीरे दुक्खाई मणुस्सेसु वि देवेसु वि ॥ २३ ॥ ३४८. एवं तिरिक्खेसु वि चातुरंते, अणंतकालं तवणुव्विवागं । ___ स सवमेवं इध वेद॑हत्ता, कंखेज कालं धुतमायरंति ॥ २४ ॥ त्ति बेमि ॥ ॥नंरगविभत्ती सम्मत्ता॥ ३४८. एवं तिरिक्खेसु वि चातुरंते अणंतकालं तदणुव्विवागं० [वृत्तम् ] । कर्मणां स सव्वमेवं इध वेदइत्ता, 15स इति स साधुः जो पुव्वं वुत्तो "बुझेज तिउट्टेज" त्ति [ सू०१], सर्वमिति यैः कर्मभिः नरकं गम्यते संसारो वा याश्च तत्र वेदनाः, सावशेषकर्मोद्वर्त्तस्य वा पुनरपि हिंसादिप्रसङ्गान्नरको वेदनाश्च, एवमिदं सव्वं वेदयित्वा ज्ञात्वेत्यर्थः, अधवा वेदयित्वेति क्षपयित्वा नरकप्रायोग्यं कर्म, कंखेज कालं धुतमायरंति त्ति बेमि, सर्वकर्मक्षयकालं, यो वाऽन्यो पण्डितमरणकालः, धूयतेऽनेन कर्म इति धुतं चरित्रमित्युक्तम् , आचार इति क्रियायोगे, आचरन् आचरते वेति चरणमिति ॥२४॥ ॥ नरकविभत्त्यध्ययनं पञ्चमं समाप्तम् ॥५॥ १वीरे खं १॥२न खं १ खं २ पु १ पु २॥ ३°लोते खं २ पु १॥ ४ उ खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ ५ लोगस्स खं १ ख २ पु१ पु २ वृ० दी० ॥ ६°क्खे मणुतामरेसुं, चतुरंतऽणतं तदणुविवागं खं १ पु २ वृ० दी । तयणूविवागं खं २ पु १॥ ७व्वमेयं इति खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ८ वेदयित्ता खं १॥ ९धुतमाचरंति खं १ । धुयमायरंते खं २ पु १ वृ० दी। धुतमायरेज सा०॥ १० नरकविभक्त्यध्ययनं पञ्चमम् पु १ पु २॥ Jain Education Intemational Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ३४७-४८ णिजुत्तिगा०७६] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंग पढमो सुयक्खंधो। [छटुं महावीरत्थवज्झयणं] 16 इदाणी महावीरत्थवो त्ति अज्झयणं । तस्स चत्तारि अणुयोगद्दाराणि । एगसिरं ति कातुं अज्झयणस्थाहिगारो, उद्दे- . सत्थाहिगारो णत्थि । अज्झयणस्थाहिगारो तु महावीरवद्धमाणगुणत्थयेणेति । णामणिप्फण्णे महावीरत्थयो । महं णिक्खिवितव्यो, वीरो णिक्खिवियव्वो, थवो निक्खिवेयव्यो ।। पाधण्णे महासदो दव्वे खेत्ते य काल भावे य । वीरस्स उ णिक्खेवो चउक्कओ होति णायवो ॥१॥७६ ॥ पाधण्णे महासदो० गाधा । महदिति प्राधान्ये बहुत्वे च, प्राधान्येनाधिकारः । तस्स णामादि छव्विधो णिक्खेवो । णाम-ठवणाओ गताओ। दव्वे वतिरित्तो तिविधो-सचित्तादि ३। सचित्तो तिविधो-दुवदेसु तित्थगरः चक्कि बलदेव-वासुदेवा १ चतुष्पदेषु सीहो हत्थिरयणं अस्सरयणं २ अपदेसु परोक्खेसु "रुक्खेसु णाता अदुकूडसामली" [ सूत्रगा० ३६६ ], प्रत्यक्ष इहैव ये वर्ण-गन्ध-रसस्पर्शरुत्कृष्टाः, वर्णे तावत् पौण्डरीकम् वक्ष्यमाणमपि च, पुप्फेसु य अरविंदं वदन्ति, त एव च गन्धतो 10 गोशीर्षचन्दनादीनि वा, रसतः पणसादि, स्पर्शतः बालकुमुदपत्र-शिरीषकुसुमादि ३ । अचेतणेसु वेरुलियादयो मणिप्रकाराः, वनस्पतिद्रव्याणि च अचेतनानि वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शेरायोज्यानि । मीसगाणं संयोगेण भवति, अधवा अलंकितविभूसितो तित्थगरो । खेत्ततो सिद्धिखेत्तं, धम्मचरणं वा प्रति महाविदेहं, स्वतत्रसौख्यं शब्दादिसौख्यं च प्रति मनुष्येषु देवकुर्वादौ भवति । काले सुसमादि, जहिं वा काले धम्मचरणं पवत्तति । भावमहं खाइगो भावः, औदायिकभावमपि, तीर्थकरादिशरीरादि औदयिको भावः । भावमहताऽधिकारः क्षायिकेनौदयिकेन च । वीरः-वीर्यमस्यास्तीति वीर्यवान् । वीरस्स पुण णिक्खेवो चतुर्विधो । वतिरित्तो दव्ववीरो यद् यस्य द्रव्यस्य वीर्य सचेतनस्याचेतनस्य मिश्रस्य वा । द्विपदस्य यथा तीर्थकरस्यैव, असद्भावस्थापनातः स हि तिन्दुकमिव लोकं अलोके प्रक्षिपेत्, मन्दरं वा दण्डं कृत्वा रत्नप्रभां पृथिवीं छत्रकवद् धारयेत् । चकवट्टिस्स दो सोला बत्तीसा सव्वबलेणं तु संकलणिबद्धं । अंछंति चकवहि अगडतडम्मि य ठितं संतं ॥ १ ॥ घेत्तूण संकलं सो वामगहत्थेण अंछमाणाणं । भुंजेज विलिंपेज व चक्कहरं ते ण चाएंति ॥ २ ॥ सोलस रायसहस्सा सव्वबलेणं तु संकलनिबद्धं । अंछंति वासुदेवं अगडतडम्मि य ठितं संतं ॥ ३॥ घेत्तण संकलं सो वामगहत्थेण अंछमाणाणं । भुंजेज विलिंपेज व मधुमणं ते ण चाएंति ॥४॥ जं केसवस्स उ बलं तं दुगुणं होइ चक्कवट्टिस्स । तत्तो बला बलवगा अपरिमितबला जिणवरिंदा ॥५॥ [भाव०नि० गा०७३-७४-७१-७२-७५] संगमएण वि भगवतो कालचक्कं मुक्कं, तं पि भगवता शारीरविरिएणं चेव सोढं । चउप्पददव्ववीरियं यथा सिंह-25 सरभाणं । अपदाणं पसत्थं अपसत्थं च । अपसत्थं विसमादीणं, पसत्थं संजीवणिओसधिमादीणं । अचित्तं खीर-दधिघृता-ऽऽहारविसेसादीण य, संजोइमं अगदादीणं । एवमादि जस्स वीरियं अत्थि स द्रव्यवीरो भवति । खेत्तवीरो यत्र स एव वीरोऽवतिष्ठति वर्ण्यते वा, यद्वा यस्य क्षेत्रमासाद्य वीयं भवति । एवं काले वि तिण्णि पगारा । भाववीरस्तु क्षायिकवीर्यवान् भाववीरः, असौ भावः क्षायिकः परीषदैरुपसगैर्वा शक्यते नान्यथा कर्तुम् । अधवा दव्यादि चतुविधो वीरो। दवे वतिरित्तो एगभवियादि । खेत्ते जत्थ वणिजति तिष्ठति वा । काले यस्मिन काले यश्चिरं कालं वा कालं० । भाववीरो दुविधो-आगमतो णोआगमतो य । आगमतो जाणए उवयुत्तो। णोआगमतो भाववीरो वीरणाम-गोत्ताई कम्माइं वेदयंतो, तेण अधियारो, स तु भगवानेव ॥ १॥ ७६ ॥ महसदो खं २ पु २॥ 20 20 Jain Education Intemational Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 १४२ णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [६ महावीरत्थवज्झयणं थयणिक्खेवो चंउद्धा आगंतुअ-भूसणेहि देवथयो। भावे सम्भूतगणाण कित्तणा जे जहिं भणिया॥२॥७७॥ [थयणिक्खेवो चउद्धा० गाधा । ] थयो णामादि चतुर्विधो-आगंतुअभूसणेहिं केसा-ऽलंकारादीहिं । अधवा सचित्ता-ऽचित्त-मीसो । सचित्ते पुप्फादि, अचित्ते हार-ऽद्धहारादि, मिश्रे स्रग्-दामादि । भावे सद्भूतगुणकित्तणाए 5 अधियारो ॥ २॥ ७७॥ ___* पुच्छिसु जंबुणामो अजसुधम्मो ततो कहेसी य । एव महप्पा वीरो जतमाहु तथा जतेजांध ॥ ३ ॥ ७८ ॥ ॥ महावीरत्थओ समत्तो ६॥ ॥३॥ ७८ ॥ णामणिप्फण्णो गतो। सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारेतव्वं जाव३४९. पुंच्छिसु णं समणा माहणा य, अंकारिणो या परतित्थिगा य । से 'के इमं णितियं धम्ममाहु, अणेलिसं ? साधु समिक्ख दाए ॥१॥ ३४९. पुच्छिसु णं समणा माहणा य० वृत्तम् । एतान् नरकान् श्रुत्वा भगवदार्यसुधर्मसकाशात् तहुःखोद्विग्नमानसाः कथमेतान्न गच्छेयाम इति ते पार्षदा भगवन्तमार्यसुधर्माणं पुच्छिसु णं समणा माहणा य अनेनाभिसम्बन्धेन पदच्छेदविग्रह-समासान् कृत्वा अयमर्थः-पुच्छिसु णं ति पृष्टवन्तः, पुच्छिसु त्ति वत्तव्वे णंकारः पूरणे देसीभाषातो वा । समणा जम्बु15 नामादयः, जेसिं (? जेहिं) भगवंण दिट्ठो, दिहोवण पुच्छितो, न य तग्गुणा यथार्थत उपलब्धाः। माहणाः श्रावकाः ब्राह्मणजातीया वा । अकारिणस्तु क्षत्रिय-विट्-शूद्राः। परतीर्थकाश्चरकादयः। चग्रहणाद् देवाश्च । से के इमं णितियं धम्ममाह, से इति सः परोक्षनिर्देशे, कोऽसाविमं धर्ममाख्यातवान् ?, इममिति योऽयं भगवद्भिः कथितः यत्र च भगवान् अवस्थित इति। नितिकं नित्यं सनातनमित्यर्थः। “हितगं" च पठ्यते । धारयतीति धर्मः । आहुरिति एके अनेकादेशाद् "आत्मनि गुरुषु च बहुवचनम्" बन्धानुलोम्याद्वा । अथवों के इममाहुः १, एकारोऽपि हि बहुत्वे भवति यथा-के ते, एकत्वेऽपि यथा-के से । 20 अनेलिसमिति खरेऽक्षरविपर्ययः, न एलिसं अनेलिसं, अतुल्यमित्यर्थः । धर्म इति वर्त्तते। साधु प्रशंसायाम् । सम्यग् ईक्षित्वा समीक्ष्य केवलज्ञानेन दाए दरिसति ॥१॥ [अत्राह-ननु भवान् ] सुख(?श्रुतं) समीक्ष्य देशकः ? साधु समीक्ष्य देशकः ? उत आत्मागमादेवेदं कथयसि ?, स आह-नन्वागमात् कथयामि, आप्तागमात्, आप्तो भगवान् श्रीवर्धमानस्वामी तेन भाषितमनुभाषयामि । ततस्ते जम्बुनामाद्याः श्रोतारः पुनरूचुः-परोक्षो नः स भगवान् , तद्गुणांस्तावत् कथयस्व ३५०. कधं व णाणं कध दंसणं से ?, सीलं कधं णायसुतस्स आसी?। 25 जाणासि णं भिक्खु! धातघेणं, अधासुतं ब्रूहि जधा णिसंतं ॥२॥ ३५०. कधं व णाणं कध दंसणं से० वृत्तम् । कथं इति परिप्रश्ने । कथमसौ ज्ञातवान् ? केन वा ज्ञानेन ज्ञातवान् ? एवं दर्शनेऽपि कथं दृष्टवान् ? इति । शीलमिति चारित्रम् । एतान् यथोद्दिष्टान् जाणासि णं भिक्खु ! जधातघेणं, हे भिक्षो! त्वया ह्यसौ दृष्टश्चाऽऽभाषितश्च इत्यतो यथा तद्गुणा बभूवुः तथा त्वं जानीषे । जानानस्तान् अधासु णिसंतं यथा दृष्टं यथा निशान्तं च, निशान्तमित्यवधारितम् । किश्चित् श्रूयते न चोपधार्यते इत्यतः अधासुतं ब्रूहि जधा राणिसंतं ॥ २ ॥ तद् यथा भवता श्रुत्वा निशामितं तथाऽपदिश्यताम्' इति भगवान् पृष्टः भव्यपुण्डरीकानामुन्मुखीभूतानां कथितवान् । स हि भगवान् जधा १ थुतिणि खं १ ख २ पु २ वृ०॥ २ चउहा खं २ पु २॥ ३ दव्वथुती खं १ खं २ पु २ वृ०॥ ४ संताण गुणाण खं १ खं २ पु २ वृ०॥ ५°सुहम्मा खं २ पु २॥ ६ जाहि खं २। जाहिं पु २॥ ७पुच्छिस्सुखं २। पुच्छिस्सु वृ० दी.॥ ८ अगारिणो खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ९ के इणेगंतहिय धम्ममाह पु २ वृ० दी । के तिम णिहियं धम्ममाह खं १ । के इमं णितियं धम्ममाहु खं २ पु १ । के इमं हितगं धम्ममाहु चूपा० ॥ १० क्खयाए पु १ पु २ वृ० दी। क्ख दाए खं १ । 'क्ख दासे खं २॥ ११ हितिगं पु० सं० ॥ १२ वा किमेकमाहुः चूसप्र०॥ १३ णातसुखं १॥ १४ अहातहेणं पु २॥ Jain Education Intemational Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ३४९-५३ णिजुत्तिगा० ७७-७८ ] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयफ्खंधो । ___३५१. 'खेत्तण्णे कुसले आसुपण्णे महेसी, अणंतणाणी य अणंतदंसी। जसंसिणो चक्खुपधे ठितस्स, जाणाहि धम्मं च घितिं च पेधं ॥३॥ ३५१. खेत्तण्णे कुसले आसुपण्णे० वृत्तम् । क्षेत्रं जानातीति क्षेत्रज्ञः । कुशलो द्रव्ये भावे च । द्रव्ये कुशान् लुनातीति द्रव्यकुशलः । एवं भावे वि, भावकुशास्तु कर्म । अथवा कुत्सितं शलति कुत्सिताद्वा शलति कुशलः । केवलज्ञानित्वाद् आशुप्रज्ञो आशु एव प्रजानीते, न चिन्तयित्वा इत्यर्थः । महेसी महरिसी, महान्तं वा एसतीति महेसी । अनन्तज्ञानीति । केवलज्ञानी । अनन्तदर्शनीति केवलदर्शनी । जसंसिणो चक्खुपहे ठितस्स, यशः अस्यास्तीति यशस्वी सदेव-मणुआ-ऽसुरे लोगे जसो । पश्यतेऽनेनेति चक्खु, सर्वस्यासौ जगतश्चक्षुष्पथि स्थितः, चक्षुर्भूत इत्यर्थः । यथा तमसि वर्तमाना घटादयः प्रदीपेनाभिव्यक्ता दृश्यन्ते, न तु तदभावे, एवं भगवता प्रदर्शितानर्थान् भव्याः पश्यन्ति, यद्यसौ न स्यात् तेन जगतो जात्यन्धस्य सतोऽन्धकारं स्यात् , तेनाऽऽदित्यवदसौ जगतो भावचक्षुष्पथे स्थितः । स्यादनुक्तमपि जानीहि जानस्व, किंविधो धर्मः धृतिः प्रेक्षा वा ? अचिन्त्यानीत्यर्थः, चारित्रधर्मः क्षायिकः, धिति वज्जकुडुसमा, पेक्खा केवलणाणं । अथवा किश्चित् 10 सूत्रमतिक्रान्तं निकाचयतीति कृत्वा ते पुत्तका ( ? पुच्छका) भवंति अजसुधम्म-भगवं ! तुम तस्स जसंसिणो चक्खुपधे थितस्स जाणाहि धम्मं च धितिं च पेधं जारिसो तस्स सव्वलोगचक्खुभूतस्स । उक्तं च-"अभयदए [चक्खुदए] मग्गदए" [ ] इत्यतश्चक्षुर्भूतः, तस्स जारिसो धम्मो वा धिती वा पेहा वा तं तुमं अवितधं जाणाहि, जाणमाणो कधेहि त्ति, णे [त्ति वाक्यशेषः ॥ ३ ॥ स च कथयत्येवम्३५२. उड्ढे अधे वा तिरियं दिसासु, जे थावरा जे य तसा य पाणा। 15 स णिच्चणिचे य समिक्ख पण्णे, [ ? समियाएवं दीवसमो तहाऽऽह ] ॥४॥ ३५२. उड्ढे अधे वा तिरियं दिसासु० वृत्तम् । येषामूर्ध्वलोके स्थानं यतः प्रभृति वोर्चे भवति, एवमधः, तिर्यगिति चतस्रो दिशस्तासु दीव-समुद्रा इति । अस्मिन् त्रिलोकेऽपि ये स्थावराः त्रिप्रकारा ये च त्रसाः त्रिप्रकारा एव । स णिच्चप्रणिच्चे य समिक्ख पण्णे, स इति स भगवान्, नित्यानित्य इति भावा अपि हि केनचित् प्रकारेण नित्याः केनचिदनित्याः। कथम् ? इति चेत्, द्रव्यतो नित्या भावतोऽनित्याः, द्रव्यं (? उभयं) प्रति नित्यानित्याः । एवमन्यान्यपि द्रव्याणि यथा नित्या-20 न्यनित्यानि च तथा सम्यग् ईक्ष्य प्रज्ञया तथा आहेति वक्ष्यमाणान् । दीवसमो दीवभूतः । दीवो दुविधो-आसासदीवो पगासदीवो य, उभयथाऽपि जगतः, आसासदीवो ताणं सरणं गती, प्रकाशकरो आदित्यः सव्वत्थ समं पगासयति चंडालादिसु वि । एवं भगवान् दीवेण समो दीवसमो। समियाए त्ति सम्यक्, ण पूया-सकार-गारवहेतुं, "जधा पुण्णस्स कच्छती तधा तुच्छस्स कच्छती" [ आचा० श्रु० १ ० २ उ० ६ सू०५] ॥४॥ ३५३. से सव्वदंसी अभिभूय णाणी, णिरामगंधे धितिमं ठितप्पा। . अणुत्तरं सव्वजगं सि विजं, गंथाँतीते अभए अणाऊ ॥५॥ ३५३. से सव्वदंसी अभिभूय णाणी० वृत्तम् । सव्वं पासति त्ति सव्वदंसी, केवेलदर्शनीत्युक्तं भवति, चत्वारि १ खेयण्णे से कुसले आसुपण्णे, अणंत° पु २ वृ० । खेयण्णए से कुसले महेसी, पु १ वृपा० दी । खेयण्णे से कुसले महेसी. खं १ ख २॥ २च पेहे खं १ वृ० । च पेहा खं २ पु १ । च पेह पु२ । च बेहि वृपा० दी० । तहेव दीपा०॥ ३ उड़े अहे य तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा । से णिच्च-ऽणिच्चेहि समिक्ख पण्णे, दीवे व धम्म समियं उदाह ॥ खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० । उढे खं १ । अहेयं पु १ । णिच्च-ऽणिञ्चे य स खं १ पु २॥ ४ त्रिप्रकाराः स्थावराः पृथिव्यम्बु-वनस्पतयः। त्रिप्रकारास्त्रसाः तेजोवायु-विकलेन्द्रिय-पञ्चेन्द्रिया इति ॥ ५“मच्छंत' त्ति मथ्यमानं हृदयं येषां ते तथा, इह च थकारस्य छकारादेशः छान्दसत्वात्, यथा 'पुण्णस्स कच्छई' इति, अत्र पूर्णस्य कथ्यते इति" इत्यभयदेवसूरिपादाः प्रश्नव्याकरणाङ्गवृत्ती तृतीयेऽधर्मद्वाराध्ययने व्याख्यातवन्त इति, सूत्र १२ पत्र ५७-१॥ ६ अणुत्तरे सव्वजगंसि विजं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी। जगम्मि खं १॥ ७ गंथादीए अभए अणाऊ खं १ पु २। गंथाअदीते अभते अणाऊ खं २ पु १॥ ८ पासत्ति सि पु० सं०॥९ केवलज्ञानी केवलदर्श° पु०॥ सास, तसा या उड्डे खं पन्द्रिया इति ॥ इति" इत्यमयदे Jain Education Intemational Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 १४४ णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [६ महावीरत्थवज्झयणे ज्ञानानि त्रीणि दर्शनानि, भास्कर इव सर्वतेजांस्यभिभूय केवलदर्शनेन जगत् प्रकाशयति । ज्ञानीति एवं केवलज्ञानेनापि अभिभूय इति वर्तते, उभाभ्यामपि कृत्स्नं लोका-ऽलोकमवभासते । अथवा लौकिकानि अज्ञानान्यभिभूय केवलज्ञान-दर्शनाभ्यां खद्योतकानिवाऽऽदित्यः एकः प्रकाशते । णिरामगंधे धितिमं ठितप्पा, निरामोऽसौ निर्गन्धश्च, आम इति उद्गमकोटिः । धृतिरस्यास्तीति धृतिमान् संयमे धृतिः। संयम एव यस्य स्थित आत्मा धर्मे वा सो ठितप्पा । अणुसरं सव्वजगं सि विजं, 5 नास्योत्तरं सर्वलोके यः कश्चिद् विद्वानित्यतः सर्वलोकं स विद्वान् । विजं नाम विद्वान् । ग्रन्थादतीते ति गंथातीते । दव्वगंथो सचित्तादि, भावे कोधादि, द्विधाऽप्यतीतः, निर्ग्रन्थ इत्यर्थः। अथवा ग्रन्थनं ग्रन्थः स्वाध्याय इत्यर्थः तमतीतः, कोऽर्थः ? नासौ श्रुतज्ञानेन जानीत इत्यर्थः। अभए इति अभयं करोत्यन्येषां न च स्वयं बिभेति । अनायुरिति नास्याऽऽगमिष्यं जन्म विद्यते आगमिष्यायुष्कबन्धो वा ॥ ५॥ ३५४. से भूतिपण्णे अणिएतचारी, ओघंतरे धीरे अणंतचक्खू । __ अणुत्तरं तवति सूरिए व, वैरोयणेदो व तमं पगासे ॥६॥ . ३५४. से भूतिपण्णे अणिएतचारी• वृत्तम् । भूतिर्हि वृद्धौ रक्षायां मङ्गले च भवति । वृद्धौ तावत्-प्रवृद्धप्रज्ञः अनन्तज्ञानवानित्यर्थः, रक्षायाम्-रक्षाभूताऽस्य प्रज्ञा सर्वलोकस्य सर्वसत्त्वानां वा, मङ्गलेऽपि-सर्वमङ्गलोत्तमोत्तमाऽस्य प्रज्ञा । अनियतं चरतीति अनियतचारी । ओघो द्रव्यौघः समुद्रः, भावौघः संसारः, तं तरतीति ओघंतरः । दधातीति धीरः। अणंतचक्षुरिति अणंतं केवलदर्शनं तदस्य चक्षुरिति अनन्तचक्षुः, अनन्तस्य वा लोकस्यासौ चक्षुर्भूतः । अणुत्तरं तवति सूरिए 15व, न हि सूर्यादन्यः कश्चित् प्रकाशाधिकः, एवं भट्टारकादपि नान्यः कश्चिद् ज्ञानाधिकः, णाणेणं चेव ओभासति तवति भासेति, अवसेसं च कर्म तवति, आदित्य इव सरांसि तपति औषधयो वा । वैरोयणेदो व "रुच दीप्तौ" विविधं रुचतीति वैरोचनः अग्निः, स हि सर्वदीप्तिवतां द्रव्याणामिन्द्रभूत इत्यतो वैरोचनेन्द्रः, स यथा आज्याभिषिक्तः तमः प्रकाशयति एवं भगवानप्यज्ञानतमांसि प्रकाशयति ॥ ६॥ ३५५. अणुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं, णेता मुणी कासवे आसुपण्णे। 20 इंदे व देवाण महाणुभावे, सहस्सणेत्ता दिविणं विसिट्टे॥७॥ ३५५. अणुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं० वृत्तम् । नास्योत्तरा अन्ये कुधर्मा इत्यनुत्तरम् । जिनानामिति अन्येषामपि जिनानां अयमेव धर्मः, अतीतानामागमिष्यतां च एष भगवतां धर्मः । अयमेव भगवान् नयतीति नेता, कोऽर्थः ?, जधा ते भगवन्तो नीतवन्तः तथाऽयमपि नयति । काश्यपगोत्रः काश्यपमुनिः । केवलज्ञानित्वाद् आशुप्रज्ञः आशुरेव प्रजानीते, न चिन्तयित्वेत्यर्थः । इंदे व देवाण महाणुभावे, इंदेण तुल्यं इंदवत् । अनुभवनमनुभावः, सौख्यं वीर्य माहात्म्यं चानुभावः। 25 सहस्रमस्य नेत्राणां सहस्सनेत्ता, अनेकानां वा सहस्राणां "नेता" नायक इत्यर्थः। दिवि भवा दिविनः। सर्वेभ्यो दिविभ्यः स्थान-रिद्धि-स्थिति-द्युति-कान्त्यादिभिर्विशिष्यते इति विशिष्टः, किमुतान्येभ्यः ? ॥ ७ ॥ किश्च ३५६. से पण्णसा अक्खये सागरे वा, महोदधी वा वि अणंतपारे । अणाइँले से अकसाय भिक्खू, सक्केव देवाधिपती जुतीमं ॥८॥ ६. से पण्णसा अक्खये सागरे वा. वृत्तम् । ज्ञायतेऽनेनेति प्रज्ञा ज्ञानसम्पत्, न तस्य ज्ञातव्येऽर्थे बुद्धिः 30 परिक्षीयते प्रतिहन्यते वा, सादीअपज्जवसितो कालतो, दव्य-खेत्त-भावेहिं अणते, दृष्टान्तः स्वयम्भरमणः सागरः, एकदेशेन हि औपम्यं क्रियते, यथाऽसौ विस्तीर्ण-गम्भीरजलो अक्षोभ्य एवमस्यानन्तगुणा प्रज्ञा विशाला गम्भीरा अक्षोभ्या च । अणाइले से अंकसाय अणाइलो णाम परीषहोपसर्गोदयेऽप्यनातुरः । अकसाय इति क्षीणकषाय एव, न तूपशान्त १तप्पति सूरिए वा, वइरोयर्णिदेव खं १ ख २ पु १ पु २ । सूरिते खं २ पु १॥ २ वृद्धौ मङ्गले रक्षायां च चूसप्र०॥ ३°भूतस्य चूसप्र० ॥ ४°णेता खं १ खं २ पु १ पु २ बृ० दी. चूपा० ॥ ५ दिवि णं इति पृथक्पदतया वृत्तौ व्याख्या-"दिवि स्वर्गे, णं इति वाक्यालङ्कारे" इति ॥ ६ पण्णया पु १ पु २॥ ७°इले या अकसादि मुक्के, सक्के खं १ पु २ वृ० दी। इले या अकसाय भिक्खू खं २ पु १ वृपा० दीपा० ॥ ८ शतव्येत्यर्थे चूसप्र०॥ ९अकसाए य चूसप्र०॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्सगा० ३५४-६०] सूयगडंगसुत्तं विइयमंगं पढमो सुयक्खंधो । कषायः, निरुत्साहवत् , इह कश्चित् सत्यपि बले निरुद्यमत्वादुपचारेण निरुत्साहो भवति, अन्यस्तु क्षीणविक्रमत्वान्निरुत्साहः, एवमसौ क्षीणकषायत्वान्निरुत्साहः । सत्यप्यसौ क्षीणान्तरायिकत्वे सर्वलोकपूज्यत्वे च भिक्षामात्रोपजीवित्वाद् भिक्षुरेव, नाक्षीणमहानसिकादिसर्वलब्धिसम्पन्नोऽपि स्यात् तामुपजीवतीत्यतो भिक्षुः। सक्के व देवाधिपती जुतीमं ति द्युतिमानित्यर्थः, स हि तुल्यस्थित्याऽपि सामानिक-त्रायस्त्रिंशकेभ्यः इन्द्रनाम-गोत्रस्य कर्मण उदयात् स्थानविशेषाच्चाधिकं दृश्यते ॥८॥ ३५७. से वीरिएणं पडिपुण्णवीरिए, सुदंसणे वा णगसव्वसेठे। सुरालऐ वा वि मुदाकरे से, विरायए णेगगुणोववेत् ॥९॥ ३५७. से वीरिएणं पडिपुण्णवीरिए० वृत्तम् । वीर्य औरस्यं धृतिः ज्ञानवीयं च सर्वैरपि प्रतिपूर्णवीर्यः, क्षायोपशमिकानि हि वीर्याणि अप्रतिपूर्णानि, क्षायिकत्वादनन्तत्वाञ्च प्रतिपूर्णम् । सुदंसणे वा णगसव्वसेटे, शोभनमस्य दर्शनमिति सुदर्शनः, मेरुः सुदर्शन इत्यपदिश्यते, यथा असौ सुदर्शनः सर्वपर्वतेभ्यो विशिष्यते तथा भगवानपि वीर्येण सर्ववीर्येभ्यो विशिष्यते । इदानीं सर्व एव सुदर्शनो वर्ण्यते-सुरालए वा वि मुदाकरे से, सुराणां आलयः, “मुद हर्षे" सुरालयः स्वर्गः, 10 स यथा शब्दादिविषयसुखः एवमसावपि स्वर्गतुल्यः शब्दादिभिर्विषयैरुपेतः, देवा अपि हि देवलोकं मुक्त्वा तत्र क्रीडास्थानेषु क्रीडन्ते, न हि तत्र किञ्चिच्छब्दादिविषयजातं यदिन्द्रियवतां न मुदं कुर्यादिति । विविधं राजति अनेकैः वर्ण-गन्ध-रसस्पर्श-प्रभाव-कान्ति-द्युति-प्रमाणादिभिर्गुणैरुपपेतः सर्वरत्नाकरः। तस्य हि प्रभावे गाधा भवतिसुंदरजणसंसग्गी सीलदरिदं पि कुणइ सीलड्ढे । जह मेरुगिरिविछूढं तणं पि कणयत्तणमुवेति ॥ १॥ [ओपनि गा० ७८४ पत्र २२४-२]॥९॥ 15 . तस्य तु प्रमाणम् ३५८. सतं सहस्साण तु जोअणाणं, 'तिकंडि से पंडगवेजयंते । से जोअणे णवर्णउतिं सहस्से, उड्डेस्सिते हे सहस्समेगं ॥ १०॥ ३५८. सतं सहस्साण तु जोअणाणं० वृत्तम् । त्रीणि कण्डान्यस्य सन्तीति त्रिकण्डी । तं जधा-भोम्मे वज्जे कंडे १ जंबूणते कंडे २ वेरुलिए कंडे ३ । पंडगवेजयंते, पंडगवणेण चान्यपर्वतान् वनानि च विजयत इति पण्डगवेजयन्तः । 20 से जोअणे णवणउतिं सहस्से ऊर्ध्वं उसृत उड्ढुस्सिते । पठ्यते च–“उटुं थिरे" तिष्ठतीति स्थिरः, शाश्वतत्वं गृह्यते निश्चलत्वं च । अधे सहस्सावगाढो ॥ १० ॥ ३५९. पुढे णभे चिट्ठति भूमिए ट्ठिए, जं सूरिया अणुपरिययंति। से हेमवण्णे बहुणंदणे य, जंसी रतिं वेदयंती महिंदा ॥११॥ . ___३५९. पुढे णमे चिट्ठति० वृत्तम् । भूमिए हिए उड्डलोगं च फुसति अहलोगं च, एवं तिणि वि लोगे फुसति । 25 जं सूरिया अणुपरियट्टयंति । से हेमवण्णे, हेममिति जं प्रधानं सुवर्णम् , निष्टप्तजम्बूनदरुचि इत्युक्तं भवति । बहुनन्दन इति बहन्यत्राभिनन्दजनकानि शब्दादिविषयजातानि बहूनां वा सत्त्वानां नन्दिजनकः । महान्तो इन्द्रा महेन्द्राः शक्रेशानाद्याः. ते हि स्वविमानानि मुक्त्वा तत्र रमन्ते ॥ ११ ॥ ___३६०. से पव्वते सहमहप्पगासे, विरायते कंचणमट्ठवण्णे । अणुत्तरे गिरिसु य पव्वदुग्गे, गिरीवरे से जलिते व भोम्मे ॥ १२॥ 30 १ सान् (? सन्) सं० वा. मो० । स्यात् कदाचिदर्थेऽव्ययम् ॥ २°ए वासिमुदा वृ० दी० ॥ ३°यते खं १ खं २ पु १॥ ४°वेते खं १ खं २ पु १॥ ५ मेरुगिरीजायं तणं ओघनिर्युक्तौ पाठः ॥ ६ तिगंड से पं खं १ पु २ वृ० दी०॥ ७ जोयणाणं णव खं १ पु २॥ ८°णवते स° खं २ पु १ । णउते स खं १ पु २॥ ९ उडे थिरे चूपा० । उहृस्सिओ पु २ । उहुं सितो खं १॥ १० भूमिऽचट्रिए वृ० दी.॥ ११ या खं १॥ १२ तिण्णऽवि पु० सं०॥ १३ से ख १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ १४ यती खं १ खं २ पु१॥ १५ भोमे खं १ ख २ पु१पु२॥ सूय० सु०१९ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति- चुण्णिसमलंकियं [ ६ महावीरत्थवज्झयणं ३६०. स पव्वते सद्दमहप्पगासे० वृत्तम् । मन्दरो मेरुः पर्वतराजेत्यादिभिः शब्दैः प्रकाशः सर्वलोकप्रतीतैः ओरालायतस्स सहा सव्वलोए परिभमंति । विरायते कंचणमडवण्णे, मट्ठेति "अट्ठे (अच्छे ) सण्हे लहे जीव पडिरूवे” [ जीवा० प्रति० ३ उ० १ सू० १२४ पत्र १७७ - २ ], ण फरुसफासो विसमो वा इत्यर्थः । अणुत्तरे गिरिसु य पव्वदुग्गे, सर्वपर्वतेभ्योऽनुत्तरः, दुःखं गम्यत इति दुर्गः, अनतिशयवद्भिर्न शक्यते आरोढुम् । गिरीवरे से जलिते व भोम्मे, से जधा5 णामए खइरिंगालाणं रत्ति पज्जलिताणं, अधवा जधा पासातो पज्जलितो के पि पचतो वा अडरते ॥ १२ ॥ tut ३६१. महीय मज्झम्मि ठिते णगिंदे० वृत्तम् । रयणप्पभाए महीए मज्झे ठिते । प्रज्ञायते नाम ज्ञायते सर्वलोकेन, अध सूरियलेस्सभूते ति ज्ञायते अतिरुग्गयहेमंतिसूरियलेस्सभूतो, यदि मध्याह्नार्कलेश्याभूतोऽभविष्यत् तेन दुरासओ10 ऽभविष्यत् । एवं सिरीए उ स भूतिवण्णे कायश्रिया पर्वतश्रिया, भूतिवर्ण इति प्रभूतवर्ण इत्यर्थः । मणोरमे मणांसि अत्र मनस्विनां रमन्त इति मणोरमे भवति । अच्चीसहस्समालिणी ( १ णो ), एस दस दिसो द्योतयति । एस विट्ठतो ॥ १३ ॥ 20 25 ३६१. महीय मज्झम्मि ठिते णगिंदे, पण्णायते सूरियलेस्सभूते । एवं सिरी उ स भूतिवण्णे, मणोरमे अच्चीसहस्समालिणी (१ णो ) ॥ १३ ॥ ३६२. सुदंसणस्सेस जसो गिरिस्स० वृत्तम् । यशः प्रतीतः सर्वलोकप्रकाशः । भृशं उच्यते पवुच्चते । महांतः स 15 महन्तः । एतोवमे समणे गातपुते जात्या । सर्वजातिभ्यः, यशसा सर्वयशस्विभ्यः, दर्शनेन सर्वदृष्टिभ्यः, ज्ञानेन सर्वज्ञानिभ्यः, शीलेन सर्वशीलेभ्य एवं भावात् ॥ १४ ॥ सर्वपर्वतेभ्यो मन्दरः श्रेष्ठः । अवशेषाणां त्वायतत्वं प्रति ३६२. सुदंसणस्सेसँ जसो गिरिस्स, पवुर्च्चते महतो पव्वतस्स । तोवमे समणे णातपुत्ते, जाती-जसो दंसण - णाण-सीले ॥ १४ ॥ ३६३. गिरीवरे वा पिसढायताणं० वृत्तम् । न हि कश्चित् तस्मादायततमो वर्षधरोऽन्य इह वाऽन्येषु वा द्वीपेषु । वलयायताणं तु रुयगपव्वतो, स हि रुयगस्स दीवस्स बहुमज्झदेसभागे माणुसुत्तर इव वट्टे वलयागारसंठिते असंखेज्जाई जोअणाइं परिक्खेवेणं । ततोवमे से जगभूतपण्णे, ताभ्यां निषध- रुचकाभ्यामौपम्यं क्रियते ततोवमे, से इति स भगवान्, जायत इति जगत्, भूता प्रज्ञा यस्य जगत्यसावेको भूतप्रज्ञः, नान्ये कुतीर्थ्याः । आवेदयन्ति तेनेति आवेदः, यावद् वेद्यं तावद् वेदयतीति आवेदः, श्रुतज्ञानमित्यर्थः । तं उदाहु मुणीण आवेदं उदाहु पण्णे प्रगतो ज्ञः प्रज्ञः ॥ १५ ॥ ३६३. गिरीवरे वा निसँढायताणं, रुयगे व सेट्ठे वलयायताणं । ततो मे से जगभूतपणे, मुणीर्णमावेदमुदाहु पण्णे ॥ १५ ॥ ३६४. अणुत्तरं धम्ममुदीरइत्ता, अणुत्तरं झणि चिरं झियोति । सुसुक्कसुक्कं अपगंडमुक्कं, अपेव संखेंदुबदातसुद्धं ॥ १६ ॥ ३६४, अणुत्तरं धम्ममुदीरइत्ता ० वृत्तम् । नास्योत्तरा अन्ये कुधर्माः । उदीरयित्वा कथयित्वा प्रकाशयित्वा । १ अत्र जावशब्दसूचितो मलयगिरिपादैर्जीवाभिगमोपाङ्गटीकायामुल्लिखितः पूर्णपाठ एवम् - "अच्छे सण्हे लहे जाव पढिरूवे' इति, यावच्छन्दकरणात् 'घट्टे मट्ठे णीरए णिम्मले णिप्पंके णिक्कंकडच्छाये सप्पभे सस्सिरीए समिरीए सउज्जोए पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे' इति परिग्रहः । " पत्र १७८-२ ॥ २ खइलिंगा वा० मो० ॥ ३ सूरियसुद्धले से खं १ पु २ वृ० दी० । सूरियसुद्धलिस्से खं २ पु १ ॥ ४ सिरीते उस भूरिवण्णे, मणोरमे जोयति अच्चिमाली खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० । जोयतिस्थाने पु १ जूयति ॥ ५ सेव जखं २ १२ ॥ ६ ती खं १ खं २ पु १ पु २ ॥ ७ णिसहायखं १ खं २ पु १ पु२ ॥ ८ वलताय से १ ॥ ९ भूतिपण्णे खं १ खं २ पु १ पु २ वॄ० दी० । “भूतिप्रज्ञः' प्रभूतज्ञानः" इति वृत्तौ ॥ १० ण मज्झे तमु खं १ खं २ पु १ वृ० दी० ॥ ११ शाणवरं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ १२ झितादी खं १ ॥ १३ संखेंदु वेगंतवदातसुक्कं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० चूपा० ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ३६१-६८] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो । अणुत्तरं झाण चिरं झियाति, उत्पन्नज्ञानो हि भगवान् द्वे ध्याने ध्यायितवान् , यावत् सयोगी तावत् सुहुमकिरियं अणियहि, रुद्धयोगी तु समुच्छिण्णकिरियं अप्पडिवादि । तत्र वर्णतः एवंप्रकारम्-सुसुक्कसुकं अपगंडसुकं, सुटुं सुकं सुसुकं । यथा किं सुक्कं स्यात् ?, यथा अपगंडं अपां गंडं अपगंडं, उदकफेनवदित्यर्थः, शरनदीप्रपातोत्थं अपेव । संखेन्दु एकान्तेन अवदातसुकं संखेंदु व एगंतावदातसुकं, अवदातं अतिपण्डरं स्निग्धं वा निर्मलं च । पठ्यते च-"संखेंदु वेगंतवदातसुकं" इव औपम्ये, संखेंदु व एगंतवदातसुकं तदेव ध्यानम् ॥ १६ ॥ एवंविधं झाणवरं झियातित्ता ३६५. अणुत्तरग्गं परमं महेसी, णाणेण सीलेण य दंसणेणं । असेसकम्मं स विसोधइत्ता, सिद्धीगति सातियणंत पत्ते ॥ १७॥ ३६५. अणुत्तरग्गं परमं महेसी गाणेण सीलेण य दंसणेणं० [वृत्तम् ] । अणुत्तरं च तद् अग्गं च अणुसरग्गं, सर्वसुखानामय्यभूतं सर्वस्थानानां चाणुत्तरम् । अग्रे च लोकाग्रे । महाँश्चासौ ऋषिश्च महरिषिः । तत् केन गतः ?, णाणेण सीलेण य दंसणेणं । अधवा अणुत्तरं अग्राणां परमं सुखानां सिद्धिमिति । असेसं णिरवसेसं कम्मं । स इति भगवान् ।10 अथवा अट्ठविहं कम्मं खवगसेढीए विसोधइत्ता णाम खवइत्ता सिद्धीगतिं सातियणंत पत्ते, सेधनं सिद्धिः, सिद्धेर्गतिः सिद्धिगतिः अतः तं सादिअणंत पत्ते सादिअपज्जवसितं प्राप्तः । केण ? णाणेण सीलेण य [दसणेणं] । चशब्दात् शीलं दुविधं-तवो संजमो य । णाण-दंसणे णिब्भेदे ॥ १७ ॥ ____३६६. रुक्खेहि णाता मह कूडसामली, जंसी रतिं वेदयंती सुवण्णा। वणेसु या णंदणमाहु "सिहं, णाणेण सीलेण उँ भूतिपण्णे ॥१८॥ 15 - ३६६. रुक्खेहि णाता मह कूडसामली. वृत्तम् । [ णाता ] ज्ञायत इति सर्ववृक्षेभ्योऽधिका, लोकेनापि ज्ञातम् । अहवा णातं आहरणं ति य एगहुँ, सर्ववृक्षाणामसौ दृष्टान्तभूता-अहो ! अयं शोभनो वृक्षः ज्ञायते सुदर्शना जम्बू कूडसामली वेति, कूडभूताऽसौ शाल्मली च, यस्यां रतिं वेदयंती [सुवण्णा ], शोभनानि एषां पर्णानि, पर्णमिति पिच्छस्याख्या, एवं ताव लोकसिद्ध्या, अस्माकं तु-शोभनवर्णा सुवर्णा, तत्थ वेणुदेवो वेणुदाली य वसंति, तयोहि तत् क्रीडास्थानम् । वणेसु या णंदणमाहु सिहं, नन्दन्ति तत्रेति नन्दनम् , सर्ववनानां हि नन्दनं विशिष्यते प्रमाणतः पत्रोपगाद्युपभोगतश्च । तथा 20 भगवानपि शीलेनानुत्तरज्ञानेन तु भृतिप्रज्ञः ॥ १८ ॥ ३६७. थणितं व सहाण अणुत्तरे तु, चंदे व ताराण महाणुभांगे। गंधेसु वो चंदणमाहु "से, सेटे मुणीणं अपडिण्णमाहु ॥ १९॥ ३६७. थणिते व सदाण अणुत्तरे तु. [ वृत्तम् ] । थणंतीति थणिताः, प्रावृट्काले हि सजलानां धनानां स्निग्धं गर्जितं भवति अभिनवशरद्धनानां च । उक्तं च-"सारतणिद्धथणितगंभीरघोसि"[ ]। चंदे व ताराण.25 महाणुभागे कण्ठ्यम् । चंदणं तु गोसीसचंदणं मलयोद्भवम् । सेहे मुणीणं अपडिण्णमाहु, श्रेष्ठो मुनीनां तु अप्रतिज्ञः । नास्येहलोकं परलोकं वा प्रति प्रतिज्ञा विद्यत इति अप्रतिज्ञः॥१९ ।। ३६८. जधा सयंभू उदधीण सेढे, णागेसु वा धैरणमाहु सेटं। "खोतोदएँ रसतो वेजयंते, तधोवहाणे मुणि वेजयंते ॥२०॥ १ "उत्पन्नज्ञानो भगवान् योगनिरोधकाले सूक्ष्मं काययोगं निरुन्धन् शुक्लध्यानस्य तृतीयं मेदं सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाताख्यं तथा निरुद्धयोगश्चतुर्थ शुक्ध्यानमेदं व्युपरतक्रियमनिवृत्ताख्यं ध्यायति" इति वृत्तिकाराः॥ २ अप्पेव चूसप्र० ॥ ३ अणुत्तरग्गं परमं महेसी, असेस कम्म स विसोहइत्ता । सिद्धि गति साइमणंत पत्ते, नाणेण सीलेण य दंसणेणं ॥ इतिरूपं सूत्रवृत्तं खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी । साइयणंत खं १॥४रुक्खेसु णाते जह सामली वा, जंसी खं १ खं २ पु १ पु२ वृ० दी । कूडसामली खं १ । रुक्खेसु णाता अदु कडसामली चूपा० [नि० गा०७६ चूर्णों ] ॥ ५ वेतयंती खं १ पु २। वेययती खं २ पु १॥६आ खं १ वा खं २॥७ सेट्रं खं २ सेटेख १ पु १ पु २॥८य खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥९°त्तरं तु, चंदु व्व पु २ वृ० दी० ॥१०°भावे खं २ पु १॥ २१ ता खं २ । या खं १ । आ पु २॥ १२ सेटे, सेटे मुखं १ पु २ । सेटे, एवं मुखं २ पु १ वृ० दी० ॥ १३ धरणेदमाहु सेटे खं १ खं २ पु २ वृ० दी। धरणिदे आहु सेतु पु १ ॥ १४ खोदोदए खं १ पु २॥ १५°ए वा रसवेज खं १ खं २ वृ० दी.॥ १६ तवोव खं १ पु १ पु २ वृ० दी । ततोव खं २॥ Jain Education Intemational Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [६महावीरत्थवज्झयणं ___३६८. जधा सयंभू उदघीण सेट्टे० वृत्तम् । स्वयम्भूरिति स्वयम्भूरमणः, स्वयं भवति स्वयम्भूः, तत्र रमन्त इति खयम्भूरमणः, उदकं दधातीति उदधिः, न तस्मादन्योऽधिकः । णागेसु वा धरणमाहु, न तेषां किञ्चिजलं थलं वा अगम्यमिति नाम । खोतोदए रसतो वेजयंते, खोतोदगं णाम उच्छुरसोदगस्य समुद्रस्य, अधवा इहापि इक्षुरसो मधुर एव, सम्वे रसे माधुर्येण विजयत इति वेजयन्तः । तधोवधाणे मुणि वेजयंते, तथेति तेन प्रकारेण, उपदधातीत्युपधानम् , 5 तपोपधानेन हि भगवान् सर्वतवोवधानतो विजयत इत्यतः वेजयन्तः, तपःसंयमोपधानं जं कुणति । मुनिरिति भगवानेव । विजयन्तो जयन्त इत्यर्थः ॥ २०॥ ३६९. हत्थीसु एरावणमाहु णाते, सीहो मिगाणं सलिलाण गंगा। पक्खीसु आ गरुले वेणुदेवे, जेव्वाणवादीणिह णातपुत्ते ॥ २१॥ . ३६९. हत्थीसु एरावणमाहु णाते. वृत्तम् । सर्वहस्तिभ्यो हि ऐरावणः प्रज्ञायतेऽधिकः, तेन चान्येषामुपमानं 10 क्रियते । सिंहस्तु मृगेभ्योऽधिको ज्ञायते । सलिलाभ्यो गङ्गा, सलिलवत्यः सलिलाः गाढगतो गच्छन्ति वा गङ्गा । पक्खीसु आ गरूले वेणुदेवे, लोकरूढोऽयं शब्दः-विनताया अपत्यं वैनतेयः । णेव्वाणवादीणिह णातपुत्ते श्रेष्ठ इति वर्त्तते ॥ २१ ॥ ३७०. जोधेसु णाते जध वीससेणे, पुप्फेसु वा अरविंदं वदंति । खत्तीण सेट्टे जध दंतवक्के, इसीण सेट्टे तध वद्धमाणे॥ २२॥ ३७०. जोधेसु णाते जध वीससेणे० वृत्तम् । युध्यत इति योधः, विश्वा-अनेकप्रकारा सेना यस्य स भवति 15 विश्वसेनः, हस्त्यश्व-रथ-पदात्याकुला विस्तीर्णा, स तु चक्रवर्ती, अथवा विष्वक्सेनः वासुदेवः । पुप्फेसु वा अरविंदं वदंति, अरविन्दमिति पद्मं सहस्रपत्रं शतसहस्रपत्रं वा, तद्धि वर्ण-गन्धादिभिः पुष्पगुणैरुपेतं न तथाऽन्यानि । खत्तीण सेट्रो क्षतात् त्रायन्त इति क्षत्रियाः। दम्यन्ते यस्य वाक्येन शत्रवः स भवति दान्तवाक्यः चकवर्ती, चक्रवर्त्तिनो हि शत्रवो वचसा दम्यन्ते, दान्तं वाक्यं यस्य स भवति दान्तवाक्यः। [किल्वा हि ] अनृत-पिशुन-पारुष-किल्वादिभिः वाक्यदोषैः संयुज्यते । उक्तं हि-"मित-मंजुल-पुलावहसित जाव सच्चवयणा" [ ] । इसीण सेटे तध बद्धमाणे ॥ २२ ॥ ३७१. दाणाण से, अभयप्पदाणं, सच्चेसु आ अणवज्जं वदंति। तवेसु आ उत्तम बंभचेरं, लोगुत्तमे भगवं णातपुत्ते ॥ २३ ॥ ३७१. दाणाण सेहूँ अभयप्पदाणं० वृत्तम् । दीयत इति दानम् । “जो देज मरंतस्सा धणकोडिं०" [ ___] गाधा । "राया वि मरणभीतो०” गाधा । [ ] अत्र वध्यचोरदृष्टान्तःजधा कोई राया चउहिं पत्तीहिं परिवितो पासादावलोअणे णगरमवलोयंतो अच्छति । एगो य चोरो रत्तं एगसाडगं परिहितो रत्तचंदणाणुलित्तगत्तो रत्तकणवीरकण्ठेगुणो वज्झयाणऽप्पितो वजंतवज्झपडहो बहुजणपरिकरितो अवउड्डयबंधेण बद्धो रायपुरिसेहिं पितुवणं जतो णिज्जति । ततो ताहिं राया भणितो-को एस ? त्ति । रायणा भणियं-एस चोरो वहणाय णीणिजत्ति । तत्थेगा भणति-महाराय ! तुब्भेहिं मम पुव्वं वरो दत्तो तं देह । रण्णा 'आम' ति पडिस्सुतं । ततो ताए सो चोरो चतुव्विघेणावि पहाणादिअलंकारेण अलंकितो। बितियाए सव्वकामगुणभोयणं भोयावितो। ततियाए से बहुधणं दिण्णं, भणितो य-जस्स ते रोयति तस्स देहि त्ति । चउत्था तुसिणीता अच्छति । राइणा भणिता-तुमं पि वरं वरेहि, जं एतस्स 30 दोदव्वं ति । सा भणति–णत्थि मे विभवो, जेण से पियं करेहामि त्ति । राइणा भणिता-णणु ते सव्वं रजं अहं च आयत्तो त्ति, तं जं ते रोयति तमेव तस्स देहि त्ति । ताए अभयो दत्तो पतिपितुणामं सादेतुं । तासिं चउण्ह वि कलहो जातो। एकेका भणति-मए बहुं दत्तं ति । राया भणति–एस चेव पुच्छिज्जतु । ततो सो पुच्छितो भणति-ण याणामि केण वि मे किंचि दत्तं, मुक्को यया मे अभयो दत्त इति । अतो दाणाण सेटं अभयप्पदाणमिति । १तेरावण खं २ पु १॥ २मिताणं खं १॥ ३ या खं १ ख २ पु १ पु २॥ ४णायउत्ते पु १॥ ५या जह अरविदमाहु खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ ६ कल्वा सं० वा० मो०॥ ७ या उत्तिम खं १ खं २ पु २ । ता खं २ । वा पु १॥ दत्तमे समणे णा खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ९ दातव्यम् ॥ 20 Jain Education Intemational Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ३६९-७५] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंघो। सच्चेसु आ अणवजं वदंति अनवद्यमिति यदन्येषामनुपरोधकृतं, सावधं हिंसेत्यपि गरहितं, कौशिकरिषिवत्लोगे वि पयरति सुती जध किर सच्चेण कोसिउ त्ति रिसी। णिरए णिराभिरामे पडितो वधसंपयुत्तेणं ॥१॥ अण्णं चतहेव काणं काणे त्ति पंडगं पंडगे त्ति वा । वाहियं वा वि रोगि त्ति तेणं चोरो त्ति णो वदे ॥१॥ [दशवै० म० ७ गा० १२] इत्यादि सत्यमपि गर्हितम् , किमेवंविधेण सत्येनापि यत् परेषां परितापनम् ? । तवेसु आ उत्तम बंभचेरं, येन तपोनिष्टप्तदेहस्यापि मोहनीयं भवति, तेन सर्वतपसां उत्तमं ब्रह्मचर्यम् । अन्ये त्वेवं सम्प्रतिपद्यन्ते एकरात्रोषितस्यापि या गतिर्ब्रह्मचारिणः । [न सा ऋतुसहस्रेण वक्तुं शक्या युधिष्ठिर ! ॥ १ ॥] तथा सर्वलोकोत्तमो भगवान् ।। २३ ॥ ३७२. ठितीण सिहा लवसत्तमा वा, सभा सुधम्मा व सभाण सेट्ठा। 10 णेव्वाणसिट्ठा जध सव्वधम्मा, ण णायपुत्ता परमत्थि णाणी ॥ २४ ॥ ३७२. ठितीण सिहा लवसत्तमा वा० वृत्तम् । जे सव्वुक्कोसियाए ठितीए वटुंति अणुत्तरोववातिगा ते लवसत्तमा इत्यपदिश्यन्ते, जति गं तेसिं देवाणं एवतियं कालं आउए पहुप्पंते तो केवलं पाविऊण सिझंता । पंचण्डं पि सभाणं सभा सुधम्मा विसिट्ठा, सा हि नित्यकालमेवोपभुज्यते, तत्थ माणवग-महिंदज्झय-पहरणकोसचोपाला, ण तधा इतरासु नित्यकालोपभोगः । णेव्वाणसिद्वा जध सव्वधम्मा, निव्वाणश्रेष्ठा हि सर्वधर्माः, निर्वाणफला निर्वाणप्रयोजना इत्यर्थः, कुप्रावचनिका 15 अपि हि निर्वाणमेव कान्ते इति । ण णातपुत्ता परमत्थि णाणी, जधा वा एते भाव( ? भव)लोकश्रेष्ठा अणुत्तराः एवं ज्ञातपुत्रान्न परोऽस्ति कश्चित् ज्ञानी, स एव सर्वज्ञानिभ्योऽधिकः ॥ २४ ॥ स एव भगवान् सर्वलोकेऽपि भूत्वा ३७३. पुढोवमे धुणती विगयगेधी, ण सैण्णिहिं कुव्वति आसुपण्णे। तरित्ता समुई व महाभवोघं, अभयंकरे वीरे अणंतचक्खू ॥ २५॥ ३७३. पुढोवमे धुणती विगयगेधी० वृत्तम् । जधा पुढवी सव्वफाससहा तधा सो वि धुणीते अष्टप्रकारं कर्मेति 20 वाक्यशेषः । बाह्या-ऽऽभ्यन्तरेषु वस्तुषु विगता यस्य प्रेधी स भवति विगतग्रेधी। सन्निधानं सन्निधिः, द्रव्ये आहारादीनाम्, भावे क्रोधादीनाम् । कर्म वा सन्निधिः, यत् साम्परायिकं बनातीत्यर्थः । तरित्ता समुह व महाभवोघं, यथा तीर्वा समुद्रं कश्चिन्निर्भयो भवति, एवं स भगवान् कर्मसमुद्रोत्तीर्ण इति । अभयं करोतीति अभयङ्करः, केषाम् ?, सत्त्वानाम् । विराजयति विदालयतीति वा वीरः । अणंतचक्खुरिति अनन्तदर्शनवान् ॥ २५ ॥ ३७४. कोधं च माणं च तधेव मायं, लोभं चतुत्थं अज्झत्थदोसाँ। 25 एताणि चत्ता अरहा महेसी, ण कुव्वती पाँव ण कारवेइ ॥ २६ ॥ ३७४. को च माणं च तधेव मायं० वृत्तम् । आध्यात्मिका ह्येते दोषाः, बाह्या गृहादयः । एताणि चत्ता अरहा महेसी, एते जे उहिट्ठा, चत्ता णाम उज्झित्वा क्षपयित्वेत्यर्थः, अर्हतीत्यर्हा, महांश्चासौ रिषिः । हिंसादि साम्परायिकं वा करोति न कारयत इति ।। २६ ॥ किश्च३७५. 'किरियं अकिरियं वेणइगाणुवातं, अण्णाणियाणं पडियच्च ठाणं । 30 से सव्ववादं इध वेदइत्ता, उवद्रिते सम्म स दीहरायं ॥ २७॥ १णाणं खं १ पु २ वृ० दी. ॥ २ धुणति खं १ खं २ ॥ ३ सन्निही खं २ पु १॥ ४ तरितुं स खं १ खं २ पु २ । तरिक्त पु १॥५°दोसं खं २ पु १॥ ६वंता खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ७ पावं खं १ खं २ पु १ पु २॥ ८ किरिया-ऽकिरियं खं १ ख २ पु १ पु २. वृ० दी. ॥ ९ से सव्ववायं इति वेयइत्ता, उवट्टिए संजम दीहरायं पु १ वृ. दी। ट्रिए धम्म स दीह खं १३२ । ट्ठिए सम्म स दीह खं २॥ Jain Education Intemational Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [६महावीरस्थवज्झयणं ३७५. किरियं अकिरियं वेणइगाणुवातं. वृत्तम् । एतेषां वादिनामुपरिष्टात् कांश्चिद् विशेषान वक्ष्यामः । दुवालसंगं गणिपिडगं वादो, सेसाणि तिण्णि तिसट्ठाणि अणुवादो, थोवं वा अणुवादो। स सव्ववादं इध वेदहत्ता, स इति स भगवान्, सर्वे वादाः सर्ववादाः, इह अस्मिल्लोके वेदयित्वा ज्ञात्वेत्यर्थः । उवहिते सम्म स दीहरायं, उपस्थितो मोक्षाय सम्यगुपस्थितः, न तु यथाऽन्ये । उक्तं हि यथा परे सङ्कथिका विदग्धाः, शास्त्राणि कृत्वा लघुतामुपेताः । शिष्यैरनुज्ञामलिनोपचारैर्वक्तृत्वदोषास्त्वयि ते न सन्ति ॥ १॥ [सिद्ध० द्वा० ५ श्लो० २७ ] दीहरातं णाम जावजीवाए ॥ २७ ॥ ३७६. से वारिया इत्थि सराइभत्तं, उवहाणवं दुक्खखय?याए। लोगं विदित्ता अपरं परं च, सव्वं पभू वारिय सव्ववारी ॥ २८॥ 10 ३७६. स वारिया इत्थि सराइभत्तं० [वृत्तम् ] । वारिया णाम वारयित्वा, प्रतिषेध्यते च । इत्थिग्रहणे तु मैथुनं गृह्यते। सराइभत्ते त्ति वारयित्वेति वर्त्तते, एतच्चाऽऽत्मनि वारयित्वा, न ह्यस्थितः स्थापयतीति कृत्वा, पश्चात् शिष्यान् वारितवान्, अद्वितो ण ठवेति परं । उपधानवानिति न केवलं निरुद्धाश्रवः, पूर्वकर्मक्षयाथं तपोपधानवानप्यसौ अतः । स्यात्-किंनिमित्तं तवोवधानवानासीत् ?, उच्यते-दुक्खक्खयत्थं। लोगं विदित्ता अपरं परं च, अपरो लोको मनुष्यलोकः, परस्तु नरक-तिर्यगदेवलोकः, यत्स्वभावावेतौ लोकौ यैश्च कर्मभिः प्राप्यते इति । सव्वं पभू वारिय, प्रभवतीति प्रभुः, [वारिय ] वशयित्वे15त्यर्थः। अधवा सव्वं पाणादिवादाति दुव्वतो, प्रभुः ज्ञेयं प्रति, प्रधानत्वाच्च वारितवान् शिष्यान् हिंसा-ऽनृत-स्तेय-परिग्रहेभ्य इति, मैथुन-रात्रिभक्ते तु पूर्वोक्ते । सर्वस्मादकृत्यादात्मानं शिष्यांश्च वारितवानिति सर्ववारी, सर्ववारणशील इत्यर्थः ॥ २८ ॥ इदानीं सुधर्मा तीर्थकरगुणान् कथयित्वा श्रोतनाह३७७. सोचा य धम्मं अरहंतभासितं, समाहितं अट्ठपदोवसुद्धं । तं सद्दहंताऽऽय जणा अणाऊ, इंदा व देवाधिव आगमिस्से ॥ २९ ॥ त्ति बेमि॥ ॥ महावीरत्थतो सम्मत्तो ॥६॥ ३७७. सोचा य धम्मं अरहंतभासियं० वृत्तम् । श्रुत्वेति निशम्य। इमं धम्ममिति योऽयं कथितः अर्थतो वा भाषित: गणधराणामित्यर्थः । सम्यग् आहितः समाहितः, सम्यगाख्यात इत्यर्थः । अत्थवंति पदानि, अथवाऽर्थेश्च पदैश्च उपेत्य शुद्धम् । तं सद्दहंताज्य, तमिति योऽयमुपदिष्टः, श्रुत्वा श्रद्धानपूर्वकमादाय, आदाय नाम गृहीत्वा च कृत्वा च जना नाम बहवो जनाः अनायुषः संवृत्ता इति वाक्यशेषः, सिज्झन्तीत्यर्थः । जे तुण सिझंति ते इंदा भवंति देवाधिपतयः आग25 मिष्यति आगमिस्सेण भवेण सुकुलुप्पत्तीए सिज्झिस्संति ॥ २९ ॥ ॥ महावीरस्तवाध्ययनं षष्ठं समाप्तम् ॥६॥ 20 १ यथा परे लोकमुखप्रियाणि इतिरूपं चरणं द्वात्रिंशिकायां दृश्यते । यथा परेषां कथिका विदग्धाः वृत्तौ ॥ २ से खं २ पु १ वृ० दी॥ ३ रायिम खं १। रायम खं २ पु१॥ ४ टुताते खं २ पु १॥ ५आरं पारं खं २ वृपा० । आरं परं खं १ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ६ वारं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ७°प्यसावसावत स्यात् चूसप्र०॥ ८सहहाणा य सा० दी । सहहंता य खं १ खं २॥ ९ अणायू, यंदा खं १॥ १० आगमिस्संति ॥ त्ति बेमि खं २ पु १३० दी । आगमेस ॥त्ति बेमि खं १ । आगमिस्सं ॥ ति बेमि पु२॥ ११ मिष्यतेति चूसप्र० ॥ Jain Education Intemational Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ३७६-७७ णिज्जुत्तिगा० ७९-८२] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। ५२ [सप्तमं कुसीलपरिभासियज्झयणं ] - 00000000इदानी कुशीलपरिभासितं ति जत्थ कुसीला सुसीला य परिभासिज्जति । कुसीला-गिहत्था अण्णउत्थिगा य पासत्थादिणो य तेषां कुत्सितानि शीलानि अनुमत-कारितादीणि परिभासिज्जंति, जधा य संसारं परिभमंति । तस्सिमाणि चत्तारि अणुयोगद्दाराणि । पुव्वाणुपुव्वीए सत्तमं । अत्याधिगारो [सुसीलाणं कुसीलाणं च सब्भावं जाणित्ता कुत्सिता कुत्सितसीलाई 5 असीलाइं च वज्जेतव्वाई, जे य तेसु वटुंति ते वज्जेतव्वा ॥ णामणिप्फण्णे सीलं ति एगपदं णामं ति, तत्थ गाधा * सीले चतुक्क दब्बे पाउरणा-ऽऽभरण-भोयणादीसु।। __भावे तु ओघसीलं अभिक्खआसेवणा चेव ॥१॥ ७९ ॥ सीलं णामादि चतुव्विधं । णाम-ट्ठवणाओ गताओ। व्वे वतिरित्तं दव्वसीलो यथा-प्रावरणसीलो देवदत्तः प्रलम्बप्रावरणशीलो वा, तथा नित्यभूषणशीलः । नित्यमण्डनशीला ते भार्या, अपि च चोद्यतेऽशीलवती वा। तथा नित्यभोजनशीलोऽसि, 10 तथा मृष्टभोजनशीलो न चोपार्जनशीलोऽसि । यो वा यस्य द्रव्यस्य स्वभावः तद् द्रव्यं तच्छीलं भवति, यथा-मदनशीला मदिरा, मेध्यं घृतं सुकुमारं चेत्यादि । भावशीलं दुविधं, तं०-ओहसीलं अभिक्खासेवणसीलं च ॥ १॥ ७९ ॥ तत्थ ओहसीलं ओघे विरती सीलं विरताविरती य अविरति असीलं । धम्मे णाण-तवादी अपसत्थ अधम्म कोधादी॥२॥८॥ 15 ओघे विरती सीलं० गाधा। ओहो णाम अविसेसो, जधा सव्वसावजजोगविरतो विरताविरतो का, एयं ताव पसत्थं ओहसीलं । अप्पसत्थं ओहसीलं तु तद्विधर्मिणी अविरतिः सर्वसावधप्रवृत्तिरिति । अधवा भावसीलं दुविधं-पसत्थं अप्पसत्थं च । एक्ककं दुविधं-ओहसीलं अभिक्खासेवणसीलं च । प्रशस्तौघशीलो धर्मशीलो । अभिक्खासेवणाए णाणसीलो तवसीलो। णाणे पंचविधे सज्झाए उवयुत्तो, अभिक्खणं अभिक्खणं गहण-वत्तणाए अप्पाणं भावेति एस णाणसीलो । तवसीलो तवेसु आतावण-अणसणादिकरणसीलो। एवं दुविधे वित्थरेणं जोएतव्वमिति । अप्पसत्थभावओ ओहसीलो पावसीलो 20 उड्डसीलो एवमादि । अप्पसत्थअभिक्ख[ आसेवणा ]भावसीलो कोधसीलो जाव लोभसीलो चोरणसीलो पियणसीलो पिसुणसीलो परोवतावणसीलो कलहसीलो इत्यादि ॥२॥ ८ ॥ अथ कस्मात् कुसीलपरिभाषितमित्यपदिश्यते ?, उच्यते, जेण एत्थ परिभासिता कुसीला य एत्थ जावंति अविरता केयं । सु त्ति पसंसा सुद्धे हुँ ति दुगुंछा अपरिसुद्धे ॥ ३ ॥ ८१॥ परिभासिता कुसीला० गाधा । येनेह सपक्खे परपक्खे य कुसीला परिभासिता । सपक्खे पासत्थादि, परपक्खे अण्णउत्थिया । जावंति अविरता केय त्ति, सव्वे गिहत्था असीला एव । सु त्ति पसंसा सुद्धे, सुरिति प्रशंसायां निपात इति, यः शुद्धशील इत्यपदिश्यते । दुः कुत्सायाम् , अशुद्धशीलो दुःशील इत्यपदिश्यते ॥ ३ ॥ ८१ ॥ कथं कुसीला ? अप्फासुयपडिसेवी य णाम भुजो य सीलवादी य । फासुं वदंति सीलं अफासुगा मो अभुजंता ॥४॥८२॥ १°लपसितसितं ति चूसप्र० ॥ २ सील चउक्कं दवे खं १ ख २ पु २॥ ३°क्खमासे खं २ पु २॥ ४ ओघे सीलं विरती खं १ । ओहे सीलं विरती खं २ पु २ वृ०॥ ५कोहाई ख १ खं २॥ ६ केति खं २ पु २ । केई ख १॥ ७ कुत्ति खं १ ख २ पु २ वृ०॥ Jain Education Interational Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति चुण्णिसमलंकियं [७ कुसीलपरिभासियज्झयणं अप्फासुयपडिसेवी य० गाधा । जे अफासुयं कय-कारियं अणुमतं वा भुंजंति ते यद्यपि ऊर्ध्वपादा अधोमुखा धूमं पिबन्ति मासान्तश्च भुञ्जते तधा वि कुसीला एव, जे अफासुगाई आहारोवधिमादीणि पडिसेवंति असंजता असंयमरता । [उक्तं च-] अणगारवादिणो पुढविहिंसगा णिग्गुणा अगारिसमा । णिहोस त्ति य मइला साधुपदोसेण मइलतरा ॥ १ ॥ [आचा०नि० गा.१०.] फासु वदंति सीलं, जे संजमाणुपरोघेण फासुयं भुंजंति अफासुयं परिहरंता ते फासुभोअणसीला इत्यपदिश्यन्ते ॥४॥८२।। जे पुण ते अफासुयगभोई असीला कुसीला य ते इमे जह णाम गोतमा रंडदेवता वारिभद्दगा चेव । जे अग्गिहोमवादी जलसोयं केइ (? जे इ) इच्छंति ॥ ५॥ ८३ ॥ ॥कुसीलपरिभासा ॥७॥ जह णाम गोतमा रंडदेवता० गाधा । गोतमा णाम पासंडिणो मसगजातीया, ते हि गोणं णाणाविधेहि उवाएहिं दमिऊण गोणपोतगेण सह गिहे गिहे धण्णं ओहारेंता हिंडंति । गोव्वतिगा वि धीयारमाया एव, ते च गोणा इव णत्थितेल्लगा रंभायमाणा गिहे गिहे सुप्पेहि गहितेहि धणं ओहारेमाणा विहरति । अवरे रंडदेवगावरप्राया । वारिभद्रगा प्रायेण जलसक्का हत्थ-पादपक्खालणरता ण्हायंता य आयमंता य संझातिसु तिसु य जलणिबुड्डा अछंपरिग्गायवादि । अण्णे 16 अग्निहोमवादी तावसा धीयारायारा अग्निहोत्तेण सग्गं इच्छंति । जलसोयं केड (१ जेड) इच्छति. भागवत-दगसोयरियादि तिणि तिसहा पावादिगसता, जे य सलिंगपडिवण्णा कुसीला अफासुयगपडिसेवी ॥५॥८३ ।। गतो णामणिप्फण्णो । सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारेतव्वं जाव "पंचधा विद्धि लक्खणं" [कल्पभाष्यगाथा ३०२] ति इदं सूत्रम् ३७८. पुढवी य आऊ अगणी य वायू, तण-रुक्ख-बीयाँ य तसा य पाणा। 20 जे अंडया जे य जरायु पाणा, संसेयया जे रसयाभिहाणा ॥१॥ कीय आऊ अगणी य वाय तण-रुक्ख-बीया य तसा य पाणा० | वृत्तम् । तण-रुक्ख-बीय त्ति वणस्सतिकायभेदो गहितो। एकेको द्विविधो-[अबीजाद् ] बीजाद्वा प्रसूतिः । पच्छाणुपुव्वी वा गहिया, जधा वणस्सतिकाइयाण भेदा तधा पुढविमादीण वि भेदो भाणितव्वो। तं जधा-"पुढवी य सक्करा वालुगा य०" [प्रज्ञा० पद १ सू २२ गा. ८ तथा आचा०नि० गा० ७३ ] एवं सेसाण वि भेदा भाणितव्वा । तसकाइयाणं तु इमो भेदो सुत्ताभिहित एव, तं०28 अंडया जेय जराय पाणा, अण्डेभ्यो जाता अण्डजाः पक्ष्यादयः, जरायुजा णाम जरावेढिया जायंते गो-महिष्य जा-ऽविका-मनुष्यादयः । संस्वेदजाः गोकरीषादिषु कृमि-मक्षिकादयो जायन्ते जूगा-मंकुण-लिक्खादयो य । रसजा दधिसोवीरक-मद्यादिषु रसजा इत्यभिधानं जेसिं रसजा इत्यभिधानं( ? ना) वा ॥१॥ ३७९. एताई कायाइं पवेदिताई, एतेसु जाणं पडिलेह सायं । एतेसु काएसु तु आतदंडे, पुणो पुणो विप्परियासुवेति ॥२॥ 30 ३७९. एताई कायाई पवेदिताई. वृत्तम् । एतानि यान्युद्दिष्टानि कायविधानानि प्रवेदितानीति प्रदर्शितानि अर्हद्भिः । एतेसु जाणं एतेष्विति ये उक्ताः, जानन्निति जानकः, प्रत्युपेक्ष्य सातं सुखमित्यर्थः । कधं पडिलेहेति ?-जध ३७.५७ना १'ला विरहदगंछाइम आचाराङ्गनियुक्ती पाठः ॥ २चंडिदेवगा वा खं १ खं २ पु२ वृ०॥ ३होत्तवा खं १ खं २ प२०॥४जेय इच्छंति खं १ खं २ पु २ वृ०॥ ५ ते वि गोणा इवाणत्थि पु० सं० ॥ ६"चंडिदेवय' त्ति चक्रधरप्रायाः" इति वत्तिकतः॥७सडनन्तिसु तिसु य जलणिबुड़ा अच्छति परिवायगादि मु०॥८बीता त तसा खं २ पु १॥९रसताभिधाणा खं१॥ १०जाण खं १ जाणे खं २ पु १ पु २॥ ११ एतेहि कापहि य आतदंडे, पतेस या विप्परियासवेंति खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी । एतेण कारण य सा० । ग्यासुवेदी खं १॥ Jain Education Intemational Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ सुत्तगा० ३७८-८१ णिजत्तिगा०८३] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। मम न पियं दुक्खं सुहं चेहूँ एवमेषां पडिलेहित्ता दुःखमेषां न कार्य णवएण भेदेण । जे पुण एतेसु काएसु तु आतदंडे, यः कुशीलः अशीलो वा एषां कायानां आताओ दंडेत्ति, अथवा स एवाऽऽत्मानं दण्डयति य एषां दंडे णिसिरति स आत्मदण्डः । एतेष्वेव पुनः पुनः विप्परियासुवेति, विपर्यासो नाम जन्म-मरणे, संसारो वा विपर्यासो भवति । अथवा सुखार्थी तानारभ्य तानेवानुप्रविश्य तानि तानि दुःखान्यवाप्नुते, सुखविपर्यासभूतं दुःखमवाप्नोति । विपरीतो भावो विपर्यासः, धर्मार्थी तानारभ्याधर्ममाप्नोति, मोक्षार्थी तानारभमाणः संसारमाप्नोति ॥ २ ॥ एवं सो अविरतो लोगो अव्रतलोकः कुशीललोकाद् मनुष्यलोकात् प्रच्युतः तानेव कायान प्राप्य३८०. जाई-वहं अणुपरियमाणे, तस-थावरेसुं विणिग्यातमेति । से जातिजाति बहुकूरकम्मे, जं कुव्वती मिजति तेण बाले ॥ ३ ॥ ३८०. जाई-वहं अणुपरियट्टमाणे० वृत्तम् । जातिश्च वधश्च जाति-वधौ, जन्म-मरणे इत्युक्तं भवति । समन्ताद् वर्त्तते [अनुपरिवर्त्तते । ते पुण छ वि काया समासओ दुविहा भवंति, तं जधा-तसा थावरा य । थावरा तिविहा-पुढवी 10 आऊ वणस्सई । तसा तिविहा-तेऊ वाऊ उराला य तसा । तेसु तस-थावरेसुं विणिग्धातमेति, अधिको णियतो वा घातः निघातः, विविधो वा घातः शारीर-मानसा दुःखोदया अट्ठपगारकम्मफलविवागो वा । से जातिजाती परियट्टमाणे, से इति स कुसीललोकः, जातिजातीति वीप्सार्थः, तासु तासु जातिसु त्ति तस-थावरजातिसु अणुसंचरं कूराणि हिंसादीणि कम्माणि बहूनि अस्य सः । कूरकम्मो वि बहुआरंभो वि हूँ भंगा। यद् यदकरोत् तेन तेन कर्मणा मीयते, "मी हिंसायां" वा, मार्यत इत्यर्थः, गण्यत इत्यर्थः, “मजते" वा निमज्जइत्यर्थः ॥ ३ ॥ भावमन्दस्तु कुशीललोको गहितो, गिही पासंडी वा यत् पापं करोति तत् किमिह वि(वे)द्यते ?, अनेकान्तः३८१. अस्सिं च लोगे अदु वा पैरत्थ, सतग्गसो वा तह अण्णहा वा। संसारमावण्ण परंपरेण, बंधति वेदेति य दुण्णिताई ॥४॥ ३८१. अस्सि च लोगे अदु वा परत्थ० वृत्तम् । कधं ?, ईंधलोगे दुच्चिण्णा कम्मा इहलोगे असुभफलविवागा १ इहलोए दुच्चिण्णा कम्मा परलोए असुभफलविवागा २ परलोके दुच्चिण्णा कम्मा इहलोगे असुभफलविवागा ३ परलोए 20 दुचिण्णा कम्मा परलोए असुभफलविवागा ४ । कथम् ?, उच्यते-केनचित् कस्यचिद् इहलोके शिरश्छिन्नं तस्याप्यन्येन छिन्नं एवं इहलोगे कतं इहलोगे च फलति १, णरगाइसु उववण्णस्स [इहलोगे कतं परलोगे फलति] २, परलोए कतं इहलोए फलति, जधा दुहविवागेसु मियापुत्तस्स ३ परलोए कतं परलोए फलति, दीहकालट्ठितीयं कम्मं अण्णम्मि भवे उदिज्जति ४ । अथवा इहलोक इह चारकबन्धः अनेकैर्यातनाविशेषैः तद् वेदयति, तदन्यथावेदितं कस्यचित् परलोके तेन वा प्रकारेण अन्येन वा प्रकारेण विपाको भवति । तथाविपाकस्तथैवास्य शिरश्छिद्यते, तत् पुनरनन्तशः सहस्रशो वा, अथवा असकृत्तथा 25 सकृदन्यथा, अथवा शतशश्छिद्यते अन्यथेति सहस्से वा । अथवा शिरश्छित्त्वा न शिरश्छेदमवाप्नोति हस्तच्छेदं पादच्छेद वा अन्यतराङ्गछेदं वा प्राप्नोति, सारीर-माणसेण वा दुक्खेण वेद्यते । एवं यादृशं दुःखमात्रं परस्योत्पादयति ततो मात्रतः शतशोमात्राधिकत्वं प्राप्नोति अन्यथा वा । तएवं कुशीला संसारमावण्ण परंपरेणसंसारसागरगता इत्यर्थः, परंपरेणेति परभवे, ततश्च परतरभवे, एवं जाव अणंतेसु भवेसु बंधति वेदेति य दुण्णिताइं दुष्टु नीतानि दुर्नीतानि कुत्सितानि वा नीतानि कर्माणीत्यर्थः॥४॥ 30 15 १ जाईपहं पु १ पु २ वृ० । जाईवहं खं १ ख २ दी० वृपा०॥ २°थावरेहिं खं १ खं २ पु १ पु २॥ ३ मज्जते चूपा॥ ४ङ्क इति चतुःसंख्याद्योतकोऽक्षराङ्कः ॥ ५परत्था खं १ पु १। पुरत्था खं २ पु २॥ ६ अण्णधा ख २ पु १॥ ७ परं परं ते, बं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ८ एतदर्थकं सूत्रं स्थानाङ्गे चतुर्थस्थाने द्वितीयोद्देशके सूत्र २८२ पत्र २१०-१॥ ९ तस्याप्यनेन पु० । तस्यापत्येन वा० मो०॥ १०°धिगत्वं वा० मो०॥ सूय० सु० २० Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ णिज्जुत्ति- सुण्णिसमलंकिय [ ७ कुसीलपरिभासियज्झयणं एवं ताव ओहतः उक्ताः कुशीला गृहिणः प्रव्रजिताश्चेति । इदानीं पाषण्डलोककुशीलाः परामृश्यन्ते । तद्यथा ३८२. जे मातरं च पितरं च हेचा, समणठेवर अगणिं समारभेज्जा । trisse से लोगे अणज्जधम्मे, भूताइं जे हिंसति आतसाते ॥ ५॥ ३८२. जे मातरं च पितरं च हेच्चा० वृत्तम् । जे इति अणिद्दिट्ठणिसो । एते हि करुणानि कुर्वाणा दुस्त्यजा B इत्येतद्ग्रहणम्, शेषा हि भ्रातृ-भार्या पुत्रादयः सम्बन्धात् पश्चाद् भवन्ति न भवन्ति वा इत्यतो माता- पितृग्रहणम् । चग्रहणाद् भ्रातृ-भगिनी जाव सयण - संगंथ संथवो थावर-जंगमरज्जं च जाव दाणं दाइयाणं परिभाएता, तेसु च जं ममन्तं तं हेच्चा, हेच्चा नाम हित्वा श्रमणत्रतिनः श्रमण इति वा वदन्ति अग्निं चाऽऽरभन्ते नवकस्यान्यतमेन अन्यतमाभ्यां अन्यतमैर्वा । अथाssह से लोगे अणजधम्मे, अथ नाऽऽनन्तर्यादिषु । आहेति उक्तवान् । स इति स भगवान् । लोकः पाषण्डिलोकः अथवा सर्वलोक एव । अनार्जवो धर्मो यस्य सोऽयं अणजधम्मे । कथं अनार्जवः ? अहिंसक इति चात्मानं 10 ब्रुवते न चाहिंसकः । कथं समारभन्ते ? पानितापादिभिः प्रकारैः पाकनिमित्तं च भूताइं जे हिंसति आतसाते, भूतानीति अग्निभूतानि यानि चान्यानि अग्निना वध्यन्ते, आत्मसातनिमित्तं आत्मसातम् । तद्यथा - तपन - वितापन - प्रकाशहेतुम् ॥ ५ ॥ ३८३. उज्जालिया पाण तिवातयंति, णिव्वाविया अगणि निपातएज्जा । तम्हा तु मेधावि समिक्ख धम्मं, ण पंडिए अगणि समारभेज्जा ॥ ६ ॥ ३८३. उज्जालिया पाण तिवातयंति, णिव्वाविया अगणि निपातएञ्जा ० [ वृत्तम् ] | उज्जालयन्तस्ते पृथिव्यादीन् 15 प्राणान् त्रिपातयन्ति त्रिभ्यः मनो-वाकू-कायेभ्यः पातयन्ति त्रिपातयन्ति, आयुर्बलेन्द्रियप्राणेभ्यो वा पातयन्ति त्रिपातयन्ति । उक्तं च-तण-कट्ठ- गोमयसिता ० [ ] । णिव्वाविया अगणिमेव निपातयंति । उक्तं हि - "दो भंते ! पुरिसा अण्णमणेण सद्धिं अगणिकायं समारभंति, तत्थ णं एगे पुरिसे अगणिकार्य उज्जालेति एगे पुरिसे अगणिकायं णिव्ववेति, तेसि णं भंते! पुरिसाणं कतरे पुरिसे महाकम्मतराए ? कतरे वा पुरिसे अप्पकम्मतराए ? गोतमा ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेति से णं पुरिसे महाकम्मतराए, तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं णिव्ववेति से पुरिसे अप्पकम्मतराए । 20 से केणद्वेणं० १, गोतमा ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेति से णं पुरिसे बहुतरागं पुढविकायं [ समारभति आउ० ] वायु ० वणस्सतिकायं ० तसकायं ० अप्पतरागं अगणिकायं समारभति, तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं णिव्ववेति सेणं पुरिसे अप्पतरागं पुढविकायं समारभति जाव अप्पतरागं तसकायं समारभति बहुतरागं अगणिकायं समारभति से तेणद्वेणं गोतमा ! एवं वुञ्चति ० ।” [ भग० श० ७ उ० १० सू० ३०७ पत्र ३२६-२ ] अपि चोक्तम् १ वा खं २१ ॥ २ व्वदे खं २ पु १ पु २ ॥ ३ अहाऽऽहु से लोए कुसीलधम्मे खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० । अदाहु खं २ | लोते खं २ पु १ ॥ ४ प्रज्ञयादिषु चूसप्र० ॥ ५ च भूयाई० वृत्तम् भूताइं चूसप्र० ॥ ६ उजालओ पाण निवात'एज्जा, निव्वावओ अगणि निवायवेज्जा खं १ ख २ पु१ पु २ वृ० दी० । पाण तिवा खं २ पु १ पु २ नृपा० ॥ ७ तम्हा दुवे वा विखं १ ॥ ८ “दो भंते ! पुरिसा सरिसया जाव सरिसभंड-मत्तोवगरणा अन्नमन्त्रेण सद्धिं अगणिकार्य समारंभंति तत्थ णं एगे पुरिसे अगणिकार्य उजालेति एगे पुरिसे अगणिकायं णिव्वावेति, एएसि णं भंते ! दोन्हं पुरिसाणं कयरे पुरिसे महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चेव महासवतराए चेव महावेयणतराए चेव ? कयरे वा पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव जाव अप्पवेयणतराए चेव ? जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ ? जे वा से पुरिसे अगणिकार्य निव्वावेति ? कालोदाई ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकार्य उज्जाले से णं पुरिसे महाकम्मतराए चेव जाव महावेयणतराए चेव, तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकार्यं निव्वावेइ से णं पुरिसे अप्पकम्मतराए चैव जाव अप्पवेयणतराए चेव । से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ तत्थ णं जे से पुरिसे जाव अपवेयणतराए चेव ? कालोदाई ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ से णं पुरिसे बहुतरागं पुढविकायं समारंभति बहुतरागं आउकार्य समारंभति अप्पतरायं तेउकायं समारंभति बहुतरागं वाउकार्य समारंभति बहुतरायं वणस्सइकार्य समारंभति बहुतरागं तसकार्य समारंभति, तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकार्य निव्वावेति से णं पुरिसे अप्पतरायं पुढविक्कायं समारंभइ अप्पतरागं आउक्कायं समारंभइ बहुतरागं तेउक्कायं समारंभइ अप्पतरागं वाउक्कायं समारंभइ अप्पतरागं वणस्सइकायं समारंभइ अप्पतरागं तसकायं समारंभति से तेणद्वेणं कालोदाई ! जाव अप्पवेयणतराए चेव । सूत्रं ३०७ ।" इतिरूपः सूत्रपाठो भगवत्यां वर्त्तते ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलगा० ३८२-८६] सूयगडंगसुतं बिइयभंगं पढमो सुयक्खंधो। भूताण एस आघातो, हव्ववाहो ण संसयो । [ दशवै० अ० ६ गा० ३५] I यस्माच्चैवम् तम्हा तु मेधावि समिक्ख धम्मं ण पंडिए अगणि समारभेजा कण्ठ्यम् । तु विसेसणे । अहंधम्मं समीक्ष्य समारम्भो हि तपन - वितापन - प्रकाशहेतुर्वा स्यात् ॥ ६ ॥ कतरान् जीवानाघातयन्ति यस्याऽऽरम्भप्रवृत्ताः कुसीलाः ? उच्यते-— ३८४. पुढवी वि जीवा आऊ वि जीवा, पाणा ये संपातिम संपतंति । संसदया कसमस्सिता य, एते दहे अगणि समारभंते ॥ ७ ॥ ३८४. पुढवी वि जीवा आऊ वि जीवा ० वृत्तम् । अपिः पदार्थसम्भावने । पुढवी जीवसंज्ञिताः, ये च तदाश्रिताः वनस्पति-त्रसादयः । एवं आऊ वि, तदाश्रिताः प्राणाश्च सम्पतन्तीति सम्पातिनः शलभ- वाय्वादयः । संसेदया कडूसमस्सिता य, संस्वेदजाः करीषादिष्विन्धनेषु, काष्ठेषु घुण-पिपीलिकाण्डादयः । एते दहे अगणि समारभते ॥ ७ ॥ एवं तावदनिहोत्राद्यारम्भात् तापसाद्याः अपदिष्टाः, पाकानिवृत्ताश्च शाक्यादयः । इदानीं ते चान्ये च वणस्सति- 10 समारम्भान्विताः परामृश्यन्ते— ३८५. हरिताणि भूताणि विलंबगाणि आहारदेही य पुढो सिताणि । जो छिंदति आतसातं पडुच्च, पागभिपण्णो बहुणं निवाती ॥ ८ ॥ १५५ ३८५. हरिताणि भूताणि विलंबगाणि० वृत्तम् । हरितग्रहणात् सर्व एव वनस्पतिकाया गृह्यन्ते, नीला हरिताभा आर्द्रा इत्यर्थः, हरितादयो वा वनस्पतयः । भूतानि जङ्गमानि । विलम्बयन्तीति विलम्बकानि, भूतस्वभावं भूताकृतिं दर्श- 15 यन्तीत्यर्थः । तद्यथा - मनुष्ये निषेक-कलला डर्बुद-पेशि-व्यूह-गर्भ-प्रसव- बाल - कौमार - यौवन-मध्यम- स्थानिर्याम्तो मनुष्यो भवति । एवं हरितान्यपि शाल्यादीनि जातानि अभिनवानि सस्यानीत्यपदिश्यन्ते, सञ्जातरसाणि यौवनवन्ति, परिपक्कानि जीर्णानि, परिशुष्कानि मृतानीति । तथा वृक्षः अङ्कुरावस्थो जात इत्यपदिश्यते, ततश्च मूल-स्कन्ध-शाखादिभिर्विशेषैः परिवर्द्धमानः पोतक इत्यपदिश्यते, ततो युवा मध्यमो जीर्णो मृतश्वान्ते स इति । एवं भूतविलम्बितं कुर्वन्ति । कारणेन कार्यवदुपचारात्, आहारमया हि देहा देहिनाम्, अन्नं वै प्राणाः, आहाराभावे हि वृक्षा हीयन्ते म्लायन्ते शुष्यन्ते च मन्दफलाश्चाफला 20 भवन्ति । पुढो सिताणि पृथक् पृथक् श्रितानि, न तु य एव मूले त एव स्कन्धे, केषाश्विदेकजीवो वृक्षः तद्व्युदासार्थं पुढो - सिताइं ति । तान्येवम्–संखेज्जजीविताणि [ असंखेज्जजीविताणि ] अणंतजीविताणि वा । जो छिंदति आतसातं पडुच्च, आत्म-परोभयसुह-दुःखहेतुं वा आहार सयणा - SSसणादिउवभोगत्थं । प्रागभिप्राज्ञो नाम निरनुक्रोशमतिः, उपकरणद्रव्यायेतानि । बहुणं निवाति त्ति एगमपि छिन्दन् बहून् जीवान् निपातयति, एगपुढवीए अणेगा जीवा ॥ ८ ॥ किच 1 ३८६. जाइं च वुद्धिं च विणासयंते, बीयादि अस्संजय आतदंडे | अधrssहु से लोएं अणज्जधम्मे, "बीयादि जे हिंसति आतसाते ॥ ९॥ १ प्रवृत्तं प्र० ॥ २ त २१ ॥ ३ पायिम संप खं १ । पासिभयं प पु १ ॥ ४ संसेतया खं १ ॥ ५°ता तपते २१ ॥ ६ वाग्वादयः चूसप्र० ॥ ७ दयः । संसेय० वृत्तम् संसेदया पु० सं० ॥ ८ 'देहाई पु° खं २ पु १ पु २ । 'देहाई पु° खं १ ॥ ९ आयसुहं पडुच्चा, पागब्भि पाणे बहुणं तिवाति खं १ खं २ पु१ पु २ वृ० दी० ॥ १० जतियायदंडे खं २ १२ ॥ ११ लोते खं २ पु १ ॥ १२ हरियादि खं २ पु १ पु २ ॥ 5 ३८६. जाईं च बुडिच विणासयंते ० वृत्तम् । जातिरिति बीजम् तं मुशलोदूखला - ऽस्यादिभिर्विनाशयन्ति । यचकैश्च जातिविनाशे अङ्कुरादिवृद्धिर्हता एव, जात्यभावे कुतो वृद्धि: ? । अधवा जातिं पि विणासेति बीजं । मुट्ठि (बुडिं) पणासेति अङ्कुरादि । बीजादीति बीजा - ऽङ्कुरादिक्रमो दर्शितः, पुन्त्राणुपुव्वी च दसविधाणं । स एवं असंयतः आत्मानं दण्डयति परं च । अधाऽऽहु से लोए अणजधम्मे, अथेत्यानन्तर्ये, आहुस्तीर्थकराः, स इति स पाखण्डी, अनार्यधर्मोऽस्य 30 भवति अधम्मो । जधावादी तधाकारी न भवति जो हि बीजादि हिंसति आत्मसातनिमित्तमिति ॥ ९ ॥ For Private Personal Use Only 25 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकिय [७ कुसीलपरिभासियज्झयणं एवं तान् प्राप्तवयसोऽप्राप्तवयसो वा वृक्षादीन् हत्वा ते कुशीलाः मानुष्यात् प्रच्युताः प्राप्य३८७. गम्भायि मिजंति बुया-बुयाणा, णरा परे पंचसिहा कुमारा। यवाणगा मैज्झिम थेरगा य, चयंति ते आउखए पलीणा ॥१०॥ ३८७. गब्भायि मिजंति बुया-बुयाणा० वृत्तम् । गर्भ इति वक्तव्ये गर्भादि इति यदपदिश्यते तद् गर्भाद्यवस्थानिमि5त्तम् । तद्यथा-निषेक-कलला-ऽर्बुद-पेशि-व्यूह-मांस-गर्भाद्यवस्थानामन्यतरस्यां कश्चिद् म्रियते। अधवा मासिकादिगर्भावस्थासु नवमासान्तास्वन्यतरस्यां म्रियते । गतगर्भा विगर्भा ते तु ब्रुवाणाच, ग्रन्थानुलोम्यात् पूर्व ब्रुवाणाः, इतरथाऽनुपूर्वमब्रुवाणा ब्रुवाणा इति यावत् , न माता-पित्रादि व्यक्तया गिराऽभिधत्ते, ततः परं ब्रुवाणाः । पञ्चशिखो नाम पश्चचूडः कुमारः, अथवा पञ्च इन्द्रियाणि शिखाभूतानि बुद्धिसमर्थानि स्वे स्खे विषये तस्मात् पश्चशिखः, तस्मिन्नपि कदाचिद् म्रियते । युवाणगा मज्झिम थेरगा य कण्ठ्यम् । चयंति साततो भवतो वा पश्चात् प्रलीयन्ते, यैर्यथाऽऽयुर्निर्वर्तितं यैश्च यथा जीवोपघातादि10 भिरल्पान्यायंषि निर्वतितानि सोपक्रमाणि निरुपक्रमाणि च । भणितं च-"तीहिं ठाणेहिं जीवा अप्पाउअत्ताए कम्मं पकरेंति" [स्थाना० स्था० ३ उ.१सू० १२५ पत्र १०८-१]। एवं पंचेंदियतिरिएसु वि गब्भादि मिजंति बुअब्बुयाणा, व्याधिभिरागन्तुकैर्वेदनाप्रकारैम्रियन्ते । एगिदिएसु वि तहाणुरूवं भाणितव्वं ॥ १० ॥ ३८८. बुज्झाहि जंतू! इह माणवेसु, दटुं भयं बालिएणं अलं भे। एगंतदुक्खे जरिए हु लोए, सकम्मुणा विप्परियासुवेति ॥ ११॥ 15. ३८८. बुज्झाहि जंतू! इह माणवेसु० वृत्तम् । किं बोद्धव्यम् ?, न हि कुशीलपाखण्डलोकः त्राणाय, धम्मं च बुझ दुल्लभं च बोधिं बुज्झ । जहामाणुस्स-खेत्त-जाती-कुल-रूवा-ऽऽरोग्गमाउअं बुद्धी । सम(व)णोग्गह सैद्धा दरिसणं च लोगम्मि दुलभाई ॥१॥ [आव०नि० गा०८३३ पत्र ३४१ तथा उत्त०नि० गा० १५८ पत्र १४५] जंतोरिति हे जन्तो! इहेति इह माणवे हि दृष्ट्वा भयानि इतश्च तस्य जाति-जरा-मरणादीनि नरकादिदुःखानि च, तेण 20दटुं भयं बालिएणं अलं मे, बालभावो हि बालिकं कुशीलत्वमित्यर्थः, नमुते (?) कुशीलं अग्रतः। एगंतदुक्खे जरिए हु लोगे त्ति, णिच्छयणतं पडुच्च एगंतदुक्खो संसारः । तं जधाजम्मं दुक्खं जरा दुक्खं रोगा य मरणाणि य । अहो! दुक्खो हु संसारो जत्थ किस्संति जंतवो ॥ १ ॥ [उत्तरा० अ० १९ गा० १५] तधा-तण्हातितस्स पाणं कुरो छातस्स० [भत्तए तेत्ती। जेण सइं संतत्तं जरितमिव जगं कलगलेइ ॥१॥] 25 जरिते त्ति "आलित्ते णं भंते ! लोए पलित्ते णं भंते ! लोए० जराए मरणेण य” [भग० श० ९ उ०३३ सू० ३०२ पत्र ४५८, ज्ञाता० श्रु० १ ० १ सू० २६ पत्र ६०-२] । अधवा "जेण सई संतत्तं जरितमिव जगं कलगलेति ।" ज्वरित इव ज्वलितः सारीर-माणसेहि दुक्ख-दोमणस्सेहि कषायैश्च नित्यप्रज्वलितवान् ज्वरितः। सकम्मुणा विप्परियासुवेति त्ति, स्वकृतेन कर्मणा, नेश्वरादिकृतेन, विप्परियासो ण गरादि टू नानाविधैः प्रकारैर्विपरीतमायाति, तदपि 30 चोक्तम ॥ ११ ॥ उक्तः कुशीलविपाकः । पुनरपि कुशीलदर्शनान्येवाभिधीयन्ते गम्भाति खं १ खं २ । गम्भाइ पु १ पु २॥ २णरावरे खं २ पु २॥ ३ मज्झिम पोरुसा य ख १ वृपा० ॥ ४°खते खं २ पु १॥ ५ कुर्वाणाः चूसप्र०॥ ६ 'साततो' शातावेदनीयादित्यर्थः ॥ ७ संबुज्झहा जंतवो! माणुसतं, दटुं भयं बालिसेणं अलंभो ख १ खं २ पु १ पु २ वृ. दी० ॥ ८ जरिते हु लोते खं २ पु १ । जरिए व लोए खं १ वृ० दी.॥ ९°रितासु खं १॥१० सद्धा संजमो य लो° इति आव०नि० उत्त० नि० च पाठः ॥ ११ निश्चयनयमतेन हि कर्मोदयसम्पादिताना सुखादिपरिणामानां दुःखरूपतैवेति ॥ १२ दुक्खसयसंपतत्तं इति वृत्तौ पाठः ॥ Jain Education Intemational Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा०३८७-९१] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंग पढमो सुयक्खंधो। १५७ ३८९. इहेगे मूढा पवदंति मोक्खं, आहारसंपज्जणवजणेणं । एगे य सीतोदगसेवणेणं, हुतेण एगे पवदंति मोक्खं ॥१२॥ ३८९. इहेगे मूढा पवदंति मोक्खं० वृत्तम् । इहेति पाखण्डिलोके मनुष्यलोके वा एके न सर्वे मूढा अयाणगा स्वयं मूढाः परैश्च मोहिताः भृशं वदन्ति । आहारसंपजणवजणेण, आह्रियते आहारयति वा तमित्याहारः, बुद्ध्यायुर्बलादिविशेषान् वा आनयति आहारयतीत्याहारः, रसाढ्याहारसम्पदं जनयतीति आहारसंपजणं, [आहारसंपन्जणं] च तद् लवणम् ।। अधवा-"आहारेणं समं पंचगं" आहारेण हि सह पंच लवणाणि, तं जधा-सैन्धवं सोवच्चलं बिडं रोमं समुद्र इति, लवणं हि सर्वरसानदीयति । उक्तं हि __“लवणविहूणा य रसा चक्खुविहूणा य इंदियग्गामा ।" [ तथा चोक्तम्- "लवणं रसानाम् , तैलं स्नेहानाम् , घृतं मेध्यानाम्" [ ] इत्यादि । केइ अदुप्पलोणं ण परिहरंति, केचित् तदपि । अधवा आहारपंचगं तद्यथा-"मजं लसुण पलंडं खीरं कारभ तधेव गोमंसं ।" 10 । वारिभगा तु एगे य सीतोदगसेवणेणं स्नान-पान-हस्तपादधावनेन सीतोदगसेवणं तत्र च निवासः, सीतमिति अधिगतजीवं अमुष्टा( ? अनुष्णा) भितप्तं वा, परिव्राड्-भागवतादयोऽपि शीतोदकं सेवन्ति । हुतेण एगे तापसादयो हि इष्टैः समिद्-घृतादिभिर्हव्यैः हुताशनं तर्पयन्तो मोक्षमिच्छन्ति, तत्र कुन्थ्वादीन् सत्त्वान गणयन्ति ये तत्र दह्यन्ते ॥ १२॥ मोक्षो ह्यविशिष्टः सर्वविमोक्षो वा दरिद्रादुःखविमोक्षो वा, ये किल स्वर्गादिफलमनाशंस्य जुह्वति ते मोक्षाय, शेषास्तु 15 अभ्युदयाय, तेषामुत्तरम्___ ३९०. पायोसिणाणादिसु णत्थि मोक्खो, खारस्स लोणस्स अणासणेणं । ते मज मंसं लसुणं च भोचा, अण्णत्थासं परिकप्पयंति ॥ १३ ॥ ३९०. पायोसिणाणादिसु णत्थि मोक्खो० वृत्तम् । प्रात इति प्रत्युषः, आदिग्रहणाद् हस्तपादप्रक्षालन-जलशयनानि, येन तदुदकं सचित्तं तदस्सिता य बहवे पाणा हम्मंति । किञ्च 20 "स्नानं मद-दर्पकर कामाङ्गं प्रथमं स्मृतम् । [ तस्मात् कामं परित्यज्य न ते सान्ति दमे रताः ॥ १ ॥] खारो णाम अट्टप्पं, तदादीन्यन्यानि पञ्च लवणानि तेषामनशनेन मोक्षो भवति । ते मज मंसं लसुणं च भोच्चा, ते इति ते कुसीला, मांसमिति गोमांसम् , चग्रहणात् पलाण्डु-कारभम् । एतान्यभोच्चा कथमिह अन्यत्रवासं परिकल्पयन्ति मूर्खाः ? । अन्यत्रवासो नाम मोक्षावासः। अधवा अन्यत्रवासो नाम यत्रेच्छति यदीप्सितं वा न तत्र वासं परिकल्पयन्ति, अत्रैव संसारे चैव परिकल्पयन्ति नामा कुर्वन्ति ॥ १३ ॥ विशेषोत्तरम् ३९१. उदएण जे सिद्धिमुदाहरंति, सायं च पायं उदगं फुसंता। उदगस्स फासेण सिया य सिद्धी, सिन्झिसु पाणा बहवे दगंसि ॥१४॥ ३९१. उदएण जे सिद्धिमुदाहरंति० वृत्तम् । सायं ति रात्री । पाय ति पचूसो । सेसं कण्ठ्यम् ॥ १४ ॥ किश्च यादकेन सिद्धिः स्यात् तेन १ आहारसपंचगवजणेणं चूपा. वृपा० । आहारओ पंचगवजणेणं इत्यपि वृपा० ॥ २ सर्वरसान् 'अदीयति' अत्येति, सर्वरसोत्कर्षभावेन वर्तते इति भावः ॥ ३ अग्रेतनगाथाचूर्णी अट्ठप्पलोणं इति पाठो दृश्यते ॥ ४ “वारिभद्रकादयो भागवतविशेषाः” इति वृत्तौ॥ ५°सतेणं खं २ पु १। 'सएणं खं १ पु २॥ ६°वासाइं पगप्पयंति खं १ । वासं परिगप्पयति खं २ पु १ पु २॥ ७ पातं खं २॥ ८ फुसंति पु १॥ Jain Education Interational Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्ति-धुण्णिसमलंकियं [७ कुसीलपरिभासियज्झयर्ण ३९२, मच्छा य कुम्मा य सिरी सिवा य, 'मंगू य उहा वगरक्खसा य । अट्ठाणमेतं कुसला वदंति, उदगेण सुद्धिं जमुदाहरंति ॥ १५॥ ३९२. मच्छा य कुम्मा य सिरीसिवा य० वृत्तम् । मच्छा मच्छा एव । कुम्मा कच्छभा। सिरीसिव त्ति इह सिरीसिवा मगरा सुंसुमारा य, चतुष्पादत्वात् सिरीसृपाः । मंगू णाम कामलेगा । उद्दा णाम मज्जारप्पमाणा महानदीषु । दृश्यन्ते उम्मुज्जणिमुजियं करेमाणा । दगरक्खसा मनुष्याकृतयो नदीषु समुद्रेषु च भवन्ति । एवमादयोऽन्येऽपि च जलचराः मत्स्यबन्धादयश्च यदि अद्भिर्मोक्षः स्यात् तेन सर्वे मोक्षमवाप्नुवन्तु, न चेदा वन्ति ण । अट्ठाणमेतं कुसला वदंति, अस्थानमिति अनायतनं अनादेशः अभ्युदय-निःश्रेयसयोः कुशलास्तीर्थकरास्त एवं वदन्ति अस्थानमेतत् यदुदकेन शुद्धिर्भवति ॥ १५ ॥ ३९३. उदकं जति कम्ममलं हरेज, एवं पुण्ण इच्छामित्तमेव । ___अंधं व णेतारमणुस्सरंता, पाणाणि चेवं विहेदंति मंदा ॥ १६ ॥ 10 ३९३. उदकं जति कम्ममलं हरेज० वृत्तम् । एवं पुण्यं पि चन्दनकर्दमलिप्तं वा, नो चेत् ततस्ते इच्छामात्रमिदम् । त एवं वराका जात्यन्धतुल्याः अधं व णेतारमणुस्सरंता, अन्धेन तुल्यं अन्धवत्, यथा जात्यन्धो जात्यन्धं णेतारमणुस्सरंतो, अणुस्सरंतो णाम अणुगच्छंतो, उन्मार्ग प्राप्य विषम-प्रपाता-ऽहि-कण्टक-व्याला-ऽग्निउपद्रवानासादयति, क्लेशमृच्छति, न चेष्टां भूमिमवाप्नोति । एवं ते कुशीला अहिंसादिगुणजात्यन्धा इच्छन्तोऽपि मोक्षार्थ अहिंसादीन् गुणानप्राप्नुवन्तः खयं प्राणिनो विहे टायति "हेढ विबाधने" बाधन्त इत्यर्थः, ये चान्ये भावास्तान् नाश्रयन्ति, तेऽपि तथैव प्राणिनो विहेढयित्वा अनि1B शानि स्थानानि अवाप्नुवन्ति ॥ १६ ॥ किञ्च ३९४. पावाई कम्माई पकुव्वतो हि, सिओदगं तू जइ तं हरिजा। सिन्झिसु एंगे दगसत्तघाती, मुसं वयंते जलसिद्धिमाहु ॥ १७ ॥ ३९४. पावाई कम्माई पकुव्वतो हि० वृत्तम् । कण्ठ्यम् ॥ १७ ॥ ३९५. हुतेण "जे मोक्खमुदाहरंति, सायं च पायं अगणिं फुसंता। एवं सिया सिद्धि हवेज तेसिं, अगणि फुसंताण कुकम्मिणं पि॥१८॥ ३९५. हुतेण जे मोक्खमुदाहरंति० वृत्तम् । येऽपि हुतेण मोक्खं उदाहरंति, उदाहरंति नाम भासंति । सायं च पायं अगणिं फुसंता, सायं रात्रौ, पायं प्रत्युषसि, अग्निं स्पृशन्त इति यथेष्टैर्हव्यैस्तर्पयन्तः । यदि तेषामेव सिद्धिर्भवति एवं सिया सिद्धि हवेज तेसिं । कतरेषाम् ? अगणिं फुसंताण कुकम्मिणं पि । कुकम्मी णाम घटकाराः कूटकारा वणदाहा वल्लरदाहकाः ॥ १८ ॥ 25 उक्तानि पृथक् कुशीलदर्शनानि । एषां तु सर्वेषामेवायं सामान्योपालभ्भः ३९६. अपरिच्छ दिहि ण हु एव सिद्धी, एहिंति ते घेतमबुज्झमाणा। भूतेहिं जाण पडिलेह सातं, विजं गहाए तस-थावरेहि ॥ १९ ॥ 20 १मग्गू य उद्या दग खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ २°ण जे सिद्धिमुदाखं २ पु १ पु २ वृ. दी।°ण जे सेहिमदा खं १॥ ३जती खं १ खं २ पु १ पु२॥ ४एवं सुहं इच्छामित्तमेव पु १ वृ० दी। एवं सुहं इच्छामेत्ततो वा खं २ पु २ । एवं सुहं पिच्छामेत्तता वा खं १॥ ५ अंध व्व णेयारमणु खं १ पु १ पु २ । अंध व्य जचंधमणु खं २ ॥ ६विणिहंति खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ७°मलिप्तवान् , नो पु० सं० । मलिप्तवान्, नो वा० मो०॥ ८सीओदगं तू यति तं हरेजा खं १॥ ९एते खं १॥ १० दगसिखं २ पु १ पु २॥ ११ जे सिद्धिमुखं १ खं २ पु १ पु २ ० दी.॥ १२ सातं च पातं अखं १॥ १३ज तम्हा, अखं १ खं २ पु १ पु २ वृ• दी० ॥ १४°रिक्ख दिढें खं १ पु १ पु २ दी। °रिच्छ दि, खं २ वृ०॥ १५ घात खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ १६ “भूतेहिं जाण पडिलेह सायं" आचा० श्रु. १ अ.३ उ० ३ सू० २॥ १७ जाणं खं २॥ १८ गहात खं २ पु १ । गहाय खं १ पु २॥ Jain Education Intemational Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ३९२-९८] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। ___३९६. अपरिच्छ दिहिं ण हु एव सिद्धी एहिंति ते घेतमबुज्झमाणा० [वृत्तम् ] । अपरिच्छेति अपरीक्ष्य, दृष्टिरिति दर्शनम् , अपरीक्षितदर्शनानामित्यर्थः, नैवं सिद्धिर्भवतीति वाक्यशेषः, किन्तु एहिंति ते घंतमबुज्झमाणा, तैस्तैदुःखविशेषैर्घातयतीति घातः संसारः तमबुज्झमाणा। तत्प्रतिपक्षभूताः सम्यग्दृष्टयः ते तु भूतेहिं जाण पडिलेह सातं, तानि एकेन्द्रियादीनि, जानीत इति जानकः, स जानको अत्तोवमेण भूतेसु सातऽसातं पडिलेहेहि, "जध मम ण पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्वसत्ताणं ।” [ दश० नि० गा० १५६ पत्र ८३-१] । एवं मत्वा यदात्मनो न प्रियं तद् भूतानां न करोति, एवं सम्म पडिलेहणा भवति । विजं नाम विद्वान्, गहाए ति एवं गृहीत्वा अत्तोषमेण इच्छिता-उणिच्छितं साता-ऽसातं एवं गृहीत्वा नवकेन भेदेन तस-थावराण पीडं । अधवा विजं विज्या णाम जाणं, तं गहाय, जीए तस-थावरा णजंति । उक्तं चपढमं गाणं ततो दया एवं चिट्ठति सव्वसंजते । अण्णाणी किं काहिति ? किं वा णाहिति छेय-पावगं ? ॥ १॥ [दशवै० अ०४ प्रान्ते गा० १०] 10 ॥ १९ ॥ ये पुनहिंसादिषु प्रवर्त्तन्ते अशीलाः कुशीलाश्च ते संसारे३९७. थणंति लुप्पंति तसंति कम्मी, पुढो जगाइं पडिसंखाए भिक्खू । तम्हा विदू विरते आतगुत्ते, दटुं तसे या पडिसाहरेज्जा ॥२०॥ ३९७. थणंति लुप्पंति० [वृत्तम् ] । णरगादिगतीसु सारीर-माणसेहिं दुक्खेहिं पीड्यमानाः स्तनन्ति, लुप्यन्त इति छिद्यन्ते हन्यन्ते च, तसन्तीति नानाविधेभ्यो दुःखेभ्य उब्विजते । कर्माण्येषां सन्तीति कर्मिणः । यतश्चैवं तेण पुढो 15 जगाई, पुढो नाम पृथक् , अथवा "पृथु विस्तारे", सव्वजगाई पुढो पडिसंखाए त्ति परिसंखाय परिगण्येत्यर्थः भिक्षुरिति सुसीलभिक्षुः । तम्हा विदू विरते आतगुत्ते, तस्मादिति यस्मानिःशीलाः कुशीलाश्च संसारे परिवर्तमानाः स्तनम्ति लुप्पंति त्रसंति च तस्मा विदुः विरते विरतिं कुर्यात् पञ्चप्रकारां अहिंसादी, आतगुत्तो णाम आत्मसुगुत्तः स्वयं वा गुप्तः काय-वाङ्मनःस्वात्मोपचारं कृत्वाऽपदिश्यते आतगुत्ते ति । दढे तसे या पडिसाहरेजा, चशब्दात् स्थावरेऽपि । पडिसाहरेज त्ति इरियासमिती गहिता, अतिकमे संकुचए पसारए ॥ २०॥ इदानीं स्वलिङ्गकुशीलाः परामृश्यन्ते, तद्यथा___३९८. जे धम्मलद्धं वै णिधाय मुंजे, वियडेण साहठ य जे सिणाइ। जो धावती लूसयती व वत्थं, अधाऽऽहु से णंअणियस्स दूरे ॥२१॥ ३९८. जे धम्मलद्धं व णिधाय भुंजे० वृत्तम् । जे त्ति अणिहिट्ठणिहेसे । धम्मेणेति लद्धं, नान्येषामुपरोधं कृत्वा, मुधालब्धमित्यर्थः, बातालीसदोसपरिसुद्धं, वा विभासा-विकल्पादिषु, असुद्धं वा लद्धं असणादि हूँ निधायेति सन्निधिं कृत्वा, तं पुण अभत्तच्छंदुवरितं भत्तसेसं वा 'अब्भत्तट्ठो वा मे अज' एवमादीहिं कारणेहिं सण्णिधिं कातुं भुंजंति । विगतेण य 25 साहट्ट, विगतमिति विगतजीवं तेनापि च साहट्टरिति साहरिय फासुगे देसे जंतुवज्जिते संहृत्य गात्राणि प्रयत्नेनापि देशस्नानं वा सर्वस्नानं वा करोति, किं पुण अविकडेण ? । जो धावती लूसयती व वत्थं, धावति विभूसावडिताए, लूसयति णाम जो छिन्दति, छिंदितुं वा पुणो संघेति वा सिव्वति वा । पठ्यते च-"लीसएजा वि वत्थं" लीसना नाम सन्धनैव । अधवा सूई ठाणाई करेति अप्पणो वा परस्स वा । तमेवं कुव्वाणं भट्टारगो भणति-अधाऽऽहु से णंअणियस्स नमभावो हि गंगणिगा स्यात् , दूरे वर्त्तते निर्ग्रन्थत्वस्येत्युक्तं भवति ॥२१॥ उक्ताः पासत्थ-कुसीला। इदाणी सुसीला-30 20 १ जगा परिसंखाय भिक्खू खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ २य प्पडि खं १ ख २ पु १ पु २॥ ३ विणिहाय पु १ वृ० दी०॥ ४ धोवती खं १॥ ५ लीसएजा वि वत्थं चूपा०॥ ६ णागणि° खं १ खं २ पु १ पु २ ॥ ७ङ्क इति चतुःसङ्ख्याद्योतकोऽक्षराङ्कः ॥ ८णगर्णिगण्याद् दूरे चूसप्र०॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [७ कुसीलपरिभासियज्झयणं ३९९. कम्मं परिणाय दगंसि धीरे, वियडेण जे जीवति आतिमोक्खं । ते बीज-कंदादि अभुजमाणा, विरता सिणाणा अदु इत्थिगातो ॥२२॥ ३९९. कम्मं परिणाय दगंसि धीरे० वृत्तम् । पहाण-पियणादिसु कजेसु तिविधेणेति उदगसमारंभे य कम्मबंधो भवति । तमेवं ज्ञात्वा संसारभीतो दुविधाए परिणाए परिजाणेज धीरे, धीरो जानकः, यथा वा यैः प्रकारैः कर्म बध्यते 5 तान् कर्मबन्धाश्रवान् विदित्वा न कुर्यादिति । एवं ज्ञात्वा वियडेण जे जीवति आतिमोक्खं, विगतजीवं वियर्ड तंदुलोदगादि, यच्चान्यदपि भोजनजातं विगतजीवं संयमजीवितानुपरोधकृत् तेन जीवेयुः । केचिरं कालम् ? इति, जाव आदिमोक्खो आदिरिति संसारः, स यावन्न मुक्तः, ततो वा मुक्तः, यावद्वा शरीरं ध्रियते तावत् । किञ्च-प्रासुकोदकभोजित्वेऽपि सति ते बीज-कंदादि अभुंजमाणा, आदिग्रहणाद् मूल-पत्र-फलादीनि गृह्यन्ते । विरता सिणाणा अदु इत्थिगातो, विरताः स्नाना-ऽभ्यङ्गोद्वर्तनादिषु शरीरकर्मसु निष्प्रतिकर्मशरीराः, “सुक्खा लुक्खा णिप्पडिकम्मसरीरा जाव अट्ठिचम्मावणद्धा" एवं 10 तावदहिंसा गृहीता, इत्थिग्रहणतो अन्येऽपि अवया गृह्यन्ते रात्रिभक्तं च, ततोऽपि विरताः । ये चैवं विरतास्तपसि चोद्यता ते संसारे न थणंति, ण वा तत्र परिभ्रमन्ति, ण वा कुसीलदोसेहिं जुत्तंति ॥ २२ ॥ पुणरवि पासत्था कुसीला परामुस्संति ४००. जे मातरं च पितरं च हेच्चा, गारं तधा पुत्त पैसुंधणं च । ___ आघाति धम्मं उदराणुगिद्धो, अधाऽऽहु से सामणितस्स दूरे ॥ २३ ॥ 15 ४००. जे मातरं [च पितरं [च] हेच्चा० वृत्तम् । गारं नाम गृहम् । पुत्र[म् अपत्यम् ], पसवो हस्त्यश्व-गोमहिध्यादयः । एवं कृताकृतं एतं संतं असंतं वा विहाय प्रव्रजितत्वात् आघाति धम्मं उदराणुगिद्धो, हिंडंतो वा उपेत्य अकारणे वा गत्वा तद्विधेसु कुलेसु दाणसड्डमादिसु आघाति त्ति आख्याति धर्म उदरानुगृद्धो नाम औदरिकः उदरहेतुं धर्म कहेति । अधाऽऽहु से सामणित[स्स दूरे], श्रमणभावो सामणियं तस्स दूरे वट्टति ॥ २३ ॥ ४०१. कुलाई जे धावति सादुगाई, आघाति अक्खाइ उदराओ गिद्धो । से आरियाणं गुणाणं सतंसे, जे लावए ता असणादिहेतुं ॥ २४ ॥ ४०१. कुलाई जे धावति सादुगाई० वृत्तम् । एवंविधाइं कुलाई पुव्वसंधुताई पच्छासंथुताणि वा जो गच्छति, सादुगाइं स्वादनीयं स्वादु, स्वादु ददातीति स्वादुदानि, स्वदन्ति वा स्वादुकानि । अक्खाइयाओ अक्खाति धम्मकधाओ वा, जाहिं वा कहाहिं रजते, उदराओ गिद्धो पुन्नो, अधवा औदरग्रेधिना आख्या ण वट्टइ कातुं, इतरधा तु करेज वि कुले जाणित्ता । से आरियाणं गुणाणं सतंसे, आरिया चरित्तारिया तेसि सहस्सभाए सो वट्टति सहस्सगुणपरिहीणो। ततो य 25 हेहतरेण जे लावए "लप व्यक्तायां वाचि" लपतीति ब्रवीति, जो वि ताव असणादिहेतुं अण्णेण केणइ लवावेति 'अहं एरिसो तारिसो वा सो वि आयरियाण सहस्सभागे [ण] वट्टइ, किमंग पुण जो सयमेव लवइ? । एवं वत्थ-पत्त-पूयाहेतुमवि ॥ २४ ॥ किश्च ४०२. णिक्खंददीणे परभोयणट्ठी, मुहमंगलिओदरियं पगिद्धे । __णीयारगिद्धेह महावराहे, अदूरते वेसति घातमेव ॥ २५ ॥ १°ण जीविज य आदि खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ २ से बीय-कंदाति अभुजमाणे, विरते सिणाणादिसु इत्थिकासु खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी • ॥ ३ पसू हणं खं १॥ ४ कुलाई जे धावति साउगाई, अहाऽऽहु खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी॥ ५ कुलाति जे धावति सातुगाई, आघाति धम्म उदराणुगिद्धे । अहाऽऽहु से आयरियाण सतंसे, जे लावतेजा असणस्स हेउं ॥ खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ६ णिक्खम्मदीणे परभोयणम्मि, मुहमंगलिओदरियाणुगिद्धे । णीवारगिद्धे व महावराहे, अदूरते वेहति घंतमेव ॥ खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी । ओदरियं पगिद्धे वृ. दी। भोयणसि खं १। घातमेव पु १ पु २॥ Jain Education Intemational Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ३९९-४०४] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। -४०२. णिक्खंददीणे परभोयणट्ठी० वृत्तम् । जो अप्पं वा बहु वा उवधिं च छड्डित्ता णिक्खंतोऽसौ शीलमास्थितः रूक्षान्न-पानतर्जितः अलाभगपरीसहेण वा दीनतां प्राप्य जिभिदियवसट्टो पंचविधस्स आजीवस्स अन्यतमेन आहारमुत्पादयति, सर्वोऽपि हि महेच्छः परप्रणयी दीनो भवति । उक्तं हि कण्ठविस्वरता दैन्यं मुखे वैवर्ण्य-वेपथुः । यान्येव म्रियमाणस्य तानि लिङ्गानि याचतः ॥ १ ॥ आतुट्टणाहेतुं च मुहमंगलियाओ करेति मढवत्-एरिसो वा तुमं दसदिसिप्पगासो, तच्चणिगो वा जधा कंपेति । उदरे हितं औदरिकम् , अन्न-पानमित्यर्थः भृशं गृद्धः प्रगृद्धः । णीयारगिद्धेह महावराहे, णीयारों णाम कणकुण्डकः मुग्ग-मासोदणाण, निकीर्यत इति नीकारः । वरादाहन्तीति वराहः, वरा भूमी, स उद्वृत्तविषाणोऽपि भूत्वा अन्यान् पुरतोऽपि हन्यमानान् दृष्ट्वा तत्र नीकारे गृद्धो न पश्यति, ततः कचिदेव प्रकृते वा, अदरते वा अचिरात् कालस्य प्राप्तजरो वा एषति घातमेव, मरणमित्यर्थः । अधवा निकारो नाम संस्थानिरालक-मुद्ग-भाषादीनि, स आरण्यवराहः तेषु प्रगृह्य( ? ख्य )माण 10 औपगेषु पतति । कर्षकेभ्य अदूरए एसति घातमेव, एवमसौ कुशील आहारगृद्धः असंयममरणमासाद्य णरग-तिरिक्खजोणीओ पाविऊण अदूरमेसति घातमेव ॥ २५ ॥ स एवं कुशील: ४०३. अण्णस्स पाणस्सिधलोइयस्स, अणुप्पियं भासति सेवमाणे। पासत्थयं चेव कुसीलतं च, णिस्साए होति जधा पुलाए ॥२६॥ ४०३. अण्णस्स पाणस्सिधलोइयस्स० वृत्तम् । इहलौकिकानि हि अन्न-पानानि, न मोक्खाय, तेषामैहिकानामन्न-15 पानानां हेतुरिति वाक्यशेषः । अनुप्रियाणि भाषते-एस दारिगा कीस ण दिज्जइ ? गोणे किं ण दम्मइ ? एवमादि । वणीमगत्तणं च करेति सेवमान इति वायाए सेवति आगमण-गमणादीहि य । स एवंविधं पासत्थयं चेव कुसीलतंच, चशब्दात् ओसण्णतं संसत्ततं च, प्राप्येति वाक्यशेषः । केवलं लिङ्गावशेषः चारित्रगुणवश्चितः णिस्सारए होति जधा पुलाए, जधा धण्णं कीडएहिं णिप्फोलितं णिस्सारं भवति, केवलं तुषमात्रावशेषम् , एवमसौ चारित्रगुणनिस्सारः पुलाकधान्यवद् इहैव बहूणं समणाणं समणीणं हीलणिज्जे, परलोगे य आगच्छति हत्थच्छिदणादीणि ॥ २६ ॥ उक्ताः कुशीलाः । तत्प्रति-20 पक्षभूतं मूलोत्तरगुणेषु आयतत्वं सौशील्यं प्रतिपाद्यते । तत्रोत्तरगुणानधिकृत्यापदिश्यते ४०४. अण्णातपिंडेणऽधियासएज, ण पूयणं तवसा आवहूजा। अण्णे य पाणे य अणाणुगिद्धे, सव्वेसु कामेसु णियत्तएज्जा ॥ २७॥ ४०४. अण्णातपिंडेणऽधियासएज० वृत्तम् । ण संथव-वणीमगादीहिं, अण्णातउंछं एसति, अधियासणा अलंभमाणे । ण पूयणं तवसा आवहूजा, ण पूया-सकारणिमित्तं तपः कुर्यादिति । “णिव्वहेजा" वा, जो पूआ-सक्कारनिमित्तं तवं करेति 25 तेण सो तवो णिवाहितो भवति, तम्हा ण णिव्वहेज्जा । स एवं अण्णे य पाणे य अणाणुगिद्धो, जो हि अण्णायपिंडं एसए सो णियमा अण्णे य पाणे य अणाणुगिद्धो, अथवा अनु पश्चाद्भाव इति, ण पुव्वभुत्तेसु अण्ण-पाणेसु अणुगि- . ज्झेज । “एगग्गहणे गहणं" ति जधा रसेसु णियत्तति तहेव सव्वेसु कामेसु णियत्तिं कुर्यात्, सह-रूवादिसु असजमाणे ण रागं दोसं वा गच्छे । कधं ?सद्देसु य भद्दय-पावएसु सोतंगहणमुवगतेसु । तुटेण व रुटेण व समणेण सदा ण होतव्वं ॥ १॥ 30 [ज्ञाताधर्मकथाङ्ग अध्य०१७ सू० १३५ गा० १६ पत्र २३३-१] १ तुम सदसि प्प पु॥ २ यस्यानि रालकरालक चूसप्र० ॥ ३°लोययस्स खं १॥ ४रते खं २ पु १॥ ५ पुलाते खं २ पु १॥६°हियासतेजा, णो पूयणं तवसा आवहेजा। सद्देहिं रूवेहिं असज्जमाणे, सब्वेहिं कामेहिं विणीय गेहिं ॥ खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० । णिव्वहेजा चूपा० । वणीय खं २। गेही खं १॥ ७सोतविसयमुवंशातासूत्रे पाठः॥ सूय० सु०२१ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० ११२ पिति चुण्णिसमलंकियं [७ कुसीलपरिभासियमवर्ष . एवं सेसिदिएसु चि ॥ २७ ॥ अघधा अपसत्वइच्छाकामेसु मदनकामेसु र यथैव इन्द्रिवजयं करोति हेष ४०५. सव्वाणि संगाणि अतिच धीरो, सव्वाणि दुक्खाणि तितिक्खमाणे। अखिले अगिद्धे [अणिएयचारी], ण सिलोयकामी परिव्वएज्जा ॥२८॥ ४०५. सव्वाणि समापि अतिच धीसे० वृत्तम् । सङ्गाः प्राष्णिवधादयः जाव मिच्छादसणं ति, ताणि अतिच्छिऊण 5 सव्वाई परीसहोवसग्गदुक्खाई तितिक्खमाथे सहमाणे । अखिलो णाम अखिलेसु गुणेसु वर्तितव्यम् , अथवा खिलमिति यत्र किश्चिदपि न प्रसूते ऊपरमित्यर्थः, नैवं खिलभूतेन भवितव्यम् , यत्र कश्चिदपि गुणो न प्रसूते, गुणा णाणादी। अगृद्धे आहारादिसु । [...........................] ण सिलोयकामी परिव्वएजा, श्लोको नाम श्लाघा, सव्वतो वएन परिवएज्ज ॥ २८ ॥ स्यात् तदज्ञातपिण्डं किंनिमित्तमाहारयति ? उच्यते ४०६. भारस्स जाता मुणि भुंर्जमाणे, कंखेज यो पावविवेग भिक्ख । दुक्खेण पुढे धुतमातिएज, संगामसीसे अवरे दमेइ ।। २९॥ - १०६. भारस्स जाता मुणि मुंजमाये० वृत्तम् । भारो नाम संयमभारो। जाताए त्ति संयमजावामातानिमिचं संजमभारवहणट्ठताए, “सो हु तवो कायव्वो जेण मणोदुक्कडं ण उप्पज्जे ।” [ ] कंखेज यो उद्यानक्रीडातुल्यं तपो मन्यमानः कंखेज यो पावविवेग भिक्खू, पावं नाम कम्म, विवेगो विनाश इत्यर्थः, सर्वविवेको मोक्षः, सेसो देसविवेगो । अधवा पापमिति शरीरम् , कृतघ्नत्वादशुचित्वाच्च । सद्विवेकमाकाङ्क्षमाणः दुक्खेण पुढे धुतमातिएज, यदि 15 पुनरसौ संयमं कुर्वाणः शारीर-मानसैः परीषहोपसर्ग-दुःखैरभिभूयते ततस्तैरभिभूतः धुतमादिएज, धुआं वैराग्यं चारित्रं उपसमो वा संजमो प्रामादि वा, आदिएज त्ति तमादद्यात्, तेन तेषां जयं कुर्यादित्यर्थः, यथा महारक एष, दमदन्तो पा। संगामसीसे वथा दमितः शूरो योषा सत्रामशिरखपरान् दमयति, अभिहन्तीत्यर्थः, एवं अठविहं कम्म जिणित्ता परीसहे अधियासेहि ॥ २९ ॥ किश्चान्यत् ४०७. अवि हम्ममाणे फलगावतही, समागमं कखति अंतकस्स। णिय कम्म ण पवंचुवेति, अक्खक्खए वा सगडं ति बेमि ॥ ३०॥ ॥ कुसीलपरिभासियं सत्तममज्झयणं सम्मत्तं ॥७॥ ४०७. अवि हम्ममाणे फलगावतही. वृत्तम् । यद्यप्यसौ परीसहैहन्थेत अर्जुनकवत [अन्तकृत्स्ने वर्ग]। अथवा फलकवदवकृष्टः झारेणालिप्येत सिच्येत वा तथापि अप्रदुष्टः । “अणिहम्ममाणो" वा । समागमं कंखति अंतगस्स सम्यग् आयमः समागमः, अन्तको नाम मोक्षः, अथवा अन्तं करोतीति अन्तकः । यथा25 - नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां नापगानां महोदधिः । नान्तकृत् सर्वभूतानां न पुंसां वामलोचनाः ॥ १॥ स एवं निर्धय कर्म अन्तकं समासाद्य, निश्चितं निरवशेषं वा धूत्वा निधूव । किम् ? अष्टप्रकार कर्म, नेति प्रतिषेधे भृशं वश्वं प्रचंचं जाति-जरा-मरण-दुःख-दौर्मनस्यादिनटवदनेकप्रकारः संसार एव प्रपञ्चकः । दृष्टान्त:-अक्खक्खए वा अनोतीत्यक्षः, अथवा न क्षयं यातीत्यक्षः। जधा अक्खक्खए सगडं सम-विषमदुर्ग-प्रपातोद्यानादिषु न पुनः संखोभमेति 80 मां वा एवम् । स एवं निर्धूप कर्म अचलं निर्वाणसुखं प्राप्य न पुनः संसारप्रपञ्चमाप्नोति ॥ ३० ॥ नयात्तथैव ॥ ॥कुसीलपरिभाषितं सप्तममध्ययनं समाप्तम् ॥ ७॥ । १ सव्वाई संमाई अइच्च धीरे, सब्वाइं दुक्खाई खं १ खं २ पु १ पु २ । वीरे खं २॥ २ अखिले अगिद्धे अणिएयचारी, अभयंकरे भिक्खू अणाविलप्पा खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी। अखिले अगिद्धे ण सिलोयकामी, परिव्वएजा भिक्खू अणाविलप्पा इत्यपि पाठश्चर्णिकाराभिप्रायेण सम्भवेत् ॥ ३ जत्ता खं २ पु १ पु २॥ ४ भुंजएजा, कंखेज पावस्स विधेग खं १ खं पु१ दी०॥ ५ माइतेजा खं २ पु १॥ ६°सीसे व परं दमेजा खं १ खं २ पु १३२ वृ० दी.॥ ७ अणिहम्म चूपा० ॥ ८°गायतडी ख १ खं २ पु१पु२॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुसमा ४०५-७ णिजुत्तिगा० ८४-८७] सूयगडंगसुक्त विइयमंग पढमो सुयक्खंधो । [अट्ठमं वीरियज्झयणं] - - -ccccccccesवीरियं ति अज्झयणं । तस्स चत्तारि अणुयोगद्दारा । अधियारो-तिविधवीरियं वियाणित्ता पंडियवीरिए जतितव्यं । तत्थ गाधा विरिए छक्कं दव्वे सञ्चित्ताऽचित्त मीसगं चेव । दुपद चतुप्पद अपदं एतं तिविधं तु सञ्चित्तं ॥१॥ ८४॥ - विरिए छकं० गाधा। वीरियं णामादि छव्विधं । णाम-ट्टवणाओ गयाओ। वतिरित्तं दव्ववीरितं सचित्तादि तिविधं । सचित्तं व्ववीरियं तिविधं-दुपद १ चतुप्पद २ अपदं ३ । दुपदाण वीरियं-अरिहंत-चकवदि-बलदेव-वासुदेवाणं इत्थिरयणस्स य, एवमादीण वीरियं जं जस्स जारिसं सामत्थं १ । चतुप्पदाणं तु अस्सरयण-इत्थिरयण-सीह-वग्घ-वराह-सरभादीण, सरभो किल हस्तिनमपि वृक इव औरणकं उक्खिविऊण अ वज्झति, एवमादि यस्य यच चतुष्पदस्य बोद्धव्ये वा वोढव्ये वा सामर्थ्यम् २ । अवदाणं-गोसीसचंदणस्स उण्हकाले डाहं णासेति, तथा कंबलरयणस्स सीयकाले सीतं जैसिणकाले उण्हा 10 णासेति, तथा चकवट्टिस्स गब्भगिहं सीते उण्हं उण्हे सीतं, एवं पुढवीमादीणं जस्स जारिसं वीरियं संजोइमाणं असंजोइमाणं, असंजोइमाण य गदा-ऽगदविसेसाण य ३ ॥१॥ ८४ ॥ अच्चित्तं पुण विरियं आधारा-ऽऽवरण-पहरणादीसु । जध ओसधीण भणियं विरियं रसवीरिय विर्वांगे ॥२॥८५॥ अञ्चित्तं पुण विरियं० गाधा । अञ्चित्तं दव्ववीरियं आधारादीणं स्नेह-भक्ष्य-भोज्यादीनाम् । उक्तं हि-"संद्यः 15 प्राणकर तोयं. [ ]। आवरणाणं च वम्ममादि-गुडादीणं च । [पहरणाणं] चक्करयणमादीणं, अन्येषां च प्रास-शक्ति-कणकादीनाम् । किञ्चान्यत्-जध ओसघीण मणिय विरियं रसवीरिय विवागे, तं विसलीकरणी पादलेवो मेधाकरणीओ य ओसधीओ। विसघातीणि य दख्वाणि गंध-आलेव-आस्वादमात्राच विचं णासेन्ति, सरिसवमेत्ताओ या गुलियाओ वा लोमुक्खणणामेत्ते खेत्ते विषं गदो वा अगदो वा मषति । अन्यद्रव्यमाहारितं मासेणापि किल क्षुधां न करोति, न च बलग्लानिर्भवति । किश्च केषाश्चिद् द्रव्याणां संयोगेन वत्ती आलित्ता उदकेनापि दीप्यते । कस्मीरादिषु च काशि-20 केनापि दीपको दीप्यते । योनिप्राभृतादिषु वा विकसितव्वं । खेत्तवीरिक देवकुव्याचीसु सोवेव व्याणि वीर्यवन्ति भवन्ति, यस्य वा क्षेत्रं प्राप्य बलं भवति, यत्र वा क्षेत्रे वी पर्यते ॥२॥८॥ एस के अत्यो मिनुत्तिगाहाए गहितो * आवरणे कवयादी चकादीयं च पहरणे होति। . .. खेत्तम्मि जम्मि खेत्ते काले जे जम्मि कालम्मि ॥ ३ ॥८६॥ कालीस्विं सुसमसुसमादिसु, मख का पत्र काले बलमुत्पयते । तयथा .25 वर्षासु लवणममृतं शरदि जलं गोपयश्च हेमन्ते । शिशिरे चाऽऽमलकरसो घृतं वसन्ते गुडो वसन्तस्यान्ते ॥१॥ [ ]॥३॥८६॥ . .. भावे जीक्स्स सीरियस्स विरियम्मि लद्धि णेगविहा। .. ओरस्सिंदिय-अज्ज्ञप्पिएसु बहुसो बहुविषीयं ॥ ४॥ ८७॥. .. १दिसं॥ २अपदामामित्यर्थः ॥ ३ उहकाले वा० मो० ॥ ४ विवागो खं २ पु २। विधातो खं १॥ ५आहारादीनामित्यर्थः ॥ ६"सद्यः प्राणकरा हृद्या घृतपूर्णाः" वृत्तौ. ७कयचादी खं २ पु २॥ ८लद्धऽणेय . Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 I मण वयण काय० गाधा । मणे ताव ओरस्सवीरियं जारिसं भणपोग्गल गहणसामत्थं वइरोसभसंघतणादीणं जारिसे पढमसंघतणे मणपोग्गले गेण्हति । तं पुण दुविधं - संभवे य संभव्वे य । संभवे तित्थगरस्स अणुत्तरोववातियाणं च अतीव पडूणि मणोदव्वाणि । संभावणीयं तु यो हि यमर्थं पटुमतिना प्रोच्यमानं न शक्नोति साम्प्रतं परिणामयितुम्, सम्भाव्यते तु एष परिकम्ममाणं शक्ष्यत्यमुमर्थं परिणामयितुम् । तं जधा तवे तणुत्तए दुब्बले, विण्णाण णाण इत्यादि सम्भाव्यम् । वायावीरियमवि दुविधं—संभवे य संभव्वे य । तत्थ संभवे य तित्थगरस्स जोअणनीहारिणी वाणी सव्वभासाणुगामिणी, एतत् 10 सम्भवति वाचा वीर्यं तित्थकरे, येषां चान्येषां क्षीराश्रवादिवाग्विषयः, तथा हंस- कोकिलादीनां सम्भवति स्वरसेन माधुर्यवीर्यम् । सम्भाव्ये सम्भाव्यते श्यामा स्त्री गाइतव्वें । तं जहा – “सामा गायति मधुरं काली गायति खरं च रुक्खं च ।” [अनुयो० सू० १२८ गा० ३१ पत्रं १३२ ] एवमादि । तथा सम्भावयाम एनं श्रावकदारकं अकृतमुखमप्यक्षरेषु यथावदभिलप्तव्येषु । तथा सम्भावयामः शुक्र-मदनशलाका मानुषवक्तव्ये, न त्वेवं भासे सम्भाव्यते । कायवीरियं णाम और यद् यस्य बलम्, तदपि द्विविधम्-सम्भवे सम्भाव्ये च । सम्भवे यथा चक्रवर्त्ति - बलदेव - वासुदेवाणं यद् बाहुबलादि काय15 बलम्, जधा कोडिसिला तिविट्टुणा उक्खित्ता । अथवा "सोलस रायसहस्सा० एवं जाव - अपरिमितबला जिणवरिंदा ।” [ आव० नि० गा० ७१–७५ ] | संभव्वे तु सम्भाव्यते तीर्थकरा लोकं अलोके प्रक्षेप्तुम्, तथा मेरुं दण्डमित्र गृहीत्वा छत्रवद् धर्तुम् । तधा 20 णिज्जुत्ति- चुण्णिसमलंकिय [ ८ वीरियज्झयणं भावे जीवस्स सवीरियस्स० गाहा । भाववीरिअं जीवस्स सवीरियस्स लद्धीओ अणेगविधाओ । तं जधा - ओरस्सबलं [इंदियबलं] अज्झष्पबलं । उरसि भवं औरस्यम्, शारीरमित्यर्थः ॥ ४ ॥ ॥ ८७ ॥ तं पुण अणेगविधं, तं जधा - araण काय आणापाणू संभव तेधेव संभव्वे । सोत्तादीणं सद्दादिसु विसएस गहणं च ॥ ५ ॥ ८८ ॥ 25 १६४ पभु अण्णतरो इंदो जंबूदीवं तु वामहत्येण । छत्तं जधा घरेज्जा अयत्ततो मंदरं घेतुम् ॥ १ ॥ [ देवेन्द्रस्तवप्रकीर्णके गा० ६४ ] तथा सम्भाव्यतेऽयं दारकः परिवर्द्धमानः शिलामेनामुद्धर्तुम्, अनेन मल्लेन सह योद्धुमित्यादि । इंदियबलं पंचविधं सोइंदियादि, एक्केकं सम्भवे सम्भाव्ये च । सम्भवे यथा श्रोत्रस्य बारस जोयणाणि विसेओ, एवं सेसाण वि जस्स जो विसयो । सम्भाव्येऽपि यस्यानुपहतमिन्द्रियं श्रान्तस्य वा पिपासितस्य वा परिग्लानस्य वा साम्प्रतमग्रहणसमर्थं यथोद्दिष्टानामुपद्रवाणां उपशमे सम्भाव्यते विषयग्रहणायेति ॥ ५ ॥ ८८ ॥ उक्तमिन्द्रियवीर्यम् । इदानीं आध्यात्मिकम् । तमणेगविधं— उज्जम धिति धीरतं सोडीरत्तं खमा य गंभीरं । उवओग-जोग-तव-संजमादियं होति अँज्झप्पं ॥ ६ ॥ ८९ ॥ उज्जम घिति धीरतं० गाधा । उज्जम त्ति णाण-तवादीसु उज्जमति । तं दुविधं - सम्भवे सम्भाव्ये च । कश्चित् तदुद्यमाय । एवं सर्वत्र यथा सम्भवे सम्भाव्ये च योजयितव्यम् । धितिमिति संयमे धृतिः । धीरतं णाम परीसहोबसगाणं [जये ] | सोडीरो णाम त्यागसम्पन्नः अविसादिता । अहवा सोडीरतं ज्ञाने अधीतव्ये तथैव वा कर्त्तव्ये न पराभियोग इव करोति, हर्षायमाणः ‘अवश्यं मया एतत् कर्त्तव्यम्' न विषीदति वलयति वा । क्षमावीर्य आक्रुश्यमानोऽपि न क्षुभ्यति । 30 गंभीरो नाम न परीषहैः क्षुभ्यते, दातुं वा कातुं वा णो उत्तणो भवति । उक्तं च छुल्लुच्छुलेति जं होति ऊणयं रित्तयं कणकणेइ । भरियाई ण खुब्भंती सुपुरिसविण्णाणभंडाई ॥ १ ॥ उवयोगः सागार-अणागारुवयोगवीरियं । सागारोवयोगवीरियं अट्ठविधं - पंच ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि । अणागारो १ वइ काप खं १ पु २ ॥ २ तहा य सं खं २ पु २ ० ॥ चूसप्र० ॥ ५ विसेसो, एवं चूसप्र० ॥ ६ अज्झप्पे खं २५२ ॥ For Private ३ अत्र भासशब्देन काक इत्यर्थः सम्भाव्यते ॥ ४ असम्भाव्ये ७. गारयोग चूस• ॥ Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ४०८ णिज्जुत्तिगा० ८८ - ९१] सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। १६५ योगवीरियं चतुव्विधं येन स्वे स्वे विषये उपयुक्तः यो यमर्थ जानीते द्रष्टव्यं च पश्यति । एक्केक्रस मत्युपयोगादेः चतुर्विधो भेदो दव्वादि । एवं उवयोगवीरिए जाणति । जोगवीरियं तिविधं - मणज्झपवीरियं अकुशलमणणिरोधो वा कुशलमणउदीरणं वा मणस्स वा एगत्तीभावकरणं, मणवीरिएण य नियंठसंयता वडूमाण अवट्ठितपरिणामगा य भवंति १ । वइवीरिए भासमाणो अपुणरुत्तं निरवशब्दं च भाषते वागध्यात्मोपयुक्तः २ । काये वीर्यं सुसमाहित- पसन्नवं- सुसाहरितपादः कूर्मवदवतिष्ठते 'कथं निश्वलोsहं स्याम् ?' इत्यध्यवसितः । उक्तं हि - "काए वि हु अज्झप्पं ते० ३ [ आव नि० गा० १४७० पत्र ७७३ ] । तपोवीर्य 5 द्वादशप्रकारं तपस्तदध्यवसितः करोति । एवं सप्तदशविधे संयमेऽपि एकत्वाध्यवसितस्य संयमवीर्यं भवति - कथमहमतिचारं न प्रायामिति । एवमादि अध्यात्मवीर्यम् । एवमादि भाववीर्य वीरियपुव्वे वणिज्जति विकल्पशः । उक्तं च— सव्वणदीणं जा होज्ज वालुगा गणणमागता संती । तत्तो बहुत्तराओ अत्थो एक्स्स पुव्वस्स ॥ १ ॥ सव्वसमुद्दाण जलं जति पत्थमितं हवेज्ज संकलणं । तत्तो बहुगतराओ अत्थो एगस्स पुव्वस्स ॥ २ ॥ ] ।। ६ ।। ८९ ।। [ सव्वं पि' तयं तिविधं बालं तथा पंडितं च मिसितं च । अधवा वि होति दुविधं अगार -अणगारियं चेव ॥ ७ ॥ ९० ॥ सव्वं पितयं तिविधं बालं तथा पंडितं च मिसितं च० [ गाधा ] । अधवा दुविधं तं ० - अगारवीरियं अणगारवीरियं च । तत्थ पंडितवीरियं अणगाराणं । अगाराणं तु दुविधं बालं च बालपंडितं चेति । तत्थ पंडितवीरियं पि सादीयं सपज्जवसितं च । बालवीरियं जधा असंजतस्स तिविधोविट्ठणा, तंजधा - अणादीयं अपज्जवसितं १ अणाईयं सपज्जवसियं २ 15 सादीयं सपज्जवसियं ३, णो चेव णं सादीयं अपज्जवसितं । अधवा सव्वं तु वीरियं तिविधं - खइयं १ उवसमियं २ खायोसमियं ३ ति । खइयं खीणकसायाणं १ उवसमियं उवसंतकसायाणं २ सेसाणं तु खयोवसमियं ३ ।। ७ ।। ९० ।। जस्थ सुत्तं "सत्थमेगे सुसिक्खंति” [ सूत्रगा० ४११] तत्थ णिज्जुत्तिगाधों सत्थं तु असियगादी विज्जा मंते य देवकम्मकतं । पत्थिव वारुणं अग्गेय वीउ तह मीसगं चेव ॥ ८ ॥ ९१ ॥ ॥ वीरियं सम्मत्तं ॥ ८ ॥ सत्यं तु असियगादि० गाधा । सत्यं विद्याकृतं मन्त्रकृतं च । तत्थ विज्जा इत्थी, मंतो पुरिसो । अधवा विज्जा ससाधणा, मंतो असाधणो । एक्केकं पंचविधं - पार्थिवं वारुणं आग्नेयं वायव्यं मिश्रमिति । तत्थ मिस्सं जं दिह तिन्ह वा देवताणं, अधवा विज्जाए मंतेण य, एताणि अधिदेव गाणि ॥ ८ ॥ ९१ ॥ गतो णामणिफण्णो । सुत्ताणुगमे सुत्तमुञ्चारेतव्वं । तं चिमं सुत्तं - ४०८. दुहा वेतं संमक्स्वातं वीरियं ति पवुचति । किणु वीरस्सं वरितं ? केणें वीरो त्ति वुच्चति ? ॥ १ ॥ 10 For Private Personal Use Only 20 ४०८, दुहा वेतं समक्खातं ० सिलोगो । दुधा वि एतं द्विप्रकारं द्विभेदं बालं पंडितं च । चः पूरणे । एतदिति यदभिप्रेतम्, यद्वा इहाध्याये अधिकृतं वक्ष्यमाणम्, जं वा णिक्खेवणिज्जत्तीवृत्तं । सम्यग् आख्यातं समाख्यातं तित्थगरेहिं गणधरैहिं च । विराजते येन तं वीरियं, विकमो वा वीरियं । पकरिसेण बुच्चइ पवुच्चर, भृशं साध्वादितो वाच 130 १ पि एतं ति खं १ वृ० । पि य तं ति खं २ पु२ ॥ २ पंडिय बालविरियं च मीसं च खं १ ख २ पु २ वृ० ॥ ३ 'रमण' खं १ ॥ ४ सत्थं असिमादीयं विजा खं २ पु २ । सत्थं असियाईयं विज्जा खं १ ॥ ५ णमग्गे खं १ ॥ ६ वायु खं १ पु २ ॥ ७ द्वयोः तिसृणां वा ॥ ८ सुक्खायं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ९ स वीरतं खं १ खं २ वृ० दी० ॥ १० कहं चेयं पचति ? खं २ पु १ पु २ । कहं चेव पमुच्चई ? खं १ ॥ 25 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्ति-चुण्विसमलंकि [८ वीरिवाजापर किण्वीस्स्स बीरितं केश वीरो चि वुश्चति, किमिति परिप्रभे, उदितकें, कीर्थमस्यात्तीति वीरः, किं तद बोल्न वीर्यम् ? केण वा वीरे ति कुञ्चति, केण वा कारणेण वीर इत्यभिधीयते ॥१॥ पृच्छा गता। वाकरणं तु-'कि वीरियं ?' जं पुच्छितं तदिदमपदिश्चते ४०९. कम्ममेचे परिणाय अकम्मं वा वि सुव्बत्ता। एतेहिं दोहिं ठाणेहिं जैम्मि दिस्संति मैच्चिया ॥२॥ ४०९. कम्ममेव परिण्णाय० सिलोगो। क्रिया कर्मेत्यनन्तरम् । क्रिया हि वीर्यम्, एवं परिवार एवं परिजानीहि । तस्सेगट्टिया-उहाणं ति वा कम्मं ति वा बलं ति वा वीरियं ति वा एगटुं। पठ्यते च-"कम्ममेव पभासंति" एवं प्रभाषन्ति कर्मवीर्यम् । अधवा यदिदमष्टप्रकारं कर्म तद्धि औदयिकभावनिष्पन्नं कत्यपदिश्यते, औदयिकोऽपि च भावः कर्मोदयनिष्पन्न एव बालवीरियं वुच्चति । बितियं-अकम् वा वि सुखता, अकर्मवीर्य तत्, तद्धि कर्मक्षयनिष्पन्नम् , 10 न वा कर्म बध्यते, न वा कर्मणि हेतुभूतं भवति । सुव्रताः तीर्थकराः प्रभाषन्त इति वर्चते, परिजानन्त इति वर्त्तते । तत्तु पण्डितवीर्यमित्यपदिश्यते । एते एव द्वे स्थाने, तं०-कम्मवीरियं च अकम्मवीरियं च । तत्र प्रमादात् कर्म बैध्यते अप्रमादान बध्यते । अथवा द्वाविति बालं पण्डितं च । बालं असंजताणं पंडितं संजयाणं । तत्र तावद् बालवीरियं अपदिश्यते । अधवा जम्मि दिस्संति वट्टमाणा मच्चिया मणुस्सा ॥ २ ॥ तत् कथम् ?, उच्यते ४१०. पमादं कम्ममाहंसु अप्पमादं तधाऽवरं। तब्भावदेसओ वा वि बालं पंडितमेव वा ॥३॥ ४१०. पमादं कम्ममाहंसु. सिलोगो । 'प्रमादात् कर्म भवति' एवं वक्तन्मे "कारणे कार्योपचारात्" प्रसाद कर्मेत्युच्यते, स च प्रमादः । [ ...........................] तदिहावि संभवे आविशे पंडितं सादि सपज्जवसितं । बालं तिविध-अणादिअपज्जवसितं अभवियाणं, अपादिसपज्जवसितं भविमणं, सादिसपनवसितं सम्महिट्ठीणं ॥३॥ जं तं बालं तं कधं होजा? उच्यते ४११. अत्थमेगे सुसिक्खंति अतिवाताय पाणिणं । 'केइ मंते अधिजंति पाण-मूल विहेडिणो॥४॥ ४११. अत्थमेगे सुसिक्खंति० सिलोगो । अस्त्रमिति धनुरुपदिश्यते, धनुःशिक्षामित्यर्यः, आलीढस्थानविशेषतः एगे असंजता, न सर्वे, अधवा सर्वे कारणा अस्त्रशास्त्राण्यधीयते, हंभीमासुरुक्ख कोडल्लगं धर्मपटका वकं वायत्तार . वा कलाओ सुट्टु सिक्खंति । अशुभेनाध्यवसायेन अतियाताय पाणिणं ति एवं पुरुषस्य शिरस्छेत्तव्यम्, एवं चार्थी प्रत्यर्थी 25 वा दण्डयितव्यः, नेत्रागा( ? का)रादिभिश्च कारी अकारी च ज्ञातव्यः, अमुकापराधे चायं दण्डो हतच्छेद-मारणेत्यादि । किश्च-केइ मंते अधिजंति, अनमंते आभिचारुके अथर्वणे हृदयोण्डिकादीनि च अश्वमेधं सर्वमेष पुरुषमेधादि च मश्रानधीपते । भूतमत्रो धातुवादः बिलवादादि । बहूणं पाणाणं भूताणं विहेवणं, विज्ञापन इत्यर्थः । उक्तं च. षट् शतानि नियुज्यन्ते पशूनां मध्यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचनाम्यूनानि पशुभित्रिभिः ॥ १॥ १ मेगे पवेदेति अ° खं २ पु १ पु २ वृ० दी० । 'मेते पवेदेति खं १ । मेष पभासति चूपा॥ जेहिं खं २ पु१पु२ वृ० दी०॥ ३दीसंति खं १॥४ मच्चिता खं १ खं २ पु १॥ + बाध्यत्ते भूसंप•॥ सत्थमेणेतुतिसं पु.१ पु २। सत्थमेगे सुसि खं १०, नि० गा० ९१ चूर्ण्यवतरणे ॥ ८°वादाय सं २ पु १॥ ९एमे मैतेखर पु १ पु २ वृ० दी॥ १० नेत्रारागादि चूसप्र०॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ सुखमा ४०१-१५] सूयगडंगसुत्तं विइयमंग पढमो सुयक्खंधो ते तु अशुभाध्यवसिताः ॥ ४ ॥ किच४१२. माइणो कटु मायाओ कामभोगे समाहरे । हंता छेत्ता पंकत्तित्ता आतसाताणुगामिणो ॥५॥ ४१२. माणओ काहु (माइणो कट्ट) मायाओ० सिलोगो । तेण चाणक्क-कोडिल्लं ईसत्थादी मायाओ अधिजति जधा परो वंचेतव्यो । तहा वाणियगादिणो य उकंचण-वंचणादीहिं अत्थं समजिणंति । लोभो तत्थेव ओतरेसि, माणो वि । । एवं मायिणो मायाहिं अत्थं उवजिणंति, यथेष्टानि सावधकार्याणि साधयन्ति, तत एषां कर्मबन्धो भवति । कामभोगान समाहरे, कारणे कार्यवदुपचारः, अर्थ एव कामभोमाः तान् समाहरन्तीति । पठ्यते च-"आरंभाय तिउट्टह" आरम्भात् विभिा काय-बाग-मनोभिः आउट्रातीति तिउति बहवे जीवे एगिदियादि जाव पंचेंदिय त्ति बंधति य एवमादि आरभते पापम् । [हंता गामादि, छेत्ता मियपुंछादि, पत्तिया हत्थिदंतादि हत्यादि वा । आतसाता०] ॥ ५ ॥ तं तु ४१३. मणसा वयसा चेव कायसा चेव अंतसो। ___ आरतो परतो वा वि दुहा वि य असंजता ॥६॥ ४१३. मनसा वयसा चेप० सिलोगो । मणसा चवसा कायसा, णवएण भेदेणं जीवे हणतो बंधतो उद्धंसेंतो आणवेतो कुतो अर्थोपार्जनपरो निर्दयः । अधवा [ ?? हंतो गामादि, छेत्ता मियपृच्छापि, पकत्तिया हत्थिदंतादि हत्यादि वा, आतसाता । ११] मणसा "कइया वश्च सत्थो." गाधा, कायेण किलिस्संतो, पढमं मणसा, पच्छा धावाए, अंतकाले कारण । आरतो सयं, परतो अण्णेण, दुहा वि ॥ ६ ॥ स एवम् 15 ४१४. वेराणि कुव्वती वेरी ततो घेरेहिं रजति । पापोपका य आरंभा दुक्खफासा य अंतसो ॥७॥ ४१४. वेराणि कुव्वती वेरी० सिलोगो। स वैराणि कुरुते वैरी । ततो अण्णे मारेति, अण्णे बंधति, अण्णे दंडेत्ति, अण्णे णिव्विसए आणवेत्ति, चोर-पारदारिय-सूय-चोपगादिबहुजणं वेरियं करेति । जेसु वा त्थाणेसु रजति सज्जति गिज्झति अझोवववति । पठ्यते च-"जेहिं वेरेहिं कच्चति" ततस्ते वैरिणः इहभवे चेव करकयादीहिं कश्चंति, छिद्यन्त इत्यर्थः । जाणि 20 वा करेति ताणि से अधिअतराणि पडिकरैति, रामवत् , जधा रामेण खत्तिया उच्छादिता।। . अपकारसमेन कर्मणा, न नरस्तुष्टिमुपैति शक्तिमान् । अधिकां कुरु वैरयातनां, द्विषतां जातमशेषमुद्धरे ॥१॥ सुभोम्मेणावि तिसत्तखुत्तो पिबंभणा पुधवी कता । पापोपका य आरम्भाः, पापाऱ्याः पापोपगाः पापयोग्याः, पापानि वा उपगच्छन्त्यारम्भिमा, आरम्भा हिंसादयः, दुःखस्पर्शा दुहावहाः, दुःखोदयकरा इत्यर्थः, अन्ते इति अन्तश: 25 मृतस्य नरकादिषु । "पावाणं खलु भो! काणं कम्माणं दुश्चिण्णाणं जाव वेदइत्ता मोक्खो, णत्थि अवेदइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता" [दशवै० अ० ११ स्थान १८] | अष्टानामपि प्रकृतीनां यो यादृशोऽनुभाषः स तथा फलति ॥ ७ ॥ किञ्च ४१५. संपरागं निगच्छंति अत्ता दुक्कडकारिणो। . राग-दोसस्सिता बाला पाचं कुव्वंति ते बहुं ॥ ८॥ १ कामभोगे समारमे पु २ ० दी। कामभोगे समाहरे खं १ ख २ पु १। आरंभाय तिउड चूपा वृपा० ॥ २पगभित्ता खं २ पु १॥ ३ चतुरस्रकोष्ठकान्तर्गतोऽयं प्रकृतसूत्रश्लोकसत्कथूर्णिग्रन्थसन्दर्भो लेखकप्रमादादिकारणादनन्तरसूत्रश्लोकचूर्णौ प्रविष्टो वर्तते । मया त्वेषोऽत्र यथास्थानं चतुरस्रकोष्ठकान्तः स्थापितोऽस्ति । दृश्यतां टिप्पणी ५॥ ४ नवकेन भेदेन ॥ ५[?? ?? ] एतच्चिहान्तर्गतोऽयं पञ्चमसूत्रश्लोकसत्कथूर्णिग्रन्थसन्दर्भः लेखकप्रमादादत्रागतोऽस्ति, अतोऽयं चूर्णिग्रन्थसन्दर्भोऽनन्तरातिक्रान्तश्लोकचूर्णी यथास्थानं चतुरस्रकोष्ठकान्तनिवेशितोऽस्तीति ॥ ६ वेराति खं १। वेराई खं २ । वेराइं पु १ पु २॥ ७ जेहिं वेरेहि कञ्चति चूपा० ॥ ८वरत्थाणेसु रजति सजसज्जति चूसप्र.॥ ९ अत्तदुक्कडकारिणो खं २ पु १ पु २० दी । “आत्मदुष्कृतकारिणः" इति वृत्तिः ॥ Jain Education Intemational Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [८वीरियज्झयण ४१५. संपरागं [णिगच्छंति. सिलोगो । ] तासु तासु गतिषु संपराणिज्जतीति संपरागः संसारः । अथवा पर इत्यनाभिमुख्येन बध्यमानमेव वेद्यते, निगच्छंति प्रामुवन्ति । आर्चा नाम विषय-कषायार्ताः । दुक्कडकारिणो दुकडाणि हिंसादीणि पावाणि कुर्वन्तीति दुक्कडकारिणः । किंनिमित्तम् ? राग-दोसस्सिता बाला बालवीर्याः, स एव प्रकृतिः ई, बहुं किर कालं ठिती मोहणीयस्स विभासा । ततस्तैः पापैः कर्मभिः साम्परायिकैः सम्परायमेव णियच्छंति, संसारमित्यर्थः, तत्र 5.च नरकादिषु दुःखान्यनुभवन्ति ॥ ८॥ ४१६. एतं सकम्मविरियं बालाणं तु पवेदितं ।। __एत्तो अकम्मविरियं पंडिताणं सुणेह मे ॥९॥ ४१६. एतं सकम्मवीरियं० सिलोगो । सकर्मवीरियं ति वा बालवीरियं ति वा एगहुँ । इदानीं अकम्मवीरियं ति वा पंडितवीरियं ति वा एगढे ति ॥ ९ ॥ केरिसो पुण पंडितो ? उच्यते10 ४१७. देविए बंधणुम्मुक्के सवतो छिण्णबंधणे। पंणोल्ल पावगं कम्मं सल्लं कंतेति अंतसो॥१०॥ ४१७. दविए बंधणुम्मुक्के० सिलोगो । राग-दोसविमुक्को दविओ, वीतराग इत्यर्थः, अथवा वीतराग इव वीतरागः, बन्धनेभ्यो मुक्तकल्पः पण्डितवीर्यावरणेभ्यः । सव्वसो छिन्नबंधणे त्ति सिद्धः, तेन नाधिकारः । ये पुनः प्रमादादयो हिंसादयः रागादयो वा तेषु कार्यवदुपचारादुच्यते-सव्वतो छिण्णबंधणे, न तेषु वर्त्तत इत्यर्थः । कसायअप्पमत्तो वा स 15 अकर्मवीरः, एवं चेव अकम्मवीरियं बुञ्चति । कधं अकम्मवीरियं ?, यतस्तेन कर्म न बध्यते, न च तत् कर्मोदयनिष्पन्नम् , येन कर्मक्षयं करोति तेन अकर्मवीर्यवान् । पणोल्ल पावगं कम्मं, प्रमादादीन् पापकर्माश्रवान् तान् प्रणुद्य सल्लं कन्तेति 'अंतसो, भावकम्मसल्लं अट्ठप्पगारं, तत् कुन्तति छिनत्तीत्यर्थः, अन्तसो त्ति यावदन्तोऽस्य, निरवशेषमित्यर्थः ॥१०॥ केन कृन्तति ? किं वाऽऽदाय कृन्तति ? इति, उच्यते-धम्ममादाय । कीदृशं धर्मम् ?४१८. णेयाउअं सुअक्खातं उपादाय समीहते। भुजो भुज्जो दुहावासं असुभत्तं तधा तथा ॥११॥ ४१८. णेयाउअं सुअक्खायं० सिलोगो । नयनशीलो नैयायिकः । कुत्र नयति ?, मोक्षम् । सुष्टु आख्यातः सुअक्खातः । उपादायेति गृहीत्वा । सम्यग् ईहते समीहते ध्यानेन । किं ध्यायते ?, धम्मं सुकं च । तदालंबणाणि तु भुजो भुञ्जो दुहावासं, भूयो भूय इति वीप्सार्थः, अतीता-ऽनागतानि अणंताई भवग्गहणाई, सकम्मवीरियदोसेण भूयो भूयो णरगादिसंसारे णाणाविधदुक्खवासे सारीरादीणि दुक्खाणि भुजो भुज्जो पावति । अशुभभावः असुभत्तं, तधा तधा 25 तेन तेन प्रकारेण, यथा यथा कर्म तथा तथाऽशुभं फलति । अथवा अशुभमिति अशुभभावना गृहीता, यथा "शुभं किं नु .कडेवरे०" [ ]। एवमनित्याद्या अपि द्वादश भावना गृहीताः ॥ ११॥ तत्रानित्यभावना४१९. ठाणी विविधठाणाणि चइस्संति ण संसओ। अणितिए इमे वासे गातीहि य सुहीहि य ॥१२॥ ४१९. ठाणी विविधठाणाणि० सिलोगो । स्थानान्येषां सन्तीति स्थानिनः । देवलोके तावदिन्द्र-सामानिक30 त्रायाधिशाद्याः । मनुष्येष्वपि चक्रवर्ति-बलदेव-वासुदेव-मण्डलिक-महामण्डलिकादि । तिर्यक्ष्वपि यानीष्टानि, विविधानीति उत्तम-मध्यमा-ऽधमानि । तेभ्यः स्थानेभ्यः सर्वस्थानिनः चहस्संति. नास्त्यत्र संशयः । उक्तं हि १“नियच्छन्ति बध्नन्ति” इति वृत्तौ ॥ २१ इति चतुःसङ्ख्याद्योतकोऽक्षराङ्कः । प्रकृतिः स्थितिः रसोऽनुभागश्चेत्यर्थः ॥ ३ दविते खं २ पु १॥ ४ पणोल्ले खं १ खं २ पु १ पु२१ ५ कत्तति अंतसो खं १ । कंतह अप्पणो पु २ पा०॥ ६ मुक्तकेभ्यः पण्डि चूसप्र०॥ ७ अप्पणो, भावंचूसप्र. ॥ ८ कर्म चूसप्र० ॥ ९णेताउयं खं १॥ १० अणितिए य संवासे वृ० दी। अणीतिते अयं वासे खं १ । अणीयए अयं वासे पु १ पु २ । अणियए य संवासे खं २॥ ११ णायएहिं सुखं १ पु २ । नाततेहिं सुखं २ ॥ Jain Education Intemational Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा०४१६-२२] सूयगडंगसुत्तं बिडयमंगं पढमो.सुयक्खंधो। अशाश्वतानि स्थानानि सर्वाणि दिवि चेह च । देवा-ऽसुर-मनुष्याणां ऋद्धयश्च सुखानि च ॥१॥ । किञ्च-अणितिए इमे वासे, जीवतोऽपि हि अनित्यः संवासो भवति, कैः ?, ज्ञातिभिः, ज्ञातयो नाम माता-पितृसम्बन्धाः, सुहृदः शेषा मित्रादयः ॥ १२ ॥ ४२०. एवमादाय मेधावी अप्पणो 'गिद्धिमुद्धरे। आयरियं उवसंपज्जे संबे धम्मा अकोपिता ॥ १३॥ [सूत्रमं० ५००] ४२०. एवमादाय मेधावी० सिलोगो । एवमवधारणे, आदाए त्ति एवं बुद्ध्या गृहीत्वा, यथा सर्वाणि अशाश्वतानि स्थानानि पण्डितवीर्यगुणाश्च मोक्षे च शाश्वतं स्थानं आदाए त्ति, अथवा द्वादशसु भावनासु यदुक्तं तं आदाय उपधारयित्वेत्यर्थः, आत्मनैव आत्मनि गृद्धिमुद्धरेत् , ममीकारमित्यर्थः, तं०-“हत्था मे पादा मे जीवेज्जामि जेसु या ।” कलत्रखजन-मित्रादिषु ग्रेधिरुत्पद्यते तेभ्य आत्मनैव आत्मानमुद्धरेत् । किञ्च-गिद्धिमुद्धरेमाणो आयरियं उवसंपन्जे, स्वाध्याय- 10 तपादीनुत्तरोत्तरगुणानुपसम्पद्यमानः चरित्तारियं मग्गं उवसंपज्जेजा, आयरियाण वा मग्गं उपसंपज्जेज्ज । सर्वे धर्माः कुतीथिकानां अकोपिता नामा ण केहिं वि कोविजंति । कोवितो णाम दूषितः, कूटकार्षापणवत्, छेदो पुण ण कोविज्जइ ॥ १३ ॥ तं कधं उवसंपज्जइ ?, दोहिं ठाणेहिं ४२१. सहसम्मुतियाए णचा धम्मसारं मुंणेत्त वा । उवहिते य मेधावी पडिघातपावगे ॥१४॥ ४२१. सहसम्मुतिआए णच्चा० सिलोगो । शोभना मतिः सन्मतिः, सहजाऽऽत्ममतिः सहसन्मतिः, स्वा वा मतिः सन्मतिः, सह सम्मतीए सहसम्मतिगं प्रत्येकबुद्धानाम् । निसर्गसम्यग्दर्शने वा पित्तज्वरोपशमनदृष्टान्तसामर्थ्याद् आभिणिबोधिय-सुयं उप्पाडेति, जधा इलापुत्तेण [आव० हारि० वृ० पत्र ३५९-२ नि० गा० ८४६ ] । धम्मसारं सुणेत्त वा, यथा तीर्थकरसकाशादन्यतो वा धर्म एव सारः धर्मसारः, धर्मस्य वा सारः धर्मसारः चारित्रं तं [सुणेत्ता श्रुत्वा ] प्रतिपद्यते, पच्छा उत्तरगुणेसु परक्कमति पंडितवीरिएण पुव्वकम्मक्खयट्ठताए । एवं सो दविओ हिंसादि रागादि वा बंधण-20 विमुक्को अकम्मवीरिए उवहिते य मेधावी पडिघातपावगे, धम्मे उवहिते अकम्मवीरिए या वड्डमाणपरिणामे मेराए धावतीति मेधावी प्रत्याख्यातहिंसादिअट्ठारससंजत-विरत-पडिहत-पञ्चक्खातपावकम्मे ॥ १४ ॥ स एवमुत्तरगुणेसु घडमाणो ४२२. जं किंचि उवक्कम णचा आउक्खेमं च अप्पणो। तस्सेव अंतरद्धा खिप्पं सिक्खेज पंडिते ॥१५॥ ४२२. जं किंचि उवक्कम णच्चा० सिलोगो । यत्किञ्चिदिति उपक्रमाद्वा अवाएण वा । अधवा तिविहो उवक्कमो-25 भत्तपरिण्णा-इंगिणादि । आयुषः क्षेममित्यारोग्यं शरीरस्य, चाद् उपद्रवा आत्मन इत्यात्मशरीरस्य । तस्सेव अंतरद्धा, तस्सेति तस्य आयुःक्षेमस्य अन्तरद्धा इत्यन्तरालं यावन्न मृत्युरिति यावद्वा मूढा संज्ञा । खिप्पमिति खिप्पं संलेहणाविधि शिक्षेव ॥ १५॥ सिक्खा दुविधा-आसेवणासिक्खा गहणसिक्खा य । ग्रहणे तावद् यथावन्मरणविधिर्विज्ञेयः । आसेवनया ज्ञात्वा आसेवितव्यं यद् यदिच्छति मनसा । आसेवणसिक्खा १गेहिमु खं २॥ २ आरियं खं १ पु १पु २ वृ० दी०॥ ३ सव्वधम्ममकोवियं खं २ पु १ पु २ ० दी । सव्वधम्ममगोवियं खं १ पा० ॥ ४°म्मुइए खं १ खं २ पु १ वृ• दी० । °म्मइए पु २॥ ५ सुणेत्तु खं १ खं २ पु १ पु २॥ ६ समुवट्टिते अणगारे पञ्चक्खायपावर खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी । उवट्टिते उ अण° खं १॥ ७ “वयछक्क ६ कायछकं १२.अकप्पो १३ गिहिभायणं १४ । पलियंक १५ निसिज्जा य १६ सिणाणं १७ सोभवज्जणं १८॥१॥" इत्येतदष्टादशकम् ॥ ८ जंकिंचुवकम जाणे आउक्खे-- मस्स अप्पणो । तस्सेच अंतरा खिप्पं सिक्खं सिक्खेज पंडिते खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी । किं तुवक्कम ख २ पु १३२॥. सूय. सु. २२ Jain Education Intemational Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [ ८ वीरियज्मपर्ण ४२३: जधा कुम्मो सयंगाई सए देहे समाहरे। .. .. . एवं पावहिं अप्पाणं अज्झप्पेण समाहरे ॥१६॥ ४२३. जधा कुम्मो सयंगाई० सिलोगो । मरणकाले च नित्यमेव यथा कूर्मः स्वान्यङ्गानि पश्च सए देहे समाहरे त्ति नाम प्रवेशयति, ततः शृगालादिभ्यः पिशिताशिभ्यः अभिगम्यो न भवति । एवं पावेहि अप्पाणं, पावाणि हिंसादीणि 5कसायादीणि च, मरणकाले चाऽऽहारोपकरणसेवणव्यापाराच्चाऽऽत्मानं संहृत्य निर्व्यापारः संलेखनां कुर्यात् । आत्मानमधिकृत्य यत् प्रवर्तते तद् अध्यात्मम, ध्यानं स्वाध्यायो वैराग्यं एकाग्रता इत्यादिनाऽध्यात्मेन पापात् समाहरे त्ति ॥ १६ ॥ तत्र त्रयाणां मरणानामन्यतमं व्यवस्यते । इह तु पाओवगमणमधिकृतम् , येनापदिश्यते४२४. 'संहरे हत्थ-पादे य कार्य सविंदियाणि य। पावगं च परीणामं भासादोसं चै पावगं ॥१७॥ 10 ४२४. संहरे हत्थ-पादे य० सिलोगो। हस्त-पादप्रवीचारं संहृत्य निष्पन्दस्तिष्ठेत् । कायं च संहर उल्लङ्घनादिभ्यः । सर्वेन्द्रियाणि वा स्खे वे विषये संहर राग-द्वेषनिवृत्तिं कुरु । पावगं च परीणामं० वृत्तम् । णिदाणादि इहलोगासंसप्पयोगं च संहर इति वर्तते । भासादोसं च पावगं ति वाग्गुप्तिर्गृह्यते ॥ १७ ॥ एवं भत्तपरिणाए इंगिणीए वि अयतत्तं साहर, "जतं गच्छे जतं चिढे" [दशवै० अ० ४ प्रान्ते गा..] त्ति । दुर्लभं पण्डितमरणमासाद्य कर्मक्षयार्थ सदोपयुक्तेन भाव्यम् । तत्थ णं जति कोयि राया वा रायामच्चो वा वंदेज वा पूयेज वा निमंतेज वा तत्र न रागः कार्य इति कृत्वा अपदिश्यते15 ४२५. अणु माणं च मायं च तं परिणाय पंडिते। सुतं मे इहमेगेसिं एवं वीरस्स वीरियं ॥१८॥ ४२५. अणु माणं च मायं च० [सिलोगो] । अधवा मरणकाले चामरणकाले च सर्वकालमेव अणु माणं च मायं च तं परिणाय पंडिते । अणुरिति स्तोकोऽपि मानो न कर्त्तव्यः. किम महान ? । अण किमु महती? इति । पूजा-सत्कार-कामभोगे कोइ पडिसेवेज, जधा पंडरजाए [दशाश्रु० अ० ८ नि० गा० ५७-५८ तञ्चौं च । आव० चूर्णी पत्र ५२२ । आव० हारि०वृत्तिः पत्र ३९३-२] । एवं च क्रोधभावमपि दुविधाए परिणाए ज्ञात्वा कषायविपाकं च तेभ्यो निवृत्तिं कुर्यादिति पण्डितः । पठ्यते च-"अतिमाणं च मायं च, तं परिणाय पंडिते" अतीव मानो यथा सुभोम्मादि, कोऽर्थः ? यद्यपि सरागस्य मानोदयः स्यात् तथापि उदयप्राप्तस्य विफलीकरणं कार्यम् । सुतं मे इहमेगेहिं(सिं) एवं वीरस्स वीरियं, श्रुतं मया तीर्थकरात् स्थविरेभ्यो वा इहेति इहलोके प्रवचने वा एकेषां न सर्वेषाम् , एतद् वीर्यवतो वीरस्य पंडितवीरियं, यदुक्तं वीरस्स वीरतं इति । यथा वाऽस्यावसानमिति तद व्याख्यातम ॥१८॥ 28 स एवं मरणकाले अमरणकाले वा पण्डितवीर्यवान् महाव्रतेषूद्यतः स्यात् । तत्राहिंसा प्रथमम् * ४२६. उड्डेमधे 'तिरियं दिसासु जे पाणा तस-थावरा। सवत्थ विरतिं कुज्जा संति-णिवाणमाहितं ॥१९॥ ४२६. अस्य श्लोकस्य चर्चा उक्ता [ सूत्रगा० २४३] ॥ १९ ॥ किश्च १पावाई मेधावी अज्झ खं १ खं २ पु १ पु २ घृ० दी०॥ २साहरे हत्थ-पादे य मणं स खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ३च तारिसं खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ४ आयतर्द्व सुयादाय एवं वीरस्स वीरियं । सातागारवणिहुते उवसंते अणिहे चरे॥ इतिरूपः सूत्रश्लोकः खं १ वर्तते । अणु माणं च मायं च तं परिणाय पंडिए । आययटुं सुयादाय एवं वीरस्स वीरस्स वीरियं । सायागारवणिहुते उवसंतेऽणिहे चरे ॥ इतिरूपः पाठः खं २ पु १ पु २ वर्त्तत्ते । अणु माणं च मायं च तं परिण्णाय पंडिए । सातागारवणिहुए उवसंतेऽणिहे चरे॥ इतिरूपः सूत्रपाठः वृ० दी। अतिमाणं च मायं च तं परिण्णाय पंडिए । इति सुयं मे इहमेगेसिं एयं वीरस्स वीरियं । इति आयतटुं सुआदाय एवं वीरस्स वीरितं । इति च सूत्रपूर्वार्धस्य पाठभेदत्रयं वृत्तौ वृत्तिकृता निर्दिष्टं वर्तते । चूर्णौ त्वाद्य एक एव पाठमेदो निर्दिष्टोऽस्ति ॥ ५ नायं सूत्रश्लोकः सूत्रप्रतिषु दृश्यते । किञ्च चूर्णि-वृत्ति-दीपिकाकृद्भिस्य लोको निर्दिष्टोऽस्ति । अपि चायं श्लोकः तृतीयाध्ययनचतुर्थेद्देशके २४३ तमो वर्तते ॥ ६तिरियं वा जे दी। तिरिय दिसासु जे वृ०॥. Jain Education Interational Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुचगा० ४२३-३०] सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो । * ४२७. पाणे य णातिवाएज अदिण्णं पि य णाऽऽतिए । सातियं ण मुलं बूया एस धम्मे वुसीमयो ॥ २० ॥ ४२७, एवं तावत् पाणातिवायं वज्जेज्ज । ण वा अदिण्णादाणं आदिए । सादियं णाम माया, सादिना योगः सादियोगः, सैंह आतिना सातियं, न हि मृषावादो मायामन्तरेण भवति, स चोकंचण-वंचण - कूडतुलादिसु भवति, सातयोगसहितो मुसावादो भवति, स च प्रतिषिध्यते, अन्यथा तु 'न मृगान् पश्यामि, ण य वल्लिकाइयेसु समुद्दिस्सामो' एवमादि 5 ब्रूयात्, येनात्र परो वचयते तत् प्रतिषिध्यते, कोध-माण- माया - लोभसहितं वचः । एष धर्मः योऽयं उक्तः स्वभावः, वुसिमतां वसूनि ज्ञानादीनि ३ ॥ २० ॥ ४२८. अयंभावरते णिचं भवे भिक्खू [ सुसंवुडे ] । अतिकमं तिपादाए मणसा वि ण पत्थर ॥ २१ ॥ ४२८. अयंभावरते णिचं भवे भिक्खू० कण्ठ्यम् । अतिक्कमं तिवायाए मणसा वि ण पत्थर, अति: अति- 10 क्रमणे, येनातिक्रम्यन्ते एतानि पञ्च महाव्रतानि सोऽतिक्रमः । तत्र प्राणातिपातमधिकृत्यापदिश्यते - तिपादाए त्रिभ्यः पातयतीति त्रिपातः, तद् मनसाऽपि न प्रार्थयेत् किमु वचसा कर्मणा वा ? नवकेन भेदेन । एवं शेषाणामपि जाव परिग्रहः ॥ २१ ॥ एवं तावत् स्वयं न करोति व्रतातीचारम् । योऽपि तमुद्दिश्यान्यैः प्राणातिपातः कृतः क्रियते वा तत्राप्ययमुपदेशः " ४२९. कडं चं कीरमाणं च आगमेस्सं च पावगं । १७१ सर्व तं णाणुजाणंति आतगुत्ता जितिंदिया ॥ २२ ॥ ४२९. कडं च कीरमाणं च० सिलोगो । आधाकम्मादि कडं अगेण्छेमाणो णाणुजाणति । कीरमाणमवि जं जाणति ममऽट्ठाते तं णिवारेति - णो खलु मम अट्ठाए किंचि वि करणिज्जं । एवं जो वि आत्मनिमित्तं असंयमस्तैः कृतः, तद्यथा-शत्रोः शिरश्छिन्नं छिद्यते वा, वध्यो हतो हन्यते वा, मांसाद्योपकानि सत्त्वानि हतानि हन्यन्ते वा, तमपि कडं च कज्जमाणं च णाणुजाणति । आगमेस्सं च पावगं ति जति णं कोइ भणिज्जा – अहं ते आउसंतो समणा ! असणं वा 20 उवक्खडेमि; तं पि णिवारेति - णो खलु मम अट्ठाए किंचि करणिज्जं । एवं असंजतो वि जो जं हंतुकामे तं पि आगमेस्सं पावगं सव्वं तं णाणुजाणंति, सर्वमिति तन्निमित्तं वा कतं कल्जमाणं वा णवगेण भेदेण णाणुजाणंति पंडिया | आत्म आत्मसु वा गुप्ता जितेन्द्रिया जीहादोसणियत्ता | अथवा सर्वमिति आहारोपकरणादि, सेज्जाओ वि बायालीसदोस परिसुंद्धाओ घेप्पंति ॥ २२ ॥ एवं ते भगवन्तः संयमवीरियावस्थिता नवकेन भेदेन तदतीचारं न कुर्वते । ये तु तद्विधर्मिण: बालवीर्यावस्थिता अपि गृहेभ्योऽपि निःसृताः सन्तः ४३०. "जे याबुद्धा महानागा वीरोंऽसम्मत्तर्देरिसिणो । असुद्धं तेसि परकंतं सफलं होति सबसो ॥ २३ ॥ ४३०. जे याऽबुद्धा महानागा ० [ सिलोगो ] । जे ति अणिद्दिट्ठनिद्देसो । अबुद्धा बुद्धवादिनः, अथवा न बुद्धा अबुद्धाः बालवीर्याबस्थिताः सकम्मवीरिए व ृति । तहा (महा) पाणं णयंति महानागाः, विज्जाबलेण वा यथा बुद्धः तपस्वी, १ णादिवापज्जा खं १ । णाइवातेजा खं २ पु १ । णाइवाइज्जा पु २ ॥ २ णाऽऽदिए खं १ । नाऽऽयर खं २ पु १ पु २ ॥ ३ सातिं ण चूसप्र० ॥ ४ सह सातिमा सातियं चूसप्र० ॥ ५ लोभहसितं चूसप्र० ॥ ६ अतिक्कमं ति वायाए मणसा वि ण पत्थर । सव्वतो संवुडे दंते आयाणं सुसमाहरे ॥ इतिरूपः सूत्रश्लोकः खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० वर्त्तते ॥ ७ अतिरितिक्रमेण येना सप्र० ॥ ८. तिपाद एव त्रि चूसप्र० ॥ ९ च कज्रमाणं खं १ खं २ पु १ पु २ ॥ १० परिबुद्धा चूसप्र• ॥ ११ जे अबुद्धा सं १ पु २ ॥ १२ महाभागा पु १ पु २ वृप्र० दी० ॥ १३ रा अस खं २ ॥ १४ खं २१२ ॥ सिणो १ 15 25 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.७२ णिज्जुत्ति- चुण्णिसमलंकिय [ ८ वीरियज्झयणं निमित्तबलेन वा यथा गोशालः, रायपव्वइतगा वा बहुजणणेतारः बहुजनेनाऽऽश्रियन्ते । पूया - सकारणिमित्तं विज्जाओ निमित्ताणि य पयुंजमाणा तपांसि च प्रकाशानि प्रकुर्वन्ति तेषां बालानां यत् किश्चिदपि पराक्रान्तं तदशुद्धम्, भावोपहतत्वाद् नवकेनापि भेदेन अज्ञानदोषाश्च । एवमादिभिर्दोषैः अशुद्धं तेसिं परकंतं, अशुद्धं नाम यथोक्तैर्दोषैः, पराक्रान्तं चरितं चेष्टितमित्यर्थः, कुवैद्यचिकित्सावत् । सफलं होति सव्वसो, फलं णाम कम्मबंधो, तत्तत्कर्मबन्धं प्रति सफलं भवति, सर्वश 5 इति सर्वाः क्रियास्तेषां कर्मबन्धाय भवन्ति । सर्वं हि केटुकविपाकं सुचरितमपि पुद्गलस्य मिथ्यादृष्टेः, निर्वाणं वा प्रत्यफलं भवति ॥ २३ ॥ सर्वशस्तद्विपरीताः सच्छासनप्रतिपन्नाः ४३१. जे तु बुद्धा महानागा बीरा सम्मत्तदंसिणो । सुद्धं तेसि परकंतं अफलं होति सङ्घसो ॥ २४ ॥ ४३१. जे तु बुद्धा महानागा० सिलोगो । स्वयम्बुद्धास्तीर्थकराद्याः, तच्छिष्या वा बुधबोधिता गणधरादयः 10 महानागा इति । चतुरसीती उसभसामिणो सिस्ससहस्साणि, उसभसेणस्स बत्तीसं समणसाहस्सीओ गणो आसी, एवं जाव माणसामी ताव संघस्स चतुव्विधस्स परिमाणं भासितव्वं । प्रत्येकबुद्धाः पुनः साम्प्रतं न महानागाः, केचित्तु पूर्वमासन् । ये चान्ये राजादयः पूर्वं महानागाः आसन् पश्चाद्वा जातास्ते वीरा इति अकम्मवीरिए बट्टमाणा सरागा वीतरागा वा वीराः तपसि णाणादीहि वा विराजतीति, वीरा विदारयन्तीति वा कर्माणि । सम्मं परसंतीति सम्मत्तदंसिणो । तेसिं भगवंताणं सुद्धं तेसिं परतं, शुद्धं णाम णिरुवरोधं सल- गारव - कसायादिदोसपरिशुद्धं अनुपरोधकृद् भूतानां तविदुपसविधे (१) संजमे 15 च पराक्रान्तिः । अफलं होति सव्वसो, फलं णाम कर्मबन्धो, तं प्रत्यफलं, कथं ?, “संजमे अणण्यफले तवे वोदाणफले” । [ भग० श० २ उ० ५ सू० ११० पत्र १३८ - १] उक्तं च - "निरासदं निस्सुख - दुःखकल्पनं, [..... लम् ।" [ ]। मोक्षणं वा प्रति सफलम् [ धर्ममुवाच निष्फ ] ॥ २४ ॥ एवं पूर्व पश्चाद्वा महाजननेतॄणां महाजनविज्ञातानां च — ४३२. तेसिं तु तवो सुद्धो क्विंता जे महाकुला । अमाणिते परे तु ण सिलोगं वयंति ते ॥ २५ ॥ ४३२. तेसिं तु तवो सुद्धो० सिलोगो । तेषामिति जे अधुत्तकारिणो जेन्तिता मिरिट्ठा, महं प्राधान्ये, कुलं इक्ष्वाकुकुलादि, केचित् त्वज्ञातकुलीया अपि भूत्वा विद्यया तपसा सौर्याद् विस्तीर्णीभवन्ति नन्दकुलवत् । एत्थ चतुभंगो, किंचि कुलतो वि महान्तं जणतो बि १ एवं चतुब्भंगो, एतो एगतरातो विणिक्ता महाकुलाती । मइद्वा कुलमेषां महाकुलाः, भगवानेव छउमस्थकाले । अवमाणिते परेणं तु ण सिलोगं जयंति ते, सिलोगो नाम श्लाघा, अमुकराजा वा आसी25 दिति इभ्यो वा शालिभद्रादिः । तत् पूजा-सत्कार-लाघादिनिमित्तं कुलं न कीर्त्तयितव्यम्, कुलादिकार्यनिमित्तं वा कीर्त्तत ॥ २५ ॥ किन 1 20 ४३३. अप्पपिंडास पाणासि अप्पं भासेज सुबते । खंतेऽभिनिव्वुडे दंते विगतगेधी ण रज्जति ॥ २६ ॥ ४३३. अप्पपिंडास पाणासि० सिलोगो । संयमेऽपीयमेव वर्ण्यते, तेण अप्पपिंडासि अप्पं पिण्डमभातीति अप्पपिंडासी, 30 असंपुष्णं वा, एवं पाणं पि । अट्ठ कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारमाहारेमाणे अप्पाहारे, दुवालस अद्धोमोदरिया, सोलस दुभागतं, चउव्वीसं ओमोदरिया, तीसं पमाणपत्ते, बत्तीसं कवला संपूण्णाहारो, एतो एकेणावि ऊणं जाव १ कटुक सप्र० ॥ २थ खं १ खं २ ॥ ३ महाभागा पु १ पु २ वृप्र० दी० ॥ ४ धीरा खं २ पु २ ॥ ५-६ आसीत् चूसप्र० ॥ ७ निरासस्सादं वा० मो० ॥ ८पि तवोऽसुद्धो खं १ खं २ ० दी० । पि तवो सुद्धो पु १५२ ॥ ९ जं वने वियार्णति न सिलोगं पवेदए खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० । सिलोतं खं १ । पवेयते खं २ पु १ पु २ ॥ १० वीतगिद्धी सदा जए बी० । वीयगेही सया जते खं १ खं २ पु १ पु २ । विगतगिद्धी सदा जप वृ० ॥ ११ कुकुंडि चूस• ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ४३१-३४] सूयगडंगसुत्तं विडयमंगं पढमो.सुयक्खंधो। एक्कगासेण एगसित्थेण वा । एवं उवकरणोमोदरिया । अप्पं भासेज त्ति अनर्थदण्डकथां न कुर्यात् , कारणेऽपि च नोच्चैः । भणिता दव्योमोदरिया । भावे तु खंतेऽभिणिव्वुडे दन्ते, अक्रोधनं क्षान्तिः, अभिणिव्वुडो णाम निर्वृतीभूतः शीतीभूतो, अर्थशीलो अर्थेषु ज्ञानादिषूद्यतः, दंते इति दान्तेन्द्रियः । तवसा य विगतगेघी णिदाणादिसु गेधिविष्पमुक्के य पडुप्पण्णेसु ण रजति ण य कंखामोहं करेति ॥ २६ ॥ ४३४. झाणयोगं समाहटु कायं वोसिज्ज सव्वसो। 'तितिक्खं परमं णचा आमोक्खाय परिव्वएजासि ॥ २७ ॥ त्ति बेमि ॥ ... ॥ वीरियं [अहमज्झयणं] सम्मत्तं ॥८॥ ४३४. झाणयोगं समाहट्ट. सिलोगो। ध्यानेन योगो ध्यानयोगः, प्रशस्तध्यानयोगं सम्यग् हृदि आहृत्य अप्रशस्तं चाऽऽहत्य कायं वोसिञ्ज सव्वस सर्वश इति आहारक्रियामप्यस्य न करोति, खेद-जल्ल-मलापहरणाद्याश्च बाह्यक्रियाः । 'तितिक्खं परमं णच्चा, तितिक्षा नाम परीषहोवसम्माधियासणं, तितिक्षणमेव परमं मोक्षणं मोक्षसाधनं चेत्येवं च ज्ञात्वा 10 आमोक्खाय परिव्वएजासि त्ति, आमोक्षायेति यावन्मोक्षगमनं ताव परिव्वएजासि त्ति शरीरमोक्खो वा, परि समंता सव्वतो वएजासि ॥ २७ ॥ भगवानाह-एवमहं ब्रवीमि, न परोपदेशादित्यर्थः ॥णयास्तथैव ॥ ॥ वीर्यमष्टममध्ययनं समाप्तम् ॥ ८॥ १विउसेज खं १ ख २ पु १ पु२॥ २ तेतिक्खं खं २॥ ३°क्खाते परिव्वतेजा खं २ पु.१॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं . [९ धम्मज्झयणं [णवमं धम्मज्मयणं] 10 धम्मो त्ति अज्झयणस्स चत्तारि अणुयोगदारा । धम्मो अस्थाहिकारो। उक्तः उपक्रमः । णामणिप्फण्णे धम्मो। सो पुण धम्मो पुवुट्ठिो भावधम्मेण एत्थ अधिकारो। एसेव होति धम्मो एसेव समाधिमग्गो त्ति ॥१॥९२॥ धम्मो पुव्वुद्दिद्यो । धम्म-ऽत्थ-कामा य । तं चेव इधावि परूवेतव्यो । इह तु भावधम्मेण अधिकारो। एष एव ' धर्मः, एष एव भावसमाधिः, एष एव च भावमार्गः ॥ १॥ ९२ ॥ तत्थ धम्मस्स णिक्खेवो णाम-ठवणाधम्मो दबधम्मो य भावधम्मो य। सच्चित्तचित्त मीसे गिहत्थदाणे दवियधम्मो ॥२॥९३॥ णाम-ठवणाधम्मो० गाधा । वतिरित्तो दव्वधम्मो तिविधो सचित्तादि । तत्थ सचित्तस्स जधा-चेतना धर्मः, चेतना स्वभाव इत्यर्थः । अचित्ताण जधा-धम्मत्थिकायस्स जा जस्स धम्मता । जधागतिलक्खणो तु धम्मो अधम्मो ठाणलक्खणो । भायणं सव्वदव्वाणं भणितं अवगाहलक्खणं ॥ १ ॥ [उत्तराध्ययनसूत्र अ० २८ गा० ९] 15 पोग्गलत्थिकायो गहणलक्खणो । मिस्सगाणं दव्वाणं जा जस्सभावता, यथा क्षीरोदकं सीतलं धातुरक्तावाकाशायी (2) यावन्न परिणमत्युदकं तावन्मियं भवति । गृहस्थानां च यः कुलग्रामादि-नगरधर्मः । दाणधम्मो त्ति यो हि येन दत्तेन धर्मो भवति स तस्मिन् देयद्रव्ये कार्यवदुपचाराद् दानधर्मो भवति । यथाअन्नं पानं च वस्त्रं च आलयः शयना-ऽऽसनम् । शुश्रूषा वन्दनं तुष्टिः पुण्यं नवविधं स्मृतम् ॥ १॥२॥ ९३ ॥ लोइय लोउत्तरिओ दुविधो पुण होति भावधम्मो तु।। दुविधो वि दुविध तिविधो पंचविधो होति णातवो ॥३॥९४॥ लोइय लोउत्तरिओ० गाधा । भावधम्मो दुविधो-लोइओ लोउत्तरिओ य । लोइओ दुविधो-गिहत्थाणं कुपासंडीणं चलोउत्तरिओ तिविधो-णाणं दसणं चरितं च । णाणे आभिणिबोधिगादि । दसणे उवसामगादि । चरित्ते पंचविधो सामायगादिना पाणवधवेरमणादिना वा, चतुविधो वा चाउज्जामो, रातीभोयणवेरमणछहो वा छव्विधो पसत्थभावधम्मद्वि तेहिं। पासत्योसण्णादीहिं दाण-ग्गहणं ण कायव्वं संसग्गी वा ॥३॥ ९४ ॥ 26 तत्थ पासत्थोसण्ण-कुशीलसंथवो एत्थ अत्थे गाधा * पासत्थोसण्ण-कुसीलसंथवो ण किर वट्टते कातुं । सूतकडे अज्झयणे धम्मम्मि णिकाइयं एवं ॥ ४ ॥९५ ॥ ॥धम्मस्स णिजुत्ती सम्मत्ता ॥९॥ ॥ ४ ॥ ९५ ॥ णामणिप्फण्णो गतो। सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारेतव्यं१ नहं ओगाहलक्खणं उत्तराध्ययने पाठः ॥ 20 Jain Education Intemational Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतगा० ४३५-३७ णिज्जुत्तिगा० ९२-९५ ] सूर्यगडंगसुत्तं विइयमंग पढमो सुयक्खंधो। ४३५. कतरे धम्मे आघाते माहणेण मतीमता। ___ अंजु धम्मे जधातधा जिणाणं तं सुणेध मे ॥१॥ ४३५. कतरे धम्मे आघाते. सिलोगो । कतरः केरिसो वा, आघात इत्याख्यातः । माहन इति भगवानेव । समणे त्ति वा [माहणे त्ति वा ] एगहुँ । मन्यते अनयेति मतिः केवलज्ञानमिति, मतिरस्यास्तीति मतिमान् , अतस्तेन मतिमता । एवं जंबुणामेण पुच्छितो सुधम्मो आह-अंजु धम्मे जधा तधा, अञ्जुरिति आर्जवयुक्तः, न दंभ-कव्वादिभिरुपदिश्येत । । ते तु कुशीलाः बालवीर्यवन्तः, तेऽनार्जवानि ब्रुवते-न वयं परिग्रहवन्तः आरंभिणो वा, एतत् सङ्घस्य बुद्धस्य उपासकानां वा इति । भागवतास्तु-नारायणः करोति हरति ददाति वा । उक्तं हि यस्य बुद्धिर्न लिप्येत हत्वा सर्वमिदं जगत् । आकाशमिव पढ्न न स पापेन लिप्यते ॥१॥ नैवं भगवता अनार्जवयुक्तो धर्मः प्रणीतः, भगवता तु यो यथावस्थितस्तं तथैव मत्वा निरुपधो धर्मोपदिष्टः, न 10 लोकपक्तिनिमित्तम्, ग्लानाद्युपाधिना वा किञ्चित् सावद्यमातेन वर्त्तव्यमित्युपदिष्टम् । जिनानामिति षष्ठी । जिनानां संतकं तीता-ऽनागतानाम् । पठ्यते च-"जणगा! तं सुणे धम्मे" जायन्त इति जनकाः, हे जनकाः ! तमाख्यायमानं सुणे धम्मे। यथोद्दिष्टधर्मप्रतिपक्षभूतस्त्वधर्मः, तत्र चामी वर्तन्ते ॥ १॥ ४३६. माहणा खत्तिया वेस्सा चंडाला अदु बोक्कसा । एसिया वेसिया मुद्दा जे य आरंभणिस्सिता ॥२॥ ४३६. माहणा खत्तिया वेस्सा. सिलोगो । माहणा मरुगा सावगा वा । खत्तिया उग्गा भोगा राइण्णा इक्खागा राजानस्तदायिणश्च । अथवा क्षत्रेण धर्मेण जीवन्त इति क्षत्रियाः । वैश्याः सुवर्णकारादयः, ते हि हवनादिभिः क्रियाभिर्धर्ममिच्छन्ति । चण्डाला अपि ब्रुवते-वयमपि धर्मावस्थिताः कृष्यादि क्रियां न कुर्मः । बोकसा णाम संजोगजातिः । जहा-बंभणेण सुद्दीए जातो णिसादो त्ति वुच्चति, बंभणेण वेस्सजातो अम्बठ्ठो वुच्चत्ति, तत्थ णिसाएणं अंबट्ठीए जातो सो बोकसो वुञ्चति । एसिया वेसिया, एषन्तीति एषिकाः मृगलुब्धका हस्तितापसाच मांसहेतोर्मुगान् हस्तिनश्च एषन्ति 20 मूल-कन्द-फलानि च, ये चापरे पाषण्डाः नानाविधैरुपायैर्भिक्षामेषन्ति यथेष्टानि चान्यानि विषयसाधनानि । अथ वैशिका वणिजः, तेऽपि किल कलोपजीवित्वाद् धर्म किल कुर्वते । अथवा वेश्यास्त्रियो वैशिकाः, ता अपि किल सर्वा विशेषाद् वैश्यधर्मे वर्तमाना धर्म कुर्वन्ति । शूद्रा अपि कुटुम्बभरणादीनि कुर्वन्तो धर्ममेव कुर्वते । उक्तं हि___ या गतिः क्लेशदग्धानां गृहेषु गृहमेधिनाम् । पुत्र-दारं भरन्तानां तां गतिं व्रज पुत्रक! ॥ १ ॥ [ ये चान्येऽनुद्दिष्टाश्छेदन-भेदन-पचनादिदव्व-भावारंभे णिस्सिता णियतं सिता णिस्सिता ॥ २॥ ४३७. परिग्गहे णिविट्ठाणं तेसिं पावं पवडती। आरंभसंवुता कामा ण ते दुक्खविमोयगा ॥३॥ ४३७.परिग्गहे णिविटाणं०सिलोगो। परिग्गहो सचित्तादि३दव्वादि चतुम्विधो वा । तेसिं माहणादिकुसीलाणं परिग्गहे णिविट्ठाणं ति उवजिणंताणं सारवंताण य णट्ठविणटुं च सोएन्ताणं तेसिं पावं पवडती, आउअवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ 30 सिढिलबंधणबद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ करेन्ति । एतेषां आरंभसंवुता कामा, हिंसादिआरम्भेन संवृताः । अथवा "आरंभसम्मुता कामा" सम्मुता नाम प्रियाः, आरम्भ एषां सम्मतः। कथम् ? आरम्भिणमुपतिष्ठन्ति, नालसम् । उक्तं हि ४ .सार १अक्खाते पु १ वृ० दी । अहऽक्खाते खं १ खं २ पु२॥ २ अंजू धम्मं जहातच्चं खं १ । अंजु धम्मं अहातचं खं २ पु १ पु २ दृ० दी०॥ ३ जणगा! तं सुणे धम्मे चूपा० । जणगा! तं सुणेह मे वृपा० ॥ ४सुणेहि पु २॥ ५ वेसा खं २ पु१पु२॥ ६अदु व बो खं १॥ ७ पावं तेसिं पवड्डति ३० दीपा । वेरं तेसिं पवडति खं १ खं २ पु १ पु २ वृपा० दी.॥ आरंभसंभिया कामा खं १ खं २ पु १ पु २ वृपा० दी० । आरंभसम्मुता कामा चूपा० ॥ ९संयमतः चूसप्र० ॥ . . . Jain Education Interational Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [९ धम्मज्झयणः आरभाऽऽरभ कर्माणि श्रान्तः श्रान्तः पुनः पुनः। [ ] तथैनं ते प्राणैरपि परिरक्षिता जरा-व्याध्युदये दुःखोदये. वा मृतौ वा प्राप्ते न तस्माद् दुःखाद् मोचयन्ति, न च नरकादिषु प्राप्तस्य ततो नरकादिदुःखाद् विमोचयन्ति ॥ ३ ॥ ४३८. आघातकिच्चमाधाए णाइओ विसएसिणो। ___ अण्णे हरंति तं वित्तं कम्मी केम्माऽय एसति ॥४॥ ४३८. आघातकिच्चमाधेतुं० सिलोगो । आहन्यतेऽनेनेति आघातः, मरणमित्यर्थः । आघाते आघातस्य वा कृत्यं मरणकृत्यमित्यर्थः, आघाते शरीरं संस्कारयित्वा दहन्ति । मृतकृत्यानि चास्य पितृपिण्डादीनि आधाए त्ति तमाधाय कुर्वन्ति, महिष-च्छागाद्याश्च वध्यन्ते, करकंतुभक्तानि कुर्वन्ति । उक्तं हि "अवहत्थेण यँ पिंडं परिसाडेऊण पत्थरे तस्स ।" [ ] इत्यादि मरणकृत्यम् । अधवा "आधेतुं" काऊण तं 10पणिधाय ये तस्य भ्रातृपुत्रादयो दायादा जीवन्ति शब्दादिविषयैषिणः अनेन मृतधनेन वयं भोगान् भोक्ष्यामहे, अज्ञातयोऽपि दास-भृत्य-मच्यादयः तत् च्युतधनं तर्कयन्ति, अपुत्राणां च मृतकटं राजा गृह्णाति । एवं वैरा-ज्यादिसामान्यं अण्णे हरंति तं वित्तं, अन्य इति अन्य एव दायादा भृत्य-राज-चोरादयः हरंति वा विभयंति वा णूति वा एगहुँ । उक्तं च ततस्तेनार्जितैर्द्रव्यैर्दारैश्च परिरक्षितैः । क्रीडन्त्यन्ये नरा राजन्! हृष्ट-तुष्टा हलङ्कताः ॥ १॥ कर्म अस्यास्तीति कर्मी, तत् कर्माऽऽदाय स्वकर्मनिवर्तितां गतिं प्राप्य तत्कर्मफलमन्वेषति ॥ ४ ॥ ४३९. माता पिता ऍहुसा भाता भज्जा पुत्ता य ओरसा। णालं ते मम ताणाए लुप्पंतस्स सकम्मुणा ॥५॥ ४३९. माता पिता ण्हुसा भाता० सिलोगो । उरसि भवा औरसाः, औरसा अपि तावत् पुत्रा न त्राणाय, किमु क्षेत्रजातादयः ? । णालं ते मम ताणाए, यथैव मात्रादयो न त्राणाय सम्बन्धिनः तथैवाऽऽरम्भ-परिग्रहावपि न त्राणाय विषयाश्च । णालं ते मम ताणाए लुप्यमानस्येति शारीर-मानसैर्दुःख-दौर्मनस्यैः इह भवेऽपि तावन्न त्राणाय, किमु परभवे ? 20 इति । कालसोअरिअपुत्तो सुलसो अभयकुमारसखा श्रावकदारको श्रावकश्वासौ दारकश्च दृष्टान्तः ॥ ५॥ ४४०. एतमहं सपेहाए परमाणुगामियं। णिम्ममे णिरहंकारे चरे भिक्खू जिणाहितं ॥ ६॥ ४४०. एतमढें सपेहाए. सिलोगो । एयमिति योऽयमुक्तोऽर्थः, न ह्यधार्मिकाणामिह परत्र वा लोके शरणमस्तीति त्राणं वा सम्मं पेहाए, परमः अर्थः परमार्थः मोक्ष इत्यर्थः, तं परमार्थ अनुगच्छति परमट्ठाणुगामी, यथोद्दिष्टेषु मात्रादिषु 25 वैराग्यमनुगच्छति, ज्ञानादयो वा परमार्थाः तान् अनुगच्छतीति परमार्थानुगामिकः । स एवं साधुः णिम्ममे णिरहंकारे नास्य कलत्र-मित्र-वित्तादिषु बाह्या-ऽभ्यन्तरेषु वस्तुषु ममता विद्यते इति निर्ममः, न चाहङ्कारः पूर्वैश्वर्य-जात्यादिषु च संप्राप्तेष्वपि, तपःस्वाध्यायादिषु चरेदित्यनुमतार्थः, जिणाहितं आख्यातं, मार्गमित्यर्थः, चारित्रं तपो वैराग्यं वा ॥६॥ स एवं मत्वा 'नैते मात्रादयो नाम सम्बन्धिनः त्राणाय' इति, इत्यतः४४१. चेचा पुत्ते य मित्ते य णातओ य परिग्गहं । चेच्चोण अत्तगं सोतं णिरवेक्खो परिव्वए ॥ ७॥ १व्याध्यादयदुः चूसप्र०॥ २ आघातिं खं २ । आघातं पु १॥ ३°माधातुं खं १ । माधेतुं खं २ चूपा० । 'माहेड पु १ पु २॥ ४ नायतो विसतेसिणो खं २ पु १॥ ५ कम्मेहिं कश्चती खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ६°कत्तुभ पु.॥ ७य पिढे पवा०॥ ८ पहउसा पु १ पु २॥ ९ते तव ता खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी । “नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुम पि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा" आचाराने श्रु० १ अ०२ उ० १ सूत्र २॥ १० निम्ममो निरहंकारो खं १ खं २ पु १ पु२॥ ११चेचा वित्तं च पुत्ते य णायओ खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ १२ चेञ्चाण अंतगं सोयं खं १ खं २ पु १: पु २ ३० दी। चेञ्ाण अंतकं सोयं इति चेवाण अत्तगं सोयं इति चेच्चाणऽणंतगं सोय इति च पाठभेदत्रयी वृत्तौ दृश्यते । चेचा अणंतगं सोयं चूपा०॥ Jain Education Intemational Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ सुसगा०४३८-४६] सूयगडंगसुतं बिइयमंग पढमो सुयक्खंधो। ४४१. चेच्चा पुत्ते य मित्ते य० सिलोगो । पुत्रे ह्यधिकः स्नेहः तेनाऽऽदौ ग्रहणं क्रियते । मित्ता तिविधा सहजातकादयः । ज्ञातकाः पूर्वा-ऽपरसम्बन्धिनः । परिग्रहो हिरण्यादि । चेचाण अत्तगं सोतं, त्यक्त्वा चेचाण, आत्मनि भवं आत्मकम् । तत्र मित्र-ज्ञातयः परिग्रहाश्चैव बाहिरंग सोतं, मिच्छत्तं कसाया अण्णाणं अविरती य एतं अत्तगं सोतं, श्रोतः द्वारमित्यर्थः । पठ्यते च-"चेच्चा अणंतगं सोते" अणंता अण्णाणा-ऽविरती-मिच्छत्तपज्जवा, उभयमवि चेच्चा । णिरवेक्खो परिव्वए, औजगं धम्ममणुपालेंतो न पुत्र-दारादीनि पुनरपेक्षते । उक्तं हि-'छलिता अवयक्खंता णिरावयक्खा गता। मोक्खं ।" [ | स एवं प्रव्रजितः स्वरुचिनाऽवस्थितात्मा अहिंसादिषु व्रतेषु प्रयतेत ॥ ७॥ तत्र हिंसाप्रसिद्धये जीवा अपदिश्यन्ते४४२. पुढवाऽऽतु अगणि वायू तण रुक्ख सबीयगा। अंडया पोय-जराऊ रस-संसेय-उम्भिया ॥८॥ ४४२. पुढवाऽऽतु अगणि वायू. सिलोगो । कण्ठ्यः ॥ ८ ॥ सर्वेषां भेदो वक्तव्यः । अयथार्थपरिझाता हि 10 दुक्खं परिहर्तुमित्यतो भेदः ४४३. एतेहिं छहिं काएहिं तं विजं ! परिजाणिया। मणसा काय-वकेण णाऽऽरंभी ण परिग्गही ॥९॥ काएहिं० सिलोगो । एतेहिं ति जे उद्दिठा छक्काया । त्वमिति शिष्यनिर्देशः । विजमिति विद्वान् , स एव शिष्यो निर्दिश्यते, त्वं विद्वन् ! परिजाणिया परिजाणिउं परिणाए दुविधाए । मणसा काय वक्केणं णाऽभी 15 ण परिग्गही, एक्कक्के काये णवगो भेदो। मा च परिग्रहं कुर्यात् , परिग्रहनिमित्तो हि मा भूत् कायारम्भः । एवं सेसाणि वि बताणि पालेज्जा ॥ ९ ॥ अण्णहा ४४४. मुसावात बहिद्धं च उग्गहं च मज्जाइयं । सत्थादाणाणि लोगंसि तं विजं ! परिजाणिया ॥१०॥ ४४४. मुसावात बहिद्धं च० सिलोगो । बहिद्धं मिथुन-परिग्रहौ गृह्येते, तत्र वर्त्तमानोऽतीव धर्माद् बहिर्भवतीति 20 बाहिद्धं । उग्गहं च मज्जाइयमिति अदत्तादाणं । एताणि सत्थादाणाणि लोगंसि शस्यते अनेनेति शस्त्रम् , शस्त्रस्य आदानानि शस्त्रादानानि, धूयन्त इत्यर्थः । कस्य शस्त्रस्य ? असंयमस्य । तदेतद् विद्वन् ! परिजानीहि । अथवा उपदेशो भवति-तदेतद् विद्वान् परिजानीयात् ॥ १० ॥ इदाणिं उत्तरगुणाः ४४५. पलिउंचणं च भयणं च थंडिल्लुस्सयणादि य।। धुत्तादाणाणि लोगंसि तं विज! परिजाणिया ॥११॥ ४४५. पलिउंचणं च भयणं च० सिलोगो। सर्वतः कुञ्चनं पलिउंचणं माया । भञ्जते भज्यते वाऽसाविति असंयतैभञ्जनः लोभः । स्थण्डिलः क्रोधः, चारित्रं स्थण्डिलस्थानीयं करोति, क्रोध एव स्थण्डिलः वपुर्वर्णादि च । उच्छ्रयनमुच्छ्यः [मानः]। उच्छ्यणादि त्ति बहुवचनं जात्यादीनि अष्टौ मदस्थानानि । धुत्तादाणाणि लोगंसि, धूर्तस्याऽऽयतनानि कर्मप्रसूतय इत्यर्थः ॥ ११ ॥ एवं यद् यदा कर्त्तव्यं तत् सर्वमिह श्रमणधर्मे वर्ण्यमानेऽपदिश्यते । उत्तरगुणाधिकारे च पठ्यते४४६. धावणं रयणं चेव वमणं च विरेयणं । 30 वत्थिकम्मं सिरोवेधे तं विजं ! परिजाणिया ॥१२॥ १वाऊ खं १ खं २ पु १ पु२॥ २ पोयया जपु १॥ ३ घाऊ पु०॥४च अजातितं खं १ पु २ वृ.की.च अजाइया खं २ पु १। अब मजाइयं इत्यत्र सूत्रपाठे मकारोऽलाक्षणिको ज्ञेयः॥ ५°णाणि य खं १ खं २ पु १ पु २॥ ६धणाऽऽदाणाई खं २ पु १ वृ० दी। धुत्तादाणाई खं १॥ ७धोयणं रयर्ण चेव वत्थीकम्म विरेयणं । वमर्णजण पलिमंथ तं विज! खं १ ख २ पु१पु २ वृ० दी। पलीमंथं खं १॥ सूय० सु. २३ 25 Jain Education Intemational Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [९ धम्मज्झयण ४४६. धावणं रयणं चेव सिलोगो । धावणं वस्त्राणाम् , रयणं तेषामेव दन्त-नखादीनां च । वमणं च विरेयणं, मुखवर्णसौरूप्याथ वमनं करोति, विरेचनमपि बला-ऽग्नि-वर्णप्रसादार्थम् । वत्थिकम्मं सिरोवेधे तं विजं परिजाणिया, वत्थिकम्मं अणुवासणा णिरुहा वा । तत्थ पलिमंथो संजमस्स ।। १२ ॥ ४४७. गंध मल्ल सिणाणं च दंतपक्खालणं तधा। परिग्गहित्थि कम्मं च तं विजं! परिजाणिया ॥१३॥ ४४७, गंध मल्ल सिणाणं च० सिलोगो। गन्धाश्चूर्णादयः । मलं प्रन्थिमादी । सिणाणं देसे सव्वे य । दंतपक्खालणं दंतधोवणं जधा कुचकुचावेति । परिग्गहं इत्थि कम्मं च, परिग्गहो सचित्तादी, इत्थी तिविधाओ, कम्मं हत्थकम्मं । स्यात्-पूर्व बहिद्धमपदिष्टं इत्यतः पुनरुक्तम् , उच्यते, तद्भेददर्शनान्न पुनरुक्तम् ।। १३ ।। ४४८. उद्देसियं कीर्तकडं पामिच्चं चेव आहडं । - पूर्ति अणेसणिजं च तं विजं ! परिजाणिया ॥ १४ ॥ ४४८. उद्देसियं कीतकडं० कंठो सिलोगो ॥ १४ ॥ ४४९. आसूर्णियमक्खिरागं , गेहपघायकम्मगं । उच्छोलणं च कैकेणं तं विजं ! परिजाणिया ॥१५॥ ४४९. आसूणिय० [सिलोगो । आमणिकं ] णाम श्लाघा, येन परैः स्तूयमानः सुज्जति, यावच्छृणोति यावद्वा15 ऽनुस्मरति तावत् सुज्जति मानेनेति आसूनिकम् । अथवा जेण आहारेण आहारितेण सुणीहोति बलवत्त्वं भवति, व्यायामस्नेहपान-रसायनादिभिर्वा । अक्षिरागं अञ्जनम् । ग्रेधिः बाह्या-ऽऽभ्यन्तरे वा वस्तुनि । उपोद्घातकर्म णाम परोपघातः तच्च करोतीत्याह, जातितो कर्मणा सीलेण वा परं उवहणति । उच्छोलणं च हत्थ-पाद-मुखादीनां कल्केन अट्टगमादिणा हत्थ-पादे मुखं गाताणि च उव्वदे॒ति । तं विद्वान् परिजाणिया ॥ १५ ॥ ४५०. संपसारी केतकिरिए पासणियायतणाणि य। सागारियपिंडं च तं विज्ज ! परिजाणिया ॥ १६॥ ४५०. संपसारी कतकिरिए. सिलोगो । संपसारगो णामं असंजताणं असंजमकजेसु साम छंदेति उवदेसं वा । कयकिरिओ णाम जो हि असंजयाणं किञ्चिदारम्भं कृतं प्रशंसति । तद्यथा-साधु गृहं कृतम्, साधुश्चायं सदृशः संयोगः। पासणियो णाम यः प्रश्नं छन्दति, तद्यथा-व्यवहारेषु [शास्त्रेषु] वा । व्यवहारे तावत्-यदेष ब्रवीति तत् प्रमाणम् । शास्त्रेष्वपि लौकिकशास्त्राणां व्याख्यानं ब्रवीति भावत्थके वा साहति । सागरियपिंडं च तं विजं परिजाणिया कण्ठ्यम् ॥१६॥ 25. ४५१. अट्ठापदं ण सिक्खेजा वेधाईयं च णो वदे । ... हत्थकम्मं विवादं च तं विजं ! परिजाणिया ॥१७॥ ४५१. अट्ठापदं ण सिक्खेजा० सिलोगो । अट्ठापदं णाम द्यूतक्रीडा, न भवत्यराजपुत्राणाम् , तमष्टापदं न शिक्षेत्, पूर्वशिक्षितं वा न कुर्यात् । वेधा नाम द्यूतविच्च(ज्जा)समूसितंगे(?) रुधिरं जंतछिज्जताणं । हत्थकम्मं विवादं च, हत्थकर्म • हस्तकर्मवत् । हत्थे रण्ड० गाधा [ ]। विवादो विग्रहः कलह इत्यनान्तरम् , स तु स्वपक्ष30 परपक्षाभ्याम् । त्वं विद्वन् ! परिजानीहि ॥ १७ ॥ 20 १°वर्णसारूप्या पु०॥ २ “शिरोवेधाः' नाडीवेधनानि रुधिरमोक्षणानीत्यर्थः" इति ज्ञातासूत्रवृत्तौ सूत्र ९५ वृत्तौ पत्र १८३-२॥ ३ मल्लं खं १ पु १॥ ४ कीतगडं खं १ । कीयकडं खं २ पु १ । कीयगडं पु २ ॥ ५ पूइयं णे खं २ पु १ पु २ ॥ ६°णिमक्खि खं १ खं २ पु१पु २ वृ० दी० ॥७च गिद्धवधा खं २ पु१पु२॥८ककं च तं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥९ कतकिरीते खं २ पु १॥ १० पसिणायत खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ११ परियाणिया खं २ । परिजाणिता खं १॥ Jain Education Intemational Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा०४४७-५६] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। ४५२. उवाहणाउ छत्तं च णालीयं वालवीर्यणं । परकिरियं अण्णमण्णं च तं विजं ! परिजाणिया ॥१८॥ ४५२. उवाहणाउ छत्तं च० सिलोगो । उपानही पादुके च वर्जयितव्ये । छत्रमपि आतप-प्रवर्षपरित्राणार्थ न धार्यम् । नालिका नाम नालिकाक्रीडा कुदुक्काक्रीड त्ति । परकिरियं अण्णमण्णं च, परकिरिया णाम णो अण्णमण्णस्स पादे आमजेज वा पमजेज वा, जधा छढे सैत्तिक्कते । अण्णमण्णकिरिया णाम इमो वि इमस्स पादे आमज्जति वा । पमज्जति वा, इमो वि इमस्स ॥ १८ ॥ ४५३. उच्चारं पासवणं हरितेसु ण करे मुणी। वियडेण वा वि साहढ णाऽऽयमेज कदादि वि ॥ १९ ॥ ४५३. उच्चारं पासवणं० सिलोगो । कण्ठ्यम् । विगडं णाम विगतजीवम् , विगतजीवेनापि तावत् तन्दुलोदगादिना न तत्र कल्पते आयमितुम्, किमु अनवगतजीवेणं? । एवमन्यत्रापि अथंडिले पडिसिद्धं । साहड्डरिति विगतजीवं साहरिऊण, 10 ताणि वा हरिताणि साहरितूणं ॥ १९ ॥ ४५४. परपत्ते अण्ण-पाणं तु ण मुंजेज कदाइ वि। परवत्थं च अचेले वि तं विजं ! परिजाणिया ॥२०॥ ४५४. परपत्ते अण्णपाणं तु० [सिलोगो] । परस्य पात्रं गृहिमात्र इत्यर्थः । अथवा पडिग्गहधारिस्स पाणिपात्रं परपात्रम, पाणिपडिग्गहिस्सावि पडिग्गहो परपात्रो भवति । परवत्थं च अचेले वि, परस्य वस्त्रं गृहिवस्त्रमित्यर्थः, तत् तावत् 15 सचेलो वर्जयेत्, मा भूत् पश्चात्कर्मदोषः हृत-नष्टदोषश्च, यद्यप्यचेलकः स्यात्, एवं तावत् सचेलकस्य । यः पुनर [कस्त]स्याऽऽत्मीयमपि वस्त्रं परवस्त्रमेव, न हि तस्य तदनुज्ञातं स्वयं चोत्सृष्टत्वादित्यतः परवस्त्रम् ॥ २० ॥ ४५५. आसंदी पलियंकं च णिसेज्जं च गिहतरे। संपुच्छणं च सरणं वा तं विजं ! परिजाणिया ॥२१॥ ४५५. आसंदी पलीयंकं च० सिलोगो । आसंदीत्यासंदिका सर्वा आसनविधिः अन्यत्र काष्ठपीठकेन । पलियंक: 20. पर्यत एव, "गंभीरविजया एते." [ दशवै० अ० ६ गा० ५५] । इत्यादयो दोषाः । गिहतरसेजं ण वाहेजा, “ अंगुत्ती बंभचेरस, पाणाणं च वधे वधो।" [ दशवै० म० ६ गा० ५७ ] इत्यादयो दोषाः । संपुच्छणं च सरणं वा, संपुच्छणं णाम 'किं तत तं? न कृतं वा ?' संपुच्छावेति अण्णं, 'केरिसाणि मम अच्छीणि ? सोभंते ण वा?' इत्येवमादि, ग्लानं वा पुच्छतिकिं ते वदृति ? ण वट्टति वा ? । सरणं पुव्वरत-पुव्वकीलियाणं । तं विद्वन् ! परिजानीहि ॥ २१ ॥ ४५६. जसकित्तिं सिलोगं च जा य वंदण-पूयणा । सव्वलोगंसि जे कामा तं विजं ! परिजाणिया ॥ २२॥ ४५६. जसकित्तिं सिलोगं च० सिलोगो । दानबुद्ध्यादि पूर्व यशः, तपः-पूजा-सत्कारादि पश्चाद् यशः, यशः एव कीर्तनं जसकित्ती। सिलोगो णाम श्लाघा जाति-तपो-बाहुश्रुत्यादिभिरात्मानं [न] श्लाघेत, वंदण-पूयाउ वि ण कामए, ण वा कजमाणासु रागं गच्छेज्जा । सव्वलोगंसि जे कामा, [कामा ] दुविहा इच्छा-मदनभेदात् , पञ्चविधा वा ॥ २२ ॥ किश्च 30 25 १पाणहाओ य छत्तं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ २वीयणी खं १ ख २ पु १॥ ३ आचारागसूत्रे द्वितीया सप्तसप्लैककचूलिका ॥ ४संहट्ट खं २ पु १ पु २॥ ५परमत्ते खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ६ च खं १ पु १ पु २॥ ७ परवत्थमचेलो खं १ पु १ . दी। परमत्थमचेलो खं २ पु २॥ ८पलियंके य ख १ खं २ पु १ पु २। ९ सम्मुच्छणं च सरणं च खं १ । संपुच्छर्ण सरणं वा खं २ पु १ पु२॥ १० दशवैकालिकसूत्रे विवत्ती बंभचेरस्स इति पाठो दृश्यते ॥ ११ जसं कित्ति खं११ जसं कित्ती खं २ पु१पु २ वृ० दी० ॥ Jain Education Intemational Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकिय [९ धम्मज्झयणं ४५७. 'जेणिहं णिव्वहे भिक्खू अण्ण-पाणं तधाविधं । अणुप्पदाणमण्णेसिं तं विजं ! परिजाणिया ॥ २३ ॥ ४५७. जेणिहं णिन्वहे भिक्खू० सिलोगो । जेणेति जेण धम्मकधाए वा संथवेण वा आजीव-वणीमगत्तेण वा अण्णतरेण वा उप्पातणादोसेणं, अण्णहेतुं वा पाणहेतुं वा पयुंजमाणेण इमा ओवम्मा, णिवहति निर्वहति नाम निर्गच्छति तन्न कुर्यात । अधवा जेणिहणिव्वाहेति येनास्य इहलौकिक किञ्चित कार्य निष्पद्यते मित्रकार्य वा. प्रतिदास्यति वा मे किश्चित्, परित्रास्यति वा, वहिस्सति वा मे किश्चिद् उवगरणजातं, एवमादिकं किञ्चिदिहलोककार्य निर्वाहकं साधकमित्यर्थः, तं पडुच्च, अण्णं वा ॥ २३ ॥ ४५८. सीलमंते असीले वा तेसिं दाणं विवज्जए। निज्जरहाए दायव्वं तं विजं ! परिजाणिया ॥ २४ ॥ 10 ४५८. सीलमंते असीले वा० [सिलोगो] । न पुनः परमार्थेन, शीलवन्त इव शीलवन्तः अण्णतित्थिया, अशीला गिहत्था तेसिं दाणं [वि]वजए । अधवा शीलवन्तः साधू, तस्स मुधेव णिजरद्वाए दायव्वं, न विहलौकिकं किश्चिनिर्वाहकं प्रतीत्य दातव्वं । अथवा शीलवानिति श्रावकः, अशीला नाम मिथ्यादृष्टयः तस्मिं शीलवति वा दाणं विवज्जए ॥ २४॥ ४५९. एवं उदाहु णिग्गंथे महावीरे महामुणी। अणंतणाण-दंसी से धम्म देसितवं सुतं ॥ २५॥ ४५९. एवं उदाहु णिग्गंथे० सिलोगो । एवं अवधारणे । उदाहृतवान् उदाहुः । नास्य प्रन्थो विद्यत इति निर्ग्रन्थः महावीरः । स एव च महामुनिः । किं महं ? यदसौ मनुते अणं णाण-दसणं च, धर्म देशितवान् श्रुतमिति - कर्मान्तरं धर्मम् , अनेन श्रुतधर्मेण चारित्रधर्म देशितवान् , चारित्रधर्मावशेषमेव श्रुतधर्मेऽत्र चारित्रधर्म देशितवान् ।। २५ ॥ चारित्रधर्मावशेषमेव श्रुतधर्मेणापदिश्यते ४६०. भासमाणो ण भासेज्जा णो य वंफेज मम्मयं । ___ मायाठाणं ण सेवेज अणुचिंतिय वाहरे ॥ २६ ॥ ४६०. भासमाणो ण भासेज. सिलोगो । अथवा तेन भगवता भाषासमितेनायं धर्म उद्दिष्टः । योऽप्यन्यः कथयति सोऽप्येवमेव कथयतु । भासमाणो ण भासेज, यो हि भाषासमितः सो हि भाषमाणोऽप्यभाषक एव लभ्यते । उक्तं चवयणविभत्तीकुसलो वयोगतं बहुविधं वियाणेतो। दिवसं पि जंपमाणो सो विहु वइगुत्ततं पत्तो ॥१॥ [दशवै० नि० गा० २९३] जधाविधीए परिहरमाणो सचेलो वि अचेल एवापदिश्यते, जधा वा अकंडुआगो य णिट्ठभगो य । अधवा भासमाणो ण भासेजा, ण रातिणियस्स अंतरभासं करेज्जा ओमरातिणियस्स वा । णो य वंफेज मम्मयं, फेति णाम देसीभासाए उल्लावो वुञ्चति, तदपि च अपार्थकं अश्लिष्टोक्तं बहुधा तं वफेति त्ति वुञ्चति । अधवा ण वंफेज मम्मयं ति कधं ?, जातिकुशील-तवेहिं मर्मकृद् भवतीति मर्मकम् । मायाठाणं ण सेवेज, माया णाम गूढाचारता, कृत्वाऽपि निह्नवः, करिष्यमाणश्च 30न तथा दर्शयत्यात्मानम् । यदा वक्तुकामो भवति तदा पूर्वापरतोऽनुचिन्त्य वाहरे ॥ २६ ॥ किश्च १जेणेह पु २ । जिणेहिं खं २ पु १, अशुद्धोऽयं पाठः ॥ २ नायं सूत्रश्लोकः सूत्रप्रतिषु दृश्यते, नापि वृत्तिकृता दीपिकाकृता वा व्याख्यातोऽस्ति । किञ्च चूर्णिकृता व्याख्यातोऽस्तीति चूर्णिगतप्रतीकानुसारेणात्र स्थापितोऽस्ति ॥ ३णेय खं १ ख २ पु १ पु २॥४मामय पु१ वृपा०॥ ५मातिट्ठाणं विवजेजा ख १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ६ अणुवीइ उदाहरे वृ० । अणुवीय वियागरे खं १ खं २ पु १ पु २ दी । अणुवीति खं १॥ ७ "दिवस पि भासमाणो तहा वि वयगुत्ततं पत्तो ॥” इति "दिवसमवि भासमाणो अभासमाणो व वइगुत्तो॥” इति च पाठमेदावपि दशवकालिकसूत्रनिर्युक्तौ दृश्यते ॥ 20 Jain Education Intemational Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा०४५७-६४] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। ४६१. 'संतिमा तधिया भासा जं वदित्तोऽणुतप्पती। जं छणं तं ण वत्तव्वं ऐसा आणा णियंठिया ॥२७॥ ४६१. संतिमा तधिया भासा० सिलोगो । सन्तीति विद्यन्ते, तधिका नाम तथ्या, सद्भूता इत्यर्थः । भाषन्त इति भाषा, अनेके एकादेशात् । जं वदित्ताऽणुतप्पती, स्वयमेव चौरः काणः दासस्तथा राजविरुद्धं वा लोकविरुद्धं वा एष वा इणमकासी, अनुतापो हि दुःखं प्राप्य वा बन्ध-घातादि भवति, अप्राप्तस्य परं वा सागसं निरागसं वा दोषं प्रापयित्वा । चानुतापो भवति । किश्व-जं छणं तं ण वत्तव्वं, "छण हिंसायाम्" यद्धि हिंसक तन्न वक्तव्यम् । तद्यथा-लूयतां केदारः, युज्यन्तां शकटानि, छागो वध्यताम् , निविश्यन्तां दारका इति । एसा आणा णियंठिया, आज्ञा नाम उपदेशः, णियंठ इति निम्रन्थः, एषा महाणियंठस्याऽऽज्ञा, णियंठाण वा एषा आज्ञा उपदिष्टा ॥ २७ ॥ किञ्च ४६२. होलावाद सहीवादं सोलवादं च णो दे। तुमं तुमं ति अपडिण्णे सवसो तं ण वत्तए ॥२८॥ 10 ४६२. होलावादं सहीवादं० सिलोगो । होला इति देसीभाषातः समवया आमच्यते, यथा लाटानां "काई रे हेल्ल" त्ति । सहीवादमिति सखेति । सोलवादो प्रियभाष इव । “गोतावादो" वा पठ्यते, यथा-किं भो ब्राह्मण ! क्षत्रिय ! काश्यपगोत्र! इत्यादि । तमं तमं ति अपडिण्णे, जो अतुमंकरणिजो वृद्धो वा प्रभविष्णुर्वा स न वक्तव्यः, अपडिण्णो णाम साधुरेव । सव्वसो तं ण वत्तए, सर्वशस्तन्न ब्रूयात् ॥ २८ ॥ किञ्च यदुक्तं णिज्जुत्तीए "पासत्थोसण्ण-कुसीलसंथवो ण किर वट्टती' [नि० गा० ९५ ] तदिदम्४६३. अकुसीले सदा भिक्खू णो य संसग्गियं भये । सुहरूवा तत्थुवस्सग्गा पडिबुज्झेजे ते विदू ॥ २९॥ ४६३. अकुसीले सदा भिक्खू० सिलोगो । कुत्सितं शीलं यस्य स भवति कुशीलः, स तु पासत्थादीणं एगे, ततो पंचण्ह वि, तन्न तावत् स्वयं कुशीलेन भाव्यम् । णो य संसग्गियं भये, न च तैः संसर्गि कुर्यात् । संसर्जनं संसर्गिः, आगमण-दाण-ग्रहणसम्प्रयोगान्मा भूत् "अंबस्स य णिंबस्स य०" [आव० नि० गा० १११६ पत्र ५२१-२ तथा ओघनि. गा. 20 ७७० पत्र २२३-१] त्ति, तेन संसर्गि न तैर्भजेत्, संसर्गिस्तद्भावं गमयति । कथम् ?, सुहरूवा तत्थुवस्सग्गा, सुखरूपा नाम सुखस्पर्शाः । तद्यथा-को फासुगपाणएण पादेहिं पक्खालिज्जमाणेहिं दोसो ?, तहा दंतपक्खालणे उव्वट्टणे, एवं लोगे अवण्णो न भवति । अहवा सुख इति संयमः, संयमानुरूपा हि तत्रोपसर्गा भवन्ति, मा नवरि त्रिविवेनापि करणेन सातिज्जत तेण को आहाकम्मे दोसो ?, ण वाऽसरीरो धम्मो भवति, तेण शरीरसंधारणत्थं उपाहण-सन्निधिमादिसु को दोसो ? । उक्तं हि-"अप्पेण बहुमेसेज्जा, एतं पंडितलक्खणं ।" [ ] संपयं हि अप्पाई संघतणाई धितिओ य, तेण एवमा- 25 दिसु सुरूवेसु उवसग्गेसु पडिबुझेज ते विद्, पडिबुझेज णाम जाणेजा, जाणित्ता ण संसम्गि कुज्जा, यदाऽपि नाम . स्याद् यदृच्छया तैः संसम्गी तदाऽपि एवमादिसुहरूवे उवसग्गे पडिबुज्झेज ते विद्, पडिबुज्झिउं णो सद्दहेज, यथाशक्तितश्चाभिहन्यात् ॥ २९ ॥ किश्च-भिक्खादिनिमित्तं च गृहपतिमनुप्रविश्य न तत्र ४६४. नऽन्नत्थ अंतरायेण परगेहे ण णिसीयए। गाम-कुमारियं किडु णातिवेलं हसे मुणी ॥ ३०॥ ६४. ननस्थ अंतरायेण सिलोगो। अंतरागं जराए अभिभूतो वाहितो तपस्वी इत्यादि । गामकुमारियं किडं. : प्रामधर्मक्रीडा कुमारक्रीडा वा गाम-कोमारियं किहुं । तत्र ग्रामक्रीडा हास्य-कन्दर्प-हस्तस्पर्शना-ऽऽलिङ्गनादि, ताभिः सार्द्ध एवं १तथिमा ततिया खं १ खं २ पु १ पु २ ० दी०॥ २त्ताण तप्प पु १॥ ३ छन्नं तं खं १ ख २ पु २ वृ० दी.॥ ४एस खं १॥ ५होलावातं सहीवातं गोतावातं च खं १ । होलावायं सहीवायं गोयवायं च खं २ पु १ पु २ . दीगोता. वादं चूपा०॥ ६ वये खं १॥ ७ अमणुण्णं स खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ८णेव खं २ पु १॥ ९जए विद पु२॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ર णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [९ धम्मज्झयणं वा स्त्रीभिः क्रीडते इति, पुम्भिरपि सार्द्धम् । कुमारकानां क्रीडा कुमारक्रीडा वट्टतेंदुग-अदोलिगादि, तं तु खुड्डगेहिं सार्द्ध गिहत्थकप्पट्ठएहिं वा महंतेहिं वा सव्वकेली न कातव्वा । न चातीत्य वेलां हसे मुणी, वेला मेरा सीमा मज्जाय त्ति वा एगहुँ, नातीत्य मर्यादां हसे मुणी, “जीवे णं भंते ! हसमाणो वा उस्सु[य]माणो वा कइ कम्मपगडीओ बंधइ ?, गोयमा! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा" [ भग० श० ५ उ० ४ सू० १८६ पत्र २१७-२]। इह हसतां संपाइमवायुवधो ॥ ३० ॥ किश्च ४६५. अणिस्सिओ उरालेहिं अपमत्तो परिव्वए। चरियाए अप्पमत्तो पुट्ठो सम्माधियासए ॥ ३१॥ ४६५. अणिस्सिओ० सिलोगो । अणिस्सिए उरालेहि, उराला नाम उदाराः शोभना इत्यर्थः, तेषु चक्रवर्त्यादीनां सम्बन्धिषु शब्दादिषु कामभोगेषु अन्यैश्वर्य-वस्त्रा-ऽऽभरण-गीत-गान्धर्व-यान-वाहनादिषु इह च परलोके चानिःसृतो अपमत्तो परिव्वए, अन्येषु वाऽऽहारादिषु । चरियाए अप्पमत्तो, चरिया भिक्खुचरिया तस्यामप्रमत्तः स्यात् । यदि नाम 10 तस्यामप्रमत्तः परीषहोपसगैः स्पृश्येत ततो सम्माधियासए ॥ ३१ ॥ ४६६. हम्ममाणो ण कुप्पेज वुच्चमाणो ण संजले। सुमणो अहियासेज ण य कोलाहलं करे ॥ ३२॥ ४६६. हम्ममाणो ण कुप्पेज० सिलोगो। [हम्ममाणो लट्ठीमादीहिं ण कुप्पेजा.........] वुच्चमाणो नाम असुस्सूसमाणो निदिजमाणो वा णिभच्छिज्जमाणो वा ण संजलेदवि न क्रोध-मानाभ्यामिन्धनेनेवाग्निः संजले । तं पुण 15 सुमणो अहियासेजा, सुमणो णाम राग-दोसरहितो । ण य कोलाहलं करे, ण उक्कुट्टिबोलं वा करेज रायसंसारियं वा ॥ ३२ ॥ किश्व ४६७. लद्धे कामे ण पत्थेजा 'विवेगं एवमाहिए। आयरियाई सिक्खेजा सुबुद्धाणंतिए सदा ॥ ३३ ॥ ४६७. लद्धे कामे ण पत्थेजा० सिलोगो । लद्धा णाम जइ णं कोइ वत्थ-गंध-अलंकार-इत्थी-सयणा-ऽऽसणादीहिं 20 णिमंतेजा तत्थ ण गिज्झेज, जधा चित्तो [उत्तरा० अध्य० १३] । अधवा "लद्धीकामे" तवोलद्धीओ आगासगमण-विउव्वादीओ अक्खीणमहाणसिगादीओ य ण दाव उवजीवेज्ज, ण य अणागते । इहलौकिके एता एव वत्थ-गंधादी, परलोगिगे वा जधा बंभदत्तो तधा ण पत्थेज, एवं भावविवेगो आख्यातो भवति । किश्च-आयरियाई सेवेज (सिक्खेजा), आचरणीयाणि आयरियव्वाणि, दुविधाए वि सिक्खाए । केसामंतिगे ?, सुबुद्धाणं, सुझु बुद्धा सुबुद्धा गणधराद्याः, यधा यदाकालमाचार्या भवन्ति ॥ ३३ ॥ किञ्च ४६८. सुस्सूसमाणो उवासेज सुपण्णं सुतवस्सियं । वीरा जे अत्तपण्णेसी धितिमंता जितिंदिया ॥ ३४॥ ४६८. सुस्सूसमाणो उवेहेज० (उवासेज०) सिलोगो । श्रोतुमिच्छा शुश्रूषा । कोऽर्थः ?, पूर्वमुक्तं "आयरियाई सिक्खेजा सुबुद्धाणं० [सुत्तं ४६७ ] तेषां सकाशादनिदानं तदर्थशुश्रूषा । तथैव उपासि(सी)त सुपण्णं शोभनप्रज्ञं सुप्रशं गीतार्थ प्रज्ञावन्तम् । सुझु तवस्सितं सुतवस्सितं, यदि चेत् संविग्ग इत्यर्थः । तत्र केवंविधाचार्याः शरणम् ?, वीरा जे 30 अत्तपण्णेसी, विराजन्त इति वीराः, आत्मप्रज्ञामेषन्तीति आत्मप्रषिणः, आत्मज्ञानमित्यर्थः । कथम् ?, येनाऽऽत्मा ज्ञायते येन वाऽस्य निस्सारणोपायः संयमवृत्तिव्यवस्थित इति, [...... ............] ॥ ३४॥ १ अणुस्सुओ उरालेसु जयमाणो परिव्वते । चरियाए अप्पमत्तो पुट्टो तत्थऽहियासते ॥ खं १ ख २ पु १ पुरवृ० दी। अणिस्सिओ वृपा० ॥ २ लद्धीकामे चूपा. वृपा० ॥ ३ विवेगे एसमाहिए खं १ पु १ ॥ विवेगे तेसमाहिते खं २ पु २॥ ४ आरियाई खं १ वृ. दी। आयरियाई वृपा० ॥ ५°जा बुद्धाणं अंतिए खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ Jain Education Intemational Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ४६५-७१] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंग पढमो सुयक्खंधो। ४६९. गिहे दीवमपासंता पुरिसादाणिया णरा। ते वीरा बंधणुम्मुक्का णावखंति जीवितं ॥ ३५ ॥ ४६९. [गिहे दीवमपासंता० सिलोगो।............. पुरुषादानीयाः सेव्यन्त इत्यर्थः, नो राजा-ऽमात्याश्च पण्डिता धर्मलिप्सवो वा पुरुषादानीया भवन्ति इत्यतः प्रव्रजन्ति, प्रव्रजितास्तु ते वीरा बंधणुम्मुक्का । अधवा पूर्व गृहवासे द्विविधमपि भावद्वीपं अदृष्टवन्तः प्रव्रज्यामुपेत्य पुरुषादानीया । यदा संवृत्ता भवन्ति धर्मलिप्सुभिः पुरुषैरादानीयाः । अथवा ग्राह्याः पुरुषा इत्यादानीयाः । अथवाऽऽदानीय इत्यादानार्थिकः साधुः, पुरुषश्चासौ आदानीयश्च पुरुषादानीयः। ते वीरा इति आदानीयाः, विराजन्त इति वीराः। बन्धनानि कालादीनि तेभ्यो मुक्का बंधणुम्मुक्का । न तदसंयमजीवितं पुनरवकाङ्क्षन्ते विषय-कषायादिजीवितं वा ॥ ३५ ॥ जं तं कषायादिजीवितं पासत्यादिजीवितं तदिदम् । तं जधा४७०. अगिद्धे सह-फासेसु आरंभेसु अणिस्सिते । 10 सव्वेतं समयातीयं जमिदं लवितं बहुं ॥ ३६॥ ४७०. अगिद्धे सद्द-फासेसु० सिलोगो । मणुण्णेसु सहेसु फासेसु य अगिद्धेण भवितव्वं, रूवेसु अमुच्छितेण भवितव्वं, एवं गंध-रसेसु समणुण्णेसु य । अमणुण्णेसु य सव्वेसु दोसो ण कायव्यो । णिगमणमिदाणिं अपदिश्यते-सव्वेतं समयातीयं, सव्वमिति यदिदं धर्म प्रति इह मयाऽध्ययनेऽपदिष्टम् । समय आरुहत एव, आदीयं ति भक्षणम् , समयाभ्यन्तरकरणमात्रम्, "अद भक्षणे" समयेण अतीतं समयाभ्यन्तरे, न समयेन समयेनात्तमित्यर्थः । अथवा ये वा परे 15 कुसमयाः तान् कुसमयान् एतदतीतम् , अज्ञानदोषाद् विषयलालस्याच्च न तैरावजंत इत्यर्थः । किं तत् ?, यदिदं लवितं बहुं, लवितं नाम कथितमित्यर्थः ।। ३६ ॥ किश्च-उक्तावशेषमिदमपदिश्यते ४७१. अतिमाणं च मायं च तं परिणाय पंडिते। गारवाणि य सव्वाणि णेव्वाणं संधए मुणि ॥ ३७॥ त्ति बेमि ॥ ॥धम्मो सम्मत्तो। णवमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥९॥ 20 ४७१. अतिमाणं च मायं च० सिलोगो । अतिरतिक्रमणादि, अतिशयेन मानं अतिमानम् , एवं मायामपि, चशब्दात् क्रोध-लोभावपि । कोऽर्थः ? यद्यपि तावत् क्रोधोदयः स्यात् तथापि तस्य निग्रहः कार्यः, न तु साफल्यम् , एवं शेषाणामपि । अथवा यद्यपि मानार्हेष्वाचार्यादिषु प्रशस्तो मानः क्रियते सरागत्वात् तथापि तमतीत्य योऽन्यो जात्यादिमानः परिण्णाय [ पंडिते], तं दुविधाए वि परिण्णाए परिजाणेज्ज । एवं शेषेष्वपि प्रयोजयितव्यम् । गारवाणि य सव्वाणि, इडीगारवादीणि, परिज्ञायेति वर्त्तते । णेव्वाणं संधए मुणी, णिव्वाणमिति संयम एव, तं संयम अच्छिण्णसंधणाए ताव संधेहि जाव परं संयमट्ठाणं संधितं । अधवा णिव्वाणमिति मोक्षः संधित इति ॥ ३७ ।। ॥ धर्माध्ययनं नवमम् ॥९॥ १°मपस्संता खं २ पु १ पु२॥ २सव्वं तं खं २ पु १ पु२॥ ३समतातीतं खं १ खं २ पु १॥ ४जमेतं खं १ खं२ पु१पुर वृ० दी०॥ ५°णात खं १॥ Jain Education Intemational Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८४ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१० समाहिअज्मयणं [दसमं समाहिअज्झयणं] sococcoonसमाधि त्ति अज्झयणस्स चत्तारि अणुयोगद्दारा । अधियारो से समाधीए । एसा य जाणितुं फासेतव्वा । णामणिप्फण्णे आदाणपदेणाऽऽघं गोण्णं णामं पुणो समाधि त्ति। णिक्खिविऊण समाधि भावसमाधीए पगयं तु ॥१॥९६ ॥ __ आदाणपदेणाऽऽघं गोणं णामं० गाधा । यस्मादपदिश्यते "आघं मतिमं अणुवीति धम्म" [ सुत्तं ४७२ ] इतरथा त्वध्ययनस्य समाधिरिति संज्ञा, तेनैवार्थाधिकारः। जधा असंखयस्स आदाणपदेण असंखतं ति णामं, तं पुण पमायापमादं ति अज्झयणं वुच्चति, जेण तत्थ पमादो अप्पमादो य वणिज्जति त्ति । तधेव लोगसारविजयो अज्झयणं, 10 आदाणपदेणं पुण आवंति त्ति वुञ्चति । एवमादीणि अज्झयणाणि आदाणपदेण वुञ्चति । गुणणिफण्णेणं पुणाई णामेण तेसि णिक्खेवो भवति, इमस्स पुण गुणणिप्फण्णं णामं समाधी ॥ १ ॥ ९६ ॥ सा छविधा भवति णाम ठवणा दविए खेत्ते काले तधेव भावे य। एसो तु समाधीए णिक्खेवो छविधो होति ॥२॥ ९७॥ णाम ठवणा दविए० गाधा ॥ २ ॥ ९७ ॥ तत्थ दव्वसमाधी णं पंचसु वि य विसयेसुं सुभेसु दम्वम्मि सा समाधि त्ति । खेत्तं तु जम्मि खेत्ते काले जो जम्मि कालम्मि ॥३॥९८॥ पंचसु वि य विसयेसुं० गाधा । श्रोत्रादीनां पञ्चानामपि इन्द्रियाणां यथाखं शब्दादिभिर्मनोहविषयैर्या तुष्टिरुत्पद्यते सा द्रव्यसमाधिः । अधवा-"दव्वं जेण तु दव्वेण समाधी आधितं च जं दव्वं" सोभणवण्णादि सा दव्वसमाधी, क्षीर-गुडादीणां च समाधी, अविरोध इत्यर्थः । दव्वेण समाधिरिति, जधा उप[भु]जन्ताणं परिणामिगसमाधिरित्यादि । 20 आहितं च जं दव्वं ति जधा तु लोए आहितं ति समं भवति, एसा दुव्वसमाधी । खेत्ततो समाही खेत्तसमाधी, जधा दुभिक्खहताणं सुभिक्खदेसं पाविऊण समाधी, तथैव चिरप्रवसितानां स्वगृहं प्राप्य, जत्थ वा खेत्ते समाधी वणिज्जति । कालसमाधी णाम जस्स जत्थ काले समाधी भवति । प्रायशस्तावद् वानस्पत्यानां वर्षासु, नक्तमुलूकानाम्, अनि बलिभोजनानां वायसानाम् , शरदि गवाम् , जस्स वा जच्चिरं कालं समाधी ॥ ३ ॥ ९८ ॥ भावसमाधि चतुविध दंसण णाणे तवे चरित्ते य । चतुहिं वि समाधितप्पा सम्मं चरणद्वितो साधू ॥४॥ ९९ ॥ ॥ समाधीए णिजुत्ती सम्मत्ता ॥१०॥ भावसमाधि चतु० गाधा । तं जधा–णाणसमाधी १ दंसणसमाधी २ चरित्तसमाधी ३ तवसमाधी ४ । णाणसमाधी जधा जधा सुतमधिजति तथा तथाऽस्यातीव समाधिरुत्पद्यते, ज्ञानोपयुक्तो हि आहारमपि न काङ्कते, न वा दुःखस्योद्विजते, १°णग्घं खं १॥ २°माहीइ खं २ पु २ ॥ ३ असंखयनामकं उत्तराध्ययनसूत्रे चतुर्थमध्ययनम् ॥ ४ लोकसारविजयाख्यं आचाराङ्गसूत्रे पञ्चममध्ययनम् ॥ ५पंचसु विसएसु सुमेसुदव्वम्मि सा भवे समाहि त्ति खं १ खं २ पु २। दव्वं जेण तु दव्वेण समाधी आधितं च जं दव्वं । चूपा०॥ ६ काले कालो जहिं जो उ खं २ पु २ वृ० दी०॥ ७°माही चउहा सण खं १ वृ०॥ ८चउसु वि खं २ पु २ बृ०॥ ९समाही सम्मत्तो खं २ पु २॥ Jain Education Intemational Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ४७२-७४ णिजुत्तिगा० ९६-९९] सूयगडंगसुत्तं विइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। १८५ शेयार्थोपलम्भे चास्यातीव समाधिरुत्पद्यते १ । दर्शनसमाधिरपि जिनवचननिविष्टबुद्धिरिह निवातसरणप्रदीपवन कुमतिभिर्धाम्यते २। चारित्रसमाधिरपि विषयसुखनिःसङ्गत्वात् परां समाधिमाप्नोति । उक्तं च-"नैवास्ति राजराजस्य तत् सुखं." [प्रशम०मा०१२८] ३। तपःसमाधिरपि नासौ तपोभावितत्वात् कायक्लेश-त्-तृष्णापरीषहेभ्य उद्विजते । तथैवाभ्यन्तरतपोयुक्तः ध्यानाश्रितमना निर्वाणस्थ इव न सुख-दुखाभ्यां बाध्यते ४ ॥४॥ ९९ ॥ गतो णामणिप्फण्णो । सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारणीयं जाव४७२. आघं मतिमं अणुवीयि धम्म, अंजु समाधि तधियं सुणेह । अपडिण्ण भिक्खू उ समाधिपत्ते, अणिदाणभूतो सुपरिव्वएज्जा ॥१॥ ४७२. आघं मतिमं अणुवीयि धम्मं० वृत्तम् । सम्बन्धः-अच्छिन्ननिर्वाणसन्धनेति वर्त्तते, स एव भगवान् तस्यामच्छिन्ननिर्वाणसन्धनायां वर्तमानः आघं मतिमं अणुवीयि धम्म, आघमिति आख्यातवान् , मतिमानिति केवलज्ञानी, अणुवीयि त्ति अनुविचिन्त्य केवलज्ञानेनैव, अथवा अनुविचिन्त्य ग्राहक ब्रवीति । जधा 10 "णिउणे णिउणं अत्थं थूलत्यं थूलबुद्धिणो कधए ।" [कल्पमा० गा० २३० ] सुणेलूगा विचिंतेंति-मम भावमनुविचिन्त्य कथयति, तिरिया अपि विचिंतयंति-अम्हं भगवान् कथयति । आहाराद्या द्रव्यसमाधयः प्ररूप्य प्रशस्तभावसमाधिःअंजुमिति उजुगं, न यथा शाक्याः , वृक्षं स्वयं न छिन्दन्ति, 'भिन्नं जानीहि' तं छिन्दानं ब्रुवते; तथा कार्षापणं न स्पृशन्ति क्रय-विक्रयं तु कुर्वते इत्येवमादिभिः अनृजुः । तधिकमिति तथ्यम् । अपडिण्णे भिक्खू उ समाधिपत्ते, कः समाधिप्राप्तः ? य अप्रतिज्ञः इह-परलोकेषु कामेषु अप्रतिज्ञः, अमूछित इत्यर्थः, अद्विष्टो वा । मिक्षुः पूर्ववर्णितः, तुर्विशेषणे, भावभिक्खू।। विसेसिज्जति । भावसमाधिरेव प्राप्तनिबन्धने न निदानभूतः अनिदानभूतो नाम अनाश्रवभूतः, सर्वतो व्रजेत् परिव्वए । अधवा “अणिदाणभूतेसु परिव्वएजा" अनिदानभूतानीति “निदा बन्धने" अबन्धभूतानीति अनिदानतुल्यानीति ज्ञानादीनि व्रतानि वा तेसु परिवएजा, अधवा निदानं हेतुर्निमित्तमित्यनान्तरम् , न कस्यचिदपि दुःखनिदानभूतो परिव्वएज्जा ॥१॥ काणि पुण णिदाणट्ठाणाणि ?, उच्यते-पाणवधादीणि । तत्थ पाणातिवातो चतुविधो, तं जधा-दव्यतो खेत्ततो कालतो भावतो। तत्र क्षेत्रप्राणातिपातप्रतिषेधप्रतिपादनार्थमपदिश्यते 20 ४७३. उडे अधे या तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा। हत्थेहिं पादेहि य संजमंतो, अदिण्णमण्णेसु य णो गहेजा ॥२॥ ४७३. उडे अधे या तिरियं दिसासु. वृत्तम् । सव्वो पाणातिपातो कन्जमाणो पण्णवगादि संपडुच्च उड्डूं अधे य तिरियं वा कजति । तत्रो मिति यदूर्द्ध शिरसः, अध इति अधः पादतलाभ्याम् , शेषं तिर्यक् । तत्रोचं सम्पातिमरजोवर्षोल्का-प्रदीप्तगृहादीनि वायु-वृक्ष-पक्षि-मक्षिकाः ये चाऽन्ये वृक्षगृहाद्याश्रिताः, एवमधस्तिर्यक् च विभाषितव्याः। द्रव्यप्राणाति-25 पातस्तु तसा य जे थावर जे य पाणा | भावप्राणातिपातस्तु हत्थेहिं पादेहि य संजमंतो। चशब्दाद् अपि उच्छासनिःश्वास-कासित-क्षुत-वायुनिसर्गादिषु सर्वत्र संयमति, एवं समाधिर्भवति । एवं मायं माणं च संजमेजा। तथैव अदिणं ण गेण्हितव्वं ति ततियं वतं । एवं सेसाणि वि अत्थतो परूवेतव्वाणि ॥ २॥ ज्ञान-दर्शनसमाधिप्रसिद्धये त्विदमपदिश्यते ४७४. सुयक्खातधम्मे वितिगिंछतिण्णे, लाढे चरे आयतुले पयासुं। आयं ण कुजा इह जीवितट्ठी, चयं ण कुज्जा सुतवस्सि भिक्खू ॥३॥ 30 ४७४. सुयक्खातधम्मे वितिगिछतिण्णे० वृत्तम् । सुष्टु आख्यातो धर्मः स भवति सुअक्खातधम्मे द्विविधोऽपि । वितिगिछतिण्णो त्ति दर्शनसमाधी गिहिता, "निस्संकित निकंखित०” गाधा [दशवै० नि० गा० १८५ पत्र १०१ . १ मइमं खं १ पु १। मईमं खं २ पु २ वृ० दी.॥२ अंजू समाहिं तमिणं सुखं १ खं २ पु १ पु २ वृ• दी० ॥३°भूतेनु चूपा०॥ ४ आघन्निति चूसप्र०॥ ५अधेतं ति खं २ पु १ । अधेयं ति खं १ पु २॥ ६त खं १॥ ७ पातेहि खं २ पु१॥ ८संजमित्ता खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ ९ गहात खं १॥ १० पदासु खं १॥ . सूय सु० २४ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१० समाहिअज्झयणं तथा उत्तरा० अ० २८ गा० ३१ ] । जेण केणइ फासुगेणं लाढेतीति लाढः, सुत्त-ऽत्थ-तदुभयेहिं विचित्तेहिं किसे वि देहे अपरितंते लादेत्ति । आयतले पयासं ति, प्रजायन्त इति प्रजाः पृथिव्यादयः, तासु यथाऽऽत्मनि तथा प्रयतित हिंसितव्या इत्यर्थः, आत्मतुल्या इति "जध मम ण पियं दुक्खं०" [अनुयो० पत्र २५६ दशवै० नि० गा० १५४] । एवं मुसावादे वि जधा मम अब्भाइक्खिजंतस्स अप्पियं एवमन्यस्यापि । एवमन्येष्वपि आश्रवद्वारेषु आत्मतुल्यत्वं विभाषितव्यम् । आयं ण कुजा इह जीवितही, आयो नाम आगमः, तं आई न इहलोकजीवितस्यार्थे कुर्यात्, अण्ण-पाण-वत्थसयण-पूया-सकारहेतुं वा । चयं ण कुजा, चयं णाम सन्निचयं न कुर्याद् , अन्यत्र धर्मोपकरणं शेष आहारादिवस्तुसञ्चयः सर्वः प्रतिषिध्यते, हिरण्य-धान्यादिसञ्चयोऽपि प्रतिषिध्यते येनानागते काले जीविका स्यादिति, तं प्रतीय भावसञ्चयो भवति, कर्मसश्चय इत्यर्थः, तेण चयं ण कुज्जा सुतवस्सी भिक्खू ॥ ३ ॥ किञ्च ४७५. सविंदियणिव्वुडे पयासु, चरे मुणी सव्वतो विप्पमुक्के। 10 पासाहि पाणे य पुढो विसण्णे, दुक्खेण अट्टे परितप्पमाणे ॥४॥ ४७५. सव्विदियणिव्वुडे पयासु० वृत्तम् । सर्वेन्द्रियनिर्वृतो जितेन्द्रिय इत्यर्थः । प्रजायन्त इति प्रजाः स्त्रियः, तासु हि पंचलक्खणा विषया विद्यन्ते । शब्दास्तावत्-"कैलानि वाक्यानि विलासिनीनाम्" १, रूपेऽपि-"गता निशा साच्यवलोकितानि, स्मितानि वाक्यानि च सुन्दरीणाम् ।” २, रसा अपि चुम्बनादयः ३, यत्र रसस्तत्र गन्धोऽपि विद्यते ४, स्पर्शाः सम्बाधन-कुचोरु-वदनसंसर्गादयः ५ इत्यतः सव्वेंदियणिव्वुडे पयासु । सवतो विप्रमुक्त इति चरेत् , सर्वासमाधि10 विप्रमुक्तः सर्वबन्धनविप्रमुक्तः। किञ्च-स एवं विप्रमुक्तबन्धनः पासाहि पाणे य पुढो णाम पृथक् पृथक्, अथवा पुढो त्ति बहुगे पाणे, विविहेहिं दुक्खेहिं सण्णा विसण्णे । “विसंते" वा, विसंतीति प्रविशन्ति संसारं नरगपरलोगं च । अधवा अयमाजवंजवीभावो जायत एव अट्ठविहकर्मोदयदुःखेन अट्टे त्ति आर्त्तः । अधवा "दुक्खट्टिता अट्टे" त्ति आर्तध्यानोपगतः । मनो-वाक्-कायैः परितप्यमानान् ॥ ४॥ ४७६. ऐतेसु बाले तु पकुव्वमाणे, आवदृती कम्महि पावएहिं । ___ अतिवाततो कीरति पावकम्म, णिजमाणे तुं करेति कम्मं ॥५॥ ४७६. एतेसु बाले तु पकुवमाणे० वृत्तम् । एतेष्विति जे ते पुढो विसन्ना सत्ता ये प्रकुर्वन्ते हिंसादीनि एतेष्वेव आवर्त्यन्ते कर्मणि(भिः) पापकैः । पठ्यते च-"एवं [तु] बाले" एवमित्यवधारणे, एवं हि बालः चौर्य-पारदारिकादीनि इहैव हस्तादिच्छेदान् बन्ध-वधादींश्च प्राप्नोति । एवं तु एवमनेन सामान्यतोदृष्टेनानुमानेन यथा इह हिंसा-ऽनृत-चौर्या-ऽब्रह्मपरिग्रहादीन् प्रकुर्वन् दोषान् प्राप्नोति एवमेव परत्रापि नरकादिसु दुःखानि प्राप्नोति इत्यतः आउट्टति । आउट्टती नाम 25 निवर्त्तते । वक्तारोऽपि च भवन्ति-"आउट्टसमाउट्टो समाउत्तिसुतु" । इदाणिं बाला हि दृष्टापायाः प्रायसो निवर्तन्ते, अपायोद्वेजिनां बालानां भीरूणां अपदिश्यते । स्यात्-कानि पापानि येभ्योऽसौ निवर्त्तते ?, अतिवाततो कीरति, अतिपतनमतिपातः प्राणातिपात इत्यर्थः, जोणं अप्पाणं वा परं वा जीवितातो ववरोवेति । नियतं युज्यते नियुज्यते, यथा राजादिभिर्भृत्यादयः युद्धाधिकरणाध्यक्षादिषु तेषु [तेषु] नियुज्यन्ते, एवं यावन्मिथ्यादर्शनादीनि ॥५॥ किञ्च-तिष्ठन्तु तावद् येऽतिपातं कुर्वन्ति, ये च भृत्यानुभृत्या वा तेषु तेषु कर्मसु नियुज्यन्ते, अन्येऽपि पापं कुर्वते, तद्यथा १°दियऽभिनिव्वु खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ २वि सत्ते, दुक्खेण अहे खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी । विसंते, दुःखट्टितऽहे चूपा० ॥ ३ परिपञ्चमाणे खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ४“कलानि वाक्यानि विलासिनीनां, गतानि रम्याण्यवलोकितानि । रतानि चित्राणि च सुन्दरीणां, रसोऽपि गन्धोऽपि च चुम्बनानि ॥ १॥” इतिरूपः पूर्णः श्लोकः वृत्तौ ॥ ५एवं तु बाले चूपा० वृपा०॥ ६य खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ७ आउदृती चूपा० वृपा० ॥ ८ कम्मसु पावएसुखं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ९णिउजमाणे खं १॥ १०वि खं १ खं २ पु १॥ ११ उट्टो सोतु वा० मो० ॥ Jain Education Intemational Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा०४७५-७९] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। ..... ४७७. आदीणभोई वि करेति पावं, मंता हु एगंतसमाहिमाहु। बुद्धे समाधीय रते विवेगे, पाणातिवाता विरते ठितचा ॥६॥ ४७७. आदीणभोई वि० वृत्तम् । यावद् दैन्यं तावद् दीनः । कोऽर्थः ? दीण-किवण-वणीमगा वि पावं करेंति । उक्तं हि-"पिंडोलगे वि दुस्सीले, णरगातो ण मुच्चती।" [उत्तरा० अ० ५ गा० २२] दीणत्तणेण मुंजतीति आदीणभोजी, सो पुण कताइ अलभमाणो असमाधिपत्तो अधेसत्तमाए वि उववज्जेज्जा, जधा सो 5 रायगिहच्छणपिंडोलगो वेभारगिरिसिलाए पेल्लितो [ उत्तरा० अ० ५ नि० गा० २२ पाइयटीका पन्नं २५०]। मंताह एवं मत्वा एगंतसमाहिमाहु, द्रव्यसमाधयो हि स्पर्शा दिसुखोत्पादकाः अनैकान्तिकाश्च भवन्ति । कथम् ?, अन्यथासेवनादसमाधि कुर्वते । उक्तं हि "ते चेव होंति दुक्खा पुणो वि कालंतरवसेणं ।” [ ज्ञानाद्यास्तु भावसमाधयः एकान्तेनैव सुखमुत्पादयन्तीह परत्र च, एवं मत्वा सम्पूर्ण समाधिमाहुस्तीर्थकराः । स एवं 10 बुद्धे समाधीय रते, बुद्ध इति जानको भावसमाधीए चतुविधाए द्वितो । दव्वविवेगो आहारादि अट्ठकुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्तकवलेण, एगे वत्थे एगे पादे, भावविवेगो कसाय-संसार-कम्माणं, दुविधे वि रतो विवेगे, एवमस्य समाधिर्भवति । पाणातिवातातो णवगेण भेदेण विरतो । अर्चिरिति लेश्या, स्थिता यस्यार्चिः स भवति ठितचा, अवहितलेश्य इत्यर्थः ॥६॥ विसुद्धलेस्सासु ठितो सो४७८. सव्वं जगं तू समताणुपेही, पियमप्पियं कैस्सइ णो करेजा। 15 उहाय दीणे तु पुणो विसण्णे, संपूयणं चेव सिलोयकामी ॥७॥ ४७८. सव्वं जगं तू० वृत्तम् । जायत इति जगत् । समता नाम “जह मम ण पियं दुक्खं” [अनुयो० पत्र २५६, दशवै०नि० गा० १५४ ] "णत्थि य से कोइ वेसो पिउ व्व०" [अनुयो० पत्र २५६, भाव. नि. गा. ८६०] । अथवा अन्यस्य प्रियं करोति अन्यस्याप्रियमित्यतः । कोऽर्थः ? नान्यान् घातयित्वा अन्येषां प्रियं करोति, मूषकैः मार्जारपोषवत् । अथवा प्रियमिति सुखं सर्वसत्त्वानाम्, तदेषामप्रियं न कुर्यात्, न कस्यचिदप्रियम् , मध्यस्थ एवाऽऽस्यादित्यतः 20 सम्पूर्णसमाधियुक्तो भवति । कश्चित्तु समाधि संधाय उट्ठाय दीणे तु पुणो विसण्णो, उत्थायेति समाधिसमुत्थानेन, दीन इत्यनूर्जितो भोगाभिलाषी, सर्वो हि तर्कुकदीनो भवति, ईप्सितालम्भे च दीणतरः, पुणो विसण्णे त्ति गिहत्थीभूतो पासत्थीभूतो वा, अयं तु पार्श्वेऽधिकृतः, पूया-सत्काराभिलाषी वस्त्र-पात्रादिभिः पूजनं च इच्छति । सिलोगकामी च, सिलोगो णाम श्लाघा यश इत्यर्थः, सो दुहसेज्जाए वदृति, अभिलसमाणो वि ताव असमाधिट्ठितो भवति, किमयं पुण पूयासिलोगकामी ? । भणितं च-"जोतिस-णिमित्ताणि पि य प®जति" [ ]॥ ७ ॥ 25 ४७९. अधाकडं चेव णिकाममीणे, णिकामसारी य विसण्णमेसी। इत्थीहिं सत्ते य पुढो य बाले, परिग्गहं चेवे ममायमाणे ॥८॥ ४७९. अधाकडं चेव० वृत्तम् । आधाय कडं अधाकडं, आधाकर्मेत्यर्थः । अथवा अन्यान्यपि जाणि साधुमाधाय कीतकडादीणि क्रियन्ते ताणि अधाकडाणि भवंति । अधिकं कामयते निकामयते, प्रार्थयतीत्यर्थः ।अथवा णियायणा णिमंतणा, जो तं णिमंतणं गेण्हति सो "णियायमीणे" । जो पुण आधाकम्मादीणि णिकामाई सरति सुमरइ त्ति निगच्छति गवेषतीत्यर्थः, 30 स णिमंतणा, पासत्थोसण्ण-कुसीलाणं विसण्णाणं संयमोद्योगे मार्ग गवेषति विषीदति वा, येन संसारे विसण्णो भवत्यसंयम १ आदीणवित्ती वि खं २ वृ० । आदीणभोई वि वृपा० ॥ २ तु खं १ खं २ पु १ पु २॥ ३समाहीति रते खं १ । समाहीह रते पु १ पु २॥ ४ ठियप्पा खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी । ठियच्चा वृपा०॥ ५ कस्सति खं १ खं २॥ ६य खं २ पु १.पु २॥ ७ आहाकडं खं २ पु १ वृ० दी० ॥ ८णियायमीणे चूपा० ॥ ९नियामचारी खं २ पु २ वृपा० दी.॥ १० इत्थीसुखं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ११ सपणे य पु १॥ १२ चेव पकुव्वमाणे खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ . Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं । [१० समाहिअज्झयणं इति तमेषतीति विषण्णेषी, तधा तधा दीणभावं गच्छति शुक्लपटपरिभोगवत्, परिभुज्जमाणशुक्लपटवद् मलिनीभवत्यसौ । इत्थीहिं सत्ते य पुढो, सक्ता रक्ता गृद्धाः पुढो इति पृथग बहवः । स्त्रीनिमित्तमेव च परिग्गहं [व] ममायमाणा ॥ ८ ॥ चतुविधपरिग्गहनिमित्तमेव च ४८०. आरंभसत्ता णिचयं करेंति, इतो चुते से दुहमट्टदुग्गे। तम्हा तु मेधावी समिक्ख धम्म, चरे मुणी सव्वओ विप्पमुक्के ॥९॥ ४८०. आरंभसत्ताक वृत्तम् । आरंभसत्ता आरंभो दव्वे भावे य, तत्र सक्ताः असमाधिपत्ता णिचर्य करेंति, हिरण्ण-सुवण्णादीदव्वणिचयं । दव्वणिचयदोसेणं अट्ठविधकम्मणिचयं करेंति, इहलोक एव च असमाहिदुहट्ठा भवंति, "कइया वञ्चइ सत्थो०” गाधा [ ] तथा “परिग्रहेष्वप्राप्त-नष्टेष्वाकाङ्क्षा-शोकौ" [तत्त्वा० अ० ७ सू० ५ भाष्ये ], तस्मात् कारणात् सम्पूर्ण समाधिगुणं जानानः समाधिधर्म वा समीक्ष्य चरेदित्यनुमतार्थः । सर्वेभ्योऽसमाधिस्थानेभ्यो विप्रमुक्तः 10 च्यारम्भ-परिग्रहादिभ्यः अणि स्सितभावविहारेण विहरमाणो ॥ ९॥ ४८१. छंदं ण कुज्जा इहजीवितही, असन्जमाणो य परिव्वएजा। णिसम्मभासी य विणीतेगेधी, हिंसणियं वा ण कहं करेजा ॥१०॥ ४८१. छंदं ण कुजा हित(इह)जीवितही. वृत्तम् । छन्दः प्रार्थना अभिलाष इत्यनन्तरम् । पठ्यते च-"आयं ण कुजा" आगच्छतीति आयः हिरण्यादि सहादी वा । इहजीवितं णाम कामभोग-यशःकीर्त्तिरित्यादि । असंयमजीविता15धिकारे सुत-गृह-कलत्रादिषु असजमाणो य परिवएजा । किञ्च-णिसम्मभासी य विणीतगेधी, णिसम्मभासी णाम पूर्वापरसमीक्ष्यभाषी, आहाकम्मभोगी, स्वजनादिषु प्रेधी विनीता यस्य स भवति विनीतग्रेधी । हिंसया अन्विता | हिंसान्विता]। कथ्यत इति कथा । कथं हिंसान्विता ?, तस्मादनीत पिबत खादत मोदत हनत निहनत छिन्दत प्रहरत पचतेति ॥१०॥ ४८२. आहाकडं वा ण णिकामएजजा, णिकामयंते य ण संथवेजा। धुणे उरालं अणवेक्खमाणे, चेचा य सोयं अणवेक्खमाणे ॥११॥ ४८२. आहाकडं वा न निकामएजा० [वृत्तम् ] । आहाकडं औदेशिकमित्यर्थः । ण अधिकामेज्जा । ये चैनं कामयन्ति न तैः पार्श्वस्यादिभिरागमण-गमादि तत्प्रशंसादि संस्तवं च कुर्यात् । किञ्च एवं समाधियुक्तः धुणे उरालं अणवेक्खमाणे, उरालं णाम औदारिकशरीरं तत् तपसा धुनीहि, धुननं कृशीकरणमित्यर्थः । तस्मिंश्च धूयमाने कर्मापि धूयते । अनपेक्षमाण इति नाहं दुर्बल इति कृत्वा तपो न कर्त्तव्यम् , दुर्बलो वा भविष्यामीति, याचितोपस्करमिव व्यापारयेदिति, अनपेक्षमाणः । चेचा य असमाधि श्रवतीति श्रोतः, तद्धि गृह-कलत्र-धनादि, प्राणातिपातादीनि वा श्रोतांसि, तानि अनपेक्षमाणः धुनीहीति वर्तते, श्रोतांस्यप्यनपेक्षमाणः, स एव तेषु असज्जमान इत्यर्थः ॥ ११ ॥ किं न्वपेक्षेत प्रार्थयेत वा ? ४८३. एगत्तमेव अभिपत्थएजा, एतं पमोक्खे ण मुसं ति पास। ___ एस प्पमोक्खे अमुसेऽवरे वी, अकोहणे सचरते तपस्सी ॥ १२॥ ४८३. एगत्तमेव अभिपत्थएजा. वृत्तम् । एकभाव एकत्वम् , नाहं कस्यचिद् ममापि न कश्चिदिति१वेणुगिद्धे णिचयं करेति खं २ पु १ वृ० दी• । आरंभसत्तो णिचयं करेति खं १ पु २ वृपा०॥ २°दुग्गं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ. दी० ॥ ३ आयं ण खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी. चूपा० । छंदं ण वृपा० ॥ ४य परिव्वदेजा खं १। उ परिव्वतेजा खं २ पु१॥ ५षिणीय गिद्धिं पु २ वृ० दी० । विणीयगिद्धी खं २ पु १ । विणीयगेही खं १॥ ६ अहाकडं पु२॥ ७ मतेजा खं २॥ ८ अणुवेहमाणे खं० १ वृ० दी० ॥ ९चेच्चाण सोयं खं १ ख २ पु १ पु २ . दी०॥ १० अणुपेहमाणे खं २ पु १ पु २ वृ०॥ ११ उरालं तु अकंखमाणे चूसप्र० । प्रतीकमिदं चूर्णिव्याख्यानाक्षमम् ॥ १२ अमुसं चूपा०॥ १३ अमुसे वरे खं १ खं २ वृ० दी.॥ 20 30 Jain Education Intemational Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा०४८०-८७] सूयगडंगसुत्तं विडयमंग पढमो सुयक्खंधो। एको मे सासओ अप्पा णाण-दसणसंजुतो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥ १ ॥ [संस्ता० पौ० गा० ११] __एवं वैराग्यं अणुपत्थेज्ज । अथ किमालम्बनं कृत्वा ? एतं पमोक्खे ण मुसं ति पास, जं चेव एतं एकत्वं एस चेष पमोक्खो, कारणे कार्योपचारादेष एव मोक्षः, भृशं मोक्षो पमोक्खो, सत्यश्चायम् । अथवा ज्ञानादिसमाधिप्रमोक्षं "अमुसं" ति तत । एष तावदेकान्तसमाधिरेव प्रमोक्षः अमसे त्ति अनन्तः । अयं चापरः प्रमोक्षक इति-अक्रोधने न केवलमक्रोधने, । एवं अथंभणे अधंकणे अलुब्भणे जाव अमिच्छादसणे । सत्यो णाम संयमो अननृतं वा, सत्ये रतः सत्यरतः । तपस्वी पुनरुत्तरगुणाः ॥ १२ ॥ एते हि मूलोत्तरगुणा विचित्रा स्रगिव स्वीकृताः । तत्रोत्तरगुणा दर्शिताः । मूलगुणास्तु ४८४. इत्थीसु या आरतमेधुणे या, परिग्गहं चेव अमायमीणे। उच्चावएहिं विसएहिं ताया, ण संसयं भिक्खु समाधिपत्ते ॥१३॥ ४८४. इत्थीसु या आरतमेधुणे या० वृत्तम् । तिविहाओ इत्थिगाओ । ने रतः अरतः, विरत इत्यर्थः । परिग्गहं 10 चेव अमायमीणे, एवं सेसा वि अहिंसादयो मूलगुणाः । चउत्थ-पंचमयाणं तु वयाणं भावणाओ उत्तरगुणो गहितो । उच्चावरहिं उच्चावया हि अनेकप्रकाराः शब्दादयः, अधवा उच्चा इति उत्कृष्टाः, अवचा जघन्याः, शेषा मध्यमाः। त्रायत इति त्राता। "श्रि सेवायाम् न संश्रयमानः असंश्रयमान एव च विषयान् भिक्षुः समाधिप्राप्तो भवतीहैव, "नैवास्ति राजराजस्य तत् सुखं०" [प्रशम० मा० १२८ ], परे मोक्ष इति ॥ १३ ॥ स एवं समाधिप्राप्तः४८५. अरतिं रतिं च अभिभूय भिक्खू, तेणादिफासं तह सीतफासं। 15 'तेउं च सई चाधियासएन्जा, सुभि च दुभि च तितिक्खएज्जा ॥१४॥ ४८५. अरति रतिं च अभिभूय भिक्खू० वृत्तम् । अरती संजमे, रती असंजमे, तं अरतिं रतिं च अमिभूय भिक्खू । केण ? समाधीए । तणादिफासं ति, तणफासग्गहणेण कट्ठसंथारग-इक्कडा य समाधिसमाओ गहियाओ, वत्थ तणेहि विज्झमाणे वा अत्युरमाणे वा सम्म अधियासंति । सीतं सीतपरीसहो । तेऊ उसिणपरीसहो। तणादिफासग्गहणेण दंसमसगादिपरीसहा गहिता। सहरगहणेण सव्वे अक्कोसादिसहपरीसहादि गहिता। सुन्भि-दुभिगहणेण इट्टा-ऽणिविसया 20 गहिता ॥ १४ ॥ किञ्च ४८६. गुत्ते वईए य समाधिपत्ते, लेस्सं समाहहु परिवएना । गिहं ण छाए ण वि छादएज्जा, सम्मिस्सिभावं पजहे पयासु॥१५॥ ४८६. गुत्ते वईए य समाधिपत्ते० वृत्तम् । मौनी वा समिते वा भाषते, भावसमाधिपत्ते भवति । लेस्सं समाहट्ट, तिण्णि [अपसत्थाओ] लेस्साओ अवहट्टु तिण्णि पसत्थाओ उपह९ सव्वतो व्रजेत् परिव्वएज । किंच-गिह ण छाए ण 25 वि छादएजा, उरग इव परकृतनिलयः स्यात् । सम्मिस्सिभावं, प्रजायन्तः प्रजाः स्त्रियः, अथवा सर्वा एव प्रजाः गृहस्थाः तैः सम्मिश्रीभावं पजहे । सम्मिस्सिभावो णाम एगतो वासः आगमण-गमणाइसंथवो स्नेहो वा ॥ १५ ॥ एवं चारित्रसमाधिः परिसमाप्तः । इदानीं दर्शनभावसमाधिः४८७. जे केई लोगैम्मि तु अकिरियाता, अण्णेण पुट्ठा धुतमादियंति। आरंभसत्ता गढिता य लोए, धम्मं ण जाणंति विमोक्खहेतुं ॥१६॥ 30 १मेहणाओ खं पु१ वृ० दी। मेधुणे उ खं २ पु २॥ २ अकुव्वमाणो। उच्चावतेसुं विसपसु ताती खं १ ख २पु१ पु २ वृ० वी० ॥ ३णिस्संसयं खं २ पु १ पु २ वृ० वी०॥ ४"आ-समन्ताद् न रतः अरतः, निवृत्त इत्यर्थः ।" इति वृत्तिः ॥ ५ तणाति खं २ पु १॥ ६ उण्हं च दंसं च खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ७°क्खए या खं २॥ ८ लिस्सं खं २ पु १३२॥ ९छावपजा सं २ पु १ पु २। छावणिज्जा खं १॥१० सम्मिस्सभा खं २ पु१पु२ वृ० दी। सम्मिस्सिभाषं खं १ वृपा.॥ ११ पतासुख १॥ १२ केति खं १॥ १३ लोगंसि खं २ पु १ पु २॥ १४ 'मादिसति खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुति चुण्णि समलंकियं [१० समाहिअज्झयणं ४८७. जे के लोगम्मि तु अकिरियाता० वृत्तम् । जे त्ति अणिद्दिट्ठणिसो । अशोभन क्रियावादिनः पारतच्या [:] क्रियावादिनः अक्रियाता, अक्रियो वाऽऽत्मा येषां [ते] निश्चितमेव अक्रियात्मानः । अन्येन केनचित् पृष्टाः - कीदृशो वो धर्म: ?, धुतं आदियंति त्ति धुतवादिनो, धुतं नाम वैराग्यम्, धुतमादियंति धुतं पसंसेन्ति । एवं ते धुतमपि आत्मीकुर्वन्तः आरंभसत्ता, यथा शाक्या द्वादश धुतगुणान् ब्रुवते, अथवा पचनादिद्रव्यारम्भेऽपि सक्ताः समाधिधर्म न जानन्ति । 5 विमोक्षस्य हेतुः विमोक्षहेतुः, तमेवं तत्त्वमुवदिति ॥ १६ ॥ १९० ४८८. तेसिं पुढो छंदा माणवाणं, किरिया-अकिरियाण व पुढोवातं । जातस्स बालस्स पकुछ देहं पवडते वेरमसंजतस्स ॥ १७ ॥ ४८८. तेसिं पुढो छंदा० वृत्तम् । पुढोछंदाण माणवाणं पृथक् पृथक् छन्दाः, नानाछन्दा इत्यर्थः । केचिद्धि क्रूरस्वभावाः केचिन्मृदुस्वभावाः, तथा केषाञ्चिन्मद्यं रोचते केषाञ्चिन्मांसं केचिन्मांस-मद्याशिनः, तथा केचिद् गीत-नृत्य- हसित10 प्रियाः केचित् परव्यसनरताः केचिन्मध्यस्था इत्यादि । तथा दृष्टिभेदमपि प्रति किरिया अकिरियाण व पुढोवातं, यथैव हि नानाछन्दाः कर्त्तव्यादिषु लौकिकाः तथैव हि किरिया - अकिरियाणं च पुढोवादं उपादीयंत इति उपादाः ग्रहा इत्यर्थः, अथवा उपादा दृष्टिः । तद्यथा - केषाञ्चिदात्माऽस्ति केषाञ्चिन्नास्ति, एवं सर्वगतः नित्यः अनित्यः कर्त्ता अकर्त्ता मूर्त्तः अमूर्त्तः क्रियावान् निष्क्रियो वा, तथा केचित् सुखेन धर्ममिच्छन्ति केचिद् दुःखेन, केचित् शौचेन केचिदन्यथा, केचिदारम्भेण, केचिन्निःश्रेयसमिच्छन्ति, केचिदभ्युदयमिच्छन्ति । एकस्मिन्नपि तावच्छास्तरि अन्येऽन्यथा प्रज्ञापयन्ति, तद्यथा - शून्यता, 15 अत्थि पोग्गले, णो भणामि णत्थि त्ति पोग्गले, जं पि भणामि तं पि भणामीत्यवचनीयम्, अवचनीयं एव अवचनीयः, स्कन्धमात्रमिति । वैशेषिकाणामपि - अन्येषां न ( ? ) द्रव्याणि नवैव, अन्येषां दश दशैव । साङ्ख्यानामपि - अन्येषां इन्द्रियाणि सर्वगतानि, एवं तेषां मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकं अनुसमयमेव कर्म्म बध्यते । दृष्टान्तः — जातस्स बालस्स पकुव देहं, जातस्येति गर्भत्वेनोत्पन्नस्य, तद्यथा—निषेकात् प्रभृतिरारभ्य शरीरवृद्धिर्भवति यावद् गर्भान्निःसृतः, आबाल्याच्च प्रवर्द्धते यावत् प्रमाणस्थ जातः । शरीरवृद्धिरिह काल-क्षेत्र बाह्योपकरणात्मसान्निध्यायत्ता यतः अत उच्यते - प्रकुर्व इव प्रकुर्व्वन्, यथा तस्यानु20 सामयिकी शरीरवृद्धिः एवं तेषामपि मिथ्यादर्शनप्रतिपत्तिकालादारभ्य तत्प्रत्ययिकं वैरं प्रवर्द्धते कर्म, वैराज्यातं वैरम्, यथा वैरं दुःखोत्पादकं वैरिणां एवं कर्मापि । यद्यप्याकाशे निश्चल उपतिष्ठतेऽविरतस्तथाऽप्यस्य कर्म बध्यत एव । पठ्यते च" जाताण बालस्स पगन्भणाए" जातानामिति गर्भपाकान्निस्सृतानाम्, प्रगल्भं नाम धार्त्यम्, हिंसादिकर्मस्वभिरतिरभिनिवेशो निरशङ्कता चेति । अतः पवडते वेरमसंजतस्स ।। १७ ।। 25 ४८९. आयुक्खयं चेव अबुज्झमाणे, ममाति से संहस्कारि मंदे | अहो ये रातो य परितप्यमाणे, अहे सुमूढे अजरा-मरे व ॥ १८ ॥ ४८९. आयुक्खयं चैव अबुज्झमाणे ० वृत्तम् । स एवं हिंसादिकर्म्मसु प[स]ज्जमानः कामभोगतृषितः छिन्नहृदमत्स्यवदुदकपरिक्षये आयुषः क्षयं न बुध्यते । उज्जेणीए वाणियगो 'रयणाणि कथं पवेस्सस्सामि ?' त्ति रजनिक्षयं न बुध्यते स्म, अतो व्यतया यावदुदिते सवितरि राज्ञा गृहीतः । यथा वा दिवि देवा दोगुंदुगा इव देवा गतं पि कालं ण याणंति । माइति ममाई, तद्यथा - मे माता मम पिता मम भ्रातेत्यादि । सहस्साइं हिंसादीनि करोति मन्दमिति मन्दः । अहो य 30 रातो य परितप्यमाणे, सर्वतस्तप्यमानः परितप्यमानः मम्मणवणिग्वत् कायेण किस्संतो वायाए मणेण य । आर्त्तध्यानो १ अशोभनक्रियावादिनः अशोभनवादिनः पारतन्या अक्रियावादिनः अक्रियाता सं० वा० मो० ॥ २ पुढो य छंदा इह माणवा उ, किरिया - Sकिरीणं च पुढो य वायं खं १ खं २१ पु २ वृ० दी० । माणवा तो खं २ पु १ । पुढो व वातं खं १ ॥ ३ जाताण बालस्स पगब्भणार, पव चूपा० । जायाए बालस्स पगब्भणाए, पव वृपा० ॥ ४ पवडती खं १ खं २ पु १ पु २ ५ पुणोपवादं चूसप्र• ॥ ६ ष्क्रियोsपि, तथा पु० ॥ ७ अवचनीय एव पु० । अवचनं एव वा० ॥ ८ आउक्ख खं १ खं २ ९ साहसकारि खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ १० त खं १ ॥ पु१पु२ ॥ ११ रातो परि खं १ ख २ पु १ पु २ ॥ १२ अयरा' खं १ पु १ । अहरा खं २ ॥ For Private Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा०४८८-९२] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। पगतः आर्तः, द्रव्यातः चप्पडिजंतः शकटचक्रद्रव्यातॊ वा, भावट्टो राग-दोसेहिं । सुदु मूढो सुमूढो, सव्वत्थ वाणियगदिटुंतो वक्तव्यः। - अजरा-ऽमरवद् बालः क्लिश्यते धनकारणात् । शाश्वतं जीवितं चैव मन्यमानो धनानि च ॥ १॥ ॥ १८ ॥... एतद्धनमुपार्जित्य राज-चौरा-ऽग्नि-दायिकाद्यवशेष अप्पं वा बहुं वा४९०.जधाय वित्तं पसवो य सवं, जे बंधवा जे य पिया य मित्ता। लालप्पती ते वि उति घंतं, अण्णे जणा तं सि हरंति वित्तं ॥ १९॥ ४९०. जधाय वित्तं पसवो य सव्वं० वृत्तम् । जधाय त्ति त्यक्त्वा । वित्तं धनम् । पशवो गो-महिष्यादयः । बान्धवाः पूर्वापरसम्बद्धाः । मित्राः सहजातकादयः । लालप्पती अत्यर्थ लवति पुनः पुनर्वा लवतीति लालप्यते--हा मातः! हा पितः! हा विभवाः! हा जीवलोक! “अदुहट्टवसट्टा"[ ] इत्येवं कुतीर्थिकाः राजादयश्चापि, 10 रूपवानपि कण्डरीक-पोण्डरीकसरिसो, धनवान् नंदसरिसो, धान्यवान् तिलगसेट्ठिसरिसो । ते वि सव्वे लालप्पयंता घंतमुवेंति, धन्तः संसारः, एवं ते यथाकर्मनिष्पन्नं उति असमाधि प्राप्नुवन्ति । यच्च तच्छाश्वतकारित्वेनाजरामरणे च अहन्यहनि उत्पद्यमानेन धनमुपार्जितं तदपि अस्य अन्ये राजादयोऽपहरन्ति । एवं मत्वा पापानि कर्माणि वर्जयेत् तपश्च चरेत् ॥ १९ ॥ कथम् ? ४९१, सीहं जधा खुडमिया चरंता, दूरेण चरंती परिसंकमाणा। एवं तु मेधावि समिक्ख धम्म, पावाणि दूरेण विवजएजा ॥२०॥ ४९१. सीहं जधा खुइमिया चरंता० वृत्तम् । क्षुद्राः मृगाः क्षुद्रमृगाः व्याघ्र-वृक-द्वीपिकादयः, मृगा. रोहिता, दयश्च । अधवा स एव क्षुद्रमृगः दूरेणेति अदर्शनेनागन्धेन वा तद्देशपरित्यागेन च, अपि वातकम्पितेभ्यस्तुणेभ्योऽपि सिंहभयादुद्विनाश्चरन्ति । एवं तु मेधावि समिक्ख धम्मं, एवं अनेन प्रकारेण, मेधया धावतीति मेधावी, सम्यग् ईक्षित्वा समीक्ष्य ज्ञात्वेत्यर्थः, असमाधिकर्तृणि च पावाणि दूरेण विवजएजा ॥ २० ॥ ..... 20 ४९२. संवुज्झमाणे य णरे मतीमं, पावातो अप्पाण णियंट्टएज्जा। हिंसप्पसूताणि दुहाणि मत्ता, णेवाणभूते व परिवएज्जा ॥ २१॥ ४९२. संबुज्झमाणो० वृत्तम् । संबुज्झमाणो य, किं संबुज्झमाणो ? समाधिधम्म । मतिरस्यास्तीति मतिमान् वड्डमाणपरिणामो हिंसादिपापत आत्मना निवृत्तिं कुर्यात् , निवृत्तेः करणमित्यर्थः । स्यात्-किं पापात् ?, हिंसप्पसूताणि दुहाणि मत्ता, हिंसातः प्रसूतानि हिंसापसूताणि जाति-जरा-मरणा-ऽप्रियसंवासादीनि नरकादिदुःखानि च अट्ठविधकम्मोदय-25 निप्फण्णाणि असमाधिं प्रसवतीति । णेव्वाणभूते व परिव्वएजा, निर्वाणभूतः सर्वभूतानां निर्वृतिकारणमित्यर्थः, यथा वा निर्वृतोऽव्याबाधसुखप्राप्तस्तिष्ठति एवं भवानपि अव्याबाधसुखनिस्सङ्गो अनिवृतोऽपि निर्वृतभूतः सर्वतो व्रजेत् परिव्वएजा ॥२१॥ मूलगुणाधिकारे प्रस्तुते १जहाहि वित्तं पसवो य सब्वे खं १ खं २ पु १ पु २.३० दी० ॥ २ पिया सि मित्ता ख १॥ ३ 'प्पती से वि य एति मोहं, अण्णे खं १ ख २ पु १ पु २ । प्पती से वि उवेति मोहं, अण्णे वृ० दी० ॥ ४ रित्थं खं १॥ ५ खुद्दमिगा खं १ खं २ पु१पु२॥ ६ दूरे च खं १ ख २ पु१ पु २ । दूरेण च वृ० दी० ॥ ७ दूरेण पावं परिवजएजा खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ८तु खं.१ ख २ वृ० दी० ॥ ९न्विट्ट खं १ पु२॥ १० मंता, वेराणुबंधीणि महब्भयाणि खं १ खं २ पु १ पु २ ३० दी। मंता, जेव्वाणभूते व परिव्वएज्जा वृपा० ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति - चुण्णिसमलंकियं [ ११ मग्गज्झयणं ४९३. मुलं ण बूया मुणि अत्तकामी, णिव्वाणमेवं कसिणं समाधिं । सण कुजाण ये कारवेजा, करंतमण्णं पि य णाणुजाणे ॥ २२ ॥ _४९३. मु ण बूया० वृत्तम् । आत्मनिः श्रेयसकामी । एवं निर्वाणं समाधिर्भवति कसिण इति सम्पूर्णः, संसारया कानिचित् स्नान-पानादीनि निर्वाणानि तान्यसम्पूर्णत्वाद् नैकान्तिकानि नात्यन्तिकानि च । वक्तारोऽपि च B भवन्ति - "व्वाणिहि लद्धा ०" [ ] एवमन्येषामपि व्रतानामतीचारं सयं ण कुआ ण य कारवेज, करंतमण्णं पि य णाणुजाणे एवं योगत्रिककरण त्रिकेण ॥ २२ ॥ इदानीं उत्तरगुणसमाधी - १९२ ४९४. सुद्धेसिया जायण तूसएञ्जा ० वृत्तम् । सुद्धेसिया जाइओलद्धं एसणिज्जं च, अधवा सुद्धं अलेवकडं, एस10 णिअं अहासोहीए हु तूसएञ्जा । अमुच्छितो अणज्झोववण्णो गवेषण- गहण घासेसणासु विइंगाल- वीतधूमं । घितिमं विप्पमुके संयमे धृतिमान् अगारबंधणविप्पमुक्के, ण पूआ-सकारट्ठी । सिलोगो त्ति जसो, णाण-तवमादीहि सिलोगो ण काजा ॥ २३ ॥ 15 ४९४. मुद्धेसिया जायण तूसएजा, अमुच्छितो अणज्झोवषण्णो । धितिमं विषमुक्के ण पूयणट्ठी, ण सिलोर्यकामी य परिव्वज्जा ॥ २३ ॥ ॥ समाही सम्मत्ता ॥ १० ॥ ४९५. निक्खम्म० वृत्तम् । णिक्खम्म गेहातो णिरावकंखी, अप्पं वा बहुं वा उपधिं विहाय निष्क्रान्तः, मिच्छत्तदोसादीहिं गृह- कलत्र - कामभोगेसु णिरावकंखो । दव्वतो भावतो य कार्य विसेसेण उत्सृज्य विओसज्ज । दव्वणिदाणं सयण-धणादि, भावणिदाणं कम्मं । जो जीवितं णो मरणाभिकंखी । वलयं वक्रमित्यर्थः, द्रव्यवलयं शङ्खकः, भाववलयं अष्टप्रकारं कर्म्म येन पुनः पुनर्वलति संसारे । वलयशब्दो हि वक्रतायां भवति गतौ च । वक्रतायां यथा - वलितस्तन्तुः, 20 बलिता रज्जुरित्यादि । गतौ च - वलति वार्त्ता, वलति सार्थ इत्यादि । वलयविमुक्त इति कर्मबन्धनविमुक्तः । अथषा वलय इति माया तया च मुक्तः । एवं क्रोधादिमाणविमुक्त इति ॥ २४ ॥ ॥ दशममध्ययनं समाप्तम् ॥ १० ॥ ४९५. निक्खम्म गेहातो णिरावकखी, कार्यं विओसज्ज णिदाणछिष्णे । णो जीवितं णो मरणाभिकखी, चरेज्ज भिक्खू वलया विमुक्के ॥ २४ ॥ त्ति बेमि ॥ १ अत्तगामी खं २ पु १ ४ करेंत खं १ खं २ पु१ ॥ पु१ पु २ दी० । अणज्झो वृ० ॥ ९ विओसेज खं १ खं २ पु१पु२॥ पु २ वृ० दी० । यत्तगामी खं १ ॥ २ मेयं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ३षि सं १ ॥ ५ सुद्धे लिया जाए ण दूसपज्जा खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ६ ण य अज्झों खं १ नं २ ७ विमुक्के ण य पूखं १ खं २ पु १ पु २ ० दी० ॥ ८ °यगामी खं २ पु १ पु २ वृ० बी० ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ४९३-९५ णिज्जुत्तिगा० १००-१] सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंघो। इयमंग पढमो सुयक्खंधो। . १ १३ [एक्कारसमं मग्गज्झयणं] -- cocccccoonमग्गो त्ति अज्झयणस्स चत्तारि अणुयोगद्दाराणि । अधियारो मग्गपरूवणाए पसत्थभावमग्गाऽऽयरणयाए य । णामणिप्फण्णे मग्गो। णाम ठवणा दविए खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो खलु मग्गस्सा णिक्खेवो छविधो होति ॥१॥१०॥ णामं ठवणा दविए० गाहा ॥ १ ॥ १०० ॥ वतिरित्तो दव्वमग्गो अणेगविधो फलग-लतंदोलग-वेत्त-रजु-दवण-बिल-पासमैग्गे य । खीलग-अय-पक्खिपहे छत्त-जला-ऽऽकास दव्वम्मि ॥२॥ १०१॥ फलगलताअंदोलग० गाधा । फलगेहिं जहा दहरसोमाणेहिं, जधा फलगेण गम्मति वियरगाविसु, चिक्खल्ले वा 10 जधा। वेत्तलताहिं गंगमादी संतरति, जधा चारुदत्तो वेत्तवति वेत्तेहिं ओलंबिऊण परकूलवेत्तेहिं आलाविऊण उत्तिष्णो १ लयंदोलण-वित्त खं १ ख २ पु २ वृ०॥ २°मग्गणया खं १॥ ३ वसुदेवहिण्डौ 'उसुवेगा' नाम दृश्यते । अत्र मार्गज्ञानायात्यन्तोपयोगी वसुदेवहिण्डिपाठः फलग० नियुक्तिगाथावृत्तिश्च क्रमश उद्धियेते-“कमेण उत्तिण्णा मो सिंधुसागरसंगम नदि । बच्चामो उत्तरपुवं दिसं भयमाणा । अतिच्छिया हूण-खस-चीणभूमीओ । पत्ता मो वेअड्डपायं संकुपहं । ठिया सत्थिया, कओ पागो, वणफलाणि य भक्खियाणि । भुत्तभोयणेहि य कोट्टियं तुंबरुचुण्णं सत्थिगेहिं । भणिया पुरंगमेण-चुण्णं परिगेण्हह, परिकरेण बंधह चुण्णस्स उच्चोलीओ, भरेह भंडं पोट्टलए, कक्खपएसे बंधहः ततो एतं छिण्णटंकं कडयं विजयाणदिद्दहं अत्यग्यमेगदेसे संकुलयालंबणं संकुपहं कमिस्सामो, जाहे हत्या पसिर्जति वाहे तुंबरुं परामुसिज्जह, ततो फरुसयाए हत्थाणं अवलंबणं होइ, अण्णहा उवलसंकूओ नीसरिय निरालंबणस्स छिण्णदहे पडणमपारे भविज त्ति। ततो तस्स वयणेण तुंबरुचुण्गाइगहणपुव्वं सव्वं कयं । उत्तिण्णा मो सव्वे संकुपहं । पत्ता मो जणवयं । ततो पत्ता मो उसवेसनहिं तत्थ ठिया, पक्काणि वणफलाणि आहारियाणि । ततो पुरंगमेण भणियं-एसा नदी बेयडपब्वयपवहा उसुवेगा अत्थग्या, जो उत्तरेज सो उसवेगगामिणा जलेण हीरिज, न तीरए तिरिच्छं पविसिउंति; एस पुण पहो गम्मइ वेत्तलयागुणेण-जया उत्तरो वाऊ वायइ ततो पव्वयंतरविणिग्गयस्स मास्यस्स एगसमूहयाए महंता गोपुच्छसंठिया सभावओ मिउ-थिरा वेत्ता दाहिणेण णामिति, 'नामेजमाणा उसुवेगनदीए दक्षिणकूलं संपावेति' ति अवलंबिजति, अवलंबिएसु वेलुयफवाउदरा छुन्भंति, ततो जओ दाहिणो वाऊ अणुयत्तो भबइ ततो सो उत्तरं संछुभइ, 'संछुन्भमाणेसु वेलपव्वसरणेसु पुरिसो उत्तरे कूले छुब्भई' त्ति गेण्हह वेलुपव्वे, मारुयं पडिवालेह त्ति । तस्स मएण गहिया वेलुयपव्वाउदरिया, बद्धं भंडं परिकरा य । माश्यं पडिवालेंता जहोपदेसं दक्खिणवाउ विच्छूढवेत्तवंसोवतरणेण ठिया मो उत्तरकूले । वेत्तलयागुविलं च पव्वयकडगं सोहयंता मग्गं अइच्छिया, गया टंकणदेसं । पत्ता मो गिरिनदीतीरं, सीमंतम्मि संठिओ सत्थो । भुत्तभोयणेहिं पुरंगमवयणेण नदीतीरे पिहप्पिदं विरइयाणि भंडाणि, एगो य कट्टरासी पलीविओ, अवता य मो एगंतं । अग्गि सधूमं दट्टणं टंकणा आगया, पडिवण्णं भंडं, तेहिं पिकओ धूमो, ते गया पुरंगमवयणेण णियगट्टाणं । निबद्धा छगला फलाणि य गहियाणि सथिएहिं । तओ पत्थिओ सत्यो सीमानदीतीरेण । पत्ता य मो अयपहं । वीसंता कयाहारा पुरंगमवयणेण अच्छीणि बंधिऊण छगलमारूढा वजकोडीसंठियं पव्वयं उभओपास छिण्णकडयं अइक्वंता। सीयमारुयाहयसरीरा संठिया छगलगा, मुक्काणि अच्छीणि. वीसंता भूमिभाए । कयाहारा य भणिया पुरंगमेण-मारेह छगले, चम्मन्भत्थे सरुहिरे ठवेह, अयमंसं पइत्ता भक्खेह, बद्धकडिच्छुरिया भत्थगेसु पवि. सह, तमोरयणदीवाओ भारुंडा नाम सउणा महासरीरा इहाऽऽगच्छंति चरित्रं, ते इहं वग्ध-ऽच्छभल्लयाणं सत्ताणं मंसाई खायंति,महंत मंसपेसी निलयं नयंति, ते वो सरुहिरभत्थगपविढे 'मंसपेसि' त्ति करिय उक्खिविय णइस्संति रयणहीव, निक्खित्तमेत्तेहि य भत्थया फालेयव्वा छुरियाहि, तओ रयणसंगहो कायव्वो । एस रयणद्दीवगमणस्स उवातो त्ति ।" इति [ पत्र १४८-४९] । अथात्र वृत्तिपाठः-"फलगेत्यादि । फलकैर्मार्ग: फलकमार्गः, यत्र कर्दमादिभयात् फलकैर्गम्यते । लतामार्गस्तु यत्र लतावलम्बन गम्यते। अन्दोलनमार्गोऽपि यत्र अन्दोलनेन दुर्गमतिलच्यते । वेत्रमार्गों यत्र वेत्रलतोपष्टम्मेन जलादौ गम्यत इति, तद्यथा-चारुदत्तो वेत्रलतोपष्टम्मेन वेत्रवती नदीमुत्तीर्य परकूलं गतः । रजमार्गस्तु यत्र रज्वा किश्चिदतिदुर्गमतिलयते । 'दवनं' यानम् , तन्मागों दवनमार्गः। बिलमार्गों यत्र गुहाद्याकारेण बिलेन गम्यते । पाशप्रधानो मार्गः पाशमार्गः, पाश-कूटक-वागुरान्वितो मार्ग इत्यर्थः । कीलकमार्गों यत्र वालुकोत्कटे मरुकादिविषये कीलकाभिज्ञानेन गम्यते । अजमार्गो यत्र अजेन-बस्येन गम्यते, तद्यथा-सुवर्णभूम्यां चारुदत्तो गत इति । पक्षिमार्गों यत्र भारुण्डादिपक्षिभिर्देशान्तरमवाप्यते । छत्रमागों यत्र छत्रमन्तरेण गन्तुं न शक्यते । जलमार्गो यत्र नावादिना गम्यते । आकाशमार्गो विद्याधरादीनाम्" इति ॥ सूय०९०२५ Jain Education Intemational Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकिय [११ मग्गज्झयणं [ वसु० प्र० खं० लं० ३ पत्र १४८ ]। अंदोलएण अंदोलारूढो एति य, जं वा रुक्खसालं अंदोलिएऊणं अप्पाणं परतो वञ्चति । जधा लता तथा वेत्ते वि । अधवा लत त्ति आकंपिऊणं अण्णाए लताए लग्गति । रज्जुहि गंगं उत्तरति । [ दवणं ] दगणदीजाणं (? जाणं ) । बिलं दीवगेहिं पविसंति । रज्जुं वा कडिए बंधिऊण पच्छा रज्जुं अणुसरंति कचिद् रसकूपिका दौ महत्यन्धकारे, पुणो णिग्गच्छति गच्छति सो चेव पासमग्गो । खीलगेहिं रुमाविसए वालुगाभूमीए चकमंति, क्वचिद् 6 वेणु (? रेणु) प्रचुरे देशे कीलंकानुसारेण गम्यते, अन्यथा पथभ्रंशः । अयपधो लोहबद्धः सुवण्णभूमीए पच्छा ( ? बच्छा वा) । पक्खीणं ति जधा चारुदत्तो णातो [ वसु० प्र० खं० लं० ३ पत्र १४९ ] | छत्तगमग्गो छत्तगेणं धरिज्जमाणेणं गच्छति उपद्रवभयात्, जधा गणिगो पवातो । जलमग्गो णावाहिं । आगासमग्गो चारण-विज्जाहराणं ॥ २ ॥ १०१ ॥ खेत्तम्मि जम्मि खेत्ते काले कालो जेहिं वहति मग्गो । भावम्मि होति दुविधो पसत्थ तह अप्पसत्थो य ॥ ३ ॥ १०२ ॥ 10 खेत्तम्मि जम्मि खेत्ते० गाधा । जम्मि खेत्ते मग्गो - भूमिगोअराणं भूमीए मग्गो, देवाणं आगासे, खेचर-विज्जाहराणं उभये । अधवा खेत्तस्स मग्गो, जधा सा [ लि] खेत्तमग्गो एवमादि; श्राममार्गो नगरमार्ग इत्यादि, यथा - एष पन्था विदर्भायाः, अयं गच्छति हस्तिनागपुरम् । कालमार्गे जो जम्मि काले मग्गो वहति, यथा- वर्षारात्रे उद्गपूर्णानि सरांसि परिरयेण गम्यन्ते, व्याशुष्ककर्दमानि शिशिरे ग्रीष्मे वा उज्जुमग्गेण । यस्मिन् वा काले गम्यते, यथा- ग्रीष्मे रात्रौ सुखं गम्यते, हेमन्तेऽहनि । चिरेण वा गम्मति, यथा योजनिकी सन्ध्या । भावमग्गो दुविधो पसत्थो अप्पसत्थो य ॥ ३ ॥ १०२ ॥ दुहिम वितिगभेदो णेओ तस्स वि विणिच्छओ दुविहो । सुगतिफल दुग्गतिफलो पगतं सुगतीफलेणेत्थं ॥ ४ ॥ १०३ ॥ 15 दुविहम्म वितिगभेदो० गाधा । अप्पसत्थभावमग्गो तिविधो, तं जधा - मिच्छत्तं १ अविरती २ अण्णाणं ३ | पसत्थभावमग्गो तिविहो, तं जधा - [ सम्मण्णाणं ] सम्महंसणं सम्मचारितं । तस्स पुण दुविहस्सावि मग्गस्स दुविहो विणिच्छयो, विनिश्चयः फलं कार्यं निष्ठेत्यनर्थान्तरम् । पसत्थो सुगतिफलो, अप्पसत्थो दुग्गतिफलो । सुगतिफलेना20 धिकारः ॥ ४ ॥ १०३ ॥ अप्पसत्थमग्गट्ठिताणं पुण दुग्गतिगामुगाणं दुग्गतिफलवातीणं । तिणि तिसट्ठा पावादियसता । दव्वमग्गो पुण चतुव्विधो- खेमे णामेगे क्खेमरूवे, खेमे णामेगे अक्खेमरूवे ० द्वै । खेमे य खेमरूवे त्ति अदुग्गं णिच्चोरं च, एवं चतुसु वि भंगेसु योजयितव्यम् । भावमग्गे एवमेव 25 चतुभंगो—पढमभंगे भाव - दव्वलिंगजुत्तो साधू १ खेमे अक्खेमरूवे कारणिओ दव्वलिंगरहितो साधू २ अक्खेमा खेमरूविगा णिण्हगा ३ अण्णउत्थियगिहत्था चरिमभंगे ४ ॥ ५ ॥ १०४ ॥ दुग्गतिफलवातीणं तिण्णि तिसट्टा सता पवादीणं । खेमे य खेमरुवे चउक्कगं मग्गमादीसु ॥ ५ ॥ १०४ ॥ सम्प्पणीत मग्गो णाणं तध दंसणं चरितं च । चरग-परिव्वायादीचिण्णो मिच्छत्तमग्गो त्ति ॥ ६ ॥ १०५ ॥ सम्मप्पणीत मग्गो० गाधा । जो सो पसत्थभावमग्गो सो तिविधो-गाणं तध दंसणं चरितं च, तित्थगर - गणधरे हिं 30 थेरेहिं साधूहि य अणुचिण्णो । तव्विवरीओ पुण मिच्छत्तमग्गो, सो चरग-परिव्वायगादीहिं आचिण्णो मिच्छत्तमग्गो || ६ | १०५ ॥ येऽपि सच्छासनप्रतिपन्नाः— ७उखं १ ॥ क्षेत्रे" इति वृत्तौ ॥ पु २ ॥ १ कीलिका वा० मो० ॥ २ जहिं भवे मग्गो खं १ । जहिं हवइ जो उ खं २५२ ॥ ३ रेवत' पु० । “शालिक्षेत्रादिके वा ४ दोग्गति खं २ पु २ ॥ ५ इति चतुःसङ्ख्याद्योतकोऽक्षराङ्कः ॥ ६ णाणे तह दंसणे चरित्ते य खं १ खं २ ८गरुया खं १ खं २ पु २ ॥ ९ संति मग्गं कुमग्गमग्गस्सिता ते उ खं १ खं २ पु २ वृ० ॥ इड्डि-रस-सातगुरुगा छज्जीवणिकायघातणरता य । जे उवदि संति धम्मं कुमग्गमण्णस्सिता जाण ॥ ७ ॥ १०६ ॥ For Private Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा०४९६-९८ णिजुत्तिगा० १०२-८] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। इड्डि-रस-सातगुरुगा० गाधा। इड्डि-रस-[ सात गारवेहिं वा धम्म उवदिसंति ते वि ताव कुमग्गमण्णस्सिता, किमंग पुण परउत्थिगा तिगारवगुरुगा छजीवकायवधरता जे उवदिसंति धम्म संघभत्ताणि करेमाणा ?, एवमादि कुमग्गमण्णस्सिता जाण ।। ७ ॥ १०६ ॥ जे पुण तव-संयमप्पहाणा गुणधारी जे वदंति सब्भावं । सव्वजगजीवहितं तमाहु सम्मप्पणीतमवि ॥ ८॥ १०७॥ तव-संयमप्पहाणा० गाधा । सीलगुणधारी जे वदंति सब्भावं णाम जधावादी तधाकारी । सव्वजगज्जीवहितं यं तमाह सम्मप्पणीतमवि ॥८॥१०७ ॥ तस्स पुण एगट्ठियाणि णामाणि भवंति, तं जधा पंथो णायो मग्गो विधी धिती सोग्गती हित सुहं च । पत्थं सेयं णेव्वुइ जेव्वाणं सिवकरं चेव ॥९॥ १०८ ॥ ॥ मैग्गणिज्जुत्ती सम्मत्ता ॥ ११ ॥ पंथो णायो मग्गो० गाधा ॥ ९ ॥ १०८ ॥ णामणिप्फण्णो गतो । सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारेतव्वं । अज्जसुधम्मं जंबू पुच्छति ४९६. कतरे मग्गे आघाते माहणेण मतीमता?। जं मग्गं अंजु पावित्ता ओहं तरति दुरुत्तरं ॥१॥ ४९६. कतरे मग्गे आघाते. सिलोगो । आघाते इति आख्यातः । [माहणे त्ति वा] समणे त्ति वा एगहुँ, 15 भगवानेवापदिश्यते । मतिरस्यास्तीति मतिमान् तेन मतिमता । जं मग्गं उज्जु (? अंजु) पावित्ता, अंजुः इति अकुटिलः । अधवा कतरे इति कतरो भावमार्गः पसत्थो आख्यातः माहणेण मतीमता? तत्र [न] तावद् द्रव्यमार्गो वा अप्रशस्तभावमार्गो वा तेनाऽऽख्यातः, अवश्यं तु प्रशस्तभावमार्गः पसत्थो आख्यातः, किं ते हितेण दिट्ठो उज्जुगो य ? तं मे अक्खाहि जं मग्गं उजु (? अंजु) पवजित्ता ओघो द्रव्यौघः समुद्रः, भावे संसारौघं तरति ॥ १ ॥ ४९७. तं मग्गं अणुत्तरं सुद्धं सव्वदुक्खविमोक्खणं। - जाणेहि णं जधा भिक्खू! तंणे" ब्रूहि महामुणी ! ॥२॥ ४९७. तं मग्गं अणुत्तरं सुद्धं० सिलोगो । तमिति तम् ओघतरं महापोतभूतम् । [अणुत्तरं] नास्योत्तरा अन्ये कुमार्गाः शाक्यादयः । शुद्ध इति एक एव, निरुपहतत्वाच्चैवम् , अथवा पूर्वापरव्याहतबाध्यदोषापगमात् शुद्धः । सव्वदुक्खविमोक्खणं, अन्येऽपि प्रामादिमार्गाश्चौर-श्वापदभयोपद्रुता दुःखावहा भवन्ति, भूत्वा च न भवन्ति, उदकायुपप्लवैः अप्र स्ते; भावमार्गाः अपि दुःखावहा एव ते, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-तपोमयस्तु प्रशस्तभावमार्गः शुद्धः सर्वदुःखविमोक्षणम् । 25 तमेवंविधं जाणेहि णं जधा मिक्खू , यथेति येन प्रकारेण, भिक्षुरिति भगवानेव । यथा स भिक्षु तवान् तथाभूतं त्वमपि जानीषे तमेवं जानीते । अथवा हे भिक्षो! तमेवं ब्रूहि महामुणी! हे महामुने! ॥ २ ॥ स्यात्-किमर्थमहं पृच्छामि ? तत उच्यते४९८. जइ मे केइ पुच्छेज देवा अदुव माणुसा। तेसिं तु कतरं मग्गं आइक्खेज ? कहाहि 'णे ॥ ३ ॥ ४९८. जइ मे केइ पुच्छेज. सिलोगो । देवाश्चतुष्प्रकाराः एते पृच्छाक्षमा भवन्ति, तिरिया मणुस्सा (? मणुस्सा तिरिया वा), उत्तरगुणलद्धिं वा पडुच्च तियं (? तिरियं) अपि कश्चिद् गिरा वत्ति(? क्ति), वयसा वि पुच्छेज्ज, तेसिं तु १ तमिणं खं १ खं २ पु २ ॥ २पंथो मग्गो णायो ख १ खं २ पु २ वृ०॥ ३ मग्गो सम्मत्तो खं २ पु २॥ ४ कतरे णं चूपा० सूत्र ५३३ चूर्णौ ॥ ५ अक्खाते माखं १ खं २ पु १ पु २॥ ६ उजु खं १ ख २ पु १ पु २॥ ७ दुत्तरं खं १॥ ८मग्गऽणुत्तरं खं १॥ ९क्ख गं खं २ पु १ पु २॥ १० जाणासि णं खं २ पु १ पु २ वृ० दी । जाणासि तं खं १॥ ११ ने खं १ खं २ मे पु१॥ १२णे खं १ खं २ पु २ । णो पु १ वृ० दी०॥ १३ णो खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ 20 30 Jain Education Intemational Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [११ मम्गज्झयणं कतरं मग्गं, तेषाम् अजानकानां स्वयमजानकः कतरं मार्ग कथं वा कथयिष्यामि ? । अव्यावाधसुखादीनि आवहतीति सुखावहः, अथवाऽभ्युदयकं निःश्रेयसं च ॥ ३ ॥ ___ इति पृष्ट आर्यसुधर्मा जम्बूस्खाम्याद्यान् साधून प्रणिधाय सदेव-मणुआ-ऽऽसुरं च परिसं णिस्साए करेति ४९९. जब वो केइ पुच्छेन देवा अदुव माणुसा। 'तेसिं तु इमं मग्गं आइक्खेज सुणेध मे ॥ ४ ॥ ४९९. जइ वो केइ० वृत्तम् (सिलोगो) । जइ वो केइ पुच्छेञ्ज, जति त्ति अणिहिणिहेसे, संसारभ्रान्तिनिर्विण्णाः देवा अदुव माणुसा । तेसिं तु इमं मग्गं आइक्खेज सुणेध मे । पठ्यते च-"तेसिं तु पडिसाहेज मग्गसारं सुणेह मे, साहितं प्रति अन्येषां साहन्ति, कधितं सत् पडिसाहेजा । मार्गाणां सारः मार्ग एव वा सारः मार्गसारः ॥ ४ ॥ ५००. अणुपुब्वेण महाघोरं कासवेण पवेदितं । जमादाय हतो पव्वं समुह व ववहारिणो ॥५॥ ५००. अणुपुव्वेण सिलोगो । कथं मार्गप्रतिपत्तिरेव तावद् भवति ?, उच्यते, अणुपुव्वेण महाघोरं, अणुपुव्वेणं ति "माणुस्स खेत्त जाती०" [आव०नि० गा० ८३१] गाधा, अधवा "चत्तारि परमंगाणि०" [उत्तरा० अ०३ गा०] सिलोगो, अधवा "पढमिल्लगाण उदये" गाधाओ तिणि [आव०नि० गा० १०८-१०], एवं कम्मक्खयाणपुव्विगाधा जाव "बारसविधे०" [भाव. नि० गा० १११-१३] । दुरनुचरत्वाद् महाघोरः, अणुपुम्भिः दुस्तरम् , महापुरुषास्तु घोरमपि तरन्ति, 18 घोरसङ्ग्रामप्रवेशवत् । कासवेण पवेदितं, प्रदर्शितमित्यर्थः । जमादाय इतो पुव्वं, जं आदाय इति यमनुचरित्वा इत इति इतस्तीर्थादर्थ (?र्थात् पूर्व) अद्यतनाद्वा दिवसादिति । समुद्रेण तुल्यं समुद्रवत् , व्यवहरन्तीति व्यवहारिणः वणिजः ॥ ५ ॥ यथा तेऽतिक्रान्ते काले समुद्रम५०१. अतरिंसु तरंतेगे तरिस्संति अणागता। तं सोचा पडिवक्खामि जंतवो! तं सुणेह मे ॥६॥ 20 ५०१. अतरिंसु० सिलोगो। अतरिष्यन् तरन्ति तरिष्यन्ति च, तद्वत् सम्यग्मार्गमनुचर्य तीतद्धाए अणंता जीवा संसारोधमतरिंसु, सङ्ख्येयाः तरन्ति साम्प्रतम् , अणंता तरिस्संतऽणागतं ति । तं सोचा तमहं श्रुत्वा भवदादीन श्रोतृन् प्रतिवक्ष्यामि । जायन्त इति जन्तवः, जम्बूस्खाम्यादीनां आमन्त्रणम् , हे जन्तवः! तं सुणेह मे चरित्तमग आइक्खिस्सामि । तदन्तमार्गावपि तदन्तर्गतावेव जेसु संजमिज्जति ॥ ६ ॥ ते इमे, तं जधा ५०२. पुढवीजीवा पुढो सत्ता आउजीवा तधाऽगणी। वाउजीवा पुढो सत्ता तण-रुक्खा सबीयगा ॥७॥ ५०२. पुढवीजीवा पुढो सत्ता सिलोगो। पृथक् पृथग् इति प्रत्येकशरीरत्वात् । आउजीवा तधागणी, पुढो सत्ता इति वर्त्तते । तण-रुक्खग्गहणेणं भेदो दरिसितो ॥ ७ ॥ ५०३. अहावरे तसा पाणा एवं छक्काय आहिया। ऐताव ता जीवकाए णावरे विज्जती कए ॥८॥ 30 ५०३. अहावरे० सिलोगो। अधावरे तसा पाणा एवं छक्काय आहिया । एताव ता जीवकाये न हि सप्तमो विद्यते जीवकायः ॥ ८॥ एते १ तेसिमं पडिसाहेजा मग्गसारं सुणेह मे खं १ खं २ पु १ पु २ दृ० दी• चूपा । तेसिं तु पडि चूपा० । सुणेहि खं २ पु २ तेसिं तु इमं मग्गं आइक्खे ज सुणेह मे वृपा० ॥ २ समुई वव खं २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ ३ रुक्ख खं खं २ पु१पु२॥ ४ अहावरा खं २ पु २॥ ५ इत्ताव एव जीव खं २ पु २ वृ० दी । इत्ताव ताव जीव खं १। इत्तावये जीव पु १॥ ६णावरे कोइ विज्जती सा०॥ ७कती खं १ खं २। काप पु १ पु२॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ १०४] सुत्तगा०४९९-५०४] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। ५०४. सव्वाहि अणुजुत्तीहिं मतिमं पडिलेहिया । सव्वे अकंतदुक्खा य अतो सव्वे अहिंसका ॥९॥ ५०४, सव्वाहिं अणुजुत्तीहिं० सिलोगो । अनुरूपा युक्तिः अनुयुक्तिः । जधापुढवीए णिक्खेवो परूवणा लक्खणं परीमाणं । उवभोए सत्थे वेदणा य चवणा ( वधणा ) णियत्ती य ॥ १ ॥ [ आचा० नि० गा० ६८] छ किञ्च अडरवद् जीवत्वं पार्थिवानाम् , विद्रुम-लवणोपलादयश्च स्वाश्रयावस्थाः सचेतनाः, कुतः ?, समानजातीयाङ्करसद्भावात् , अर्शोविकाराङ्कुरवत् । भूमिक्खयसाभावियसंभवतो दहुरो व्व जलमुत्तं । अधवा मच्छो व्व सभाववोमसंभूतपातातो ॥ १ ॥ [विशेषा० गा० १७५७ ] सात्मकं तोयं भौमम् , कुतः ?, समानजातीयस्वभावसम्भवात् , दर्दुरवत् ; अथवा अन्तरीक्षम् , अभ्रादिविकारस्वभाव-10 मत्स्यवत् । ग्रहणकवाक्यम्-इन्धनसंयोगात् तेजसां तेजः सात्मकम्, आहारोपादानात् तद्वद्धिविशेषोपलब्धेः तद्विकारदर्शनाच्च, पुरुषवत् । ग्रह्णकवाक्यम्-गतिमत्त्वाद् वायुर्जीवः, प्रयत्नगतेः, यस्मादयं सविक्रम इव पुमान् तीव्र-मन्द-मध्यान् गतिविशेषान् स्खेन महिना यतीति, वेगवत्त्वाच्च वृक्षादीनुन्मूलयति इत्यतो गतिमत्त्वाद् वायु वः । सात्मकाः वनस्पतयः, जन्म-जरा-जीवण-मरणसद्भावात् , स्त्रीवत् । आह-नन्वयमनैकान्तिकः, जाताख्याः (द्याः) विपक्षेऽपि दर्शनात् , तद्यथा-जातं दधि, जीणं वासः, सञ्जीवितं विषम् , मृतं कुसुम्भकमित्यादि, उच्यते, न, वनस्पतौ समस्तलिङ्गोपलब्धेः, दध्यादावसमस्तदर्शनादुपचारतः जातमिति (जातादीनि)। इतश्च सात्मका वनस्पतयः, क्षतसंरोहणाद् आहारोपा-15 दानाद् दौहृदसद्भावाद् [आमयसद्भावाद् ] रोगचिकित्सासद्भावात् । दौहृदादौ सम्भवतः कुष्माण्ड्यादीनां 'विशेषपक्षः' विशेषश्चासौ पक्षश्च विशेषपक्षः कर्त्तव्यः ।। छिकप्परोइता छिक्कमेत्तसंकोअतो कुलिंगो व्य । आसयसंचारातो जाणसु वल्ली-विताणाई ॥१॥ [विशेषा० गा० १७५४ ] सात्मकाः स्पृष्टप्ररोदिकादयः, स्पृष्टाकुञ्चनात्, कीटवत् , आश्रयाभिसंसर्पणाद् वहयादयः । सम्मादयो य साव-प्पबोह-संकोयणादितोऽभिमता । बउलादयो य सद्दादिविसयकालोवलम्भातो ॥ १॥ [विशेषा० गा० १७५५] [सात्मकाः] शम्यादयः, स्वाप-प्रबोध-सङ्कोचनादिसद्भावात् , शब्दादिविषयोपलम्भाद् बकुला-ऽशोकादयः, देवदत्तवत् । म एवमाद्याभिनसानुरूपाभिः अनुयुक्तिभिः एगिदिए पडिलेहिया जषेति, जीवातिहिंसोपरतिः कार्या स्वकामतः। अब्भोबगमिओवक्कमियाओ वेदणाओ भाणितम्बाओ। तत्थ मणुस्स-पंचेंदियतिरियाण य दुविधा, सेसाणं ओवक्कमिया। एवं 25 मतिमं पडिलेहेत्ता सव्वे अकंतदुक्खा य, सारीरं माणसं वा सव्वेसि अणिहँ अकंतं अपियं दुक्खं, अत इत्यस्मात् कारणाद् नवकेन भेदेन अहिंसणीया अहिंसकाः॥९॥ 20 १ण हिंसया खं २ पु १ पु २ वृ० दी। अहिंसगा खं १॥ २ हस्तचिह्नान्तर्गतथूर्णिग्रन्थसन्दर्भः समग्रोऽपि प्रायो विशेषावश्यक महाभाष्यसत्क "जम्म-जरा-जीवण-मरण." १७५३ गाथातः “अपरप्पेरिय०” १७५८ पर्यन्तगाथानां खोपज्ञटीकारूप एव वर्तते ॥ ३°रीक्षमानम्रा पु० सं० । रीक्ष्यमानभ्रा वा० मो० । रीक्षेमम्रा विस्खो० । “सात्मकं भौम जलम् , क्षतसमानजातीयस्वभावसम्भवात् , दर्दुरवत् । अथवा अन्तरिक्षम् , अभ्रादिविकारखभावसम्भूतपातात्, मत्स्यवत् ।” इति कोट्याचाीयवृत्तौ पत्र ५४६॥ ४कः विपक्षेऽपि विखो।“आह-सर्वेऽनैकान्तिकाः, विपक्षेऽपि दर्शनात् । तद्यथा-जातं दधि अचेतनं च, एवं जीर्ण वासः, सञ्जीवितं विषम् , मृतं कुसुम्भकमित्यादि" इति कोव्याचार्यवृत्तौ॥ ५°ण्ड्यादीन् विशेष्य पक्षः कर्त्तव्यः विखो०॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 15 णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [११ मग्गज्झयणं ५०५. एतं खु णाणिणो सारं जं ण हिंसति कंचणं । अहिंसासमयं चेव ऐतावंतं विजाणिया ॥१०॥ ५०५. एतं खु गाणिणो सारं० सिलोगो । न हि ज्ञानी ज्ञानादर्थान्तरभूत इति कृत्वाऽपदिश्यते-एतं खु णाणिणो सारं ति, कोऽर्थः ?, एष हि ज्ञानस्य सारः । जंण हिंसति कंचणं, कश्चणमिति कचि(कञ्चिदपि नवकेन भेदेन । अहिंसाB समयं ति, समता "जध मम ण पियं दुक्खं०" गाधा [अनुयो० पत्र २५६ ] अथवा यथा हिंसितस्य दुःखमुत्पद्यते मम, एवमभ्याख्यातस्यापि चोरियातो वाऽस्य दुःखमुत्पद्यते, एवमन्येषामपि इत्यतो अहिंसासमयं चेव । अधवा दव्वतो खेत्ततो कालतो भावतो हिंसा भवति, एवं शेषाण्यपि, एतावांश्चैष ज्ञानविषयः यदुत हिंसाद्याश्रवद्वारोपरतिः ॥ १०॥ क्षेत्रप्राणातिपातं तु प्रतीत्यापदिश्यते५०६. उड्डमहं तिरियं च जे केति तस-थावरा । सव्वत्थ विरतिं कुजा संति णिव्वाणमाहियं ॥११॥ ५०६. उडमहं तिरियं च० सिलोगो । प्रज्ञापकं प्रतीत्य उई अधं तिरियं च पूर्ववत् । सव्वत्थ विरतिं कुजा इहापि तावद् निर्वाणं भवति । कथम् ?, अहिंसको हि न हि हिंसक इव सर्वस्योद्वेजको भवति, उपशान्तवैरत्वाच्च न कस्यचिदपि बिभेति । किञ्च-तणसंथारणिवण्णो वि मुणिवरो भट्टराग-मय-दोसो।" [संस्तारकप्र. गा० ४८] किमु मोक्खो ?, एवं निर्वाणं भवतीत्याख्यातम् ॥ ११ ॥ ५०७. पभू दोसे णिरे किच्चा ण विरुज्झेज केणइ। मणसा वयसा चेव कायसा चेव अंतसो ॥१२॥ ५०७. पभू दोसे गिरे किच्चा० सिलोगो । पभवतीति प्रभुः, वश्येन्द्रिय इत्यर्थः, न वा संयमावरणानां कर्मणां वशे वर्त्तते। अथवा स्वतत्रत्वाद् जीव एव प्रभुः, शरीरं हि परतत्रम् , मोक्षमार्गे वाऽनुपला(?पाल)यितव्ये क्रोधादयः । निरे इति पृष्ठतः कृत्वा । ण विरुज्झेज केणइ, न विरुध्येत केनचिदिति, अपि पूर्वशत्रूणामपि, अपि हास्येनापि । 20 विरोधो विग्रहः घन्त इत्यर्थः, यद् वा यस्य प्रतिकूलम् । मणसा वयसा चेव त्ति नवकेन भेदेन । अन्तश इति यावज्जीवितान्तः ॥ १२ ॥ उक्ता मूलगुणाः । उत्तरगुणप्रसिद्धये त्वपदिश्यते ५०८. संधुंडे य महापण्णे धीरे देत्तेसणं चरे।। एसणासमिते णिचं वजयंते अणेसणं ॥१३॥ ५०८. संवुडे य महापण्णे० सिलोगो। हिंसाद्याश्रवसंवृतः इंदिय-णोइंदियभावसंवुडो वा । महती प्रज्ञा यस्य स 25 भवति महाप्रज्ञः। धीर्बुद्धिरित्यनर्थान्तरम् । आहार-उवधि-सेज्जाओ याचितद्रव्यं एषणीयं च चरति गच्छति चर्यत इत्येकोऽर्थः । एसणासमिते णिचं, तिविधा एसणा-गवसणा १ गहणेसणा २ घासेसणा ३ । एवं सेसाओ वि समितीओ ॥१३॥ तत्राऽऽधाकर्म सर्वगुरु, अनेषणादोषः आद्यश्चेति, तेन तनिषेधार्थमपदिश्यते५०९. भूताणि समारंभ साधू उहिस्स जंकडं । तारिसं तु ण गेण्हेजा अण्ण-पाणं सुसंजते ॥ १४ ॥ १ किंचणं खं २॥ २एताव त वि खं १ ख २ ॥ ३ उड्डमहे ति° खं १ । उडे अहे य ति° खं २ पु १ पु २॥ ४विरदयं खं २॥ ५विजा खं १ खं २ पु १ पु २ ० दी.॥ ६णिराकिच्चा खं १ पु १ पु २० दी। णिरिक्खेत्ता खं २॥ ७संवडेसे मखं २ पु १ पु २ वृ० दी० ।संखुडेस में खं १ ॥ ८वीरे खं १ खं २ पु १ पु २ ॥ ९दंतेसणं खं २॥ १० भूयाई समारंभ साहुमुद्दिस्स जं वृ० दी। भूताई समारंभ तमुहिस्सा य जं खं १। भूयाई च समारंभ समुहिस्स य जं खं २ पु १ पु२॥ ११ अण्णं पाणं खं १ खं २ वृ० दी० ॥ Jain Education Intemational Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 सुत्तगा०५०५-१४] सूयगडंगसुत्तं विइयमंगं पढमो सुयक्खंघो । १९९ ५०९. भूताणि समारंभ० सिलोगो । भूतानि तस-थावराणि । कथमिति ?, साधूनुद्दिश्योपकल्पितम् । तारिसं तु ण गेण्हेजा । एवं उवधिं पि । इत्येवं भावमार्गः प्रतिपन्नो भवति ॥ १४ ॥ किश्च ५१०. पूतिकम्मं ण सेवेन एस धम्मे वुसीमतो। जं किंचि अभिसंकेजा सवसो तं ण भोत्तए ॥ १५॥ ५१०. पूतिकम्मंण सेवेज एस धम्मे० [सिलोगो] । बुसीमतो त्ति, वुसिमानिति संयमवान् वसिमं वा । किञ्च-जं 5 किंचि० सिलोगो [ उत्तरद्धं] जंकिंचि अभिसंकेजा सव्वसो तंण भोत्तए, यदिति आहार-उवधि-सेज्जा, अधवा यदिति यत् किञ्चिद् दोषं अभिसंकते पणुवीसाए अण्णयरं किमेतं एसणिजं अणेसणिजं ? । सर्वश इति यद्यपि प्राणात्ययः स्यात् ॥१५॥ इदाणि वायासमिती५११. ठाणाई संति सड्ढीणं गामेसु नगरेसु वा। अत्थि वा णत्थि वा धम्मो? अत्थि धम्मो त्ति णो वते ॥१६॥ ५११. ठाणाई० सिलोगो । ठाणाणि संति सड्ढीणं, श्रद्धावन्तः श्राद्धिनः । गामेसु नगरेसु वा जाव सण्णिवेसेसु वा । सम्मदिट्ठीणं मिच्छट्ठिीण वा तेहिं सड्डेहिं पुचि णाम पुच्छितो परेणेति मिच्छादिट्टिणा मरुयसड्डेण तचणियादिसड्रेण वा-'हे साधो! ज "मिदे अम्हे ब्राह्मणं भिक्षु वा तर्पयामः, अस्त्यत्र कश्चिद् धर्मः ? तुमं च मग्गडितो' । एवं पुट्ठो अत्थि धम्मो ति णो वते ॥ १६ ॥ ५१२. अत्थि वा णत्थि वा पुण्णं ? अत्थि पुण्णं ति णो वए। अधवा णत्थि पुण्णं ति, एवमेयं महब्भयं ॥१७॥ ५१२. अत्थि वा० सिलोगो [ पुव्वद्धं ] । अधवा णत्थि पुण्णं ति० ॥ १७ ॥ स्याद्-अनुज्ञायां को दोषः ? प्रतिषेधे वा?, उच्यते ५१३. दाण€ताए जे सत्ता हम्मति तस-थावरा। तेसिं सारक्खणट्ठाए अत्थि पुण्णं ति णो वदे ॥१८॥ ५१३. दाणट्ठताए जे सत्ता हम्मति तस-थावरा० [सिलोगो] । तं जधा-तणणिस्सिता कट्ठ-गोमयणिस्सिता संसेतया तसा थावरा य हम्मंते । तेसिं० सिलोगो [ उत्तरद्धं ] । तेसिं सारक्खणट्ठाए अत्थि पुण्णं ति णो वदे, मिच्छत्तथिरीकरणं, जं च तेणाऽऽहारेण परिवूढा करेस्संति असंयम, अप्पाणं परं च बहूहिं भावेंति तदनुज्ञातं भवति ॥१८॥ पडिसेधे वि* ५१४. जेसिं तं उपकप्पेंति अण्णं पाणं तधाविधं ।। तेसिं लाभंतरायं ति तम्हा णत्थि त्ति णो वदे ॥ १९॥ ५१४. कण्ठ्यम् ॥ १९॥ तत्र का प्रतिपत्तिः ? तुसिणीएहिं अच्छितव्वं, निब्बंधे वा ब्रवीति-अम्हं आधाकम्मादिबातालीसदोसपरिसुद्धो पिंडो पसत्थो । जं च पुच्छसि 'किमत्रास्ति पुण्यम् ?' इत्यत्रास्माकमव्यापारः । कथम् ?, उभयदोषोपपत्तेः । कथम् ? 16 20 १ अभिकंखेज्जा सव्वसो तं ण कप्पते ख १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० । सव्वओ पु १ पु २ ॥ २ इयं गाथा मूलसूत्रादर्शेषु वृत्ति-दीपिकयोश्चेत्यरूपा वर्त्तते । तथा हि-हणंतं णाणुजाणेजा आयगुत्ते जिइंदिए । ठाणाई संति सड्ढीणं गामेसु णगरेसु वा ॥ ३ परेण पुच्छितो धम्म इत्यपि तृतीयं चरणं स्यात् ॥ ४ मृगाः सरलाशया इत्यर्थः ॥ ५°ट्टितो मग्गचिट्ट सं० वा. मो० ॥ ६ तहा गिरं समारब्भ अत्थि पुण्णं खं १ खं २ पु १ पु २ बृ० दी.॥ ७°ट्ठयाय जे पाणा ह° खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ८संरक्ख पु १॥ ९तम्हा अस्थि त्ति णो खं १ ख २ पु १ पु २ . दी० ॥ १० अण्ण-पाणं खं १ खं २ वृ० दी.॥ ११°म्माधिबा चूसप्र.॥ Jain Education Intemational Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [११ मग्गजायणं * ५१५. जे य दाणं पसंसंति वघमिच्छंति पाणिणं । __जे य णं पडिसेवेति वित्तिच्छेदं करेंति ते ॥ २० ॥ ५१५. महातटाकदृष्टान्तः सर्वैः जलचरैः स्थलचरैश्च प्रतिबोधि(?), अनुज्ञायामननुज्ञायां चोभयथाऽपि दोषः ॥२०॥ " अथवा "ग्रसत्येको मुश्चत्येको, द्वावेतौ नरकं गतौ ।" [ ] एवमुभयथाऽपि दोषं दृष्ट्वा५१६. दुहतो वि जे ण भासंति अत्थि वा णत्थि वा पुणो। आयं रयस्स हिचा णं णेव्वाणं पाउणंति ते ॥ २१॥ ५१६. दुहओ० सिलोगो । दुहतो वि जे ण भासंति अत्थि [वा] णत्थि वा पुणो, ते भगवन्तः आयं रयस्स एतीत्यायस्तम् , रतइ त्ति रजः, रजसः आगमं हिचा [f] व्वाणं पाउणंति ते इति । एवं वाक्समितिरुक्ता, तहणात सेसा वि समितीओ घेप्पंति, एवं च णेव्वाणं भवतीति ॥ २१ ॥ भगवन्तश्च ५१७. 'णेवाणपरमा बुद्धा णक्वत्ताण व चंदमा। तम्हा सदा जते दंते णेवाणं संधए मुणी ॥ २२॥ ५१७. व्वाणपरमा बुद्धा० सिलोगो। णेव्वाणं परमं जेसिं ते इमेणेव्वाणपरमा एते बुद्धा अरहन्तः, तच्छिष्या बुद्धबोधिताः, परमं निर्वाणमित्यतोऽनन्यतुल्यम् , नास्य सांसारिकानि तानि तानि वेदनाप्रतीकाराणि निर्वाणानि अनन्तभागेऽपि तिष्ठन्तीति । दृष्टान्तः सौत्र एव-नक्खत्ताण व चंदमा, न क्षयं यान्तीति नक्षत्राणि, तेभ्यः कान्त्या सौम्यत्वेन प्रमाणेन प्रकाशेन 15 च परमश्चन्द्रमाः नक्षत्र-ग्रह-तारकाभ्यः, एवं संसारसुखेभ्योऽधिकं निर्वाणसुखमिति । तम्हा सदा जते दंते. मोक्षमग्गपडिवण्णे उत्तरगुणेहिं वडमाणेहिं अच्छिण्णसंधणाए णेव्वाणं संघज्जा ॥२२॥ स एवमच्छिन्नसन्धनया निर्वाणं संधमाणः उभयत्रापि - ५१८. बुज्झमाणाण पाणाणं किंचंताण सकम्मुणा।। अक्खाति साधुतं दीवं पतिढेसा पवुच्चती ॥ २३ ॥ ५१८. वुज्झमाणाण पाणाणं० सिलोगो । संसारनदीस्रोतोभिरुह्यमानानां स्वकर्मोदयेन यत् तच्छुभं तीर्थकरत्वनाम 20 तस्य कर्मण उदयात् अक्खाति दीवं आख्याति भगवानेव, शोभनमाख्याति साधुराख्यातम् । एतावता वा समणे वा माहणे वा जा वत्थछु(?वच्छल्लु)त्तरीए दीपयतीति दीपः, द्विधा पिबति वा द्वीपः, स तु आश्वासे प्रकाशे च, इहाऽऽश्वासद्वीपोऽधिकृतः । यस्मादाह-उद्यमानानां श्रोतसा सो दीवतो ताणं सरणं गती पतिट्ठा य भवति, एतदाश्वासद्वीपं प्राप्य संसारिणां प्रतिषा भवति. इतरथा हि संसारसागरे जन्म-मृत्युजलोर्मिभिरुह्यमाना नैव प्रतिष्ठां लभन्ते। जं च मग्गं अणुपालेंतस्स अद्रविधं कम्मं प्रतिष्ठां गच्छति, निष्ठामित्यर्थः, यथाऽऽख्याति तथाऽनुचरति सयं, अणिग्गहितबालविरतो जेण जीवो हिंडतो प्रतिष्ठां 25 लभते, एष प्रशस्तभावमार्ग इति लभ्यते ॥ २३॥ केरिसो पुण पसत्थभावमग्गगामी प्रतिष्ठां लभते ? कीदृशो वा भावाश्वासदीपो भवति ?५१९. आयगुत्ते सदादंते छिन्नस्सोते गिरासवे।। जे धम्म सुद्धमक्खाति पडिपुण्णमणेलिसं ॥ २४ ॥ ५१९. आयगुत्ते सदादंते० सिलोगो। आत्मनि आत्मसु वा गुप्त आत्मगुप्तः, इन्द्रिय-नोइन्द्रियगुप्त इत्यर्थः, न 30 तु यस्य गृहादीनि गुप्तादीनि । हिंसादीनि श्रोतांसि छिन्नानि यस्य स भवति छिन्नस्सोते, छिन्नश्रोतस्त्वादेव निराश्रवः । जे धम्मं सुद्धमक्खाति, य एवंविधे आश्वासद्वीपे स्थितः प्रकाशद्वीपः अन्येषां धर्ममुपदिशति, प्रतिपूर्णमिदं सर्वसत्त्वानां हितं १०च्छेतं खं १॥ २ ते खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी ॥ ३ अयरस्सा पतीत्यायस्तं रत इति रजतं रजसः चूसप्र० ॥ ४ नेव्वाणं परमं बुद्धा नक्खत्ताण व चंदिमा खं १ खं २ पु १ पु २॥ ५ कञ्चंताण सकम्मणा । आघाति खं १ ख २ पु १ पु २॥ ६ अनिगृहीतबालवीर्यः ॥ ७ अणासवे खं २ पु १ पु २ । अणासते खं १॥ ८ सुहम खं १॥ ९°नि आहिसि छि चूसप्र०॥ Jain Education Intemational Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाठ ५१५-२२] सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो । २०१ सुहं सर्वाविशेष्यं निरुपधं निर्वाहिकं मोक्षं नैयायिकम् इत्यतः प्रतिपूर्णम्, अथवा सर्वैर्दया दम-ध्यानादिभिर्धर्मकारणैः प्रतिपूर्णमिति । अनन्यतुल्यं अणेलिस, योऽयममन्यसदृशो धर्मोपदेशः ॥ २४ ॥ ५२०. तमेव अविजाणता अबुद्धा बुद्धवादिणो । बुद्धा मोति यमनंता दूरतो ते समाधिए ॥ २५ ॥ ५२०. तमेव अविजाणता० सिलोगो । तमिति तद् द्विविधं प्रदीपभूतं धर्म न बुद्धा अबुद्धाः बुद्धवादिनश्च बुद्ध- 5 म्मन्याचाऽऽत्मानं बुद्धा मो त्ति य मन्नंता अण्णाणिणो अविरया तिण्णि तेसट्टा पौवातियसदा 'एवमस्माकं मोक्षसमाधिभविष्यति' इति दूरतस्ते समाधिए । कथम् ? इहलोकेऽपि तावं तेऽनेकाप्रत्वात् समाधिं न लभन्ते कुतस्तर्हि परमसमाधि मोक्षम् ? । तद्यथा - शाक्याः अबुद्धा बुद्धवादिनः सुखेन सुखमिच्छन्ति, इहलोकेऽपि तावद् प्रामव्यापारैर्न सुखमास्वादयन्ति, कुतस्तर्हि परमसमाधिसुखमिति ? । उक्तं हि - "तत्रैकामं कुतो ध्यानं, यत्राऽऽरम्भ - परिग्रहः ? " [ इति । अतस्ते चतुविधाए भावणाए दूरतः ॥ २५ ॥ इतश्च दूरतः - ५२१. ते य बीयोदगं चैव तमुद्दिस्सा य जं कडं । झणं णाम झियायंति अखेतण्णा असमाहिता ॥ २६ ॥ ] ५२१. ते य बीयोदगं चेव० सिलोगो । बीयाणि सचेतणाणि शाल्यादीनाम्, श्रु (? शी) तमपि च उदकं सचेतनमेव, हरिद्रा - कोदकवत्, तमुद्दिश्य च कृतं उपासकादिभिः, स्वयं च पाचयन्ति पक्षचारिकादयः, तेषां हि पक्षे चारिका भवन्ति, अनुजानते च सुपकं सुसृष्टमिति, जीवेषु च अजीवबुद्धयः अतत्त्वे तत्त्वबुद्धयः वराकास्तत्कारिणस्तद्वेषिणश्च सङ्घभक्तानि 15 गणयन्तोऽतीता - ऽनागतानि च प्रार्थयन्तः झाणं णाम झियायंति, णाम परोक्षस्तवादिषु, तेऽपि नाम यदि ध्यानं ध्यायन्ति, को हि नाम न ध्यानं ध्यास्यति ? 1 ग्राम-क्षेत्र-गृहादीनां गवां मैष्यजनस्य च । चैत्र प्रतिग्रहो दृष्टो ध्यानं तत्र कुतः शुभम् १ ॥ १ ॥ [ 10 ] इति । सचित्तकम्मा य तेसि आवसथा विहारकुडीड त्ति, मांसं कैल्पिक इत्यपदिश्यते, दासीओ कप्पयारीउ ति । यथा 20 बर्बरेण मांसस्म प्रत्याख्याय अशक्नुवता तमनुपालयितुं भमरमिति संज्ञां कृत्वा भक्षितम्, किमसौ तद् भक्षयन् निर्विशिको भवति १, खूता वा शीतलिकाभिधानेनाभिलप्यमाना किं न मारयति ? । एवं तेषां म संज्ञान्तरपरिकल्पितास्ते आरम्भा निर्वाणाय भवन्ति, न च वैराग्यकरा भवन्ति । येऽपि तावद् भिक्षाहारा भवन्ति तेऽपि सविकारस्त्रीरूपसचित्रकर्म्म लेनेषु वसन्ति तेषामपि तावत् कुतो ध्यानम् ?, किमङ्ग पुनः कल्पिकारीर्व्यापारयताम् ?, पचन - पाचनाप्रवृत्तानां तनुमेव चासुप्रेक्षमाणानां कुतो ध्यानम् ? । ते हि मोक्षमार्गस्य ध्यानस्य च शुद्धस्य अखेतण्णा अजाणगा, असमाहिता णाम असंवृताः, 26 मनोज्ञेषु पान - भोजना - Sऽच्छादनादिषु नित्याध्यवसिताः 'कोऽत्थ संघभत्तं करेज्जा ? कोऽत्थ परिक्खारं देज्ज वखाणि १ इत्येवं नित्यमेवात्तं ध्यायन्ति ॥ २६ ॥ ५२२. जधा ढंका य कंका यें पिलजा मग्गुका सिही । मच्छेसणं झियायंति झाणं ते कलुसाधमं ॥ २७ ॥ ५२२. जहा ढंका ० सिलोगो । जधा ढंका य कंका य पिलजा जलचरपक्षिजातिरेव, मग्गुकाः काकमङ्गवत्, 30 शतानि ॥ १ बुद्धमाणिणो खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी ० ॥ २ अंतर ते समाहिते खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ३ प्रावादुक४ तावद् अने सं० वा० मो० ॥ ५ भोया झाणं झि खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ६°पणास खं१पु१ ७ यतिप्रति वा० मो० ॥ ८ "मांसं कल्किकमित्युपदिश्य संज्ञान्तरसमाश्रयणा निर्दोषं मन्यन्ते ।” इति वृत्तिकृतः ॥ ९ सु १० य कुलला मंडका सिही खं १ पु २ । य कुलला महुका सिही खं २ । य कुलला मनुका सिही पु १ ॥ पु २ लयनेषु पु०॥ सूम० सु० २६ For Private Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ णिज्जुत्ति-चुण्णि समलंकियं [११ मग्गज्झयणं शिखी च जलचरा एव, एते हि न तृणाहाराः केवलोदकाहारा वा, ते नित्यकालमेव मच्छेसणं झियायंति, निश्चलास्तिष्ठन्ति जलमज्झे उदगमक्खोभेन्ता, मा भून्मत्स्यादयो नयन्ति उत्तसिष्यन्ति वा ।। २७ ।। ५२३. एवं तु समणा ऐगे मिच्छद्दिट्ठी अणारिया । विसएसणं झियायन्ति कंका वा कलसाघमा ॥ २८ ॥ ५२३. एवं तु समणा एगे० सिलोगो । एवं पि नाम श्रमणा वयं इति ब्रुवन्तः एके न सर्वे पचनादिषु आरम्भेषु अशुभाध्यवसाने च वर्त्तमाना मिथ्यादृष्टयः चरित्तणाअरिया आहार- परमपूजा - सत्काराँश्च ध्यायन्ति, सन्मार्गाजानकाः • कुमार्गाश्रिताः मोक्षमिच्छन्तोऽपि संसारसागर एव निमज्जते ॥ २८ ॥ दृष्टान्तः- ५२४. जैधा आसाविणी णावं जातिअंधो दुरूहिया । ईच्छेज्जा पारमागन्तुं अंतरा य विसीदति ॥ २९ ॥ ५२४. जधा आसाविणी णावं० सिलोगो । आस्रवतीति आस्राविनी सदाश्रवा शतच्छिद्रा । नयति नीयते वा नौः । जातित एव अन्धो जात्यन्धः पूर्वा-पर-दक्षिणोत्तराणां दिशां मार्गाणां गत- गन्तव्यस्यानभिज्ञः एतावद् गतं एतावद् गन्तव्यम् । इच्छेज्जा पारमागन्तुं अन्तरा एव नदीमुखे पर्वते वा प्रतिहतभग्ने निमग्ने वा पोते अंतरा इति अप्राप्त एव पारं विसीदति ।। २९ ।। एष दृष्टान्तः । अयमर्थोपनयः 5 15 ५२५. एवं तु समणा एगे मिच्छद्दिट्ठी अणारिया । सोतं कणिमावण्णा आगंतारो महन्भयं ॥ ३० ॥ ५२५. एवं तु समणा एगे० सिलोगो । एगे ण सव्वे, अण्णाण-मिच्छत्ततमपडल - मोह जालपडिच्छन्ना । अणारिया णाम अणारियचरित्ता । सोतं कसिणमावण्णा, श्रवतीति श्रोतः, आस्राविनीनौस्थानीयं कुचरितश्रोतमास्थाय कसिणमिति सम्पूर्ण आश्रवद्वारम् तं तु मिथ्यादर्शनसह गतौ हि राग-द्वेषौ सम्पूर्णकर्मस्रोतो भवति, तदभावे तु शेषा आश्रवा यद्यपि भवन्ति तथापि न सर्वा उत्तरप्रकृतयो बध्यन्ते, न चासम्पूर्णाः । यस्मादुक्तम्- “सम्मद्दिट्ठी जीवो." [ वंदित्तु० गा० ३५ ] । 20 अथवा कसिणद्रव्यश्रोतः प्रावृषि वर्षासु वा नदीपूरः, एवं मिच्छत्तसहगता जोगा कसाया वा संपुण्णभावसोतं भवति । त• एवं सोतमावण्णा आगंतारो महब्भयं महब्भयमिति संसार एव जाति-जरा-मरणबहुलो । तं जधा - गन्भतो गब्भं जम्मतो जम्मं मारयो मारं दुक्खतो दुक्खं, एवं भवसहस्साई पर्यटन्ति बहून्यपि ॥ ३० ॥ एत्थं चैव पसत्थभावमग्गे वणिज्जमाणे पुव्वं वृत्तं - "जं किंचि अभिसंकिजा सव्वसो तं ण भोत्तए" [ सूत्रं ५१० ] एस उस्सग्गमग्गो इत्यादि अतिप्रसक्तं लक्षणं निवार्यते, सर्वस्योत्सर्गस्यापवादः, यथा चोत्सर्गः काश्यपेन प्रणीतः [तथाऽपवादः ] 25 इत्यतोऽपवादसूत्रं प्रारभ्यते । प्रत्ययश्च शिष्याणां भविष्यति - यथाऽस्त्यपवादोऽपीति, तेन तमाचरन्तो नामाऽऽचारवन्तमात्मानं मंस्यते । तच्च शास्त्रमेव न भवति यत्रोत्सर्गा ऽपवादौ न स्तः, तेनापदिश्यते— ५२६. ईमं च धम्ममादाय कासवेण पवेदितं । कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स अगिलाए समाहिए ॥ ३१ ॥ १ 'दयो मयन्ति पु० ॥ २ वेगे पु १ ॥ ३ 'सतेस खं २ पु १ ॥ ४ अष्टाविंश- एकोनत्रिंशसूत्रश्लोकयोरन्तराले— सुद्धं मग्गं विरात्ता इहमेगे उ दुम्मती । उम्मग्गगता दुक्खं घंतमेसंति तं तथा ॥ इत्ययं सूत्रश्लोकः प्राचीना-ऽर्वाचीनतालपत्र- कद्गलोपरिलिखितसूत्रप्रतिषु वर्तते, वृत्ति-दीपिका कृयामप्ययं सूत्रश्लोको व्याख्यातोऽस्ति, किन्तु चूर्णिकृता भगवता व्याख्यातो नास्ति । घातमे संति तं तहा पू १ ॥ ५° विर्णि णावं जातिअंधे खं १ खं २५ १५२ ॥ ६ इच्छती खं १ खं २ वृ० दी ० ॥ ७ °सीयती खं १ खं २ पु १ । सीयई पु २ ॥ ८ " सम्मद्दिट्ठी जीवो जइ वि हु पावं समायरे किंचि । अप्पो सि होइ बंधो जेण ण णिधसं कुणइ ॥” इति पूर्णा गाथा ॥ ९ प्राचीना-र्वाचीनेषु सूत्रादर्शेषु वृत्ति-दीपिकयोश्च व्याख्याने एकत्रिंश-द्वात्रिंशसूत्रश्लोकयुगलस्थाने— इमं च धम्ममादाय कासवेण पवेदितं । तरे सोयं महाघोरं अत्तत्तार परिव्वर ॥ इतिरूप एक एव सूत्रश्लोकस्तव्याख्या च दृश्यते, तथा वृत्ति-दीपिकयोः कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स अगिलाएं समाहिप इत्युत्तरार्धस्य पाठभेदो निर्दिष्टो वर्तते ॥ For Private Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुप्तगा० ५२३-३० ] सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो । ५२७. संखाय पेसलं धम्मं दिट्टिमं परिणिव्वुडे । तरे सोतं महाघोरं अत्तत्ताए परिव्वज्जासि ॥ ३२ ॥ ५२६. इमं च धम्ममादाय० सिलोगो । धर्ममादाय धर्मं च फलम् । तीर्थकरः काश्यपः । स एव भगवान् किं प्रवेदितवान् ? कुजा भिक्खु गिलाणस्स पूर्ववत् ॥ ३१ ॥ किञ्च ५२७. संखाय पेसलं धम्मं० [ सिलोगो ] । संख्यायेति ज्ञात्वा । पेसलं इति सम्पूर्णम् । द्रव्यपेसलं यद्धि मेद - 5 दन्तुरं मांसम्, भावपेशल ज्ञान- दयादिभिः सर्वैर्धर्मकारणैः सम्पूर्णो धर्म एव । तं ज्ञात्वा दृष्टिमानिति सम्यग्दृष्टिः । सङ्ख्याग्रहणाद् [ ज्ञानम्, ] धर्मग्रहणाच्चारित्रम्, दृष्टिग्रहणात् सम्यग्दर्शनम्, एवं त्रीण्यपि सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्राणि गृहीतानि भवन्ति । तरे सोतं महाघोरं, मार्ग एवानुवर्त्तते, तराहि सोतं महाघोरं, श्रवतीति स्रोतः, द्रव्ये भावे च, जाति-जरामरणा-ऽप्रियसंवासादिभिर्महाघोरं भावश्रोतः संसारः । अत्तत्ताए त्ति अत्ताणं तारंतो परिव्वज्जासि ॥ ३२ ॥ तमेवं तरति — ५२८. विरते गामधम्मेहिं जे केई जगती जगा । २०३ 'तेसिं अतुवमाणेण थामं कुव्वं परिव्वए ॥ ३३ ॥ ५२८, विरते गामधम्मेहिं० सिलोगो । ग्रामधर्माः शब्दादयः । जे केई जगती जग ति जायत इति जगत् तस्मि जगति विद्यन्ते ये, जायन्त इति वा जगा: जन्तवः, तेसिं अत्तुवमाणेण तेषां आत्मोपमानेन आत्मौपम्येन, कोऽर्थः ? "जध मम णपियं दुक्खं०” । पठ्यते च - "तेसिं ता उवमाऽऽताए" आताए त्ति आत्मोपमं गृहीत्वा ज्ञात्वेत्यर्थः, "जह मम ण पियं दुक्खं०" । थामं कुव्वं परिव्वए त्ति संयमवीरियं कुव्वं ॥ ३३ ॥ 15 तं तु एवं संयमवीरियं भवति ५२९. अतिमाणं च मायं च तं परिण्णाय पंडिते । समेत णिरे किंवा णेव्वाणं संघए मुणी ॥ ३४ ॥ ५२९. अतिमाणं च० सिलोगो । अधवा संयमवीरियस्स इमे विग्घकरा भवंति । तं जधा - अतिकोधो अतिमाणो अतिमाया अतिलोभो इति, अतः तं अतिमाणं च मायं च, अतिक्राम्यते येन चारित्रं सोऽतिमाणं, अप्रशस्त इत्यर्थः, 20 प्रशस्तोऽपि न कार्यः, किन्तु तत् क्रियार्थमेव क्रियते, रजक - कूपखातकदृष्टान्तसामर्थ्यात् । यथा - रजको मलदिग्धानि वस्त्राणि प्रक्षालयन् शुद्ध्यर्थमन्यदपि मलं औषधादिकं समादत्ते एवं साधुरपि । कूपेऽप्येवम् । न च नामावीतरागस्य मानादयो नोत्पद्यन्ते, ते त्वप्रशस्ता नरेण न कार्याः, एवं शेषा अपीति । दुविधाएं परिण्णाए परिजाणाहि । किञ्च ये केचित् क्रोधमान-माया-लोभाद्याः दो [षा: ] जाव मिच्छादंसण त्ति इत्येवमाद्यन्यदपि दोषजातं सव्वमेतं निरे किच्चा, सव्वं निरवसेसं एतदिति यदुद्दिष्टम्, निरमिति पृष्ठम्, णेव्वाणं अच्छिण्णसंघणाए सन्धए ।। ३४ ।। किच- ५३०. 'संघ साधुधम्मं च पावधम्मं णिरे कॅरे । उधाणवीरिए भिक्खू कोधं माणं ण पत्थये ॥ ३५ ॥ १ तेसिं अत्तुवमाया २ णिराक्रिश्वा खं १ खं २ पु पावं धम्मं खं १ वृ० दी० ॥ 10 ५३०. संघ साधुधम्मं च० सिलोगो । दसविधो चरित्तधम्मो णाण-दंसण - चरिताणि वा तं अच्छिन्नसंधणाए, णाणे अपुव्वगहणं पुव्वाधीतं च गुणाति, दंसणे णिस्संकितादि, चरित्ते अखंडितमूलगुणो । पठ्यते च - “सद्दहे साधुधम्मं च" । पावधम्मो अण्णाण - अविरति-मिच्छत्ताणि, अधवा पावाणं धम्मो, पापा मिध्यादृष्टयः सर्वे गृहिणोऽन्यतीर्थिकाच, तेसिं 30 धम्मं सभावं, निरे कुर्यादिति पृष्ठतः कुर्यात् । तत् केन कुर्यात् ? को वा कुर्यात् ? इति उच्यते, उवधाणवीरिए मिक्खु, उपधानवीर्य नाम तपोवीर्यम्, स उपधानवीर्यवान् भिक्खू । कोधं माणं ण पत्थये, न क्रुध्येत न मायेत, न क्रोधमिच्छेदित्यर्थः, अक्रोधं तु प्रार्थयेत्, एवं शेषेष्वपि ॥ ३५ ॥ For Private Personal Use Only 25 थामं खं १ खं २ पु १ वृ० दी० । तेसिं अप्पोवमाया थामं पु । २ तेर्सि ता उवमाऽऽताप चूपा० ॥ १ पु २ वृ० दी० ॥ ३ संघते साधु खं २ । सहहे साधु चूपा० नृपा० ॥ ४ पावकम्मं खं २ । ५ णिराकरे खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ६ माणं च वज्जते खं १ ख २ पु १ पुं२ ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ 10 णिजुत्ति थुपिणनमा किय [१२ समोसारणलायन स्यात्-किमेवं वर्द्धमानखामी एतन्मार्गमुपदिश्या ? उत्तान्येऽपि तीसंकराः ?, उच्च्यते५३१. जे य बुद्धा अतिकताले य बुद्धा अणागता। संलि लेसिं पतिवाणं भूयाण जगई जहा ॥ ३६॥ ५३१. जे य बुद्धा अतिकता० सिलोगो । अतिकता अतीतद्धाए अणंता एतन्मार्गमपदिश्य से आचार्या वा मोक्ष5 मिताः, साम्प्रतं पत्रमशसु कर्मभूमीषु सोयाः, अणागतद्वाए जे य बुद्धा अणागता । 'संति तेति पतिड्डाणं गमनं शान्तिधारिखमार्ग इत्या, एषा शान्तिः तेषां प्रतिष्ठानं आधारः आश्रय इत्यर्थः । प्रतिष्ठानं प्रतिष्ठा निर्वाणं वा शान्तिः । तेको प्रतिझने को दृष्टान्ता भयाण जगई जहा. जगती नाम पृथिवी, यथा सर्वेषां स्थावर-जङ्गमानां जगती प्रतिष्ठान तथा सर्वतीर्थकराणामपि एष एव शान्तिमार्गी प्रतिष्ठानम् ॥ ३६॥ ५३२. अहणं वतभावणं फासा उच्चावचा फुसे। ___ण तेहिं विणिहम्मेज्जा वातेण व महागिरी ॥ ३७॥ ५३२. अह णं वतमावणं० सिलोगो । अथ पुनस्तं व्रतानि आपण्णं चारित्रमार्गप्रयातमित्यर्थः । पठ्यते [च]"अवेर्ण मेदमाषणं" भावभेदो हि संयम एव, काणि भिनत्तीति भेदः । फासा सीत-उसिण-दंशमशकादयः उच्चावचा अनेकप्रकाराः परीषहोपसर्गाः स्पृशेत् । ण तेहिं विणिहम्मेजा, ण तेहि उदिण्णेहि वि णाण-दसण-चरित्तसंजुत्ताओ मग्गाओ विगिहण्णेजा, [आणु]पुष्वीए जिणंतो संयमवीरियं उम्पादेज्जासि त्ति, जधा ते गुरुगा वि उदिष्णा लहुगा भवति । दृष्टान्तः आमीरयुवतिः-जातमेत्तं वच्छगं दुण्णि घेलाए उक्खिविऊण णिक्खामेति, पीतं चैनं पुनः प्रवेशयति । तमेवं क्रमशो बर्द्धमानं अहरहर्जेयं कुर्वती जाव चउहायणं पि उक्खिवेति । एष दृष्टान्तः । अयमर्थोपनयः-एवं साधरपि सन्मार्गात् क्रमशो जयाद् उदीर्णैरपि परीषहेर्न विहन्येत । वातेण व महागिरिरिति मन्दरः ॥ ३७ ॥ ५३३. संवुडे से महापण्णे बुद्धे दत्तेसणं चरे। णिन्वुडे कालमाकंखी एवं केवलिणो मतं ॥ ३८॥ ति बेमि॥ ॥ मग्गो सम्मत्तो एकारसमज्झयणं ॥११॥ ५३३. संवडे से महापण्यो सिलोगो । स एवं संवरसंवृतः [महापणणे] प्रधानप्रशः विस्तीर्णप्रजो बा । स्वाति बुब्लादीन गुणानिति बुद्धः। पाठान्तरम्-“वीरे" । दत्तं एसणं चरेवासि त्ति दत्चेसणं चरे, अधवा दत्तमेषमीयंत्र सभरवि स भवति दवैषणचरः। पिवुडे कालमाकंखी, शान्तः समितो णिचुडा, शीतीभूत इत्यर्थः । कालं काढतीति कालकंखी, मरणकालमित्यर्थः । कोऽथा ? वावदनेन सन्मार्गेण अविश्रामं गन्तव्यं यावन्मरणाकालः । एवं केवलियो मतं नि, 25 जं तुमे ! पुच्छितं "कतरे णं मग्गे" [सूत्रं ४९६] तदेतदस्य केवलिनो मार्गभिधानं कथितमनन्तरमाख्यातमिति ॥ ३८॥ ॥ इति मार्गाध्ययमम् ॥ ११ ॥ - १किमेनं बर्द्ध चूसप्र.॥ २संति त्ति संति पति सं० वा. मो० । संत त्ति संत पति पु०॥ ३ अघेणं दमावणं चूपा ॥४ण तेसु विणिहाणेजा खं १ खं २ पु १ पु २॥ ५ वातेणेव खं १ खं २ पु २॥ ६ धीरे दत्ते ख १२ पु पु २५०बी०वीरे दत्तेखणचरे खूपा. ७एवं वृदी.॥ Jain Education Intemational Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशा० ५३१-३३ णिजुत्तिगा० १०९-११] सूयगडंगसुत्तं विइयसंगं पढमो सुयक्खंधो। २०५ १२ [बारसमं समोसरणज्झयणं ] 09 समोसरणं ति अज्झयणस्स चत्तारि अणुओगद्दारा । अधियारो किरियावादिमादीहिं चतुहिं समोसरणेहिं । णामणिप्फण्णे णिक्खेवो गाधा समोसरणम्मि वि छक्कं सच्चित्ता-चित्त-मीसगं दव्वे । खेत्तम्मि जम्मि खेत्ते काले जं जम्मि कालम्मि ॥१॥१०९॥ समोसरणम्मि वि छकं० गाधा । वइरित्तं दव्वसमोसरणं सम्यक् समस्त वा अवसरणं समवसरणम् । तं तिविधंसचित्तं दुपदादि०। यत्रैकत्र बहवो द्विपदाद्या बहवो मनुष्याः समवसरन्ति तं सचित्तं दव्वसमोसरणं । दुपदसमोसरणं जधा साधुसमोसरणं १ चतुष्पदानां निवाणादिषु गवादीनां समोसरणं २ अपदानां नास्ति स्वयं समोसरणम् , गत्यभावात्, सहजानां वा खयमपि भवति वृक्षादीनां समोसरणं ३ । अचेतनानामभ्रादीनाम् । खेत्तसमोसरणं जम्मि खेत्ते समोसरन्ति द्रव्याणि, जधा साधुणो आणंदपुरे समोसरंति । कालसमोसरणं वैसाहे मासे जत्ताए समोसरंति, वासासु वा जत्थ समोसरंति 10 तधा पक्खिणो दिवाचरा वनखण्डमासाद्य समवसरन्ति ॥ १ ॥ १०९ ॥ भावसमोसरणं पुण णायव्वं छविहम्मि भावम्मि । अधवा किरिय अकिरिया अण्णाणी चेव वेणइया ॥२॥ ११०॥ भावसमोसरणं पुण० गाधा । तिण्णि तिसट्ठा पावादियसयाणि णिग्गंथे मोत्तूण मिच्छादिट्ठिणो त्ति काऊण उदइए भावे समोसरंति, इंदियादि पडुच्च खओवसमिए भावे समोसरंति, जीवं प्रतीत्य अणादिपारिणामिए भावे समोसरंति, एतेसु 15 चेव तिसु भावेसु तेसिं सण्णिवातिओ भावो जोएतव्यो । सम्मट्टिी किरियावादी तु छसु वि भावेसु । उदईए भावे अण्णाणमिच्छत्तवज्जासु असु वि कम्म[प]गतीसु समोसरंति, एवं चरित्ताचरित्ती य जोएयव्वा । उवसमिए वि भावे समोसरंति, उवसामगं पडुच्च, उपशममङ्गीकृत्य यदुक्तं भवति, अस्मिन्नेव भङ्गद्वये भवन्ति । खयोवसमिए वि भावे समोसरंति, अट्ठारसविधे खयोवसमिस भावे, तद्यथा-ज्ञाना-ऽज्ञान-दर्शन-दानलब्ध्यादयश्चतुः-त्रि-त्रि-पञ्चभेदाः सम्यक्त्व-चारित्र-संयमासंयमाश्च । णाणं चउठिवह-प्रति-सुत-ओधि-मणपजवाणि । अण्णाणं तिविध-मतिअण्णाणं सुतअण्णाण विभंगणाणं । ज्ञा ज्ञानमिति यदुक्तं तदेकभवाकर्षानङ्गीकृत्य, यद्वा सामान्येन, केवलिनो वा विदन्ति । दरिसणं तिविधं-चक्खु-अचक्खु-अवधिदंसणमिति । लब्धिः पञ्चविधा-दापा-लाभ-भोगोपभोग-वीरियलद्धी इति । सम्मत्तं चरित्तं संयमासंयम इत्येतेऽष्टादश क्षायोपशमिका भावा भवन्ति । णवविध खाइगे भावे समोसरंति, तद्यथा-ज्ञान-दर्शन-दान-]लाभ-भोगोपभोग-वीर्याणि च । णाणं केवलणाणं, दसणं केवलदसणं, दाण-लाभ-[भोगोपभोग-वीर्यमित्येतानि सम्यक्त्व-चारित्रे च नव क्षायिका भावा भवन्ति । पारिणामिगे वि अणातियपारिणामिगे भावे समोसरंति । एवं सण्णिवातिगे वि सण्णिकासो कायव्वो-द्विकादिचारणिका । अधवा भावसमोसरणं 25 चतुविधं, तं जधा-किरियावादी १ अकिरियावादी २ अण्णाणियवादी ३ वेणइयवादी ४ ॥ २ ॥ ११० ॥ अस्थि त्ति किरियवादी वयंति १णत्थि त्ति अकिरियवादी य २। अण्णाणी अण्णाणं ३ विणइत्ता वेणइयवादी ४॥३॥ १११॥ अस्थि ति किरियवादी० गाधा । तत्थ किरियवादी अस्थि आयादि जाव सुचिण्णाणं कम्माणं सुचिण्णा फलवि १ समवसरणे वि छक्कं खं १ । समवसरणम्मि छक्कं खं २ पु २॥ २ जम्मि जावइयं खं १॥ ३णेयव्वं पु २॥ Jain Education Intemational Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१२ समोसरणज्झयणं वागा तधा वि ते मिच्छादिही चेव जैनं शासनं अनवगाढा १। तद्विधर्मवादिनो अकिरियावादिणो, तं जधा-णत्थि आतादि जाव णो सुचिण्णाणं कम्माणं सुचिण्णा फलविवागा भवंति २ । अण्णाणीवादि त्ति किं णाणेण पढितेण ? सीले उज्जमितव्वं, ज्ञानस्य हि अयमेव सारः, जं सीलसंवरः, सीलेन हि तपसा च स्वर्ग-मोक्षौ लभ्येते ३ । वेणइयवादिणो भणंति-ण कस्स वि पासंडस्स गिहत्थस्स वा णिंदा कायव्वा, सव्वस्सेव विणीयविणयेण होतव्वं ४॥३॥ १११ ॥ असियसयं किरियाणं अकिरियाणं च होति चुलसीती। अण्णाणिय सत्तट्ठी वेणइयाणं च बत्तीसा ॥ ४॥ ११२॥ असियसयं किरियाणं० गाधा । तं जधा"णत्थि ण णिच्चो ण कुणइ कतं ण वेदेइ णत्थि व्वाणं ।" [सन्मति० का० ३ गा० ५४] सङ्ख्या वैशेषिका ईश्वरकारणादि अकिरियावादी चउरासीति, तच्चिणिगादि क्षणभङ्गवादित्वात्तु क्षणवादिनः। 10 अण्णाणियवादीण सत्तट्ठी, ते तु मृगचारिकाद्याः । वेणइयवादीणं बत्तीसा दाणाम-पाणामादिप्रव्रज्यादि ॥ ४ ॥ ११२ ॥ __* तेसि मताणुमतेणं पण्णवणा वण्णिता इहऽज्झयणे । सम्भावणिच्छयत्थं समोसरणमाह तेणं ति॥५॥ ११३ ॥ - तेषां क्रिया-ज्ञानवादिनां यद् यस्य मतं यच्च यस्य न मतं तेषां समवायेन त्रीणि त्रिषष्टानि प्रावादुकशतानि ५. भवन्ति । तद्यथा आस्तिकमतमात्माद्या नित्या-ऽनित्यात्मका नव हि सन्ति । काल-नियति-स्वभावेश्वरा-ऽऽत्मकृतितः स्व-परसंस्थाः १८०॥१॥ एवं असीतं किरियावादिसतं । एएस पदेसणं चिंतितंजीव अजीवा आसव बंधो पुण्णं तहेव पावं ति । संवर णिज्जर मोक्खो सब्भूतपदा णव हवंति॥१॥ इमो सो चारणोवाओ-अत्थि जीवः स्वतो नित्यः कालतः १ अस्थि जीवो सतो अणिच्चो कालतो २ अस्थि जीवो परतो निच्चो कालओ ३ अस्थि जीवो परतो अणिच्चो कालओ एर्क, अस्थि जीवो सतो णिच्चो णियतितो १ एवं णियतितो एक, 20 स्वभावतो एक, [ईश्वरतो एक ], आत्मतः एक, एते पंच चउक्का वीसं २० । एवं अजीवादिसु वि वीसावीसामेत्ताओ, णव वीसाओ आसीतं किरियावादिसतं १८० भवति । इदाणिं अकिरियावादी काल-यदृच्छा-नियति-स्वभावेश्वरा-ऽऽत्मतश्चतुरशीतिः । नास्तिकवादिगणमतं न सन्ति सप्त स्व-परसंस्थाः ८ एके ॥१॥ . इमेनोपायेन-णत्थि जीवो सतो कालओ १ णत्थि जीवो परतो कालतो २ एवं यदृच्छाए वि दो २ णियतीए वि दो 25२ इस्सरतो वि दो २ स्वभावतो वि दो २, [आत्मतो वि दो २,] सव्वे वि बारस, जीवादिसु सत्तसु गुणिता चतुरासीति भवंति ८४ । इदाणिं अण्णाणिय० अज्ञानिकवादिमतं नव जीवादीन सदादिसप्तविधान् । भावोत्पत्तिः सदसद्-द्वैता-ऽवाच्यं च को वेत्ति ? ६७ ॥१॥ इमे दिद्विविधाणा-सन् जीवः को वेत्ति? किंवा तेण] णातेण ? १ असन् जीवः को वेत्ति ? किं वा तेण णातेण? 30२ सदसन् जीवः को वेत्ति ? किं वा तेण णातेण? ३ अवचनीयो जीवः को वेत्ति ? किं वा तेण णातेण? एक, एवं सद वचनीयः ५ असदवचनीयः ६ सदसदवचनीयः जीवे वि ७, एवं अजीवे वि ७ आश्रवे वि ७ बंधे वि ७ पुण्णे वि ७ पावे वि ७ संवरे वि ७ णिज्जराए वि ७ मोक्खे वि ७ । एवमेते सत्त णवगा तिसट्ठी ६३ इमेहिं संजुत्ता सत्तसट्ठी ६७ १ अकिरियवाईण होइ खं १॥ २ अण्णाणी सत्तट्टि पु २॥ ३ बत्तीसं खं १॥ ४ तु खं १ खं २ पु २ वृ०॥ ५८ पक चतुरशीतिरित्यर्थः ॥ Jain Education Intemational nternational Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ५३४ णिजुत्तिगा० ११२-१४] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। २०७ हवंति, तं जधा-सती भावोत्पत्तिः को वेत्ति ? किं वा ताए णाताए ? १ असती भावोत्पत्तिः को वेत्ति ? किं वा ताए णाताए ? २ सदसती भावोत्पत्तिः को वेत्ति ? किं वा ताए णाताए ? ३ अवचनीया भावोत्पत्तिः को वेत्ति ? किं वा ताए णाताए ? ४ । उक्ता अज्ञानिकाः । इदाणि वैनयिका: वैनयिकमतं विनयश्चेतो-वाक्-काय-दानतः कार्यः । सुर-नृपति-यति-ज्ञातृ-स्थविरा-ऽवम-मातृ-पितृषु सदा ॥ १ ॥ - 10 सुराणां विनयः कायव्वो, तं जधा-मणेणं १ वायाए २ कारणं ३ दाणेणं ४, एवं रायाणं ट्रे जतीणं टू णातीणं टू थेराणं ट किवणाणं टु मातुः टु पितुः ८, एवमेते अट्ठ चउक्का बत्तीसं ३२ । सव्वे वि मेलिया तिणि तिसट्ठा ३६३ पावादिगसता भवंति । एतेसिं भगवता गणधरेधि य सब्भावतो निश्चयार्थ इहाध्ययनेऽपदिश्यते, अत एवाध्ययनं समवसरणमित्यपदिश्यते ॥ ५॥ ११३ ॥ एते पुण तिण्णि तिसट्ठा पावादिगसता इमेसु दोसु ठाणेसु समोसराविजंति, तं जधासम्मावादे य मिच्छावादे य । तत्थ गाधा सम्मदिट्टी किरियावादी मिच्छा य सेसगा वाती। चइऊण मिच्छवायं सेवह वायं इमं सच्चं ॥६॥११४ ॥ ॥समोसरणं सम्मत्तं ॥ १२ ॥ सम्मदिट्टी किरियावादी० गाधा। तत्र क्रियावादित्वेऽपि सति सम्मद्दिविणो चेव एगे सम्मावादी, अवसेसा चत्तारि वि समोसरणा मिच्छावादिणो अण्णाणी अवि त परस्परविरुद्धदृष्टयः, तेण मोत्तूण अकिरियावादं संवादं वादं लभ्रूण 15 विरतिं च अप्पमादो कायम्बो जधा कुदंसणेहिं ण छलिज्जसि । तेण धम्मे भावसमाधीए भावमग्गे य घडितव्वमिति ॥६॥ ११४ ॥ णामणिप्फण्णो णिक्खेवो गतो । सुत्ताणुगमे सुत्तं । अभिसंबंधो अज्झयणं अज्झयणेण-तेण णिव्वुडेण पसत्थभावमग्गो आमरणंताए अणुवालेतव्वो, संसंग्गे अप्पा भावेतव्यो, कुमग्गसिता य जाणिउं पडिहणंतव्वा, अतो चत्तारि समोसरणाणि । अधवा णामणिप्फण्णे वुत्ता समोसरणा ते इमे त्ति ५३४. चत्तारि समोसरणाणिमाणि, पावादुया जाइं पुढो वदंति। किरिय" अकिरियं विणयं ति ततियं, अण्णाणमाहंसु चउत्थमेव ॥१॥ ५३४. चत्तारि समोसरणाणि सिलोगो (वृत्तम्) । चत्तारि त्ति संखा, पंचादिपडिसेधत्थं अंते चतुण्ह गमणं । समवसरंति जेसु दरिसणाणि दिट्ठीओ वा ताणि समोसरणाणि । इमानीति वक्ष्यमाणानि । प्रवदन्तीति प्रावादिकाः । पिधं : पिधं वदंति पुढो वदंति । तं जधा-किरियं [अकिरियं] विणयं [ति ततियं ] अण्णाणमाहंसु चउत्थमेव । तत्थ किरियावादीणं अत्थि जीवो, अत्थित्ते सति केसिंच सव्वगतो केसिंच असव्वगतो, केसिंच मुत्तो केसिंच अमुत्तो, केसिंच 25 अंगुट्टप्पमाणमात्रः केसिंच श्यामाकतन्दुलमात्रः, केसिंच हिययाधिट्ठाणो पदीवसिहोवमो, किरियावादी कम्मं कम्मफलं च अस्थि त्ति भणंति १ । अकिरियावादीणं कत्ता णत्थि फलं त्वस्ति, केसिंच फलमवि णत्थि, ते तु जधा पंचमहाभूतिया चतुभूतिया खंधमेत्तिया सुण्णवादिणो लोगायतिगा इच्चादि अकिरियावादिणो २ । अण्णाणिया भणंति-जे किर ; व तत्थववजति. किं णाणेणं तवेणं व ? त्ति, ते तु मिगचारियादयो अडवीए पुप्फ-फलभक्खिणो अञ्चादि अण्णाणिया ३ । वेणइया तु आणाम-पाणामादीया कुपासंडा ४ ॥ १ ॥ तत्थ पुव्वं 30 220 १°शाति वृत्तौ ॥ २८ इति चतुःसङ्ख्याज्ञापकोऽक्षराङ्कः॥ ३ गणधरैश्च ॥ ४ सिद्धा य खं १॥ ५ जहिऊण खं २ पु २॥ ६ सम्मादिट्टी वादी वा० मो०॥ ७ अपि च इत्यर्थः । अविरतपर पु० सं० वा०॥ ८संवादं ल° सं० वा. मो० ॥ ९संसग्गो अप्पभावे चूसप्र० ॥ १० जाई खं २॥ ११ यं च अपु १॥ १२ विणइत्ति खं २ पु १ पु २॥ १३ अञ्चादि अत्यागिन इत्यर्थः ॥ Jain Education Interational Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१२ समोसरणायणं ५३५. अण्णार्णिया ताव कुसला वि संता, असंथुता णो वितिगितिण्णा। अकोविता आहु अकोवितेहि, अणाणुवीय त्ति मुसं वदति ॥५॥ ५३५. अण्णाणिया ताव कुसला वि संता० वृत्तम् । अकुशला एव धम्मोवायरस । असंधुता णाम ण लोइयपरिक्खगाणं सम्मप्ता सव्वसत्थबाहिरा मुक्का। वितिगिंछतिण्ण त्ति वितिगिंछा णामा मीमंसा तिण्ण त्ति तीर्णाः, णस्थि त्ति तेसिं वितिगिंछा अण्णाणित्तणेणं । अथवा ससमए वि ताव केसिंचि वितिगिंछा उप्पज्जति, किं तर्हि परसमये ?, तं कतरेण उवदेसेण करेस्संति विचिकित्साऽभावं ? । जो वि तेसिं तित्थगरो तस्स वि ण सुत्तं ण अत्थविचारणा, अध अस्थि समयहाणी, त एवं अकीविता, ग त सयं अकोविदा अकोविदानामेव कथयन्ति, को हि णाम विपश्चित् तान् अब्रवीत् ? जधा अण्णाणमेव सेयं अबद्धगं च, अणाणुवीय ति अपूर्वापरतो विचिन्त्य यत् किश्चिदेवासर्वज्ञप्रतीतत्वाद् बालवद् मुसं वदंति । शाक्या अपि प्रायशः अज्ञानिकाः, येषामविज्ञानोपचितं कर्म नास्ति, जेसिं च बाल-मत्त-सुत्ता अकम्मबद्धंगा, ते 10 सव्व एव अण्णाणिया । सत्थधम्मता सा तेसिं जध चेव ठितेल्लगा तध चेव उवदिसंति, जधा-अण्णाणेण बंधी थि, तह चेव ताणि सत्थाणि णिबद्धाणि ॥२॥ ५३६. सच्चं मोसं इति चिंतयंता, असाधु साधु ति उदाहरति । जेमे जणा वेणइया अणेगे, पुट्ठा वि भावं वियिंसु णामा ॥३॥ ५३६. सच्चं मोसं इति चिंतयंता असाधु साधु ति उदाहरति० [वृत्तम् ] । 'सच्चं पि कताई मोसं होज' त्ति 15 एवं ते चिंतयंता सच्चं पि ण भणति । कथम् ?, साधु दह्रण ण साधु त्ति भणंति, कताइ सो साधू होज कताइ असाधू कताइ चउविओ कताइ पावंचितो, चोरो वा कदाचिदचोरः स्यात् कदाचिच्चोरः, एवं स्त्री-पुरुषेष्वपि वैक्रियः स्वाद् वेसकरणे योजइतव्वं, गवादिषु च यथासम्भवं स्थाणु-पुरुषादिषु चेति । एवं सर्वाभिशङ्कित्वात् तदसाधुदर्शनं साध्विति झुवते साधुदर्शनं चासाध्विति । अथवा-"सचं मुसं ति (? असचं) इति भासयंता" जो जिणप्पणीतो मग्गो समाधिमग्गो तमेते अण्णाणिया सच्चमपि संतं असचं ति भणंति, अथवा सच्चो संयमो तं सत्तदसप्पगारमवि असचं भणंति, असंजममित्यर्थः । 20 जधा ते किल भणंति तहा सञ्चं भणंति, अणुवातो सच्चं, तं च कुदंसणमण्णाणवादं असाधु पि साधु ति भणंति, असाधू अ अण्णाणिया साधु त्ति भणति, तच्छासनप्रतिपन्नाश्च असाधूनपि साधून ब्रुवते । वुत्ता अण्णाणिया । इदाणी वेणइयवादी जेमे जणा वेणइया अणेगे, पुट्ठा वि भावं विणयिंसु णामा, जे त्ति अणिहिट्ठणिदेसो, जना इति पृथग्जनाः, विनये नियुक्ताः वैनयिकाः, अणेगे इति बत्तीसं वेणइयवादिभेदा, ते पुट्ठा परेण अपिशब्दाद् अपुट्ठा वि विणयिंसु भावं ति, भावो नाम यथार्थोपलम्भः, तमपि यथार्थोपलम्भं विणयिंसु तथा वा स्याद् अन्यथा वा, एवं तावत् तेषां 25 सत्यं भविष्यति । अथवा पुट्टा वा 'कीदृशो वो धर्मः ?' इत्युक्ता ब्रुवते-सर्वथा परिगण्यमानः परीक्ष्यमाणः मीमांस्यमानो वा अयमस्माकं धर्मः विणयमूलेण गोगोरुहयधम्मेगेण जणों णाधियो(?) । कहं ? जेण वयमवि विणयमूलमेव धम्म पण्णवेमो, कथम् ? इति चेत् , येन वयं सर्वाविरोधिनः सर्वा(व)विनयविनीताः मित्रा-ऽरिसमाः सर्वप्रव्रजितानां सर्वदेवानों प्रणाम कुर्मः । न च यथाऽन्ये वादिनः परस्परविरुद्धास्तथा वयमपि-अम्हं पुण पव्वइये समाणे, जं अधा पासति इंदं वा खंदं वा जाव उच्चं पासति उच्च पणामं करेति, णीयं पासति णीयं पणामं करेति । उच्च इति स्थानतः ऐश्वर्यतः, तमुचं 30 रावाणं अण्णतरं वा इस्सरं दट्ठणं प्रणाममात्रं कुर्मः, णीयस्स तु साणस्स वा पाणस्स वा णीयं पणामं करेति, भूमितलगतेज सिरसा प्रह्लाः प्रणामम् ॥ ३ ॥ अहो! त एवं बालिशा: १°णिता ता कुखं १ खं २ पु १ पु २॥ २ असंकया पु १॥ ३°गिच्छ खं २॥ ४ अकोवियाए, अखं १ । अकोविएते, अ° खं २ पु १ पु २॥ ५°वीयीति मु. खं २ पु १। वीईइ मुपु २॥ ६ ण नं खयं चूसप्र०॥ ७ सचं असचं इति चिंतयंता खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० । सच्चं असच्चं इति भासयंता चूपा०॥ ८ हरंता सं १ पु२ ॥ ९ विणइंसु णाम खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी । विणयं सुणेमो पुचू० ॥ १०°हरंता सं० वा. मो० ॥ ११ वस्त्वात् चूसप्र. १२ अनुपायः असाधनमित्यर्थः॥१३ जे इमे वे° पु०॥१४विणयं सुणेमो, जे पु०॥ १५ अबुद्धा विचूसप्र०॥ १६ पुण्यसंकुर्मःचूसत्र०॥ Jain Education Interational Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा०५३५-३७] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। . २०९ ५३७. अणोपसंखा इति ते उदाहु, अढेस ओभासति अम्ह ऐवं । लवासकी य अणागतेहिं, णो किरियमाहंसु अकिरियआता ॥४॥ ५३७. अणोपसंखा इति ते उदाहु० वृत्तम् । संखा इति णाणं, संखाए समीवे उपसंखा, ण उपसंखा अणोपसंखा, अज्ञाना इत्यर्थः, अनोपसंख्यया त एवमाहुः । उदाहरंति स्म उदाहुः। अढेस ओभासति, अर्थो नाम सत्यवचनार्थः, ओभासति उज्जोवेति प्रभासति, एवं चेतसि नः प्रकाशयतीत्यर्थः, एवं च समीक्ष्यमाणं सत्यवचनं स्यात्, अन्यथा तु तथा । नान्यथा च भवति । अथवा "अढेस नो भासति" त्ति, अर्थो नाम धर्मार्थः एवं चेतसि नः प्रभासति, एवं च प्रकाशयति, एवं च दृश्यते युज्यमानः, आर्हद्धर्मेण किलावभासते, " तु सेसेहिं अण्णाणिय-किरियवादीहिं घडते । कहं ?, जेणं ते जात्यादिराग-द्वेषाभिभूता तेण तुल्लोऽवभासति । भणिता वेणइया । इदाणिं अकिरियवादीदरिसणं-लवावसकीय अणागतेहिं, लवमिति कर्म, वयं हि लवात्-कर्मबन्धात् अवसक्कामो फिट्टामो अवसराम इत्यर्थः, संववहारबंधेणावि ण बज्झामो, किं पुण णिच्छयतो?। उपचारमात्रं तु तद्यथा बद्धा मुक्ताश्च कथ्यन्ते मुष्टिप्रन्थिकपोतकाः । न चान्ये द्रव्यतः सन्ति मुष्टिप्रन्थिकपोतकाः ॥ १॥ 10 ते हि वातूलिकाः शाक्यादयः आत्मानमेव नेच्छन्ति, किं पुनस्तद्वन्धम् ? इति । अणागते त्ति कालग्रहणाद् अनागतेऽपि काले न बध्यन्ते । चग्रहणाञ्चातिक्रान्त-वर्तमानयोः । अथवा अवसकि त्ति क्षण-लव-मुहूर्त्त-अहोरात्र-पक्ष-मासवयन-संवत्सरादिलक्षणे काले सर्वत्र कर्मबन्धादवशक्नुमः । लवः कालः, वर्तमानादवसक्कामो, एवमनागतादपि एतद्दर्शनः 15 मिच्छत्तकिरियमाहंसु आख्यातवन्तः । के ते ? अकिरियओ आता जेसिं ते इमे अकिरियाता, ते नापि कारकमिच्छन्ति नापि करणानि । येषामपि करणानि कर्तृणि आत्मा कर्ता तेऽपि अक्रियावादिनः । उक्तं हि कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं ?, विचित्रभावं मृगपक्षिणां वा ? । स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारः स्ववशो हि लोकः ॥ १ ॥ [ 20 तेषामुत्तरम्गन्ता च नास्ति कश्चिद् गतयः षड् बुद्धशासनप्रोक्ताः । गम्यत इति च गतिः स्यात् श्रुतिः कथं शोभना बह्वी ? ॥ १ ॥ क्रिया कर्मफलं न चास्ति, असति कारके कुतः कर्म ? कथं च षड् गतयः ? अन्तराभावो वा ? यथाऽस्माकं "विग्रहगतौ कर्मयोगः" [तत्त्वार्थ० अ० २ सू० २६] एवं तेषामपि अन्तराभावः, एवं ते पुट्ठा वा अपुट्ठा वा सम्मिस्सभावं ब्रुवते 25 अवन्ध्यानि च कर्माणि पण्णवेंति । एवं जातकशतान्यपदिशन्ति बुद्धस्य तानि शून्यत्वे न युज्यन्ते । तथा माता-पितरौ हत्वा बुद्धशरीरे च रुधिरमुत्पाद्य । अर्हद्युधं च कृत्वा स्तूपं भित्त्वा च पश्चैते ॥ १ ॥ आवीचिं नरकं यान्ति एतच्च न युज्यते, जाति-जरा-मरणानि च न स्युः, उत्तमा-ऽधम-मध्यमत्वं न स्यात्, मनुष्य-तिर्यग्योनीनां स्वयमेव कर्मविपाको जीवस्य कर्तृत्वं कर्मबन्धं च कथयति । चौरादीनां च कर्मणामिहैव विपाकं दृष्ट्वा सामान्यतोदृष्टेनानुमानेनानुमीयते 30 कृतं कर्ताऽयमात्मा, येनास्य गर्भगतस्यैव व्याधयः प्रादुर्भवन्ति मृत्युश्च ॥ ४ ॥ १ ख १॥ २ अट्रेस ओभासति वृ० दी । अट्रेस नो भासति चूपा०॥ ३ तेवं खं २ । तेवा पु१॥ ४ वसंकीय खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ५°यवादी खं २ पु १ पु२॥ ६ अद्विधं वृत्तौ। सूय० सु०२७ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं । [११ समोसरणझयणं ५३८. सम्मिस्सभावं च गिरा गिहीते, ते मुम्मुई होंति अणाणुवादी । __ इमं दुपक्खं इममेगपक्खं, आहंसु छलायतणं च कम्मं ॥५॥ ५३८. [ सम्मिस्सभावं० वृत्तम् । तथा च सामान्यतोदृष्टेनानुमानेन सम्मिश्रभावो नाम अस्तित्वमपि प्रतिपद्यमानाः अस्तित्व-नास्तित्व मेव दर्शयन्ति, तमेव सम्मिश्रभावं यया गिरया गृह्यन्ते, निगृह्यन्त इत्यर्थः, उम्मत्तवादं वदंति, तद्यथा6 कचिदुन्मत्तः स्वाभाविकं ब्रवीति चेष्टते वा कचिदन्यथा, अन्धो वाऽध्वानं व्रजन् कचित् पथा गच्छति, एवं तेऽपि गन्धर्वनगरतुल्याः मायास्वप्नोपपातधनसदृशाः । मृगतृष्णानिद्रादानप्रवर्त्तितालातचक्रसमाः ॥ १॥ - एवमपि नि:स्वभावान् भावानुक्त्वा पश्चाज्जातिस्मरणानि जातकानि रत्नाश्रयं निर्वाणं च प्रतिपद्यन्ते । एवं ते सम्मिश्र भाववादिनः मिथ्यादर्शनान्धकाराः जातकेनैतस्यां गिरि गृहीता:-'यदि शून्यं कथं जातकानि ? कथं स्मरणम् ? कथं 10 शून्यता ? । किञ्च यदि शून्यस्तव पक्षो मत्पक्षनिवारकः कथं भवति ? । अथ मन्यसे न शून्यस्तथापि मत्पक्ष एवासौ ॥ १ अस्तित्वात् तस्य । किञ्च-'केन शून्यता देशिता ? किमर्था देशिता ? स्यान्निष्प्रयोजना शून्यता' इत्यादिभिः कर्कशहेतुभिश्वोदिता पच्छाघरघरियाए आहतियाए एलमूगो वा मम्मणमूगो वा जधा मुम्मुएंति, ण एक अणेकं वा पक्खं अणुवदंति, 16 अस्ति नास्ति वा, यद्यप्यष्टौ व्याकरणानि पठन्ति । ते पुण अकिरियावादिणो दुविधं धम्मं पण्णवेंति, तं जधा-इमं दुपक्खं इमं एगपक्खं तावत्, अविज्ञानोपचितं १ परिज्ञोपचितं २ ईर्यापथं ३ स्वप्नान्तिकं ४ च चतुर्विधं कर्म चयं न गच्छति, एतद्धि एकपाक्षिकमेव कर्म भवति, का तर्हि भावना ?, क्रियामात्रमेव, न तु चयोऽस्ति, बन्धं प्रतीत्याविकल्प इत्यर्थः, एगपक्खियं दुपक्खियं तु, यदि सत्त्वश्च भवति सत्त्वसंज्ञा च सश्चित्य जीविताद् व्यपरोपणं प्राणातिपातः, एतद् इह च परत्र चानुभूयते इत्यतो दुपक्खिकं, यथा चौरादयः इह पुप्फमात्रमनुभूय शेषं नरकादिष्वनुभवन्ति । किञ्च-आहेसु छलायतणं च 20 कम्मं, षडायतनमिति षड् आयतनानि यस्य तदिदं आश्रवद्वारमित्यर्थः, तद्यथा-श्रोत्रायतनं यावन्मनआयतनम् ।। ५ ॥ ५३९. ते एवमक्खंति अबुज्झमाणा, विरूवरूवाणिह अकिरियाता। जमादितित्ता बहवो मणुस्सा, भमंति संसारमणोवदग्गं ॥ ६॥ ५३९. ते एवमक्खंति० वृत्तम् । अक्रिया अण्णाणिआ य सब्भावं अबुज्झमाणा इह मिच्छत्तपडलोच्छण्णा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा वुग्गाहेमाणा विरूवरूवाणि दरिसणाणि, कथम् ? 28 दानेन महाभोगाश्च देहिनां सुरगतिश्च शीलेन । भावनया च विमुक्तिः [तपसा सर्वाणि सिध्यन्ति ॥ १ ॥ इत्यादि । [ किच-यश्च वेदान्तशुके ब्राह्मणे दद्यात्, यो वा विहारं कारयति, किश्च-एगपुप्फप्पदाणेण असीतिकल्पकोटयः सुखिनस्तिष्ठन्ति; एवमकिरिओ आता जेसिं ते होंति अकिरियाता । जमादितित्ता बहवो मणुस्सा, यमित्यनिर्दिष्टस्य निर्देशः, आदिइत्ता गृहीत्वा, स्वयं अन्यांश्च प्राहयित्वा अणादीयं अणवदग्गं संसारं भमंति ॥ ६॥ १°भावं सगिरा गिहीते, से मुम्मुई होति खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० । भावं च गिरा खं १॥ २ मृगतृष्णा-नीहाराम्बुचन्द्रिका-ऽलातचक्रसमाः वृत्तौ पाठः ॥ ३°दान् पमार्ततालान्वच सं० वा. मो० ॥ ४निश्वाभा सं० वा. मो० ॥ ५ एक एक वा चूसप्र० ॥ ६ अविज्ञोपचितं वृत्तौ ॥ ७ त एव खं १ ख २ पु १ पु २॥ ८°वाणि अखं १ वृ० दी.॥ ९°रिताया खं १। रियवाई खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ १० जमायइत्ता बहवे मणूसा खं १। जमादिदित्ता बहवो मणूसा खं २॥ ११°वतग्गं खं १ खं २ पु १॥ १२°न्तश्चक्रे सं० वा. मो०॥ Jain Education Intemational Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ५३८-४१] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। २११ किश्चान्यत्-यदि सर्वमक्रियं तेन कथमादित्यः उत्तिष्ठति ? अस्तं वा गच्छति ?, कथं वा चन्द्रमा वर्द्धते हीयते च?, न वा सरितः स्यन्देरन् , न वा वायवो वायेयुः, सर्वसंव्यवहारोच्छेदः स्यात् । एवमुक्ताः ब्रुवते ५४०. णाऽऽतिच्चो उठेति ण अत्थमेह, ण चंदिमा वड्डति हायती वा। सैरितो ण संदंति ण वंति वायवो, वंझो नितिओ कसिणो हु लोओ ॥७॥ ५४०. णाऽऽतिच्चो उद्वेति ण अत्थमेइ० त्ति वृत्तम् । आदित्य एव नास्ति, कुतस्तर्हि तदुत्थानमस्तमनं वा ?, मृग-5 तृष्णिकासदृशं तु एतदिति लोहितमर्कमण्डलमवभासते। एवं चन्द्रमाऽपि नास्ति, कुतस्तर्हि तद्वृद्धि-हासोत्थाना-ऽस्तमनानि ?। किश्व-संघातो मरीची उठेति, उट्ठोणा (? उद्वित्ता) से णं इमं लोगं तिरियं करेति, करेत्ता से णं इमं लोगं उज्जोवेति पभासति । सरितोऽपि ण संदंति (सन्ति) न च वायवः, ततः कथं सन्दिष्यन्ते वास्यन्ति वा ?। स्याद् बुद्धिःउत्तिष्ठन्नादित्यो दृश्यते अस्तं च गच्छन् , येन पूर्वस्यां दिशि दृष्टः अपरस्यां दिशि दृश्यते तेन क्रियावान्, देवदत्तस्य हि गतिपूर्विका देशान्तरप्राप्तिं दृष्ट्वा चन्द्रा-ऽऽदित्यावनुमीयेते, सरितश्च स्यन्दमाना दृश्यन्ते, वायवश्च वृक्षाग्रकम्पादिभिरनुमीयन्ते 10 क्रियावन्त इति, तच्चासत्, कथम् ? गतं न गम्यते तावद् अगतं नैव गम्यते । गता-ऽऽगतविनिर्मुक्तं गम्यमानं न गम्यते ॥ १ ॥ - एवमयं वन्ध्यो लोकः, वन्ध्यो नाम शून्यः, अथवा वन्ध्यावद् अप्रसवत्वाद् वन्ध्यः । लोकायतानां हि न मृतः पुनरुत्पद्यते, एतावानेष परमात्मा। त एवं दर्शनं भावयन्ति-गलागय॑मपि कुर्वाणा नोद्विजन्ते, मातरं भगिनीं वा गत्वा ! नानुतप्यन्ते, येषां बन्धाभाव एव ते कथं पापेभ्यो निवस्य॑न्ते ? निर्वृतिमूलं वा धर्म देक्ष्यन्ते । एवं शाक्या अपि एवं वन्ध्याः । नितिओ णाम नित्यकालमेव शून्यः, शून्यं वा न चोच्छिद्यते । कसिणो णाम गृह-नगर-पर्वत-द्विपद-चतुष्पदादिसर्वो वन्ध्यः । त एवं विद्यमानमपि लोकं न पश्यन्ति ॥ ७ ॥ दृष्टान्तः ५४१. जधा ये अंधे सह जोतिणा वि, वैवाणि णो पस्सति हीणणेत्ते। संतं तु ते एवंमकिरियआता, किरियं ण पस्संति णिरुद्धपण्णा ॥८॥ 20 ५४१. जधा य अंधे सह जोतिणा वि० वृत्तम् । यथेति येन प्रकारेण [ अन्धः ] ज्योतयतीति ज्योतिः आदित्यश्चन्द्रमाः मणिज्योतिः प्रदीपो वा, ज्योतिना सह सह जोतिणा विरूवाणि घडादीणि न पश्यति, अप्रतोऽपि वर्तमानानि स्पर्शन्नपि न तेषां वर्णादिविशेषं पश्यति । नयतीति नेत्रम् , हीने यस्य नेत्रे स भवति हीननेत्रः, उद्धृते उपहते वा । संतं तु ते एवं अकिरियाता, संतमिति विद्यमानम्, तुः पूरणे, अकिरियावातिणो अकिरियाता मिच्छत्तोदयान्धकाराज्जीवादीन पदार्थान् न जानन्ति । अथवा किरियं न पस्संति त्ति क्रियावतां द्रव्याणां आगमन-गमनाद्याः क्रियाः पश्यन्तोऽपि न 25 पश्यन्ति, स्वयं च क्रियासु वर्त्तते अन्धवत् , न चैताः न पश्यन्ति, निरुद्धा येषां प्रज्ञा ते भवन्ति निरुद्धपन्ना णाणावरणोदयेण, अथवा ते वराकाः कथं ज्ञास्यन्ति ये आगमज्ञानपरोक्षा एव ? जे पुण अनिरुद्धपन्ना ते प्रत्यक्षेण वा आगमेन परोक्षण जीवादीन् पदार्थान् यथावज्जानन्ति । तत्रावधि-मनःपर्याय-केवलानि प्रत्यक्षम् , मति-श्रुते परोक्षम् । प्रत्यक्षज्ञानिनस्तावज्जीवादीन् पदार्थान् करतलामलकवत् पश्यन्ति, समत्तसुतणाणिणो वि लक्षणेण, अटुंगमहानिमित्तपारगा वि साधवो जाणंति णिमित्तेणं ॥८॥ तं पुण णिमित्तं . 30 १णाऽऽइच्चोखं १ खं २ पु १ । नाऽऽयश्चो २॥ २ उपति खं १। उदेह खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ सलिला ण संदंति ण वंति वाया, पंझो खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ४वंझे णियते कसिणे हु लोते खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी । चंझे हु एते खं २ । वंझे य णियते पु २॥ ५ हि पु २ वृ० दी० ॥ ६ रूवाति खं १ । रूवाइं खं २ पु १ पु २॥ ७ पासति खं १ पु २॥ ८पि खं १ खं २ पु १ पु २ वृ. दी०॥ ९ व अकि खं २ पु १ पु २॥ १०यवाई खं १ पु १ पु २ वृ० दी०॥ Jain Education Interational Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ વર णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१२ समोसरणज्झयणं ५४२. संवच्छरं सुमिणं लक्खणं च, णिमित्त देहं च उप्पाइयं च । अटुंगमेतं बहवे अधिजिता, लोगम्मि जाणंति अंणागताई ॥९॥ ५४२. संवच्छरं सुमिणं लक्खणं च० वृत्तम् । संवत्सर-निमित्ते इमे एगट्ठिया, तं०-संवत्सरे ति वा अंतरिक्खे ति वा जोतिसे ति वा । सुमिणं सुविणज्झाया व, लक्खणं सारीरं । एतेण चेव सेसयाई पि सूइताई, तं जधा-भोमं १ उप्पातं 5२ सुमिणं ३ अंतरिक्खं ४ अंगं ५ सरं ६ लक्खणं ७ वंजणं ८, णवमस्स पुव्वस्स ततियातो आयारवत्थूतो एतं णीणितं । एतं बहवे अधिञ्जिता, एयं अटुंगणिमित्तं बहवे समणा अधिज्जिता, ण सव्वे, लोगम्मि जाणंति अणागताई, अतिक्रान्तवर्त्तमानानि च केवलिवद् वाकरेति । [ अथवा-] "तधागताणि" त्ति तथाभूताणि, यथावस्थितानीत्यर्थः ॥ ९ ॥ __ अङ्गवर्जानां अनुष्टुभेन च्छन्दसा अर्द्धत्रयोदश शतानि [ सूत्रम् ], एवं तावदेव शतसहस्राणि परिपाटीका । अङ्गस्य तु अर्द्धत्रयोदश सहस्राणि सूत्रम् , तावदेव शतसहस्राणि वृत्तिः, अपरिमितं वार्तिकम् । एवं निमित्तमप्यधीत्य न सर्वे तुल्याः, 10 परस्परतः षट्स्थानपतिताः, चोहसपुव्वी वि छट्ठाणपडिता, एवं आयारधरादी वि छट्ठाणवडिआ । यतश्चैवं तेनापदिश्यन्ते ५४३. केयी णिमित्ता तधिया भवंति, केसिंचि ते विप्पडिएंति णाणं । ते विजभासं अणधिजमाणी, आहंसु विजापलिमोक्खमेव ॥१०॥ ५४३. केयी निमित्ता तधिया भवंति० वृत्तम् । केचिदिति न सर्वे, अभिन्नदसपुग्विणो हेतुण एतं अटुंगं पि महाणिमित्तं अधीतुं गुणितुं वा, अधित एमेव केचित् परिणामयंति, ते पडुच्चेति णिमित्ता तधिया भवंति, केति पुण 15बुद्धिवैकल्याद् विशुद्धणेमित्तिकेहिंतो छण्हं ठाणाणं अण्णतरं ठाणं परिहीणा अविसुद्धखयोवसमा विप्पडिएंति णाणं विपर्यासेन एंति विप्पडिएंति, "इंक् स्मरणे, इङ् अध्ययने, इण् गतौ" एषां त्रयाणामपि इक्-इङ्-इणां परिपूर्वाणां अत्प्रत्ययान्तानां विपर्यय इति रूपं भवति, विपर्ययेण एंति विप्पडिएंति, कोऽर्थः ? विपर्ययज्ञानं भवति, असम्यगुपलब्धिरित्यर्थः, [ ?संपरिभवमप्यङ्गमित्यर्थः, ?] सपरिभाषमप्यङ्गमधीत्य । अब्भपडलदिलुतेणं-यथा श्लक्ष्णाभ्रपटले कश्चिद् वेत्ति एकमेवेदं अभ्रपटलं यावत् तत्रान्यदप्यस्ति सूक्ष्ममिति नोपलभ्यते, संजता वि केइ विप्पडिएन्ति णाणं, किमंग पुण अण्णउत्थिया दगसोयरिया 20 तच्चिण्णिगादयो ?। ते विजभासं अणधिजमाणा, अणधिजमाण त्ति अधीतेन निमित्तेण दुरधीतेन वितथं दृष्ट्वा निमित्तं वदंति-णिमित्तमेव णत्थि । तद्यथा-क्वचित् क्षुते त्वरितत्वात् शङ्कित एव गतः, तस्य चान्यः शुभः शकुन उत्थितः येनास्य तत् क्षुतं प्रतिहतम् , स च तेन शकुनेनोपलक्षितः सन् मन्यते-व्यलीकमेव निमित्तम् , येनाशकुनेऽपि सिद्धिर्जाता इति । एवं शोभनमपि शकुनमन्येनाशोभनेनाप्रतिहतमनुबुद्ध्यमानः कार्यसिद्धिनिमित्तमेव नास्तीति मन्यते अपरिणामयन् । [अहवा"विजाहरिसे" णाम यथार्थोपलम्भः, विद्यया स्पृश्यते विद्यया प्राप्यते, विद्यया गृह्यत इत्यर्थः । त एवं वराकाश्चक्षुह्यमपि णिमित्तमपरिणामयन्तः आहंसु विजापलिमोक्खमेव, निमित्तविद्यापरिमोक्षम्, एवं हि कर्तव्यम् , नाधीतव्यानि निमित्तशास्त्राणीत्यर्थः, किश्चित् तथा किञ्चिदन्यथेति कृत्वा मा भून्मृषावादप्रसङ्गः । बुद्धः किल शिष्याणामाहूयोक्तवान् द्वादश वर्षाणि दुर्भिक्षं भविष्यति तेन देशान्तराणि गच्छत, ते प्रस्थितास्तेन प्रतिषिद्धाः, सुभिक्षमिदानी भविष्यति, कथम् ?, अद्यैवैकः सत्त्वः पुण्यवान् जातः तत्प्राधान्यात् सुभिक्षं भविष्यतीति, अतो निमित्तं तथा चान्यथा च भवतीति कृत्वा आहेसु विजा30 पलिमोक्खमेव, उज्झनमित्यर्थः, मोक्षं च प्रति निरर्थकमित्यतस्तैरुत्सृष्टम् । अथवा विजया विजया परिमोक्खमाहु विजापलिमोक्खमाहु, सङ्ख्यादयो ज्ञानाद् मोक्षमिच्छन्ति, जे णिमित्तं संखाणं परिणामयंति ते किलात्यन्तपरोक्षमात्मानं परलोकं मोक्षं च ज्ञास्यन्ति इत्यादि हास्यम्, पञ्चुल्ल(?त)कम्मं बंधति ते सुतण्णाणहीलणाए । उक्तं हि अहित्ता खं १ खं २ पु१पु२॥२ लोगंसि खं २ पु २ । लोगस्स खं १॥ ३तधागताणि चूपा० । अणागतातिं खं १। अणागयाइं खं २ पु १ पु२॥ ४ तं विप्पडिएति खं १ ख २ पु १ पु२ वृ० दी०॥ ५°जभावं अं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी । 'जहरिसं अंचूपा०॥ ६°णा, जाणामु लोगंसि वयंति मंदा ख १ बृपा० । एतत्पाठमेदोल्लेखो खं २ पु १ पु २ वर्तते। जाणामो खं । जाणाम खं २ पु २॥ ७ इति पूर्व रूपं वा० मो० ॥ ८[??] एतचिहान्तर्गतः पाठो लेखकप्रमादप्रविष्ट आभाति ॥ ९न्तरं ग पु० ॥ Jain Education Intemational Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा०५४२-४५] सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। २१३ ज्ञानस्य ज्ञानिनां चैव निन्दा-प्रद्वेष-मत्सरैः । उपघातैश्च विघ्नैश्च ज्ञाननं कर्म बध्यते ॥१॥ [ ]॥१०॥ स्याद् बुद्धिः-केनैतानि समोसरणानि प्रणीतानि-जं च हेट्ठा वुत्तं जं च उवरिं भणिहित्ति ?, उच्यते-अणिरुद्धपण्णा तित्थगरा ५४४. ते ऐयमक्खंते समेच लोगं, तंधागता समणा माहणा य । सयंकडं णऽण्णकडं च दुक्खं, आहंसु विजा-चरणं पमोक्खं ॥११॥ ५४४. ते एयमक्खंते समेच्च लोगं० वृत्तम् । ते इति तीर्थकराः, एतदिति यदतिक्रान्तं क्रान्तव्यं च परसमयसिद्धपरूवणाओ अ । एवमन्येऽप्याख्यातवन्तः आख्यास्यन्ति च, सम्यग् इत्वा समेच ज्ञात्वेत्यर्थः, तधागता समणा माहणा य, तथागत इति तीर्थकरत्वं केवलज्ञानं च गताः । पठ्यते च-तधा तधा समणा माहणा य, तधा तथेति यथा यथा समाधिमार्गव्यवस्थिताः तथा तथाऽऽख्यान्ति त्रैकाल्यात्, जे अभिग्गहियमिच्छादिट्ठी जे अ अणभिम्गहियमिच्छादिट्ठी तेसिं 10 सव्वेसिं दर्शनमाख्यान्ति । समणा माहणा यत्ति एगहुँ । पञ्चक्खणाणिणो परोक्खणाणिणो वा आगमप्रामाण्यात् किमाख्यान्ति ? अस्थि माता अत्थि पिता जाव सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति, एवं क्रियावादित्वं ख्याप्यते । किञ्चसयंकडं णऽण्णकडं च दुक्खं, सयंकडं णाम स्वयं कृतं सयंकडं, सव्वमेव हि कर्म दुक्खं, प्रतीकारात् पुण्यमपि दुक्खं । उक्तं हि-"तो सव्वकालदुक्खो "। चरणं पमोक्खं, विजया चरणेण पमोक्खो भवति, न तु यथा संख्या ज्ञानेनैवैकेन, अज्ञानिकाश्च शीलेनैवैकेन । उक्तं हि-15 क्रियां च सज्ज्ञानवियोगनिष्फलां, क्रियाविहीनां च निबोधसम्पदम् । निरस्यता क्लेशसमूहशान्तये, त्वया शिवायाऽऽलिखितेव पद्धतिः ॥ १॥ [सिद्ध द्वा० ५ का० २९] ॥११॥ ५४५. ते चक्खु लोगैस्सिध णायगा उ, मग्गाऽणुसासंति हितं पजाणं ।। तथा तथा सासतमाह लोगो, जंसी पया माणव! संपगाढा ॥ १२॥ ५४५. ते चक्खु लोगस्सिध णायगा उ० वृत्तम् । चक्षुर्भूता लोकस्य, प्रदीपभूता इत्यर्थः । देशका नायकाः पगढगाः । मग्गं णाणाति हितं सुहं प्रजानाम् [अणुसासंति उवदिसंति ] । तुः विसेसणे, सन्मार्गगुणांश्च दर्शयन्ति कुमार्गदोषांश्च । अथवा तुः विशेषणे, अहितमार्गनिवृत्तिं च । प्रजायन्तीति प्रजाः । तथा तथा सासतमाहु लोगो, तथा तथेति येन येन प्रकारेण शाश्वतो लोको भवति पश्चास्तिकायात्मकः, अथवा यथाऽस्याऽऽत्मनः अव्यवच्छिन्नकर्मसन्ततिर्भवति यथाप्रकाराच्च तथा तथा सासतमाहु लोगो, तधा "चउहिं ठाणेहिं जीवा णेरइयाउयत्ताए कम्मं पकरेंति०” [ स्थानां० स्था० 25 ४ उ० ४ सू० ३७३ पत्र २८५ ] तत्र तावत् संसारो नोच्छिद्यते यावन्मिथ्यादर्शनम्, तत्र तीर्थकरा-ऽऽहारकवर्जाः सर्व एव कर्मबन्धाः सम्भाव्यन्ते, उपलक्षणत्वादस्यान्यदपि यदत्र सम्भवति तद् द्रष्टव्यम्, एवं राग-द्वेषावपि संसारकरौ इति कृत्वा तधा तधा वट्टति संसारमाहुः । अहवा तधा तध त्ति जस्स जारिसी सत्ता तथा तस्स उवचयो होति । अहवा मिच्छत्त-अविरति-अण्णाणाणि जधा जधा तथा तथा संसारः । अथवा पाणवधादी जधा जधा तधा तधा, अहवा कसा[या दयो जहा तहा, काय-वाङ्-मनोयोगा जधा जधा तधा तथा संसारो, सर्वत्र मात्रापरिमाणं वक्तव्यम् । जंसी पया 30 यस्मिन्निति यत्र, प्रजायन्ते इति प्रजाः, सर्व एव सत्त्वा मानवा इत्यपदिश्यन्ते, मानवानां प्रजा माणवप्रजा । अथवा माणव ! इति हे मानवाः !। संप्रसृताः संप्रगाढा, ओगाढा विगाढा सम्प्रगाढा इत्यर्थः । एवं आश्रवलोकं कथयन्ति, आश्रवलोकानुरूपमेव च लोकं विशन्ति ॥ १२ ॥ १ एवमक्खेति स खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ २ तथा तधा समणा खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी. चूपा० ॥ ३ च विबोधसम्पदम् द्वात्रिं०॥ ४ लोगसिह खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ५णातगा तु, मग्गाऽणुभासंति हितं पताणं खं १॥ ६ मायकाः चूसप्र०॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . २१४ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१२ समोसरणज्झयणं ५४६. जे रक्खसा जे जमलोइया वा, जे आसुरा गंधवा य काया। ___ आगासंगामी य पुढोसिता , पुणो पुणो विप्परिासमेंति ॥ १३ ॥ ५४६. जे रक्खसा जे जमलोइया वा० वृत्तम् । केषाश्चिद् भवनपत्यादिदेवाः शाश्वताः तेण रक्खसगहणम् । अथवा व्यन्तरा गृहीता राक्षसग्रहणात् । जमलोइयग्रहणाद् वैमानिकाः सूचिताः, जेणं जमदेवकाइया तिविधा नेममः ( ? ), सर्वे ते जमस्स महारायस्स आणा-उववात-वयणणिइसे चिति । असुरग्रहणेन भवनवासिनः सूचिताः । गान्धर्वा व्यन्तरा एव । ज्योतिष्का दृश्यन्त एव । सेसा आगासगामी य पुढोसिता य, देव-पक्खि-वातादयः आगासगामी, पृथिव्यम्बु-वनस्पतयः द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाश्च स्थलचरा जलचराश्च एते पुढोसिता । पुनः पुनः विपर्यासमेंति, विपर्यासो नाम जन्म-मृत्यू, सर्व एव वा संसारे विपर्यासः, जेणं "पुढविकायमतियतो उक्कोसं जीवो तु संवसे" ॥ [ उत्तरा० अ० १० गा० ५] ॥ १३ ॥ 10 ५४७. जमाहु ओहं सलिलं अपारगं, जाणाहि णं भवग्गहणं दुमोक्खं । ____जंसी विसण्णा विसयंगणादी, दुहतो वि लोकं अणुसंचरंति ॥ १४ ॥ __ ५४७. जमाहु ओहं सलिलं अपारगं० वृत्तम् । यं इत्यनिर्दिष्टस्य निर्देशः । आह भगवानेव, द्रव्यौघः स्वयम्भुरमणः, स एवौधः सलिलः, ओघसलिलेन तुल्यं ओघसलिलम् । नास्य पारं जलचराः स्थलचरा वा शक्नुवन्ति गन्तुं णऽण्णत्थ देवेण महड्डिएण इत्यतः अपारगः । जाणाहि णं जधा जिनैरपदिष्टः आगमप्रामाण्यात् प्रत्यक्षतश्च उपलभ्यते मनुष्यादिसं15 सारः । चतुविधं भवग्गहणं, भवग्गहणं कडिल्यमित्यर्थः, चतुरासीतिजोणिपमुहसयसहस्सगहणो, जत्थ अणोरपारे पविट्ठो सव्वद्धाए वि ण मुञ्चति मिच्छादिट्ठी लोको लोकायत-सुण्णवादिगादिलौकिक इत्यादि । दोक्षेति मिच्छत्त-सातगुरुत्वेन च ण तरंति अणुपालेत्तए जे वि अस्थिवादिणो, किमंग पुण नास्तिकाः ?, जधा ताणि चत्तारि तावससहस्साणि सातागुरुवत्तणेण छक्कायवधगाई जाताई [आव० मूलभाष्यगा० ३१ पत्र १४३ ] । जंसी विसण्णा विसयंगणादी, यत्र संसारे यत्र वा सावधे धर्मेऽसमाधौ कुमार्गे वा असत्समवसरणेषु, पंचसु वा विसएसु विसन्नाः, सुगरीयान् स्पर्शः, तेष्वप्यङ्गनाः, तासु 20 हि पञ्च विषया विद्यन्ते, तद्यथा--"पुप्फफलाणं च रसं०" [ ] इत्यतः अङ्गनाग्रहणम् । दुहतो वित्ति द्विविधेनापि प्रमादेन लोकं अणुसंचरंति । तं जधा-लिंग-वेस-पज्जाए अविरतीए य, अथवा आरम्भ-परिग्रहाभ्यां राग-द्वेषाभ्यां वा अन्न-पानाभ्यां वा स-स्थावरलोगं वा इमं लोगं परलोगं वा ॥ १४ ॥ त एव मिथ्यात्वादिभिर्दोषैरभिभूताः असत्समवसरणावस्थिताः५४८. ण कम्मुणा कम्म खवेंति बाला, अकम्मुणा कम्म खति धीरा। मेधाविणो लोभ-मयावतीता, संतोसिणो णो पकरिं ति पावं १५॥ ५४८. ण कम्मुणा कम्म खति बाला० वृत्तम् । न इति प्रतिषेधे । मिथ्यात्वादिषु कर्मबन्धहेतुषु वर्तमानाः न कर्माणि क्षपयन्ति बालाः कुतीर्थ्याः, यस्यैव हि ते भीतास्तमेवान्विषन्ति, कर्मभीताः कर्माण्येव वर्द्धयन्ति, न निदानमेव रोगस्य चिकित्सा, यथा कश्चिन्मूढधीर्निदानैरेव रोगचिकित्सां करोति स हि तस्य वृद्धिमाप्नोति । अकर्मणा तु आश्रवनिरोधेन कर्माणि क्षपयन्ति धीराः विधिक्रियाभिरिवाऽऽमयान् वैद्याः । मेधाविणो लोभ-मयं(यौ) मेराधाविणो मेधाविणो, लोभम १°साया जमलोइयाया, जे या सुरा खं १ पु २ वृ० दी । "ये केचन व्यन्तरमेदा राक्षसात्मानः, तद्ब्रहणाच सर्वेऽपि व्यन्तरा गृह्यन्ते, तथा 'यमलौकिकात्मानः' अम्बाऽम्बादयः, तदुपलक्षणात् सर्वे भवनपतयः । तथा ये च 'सुराः' सौधर्मादिवैमानिकाः । चशब्दाद् ज्योतिष्काः सूर्यादयः।” इति वृत्तिकारव्याख्यानम् ॥ २ सिकामी खं २ पु १॥ ३ जे खं २ वृ० दी । ते पु १॥ ४ यासुवेति खं१खं २ पु १ पु२ वृ० दी०॥ ५न विग्नः सं० । न विग्जः वा. मो०॥ ६“पृथिव्याश्रिताः' पृथिव्यप-तेजो-वनस्पति-द्वि-त्रि-चतु:पञ्चेन्द्रियाः" इति वृत्तौ ॥ ७°णाहिं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ८ एते त एव तापसा ये भगवता श्रीऋषभदेवेन साकं प्रव्रजिता इति ॥ ९वीरा खं १ पु २ वृ० दी०॥ १० लोभ-भयादतीता खं १ वृपा० ॥ 25 Jain Education Intemational Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ५४६-५१] सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो । २१५ तीताः लोभातीताः, वीतरागा इत्यर्थः एवं मायामतीता मायातीता वा । संतोसिणो ति अलोभाः । स्याद् बुद्धिः - अलोभाः सन्तोषिणश्च एकार्थमिति कृत्वा तेन पुनरुक्तम्, उच्यते, अर्थविशेषान्न पुनरुक्तम्, लोभातीता इति अतिक्रान्तलोभा वीतरागाः, संतोषिण इति निग्रहपरमा अवीतरागा अपि वीतरागाः । णो पकरिंति पार्वं संतोसिणो पयणुयं पकरेंति, तब्भववेदणिज्जमेव । अथवा यत एव लोभाईया अत एव संतोसिणः । एवं अमानिनः अमायिनः ।। १५ ।। त एवं भगवन्तः अनिरुद्धपणा ५४९. ते तीत - उप्पण्ण-अणागताई, लोगस्स जाणंति तंघागताणि । तारो ऽण्णेसि अणण्णणेता, बुद्धा हु ते अंतकडा भवंति ॥ १६ ॥ ५४९. ते तीत- उप्पन्न -अणागताई० वृत्तम् । ते इति तीर्थकरादयः प्रदीपभूताः । तीताणि लाभा-लाभ-सुखदुःखादीनि, एवं पडुप्पण्ण-अणागताई, जेहिं वा कम्मेहिं पुत्रकतेहिं इहाऽऽयातो जोणिवासं पदं करेंति जं च भविस्सति इत्यतः तीत-पच्चुप्पण-अणागताई । तहाभूताइं तधागताणि, अवितधाणि त्ति भणितं होति, न विभङ्गज्ञानिवद् विपरीतं 10 पश्यन्ति, "अणगारे णं भंते! मायी मिच्छादिट्ठी रायगिहे णयरे समोहते ० तेनावधि - विभङ्गोपयोगेन गतः - त्राणारसीये णयरीए रूवाइं जाणति पासति जाव से से दंसणविवश्वासो भवति ।" [ भग० श० ३ उ० ६ सू० १६२ पत्र १९२ - १] ते भगवन्तः प्रत्यक्षज्ञानिनः, परोक्षे वा पूर्वविदः णेतारो मण्णेसि अणण्णणेता, जयन्तीति नेतारः, अन्येषां भव्यानां सर्वेषां नेतार इति । न अन्यः [ अनन्यः ] तेषां नेता विद्यते, "इत्ताव ताव समणेण वा माहणेण वा धम्मे अक्खाते, णत्थेतो उत्तरी धम्मे अक्खाते" [ ] इत्यतो अणणणेता । बुद्धाः स्वयम्बुद्धाः बुद्धबोधिता वा गणधराद्याः । अन्तं कुर्वन्तीति अन्तकराः, भवान्तं कर्मान्तं वा ॥ १६ ॥ ये चाऽत्र भवान्तं न कुर्वन्ति तावत् 15 ५५०. ते णेव कुव्वंति ण कारवेंति, भूताभिसंकीए दुर्गुछमाणा । सदा जता विप्पणमंति धीरा, 'विदित्तु वीरा य भवंति ऐँगे ॥ १७ ॥ ५५०. ते व कुव्वंति ण कारवेंति० वृत्तम् । स्वयं न कुर्वन्ति न कारयन्त्यन्यैर्नानुमन्यन्ते । किं तत् ? पाणातिवातं, अनुक्तमपि विज्ञायते प्राणातिपातम् येनापदिश्यते भूताभिसंकाए दुगुंछमाणा, भूताणि तस थावराणि ताणि यतोऽभिसंकंति 20 सा भूताभिसंका भवति, हिंसेत्यर्थः, तां भूताभिसंकां तत्कारिणश्च जुगुप्समाना उद्विजमाना इत्यर्थः, पाणातिपातमिति वाक्यशेषः, लोकोऽपि हि मत्स्यबन्धादीन् हिंसकान् जुगुप्सते । एवं ते ण भासन्ति ण भासावेंति मुसावातं, एवं जाव मिच्छादंसणं ण परूवेंति० णो सहहंति णवएण भेदेण । त एवमप्पाणं परं तदुभयं च [जता ] संजमेमाणा सदेति सर्वकालं प्रव्रज्याकालादारभ्य यावज्जीवं ज्ञानादिषु विविधं प्रणमन्ति पराक्रमन्त इत्यर्थः । विदित्तु वीराः विज्ञाय वीरा भवन्ति, ज्ञानादिभिर्वा [वि] राजन्तीति वीराः, एके न सर्वे । पठ्यते च - " विण्णत्तिवीरा य भवंति एगे" विज्ञप्तिमात्रवीरा एवैके 25 भवन्ति, ण तु करणवीराः ॥ १७ ॥ स्यात्-कतराणि भूतानि येषां संकितव्यम् ? उच्यते ५५१. डहरे य पाणे वुड्ढे य पाणे, जे आततो परसति सव्वलोगे । उवेहती लोगमिणं महंतं, बुद्धेऽपमत्ते सुपरिव्वज्जा ॥ १८ ॥ ५५१. डहरे य पाणे० वृत्तम् । डहराः सूक्ष्माः कुन्भ्वादयः सुहुमकायिका वा, बुड्ढा महासरीरा बादरा वा, ते एते डहरे य पाणे बुड्ढे य पाणे, जे आततो परसति सव्वलोगे आत्मना तुल्यं आत्मवत्, यत्प्रमाणो वा मम आत्मा 30 १णमा १ ख २ पु १ पु २ ॥ २ तहागताई खं १ खं १२ ॥ ३ अण्णेसि खं १ खं २ पु १ पु २ ॥ ४ संकाति खं २ पु १ । संकाइ खं १ पु २ ॥ ५ विष्णत्तिवीरा चूपा० नृपा० । विष्णत्तिधीरा खं १ खं २ पु १ पु २ ॥ ६ तेगे खं २ पु १ ॥ ७ ते खं १ ख २ पु १ पु २० दी० ॥ ८ पासति खं १ खं २ पु १ पु २ ॥ ९ बुद्धेऽपमत्तेसु परिव्वएजा इति बुद्धे पमत्तेसु परिव्वज्जा इति पदच्छेदेनापि च व्याख्यान्तरं चूर्णौ वृत्तौ च वर्त्तते । बुद्धऽप्पमत्तेसु खं १ खं २पु १ पु २ ॥ १० व्वदेजा खं १ ॥ 5 For Private Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१२ समोसरणज्झयणं एतत्प्रमाणः कुन्थोरपि हस्तिनोऽपीति, अधवा "जध मम ण पियं दुक्खं" [ दशवै० नि० गा० १५६] एवं सव्वजीवाणं डहराण वा महल्लाण वा, "पुढविकाइए णं भंते ! अकंते समाणे केरिसयं वेदणं वेदयंति ?" [ वगो इत्यतस्तेऽपि ण अक्कमितव्वा ण संघट्टेतव्वा । ये एवं पश्यन्ति उवेहती लोगमिणं महंतं वृत्तं [ उत्तरद्धं ] । उवेहती उपेक्षते, पश्यतीत्यर्थः, उपेक्षां करोति, सर्वत्र माध्यस्थ्यमित्यर्थः, महान्त इति छज्जीवकायाकुलं अष्टविधकर्माकुलं वा, बलि5पिंडोवमाए महंतो लोगो, अथवा कालतो महंते अनादिनिधनः, अस्येके भव्या अपि ये सर्वकालेनापि न सेत्स्यन्ति । अथवा द्रव्यतः 'क्षेत्रतश्च लोकस्यान्तः, कालतो भावतश्च नान्तः । बुद्धे नाम धर्मे समाधौ मार्गे समोसरणेसु च अप्रमत्तः कायेषु जयणाए य, अथवा प्रमत्तेषु असंजतेषु परिव्वएज्जासि त्ति बेमि । अथवा बुद्धे अप्पमत्ते सुट्टु परिव्वएज्जा ॥ १८ ॥ ५५२. जे आतयो परतो यावि णचा, अलमप्पणो होति अलं परेसिं। तं जोतिभूतं सतताऽऽवसेजा, जे पादुकुजा अणुवीति धम्मं ॥१९॥ 10 ५५२. जे आतयो परतो यावि णच्चा० वृत्तम् । आत्मनः स्वयं तीर्थकरा जाणंति जीवादीन् पदार्थान् परतो गणधरादयः । अलं पर्याप्त्यादिषु, स द्विविधोऽपि जानकः अलमात्मानं परांश्चेति, अकृत्याद्वा प्रतिषेधयितव्य इति । एवं तं जोतिभृतं, तमिति तं उभयत्रातारं ज्योतयतीति ज्योतिः आदित्यश्चन्द्रमाः मणिः प्रदीपो वा, यथा प्रदीपो ज्योतयति एवमसौ लोका-ऽलोकं ज्योतयतीति ज्योतिस्तुल्य इत्यर्थः । सततं आवसेज्जासि त्ति जावज्जीवाए सेवेज्जा तित्थगरं गणधरे वा [ यो] यस्मिन् काले ज्योतिर्भूतः । जे पादुकुजा, य इत्यनिर्दिष्टः, प्रादुः प्रकाशने, ये प्रादुष्कुर्वन्ति धर्म पूर्वापरतो15 ऽनुचिन्त्य, करतलामलकवद् लोकं दृष्ट्वा इत्यर्थः । अथवा अणुवीयिणितुं परसमये स्वसमयं दर्शयति, : इत्यर्थः । अथवा अणवीयिणितुं परसमये स्वसमयं दर्शयति, धम्म समाधि मार्ग समोसरणानि च ॥ १९ ॥ कीदृशः पुनस्ते विघाटितज्ञानिनः त्रैलोक्यदर्शिनः ? उच्यते ५५३. आताण जे जाणति जे य लोगं, जे आगतिं जाणइऽणागतिं च । जे सासतं जाणइ असासतं च, जातिं मरणं चं चयणोपवादं ॥ २०॥ ५५३. आताण जे जाणति जे य लोगं० वृत्तम् । आत्मानं यो वेत्ति यथा 'अहमस्ति' इति संसारी च । अथवा 20 स आत्मज्ञानी भवति य आत्महितेष्वपि प्रवर्त्तते । अथवा त्रैलोक्य (त्रैकाल्य) कार्यपदेशादात्मा प्रत्यक्ष इति कृतवानित्यादि । येनाऽऽत्मा [ज्ञातो] भवति तेन प्रवृत्ति-निवृत्तिरूपो लोको ज्ञात एव भवति आत्मौपम्येन, यथा-ममेष्टानि, दृष्टेष्वर्थेषु प्रवृत्ति-निवृत्ती भवतः यथाऽस्तीति । अथवा आत्मौपम्येन परेष्वहिंसकः । किञ्च-जे आगतिं जाणESणागतिं च.जे आगतिं जाणति, कुतो मनुष्या आगच्छन्ति ? “सत्तममहिणेरइया०” [बृहत्सं० गा० ३४३] कैर्वा कर्मभिः कुत्र वा गच्छन्ति ?, न विद्मः-कुतोऽहमागतः गमिष्यामि वा ? । अनागतिरिति सिद्धिः सादीया अपज्जवसिता । जे सासतं जाणड 25 असासतं च, सर्वद्रव्याणां शाश्वतत्वं द्रव्यतः अशाश्वतत्वं पर्यायतः, चशब्दात् शाश्वताशाश्वतत्वं वा। तं जधा-णेरइया दव्वद्वताए सासता, भवट्ठताए असासता । अथवा निर्वाणं शाश्वतम् , संसारिणस्तु संसारं प्रतीत्य अशाश्वताः । जाति मरणं च जानीते, औदारिकानां सत्त्वानां जातिः, एत्थ जोणीसंगहो भाणितव्वो णवविधो वि । तं जधा-"सचित्त-शीत-संवृताः . सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः" [तत्त्वा० अ० २ सू० ३३] सचित्ता-ऽचित्त-शीतोष्ण-संवृत-विवृता एताश्च सेतराः । ओरालियाणं चेव मरणम् । बन्धानुलोम्यात् चयणोपवादं, इतरधा तु पूर्व उपपातो वक्तव्यः, स तु नारक-देवानाम् , चयणं 30 तु जोतिसिय-वेमाणियाणं, उव्वट्टणा भवणवासियाणं वंतराणं नेरइयाणं च ॥ २० ॥ क्षेत्रतश्च कालतो भावतश्च लोक पु० सं० ॥ २ वा वि पु १ पु २ । तावि खं २॥ ३ भूतं च सताऽऽव खं १ खं २ पु १ पु २॥ ४ अत्ताण जो जाणति जो य खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ५ गई च जो जा खं २ पु १ पु २ । आगई च जो जा खं १॥ ६ जाणतणागई च खं १॥ ७ जाणयऽसा खं १ । जाणअसापु १ पु २॥ ८ जाती खं १ ख २ प१३२॥ ९च जणोववातं खं १खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ १० रिकारिकानां सत्त्वा सं० । रिकानां कारिकानां सत्वा वा. मो० ॥ Jain Education Intemational Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ५५२-५५] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंग पढमो सुयक्खंधो। ५५४. अधो वि सत्ताण विउद्दणं च, जो आसवं जाणति संवरं च । दुक्खं च जो जाणति णिजरं वा, सो भासितुमरिहति किरियवादं ॥२१॥ ५५४. अधो वि सत्ताण विउट्टणं च० वृत्तम् । जधा जधा गुरूणि कर्माणि तहा तहा अधो विउझूति सत्ता, विविधं कुटुंति विकुटुंति, जातन्ते म्रियन्त इत्यर्थः, सर्वार्थसिद्धादारभ्य यावदधोसप्तम्याः तावदधो वर्त्तन्ते, तत्रापि ये गुरुतरकर्माणः ते अप्रतिष्ठाने, शेषेषु चोत्कृष्टस्थितयः । जो आसवं जाणति, आश्रवान् रागादीन् प्राणवधादीन् वा पश्च । आरम्भ-परिग्रही वा इत्यादि आश्रवाः, तद्विधर्मी संवरः संयम इत्यर्थः, जाव णिरुद्धजोगि त्ति। यथाप्रकारा यावन्तः संसारावेशहेतवः । तावन्तस्त द्विपर्यासानिर्वाणावेशहेतवः ॥ १॥ दुक्खं च जो जाणति निज्जरं वा, दुक्खमिति कर्मबन्धः प्रकृति-स्थित्यनुभाव-प्रदेशात्मकः तदुदयश्च, निर्जरा नाम बन्धापनयः, द्वादशप्रकारं तपो निर्जरा । सो धम्म समाधि मग्गं समोसरणाणि यँ भाषितुमर्हति । पठ्यते च-"आइक्खि-10 तुमरिहति सो किरियवादं" ॥ २१ ।।। एतानि मिथ्यादर्शनसमोसरणानि संसारकराणीति ज्ञात्वा क्रियावादी सम्यग्दृष्टिश्चारित्रवान्५५५. सद्देसु रुवेसु अमुच्छमाणो, रसेहिं गंधेहि य अदुस्समाणो। णो जीवितं णो मरणं विपत्थए, आयाणगुत्ते वलया विमुक्के ॥ २२ ॥ "त्ति बेमि ॥15 ॥ समोसरणं सम्मत्तं ॥ १२ ॥ ५५५. सद्देसु रुवेसु अमुच्छमाणो० वृत्तम् । सद्देसु रुवेसु अमुच्छमाणो त्ति रागो गहितो, एवं जाव फासेसु। रसेहिं गंधेहि य अदुस्समाणो द्वेषो गृहीतः । एवं शेषेष्वपि इन्द्रियेषु “सद्देसु अ भद्दय-पावएसु" [ज्ञाता. श्रु. १० १० स० १३५ गा.१६ पत्र २३३-१1। णो जीवितं णो मरणं विपत्थए, असंजमजीवितं अणेगविधं पत्थए विपत्थए. ण वा परीसहपराइया मरणं विपत्थए । अथवा मा हु चिंतेजासी-जीवामि चिरं, मरामि व लहुं । वलयं कुडिलमित्यर्थः। तत्र 20 द्रव्यवलयं नदीवलयं वा संखवलयं बा, भाववलयं तु कर्म । चतुसमोसरणकुडिलं तु मिच्छत्तं, वलएण विमुक्को वलयादिविमुक्को । पठ्यते च-"मायाविमुक्के" ] मायादिविमुक्के इत्यर्थः ॥ २२ ॥ ॥ इति समवसरणाध्ययनं द्वादशं समाप्तम् ॥ १२॥ १च खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी. ॥ २ आइक्खितुमरिहति सो किरियवादं चूपा०॥ ३ य आख्यातु चूसप्र० ॥ ४'मर्हति चूसप्र० ॥ ५ असन्जमाणे, गंधेसु रसेसु अदुस्समाणे खं १ वृ० ही । असज्जमाणे, रसेसु गंधेसु अदुस्समाणे खं २ पु १ पु२॥ ६मरणाभिकंखी, आदाण खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ७ गुत्ते मायाविमुक्केबूपा०॥ सूय० सु०२८ Jain Education Intemational Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'णिज्जुत्ति- चुण्णिसमलंकिय १३ [तेरसमं आहत्तहियज्झयणं ] आयतधियं ति अज्झयणस्स चत्तारि अणुओगद्दाराणि । अधिकारो सीसगुणदीवणाए । अण्णं पि जं धम्म-समाधिमग समोसरणे जं जत्थ अणुवादी तं च अवितथं भणिहिति । एतेसि चतुण्ह वि धम्मादीणं विवरीतं वितथं । अत्र चायं न्याय: - यदुत उपसर्ग-प्रत्ययवियुक्ता प्रकृतिर्निक्षिप्यते, यतः णामतधं० इत्यादि । णामणिप्फण्णे आयतधिजं । तं 5 चतुव्विधं, तं जधा - २१८ णामतधं ठवणतधं दव्वतधं चैव होति भावतधं । दव्वतधं पुण जो जस्स सभावो होति दव्वस्स ॥ १ ॥ ११५ ॥ णामतधं ठेवणतधं० गाधा । तं च वतिरित्तं दव्वतधं तिविधं सचित्तादि । सचित्तं जधा - सर्व एव जीवः उपयोगस्वभावः, अथवा जो जस्स दव्वस्स सभावो त्ति, काठिन्यलक्षणा पृथ्वी, द्रवलक्षणा आप इत्यादि, अथवा दारुणस्वभावः 10 मृदुस्वभावो वा जो जस्स मणूसस्स वा । अचित्ताणं गोसीसचंदण - कंबलरयणमादीणं । जधा - "उष्णे करेति शीतं सीए उत्तणं पुणरुवेति ।" [ ] मी सगाणं तंदुलोद्गमादीणं जाव ण ता परिणतं ॥ १ ॥ ११५ ॥ भावहं पुणणियमा णायव्वं छव्विहम्मि भावम्मि | अधवा विणाण दंसण चरित्त विणैए य अज्झप्पे ॥ २ ॥ ११६ ॥ भावहं पुणणियमा० गाधा । भावतहं छव्विधे भावे । तं जधा - उदइयभावतहं जाव सण्णिवादियभावहं । 15 तत्थुदयलक्खणमेवौदयिकम्, वेदना लक्खणमित्यर्थः, ओदयिकभावभावतधं १ । उपसमणमेव औपशमिकः, अनुदयलक्षण इत्यर्थः २ । क्षयाज्जातः क्षायिकः ३ । किञ्चित् क्षीणं किञ्चिदुपशान्तं क्षायोपशमिकः ४ । तांस्तान् भावान् परिणमतीति पारिणामिकः ५ । एवं समवायलक्षणः सान्निपातिकः ६ । अधवा भावतधं चउव्विधं णाण दंसण चरित्त विणये इति । णाणे पंचविधे स्वे स्वे विषये अवितथोपलम्भः १ । एवं चतुव्विधे दंसणे चक्खुदंसणादि २ । चरित्ते तवे संजमे य, तवे दुवालसविधे, सत्तरसविधे ३ । विणयस्स वा बायालीसतिविधस्स ज्ञान-दर्शन-चरित्ते जो वा जस्स जधा जदा य परंजितव्यो ४ । 20 अण्णधा वितधं । एत्थ भावतहेण अधियारो । अधवा भावतधं पसत्थं अप्पसत्थं च, पसत्थेणाधिकारो ।। २ ।। ११६ ॥ जह सुत्तं तह अत्थो चरणं ति जहातहाय णायव्वं । संतम्मि पसाए असती पगयं दुगंछाए ॥ ३ ॥ ११७ ॥ जह सुतं तह अत्थो० गाधा । यदि यथा सूत्रं तथैवार्थो भवति तथा वा दर्शयति । तध त्ति किं भणितं होति १जं संतं सोभणं ति च, जं संतं संसारनित्थरणाय प्रशस्यते तं पसत्थभावतहं । जं पुण विद्यमानमपि दुगंछितं तं संसार25 कारणमिति कृत्वा अशोभनं असदित्यपदिश्यते, अशोभनमित्यर्थः ॥ ३ ॥ ११७ ॥ जो पुण एतं पसत्थभावत — । * आयरियपरंपरएण आगतं जो ईं [ अ ]प्पबुद्धीए । कोवेति ॥ ४ ॥ ११८ ॥ जो एवं आयरियपरंपरएण आगतं कोवेति सो— बुद्धी जमालिणासं व णासिहिति ॥ ४ ॥ ११८ ॥ [ १३ आहत हियज्झयणं १ कठिनलक्ष सं० मो० वा० ॥ २ " उण्हे करेइ सीयं सीए उपहत्तणं पुण करेइ । कंबलरयणादीणं एस सहावो मुणेयब्वो ॥” इति पूर्णा गाथा ॥ ३ विणपण अ° खं २ पु २ ॥ ४ चरणं चारो तह त्तिणा खं २ पु २ ॥ ५ संतम्मिय संसा' खं १ | संतम्मि य संसा' पु २ ॥ ६ उ छेयबुद्धीप खं १ खं २ पु २ वृ० ॥ ७ छेयवाती खं १ खं २ पु २ वृ० । 'वादी खं १ ॥ For Private Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ५५६-५७ णिज्जुत्तिगा० ११५-१९] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंग पढमो सुयक्खंधो । २१९ *ण कुणेति दुक्खमोक्खं उजममाणो वि संमपदेसु । तम्हा अत्तुकरिसो वजेतव्वो जतिजणेणं ॥ ५॥ ११९ ॥ ॥ आयतहं सम्मत्वं ॥१३॥ ॥५॥ ११९ ॥णामणिप्फण्णो गतो। सुत्ताणुगमे सुत्तं उच्चारतव्वं । अज्झयणाभिसंबंधो-अणंतरसुत्ते “वलया विमुक्के" [सूत्रं ५५५] ति वुत्तं, इहापि वलयादि, अवितधशीले प्रयतितव्यं वलयविनिर्मुक्तेन । भाववलयं माया शिष्य- 5 दोषाश्च इहोक्ताः, अत्तुक्करिसादीया भावदोसा वज्जेतव्वा इति । अतः ५५६. आधःधिजं तु पंवेदइस्सं, णाणप्पगारं पुरिसस्स जातं । ___ सतो य धम्म असतो य सीलं, संतिं असंतिं करिसामि पादुं ॥१॥ ५५६. आधत्तधिजं तु पवेदइस्सं० वृत्तम् । यथातथमिति आधत्तधियं याथातथ्यम् , शीलव्रतानीन्द्रियसंवरसमिति-गुप्ति-कषायनिग्रहसर्वमवितधं यथातथम् , ते अनाचरतां च दोषान् वक्ष्यामः । अथवा व्रत-समिति-कषायाणां धारणा 10 रक्षणं विनिग्रह-त्यागौ। तुर्विशेषणे । ये च वितथमाचरन्ति तांश्च वक्ष्यामः भृशमावेदयिष्यति । नाना अर्थान्तरभावे, पुरिस[स्स] जातमिति केचित् प्रियधर्माः, केयि अधाछन्दाः, सत्पुरुषशीलगुणांश्चोपदेश्या(क्ष्या)मः, समोसरणे तु अण्णउत्थियगिहत्थाण दृष्टयो दर्शिताः इत्यतो णाणप्पगारं पुरिस[स्स] जातं, तिष्ठन्तु तावन्नानाप्रकारा गृहस्थाः, अन्यतीर्थिका पासत्थादयो संविग्गा य णाणापगारा पुरिसजाता, णाणाछन्दा इत्यर्थः । अथवा किं चित्रं यदि नानाविधाः पुरुषाः नानाशीला एव भवन्ति ?, एक एव हि पुरुषस्तानि तानि परिणामान्तराणि परिणामयन् णाणापगारो पुरिसज्जातो भवति । तं जधा-कदाचित् 15 तीव्रपरिणामः, कदाचिन्मन्दस्वभावः, कदाचिन्मध्यमः, कदाचिन्मृदुस्वभावः, कदाचिन्निधर्म एव भवति, कृत्वा चाकृत्यं कश्चिन्निवर्त्तते, कश्चित् सुतरां प्रवर्त्तते, अन्यस्य चान्यः परीषहो दुर्विषहो भवति, अथवा [ दारुणा-5]दारुणस्वभावत्वाच्च कारं पुरुषजातं भवति । सतो य धम्म असतो य सीलं. सदिति शोभनः तस्य सतः धर्मो भवति यथार्थः, एवं समाधिर्मार्गश्च । असन्निति अभावे जुगुप्सायां च, अभावे तावत्-अशीला एव गृहस्थाः, जुगुप्सायां अशीलानारीवद् नासौ अशीलः किन्तु अशोभनशीलत्वाद् अशील इत्यपदिश्यते । दुगंछायां पासत्थादयो अण्णउत्थिया पासत्था य कुसीलाः । 20 सर्वाशुभनिवृत्तिः शान्तिः, सर्वभूतशान्तिकरत्वात् सर्वाशुभनिवृत्तिः शान्तिः, तथा च परमशान्तिः निर्वाणं भवति । अशान्तिः अशीलः । आत्मनः परेषां च इह वा शान्तिर्भवत्यमुत्र च, तां कर्मनिर्जरणशान्ति प्रादुःकरिष्यामि प्रकाशयिष्यामीत्यर्थः । कर्मबन्धकारणं चाशान्ति इह परत्र शिष्यदोष-गुणांश्च प्रादुःकरिष्यामि ॥ १ ॥ तत्र तावच्छिष्यदोषाः ५५७. अहो अ रातो अ समुट्टितेहिं, तधागतेहिं पडिलंभ धम्मं । समाधिमाघातमझूसयंता, सत्थारमेव फरुसं वदंति ॥२॥ ५५७. अहो अ रातो असमुद्वितेहिं. वृत्तम् । सम्यग् उत्थिताः समुत्थिताः, सम्यग्रहणात् समुत्थितेभ्यः संयमगुणस्थितेभ्यश्च द्विविधां शिक्षा गृहीत्वा तीर्थकरादिभ्यः तथागतेभ्यः संसारनिस्सरणोपायस्तावत् प्रतिलभ्येत । प्रतिलभ्य ज्ञान-दर्शन-चारित्रवन्तं धर्म प्रतिलभ्य तीर्थकरोपदेशाद् जमालिवद् आत्मोत्कर्षदोषाद् विनश्यन्ति, गोडामाहिलावसानाः सर्वे निवाः आत्मोत्कर्षाद् विनष्टाः बोटिकाश्च । त एवमात्मोत्कर्षात् समाधिमाघातमझूसयंता, भावसमाधिर्व्याख्यातः १ण करेति खं १ ख २ पु २ वृ०॥ २ संजम-तवेलु खं १ ख २ पु २ बृ० ॥ ३ आहत्तहं खं २ पु २॥ ४ आहत्तहियं खं १ खं २ पु १। आहत्तहीयं पु २ वृ०॥ ५ पवेयतिस्सं खं १ । पवेइइस्सं खं २ पु २ । पवेइयस्सं पु १॥ ६ पुरिसस्स भावं वृपा० ॥ ७ करिस्सामि पातुं खं २॥ ८ विनित्यात्याग्नौ । तु वा. मो० ॥ ९ "ज्ञानप्रकारम्' इति प्रकारशब्द आद्यर्थे, आदिग्रहणाच सम्यग्दर्शन-चारित्रे गृह्यते । तत्र सम्यग्दर्शनं औपशमिक-क्षायिक क्षायोपशमिकं गृह्यते, चारित्रं तु व्रत-समिति-कषायाणां धारण-रक्षण-निग्रहादिकं गृह्यते । एतत् सम्यग्ज्ञानादिकं 'पुरुषस्य' जन्तोः यद् 'जातं' उत्पन्नं तदहं 'प्रवेदयिष्यामि' कथयिष्यामि । तुशब्दो विशेषणे, वितथाचारिणस्तदोषांश्चाअविर्भावयिष्यामि । 'नानाप्रकार वा पुरुषस्य स्वभावं' उच्चावचं प्रशस्ता-प्रशस्तरूपं प्रवेदयिष्यामि ।" इति वृत्तिः ॥ १०°मझोस खं २ पु २ । मजोस खं १ पु १॥ ११ °मेवं खं २ पु १ पु २ वृ०॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१३ आहत्तहियज्झयणं तीर्थकरैः; “जुषी प्रीति-सेवनयोः" तं अस्सयंता कम्मोदयदोसेणं केयि दुब्वियबुद्धी असहहंता, केचित् श्रद्दधतोऽपि धृतिदुर्बलाः यावज्जीवमशक्नुवन्तो यथारोपितमनुपालयितुं, जेहिं चेव णिचारणवत्सलेहिं पुत्रवत् सङ्ग्रहीताः ते चेव कहिंचि चुक्क-क्खलिते चोदेमाणा अण्णतरं वा साधुं पडिचोदंति फरुसं वदंति, 'मा एवं करेहि त्ति नैष शास्तारोपदेशः' इति सस्थारमेव फरुसंवदंति, सो हि न ज्ञातवान्-किं वा तस्स उवदिसंतस्स पारकस्स छिज्जति ? सुहं परायएहिं हत्थेहिं इंगाला । कडिजति । अथवा यः शास्ति स शास्ता आचार्य एव, तं पि चोदेंतो फरुसं वदंति अशीलो वा असंतिभावे य वट्टमाणो, असत्पुरुषाः सुशीलं दुःशीलं वदन्ति दुःशीलं सुशीलं च ॥२॥ किश्च ५५८. विसोधियं वा अणुकाहयंते, जे आतभावेण वियागेरेंति। अट्ठाणिगे होति बहूगुणाणं, जे णाणसंकाए मुसं वदंति ॥ ३ ॥ ५५८. विसोधियं वा अणुकाहयंते. वृत्तम् । विसोधिकरं विसोधियं, धम्मकधा सुत्तत्थो वा । अनु पश्चाद्भावे, 10 कथितमाचार्यैः अनुकथयन्ति अन्येषाम् । तधाऽऽचार्यपरम्परागतं णाणं चरित्तं वा जमालिप्पभितयो आतभावेण वियागरोंति, भावो नाम ज्ञानं अभिप्रायो वा, उस्सुत्तं पण्णवेंति, पौर्वापर्येणाशक्नुवन्तः परिणमयितुं वितधं कथयन्ति आचार्यासमीपे, गोष्ठामाहिलवत् । निग्गता वा जमालिवत् ‘एवं न युज्यते, यथोदितमेव संयुज्यते' इत्येवं आतभावेन वियागरेंति । केचित् कथ्यमानमपि ब्रुवते-नैतदेवं युज्यते यथा भवानाह, स्यादेवं तु युज्यते । स एवं स्वच्छन्दः अट्ठाणिगे होति बहुगुणाणं, अनायतनं असम्भवः अनाचारः अस्थानमित्यनान्तरम् । गुणाः15 सुस्सूसति पडिपुच्छति सुणेति गेण्हति य ईहए यावि । तत्तो अपोहए वा धारेति करेति वा सम्मं ॥ १॥ [आव०नि० गा० २२] एतेसिं सुस्सूसणादीणं गुणाणं अत्थाणं भवति, वैनयिकमन्योन्यसाधारणवैयावृत्यादीनां च । अथवा "सवणे गाणे विण्णाणे" [ ] पठ्यते च-"अट्ठाणिए होति बहू णिवेसे" अस्थानिको गुणानाम् , दोषाणां तु बहू निवेशो भवति, नियतं वेशो निवेशोऽवैनयिकादीनां दोषाणाम् । जे गाणसंकाए मुसं वदंति, णाणे संका गाणसंका, तेसु तेसु 20 णाणंतरेसु एवमेतन्न युज्यते, अथवा संकेति मान्यार्थाः ये ज्ञानवन्तमात्मानं मन्यमानाः मुसं लवंति, अभयभावे छंदता णियमा चेव मुसं वदंति जमालिवत् , जम्मि अणुवादी अभिणिवेसेण भवति तदपि मृषा भवति ॥ ३ ॥ ५५९. जे आवि पुट्ठा पलिउंचयंति, आदाणमटुं खलु वंचयंति। असाधुणो ते इह साधुमाणी, मायण्णिऐहिंति अणंतैघातं ॥४॥ ५५९. जे आवि पुट्ठा पलिउंचयंति० वृत्तम् । ये इत्यनिर्दिष्टनिर्देशः । केनचिदधीतं कस्यचित् सकाशाद् जात्यादिपरिपेलवस्य, स च पृष्टः केनचित्-कस्य सकाशाद् भवताऽधीतम् ? इति, ततः स तस्मादाचार्याद् जात्यादिभिरात्मानमुत्कृष्टं मन्यमानः तमाचार्यमपद्भुते, प्रख्यातमन्यमुद्दिशति । योऽपि तावद् यथा वैरखामी पदानुसरणलब्धिसम्पन्नः आयरियातो अधिकतरं पण्णवेति तेनापि न निवितव्यः आचार्यः, किमङ्ग पुनर्ये समाना न्यूनतरा वा । जे पुट्ठा भणंति अत्तुक्कस्सेण-मया चैवैतद विस्तरतो विकल्पितं अर्थपदं सूत्रं वा विसोधितं, सो णिण्हगो असंतिभावट्ठितो । यस्य वा सकाशात् केनचिदधीतम ग्रहणशक्तितया वा तेनान्यतोऽधिकमधीतं शब्द-च्छन्द-हेतुकादि, गृहवासे वा तेन शब्दादीन्यधीतानि, परेण चोदितः-त्वया अमकाचार्यस्य सकाशादधीतम् ? इति, स किं जानीते वराको मृत्पिण्डः ? यस्यौष्ठावपि न सम्यक, यतः अभ्युत्थानादि १ करोति, नैष चूसप्र० ॥ २ परिक्कस्स पु० मो० । परिक्खस्स सं० वा० ॥ ३ ते खं २ पु १ पु २ वृ० दी । च खं १ ॥ ४याऽऽतभा खं २ पु १० दी० ॥ ५'गरेजा खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ६बह णिवेसे चूपा० धुपा०॥ ७वतेज्जा खं २ पु१। वदेजा खं १। वइज्जा पु २॥ ८°णुकोट्टयंते चूसप्र०॥ ९ आचार्यपरोक्षे इत्यर्थः ॥ १० यावि खं १ खं २ पु १ वृ०॥ . ११ आताण खं २ पु१॥ १२°एसिति खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ १३°तघंतं खं १ खं २ पु२॥ १४ प्रत्याख्या चूसप्र॥ Jain Education Intemational Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतगा० ५५८-६१ ] सूयगडंगसुतं बिइयभंगं पढमो सुयक्खंधो । २२१ विनयमीता निह्नवन्ति । एवं णाणे पलिउंचणा दंसणे य । चरित्ते तु कोइ पासत्थादि पुढविकाइआदि समारभते, कप्पा ऽकप्पविधिण्णुणा सावगादिणा पुट्ठो-किध तुब्भं एतं कप्पति ?, उदउल्लादि गेव्हंतो वा अमुगो ण एवं गेण्हति तुमं कहूं एतं गेहसि ?, तुब्भं वा एतं एवं आगतेल्लगं ? । एवं पुट्ठो इधलोगं कधेति, चइत्तुं इमं लोयं जोणिधम्मं सो पलिउंचेति - सोऽत्थ किं जाणति ? तुमं वा किं जाणसि ? चीर्णव्रता वयम् । एवं पलिडंचंता आदाणमठ्ठे खलु, आदानं ज्ञानादीनि, आदीयत इत्यादानम्, आदातव्यमित्यर्थः । असाधु [ णो ते इह ] साधुमाणी, ये साधुगुणबाह्यास्ते असाधव एव साधुमानिनः, 5 अणोवसंखाए य ते साधुवादं वदन्ति, सः असाधुः साधुमाणी दुगुणं करोति से पावं, बिदिया बालस्स मंदया, एवं शुद्धं रति परिसाए, द्वितीयं पापमासेवन्ते । एवं मायान्विताः एहिंति ते अणंतसंसारियं दुब्बोधिलाभियं कम्मं बंधित्ता अनंताई जातव्व-मरितव्वाइं घातमेहिंति । एवं माण - लोभदोसे वि ॥ ४ ॥ कोवे तु सद्य एव प्रतिषेधः क्रियते ? — ५६०. जे कोहणे होति जंगतट्ठभासी, विओसितं वा पुणो उदीरएज्जा । अद्धे व से दंडपहं गहाय, अविओसिते घासति पावकम्मी ॥ ५ ॥ ५६०. जे कोहणे होति जगतट्ठभासी ० वृत्तम् । जगतः अट्ठा जगतट्ठा, जे जगति भाषन्ते, जगति जगति तावत् खर-फरुस - णिहुरा, ण संयतार्था इत्यर्थः । ते पुनराचार्यादीन् साधून गृहिणो वा खर- फरुस - णिहुराणि भणति, कक्कसकसुगादीणि वा । अथवा जगदर्था छिन्द्वि भिन्द्वि बद्ध मारयत जातिवाद वा काण- कुंटादिवादं वा फुडंभाणी वा । "जय भासी" पठ्यते च येन तेन प्रकारेणाऽऽत्मैजयमिच्छति । विओसितं वा पुणो, विसेसेण ओसवितं विओसितं, खामितमित्यर्थः, तं सपक्खं परपक्खं वा क्षामयित्वा पुनरुदीरयति । अद्धे व से दंडपहं गहाय, दंडपधं णाम एक्कप - 15 इयमहापध इत्यर्थः, तं अध्वउद्देसतो गृहीत्वा गर्तायां घृष्टविषमे कूपे वा पतति, पाषाण - कण्टका - ऽभ्यहि - श्वापदेभ्यो वा दोषमवाप्नोति । अविओसितो णाम अधितपाहुडो दंडगत्थाणीयं केवलमेव लिङ्गं गृहीत्वा क्रोधादिविसमे विपर्ययरूपेषु वा पतति, एषणादिकडिल्लादिसु वा । उत्तरगुणेसु मूलगुणेसु वा विसुद्धिमयाणंतोऽकुर्वन् भावान्ध एव लभ्यते । घासति सारीर - माणसेहिं दुक्खेहिं ति ॥ ५ ॥ सीसगुण-दोसा हिगारे अनुवर्तमाने तद्दोषदर्शनार्थम् — ५६१. जे ' विग्गहीएँ अ नायभासी, ण से समे होति अ-झंझपत्ते । ओवातकारी य हिरीमंते य, एंगंतदिट्ठी य अंमायरूवी ॥ ६ ॥ १ पाव काऊ सयं अप्पाणं सुद्धमेव वाहरइ । दुगुणं करेति पावं बीयं बालस्स मंदत्तं ॥” इति ॥ २ जगट्ठ° खं १ । जयहूं खं २ पु१ पु २ चूपा० यृपा० ॥ ३ 'सितं जो उ मुदीरइजा खं १ । °सितं जे य उदीरणजा खं २ पु १ पु २ ॥ ४ अंधे व से खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ५ त्मा जय' चूसप्र० ॥ ६ जे कोहणे होतिउं णायभासी, एवं समे भवति अझंझपत्ते चूपा० ॥ ८ हिरीमणे य खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ११ प्रत्यापेक्षणादिमेरा नानुपा' चूसप्र० ॥ ७ ही अन्नाभासी खं १ पु ९ एसडी य वृपा० दीपा० १ पु २ वृ० दी० । 'हिते अण्णाणभासी खं २ ॥ १० अमाइरूवे खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ॥ 10 25 ५६१. जे विग्गहीए० वृत्तम् । विग्गहो णाम कलहः, विग्गहसीलो विग्रहिकः, यद्यपि प्रत्युपेक्षणादिमेरामनुपालयति, नात्याभाषी अस्थानभाषी गुर्वधिक्षेपी प्रतिकूलभाषी, न सो समो भवति, समो नाम मध्यस्थः, न रक्तो न द्विष्टः, झंझा णाम कलहः [ तं ] प्राप्तः । अथवा नासौ समो भवति अझञ्झाप्राप्तैः [झन्झाप्राप्तः ] तु गृहिभिः समो भवति, तेन नैवंविधेन भाव्यं शिष्येण । पुनरपि पठ्यते च - " जे कोहणे होतिउं णायभासी, एवं समे भवति अझंझपत्ते ।" किश्च - ओवातकारी य, यथोद्दिष्टदोषरहितः ओवातकारी, चशब्दोऽत्र शिष्यदोषनिवृत्तये द्रष्टव्यः । ओवातो णाम आचार्यनिर्देश:, तद्धि एवं कुरु मा चैवं कुरु तथा गच्छ आगच्छेति वा । अथवा सूत्रोपदेशः उववायः । ह्रीः लज्जा संयम इत्यनर्थान्तरम्, ह्रीमान् संयमवानित्यर्थः, लज्जते च आचार्यादीनां अनाचारं कुर्वन् लोकतश्च । एगंतदिट्ठी य, एगंतदिट्ठी नाम सम्मद्दिट्ठी असहायी । अमायरूपी नाम न छद्मना धर्मं गुर्वादींश्चोपचरति ॥ ६ ॥ 20 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१३ आहत्तहियज्झयणं ५६२. से पेसले सुहुमे पुरिसजाते, जचण्णिते चेवं स उजुकारी । बहुं पि अणुसासिते जे तेहची, सैमे हु से होइ अझंझपत्ते ॥७॥ ५६२. से पेसले० वृत्तम् । पेसलो नाम पेसलवाक्यः, अथवा विनयादिमिः शिष्यगुणैः प्रीतिमुत्पादयति पेशलः । सुहुमो णाम सुहुमं भाषते अबहुं च अविघुष्टं च नोच्चैः । पुरुषजात इति से पेशलः सूक्ष्मः स जात्याऽन्वितः । स उजुओ, 5 उजुगो णाम संजमो, जं वा बुच्चति तं उजुगमेव करेति ण विलोमेति । सकारो दीपनार्थे द्रष्टव्यः, स पेशलः स सूक्ष्मः स अमोहः पुरुषो (? ष) जातः स जात्यादिगुणान्वितः स उजुकारी । बहुं पि अणुसासिते, यद्यपि कचित् प्रमादात् स्खलितो बलप्यनुशास्यते तथाप्यसौ तथाचिरेव भवति, अर्चिरिति लेश्या, तथेति यथा पूर्व लेश्या तथालेश्य एव भवति, पूर्वमसौ विशुद्धलेश्य आसीत् अनुशास्यमानोऽपि तथैव भवत्यतो । तथा च न क्रोधाद्वा मानाद्वा विशुद्धलेश्यो भवति । समो नाम तुल्यः, असौ हि समो भवत्यझझप्राप्तः, वीतरागैरित्यर्थः ॥ ७॥ इदाणिं माणदोसा सिस्सस्स वि आयरियस्स वि ५६३. जे आवि अप्पं Qसिमं ति मंता, संखाय वादं अपरिक्ख कुज्जा। तवेण वा हं अहिते त्ति णचा, अण्णं जणं पस्सति विबंभूतं ॥८॥ ५६३. जे आवि अप्पं वुसिमं ति णच्चा (मंता ). वृत्तम् । य इत्यनिर्दिष्टनिर्देशः । वुसिमं संय[म]मयमात्मानं बुसिमं ति मत्वा, अहं सप्तदशप्रकारसंयमवान् मत्वा नाम ज्ञात्वा । संखाए ति एवं गणयित्वा, अथवा संख्या इति ज्ञानम् , ज्ञानवन्तमात्मानं मत्वा । वदनं वादः, किं वदति ?, कोऽन्यो मयाऽद्यकाले संयमे सदृशः सामाचारीए वा। 16 अपरिक्ख णाम अपरीक्ष्य भणति रोस-पडिणिवेस-अकयण्णुताए वा, अथवा मानदोषादपरीक्ष्य वदति । माणदोसो णाम जं जं मदं करेति तं तं उवणति । तवेण वा हं अहिते ति णच्चा, षष्ठादीनां तपसां कोऽन्यो मया सदृशो भवतामोदनमुण्डानाम् ? । बिंबभूतमिति मनुष्याकृतिमात्रम् , द्रव्यमेव च केवलं पश्यति न तु विज्ञानादिमनुष्यगुणानन्यत्र प्रतिमन्यते । अथवा-"चिंध[भूत] मिति' लिङ्गमात्रमेवान्यत्र पश्यति, न तु श्रमणगुणान् उदकचन्द्रकवत् कूटकार्षापणवच्चेत्यादि ॥ ८ ॥ त एवंविधाः शिष्याः गुणहीनाः अशीले अशान्तौ च वर्तन्ते, सच्छीलाञ्च प्रलीयन्ते । केण ?५६४. एगंतकूडेण तु से पलेति, ण विजती मोणपदंसि "गोते। जे माणणऽद्वेण विउक्सेन्जा, वैसु पण्णऽणतरेण अबुज्झमाणे ॥९॥ ५६४. एगंतकूडेण तु से पलेति० वृत्तम् । संयमातो पलेऊण पुनर्जन्मकुटिले संसारे पुनः पुनर्लीयन्ते प्रलीयन्ते । यतश्चैवं तेण ण विजती मोणपदंसि गोते, पदं नाम स्थानम् , मुनेः पदं मौनपदम् , संयमस्थानमित्यर्थः, गोते त्ति गारवः, संयमस्थानं प्राप्य स न कार्य इति, अथवा गोत्रमिति अष्टादशशीलाङ्गसहस्राणि तत्रासौ गोते ण विद्यते । किञ्च-जे माणण25 ऽद्वेण विउक्कसेजा, माननं एवार्थः माननार्थः, मानप्रयोजनः माननिमित्त इत्यर्थः, विविधं उत्कर्ष करोति, वसु त्ति संयमेण विउक्कसति अप्पाणं । पण्णऽण्णतरेण वा, प्रज्ञानेन अन्यतरेण वा, प्रज्ञानं ज्ञानं नाम सूत्रमर्थं उभयं वा, ममाहि (? मम हि) कंट्ठोट्ठविप्पमुकं विशुद्धं सुत्तं, अर्थग्रहणपाटवविस्तरतश्चैतान् कथयामि लोक-सिद्धान्तवेत्ताऽहम् , किमन्यैर्जनैः ? मृगास्त्वन्ये चरन्ति चन्द्राधस्ताद्वा भ्रमन्ति अबुज्झमाणे त्ति आत्मोत्कर्षदोषम् ॥ ९ ॥ किश्च १°व सुउज्जुयारे खं २ पु १ पु २ वृ० दी । °व सुउज्जुगारे खं १ । व सुउज्जुचारे वृपा० ॥ २ तहच्या खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ३ समेह से पु १॥ ४ यावि खं १ खं २ पु १॥ ५ वसुमं ति खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ६ रिच्छ कु° खं १ खं २ पु १ पु २॥ ७ सहिते त्ति मंता खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० । सधिते पु १॥ ८ पासति खं १ ॥ ९चिंधभूतं चूपा०॥ १०य खं २ पु १ पु २॥ ११ गुत्ते खं २ पु १ पु २ । णाते खं १॥ १२ वसुमण्णतरेण खं १ खं २ पु१ पु २ वृ० दी० ॥ १३ तु पेसले. वृत्तम् चूसप्र० ॥ १४°न्तावब्भाहम् चूसप्र.॥ Jain Education Intemational Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ सुत्तगा०५६२-६८] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। ५६५. जे माहणे खत्तियजाइए वा, तेहुग्गपुत्ते तह लेच्छेची वा। जे पंचईए परदत्तभोई, गोतेण जे थैभति माणबद्धे ॥१०॥ ५६५. जे माहणे० वृत्तम् । माहण इति साधुरेव, जो वा पूर्व ब्राह्मणजातिरासीत् । क्षत्रियो राजा तत्कुलीयोऽन्यतरो वा । उग्ग इति लेच्छवीति च क्षत्रियाणामेव गोत्रभावः । अन्ये च केचिद् द्विजाद्याः प्रव्रजिताः । एवमादिजातिविसुद्धा जे पवईए परदत्तभोई, चइत्ताणं रजं रटुं च पचइतो, अथवा अप्पं वा बहुं वा चइत्ता पव्वइतो, परतो । पापञ्चदत्तमेषणीयं च भुते, शेषैरन्यैः सर्वैरपि संयमगुणैः युक्तोऽसावपि तावद् जो गोतेण जात्यादिना स्तभ्यते, स्वरूपतो कोइ हरिएसबलत्थाणीयो मेतञ्जत्थाणीयो वा । अन्यतरं वा एवंविधं द्रमकादिप्रव्रजितं निन्दति । अथवा जे माहणा खत्तिया अदुवा उग्गपुत्ता अदु लेच्छवी वा जे पव्वइता, प्रव्रजिता अपि भूत्वा शिरस्तुण्डमुण्डनं कृत्वा परगृहाणि भिक्षार्थमटन्तः मानं कुर्वन्तीत्यतीव हास्यम् , कामं मानोऽपि क्रियते यद्यसौ श्रेयसे स्यात् ॥ १० ॥ ५६६. ण तस्स जाती व कुलं व ताणं, णण्णत्थ विजा-चरणं सुचिण्णं । 10 णिक्खम्म से सेवतिऽगारिकम्म, णं से पारके होति विमोक्खणाए ॥११॥ ५६६. ण तस्स जाती व कुलं व ताणं. वृत्तम् । जाति-कुलयोर्विभाषा मातृसमुत्थेत्यादि । त्राणमिति न संसारपरित्राणं, कर्मनिर्जरेत्यर्थः । नान्यत्रेति, विद्याग्रहणाद् ज्ञान-दर्शने गृहीते, चरणग्रहणात् संयम-तपसी । णिक्खम्म से सेवतिज्गारिकम्मं, स इति जाति-कुलविकत्थनः, अकारिणं कर्म अकारिकर्म, तद्यथा-अहं जात्यादिसुद्धो, न भवानिति, ममकारा-ऽहतारौ वा इत्यादि अगारिकर्म । नासौ पारको भवति धर्म-समाधि-मार्गाणां विमोक्षस्य वा, अथवा नाऽऽत्मनः 15 परेषां वा तारको भवति ॥ ११॥ किश्व ५६७. "णिगिणे वि या भिक्खु सुलूहजीवी, जे गारवं होति सिलोगगामी । आजीवमेतं तु अबुज्झमाणे, पुणो पुणो विपरियोसुवेति ॥ १२॥ ५६७. निगिणे उ० वृत्तम् । णिगिणे वि या भिक्खु सुलूहजीवी, निगिणो नाम द्रव्याचेलः । लूहो संयमः, तेन जीवति अन्तप्रान्तेन, लहेति वा तेनैव रूक्षजीवितेन गर्वितो भवति, न च समो भवति अरक्त-द्विष्टैरिति, न वा 20 अझझाप्राप्तः समो भवति । आजीवमेतं तु अबुज्झमाणो, “जाती कुल गण कम्मे सिप्पे आजीवणा तु पंचविधा।" [पिण्डनि० गा० ४३७] 'जात्या सम्पन्नोऽहम्' इति मानं करोति, प्रकाशयति चाऽऽत्मानं स्वपक्षे परपक्षे, तथा चैनं कश्चित् पूजयति एषा हि आजीविका भवति मददोषश्च, अंबुज्झमाणे पुणो पुणो चाउरते संसारकंतारे विपर्यासो नाम जाति-मरणे, किमङ्ग पुण जो सव्वसो चेव मुक्तधुरो लिङ्गमात्रावशेषः ? सोऽनन्तकालमटति ॥ १२ ॥ जमेते दोसा समाधिमाघातम,संताणं आयरियपारिहावीणं तस्मादिमैः शिष्यगुणैर्भाव्यम् । तं जधा- 25 ५६८. जे भासवं भिक्खु सुसाहुवादी, पणिधाणवं होति विसारदे य। आगाढपण्णे सुयभावितप्पा, अण्णं जणं पण्णसा परिहवेजा ॥ १३ ॥ ५६८. जे भासवं० वृत्तम् । सत्यभाषावान् धर्मकथालब्धियुक्तो वा भाषावान् । सुष्टु साधु वदति सुसाधुवादी, मृष्टाभिधानो वा क्षीर-मध्वाश्रवादि । पणिधाण ति “से कालण्णे बलण्णे" [भाचा. श्रु० १ अ० २ उ०५ सू०३] तथा १°हणे जाइए खत्तिए वा पु १ पु २॥ २°जायए खं २ ॥ ३ तह उग्ग खं १ खं २ पु १॥ ४ लेच्छती ख १ । लेच्छए खं २ पु१ पु २॥ ५पव्वतिए खं १ । पव्वइते खं २ पु १॥ ६°त्तभोगी खं १॥ ७ बज्झति पु १॥ ८लेच्छतीति वा०॥ ९ गारिअंग ण वृ० । 'गारिकम्मं खं १ खं २ पु १ पु २ वृपा० दी० ॥ १०ण से पारए होति विमोयणाए खं १ पु १ पु २ वृ० दी। ण से परे होति विमोयणाए खं २ ॥ ११ णिकिंचणे भिक्खु सुखं १ पु १पु २ वृ० दी। णिगिणेह भिक्खू उ सुखं २॥ १२°रितासु खं १॥ १३ अपुजमाणे चूसप्र०॥ १४ अमृषतामित्यर्थः ॥ १५ पडिभाणवं चूपा. वृत दी। पडिहाणचं खं १ ख २ पु १ पु २॥ १६ रते य खं १॥ १७ सुविभावितप्पा खं १ पु २ वृ० दी । सुयभावियप्पा खं २ पु१॥ Jain Education Intemational Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१३ आहत्तहियज्झयणं "केऽयं कं च णए पुरिसे' [भाचा० श्रु० १०२ उ०६ सू० ५]। अक्षिप्तः पडिभणति उत्तरं भाषते प्रतिभणतीति पिडिभाणवं, औत्पत्तिक्यादिबुद्धियुक्तः सन् प्रतिभानवान् । अर्थग्रहणसमर्थो विशारदः प्रियकथनो वा, कश्चिद् धर्मकथी अपि सप्य[त्यर्थमागाढप्रज्ञः। [श्रुतं] वैशेषिकादिहेतुशास्त्राणि, तैरस्य भावितः आत्मा स भवति [श्रुत]भावितात्मा । अण्णं जणं, अण्णमिति यो न भाषावान् संस्कृतभाषी वा, असाधुवादी न मृष्टवाक्, [न] सम्प्रतिपत्तिकुशलः, न च • लोक-लोकोत्तरशास्त्रेषु आगाढप्रज्ञेषु भावितात्मा, स एवंविधः कश्चित् पण्णसा णाम प्रज्ञया परिभवति ॥ १३ ॥ न वा भवान (?), उच्यते ५६९, एवं ण से होति समाधिपत्ते, जे पर्पणसा भिक्खु विउकसेति । ___ अधवा वि जे लाभमदेण मत्ते, अण्णं जणं खिंसति बालपण्णे ॥ १४ ॥ ५६९. एवं० वृत्तम् । एवं ण से होति समाधिपत्ते, एवमनेन प्रकारेण समाधिश्चतुर्विधः । समाधिप्राप्तो यः प्रज्ञया 10 भिक्षुरात्मानं विउक्कसेति अहं श्रेष्ठो नान्य इति । अधवा वि जे लाभमदेण मत्ते, अहं वत्थ-पडिग संथारगमादी अण्णस्स वि ताव दावे सत्तो, किमंग पुण अप्पणो अप्पादितुं, तुम सो वा संअण्ण-पाणगमवि ण लभसि. एवं सो अण्णं जणं खिसति बालपण्णे । पुनरपि पठ्यते च-"अहवा वि जो जातिमदेण मत्तो, अण्णं जणं खिसति बालपण्णे ।" एवं अण्णे वि मदा अवुत्ता वि भाणितव्वा ॥ १४ ॥ एतान् दोषान् मत्वा तेण ५७०. पण्णामदं चेव तवोमतं च, णिण्णामए गोयमदं च भिक्खू । आजीवतं चेव चउत्थमाहु, से पंडिते उत्तमपोग्गले से ॥ १५॥ ५७०. पण्णा. वृत्तम् । पण्णामदं चैव तवोमतं च, प्रज्ञामदो नाम अहं प्रज्ञासम्पन्नः, अहं तपस्वी नान्ये इत्यतः परं परिभवति, तदेतौ द्वावपि मदौ निचितं निश्चितं वा नामयेत्, निनामत्वं नयेद् णिण्णामयेदित्यर्थः । एवं गोत्र[मदमपि चशब्दाद् अन्यान्यमपि आजीवतं चेव चउत्थमाह, आजीवतेऽनेनेति आजीवकः मद इति वाक्यशेषः, मदेन वाऽऽजीवतीत्यर्थः। तद्यथा-जातिमदेनाजीवति, एवं कुलमदेनाप्याजीवति, नामनातीत्यनुवर्तत एवेति । से इति स पण्डितः, स्वक20 मभिः पूर्यते गलति चेति पुद्गलः, स पण्डितश्चोत्तमपुद्गलश्च, उत्तमजीव इत्यर्थः । अथवा जो सोभणो लाडाणं सो पुद्गलो बुच्चति, जधा पुद्गलजम्मो पुग्गलजवत्ती ॥ १५॥ ५७१. एताणि मदाणि विगिंच धीरे, ण ताणि सेवेज सुधीरधम्मा। ते सबगोतावगते महेसी, उच्चं अंगोतं च गतिं वयंति ॥ १६ ॥ ५७१. एताणि मदाणि विगिंच धीरे० वृत्तम् । एतानि यान्युद्दिष्टानि । विगिचेति उज्झित्वा । अहमिदानीं 25 जात्यादिमदस्थानानि हित्वा प्रव्रजितः । धीः बुद्धिः । ण ताणि सेवेज, किमुक्तम् ? न जात्यादिभिरात्मानं उत्कर्षत, यथा पूर्वरतादीनि न स्मर्यन्ते तथा तान्यपि, न वा पश्चाज्जातैर्बहुश्रुतादिभिरात्मानं उत्कर्षेत् । सुष्टु धीरधर्माणः ज्ञानधर्मिणो गीतार्थाः । आसेवित्वा ते सव्वगोतावगते महेसी, ते इति धीरधर्माणः, सर्वगोत्राणि सर्व वा कर्म गुप्यते येन तासु तासु गतिष स्वकर्मोपगाः अतः कर्मैव गोत्रं भवति । उच्चं नाम इहैव सर्वलोकोत्तमतां प्राप्य लोकाग्रं निर्वाणसंज्ञक : प्राप्नोति ॥ १६ ॥ स एवं सर्वमदस्थानरहित: १पण्णवं खं १ वृ० दी। पण्णसा खं २ पु १ पु २ ॥ २°कसेजा खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ३ जे लाभमयावलित्ते, खं १ खं २ पु१ पु २ वृ. दी० । जो जातिमदेण मत्तो चूपा०॥ ४ आपादितुमित्यर्थः ॥ ५सो व्वा स चूसप्र०॥ ६ खानपानकमपि ॥ ७ वगं चेव खं १ खं २ पु १ पु२॥ ८'मत्वान्नयेत् चूसप्र०॥ ९स्वयेते सं० वा० मो० ॥ १०णेताणि सेति स खं २ पु १ पु २० दी.॥ ११ सुवीर खं १। १२ गोत्ताव खं १ खं २ पु १ पु २॥ १३ अगोत्तं खं १खं १ पु१पु२॥ १४ उति खं १॥ Jain Education Intemational Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ सुत्तगा० ५६९-७५] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। ५७२. भिक्खू मुंतचा कइ दिधम्मे, गोमे व णगरे व अणुप्पविस्सा। से एसणं जाणमणेसणं च, जो अण्ण-पाणे य अणाणुगिद्धे ॥१७॥ ५७२. भिक्खू मुतच्चा० वृत्तम् । अर्चयन्ति तां विविधैराहारैर्वनाद्यलकारैश्चेत्यर्चा, मृता इव यस्यार्चा स भवति मृतार्चः, मतो हि न शृणोति न पश्यतीत्यर्थः, एवं भिक्षुरपि शृण्वन्नपि न शृणोति, पश्यन्नपि न पश्यतीत्यादि इत्यतो मुतच्चा। संयम वा मुतमुच्यते, अर्चेति लेश्या, सँ मुतलेश्यो मुतच्चा, विसुद्धाओ सम्मत्ताओ अविसुद्धाओ असम्मत्ताओ। क्वचित् । सूत्रे चार्थे च दृष्टधर्मा, दृष्टसारो दृष्टधर्मा इत्यर्थः । कचिद् ग्रामे नगरे वा अनुप्रविश्य गच्छवासी णिम्गतो वा से एसणं जाणमणेसणं च, स एसणा बातालीसदोसविसुद्धा, तविवरीता असणा । अथवा एसणा जिणकप्पियाणं पंचविधा अलेवाडादि, हेडिल्लगातो अणेसणातो । अथवा जा अभिग्गहिताणं सा एसणा, सेसा अणेसणा । जो पुण अण्ण-पाणे य अणाणगिद्धे से णं सक्केति परिहरितुं, सो च्चेव य जाणगो॥ १७॥ किश्च५७३. अरति रतिं च अभिभूय भिक्खू , बहूजणे वा तह एगचारी। 10 एगंतमोणेण वियागरेजा, एगस्स जंतो गतिरागती य ॥१८॥ ५७३. अरति रतिं च अभिभूय भिक्खू० वृत्तम् । अरतिं संयमे रतिं असंयमे त्ति, अभिभूय णामा अक्कमिऊणं । बहुजणमज्झम्मि गच्छवासी। एगचारि त्ति एगल्लविहारपडिवण्णगो । अरतिग्रहणाच्च परीसहगहणं । एगंतमोणेण तु एगंतसंयमेणं, एकान्तेनैव संजममवलम्बमानः पृष्टो वा किश्चिद् वाकरोति, न तु यथा मौनोपरोधो भवति, संयमोपरोध इत्यर्थः । तद्यथा-"जा य भासा पाविका सावजा सकिरिया" [ ] किश्च से वागरेति ? उच्यते, एगस्स 15 जंतो गतिरागती य, एक एव च परभवं यात्यात्मा, एक एव चाऽऽगच्छति । उक्तं हि एकः प्रकुरुते कर्म भुनस्यकश्च तत्फलम् । जायत्येको मृयत्येको एको याति भवान्तरम् ॥ १॥ पत्तेयं जाति, पत्तेयं मरति ॥ १८ ॥ धर्मकथिकविशेषस्तु५७४. सयं समेच्चा अदु वा वि सोचा, भासेज धम्मं हितयं पयाणं । 20 जे गरहिता सणिदाणप्पयोगा, ण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा ॥१९॥ ५७४. सयं समेच्चा० वृत्तम् । स्वयं समेत्येति स्वयं ज्ञाता (ज्ञात्वा ) तीर्थकरः, तच्छिष्यास्तु श्रुत्वा भासेज धम्मं हितयं पयाणं, हितं इहलोक-परलोके य । किञ्च-जे गरहिता सणिदाणप्पयोगा, गर्हिता निन्दिता, "णिदाण बंधणे" सह णिदाणेण सनिदानाः, प्रयुजंत इति प्रयोगाः त्रिविधाः । अधवा कम्मकधा अधिकृता, तेन ये वाक्यप्रयोगा गर्हिताः, तद्यथा-सारम्भ-सपरिग्रहं कर्म प्रज्ञापयन्ति, कुतीर्थिनः प्रशंसन्ति-एतेऽपि हि कायक्लेशादीन कुर्वते, सावद्यदानं वा 25 प्रशंसन्ति, न वा तथाप्रकारं कधं कहेजा जेण परो अक्कोसेज वा, त एवमादी वाग्दोषां धर्मजीवनोपरोधकत्वेन न सेवन्ते सुधीरधर्माणः कथकाः ॥ १९ ॥ किश्च ५७५. केसिंच तक्काए अबुज्झभावं, खुद्द पि गच्छेन्ज अबुज्झमाणे। आउस्स कालातियारं वैघातं, लद्धाणुमाणे तु परेसु अढे ॥२०॥ ५७५. केसिंच तत्काए अबुज्झभावं० वृत्तम् । केषाश्चिदिति मिथ्यादृष्टीनां अबुद्धिभावं अबुज्झभावं, अबुध्यमान-30 भावमित्यर्थः, नैनमपरियच्छन्तं खर-फरुसाई भणेज्जा, मा भूत् क्षौद्रमपि गच्छन्ति, अबुध्यमानः क्षौद्रं च गतः आउस्स १मुयचा सुय-दिट्ठखं २ पु २ । मुयच्चा तह दिट्ठपु १ वृ० दी॥ २ गामं व णगरं व खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ३च, अण्णस्स पाणस्स अणा खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ४ सम्मुत पु० सं०॥ ५बहुंजणे वा अहवेग खं १॥ ६ विताग खं १ ॥ ७ हितदं पदाणं खं १ ॥ ८ सणिताणप्पतोगा खं १॥ ९णेताणि पु २॥ १० क्यशेषःप्रवा. मो०॥ ११ केसिंचि खं १ पु १ पु २॥ १२ खुई पि खं १ खं २ पु १ पु २॥ १३ असहहाणे खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ १४ आयुस्स खं १॥ १५ वघाते खं १ ख २ पु १ पु २॥ १६ माणेण पखं २ पु१माणे त पंख १माणे य प पु २॥ सूय. सु. २९ Jain Education Intemational Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१४ गंथज्झयणं कालातियारं वघातं, यावद् येनाऽऽयुष्कालो निर्वर्तितः स तस्यायुःकालः, अतिचरणमतीचारः, आयुःकालस्य अतीचरणा वघातं देजा, पालक इव खन्दकस्य, येन चान्योपघातो भवति अथवा अक्कोसेज वा । लद्धाणुमाणे तु अणुमीयतेऽनेनेत्यनुमानम् , लब्धं अनुमानं येन स भवति लब्धानुमानः। कथं लब्धम् ?, नेत्र-वक्रविकारेण हि अन्तर्गतं मनो गृह्यते । तं जधा-'केयि पुरिसे ? किं वा दरिसणं अभिप्पसण्णे ? किं चास्य प्रियमप्रियं वा यदिदं कथ्यते ?' इत्येवं लब्धानुमानः 5 परेषु कथयेत् येनाऽऽत्महितं भवति परहितं च इह परत्र च ॥ २० ॥ अथवाऽयमर्थः ५७६. कम्मं च छंदं च विगिंच धीरे, विणएन तु संवतो आतभावं। रूवेहिं लुप्पंति भयावहेहि, विजं गहाया तस-थावरेहिं ॥ २१ ॥ ५७६. कम्मं च छंदं च विगिंच धीरे० वृत्तम् । येन कर्मणा जीवति न तेनैनं परिभाषेत्, यथा हे कोलिक !, न चैवैनं तेन कर्मणा निन्दयेदिति, यथा-चर्मकारो भवान् कोलिको वा, मा सो उडुरुहो णं गेण्हेज्ज । छन्दं चास्य जाणेज्ज, 10 तद्यथा-दारुणो मृदुर्वा । अथवा छन्द इति येनाऽऽक्षिप्यते वैराग्येन शृङ्गारेण इतरेण वा, तथा-के अयं पुरिसे ? कं वा दरिसणमभिप्पसण्णे? । स एवं ज्ञात्वा विणएज तु सव्वतो आतभावं, आतभावो णाम मिथ्यात्वं अविरतिर्वा, ततो अप्रशस्तादात्मभावात् सर्वतो विनयेत्, एवं कालण्णे मातण्णे जे व खेअण्णे। तं जधा रूवेहि लुप्पंति, रूपं सर्वप्रधानं विषयाणाम्, तत्रापि स्त्रीरूपादि, तेष्वेव मुच्छमालुप्पते, इहापि तावत् जधा "सद्देसु उ०" [ज्ञाता० श्रु० १ ० १७ सू० १३५ गा० १६ पत्र २३३] गाधा, किमु परलोए ?। एवमेतानिन्द्रियापायान् दृष्ट्वा विवज्जति त्ति विद्यां गृहीत्वा ज्ञात्वेत्यर्थः, 16 गृहीत विद्यः सन् स-स्थावररक्षणं धर्म कथयन्ति ॥ २१ ॥ तं पुण कधेन्ता न पूजा-सत्कारादीन्यालम्बनानि आलम्ब्य कथयेदित्यतो निवार्यते ५७७. ण पूयणं चेव सिलोनकामी, पियमप्पियं कस्सति णो करेजा। सच्चे अणटे परिवजयंते, अंणाइले या अकसाइ भिक्खू ॥ २२ ॥ ५७७. ण पूयणं चेव० वृत्तम् । ण पूया मे भविस्सती, सिलोगो णाम जसोकित्ती, यथा नानेन तुल्यः प्रज्ञप्त20विस्तरो कथको मृष्टवाक्य इत्यादि । प्रियं च न कुर्यादसंयतानां अन्यतरेण सावद्योपकारेण वा अप्रियम । अथवा ममायं प्रियः अयं चाप्रिय इति, अथवा यो यस्य प्रियः स न तस्य पिशुनवचन-विद्वेषणादिभिः कुर्यात् कर्मकथाम् । किञ्च-सव्वे अणदे अशोभना अर्थाः अनर्थाः, संयमोपरोधकृद् अर्थोऽनर्थः, अनर्थदण्ड इत्यर्थः । अणाइलो णाम अनातुरः क्षुधादिभिः परीषहैः । अकषायशीलः अकषायी ॥ २२ ॥ ५७८. आहत्तधिजं समुपेधमाणे, सवेहिं पाणेहिं "णिखिप्प दंडं । ___णो जीवितं णो मरणाभिकंखी, चरेज मेधावी वलयाविमुक्को॥२३॥त्ति बेमि॥ ॥आहत्तहितं सम्मत्तं ॥ १३ ॥ ५७८. आधत्तधिजं समुपेधमाणे० वृत्तम् । आधत्तधिजं धम्मं मग्गं समाधि समोसरणाणि य यथावदुदितानि सम्यग उदपेक्षमाणः । सम्वेहिं पाणेहिं णिखिप्प दंडं, दंडो नाम घातः। णो जीवितं णो मरणाभिकंखी असंजमजीवितं परीषहोदयाद्वी मरणं । चरेज मेधावी वलयाविमुक्को त्ति वलया माया, ताए विमुक्तः । एवं ब्रवीमि ॥ २३ ॥ ॥ यथातथीयं त्रयोदशमध्ययनम् ॥ १३ ॥ विविंच खं १ ख २ पु १ पु२॥ २ तो खं १॥ ३ सव्वहा वृ• दी० । सुव्यते खं २ पु १ ॥ ४ पावभावं वृ० । आयभावं खं १ खं २ पु १ पु २ वृपा० दी०॥ ५भयारपहिं पु १ । भयावएहिं खं २ पु २॥ ६ लोयगामी खं २ पु १ पु २॥ ७पितमप्पितं खं २ पु १॥ ८ कहेजा खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ९ अणाउले खं २ पु १ पु २ वृ० दी । अणादिले खं १॥ १० सादि मिखं १ । 'साय मिखं २ पु १ पु २॥ ११°त्तहीतं स खं १ । त्तहिजं खं २ पु १ पु २॥ १२ णिहाय डंडं खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ १३ कंखी, परिव्वदेजा वल खं १। परिव्वएजा वल खं २ पु १ पु २॥ १४ द्वा रमणं पु० सं० । द्वा रमण्णं वा० मो० ॥ १५ मया तए वमुक्तः चूसप्र०॥ Jain Education Intemational Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा०५७६-७९ णिजुत्तिगा० १२०-२४] सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। ૨૨૭ [चोद्दसमं गंथज्झयणं] 10 अज्झयणाभिसंबंधो-वलयाविमुक्को त्ति भावगंथविमुक्को त्ति अभिहितः, सो पुण ग्रन्थो इह वणिज्जति, एस संबंधो। तस्स चत्तारि अणुओगद्दाराणि । अत्थाहिगारो-गंथो जाणिऊण विप्पयहितव्यो, पसत्थभावगंथो य गच्छेतव्वो । णामणिप्फण्णे ग्रन्थे । तत्थ गंथो पुव्वुद्दिवो दुविधो सिस्सो य होति णायव्वो। पव्वावण सिक्खावण पगयं सिक्खावणाए उ ॥१॥ १२०॥ गंथो पुव्वुद्दिट्ठो दुविधो० गाधा । गंथो दुविधो--दव्वे भावे य, जधा खुड्डागणियंठिजे [उत्तरा० अ० ६ नि० गा० २४०-४२]। भावगंथो पुवुट्ठिो। तं पुण गंथं जो सिक्खइ सो सिक्खउ त्ति वा सेहो त्ति वा सीसो त्ति वा वुञ्चति । सो पुण दुविधो-सहत्थपव्वावित्ता सिक्खवित्ता । तत्थ सिक्खावणासिस्सेण अधियारो॥१॥ १२० ॥ * सो सिक्खगो तु दुविधो गहणे आसेवणे य बोधव्वो। गहणम्मि होति तिविहो सुत्ते अत्थे तदुभये य ॥२॥ १२१ ॥ * आसेवणाए दुविधो मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य।। मूलगुणे पंचविधो उत्तरगुणे बारसविधो तु॥३॥ १२२ ॥ मूलगुणे पंचविधो पाणातिवायवेरमणादि । प्राणातिपातविरमणं ज्ञात्वा तमेव आसेवते, करोतीत्यर्थः । एवं 15 उत्तरगुणेसु वि । ते य द्वादसविधमासेवंते ॥ २ ॥ ३ ॥ १२१ ॥ १२२ ॥ एष हि शिष्यः आचार्य प्रति भवति तेनाऽऽचार्योऽपि द्विविध:___ आयरिओ' पुण दुविधो पव्वावेंतो य सिक्ख।तो य। सिक्खावेंतो दुविधो गहणे आसेवणे चेव ॥ ४॥ १२३ ॥ आयरिओ पुण दुविधो० गाधा । पव्वावेतो य सिक्खवेंतो य । पव्वावेतो णाम जो दिक्खेति । सिक्खावेंतो 20 दुविधो-गहणे आसेवणे [चे] व ॥ ४ ॥ १२३ ॥ गातो वि य तिविधो सुत्ते अत्थे य तदुभये चेव । आसेवणाए दुविधो मूलगुणे उत्तरगुणे य ॥५॥१२४ ॥ ॥ गंथो सम्मत्तो ॥ १४ ॥ गार्धेतो वि य तिविधो० गाधा । गहणे तिविधो-सुत्तं गाहेति अत्थं गाहेति उभयं गाहेति । आसेवणाए दुविधो 25 मूलगुणे उत्तरगुणे य, मूले पंच, तं जधा-पाणातिवायवेरमणं सेवावेति, कारयतीत्यर्थः । उत्तरगुणे तवं दुवालसविधं आसेवावेति ॥ ५॥ १२४ ॥णामणिप्फण्णो गतो । सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारेतव्वं । स एवमाधत्तधिए धम्मे हितो ५७९. गंथं विधाय ईंह सिक्खमाणो, उत्थाय सुबंभचेरं वसेज्जा। ओवातकारी विणयं सुसिक्खे, जे छेगे विप्पमादं ण कुज्जा ॥१॥ १ सीसो त खं १॥ २य खं २ पु २॥ ३°सेवणाए नायव्वो खं १ पु २ वृ० । सेवणे य णायव्वो खं ॥ ४ गुण खं २ पु २॥ ५ ओ वि य दुखं १ ख २ पु २ वृ०॥ ६ गाहावेतो तिविहो खं १ खं २ वृ०॥ ७मूलगुण उत्तरगुणे दुविहो आसेवणाए उ खं १ खं २ पु २ वृ०॥ ८इति चूपा०॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१४ गंथज्झयर्ण ५७९. गंथं विधाय इह सिक्खमाणो० वृत्तम् । सावधं द्रव्यग्रन्थः, प्राणातिपातादि मिथ्यात्वादि अप्पसत्थभावग्रन्थं च विसेसेणं हित्वा विधायः पसत्थभावग्रन्थं तु णाण-दसण-चरित्ताई आदाय, खयोवसमियं णाणं कस्सइ पुव्वादत्तं भवति, किंचिदादाय पव्वयति आदानार्थम् ; खाइगस्स तु णियमादाय । दर्शनं त्रिविधम् , तस्यापि कस्यचिदादानाय, केनचित् पूर्वेनादत्तेन क्षायोपशमिकेन, पूर्वगृहीतस्य तु आदानार्थ बुद्ध्यपेक्षम् । चरित्रस्य तु त्रिविधस्याप्यादानाय, प्रशस्तभावगैन्थे5 नाये(? नोपेत इत्यर्थः तेनात्रात्मानं प्रथयति । इहेति इह प्रवचने । इति च पठ्यते उपप्रदर्शनार्थः । एवं दुविधाए सिक्खाए सिक्खमाणो उत्थायेति प्रव्रज्य सोभणं बंभचेरं वसेजा सुचारित्रमित्यर्थः, गुप्तिपरिसुद्धं वा मैथुनं बंभचेरं वुच्चति, गुरुपादमूले जावज्जीवाए जाव अब्भुज्जतविहारं ण पडिवजति ताव वसे । ओवातकारी णिपुंसकारी, जं जं वुच्चति तं तं सिक्खति गणसिक्खाए, सुट्ट वि सिक्खितं च आसेवणसिक्खाए अपडिक्खलेंतो जे छेगे विप्पमादंण कुजा, यश्छेकः स विप्रमाद प्रमादो नाम अनुद्यमः, [विप्रमादः] यथोक्तकरणम् , यथाऽऽतुरः सम्यग्वैद्योपपातकारी शान्ति लभते एवं साधुरपि 10 सावद्यग्रन्थपरिहारी पापकर्मभेषजस्थानीयेन प्रशस्तभावग्रन्थेन कर्मामयशान्तिं लभते ॥ १॥ जो पुण एगल्लविहारपडिमाए अप्पज्जत्तो, गच्छम्मि केयि पुरिसे अविदिणि(?ण्णे) णिगच्छंति अवितीर्णश्रुतमहोदधी, यद्वा नासौ तीर्थकरादिभिर्विधत्तः तस्स दुजादादी दोसा भवंति, इमे चान्ये । सूत्रम् ५८०. जधा दिया पोतमपत्तजातं, सवासगा पवितुं मण्णमाणं। तमचाईतं तरुणमपंक्खगं वा, ढंकादि अवत्तगमं हरेजा ॥२॥ 15 ५८०. जधा दिया. वृत्तम् । पोतमपत्तजातं सवासगा पवितुं मण्णमाणं, स्ववासगाद् गर्भादण्डाञ्च द्विर्वा जातो द्विजः । पततीति पोतः । पतन्तं त्रायन्तीति पतत्राणि पिञ्छानीत्यर्थः, नास्य पत्राणि जातानि अपत्रजातः । सवासगा पवितुं प्रलातुं तमचाइ[तं] तरु णम]पक्खगं वा सवासगातो उल्ली (?ड्डी)णं पुणो उड्डेतुमसक्केन्तं, ढङ्कः पंखी, ढल आदिर्येषां ते भवन्ति ढंकादिणो अन्यतराः, अव्यक्तगम इति अपर्याप्तः, हरेज वा, पिवीलिकाओ व णं खाएज, मारेज वा णं चेडरूवाणि धाडेज वा, अपि काकेनापि हियते ॥ २ ॥ एष दृष्टान्तः । सूत्रेणैवोपसंहारः20 ५८१. एवं तु सिक्खे वि अपुट्ठधम्मे, णिस्सारं वुसिमं मण्णमाणो। दियस्स छावं व अपत्तजातं, हरिंसु णं पावधम्मा अणेगे ॥३॥ ५८१. एवं तु सिद्धे (सिक्खे ) वि अपुढधम्मे० वृत्तम् । न स्पृष्टो येन धर्मः स भवति अपुट्ठधम्मे, अगीतार्थ इत्यर्थः । णिस्सारमिति इहलोकसुह, णिस्सारं खुसिमं णाम चारित्रं णिस्सारं मण्णमाणो, परलोअसुहं चाणिस्सारं मण्णमाणो, दियस्स छावं व स एव द्विजः-पक्षी चटिकादीनामन्यतमः, छावगं नाम पिल्लगं, अपनजातं अपक्षजातं हरिंसु हरिति 28 हरिस्संति वा, त्रैकाल्यदर्शनार्थं तीतकालग्रहणम् । पापो येषां धर्म:-मिथ्यादर्शनं अविरतिश्च ते पापधर्माः भिक्षुकादीनि तिणि तिसट्राणि पावादियसताणि विप्परिणामेऊण हरति । तद्यथा-जीवाकुलत्वाद् दुःसाध्या अहिंसा, दुःखेन च वो धर्मः, इह तु सुखेन शुचिवादिनोऽपि द्विषन्ति आमघटवदित्येवं कुप्रवचनजलेन विनश्यन्ति । रायादिणो णियल्लगा वा णं विसएहिं णिमंतेन्ति, इत्थी वा इत्यादि । अनेक इति बहवः पाषण्डिनो गृहिणश्च ॥ ३ ॥ यतश्चैते दोषाः अगृहीतप्रन्थस्य तेन तद्रहणार्थ गुरुपादमूले ५८२. ओसाणमिच्छे मणुए समाधि, अणोसिते णंतकरे त्ति" णचा। _ओभासमाणे दवियस्स वित्तं, ण णिकसे बहिता आसुपण्णे ॥४॥ १गंधं वा० मो०॥ २ पूर्वेन दत्तेन चूसप्र०॥ ३'ग्रन्थो आदानीयेत्यर्थः मु०॥ ४°डिकूलेत्ति जे सं० वा० मो० ॥ ५ स्थानीयान प्रश° चूसप्र० ॥ ६ दिता पोखं १॥ ७सावासगा खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ ८ इउं तखं २॥ ९ पत्तजातं ढं खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ १० तु सेहं पि अपुट्ठधम्म, णिस्सारियं वुसिमं मण्णमाणा खं १ खं २ पु १ पु२ वृ० दी.॥ ११इ खं २ पु १ पु २। ति खं १॥ Jain Education Intemational Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ सुत्तगा० ५८०-८४] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। ५८२. ओसाणमिच्छे० वृत्तम् । ओसाणमित्यवसानं जीवितावसानमित्यर्थः, अथवा ओसाणमिति स्थानमेव गुरुपादमूले। उक्तं हि-"आसवपदमोसाणं मल्लिस्स मणोरमे चेव ।” [ ] मनुष्य इति यावन्मनुष्यत्वमस्य तावदिच्छति वसितुं अगिलाए समाधि मण्णमाणोऽनवबुद्धोऽवग्रहवत्, समाधिरुक्ता, तमाचार्यसकाशादिच्छति । अन्यत्रापि हि वसन् जो गुरुणिद्देशं वहति स गुरुकुलवासमेव वसति, अनिर्देशवर्ती तु सन्निकृष्टोऽपि दूरस्थ एव, लोकेऽपि सिद्धा प्रत्यक्ष-परोक्षासेवा । आह च-"काम - क्रोधावनिर्जित्य, किमारण्यं करिष्यसि ?"[ ] कालगतेऽपि गुरौ । असहायेन गीतार्थेन चान्यत्र गन्तव्यम् । स्यात्-को दोषोऽनधिकरणायितस्य ? अणोसिते गंतकरे त्ति णच्चा, ण उषितः गुरुकुलेहिं अनुषितः न भवस्यान्तकरो भवति, वालुङ्कवैद्यदृष्टान्तः [बृहत्क० भाष्य गा० ३७६ पत्र १११], गुरुसमीपे तु स्खलितोऽपि पुनर्विशोध्यते । कया मेरयाऽऽवासे ? ओभासमाणे दवियस्स वित्तं, ओभासितं णाम राग-द्वेषरहितत्वात् तीर्थकर एव भगवान्, 'ज्ञानधना हि साधवः' इति कृत्वा वित्तं ज्ञानमेव, ज्ञान-दर्शन-चारित्राणि वा । अथवा तं दविगवित्तं प्रकाशयति-बादी वा धम्मकथी वा विसुद्धचरित्रो वा तपस्वी वा । तद् यावदाचार्यसमीपे विद्यते ताण ण णिक्कसे बहिता, 10 असावपि तावद् वशको गुरुमुपजीवति, आचार्यवज्रवद् गुर्वनुज्ञातो णिकसे, मज्जातातो वा बहिता ण णिकसे, विषयकषायाभ्यां वा हीरमाणमात्मानं अवभासते अनुशासतीत्यर्थः, मा एवं कुरु यावदित्यर्थः । निवार्यमाणं चात्मानमिच्छति गुर्वादिभिः, आशुप्रज्ञ इति क्षिप्रप्रज्ञः क्षण-लव-मुहूर्तप्रतिबुद्ध्यमानता ॥ ४ ॥ तथा "किं मे कडं किं व मे किच्च सेसं०" ] प्रमादं च गत्वा आशु प्रतिनिवर्त्तते किल, सप्रमादं वा तत्र विषय-प्रमादनिवृत्तये इत्यपदिश्यते५८३. सद्दाइ सोचा अदु भेरवाइ, अणासए तेसु परिवएज्जा। 15 णिदं च भिक्खू ण पमादेएजा, कहं हं वा वितिगिच्छतिण्णे ॥५॥ ५८३. सद्दाइ सोच्चा अदु भेरवाइ० वृत्तम् । तद्यथा-वन्दन-स्तुत्याशीर्वाद-निमन्त्रणादीन् तथोपसेवनादीनि, येन आदिग्रहणं करोति तेन ज्ञायते यथैतानि स्तुत्यादीनि शब्दजातानीह सन्तीति । भयं कुर्वन्तीति भैरवाणि, तद्यथा-खर-फरुसणिगुर-भैरवादीनि सदाणि सोचा, वाक्यशेषादभैरवाणि, वाक्यशेषादिति न ज्ञाप्यते, वाशब्दादभैरवान् , अथवा अभैरवाणि । अनाश्रयो नाम अनाश्रवः तेषु भवेत् , अथवा आश्रय इति स्थानम् , न राग-द्वेषाश्रय इत्यर्थः । अनुभूतेषु वा । एवं जाव 20 फरुसाणि फुसित्ता अदु मेरवाणि, अपि चोलपट्टए कप्पेसु वा सण्हेसु रागो ण कायव्यो, खर-फरुस-मइलेसु दोसो, जइ पंचहिं हता सह-फरिस-रस-रूव-गंधेहिं एते इन्द्रियप्रमाददोषा इहैव । निद्राप्रमादनिवृत्तये तु णिदं च भिक्खू ण पमादएज्जा, दिवसतो ण णिहायति, रतिं पिदोहि जामे जिणकप्पी, एकान्तं पि तणुणिदो सरीरधारणार्थं स्वपिति, निद्रा हि परमं विश्रामणम् । चशब्दात् कषाय-विकथा-मद्यप्रमादा अपि गृह्यन्ते । कथं कथमिति, किमहं पव्वजं ण णित्थरेज ? समाधिमरणं ण लभेज ?, अधवा कथं कथमिति सम्यगनुचीर्णस्यास्य किं फलमस्ति नास्ति ? इत्येवं वितिगिच्छां तरेज, न कुर्या- 25 दित्यर्थः, धर्मकथां वा कथयन् वितिगिंछामप्पणा तरेज, "तमेव सच्चं निस्संकं जं जिणेहिं पवेदितं ।” [आया० श्रु० १०५ उ०५ सू० ३ | अण्णेसिं च तधा कहेज जधा वितिगिंछा ण भवति ॥ ५॥ उत्तरशिक्षाधिकारेऽनुवर्तमानो ५८४. जे ठाणए या सयणा-ऽऽसणे या, परक्कमे यावि सुसाहुजुत्ते। समितीसु गुत्तीसु अ आयपण्णे, वियागरेति य पुढो वदेज्जा ॥ ६॥ ५८४. जे ठाणए या सयणा-ऽऽसणे या० वृत्तम् । स्थानेन साधुर्भवति पडिलेहित्ता पमज्जित्ता, जधा ठाणसत्ति-30 कए [आचा० श्रु० २ चू० २-१] । सयणे सुवंतो साधू साधुरेव भवति, सजग्गरो सुवति जधा ओहणिज्जुत्तीए । आसणे १ पञ्चम-षष्ठसूत्रवृत्ते मूलसूत्रादर्शेषु वृत्ति-दीपिकयोश्च व्यत्यासेन वर्तेते ॥ २ सहाणि सोच्चा अदु मेरवाणि, अणासवे खं १ खं २ पु १ पु २ . दी० ॥ ३°द कुज्जा खं २ पु १ पु २० दी० ॥ ४ कहंची विपु १ पु २॥ ५पी विइगिछतिण्णे खं १ खं २ ३० दी० ॥ ६ तानिह चूसप्र०॥ ७°णओ या खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ८आसुपण्णे खं २ पु१ पु२॥ ९ गरेंते य ख १ ख २ पु१पु २ वृ० दी०॥ Jain Education Intemational Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१४ गंथज्झयणं निसीयंतो पडिलेहणादि करेति पीढगादि च, जहिं काले आसणं गेण्हितव्वं जधा परि जितव्वं, पलियंकादीओ य पंच णिसिज्जाओ आचरंतो साधुरेव भवति, परक्कमे रियासमितत्वात् साधुरेव भवति । समितीसु गुत्तीसु अ समितीओ रियासमितीमुक्का सेसाओ, गुत्तीओ वि कायगुत्तिं मोत्तुं, ठाण-सयणा-ऽऽसणग्गहणेणं कायगुत्तिरुक्ता । आगता प्रज्ञा यस्य स भवति आगतप्रज्ञः, समिति-गुप्तीश्च आसेवते । वियागरेति त्ति स एवं समितात्मा गुप्तश्व यदा तान् व्याकरोति धर्म तदा 5 सुखं प्रज्ञापयति, पढो विस्तरशः कथयति, तस्य हि उद्यमानस्य ग्राह्यं वचो भवति विसुद्धं च वदति । स्थानादिषु वा योऽपि चिरं स्खलतीत्यर्थः, तं पुढो वदेज पतिचोदिज स्वयम् , यथा ते हि सुखं परान् वारयन्ति । अथवा पुढो त्ति परस्परं चोदयन्ति, न गारवेन ममैते वश्या अभियोज्या वा ॥६॥ । सो पुण चोदंतो दुविधो-समानवयोऽसमानवयो वा, सर्वस्यापि सोढव्यमिति, तद्यथा ५८५. डहरेण बुड्ढेणऽणुसासिते तु, रातिणिएणावि समर्वएणं । सम्मं तगं थिरतो णाभिगच्छे, णिजंतए वा वि अपारए से ॥७॥ ५८५. डहरेण वृत्तम् । डहरो जन्म-पर्यायाभ्याम् , वुड्डो वयसा, अनुशासितः कचित् चुक्क-स्खलिते पडिचोदितः, रायणिओ आयरिओ परियारण वा पवत्तगाईण वा पश्चानामन्यतमेन समवयो-परियारण वयसा वा, एवमादीनां वचनं सम्म तगं थिरतो तदिति चोदनावचनम् , थिरं नाम जं अपुणकारयाए अब्भुटेति, नाभिगच्छति गृह्णामि, न मिच्छादुक्कडं करेति, कुंभारमिच्छादुक्कडं वा करेति, चोदितो वा पडिचोदति । णिजंतए वा वि अपारए से, यथा नदीपूरेण ह्रियमाणः 16 केनचिदुक्त:-इदं तुरकाष्ठं अवलम्बस्व शरस्तम्बं वृक्षशाखां वा मुहूर्तमानं चाऽऽत्मानं धारय इत्युक्तो रुष्यति न वा करोति, यदुच्यते स हि अपारगे भवति, पारं गच्छतीति पारगः, एवं समिओ वि । अथवा नियंत्रणामिवाऽऽतुरः न रागपारं गच्छति । अथवा णिजंतग इति णिजंततो, स हि आचार्मोक्षं प्रति नीयमानोऽपि सम्यगुपदेशैः पडिचोअणाहि य ण पारं गच्छति संसारस्य कषायवशात् , अहं पि चोइज्जामि डहरेहिं अप्पसुत्तेहि य ॥ ७॥ . एस ताव सपक्खचोदणा । इदाणिं सपक्खे परपक्खे अ20 ५८६. वियुट्टितेणं समयाणुसँढे, डहरेण वुड्डेणेऽणुसासिते तु।। अभुट्टिताए घडदासिए वा, अगारिणं वा समयाणुसिढे ॥८॥ ५८६. वियुट्टितेणं समयाणुसढे० वृत्तम् । विउद्वितो णाम विगुतो, यथा व्युत्थितपर:-व्युत्थितोऽस्य विभवः सम्पत, व्युत्थिताः संयमविप्रतिपन्ना इत्यर्थः । पार्श्वस्थादीनामन्यतमेन वा क्वचित् प्रमादाच्चातुर्येण वा त्वरितत्वरितं गच्छन् 'जधा तुब्भं ण वट्टति तुरितं गंतुं, कहं कीडगादीनि न हिंसध ? रुस्सिहित्तु वा । एवं मूलगुणेसु वा उत्तरगुणेसु वा विराधणाए अण्णतरेण वा समयेनाऽनुशास्त:-ण तुभं वट्टति एवं काउं, जुअंतरपलोअणेण होतव्वं । तं तु डहरेण वा महंतेण वाऽनुशास्तः । अब्भुद्विताए घडदासीए वा, अतीव उत्थिता अब्भुट्टिता, कुत्रोत्थिता ? दौःशील्ये, घटदासीग्रहणं तीसे वि ताव णोदिजंते ण रुस्सितव्वं, किं पुण जो तणुआणि वि सीलाणि धरेति ? । अथवा अन्मुट्ठिता सा दंडघट्टिता भुयंगीव धमधमेंती रुट्ठा णं भणेती-तुब्भं वट्टति एवं कातुं ? । अधवा अब्भुद्विते त्ति पडिपक्खवयणेण गतं, चन्द्रगुप्तस्त्रीवत् पुरुषः, तद्यथा-दासदासी पतितेभ्योऽपि पतिता सा वि चोदंती ण वक्तव्या-सच्चा वि ताव तुमं का होसि ममं चोदे। 30 अगारिणं ति स्त्री-पुं-नपुंसकं वा । श्रावकेण अन्यतरेण वा एवं चोदितो ण कुप्पेज्जा ॥८॥ ५८७. ण तेसु कुप्पे ण त पबहेज्जा, ण यावि किंची फरुसं वदेजा। तधा करिस्सं ति पडिस्मणेत्ता, सेयं खु मेयं ण पमाद कुजा॥९॥ १ऊ खं १ ख २ पु १ पु २॥ २ ब्वदेणं खं १॥ ३ सिटे खं २ पु १ पु २॥ ४°ण व चोतिते तु खं २ पु २ वृ० दी। ण व चोइतेसु ख २ पु १॥ ५ अच्चुट्टि पु २ वृ० दी । पञ्चाढि पु १॥ ६ कुज्झे खं १ खं २ पु २ वृ० दी । कुप्पे वृपा० । कुटे पु१॥ ७°स्सुणेजा खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ८ एयं खं १॥ Jain Education Intemational Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा०५८५-८९]] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंघो। २३१ ५८७. [ण तेसु कुप्पे ण० ] वृत्तम् । कोपो नाम मनःप्रद्वेषं पडुच्च । ण त पव्वहेजा कट्ठ-लो?-इट्टादीहिं । ण वा फरुसं वदेज, जधा स मरु[ओ, रत्तपडगो नाम खोमडक्खाओ मुंडकुटुंबी, सो वि ताव छिण्णणासिगो ण किरि जाणति जेण तुभोवदिष्ट्र, किमंग पुण तुर्म ? । सपक्खेण वा ओसण्णेण चोदितो भणति-को तुम ममट्टे वा चोदेतुं भवति । तधा करिस्सं ति सपक्खे मिच्छामि दुक्कडं, परपक्खे 'ममैवैतच्छ्य' एवं पडिसुणेत्ता न च प्रमादं कुर्यात् ॥ ९॥ येन पुनश्चोद्यते यत्तुल्यगं तस्स पूया कातव्वा । तत्र दृष्टान्तः५८८. वणंसि मूढस्स जहा अमूढे, मग्गाणुसासंति हितं पैयाणं । तेणेवं मे इणमेव सेयं, जं मे बुधा सम्मऽणुसासयंति ॥ १०॥ ५८८. वर्णसि मूढस्स० वृत्तम् । वनं अरण्यं तत्र दिग्मूढस्य उत्पथप्रतिपन्नस्य वा अमूढः कश्चित् पुमान् अन्यो ग्रामो वा अदिसं गच्छतो मार्ग कथयति-यथा कथयामि तथा तथाऽयं मार्ग ईप्सितां भुवं गच्छति; अनुशासन्तो यदि उन्मार्गापायान् दर्शयित्वा ब्रवीति-अयं ते मग्गो हितः क्षेमः, अकुटिलत्वादितः फलोवगादिवृक्ष-जलोपेतत्वाच्च । प्रजायन्ते 10 इति प्रजाः मनुष्याः , प्रयान्ति वा येन तत् प्रयातं भवति मार्ग एव । तेणेव मे इणमेव सेयं, तेण हि मूढेण मज्झं चेव एतं सेयं । जं [मे] बुधा सम्मऽणुसासयंति, जं मे एते बुधा मग्गविदू सम्मं उज्जुगं, न वा द्वेषेण, अनुशासना नाम मार्गोपदेशनैव । अथवा तेनैतत् तुल्यं तेनैव हि दिग्मूढेन ममैवैतच्छेयो मार्गोपदेशनमजानतः, तस्य वचो गृह्येत । तथा शिष्येणापि ममैवैतच्छ्रेयः, किमिति ? उच्यते-जं मे बुधा सम्मऽणुसासयंति, बुधाः आचार्याः पुत्रस्येवोपदिशन्ति, न द्वेषेणापक्षरागेण वा । क ? स्खलितेषु अणुशासति ॥ १० ॥ एष दृष्टान्तः । उपसंहारः ५८९. तेणावि मूढेण अमूढयस्स, कायब पूँया सविसेसजुत्ता। ऐतोवमं तत्थ उदाहु "धीरे, अणुगम्म अह उवणेति सम्मं ॥११॥ ५८९. [तेणावि मूढेण अमृढयस्स० वृत्तम् । ] ततः तेन मूढेनेश्वरेण वा अमूढस्येति देशिकस्य, यद्यपि चण्डालपुलिन्द-गन्द-गोपालादि च तस्यापि तेन निस्तीर्णकान्तारेण सता शक्त्यनुरूपा कायवा पूया सविसेसजुत्ता, अहमनेन दुर्गात् श्वापदभयादिदोषेभ्यो मोक्षित इत्यतोऽस्य कृतज्ञत्वात् प्रतिपूजां करोमि । विशेषयुक्ता नाम यावती मे तेन पूजा कृता अतो 20 अस्याधिकं करोमि, तद्यथा-वस्त्रा-ऽन्न-पान-भोगप्रदानं च राजा दद्यात् । उक्तो दृष्टान्तः । एतोवमं तत्थ उदाहु धीरे, तस्मिन्निति तस्मिन् मार्गोपदेशके । उदाहरंति स्म उदाहु धीराः । अणुगम्म अटुं ति अणुगमेतूण अनुगम्य उपनयन्ति. तेनापि मिथ्यात्ववना उत्तरन्तेन अभ्युत्थानादि सविशेषा पूजा कर्तव्या, यद्यप्यसौ चक्रवर्ती निष्क्रान्तः आचार्यश्चन्द्रम:कुलादिजातः । द्रव्यपूजा आहारादि, भावे भक्तिः वर्णवादश्च । वार्तास्वन्येऽपि दृष्टान्ताः । तद्यथा गेहे वि अग्गिजालाउलम्मि जैलमाण-डज्झमाणम्मि । जो बोधेति सैंबंधुं सो तस्स जणो परमबंधू ॥ १॥ जध वा विससंजुत्तं भत्तं मिट्टमिह भोत्तुकामस्स । जो विसदोसं साहति सो तस्स जणो परमबंधू ॥ २ ॥ ॥११॥ 15 १-हट्ठादीहिं चूसप्र० । 'ट-हत्थादीहिं मु०॥ २ अमूढा खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ३ पदाणं खं १ । पताणं खं २ पु १॥ ४ तेणावि मज्झं इण खं १३० दी । तेणेव मज्झं इण खं २ पु १ पु २॥ ५समणुसाखं १ ख २ पु १ पु२॥ ६ सेयं तेण विमूढेण अमूढयस्स तेण हि चूसप्र० । अग्रेतनसूत्रवृत्तप्रतीकरूपोऽयं पाठोऽत्र लेखकप्रमादेन प्रविष्टोऽस्ति ॥ ७ अह तेण मूखं १ खं २ पु १ पु २ बृ० दी। ८पूता खं १॥ ९एवोवमं खं २ पु १ पु २॥ १०वीरे खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ ११ अत्थं उवणेति खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ १२ भावभक्तिवर्णवादश्च । धार्तास्त्वन्ये चूसप्र०॥ १३ जहणाम डझ वृत्तौ ॥ १४ सुयंत सो वृत्तौ ॥ १५ निद्धमिह वृत्तौ ॥ Jain Education Intemational Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिज्जुत्ति- चुण्णिसमलंकियं अयमन्यः सौत्रः— ५९०. णेता जधा अंधकारंसि रातो, मग्गं ण जाणाति अपासमाणे । सो सूरियस्स अब्भुग्गमेणं, मग्गं वियाणाति पगासिंतमि ॥ १२ ॥ ५९०. णेता जधा अंधकारंसि रातो० वृत्तम् । नयतीति नीयते वा नेता । अन्धं करोतीति अन्धकारः मेघान्धकारं 5अचन्द्रा वा रात्रिः, अडवी या गर्त्ता - पाषाण-दरी-वृक्ष दुर्गमा, से तस्यां पूर्वदृष्टमपि दण्डकपथं न पश्यति, कु[तोऽ]सौरमार्गम् ? । सो सूरियस्स अन्भुग्गमेणं स एव सूर्यप्रकाशाभिव्यक्तचक्षुर्जानकः मग्गं वियाणाति पगा सितम्मि, प्रकाशितमिति जगति चक्षुषि वा ॥ १२ ॥ 10 २३२ 15 ५९१. एवं तु सेहे ० वृत्तम्। सेहो पुव्वत्तो दुविधो- गहणे आसेवणे य । अपुट्ठधम्मो णाम अदृष्टधर्मा, धम्मं ण जाणाति प्रवृत्ति-निवृत्तिलक्षणं धर्मं ज्ञानादि - प्राणातिपातादिषु यथासंख्यं, अथवा चारित्रधर्मं अप्रमादधर्मं वा । से कोवितो जिणवयणेण पच्छा, कोवितो णाम विपश्चित्कृतः गहणसिक्खाए कोवितो, आसेवितव्वं च ग्रहणशिक्षया ज्ञायते । सूरोदये पासति चक्खुणा वा देशिकोऽपि च पधं । अकृत्यान्निवर्त्य कृत्ये प्रवर्तते ॥ १३॥ गुरुकुलवासगुणात् प्रमादा-प्रमादौ मूलोत्तरगुणौ च पश्यति । मूलगुणेसु तावदहिंसापथमपदिश्यते— [ १४ गंथज्झयणं ५९१. एवं तु सेहे वि अपुट्ठधम्मे, धम्मं ण जाणाति अबुज्झमाणे । से कोवितो जिणवणेण पच्छा, सूरोदये पासति चैक्खुणा वा ॥ १३ ॥ ५९२. उड्डुं अधेयं तिरिया दिसासु, जे थावरा जे य तसा य पाणा । सदा जैतो तंसि परक्कमंतो, मणप्पयोसं अविकंपमाणो ॥ १४ ॥ ५९२. उडूं अधेयं तिरिया दिसासु० वृत्तम् । उड्डुं अधेयं ति खेत्तपाणातिवातो । जे थावरा जे य तसा दव्वपाणादिवादो । सदा जतो त्ति कालप्राणातिपातः । तंसि परकमंतो मणप्पयोसं अविकंपमाणो ति भावपाणातिवातो । योगत्रय-करणन्त्रयेण एवं सीतालं भंगसतं पंचसु महव्वतेसु । दव्वादिचतुष्कं च सामान्येन सव्वासु जोएतव्त्रा । मणप्पदोसं 20 पदोसेण वा विविधं कप्पयति विकप्पमाणो । एवं उत्तरगुणेसु वि दुविधा सिक्खा जोएतव्वा ॥ १४ ॥ यस्माच्चैते गुरुकुलवासगुणाः- तत्राऽऽवसन् ज्ञानमधीत्य करतलामलकवद् लोकं पश्यति, व्रतेषु च स्थिरो भवति, ज्ञानगुणात् तेन तज्जातम् — ५९३. कालेण पुच्छे संमियं पंयासु, आइक्खमाणो दिवियँस्स वित्तं । तं सोयकारी य पुढो पवेसे, संखाणिमं केवलियं समाहिं ॥ १५ ॥ ५९३. कालेण पुच्छे समियं पयासु० वृत्तम् । कालेनेति "काले विणए बहुमाणे ०" [ वशवै० नि० गा० १८६ ] 25 णाणायारो सूयितो ति । सम्यगिति तिविधाए पज्जुवासणताए । प्रजायन्त इति प्रजाः, सम्यग्प्रजाभ्यः आइक्खमाणं ( णो ) " जधा पुण्णस्स कच्छइ तधा तुच्छस्स कच्छई" [ आचा० श्रु० १ अ० २ उ० ६ सू० ५ ] यथा ईश्वरनिष्क्रान्तस्य तथा पेलवनिष्क्रान्तस्यापि कथ्यते । दिविओ णाम दोहि वि राग-दोसेहिं रहितो, भवान्तस्य तज्ज्ञानम्, ज्ञानधनानां हि साधूनां किमन्यद् वित्तं स्यात् ? । स तु गीतत्थो पुच्छितव्वो, इतरो उत्पधं पि देसेज्ज । तं सोयकारी य, तमिति यत् कथ्यते, श्रोतसि करोतीति श्रोतःकारी ग्रहीतेत्यर्थः, गृह्णाति । अथवा श्रोत्रेण गृहीत्वा हृदि करोतीति श्रोतःकारी, श्रुत्वा वा करोतीति 30 श्रोतः कारी । पुढो पवेसे त्ति पृथक् पृथक् पुणो पुणो वा पवेसे हृदयं पुढो पवेसे, "सहस्रगुणिता विद्याः शतशः परिवर्तिताः ।" [ ] पत्तेयं वा पत्तेयं पवेसे पुढो पवेसे, तं जधा - उस्सग्गे उस्सग्गं अववाते अववातं, १ अपस्समाणे खं १ खं २ पु १ पु२ ॥ २ सूरितस्सा खं २ पु २ । सूरितस्स खं १ पु १ ॥ ३ 'सिसि खं १ खं २ पु २ ॥ ४ यणेवि प° १ ॥ ५ चक्खुणेव खं २ पु १ पु २ वृ० दी ० ॥ ६ तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ७ जते तेसु परिव्वज्जा, मण खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ८ समतं खं २ ॥ ९ पदासु खं १ । पतासु खं २ पु १० दवियस्स खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ११ संखाइमं खं १ खं २ पु १५२ वृ० दी० ॥ १ ॥ For Private Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ५९०-९६] सूयगडंगसुत्तं बियमंगं पढमो सुयक्खंधो। एवं ससमये ससमयं परसमये परसमयं वा, अतिक्रान्ते अतिक्रान्तकालम् । सङ्ख्यायते येन तत् सङ्ख्यानम् । केवलिन इदं कैवलिकम् । समाधिरुक्तः॥ १५॥ ५९४. अस्सि सुठिच्चा तिविधेण तायी, एतेसु या संति-निरोधमाहु। ते एवमक्खंति तिलोगदंसी, ण भूय एतं ति पमादसंगं ॥ १६ ॥ ५९४. अस्सि सुठिच्चा० वृत्तम् । अस्मिन्निति यद् गुरुकुलवासे वसता श्रुतं गुणितं च, सुङ स्थित्वा सुठिच्चा, 5 दुविधाए सिक्खाए अप्पमादे समिति-गुत्तीसु अ एसकालं यथा साम्प्रतं तथैष्यकालमपि यावदायुः एतेसु त्ति एतेष्वेव समिति गुप्त्यप्रमादेषु धर्म-समाधि-मार्गेषु च वर्त्तमानस्य शान्तिर्भवति, इहान्यत्र च सौख्यमित्यर्थः, सर्वकर्मशान्तिर्वा, शान्तस्य च सतः सर्वकर्मनिरोधो भवति, अनाव इत्यर्थः। अथवा समित्यादिषु अप्रमादस्थानेषु यान-चिट्ठोक्तानि तेसु वर्तमानस्य कौघनिरोधो भवति । क एवमाख्याति ?, उच्यते, ते एवमक्खंति. ते इति ते तीर्थकराः, ज्ञान-दर्शन-चारित्राख्यास्त्रीन् लोकान् पश्यन्तीति त्रिलोकदर्शिनः, ऊर्ध्वादि वा त्रिलोकं पश्यति । तस्माद् गुरुकुलवासे वसतः समित-गुप्तस्य 10 प्रमादरहितस्य शान्तिर्भवति कर्मनिरोधश्च । तेन ण भूय एतं ति पमादसंगं, एतदिति यदुक्तं असमितित्वमगुप्तत्वं च । प्रमाद एव सङ्गः, संगो वा रथावक्खोरो मोक्खमग्गस्स । एवं गुरुकुलवासी दवियस्स वित्तं [सूत्रं ५९३] ॥ १६ ॥ ५९५. णिसम्म से भिक्खु सैमीहमहें, पडिभाणवं होति विसारंदे य। आदाणमट्टी वोदाण मोणं, उवेच्च सुद्धे ण उवेति मारं ॥ १७॥ ५९५. णिसम्म से भिक्खु समीहमटुं० वृत्तम् । निशम्येति गृहीत्वा गुणयित्वा, निशम्य वा सम्यक् पौर्वापर्येण 15 समीक्ष्य, अर्थमिति श्रुतार्थ बन्ध-मोक्षार्थं वा । तांस्तान् प्रति अर्थान् भातीति प्रतिभा, पभणति वा पतिमा श्रोतृणां संशयोच्छेत्ता । विशारदः स्वसिद्धान्तजानकः । आदाणमट्टी आदीयत इत्यादानम् , ज्ञानादीनि आदानानि, आदानेन यस्यार्थः स आदानार्थी । वोदानं विदारणं तपः । मौनं संयमः । आदानार्थी वोदानं मौनं च उपेत्येति प्राप्य दुविधाए सिक्खाए गुरुकुलवासी प्रमादरहितः सुद्धे त्ति निरुपधेन सम्यग्दर्शनाधिष्ठितेन वोदानेन मौनेन उपेत्य शुद्धेन, न प्रतिषेधे. न उवेति त्ति, मारं मरंत्यस्मिन्निति मारः-संसारः, उक्कोसेणं वा सत्तऽट भवग्गहणाई मरेज ॥ १७ ॥ एवं सो बहुस्सुतो 20 जातो जो वुत्तो "अस्सि सुविच्चा" [ सूत्र ५९४ ] यञ्च पढितं-"णिसम्म से भिक्खु समीहमटुं" [सूत्र ५९५] देशदर्शनं कुर्वन्नभ्युद्यतमेगतरं प्रतिपत्तुकामेण वा गुरुणा आचार्यत्वे स्थापितः समीक्षितो वा, एके अनेकादेशात् अभिधीयते ५९६. संखाय धम्मं च वियागरेंति, बुद्धा हु ते अंतकरा भवंति । ते पारगा दोण्ह विमोयणाए, संसोधिगा पण्हमुदाहरंति ॥१८॥ ५९६. संखाय धम्मं च वियागरेंति० वृत्तम् । संखाए त्ति धर्म ज्ञात्वा श्रुतं धर्म वा कथयति, सिस्स-पडिच्छगाणं 25 धर्मकथां च कथयति । अथवा संख्यायेति खेत्तं कालं परिसं सामत्थं चऽप्पणो वियाणित्ता परिकथयति । अथवा "के अयं पुरिसे ? कं च गये ?" [आचा० श्रु० १ अ० २ उ० ६ सू० ५], अथवा संख्यायेति एतन्मात्रस्यायं श्रुतस्य योग्यः, अतः परं शक्ति स्ति, सत्यां वा शक्तौ जत्तियं प्रचरति तत्तियं गहियं एवं संख्याय । अव्वोच्छित्तिकरे त्ति एवमादिभिः प्रकारैः संख्याय धम्मं वागरयंता [बुद्धा] बुद्धबोधितास्ते आचार्याः कम्माणं अंतं करेंतीति अंतकराः, अन्यांश्च कारयन्ति, यतः पारगाः । ते पारगा दोण्ह विमोयणाए, ते इति संख्याय धर्म व्याकरयन्तः पारं गच्छंतीति पारगाः, आत्मनः परस्य च 30 दोण्ह वि विमोयणाए पारं गच्छति । मोचनाः संसारमोचनाः । कतरे ते ?, जं संसोधिगा पण्हमुदाहरंति सम्यक् समस्तं १ताती खं १ ख २ पु १। ताई पु २॥ २ भुजमेतं खं १ खं २ पु १ पु २॥ ३ समीहियटुं वृ० दी । समीहमढें खं खं २ पु १ पु २॥ ४रते या खं १ । रए या पु २ । रते ता खं २ पु १॥ ५ सुद्धे ण उवेति मोक्खं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ. दी। सुद्धे ण उवेति मारं वृपा० दीपा० ॥ ६संखाए खं १॥ ७ धियं पखं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ सूय० सु. ३० Jain Education Intemational Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१४ गंथज्झयणं वा सोधिया संसोधिया, पृच्छंति तमिति प्रश्नः, पूर्वापरेण समीक्षितुं आत्म-परशक्तिं च ज्ञात्वा द्रव्यादीनि च तथा "केऽयं पुरिसे" [भाचा० श्रु० १ अ० २ उ० ६ सू० ५] त्ति परिचितं च सुत्तं कातूणआयरियादेसा धारितेण अत्येण [गुणिय] सरितेणं । तो संघमज्झयारे वैवहरितुं जे सुहं होति ॥ १ ॥ [व्यव० उ०३ भा० गा० ३५९ पत्र ७१] 5 अच्छिद्दपसिण-वागरणा अकेवली केवली वा, रयणकरंडगसमाणा कुत्तियावणभूता कधा चोदस-दस-णवपुव्वी जाव दसकालियं ति संसाधितुं अवोच्छिन्नं करेति ॥ १८ ॥ तं पुण कधेतो ५९७. णो छादएजा ण य लूसिता वा, माणं ण सेवंति पगासए वा। ण यावि पण्णे परिहास कुजा, ण याऽऽसिसावाय वियोकरेजा ॥ १९॥ ५९७. णो छादएजा. वृत्तम् । मत्सरित्वेनार्थं नो छादयेत् , पात्रस्य धर्मस्य कथां कथयन् न सद्भूतगुणान 10 छादयेत्, न वा वायणायरियं छादयेत् । लूसितं भग्नमित्यर्थः । लूसिता णाम अवसिद्धान्तं कथयति सिद्धान्तविरुद्धं वा । माणं ण सेवंति प्रज्ञामानमाचार्यमानं वा संशयान् वाऽऽत्मनः परस्य वा छेत्तुं न मदं कुर्यात् , न वा प्रकाशयेदात्मानम् यथाऽहमाचार्यः कथको बहुश्रुतो वा । ण यावि पण्णे परिहास कुज त्ति प्रज्ञावान् प्राज्ञः न चेदृशीं कथां कथयेद् येन श्रोतुरात्मनो वा हास्यमुत्पद्यते, अपरियच्छंते वा परे अण्णधा वा बुज्झमाणे न प्रज्ञामदेन परिहासं कुर्यात्, “यथा राजा तथा प्रजा" ] इति कृत्वा न सर्वत्रैव परिहासः । ण याऽऽर्सिंसावाय त्ति "शंसु स्तुतौ” तस्य 15 आशीर्भवति, स्तुतिवादमित्यर्थः, न तहान-वन्दनादिभिस्तोषितो ब्रूयात्-आरोग्यमस्तु ते दीर्घ चाऽऽयुः, तथा सुभगा भवाष्टपुत्रा, इत्येवमादीनि न व्याकरेत् । एवं वाक्समितः स्यात् ॥ १९ ॥ किंनिमित्तमाशीर्वादो न वक्तव्यः ? उच्यते ५९८. भूताभिसंकाए दुगुंछमाणे, ण णिवहे मंतपदेण गोयं । ण किंचिमिच्छे मणुए पयासुं, असाहुधम्माणि ण संठवेना ॥२०॥ ५९८. भूताभिसंकाए दुगुंछमाणे० वृत्तम् । मा भूद् भूतानि अभिसङ्केयुः सावद्याभिधायिनः अत इदमपदिश्यते20 भूतानि यस्य सावधवचनस्य शङ्कन्ते न तेन वचनेन णिव्वहे, संयमे निर्गच्छेदित्यर्थः, न वाऽनेन वचनेन णिव्वहे, संयम निर्णालयेदित्यर्थः । मयत इति मत्रः वचनम् , मत्र एव पदं मत्रपदम्, अथवा मत्रा इति विद्या-मन्त्रादयो गृह्यन्ते, तेन मत्रपदेन [न] निव्वहे । गुप्यत इति गोत्रं संयमः सप्तदशविधः अष्टादश च शीलाङ्गसहस्राणि इति, अस्माद् गोत्रान्न तद्विधं वचो ब्रूयाद् यन्न निर्वहेत् , षट् काया वा गोत्रम्, यत्र गुप्यते तान् न निर्वहेत्, गोत्राद् जीवितादित्यर्थः। तब गोत्रमाचरन् कधेन्तो वा ण किंचिमिच्छे ण कित्ति-वण्ण-सह-सिलोगट्ठताए कधिज धम्मं । मनुष्य इति प्रजायन्त] इति प्रजाः, यासां कथ्यते तासु प्रजासु, स्त्रियो वा प्रजाः, न कीर्त्तिमिच्छेत् । असाधूनां धर्माः तान् असाधुधर्मान् ण संठवेजा, ते च दर्प-मदा-ऽहङ्कारादयः, अथवा न तत् कथयेद् येन असाधुधर्माणां "सन्धान" भवति पचन-पाचनादीनाम् , असंयतदानादि वा कुतीर्थिकान् वा प्रशंसंति ॥ २० ॥ किश्च ५९९. हासं पि णो 'संधए पावधम्म, ओये तेहीयं फरुसंऽभिजाणे । ___णो तुच्छए णो य पकथएज्जा, अणाइले या अविरुद्धसेवी ॥ २१॥ गणियऽखरिएणं व्यवहारभाष्ये पाठः ॥ २ ववहरियव्वं अणिस्साए व्यवहारभाष्ये पाठः ॥ ३ छादते णो वि य लूसतेजा.माणं ण सेवेज पगासणं च खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ४न याऽऽसियावाद खं २ पु २० बी० ।ण आसिसावाद खं १॥ ५°यागरे खं १ खं २ पु १ पु २॥ ६ °सिसा वयंति “शंसु चूसप्र०॥ ७मणुते खं २ पु १ पुस । मणुओ खं॥ ८संवदेजा खं १ खं २ पु १ पु २ घृ. दी।संधपजा चूपा० ॥ ९संधये खं १ । संधति खं २ । संधते पु १॥ १०'धम्मे खं १ खं २ पु१पु२ वृ० दी.॥ ११ तहत्तं खं १ । तहितं खं २ पु १॥ १२ फरुसं वियाणे खं १ ख २९१ वृ० दी०॥ १३ णो व विकंथतिजा, अणाइले या अकसाइ भिक्खू खं २ पु १ पु २ वृ० दी । णो विपकंथदेजा, अणातिले या अकसादि भिक्खू खं १॥ Jain Education Intemational Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा०५९७-६०१] सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। २३५ ५९९. हासं पि णो संधए० वृत्तम् । हास्येनापि न पापधर्म सन्धयेत्-यथेदं छिन्दत भिन्दत वा खाद मोद वा, अथवा हास्येनापि न प्रशंसयेत् कुप्रवचनानि । शाक्यं ब्रुवते अहो! तुभं सुदिटुं जं वरचोल्ला वटुंति, सुहं चेव धम्मं तुब्भे करेह । यद्यपि सोल्लण्ठं तथापि न वक्तव्यम् , मा भूदन्येषां पात्रबुद्धिः स्यात्, गोमडं खजति गोचम्मेसु वधं । ओये त्ति राग-द्वेषरहितः, न विगंतव्वं सद्भूतम् । फरुसं अभिजाणे त्ति, राग-द्वेषबन्धनाभावात् फरुषः संयमः, कर्मणामनाश्रय इत्यर्थः, तथ्यं संयमम् , अभिमुखं जानाति यथा सो वाग्दोषान्न विराध्यते, यथा वा वार्यते तथा च कथयति, अथवा कथयन् कथां 5 लब्धिगर्वितो न भवति, नैवार्थपदं किञ्चिल्लब्ध्वा गर्वितो भवति, जधा तुच्छस्स कति तगहारगस्स वि तथा राज्ञोऽपि प्रकथनो नाम न धर्मकथित्वेनान्येन वा आत्मानं कत्थयति श्लाघयतीत्यर्थः, अपरिच्छंतं वा नावकंथेति. चमढयतीत्यर्थः, तथाऽन्येषामपि संयतानामुड्डरुस्सती । अधवा न तुच्छेनाऽऽत्मानं पदेन प्रकन्थयति-यथाऽहमीदृशो अनन्यसहशो वा । अणाइले त्ति न धर्म देशमानो आतुरो भवति, चोदितो वा आकुलव्याकुलीभवति, अपरियच्छन्ते वा परे सिद्धान्ताविरुद्धानि सेवते इति अविरुद्धसेवी, न च विरुद्ध्यते तेन सह यस्य कथयति ॥ २१ ॥ किश्व ६००. संकेज वा संकितभाव भिक्खू , विभजवायं च वियोकरेजा। भासादुगं सम्मसमुट्टिते हि, वियागरेजा समयाऽऽसुपण्णे ॥ २२॥ ६००. संकेज वा किं पुण (वा संकित )भाव भिक्खू० वृत्तम् । यच्छङ्कितमस्य ज्ञानादिषु तन्न कथयति, अपृष्टः पृष्टो वा शङ्केत शङ्कितभावः-एवं तावद् ज्ञायते, अतः परं जिना जानन्ति । भावो नाम ज्ञानम् , शङ्कितज्ञानमित्यर्थः, न च तद् भाषते कथयति वा येनान्यस्य शङ्का भवति । विभज्यवादो नाम भजनीयवादः । तत्र शङ्किते भजनीयवाद एव 15 वक्तव्यः-अहं तावदेवं मन्ये, अतः परमन्यत्रापि पुच्छेज्जसि। अथवा विभज्यवादो नाम अनेकान्तवादः, स यत्र यत्र यथा युज्यते तथा तथा वक्तव्यः, तद्यथा-नित्या-ऽनित्यत्वमस्तित्वं वा प्रतीत्यादि । किं कथयति ? केन वा कथयति ?सत्या असत्यामृषा च भासादुगं सम्मसमुट्टिते हि पढम-चरिमाओ दुवे भासाओ सम्मं समुट्टिते, ण मिच्छोवहिते, जधा उदाइमारगो, चोदकबुद्ध्या वा वैतण्डिकाः, वाकरेजा समये त्ति सम्यग् , आशुप्रज्ञः उक्तः ॥ २२ ॥ किञ्च६०१. अणुगच्छमाणे वितघंऽभिजाणे, तहा तहा साहु अककसेणं। 20 ___ण कत्थई भास विहिंसइज्जा, णिरुद्धगं वा वि ण दीहँइजा ॥ २३ ॥ ६०१. अणुगच्छमाणे वितधंभिजाणे० वृत्तम् । तस्यैवं कथयतः कश्चिद् ग्रहण-धारणासम्पन्नः यथोक्तमेवावितथं गृह्णाति, कश्चित्तु मन्दमेधावी वितथं हिजाणति, तकं मन्दमेधसं तथा तथा तेन प्रकारेण हेतु-दृष्टान्तोपसंहारैः यथा यथा प्रतिबुध्यते तथा तथा साधु सुष्ठ प्रतिबोधयेत् । न चैनं कर्कशाभिर्गिराभिरभिहन्यात्-धिग् मूर्ख ! किं किं तवार्थेन स्थूरबुद्धेः ?, एवं वाचाए ककसं, कायेनापि न क्रुद्धमुखः हस्त-वक्रौष्ठविकारैर्वा, मनस्तु नेत्र-वऋविकारेण अनादरेण गृह्यते, सर्वथा 25 अकर्कशे । किञ्च-न क्रुद्धवद् वाचं क्वचित् स्वसमये परसमये वा तथोत्सर्गा-ऽपवादयोः ज्ञानादिषु द्रव्यादिप्रज्ञापनायां वा न कुत्रचिद् भाषां विहन्सेत् , कर्कशः परुष-मृषावादादिदोषः। तस्य वाऽबुद्ध्यमानस्य श्रोतुर्न कुत्रचिद् भाषां विहन्सेतअहो! भङ्गा लक्ष्यन्ते, न निन्देदित्यर्थः । निरुद्धं वाऽर्थमाख्यानं वा न दीर्घ कुर्यात् अधिकाथैः, “सो अत्यो वत्तव्यो जो अत्थो अक्खरेहिं आरूढो।" ]। किश्चित् सूत्रम्अप्पक्खरं महत्थं एक [ चतु] भंगो जो जधा परूवेज्जा । हंदि ! महता चडगरत्तणेण अत्यं कधा हणति ॥ १॥ 30 ] ॥ २३ ॥ किश्च १ज याऽसंकितभाव खं १ पु १ पु २ वृ० दी० । ज वा संकितभाव ख २॥ २ वितागरेजा ख १ खं २ पु १ ॥ ३भासं दुयं खं २॥ ४धम्मसमुखं १ ख २ पु १ पु २॥ ५समतासुपण्णे खं १खं २ वृ० दी। समताए पण्णे पु१॥ ६ कच्छई खं २॥ ७दीहतिजा खं १। दीहएजा खं २ पु १॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१४ गंथज्झयणं ६०२. समालवेजा पडिपुण्णभासी, णिसामियं समियाअट्ठदंसी। ___ आणाए सिंद्धं वयणंऽभिमुंजे, 'कखेज या पावविवेग भिक्खू ॥२४॥ ६०२. समालवेजा. वृत्तम् । सोभणं संगयं वा लवेजा। पडिपुण्णभासी अट्ठ-अक्खरेहिं अहीनं अक्खलितं अमिलितं । निसामियं जधा गुरुसगासे निशान्तं समीक्षितं वा बहुशः तथा सम्यगर्थदर्शी कथयति । समिया नाम सम्यग् 5 यथा गुरुसकाशादुपधारितम् , सम्यग् अर्थं पश्यन्ति समियाअट्ठदंसी, नाहमाचार्य इति कृत्वा । सन्ति वा श्रोतारः यत् किश्चित् कथयितव्यं तेण हि आणाए सिद्धं वयणं, आज्ञा यथा गुरुणोपदिष्टं तथैवोपदेष्टव्यम् , आज्ञासिद्धं नाम यथोपधारितम् न स्वेच्छाविकल्पितम् , वचनमिति सुत्तमत्थो वा, विविधं जुंजेज । कधं ? उस्सग्गे उस्सग्गं अववाते अववातं, एवं ससमये ससमयं परसमये परसमयं । तदेवं युज्यमानः कंखेज या पावविवेग भिक्खु, कथं मम वाचयतः पापविवेकः स्यात् ? न च पूजा-सत्कार-गौरवादिकारणाद् वाचयति ॥ २४ ॥ किश्च10 ६०३. अधाबुइताई सुसिक्खएजा, जएजसु णातिवेलं बुएन्जा। से दिहिमं दिढि ण लसएन्जा, से जाणई भासितुं तं समाधि ॥ २५ ॥ ६०३. अधाबुइताई सुसिक्खएजा० वृत्तम् । यथोक्तानि अधाबुइताणि, सुड सिक्खमाणे सूत्रा-ऽर्थपदानि दुविधाए सिक्खाए । जएजसु त्ति घडेज्जसु परकमिज्जसु आसेवणासिक्खाए । अतिप्रसक्तलक्षणनिवृत्तये व्यपदिश्यते-णातिवेलं बुएन्जा, वेला नाम यो यस्य सूत्रस्यार्थस्य धर्मदेशनाया वा कालः, वेला मेरा, तां वेलां नातीय ब्रूयादित्यर्थः । एवंगुणजातीयः 18 से दिट्टिमं स इति स यथाकालवादी यथाकालचारी च दृष्टिमानिति सम्यग्दृष्टिः सपक्खे परपक्खे वा कथां कथयन् तत् कथयेत् जेण दरिसणं ण लूसिजइ, कुतीर्थप्रशंसाभिः अपसिद्धान्तदेशनाभिर्वा न श्रोतुरपि दृष्टिं दूषयेत् , तथा तथा तु कथयेत् यथा यथाऽस्य सम्यग्दर्शनं भवति स्थिरं वा भवति । यश्चैवंविधः स जानीते उपदेष्टुं ज्ञानादिसमाधि-धर्म-मार्ग चारित्रं जानीते ॥ २५ ॥ स एवम् ६०४. अलूसँए ण य पच्छण्णभासी, णो सुत्तमत्थं च करेज अण्णं । सत्थारभत्ती अणुवीचि वादं, 'सोउं च सम्म पडिवादएजा ॥२६॥ ६०४. अलूसए ण य पच्छण्णभासी० वृत्तम् । अल्सका सिद्धान्ता-ऽऽचारयोः प्रकटमेव कथयति, न तु प्रच्छन्नवचनैस्तमर्थ गोपयति, अपरिणतं वा श्रोतारं प्राप्य न प्रच्छन्नमुद्घाटयति, अपवादमित्यर्थः, मा भूत् “आमे घडे णिहित्तं" 1, किश्च-अणुकंपाए दिजति । न सूत्रमन्यत प्रद्वेषेण करोति अन्यथा वा, जधा "रणो भत्तंसिणो । प्रश्नो नाम अर्थः, तमपि नान्यथा कुर्यात, जधा-"आवंती केआवंती" [भाचा० श्रु. 251 अ. ५ उ०१ सू० १] एके यावंता तं लोगा विप्परामसंति । सूत्रं सर्वथैवान्यथा न कर्त्तव्यम् , अर्थविकल्पस्तु स्वसिद्धान्ताविरुद्धो अविरुद्धः स्यात् । किमन्यथा क्रियते ?, उच्यते, सत्थारभत्तीए शासतीति शास्ता, शास्तरि भक्तिः सत्थारभक्तिः, स भवति सत्थारभक्तिः । अणुविचिणंतु अणुविचिंतेऊण, वदनं वादः, तदनुविचिन्त्य वदेत् । तच्च श्रुत्वा सम्यग् अन्येभ्यः रिणपरिमोक्खी "पडिवादएज्जा तदिदं पडिवादयेत् पडिवादेज्जा सूत्रमर्थ धर्मकथां वा ॥ २६ ॥ १णिसामिया खं १ खं २ पु १ पु २॥ २ सुद्धं खं १ ख २ पु १ वृ. दी० ॥ ३°भिउंजे खं १ खं २ पु १ पु २॥ ४संधेज या पाव खं १ । अभिसंधए पाव खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ५ अहाबुतिताइं खं १ । अहाउहयाई पु २ वृ० दी०॥ ६ जएजया णातिवेलं वदेजा खं १ ख २ वृ० दी । जयेजया णाइवेलं वतेजा पु १। जयजया नाइवेलं वइजा पु२॥ ७लूसतेज्जा खं २ पु १॥ ८°सते खं २ पु १॥ ९णो पच्छ ख १ खं २ पु १ पु २ ॥ १०मण्णं च करेज ताई खं १ पु २ वृ० दी। मत्थं च करेज अण्णं वृपा०॥ ११ अणुवीति खं १ खं २ पु १॥ १२ सुयं च सम्म पडिवातएज्जा खं २ पु१पु २ । सुयं च सम्म पडिवाययंति खं १॥ १३ पवाएजा चूसप्र०॥ जत्थ" Jain Education Intemational Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ६०२-५] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। स एवं गुर्वाराधनायां वर्तमानः६०५. से सुद्धसुत्ते उवहाणवं च, धम्मं च जे विंदति तत्थ तत्थ । आदेज्जवक्के कुसले [य] पंडिते, से अरिहति भासितुं तं समाधि ॥ २७ ॥ ति बेमि॥ ॥ चउद्दसमं गंथज्झयणं सम्मत्तं ॥ १४ ॥ ६०५. से सुद्धसुत्ते उवहाणवं च० वृत्तम् । स इति स प्रन्थवान् , सुद्धं परिचितं अविच्चामेलितं च, उपधानवानिति तपोपधानवान् । धम्मं च जे विंदति तत्थ तत्थ, आज्ञाग्राह्या आगमेनैव प्रज्ञापयितव्याः, दार्टान्तिकोऽपि हेतूदाहरणोप संहारैः । अथवा तत्र तत्र इति स्वसमये परसमये वा, तथा ज्ञानादिषु द्रव्यादिषु वा, उत्सर्गा-ऽपवादयोर्वा यत्र यत्र तत् तथा द्योतयितव्यम् । आदेजवक्के आदेयवाक्य इति ग्राह्यवाक्यः । प्रत्यक्षः परोक्षज्ञानी वा खेदण्णे कुसले पंडिते, स एव अर्हति भाषितुं समाधिम् , समाधिरुक्ता धर्मो मार्गश्चेति ॥ २७ ॥ ॥ ग्रन्थाध्ययनं चतुर्दशमं समाप्तम् ॥ १४ ॥ १ कुसले वियत्ते, से खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૮ णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१५ जमतीतज्झयणं १५ [पण्णरसमं जमतीतज्झयणं ] He80 आयाणिज्जज्झयणस्स चत्तारि अणुओगद्दारा । अधियारो आयाणचरित्ते । णामणिप्फण्णे दुविधं णाम-आदाणिजं ति वा संकलितज्झयणं ति वा वुञ्चति । तत्थ गाधा आदाणे गहणम्मि य णिक्खेवो होति दोण्ह वि चउक्को । एगटुं णाणटुं च होज पगतं तु आदाणे ॥१॥ १२५ ॥ ___ आदाणे. गाधा । एते तु आदाण-गहणे किमेकार्थे स्यातां उत नानार्थे ?, उच्यते-अभिधानं प्रति नानार्थे शक्रेन्द्रवत् , अर्थं तु प्रति एकोऽर्थः, तदेवाऽऽदानं तदेव च ग्रहणम् , यथा पुत्रमादाय गच्छति पुत्रं गृहीत्वा गच्छतीति नार्थो व्यतिरिच्यते । आदान-ग्रहणयोः एकेकं चतुव्विधं-नामादानं एक । उच्यते तावद् वित्तमेवादानम् , तेन भृत्या गृह्यन्ते तदेव 10 चाऽऽदीयते । प्रशस्तभावादान[मिद मेवाध्ययनम् । द्रव्यग्रहणेऽपि गलो हि मत्स्यस्य प्रहणम् , पाशकूटो मृगस्येति । भावग्रहणं तु यो येन भावेन गृह्यते प्रशस्तेनाप्रशस्तेन वा, [ अप्रशस्तेन ] सिंहो मृगान गृह्णाति, प्रशस्तेन साधुः शिष्यान् गृह्णाति । यो वा येन भावेन गृह्यते, यथा दस्युः परस्खं चौरभावेन, उपशमभावेन शिष्यो गृह्यते।आदानमुक्तम् । इदाणिं संकलिका-सा विणामादि चतुव्विधा । द्रव्ये संकला कुंडलगमादीया बद्धा बद्धा संकलिता वुचंति । भावसंकला इणमेव अज्झयणं ।। १ ॥ १२५ ।। * जं पढमस्संतिमएं वितियस्स तु तं भवेज आदिम्मि । एतेणाऽऽदाणिजं एसो अण्णो वि पजाओ ॥२॥ १२६ ॥ ॥२॥ १२६ ॥ कहिंचि सुत्तेण संकला भवति, कहिंचि अत्थेण, कहिंचि उभयेण वि । यतश्चैवं तेण आदिरेव णिक्खिवितव्वा । स च णामादी ठवणादी दवादी चेव होति भावादी । दवादी पुण दत्वस्स जो सभावो सए ठाणे ॥ ३ ॥ १२७ ॥ 20 णामादी ठवणादी० गाधा । दव्वादी णाम जो जस्स दव्वस्स सभावो होति, उत्पाद इत्यर्थः, क्षीरं हि क्षीरभावात् परिणमद् दधित्वेनोत्पद्यते, य एव क्षीरनाशः स एव दधिद्रव्यादिकालः । एवं यद् यद् द्रव्यं यस्मिन् यस्मिन् काले आत्मभावं प्रतिपद्यते तस्य द्रव्यस्याऽऽदिर्भवति ॥ ३ ॥ १२७ ॥ उक्ता द्रव्यादिः । भावादिस्तु आगम-णोआगमतो भावातीतं दुहा उवदिसंति । णोआगेमतो भावे पंचविहो होइ णायबो ॥ ४ ॥ १२८॥ ___ 25 आगमणोआगमतो० गाधा । णोआगमतो भावादी पंचण्ह महव्वयाणं जो पढमताए पडिवजणकालो॥४॥१२८॥ आगमतो पुण आदी गणिपिडगं होति बारसंगं तु। गंथ सिलोगो पाद पद अक्खराइं च तत्थाऽऽदी ॥ ५॥ १२९ ॥ ॥ जमईयं सम्मत्तं ॥१५॥ .. भा होति पंख १॥ २५ बीय खं १॥ ३ गमियं भावाईयं खं १॥ ४ बुहा ववइसंति खं १ वृ०॥ ५'गमिओ ख १॥ ६ गो य पया य अक्ख खं १ ३० । 'गो पद पाद अक्ख खं २ पु २ ॥ For Private & Personal use only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ६०६-९ णिज्जुत्तिगा० १२५-२९] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। २३९ आगमतो पुण आदी गणिपिडगं० गाधा । सव्वस्स सुअणाणस्स आदी सामाइयं, तस्स च "करेमि" त्ति पदमादी, तस्स वि ककारो आदी। दुवालसंगस्स य आयारो, तस्स वि सत्थपरिणा, तीए वि पढमुद्देसओ, तस्स वि "सतं मे आउसं! तेणं" [आचा० श्रु० १ ० १ ० १ ० १] तस्स वि सुकारो। इमस्स वि सुअक्खंधस्स समयो, तस्स वि पढमुहेसतो, तस्स वि सिलोगो पादो पदं अक्खरं ति ॥ १२९ ॥ णामणिप्फण्णो गतो। सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारेतव्वं । स एवं गुरुकुलवासी गंधं ति सिक्खमाणो शिक्षापदं केवलज्ञानमुत्पाद्य ६०६. जमतीतं पडुप्पण्णं आगमिस्सं च जाणति । सव्वं मण्णति मेधावी दंसणावरणंतए ॥१॥ ६०६. जमतीतं पडुप्पणं० सिलोगो । यदिति द्रव्यादीनि चत्वारि, तं अतीतद्धाए दव्वादिचतुष्कं सव्वं जाणति केवलं जाव सव्वभावे पासति केवली, एवं पडुप्पण्णं, अणागते वि भावे ज्ञानम् , तस्माद् भावतो जानीते । सव्वं मण्णति मेधावी, सर्वमिति सर्व द्रव्यादिचतुष्कं युगपत्काले वा सर्वम् , मेराए धावति मेधावी । कस्माद्धेतोः जानीते ?, उच्यते, 10 दंसणावरणंतए चउण्डं घातिकम्माणं, दर्शनग्रहणाद् ज्ञानस्य ग्रहणम् ॥ १ ॥ स एवम् ६०७. अंतए वितिगिंछाएं संजाणति अणेलिस। अणेलिसस्स अक्खाया ण से होति तहिं तहिं ॥२॥ ६०७. अंतए वितिगिंछाए. सिलोगो । अत्रोभयेनापि सङ्कलिका, वितिगिंछा नाम सन्देहज्ञानम् , तेसु तेसु णाणंतरेसु त्ति तस्य अंतए वितिगिंछाए, समस्तं जानाति संजाणति, न ईदृशं अणेलिसं, अतुल्यमित्यर्थः । तस्यैवंविधस्य 15 अणेलिसस्स अतुल्यस्याऽऽख्याता दुर्लभः ॥ २ ॥ ६०८. तहिं तहिं सुअक्खातं से अ संचे अणेलिसो। सदा सच्चेण संपण्णो मेत्तिं मूंतेसु कप्पए ॥३॥ ६०८. तहिं तहिं सुअक्खातं० सिलोगो । तासु तासु णरगादिगतिसु, तत्र तत्रेति सूत्रा-ऽर्थ-स्वसमयोत्सर्ग-द्रव्यादिषु वा, अथवा तहिं तहिं ति न तस्य तासु णरगादिगतिसु सुलभो भवति यच्चासावाख्याति । से अ सच्चे अणेलिसो अवितथो । 20 सच्चे कथम् ? वीतरागा हि सर्वज्ञा मिथ्या न ब्रुवते वचः । यस्मात् तस्माद् वचस्तेषां तध्यं भूतार्थदर्शनम् ॥ १ ॥ संयमो वा सत्यः। सदा सच्चेण संपण्णो वचनेन तपः-संयम-ज्ञानसत्येन वा । कस्मात् सत्यं संयमः ? येन यथा- वादिनः तथाकारिणो भवन्ति यथोद्दिष्टं चास्य सत्यं भवति । स एवं सत्यवान् मेत्तिं भूतेसु कप्पए करोतीत्यर्थः, आत्मवत् सर्वभूतेषु यतते ॥ ३ ॥ सा चैवं भवति ६०९. भूतेसु ण विरुज्झेज एस धम्मे वुसीमतो। सीमं जगं परिणाए अस्सिं जीवितभावणा ॥ ४॥ ६०९. भृतेसु ण विरुज्झेज्ज. सिलोगो । भूताणि तस-थावराणि, तैर्न विरुध्येत । विरोधो विग्रहः तदुपघातो 30 वा । एस धम्मे वुसीमतो, वुसीमांश्च भगवान् , तस्य अयं धर्मः। साधुर्वा वुसीमान् । जगं परिणाए दुविधाए परिणाए । कस्मिमिति ! अस्मि धर्मे आजीवितादात्मानं भावयति पणवीसाए भावणाहिं बारसहिं वा ॥ ४ ॥ किञ्च १च णायगो खं १ वृ० दी० । च नातओ खं २ पु १ पु २ ॥ २ मण्णति तं ताती दं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ३ विदिगि पु १॥४°ए से जा खं २ षु १ पु २ वृ० दी । °ए स जा खं १॥ ५ सच्चे सुयाहिए खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी॥६सता खं १॥ ७भूतेहिं कप्पते खं १ खं २ पु १ पु२॥ ८ भूतेहिं ण खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ९पणात . खं १ ख २॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१५ जमतीतज्झयणं ६१०. भावणा-जोगसुद्धप्पा जले णावा व आहिया। ___णावा व तीरसंपत्ता संबकम्मा तिउति ॥५॥ ६१०. भावणा-जोगसुद्धप्पा० सिलोगो । भावनाभिर्योगेन शुद्ध आत्मा यस्य स भवति भावणा-जोगसुद्ध प्पा । अथवा भावनासु योगेषु च यस्य शुद्धात्मा । यथा जलेऽन्तनौगच्छन्ती तिष्ठन्ती वा न निमज्जति, स एवं हिणावा व तीरसंपत्ता यथाऽसौ निर्यामिकाधिष्ठिता मारुतवशात् तीरं प्राप्नोति उपायाद् यथा, तथाऽऽयतचारित्रवान् जीवपोतः तपः-संयममारुतवशात् सज्ज्ञानकर्णधाराधिष्ठितः संसारतीरमवाप्य सर्वकर्मेभ्यो तिउट्टति छिद्यते इत्यर्थः ॥ ५ ॥ किञ्च ६११. अतिउदृती त मेधावी जाणं लोगैस्स पावगं । खिंजंति पावकम्माणि णवं कम्ममकुवओ॥ ६॥ • ६११. अतिउट्टती त मेधावी. सिलोगो। अतीव त्रुट्यत अइउट्टइ अतीत्य वा वदृति अतिउद्धृति, जाणमाणो 10 असंजमलोगस्स पावगं यथा पच्यते कर्म, तस्य पापानि जानानस्य तपःस्थितस्य खिजंति पावकम्माणि पूर्वबद्धानि संयमेन निरुद्धाश्रवस्य सतः नवानि कर्माणि अकुर्वतः ॥ ६ ॥ तस्यैवोपरतस्य ६१२. अकुव्वतो णवं गत्थि कम्मं णाम विजाणतो। __ गच्चाण से महावीरे जे ण जाइ ण मेज्जती॥७॥ ६१२. अकुव्वतो णवं णत्थि० सिलोगो । अकुर्वतो णवं कर्म, निरुद्धेसु आसवदारेसु नाम परोक्षस्तवा(सूचा)दिषु, 15कर्मणाम कुतः ? अकुर्वतः कर्मणां नामापि नास्ति, विजानतो हि कर्म कर्मनिर्जरणोपायांश्च कुतो बन्धः स्यात ? । एवं कर्म तत्फलं संवरं निर्जरोपायांश्च णच्चाण से महावीरे इति आयतचारित्री महावीर्यवान् सर्वकर्मक्षये सति न पनरायाति न वा मज्जते संसारोदधौ, न वा कर्म निर्णीयते ॥ ७ ॥ आश्रवद्वारैर्वा स्यात् कातरो सो ६१३. ण मज्जते महावीरे जस्स णत्थि पुरेरयो। वायू व जॉलमंचेति पियो लोगस्स इत्थितो॥८॥ 20 ६१३. ण मजते. सिलोगो । महावीरे जस्स पत्थि पुरेरयो, पूर्वबद्धं कर्मेत्यर्थः, पावाई कम्माई जस्सऽस्थि पुरेकताई । स्यात्-कतरे आश्रवा ये निरोध्याः? उच्यते- अब्रह्माद्याः । तदेव दुश्वरत्वादपदिश्यते-वाय [व] जालं अंचेति, यथा वायुः दीपज्वालां अंचेति कंपेति णोल्लसतीत्यर्थः, एवं स भगवान् प्रियः, [यथा] लोकस्य स्त्रियः, अंचेति त्ति वा णामेति त्ति वा एगहुँ, न ताभिरश्चते, एताश्च स्त्रियो नाऽऽसेव्याः ॥ ८ ॥ किश्च ६१४. इत्थीओ जे ण सेवंति आदिमोक्खा हु ते जणा। तेजणा बंधणुम्मुक्का णावखंति जीवितं ॥९॥ ६१४. इत्थीओ जे ण सेवंति० सिलोगो । स्त्रियोऽपि त्रिविधकरणयोगेनापि ण सेवन्ते, आदि-मध्याऽवसानेषु आयतचारित्तभावपरिणताः [तेजनाः] ते जणा बंधणुम्मुक्का, ते जना इति ते साधवो महावीरा कामादिबंधणातो मुक्का णावखंति जीवितं असंजम-कसायादिजीवितं ॥ ९॥ १°संपण्णा खं २ पु १ पु २॥ २ सव्वदुक्खा तिखं १ खं २ पु १ पु २ वृ. दी०॥ ३तिउदृती उ में खं १ खं २१ पवादी० ॥ ४लोगंसि खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ५तिउटृति खं १ खं २ पु २ वृ० दी० । तुटृति पु १ ॥ पाश्रीखं १॥ ७विजाणति खं १ पु १ वृ० दी०॥ ८विण्णाय से खं २ वृ० दी०॥ ९मिजइ खं १ खं२ पु१पुर वृ० दी.॥ १०मिजती खं १ खं २ पु १ पु २ वृ• दी । भिजती वृपा०॥ ११ पुरेकडं खं १ खं २ पु १ पु १ वृ० दी० ॥ १२ वाऊ व खं २ पु १ पु२। वाउ व्व खं १ ॥ १३ जालमच्चांत पिया लोगंसि इ° खं १ खं २ पु१ प २ व. दी। १४ आतीमों खं १॥ Jain Education Intemational Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगडंगसुतं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो । ६१५. अंतीतं पिच्छतो किच्चा अंतं पावंति केम्मुणं । सुत्तगा० ६१०-२० ] कम्मुणा सम्मुहन्भूतो जे मग्गमणुसासति ॥ १० ॥ ६१५. [ अतीतं पिच्छतो किच्चा ० सिलोगो ।] अणवकखमाणा अणागतमसंयमजीवितं वट्टमाणं णिरुभित्ता, शेषमतीतं, तं अतीतं पिच्छतो किच्चा असंयमजीवितं, अंतं पार्वति सर्वकर्मणाम् । कहं ? जेण कम्मुणा सम्मुहन्भूतो येनासौ कर्मानीकस्य क्षपणाय सम्मुखीभूतः; न पराङ्मुखः, जेणिमं णाण- दंसण-चरित -तवसंजुत्तं मग्गमणुसासति अण्णेर्सि 5 च कथयति, आत्मानं चानुशासते ॥ १० ॥ ६१६. अणुसासति पुढो पाणे वुसिमं पूय णाऽऽसंसति । अणासते सदा दंते दढे आरतमेहुणे ॥ ११ ॥ ६१६. अणुसासति पुढो पाणे० सिलोगो । अनुशासन्तो कर्धेतो “पृथु विस्तारे" पुढइ ति पुढो विस्तरेण पुनः पुनर्वापाणे अणुशासति आयतचरित्तभावो वुसिमं पूयं णाऽऽसंसति ण पत्थेति । किञ्च - अणा [ सते ] सदा दंते अना - 10 श्रवो अनाश्रयो वा पुनरपि पठ्यते - " अणासवे सदा दंते" सदा नित्यकाले दंते इंदिय - गोइंदिएहिं दंते । मूलत्तरगुणेसु मूलगुणधारी [ग] यस्त्वाद् गृह्यते - आरतमेहुणे उपरतमैथुन इत्यर्थः ॥ ११ ॥ ६१७. णीयारे व ण लिज्जेज्जा छिण्णसोते' अणाइले । अणाले सदा दंते संधिं पत्ते अणेलिसं ॥ १२ ॥ ६१७. णीयारे व ण लिजेजा ० सिलोगो । णिकरणं दण्डः, दण्डस्थानमेतद् व्यवसानं बन्धनस्थानं च इत्यतः 15 तत् स्थानं न लीयते निकारतं न लिजेज । छिण्णसोते, सोतं प्राणातिपातादि [ ३ ]न्द्रियाणि वा रागादयश्व अणाइले ति अणातुरेण छिंदितव्वं । पुनरपि पठ्यते च - " अणाइ ( १ उ ) ले" स एवमनाकुलः सदा दान्तः । सन्धानः सन्धिः, भावसन्धिर्मानुष्यम्, कर्मसन्धिः कर्मविवरः, ज्ञानादीनि च भावसन्धिः । प्राप्तः अोलिसं अतुल्यमित्यर्थः ॥ १२ ॥ तस्स य६१८. अणेलिसस्स खेतण्णे ण विरुज्झेन केणयि । मणसा वयसा चैव कायसा चैवं अंतर ॥ १३ ॥ २४१ ० ६१८. अणेलिसस्स खेतण्णे • सिलोगो | तस्य [ अ ] सदृशस्य अधर्मस्य खेतण्णे जाणगेण विरुज्झेज्ज केणयि सपक्खपरपक्खेण वा । तं तु मणसा वयसा चैव योगत्रितय- करणत्रयेण अंतए इति यावत्कर्मान्तो वा भवान्तो वा ॥ १३ ॥ एवंविधो वा - ६१९. 'से चक्खु लोगस्सिध जं कंखाय करेति अंतगं । अंतेण खुरो वहती चक्कं अंतेण लोहती ॥ १४॥ ६१९. से चक्खु लोगस्सिध० सिलोगो । स भव्यमनुष्याणां चक्षुर्भूतः । यः किं करोति ? जे कंखाय करेति 25 अंतगं, काङ्क्षा नाम प्रार्थना कामभोगाशा, अंताणि च सेवंति । स्यात् को गुणः ? इत्यतः पुनः पठ्यते--अंतेण खुरो वहती, अन्तेनेति धारया, नान्यतः । चकं अंतेण लोट्टती चक्रमप्यन्तेन लोट्टति ॥ १४ ॥ इयमर्थसङ्कलिका ६२०. अंताणि धीरा सेवंति तेण अंतकरा इहं । इह माणुस्सए ठाणे धम्ममारांहगा णरा ॥ १५ ॥ 20 १ जीवितं पिट्ठतो खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ २ कम्मुणा खं १ खं २.पु १ पु २ वृपा० ॥ ३ सम्मुहीभूता जे खं २ पु १ पु २ वृ० दी० । सम्मुहब्भूता जे खं १ ॥ ४ अनुसासणं पुढो पाणी वसुमं पूयणासप । अणासते जते दंते खं १ खं २ पु१ पु २ वृ० दी० । पाणे खं १ खं २ पु १ पु २ । अणासवे चूपा० ॥ ५°णीवारे य ण लीएजा खं २ पु १ पु २ । णीयारे व ण लीपज्जा खं १ ॥ ६ 'सोयमणा खं १ ॥ ७ संधि पत्ते मणे' खं २ | संधीपत्तमणे खं १ ॥ ८ चेव चक्खुमं खं १ खं २ पु१ पु २ वृ० दी० ॥ ९ से हु चक्खू मणुस्साणं जे कंखाए तु अंतए । खं १ ख २पु१पु २ वृ० दी० ॥ १० राहिउं परा खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ सूर्य० सु० ३१ For Private Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१५ जमतीतज्झयणं ६२०. [अंताणि धीरा० सिलोगो] । अंताई आरामोद्यानानि वसत्यर्थम् , अन्तप्रान्त-भूतानि आहारार्थम् , कर्माश्रवांश्च न सेवन्ते, न तेषु वर्तन्ते इत्यर्थः। तेनैव प्रान्तसेवित्वेनाऽऽयतचारित्रकर्माऽन्तकरा भवन्ति इह धर्मे । स्यादिदम्धर्मान्तमासाद्य कुत्रान्तकरा भवन्ति ? उच्यते-इह माणुस्सए ठाणे मनुष्यभवे, अथवा स्थानेग्रहणात् कर्मभूमिः गब्भवतियसंखेजवासाउयत्तं च गृह्यते । धर्ममाराधका नाम अंत (?अत्त)धर्म चारित्रधर्म च आराधयन्ति ॥ १५ ॥ तमाराध्य ६२१. णिट्टितट्ठा व देवा वा उत्तरीए इमं सुतं । सुतं च मेयमेगेसिं अमणुस्सेसु णो तधा ॥१६॥ ६२१. णिहितट्ठा व देवा वा० सिलोगो । "ऋ गतौ" इत्यस्यार्थो भवति, संसारार्थः कर्मार्थः विषयार्थ इत्यादि, णिद्वितहा निष्ठानं च येषां ज्ञानादयोऽर्थाः गतास्ते भवन्ति णिहितहा, सिद्ध्यन्त इति । तदभावे देवा उत्तरीयं ति अणुत्तरोववादिया[दि]कप्पेसु वा उववजमाणा इन्द्र-सामानिक-त्रायस्त्रिंशकादिषूत्तरीकेषु स्थानेषूपपद्यन्ते, नाऽऽभियोग्या इत्यर्थः । 10 अजसुहम्मो जंबु भणति-इति मया सुयं तित्थगरसगासातो, न खेच्छयोच्यते । इदं चान्यत्-सुतं च मेयमेगेसिं, च अनुकर्षणे, एवं मया श्रुतं यदुक्तं 'साधवः सिध्यन्ति अणुत्तरा वा भवन्ति' । इदं च श्रुतम्-अमणुस्सेसु णो तधा, अमनुष्याः तिस्रो गतयः, न तावन्तं कुर्वन्ति यथा मनुष्येषु । शाक्या वा ब्रुवन्ति–'अनागामिनो देवा भवन्ति, ते हि देवा नान्तं ( ?देवा अनागत्यान्तं ) कुर्वन्ति'। अस्माकं तु-'नो अनागत्यान्तं कुर्वन्ति' इत्यतखड्युदासार्थ अमणुस्सेसु नो तधा, यथा अन्येषामिति वाक्यशेषः ॥ १६ ॥ 15 अथ न यथाऽमनुष्येषु सर्वनिर्जरा भवति नो तहा अमणुस्सेसु तेसु देसणिजरा [ण ] भवति । उक्तं हि-"सर्वोऽपि संसारान्तः स्यात्" [ ] किं तद् जं अमणुस्सेसु णो तधा भवति ? उच्यते६२२. अंतं करंति दुक्खाणं इहमेगेसि आहितं । आघातं पुण एगेसिं दुल्लमेऽयं समुस्सए ॥ १७॥ ६२२. अंतं करंति दुक्खाणं० सिलोगो । अमनम् अन्तः । दुःखानि कर्माणि । इहेति इह प्रवचने । एकेषां न 20 सर्वेषाम् , अस्माकमेवं आहितं आख्यातम् । किञ्च-आघातं पुण एगेसिं, आघातं आख्यातम् , पुनः विशेषणे, नान्येषाम् , एके वयमेव । किमाख्यातम् ? दुल्लमेऽयं समुस्सए, समुच्छ्रीयते इति समुच्छ्यः शरीरम्, समुच्छ्रितानि वा ज्ञानादीनि ॥ १७ ॥ किंच: ६२३. इतो विद्धंसमाणस्स पुणो संबोधि दुल्लभा। दुल्लभा य तधच्चा जे धम्मट्ठीविदितपरा-ऽपरा ॥१८॥ 25 ६२३. इतो विद्धंसमाणस्स० सिलोगो । इत इति इतो मनुष्यात् । विद्धंसमाणे विद्वत्थे । धर्माद्धि विद्वंसमाणस्स उक्कोसेण अवड्डेण पोग्गलपरियट्टेणं बोधी लब्भति, माणुस्सं पि उक्कोसेणं असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेजतिभागेणं । किञ्च दुल्लभा य तहच्चा जे, अर्चा लेश्या, तधेति तेन प्रकारेण, तथा अर्चा येषां ते इमे तधच्चा, यथा तीर्थकरा विसुद्धार्चाः, अथवा यथा प्रतिपत्तौ लेश्या तथा चात्यन्तं भवति दुल्लभा, वड्डमाणपरिणामा अवहितपरिणामा वा इत्यर्थः । धर्म एवार्थः, परं शोभनम् , तद्यथा-मोक्षो मोक्षसाधनानि च, अपरं अशोभनं मिथ्यादर्शना-ऽविरत्यज्ञानादि, धर्मार्थस्य 30 विदितं परा-ऽपरं यैस्ते दुर्लभाः धम्मट्ठीविदितपरा-ऽपराः ॥ १८ ॥ के ते ? १०५ त्ति मे सुतं पु १ वृ० दी० ॥ २°णमेगेसिं खं १॥ ३ दुल्लभाउ तहच्चाओ जे धम्मट्ट वितागरे खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी। तहवाणं खं १ । धम्मट्टि खं २ पु २ ॥ Jain Education Intemational Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ सुत्तगा० ६२१-२९] सूयगडंगसुत्तं विइयमंग पढमो सुयक्खंधो। ६२४. जे धम्मं सुद्धमक्खंति पडिपुण्णमणेलिसं। अणेलिसस्स जं ठाणं तस्स जम्मकहा कुतो? ॥ १९॥ ६२४. जे धम्म सुद्धमक्खंति० सिलोगो । सुद्धं निरुपहं । आख्यान्ति चानुचरन्ति च । पडिपुण्णं नाम सर्वतो विरतं पडिपुण्णं अहाख्यातं चारित्रम् । अणेलिसं अतुल्यम्, न कुधर्मज्ञानादिभिस्तुल्यम् तमनेलिसं आख्यान्ति चानुचरन्ति च । तस्य अतुल्याचारस्य कुतो जन्मकथा भवति ? ज्ञातो वा ? इति । अथवा कथास्वपि तस्य जन्मकथा नास्ति ॥ १९ ॥ 5 अत एवोच्यते-- ६२५. कुतो कदायि मेधावी उप्पज्जंति तथागता?। तथागता य अपडिण्णा चक्खू अत्तस्सऽणुत्तरा ॥ २० ॥ ६२५. कुतो कदायि मेधावी० सिलोगो । कुत इति कुतस्तस्य अनन्धनस्य बीजाङ्कुरवत् कदाचिदिति सव्वमणागतकालं उप्पज्जति ? त्ति, न पुनरुत्पद्यते मनुष्यत्वेनान्यतरेण वा जन्मना, तथागता अथाख्यातीभूता मोक्षगता वा। के तथागता?, 10 उच्यते-तथागता य [प्रन्थानं ६४००] अपडिण्णा तीर्थकराः, चग्रहणात् केवलिनो गणधराश्च, अपडिण्णा अप्रतिज्ञाः, अनाशंसिन इत्यर्थः, परं आत्मनश्चक्षर्भता देशकाः नायकाः, अनुत्तरा ज्ञानादिना ॥२०॥ स्यात् केनैतदुक्तम् ? उच्यते ६२६. अणुत्तरे य ठाणे से' कासवेण पैवेदिते। जं किच्चा णिव्वुता एगे णिटुं पावंति पंडिए ॥ २१ ॥ ६२६. अणुत्तरे य ठाणे से० सिलोगो । ठाणं आयतनं चरित्तट्ठाणं । काश्यपसगोत्रेण वर्द्धमानेन । तस्य किं 15 फलम् ? उच्यते-जं किच्चा णिव्वुता एगे, णिव्वुता उवसंता । निष्ठानं निष्ठा तं णिहाणं । पण्डितः पापाड्डीनः पण्डितः, अनेके एकादेशः ॥ २१ ॥ ६२७. पंडितो वीरियं लटुं णिग्यायाय पत्तए। धुणे पुवकतं कम्मं णवं चावि ण कुव्वति ॥२२॥ ६२७. पंडितो वीरियं लबुं० सिलोगो । पंडियं वीरियं संजमवीरियं तपोवीरियं च, तं लब्ध्वा कर्मनिर्घातनाय 20 प्रवर्त्तते । केन ? आयतचारित्रेण । धुणे पुव्वकतं कम्मं तपसा धुनाति पूर्वकृतं कर्म, संयमेन च न नवं कुरुते ॥ २२॥ संयतात्मा तु सन्६२८. ण कुव्वति महावीरे अणुपुव्वकडं रयं । रयसा सम्मुहीभूता कम्मं हेच्चाण जं मतं ॥ २३ ॥ ६२८. ण कुव्वति महावीरे० सिलोगो । णाणवीरियसंपण्णो अणुपुव्वकडं णाम मिच्छत्तादीहिं कम्महेतूहिं वटुंतेण 25 अनुसमयकृतं रीयते इति रजः । किश्च-रयसा सम्मुहीभूता, तस्यानुपूर्वकृतस्य रजसः क्षपणाय परीषहाणां च परानीकस्येव सम्मुखीभूताः । अथवा "सम्मुहा उद्भूताः" उत्तीर्णा इत्यर्थः । कम्मं हेच्चाण जं मतं कर्म हित्वा क्षपयित्वेत्यर्थः, जं मतं ति यन्मतं यदिच्छितं सर्वसाधुप्रार्थितं स्यात् ।। २३ ।। किं तत् ? उच्यते ६२९. जं मतं सव्वसाधूणं तं मतं सल्लगत्तणं । साधइत्ताण तं तिण्णा देवा वा अभविंसु ते ॥ २४ ॥ 30 १ कताइ खं २ पु १ पु २ । कयाति खं १॥ २°क्खू लोगस्सऽणु खं १ ख २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ३य खं २ पु२॥ ४ पवेइते खं २पु१पु२॥ ५णिव्वुडा खं १ खं २ पु १ पु२ ॥ ६ पंडिया खं १ ख २ पु१पु२ ॥ ७पवत्तगं खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी०॥ ८°कई खं १ ख २ पु १पु २॥ ९ सम्मुहुन्भूता चूपा०॥ १० साहतित्ताण खं १॥ Jain Education Intemational Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१६ गाहासोलसगज्झयणं ६२९. जं मतं सव्वसाधूर्ण० सिलोगो । यत् सर्वसाधुमतं तदिदमेव णिगंथं पावयणं सर्वकर्मशल्यं कुन्ततीति छिनत्तीत्यर्थः । साधइत्ताण तं तिण्णा आराधयित्वेत्यर्थः, णवविधाए आराधणाए तिण्णा संसारकंतारं । सावसेसकम्माणो वा देवा वा अभविंसु ते , तीर्णा इत्यतिक्रान्तका निर्वृता देवाश्च अभविष्यन्नित्यतिक्रान्त एवमभविष्यन उच्यते ॥२४॥ ६३०. अभविंसु पुरा 'वीरा आगमिस्सावि सुव्वता। दुण्णिवोधस्स मग्गस्स अंतं पादुकरा तिण्ण ॥ २५॥ त्ति बेमि ॥ ॥जमतीतं सम्मत्तं ॥ १५॥ ६३०. अभविंसु पुरा वीरा० सिलोगो । विराजन्त इति वीराः । साम्प्रतं तरन्ति देवा वा भवन्ति । अनागते व्यपदिश्यते-आगमिस्सा वि सुव्वता तरिष्यन्ति देवा वा भविष्यन्ति । के ते ? उच्यते-दुण्णिबोधस्स मग्गस्स, नियतं निश्चितं वा दुःखं निबोध्यते दुर्णिबोधः ज्ञानादिमार्गः। अंतं पादुकरा अमनमन्तः, प्रादुष्कुर्वन्तीति । तरमाणा तीर्णा इति ॥२५॥ ॥ आदानीयं पंचदसमध्ययनं जमतीतं पि वुच्चति ॥ १५ ॥ १धीरा खं १ पु १ पु २॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तगा० ६३० णिज्जुत्तिगा० १३०-३४] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। [सोलसमं गाहासोलसगज्झयणं] पणाणा गाहज्झयणस्स चत्तारि अणुओगदारा, अधिकारो अप्पगंथेण पिंडगवयणेणं-जं पण्णरससु वि य अज्झयणेसु भणितं [तं] सव्वं इधं सूइज्जइ । णामणिप्फण्णे एगपदं गाह त्ति ॥ णामं ठवणागाधा दव्वगाधा य भावगाधा य । पत्तय-पोत्थयलिहिता होति इमा दव्वगाधा तु ॥१॥ १३०॥ णामं ठवणा० गाधा । पत्तय० गाधद्धं । वतिरित्ता दव्वगाहा पत्तय-पोत्थयलिहिता । जधा वीर-वसभ-माराणं कमलदलाणं चतुण्ह णयणाणं । मुणिवइ ! मुणियविसेसा अच्छीसु तुमं रमइ लच्छी ॥ १ ॥ ] 10 अथवा इमा चेव गाथा यस्मिन्नेव [ पत्रे] पुस्तके वा लिखिता ॥ १ ॥ १३० ॥ होति पुण भावगाधा सागारुवयोगभावणिफण्णा । - मधुराभिधाणजुत्ता तेणै य गाहं ति णं बेंति ॥२॥ १३१॥ होति पुण भावगाधा० गाहा । सुओवओगो सागारोवयोगो त्ति काऊण खयोवसमियं सव्वं सुतं ति कातूण खयोवसमियणि फण्णा । सा पुण मधुराभिधाणजुत्ता, चोयंतो वा पुच्छंतो वा परियट्टतो वा गायतीति गीयते वा गाधा ॥ २ ॥15 १३१ ।। अस्या निरुक्तम् गाधीकता य अत्था अर्धेवा सामुद्दएण छंदेणं । एएण होती गाधा एसो अण्णो वि पजाओ॥ ३॥ १३२ ॥ गाधीकता य अत्था० गाधा । अध्नता इत्यर्थः । अधवा सामुद्दएण छंदेण [एएण] होति गाधा एसो अण्णो वि पज्जाओ॥३॥ १३२ ॥ 20 पण्णरससु अज्झयणेसु पिंडितत्थेसु जे अवितहं ति । पिंडितवयणेणऽत्थं गहेति जम्हा ततो गाधा ॥ ४ ॥ १३३ ॥ पण्णरससु अज्झयणेसु पिडित० गाधा । गाथालक्खणवद् इति तो गाधा, पण्णरससु वि अज्झयणेसु पिंडितत्था अवितथं इहं सूयिता । तम्मि एवं पिंडितवयणेण गाधीकते अत्थे जतितव्वं घडियव्वं गंतव्वं च तेण पंथोवदेसणा ततो गाधा ॥ ४॥ १३३ ॥ सोलसमे अज्झयणे अणगारगुणाण वण्णणा भणिया। गाधासोलसणाम अज्झयणमिणं ववदिसंति ॥ ५॥ १३४ ॥ ॥ गाहासोलसमं अज्झयणं समत्तं ॥ १६ ॥ समत्तो सूयगडस्स पढमो सुयक्खंधो ॥१॥ १पोत्थग-पत्तगलिहिता सा होई दव्व खं २ पु२ २"णिप्पण्णा खं १॥ ३ तेणं गापु २ वृ०॥ ४व खं १ खं २ पु२ वृ०॥ ५अहवण साख २ पु २॥ ६ छंदेणं खं २ पु २॥ Jain Education Intemational Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ णिज्जुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१६ गाहासोलसगझयर्ण सोलसमे अज्झयणे० गाधा । एवमेतेसु वि सोलससु वि गाधासोलसएसु यथोक्ताधिकारिकेषु अणगारगुणा वर्ण्यन्ते, अगुणांश्च दर्शयित्वा प्रतिषिध्यन्ते । येन तेषां षोडशानामध्ययनानां गाधा सोलसमीति तेनोच्यते गाथाषोडशानि ॥ ५ ॥ १३४ ॥णामणिप्फण्णो गतो। सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारेतव्वं ६३१. अहाह भगवं-एवं से दंते दविये वोसहकाये त्ति वैच्चे। माहणे ति वा १ समणे त्ति वा २ भिक्खु त्ति वा ३ गिग्गंथे त्ति वा ४॥१॥ ६३१. अहाह भगवं० सूत्रम् । अथेत्ययं मङ्गलवाची आनन्तर्ये च द्रष्टव्यः । यदिदमुदितं पञ्चदशानामभ्ययनानामन्तरे वर्तते, आदौ मंगलं "बुज्झेज" [सूत्र १] त्ति, इहाप्यथशब्दः अन्ते, तेन सर्वमङ्गल एवायं श्रुतस्कन्धः। भगवानिति तीर्थकरः एवमाह, जे एतेसु पण्णरससु य अज्झयणेसु साधुगुणा वुत्ता तेसु विजधावत्थितो। तत्थ पढमज्झयणे ससमय परसमयविद् सम्मत्तावत्थितो १ बितियज्झयणे णाणादीहिं विदालणीएहिं कम्मं विदालंतो २ ततिए जहाभणिते उवसग्गे 10 सहमाणो ३ तत्थ वि अस्थीपरीसहो गरुओ त्ति तज्जयकारी चउत्थे ४ पंचमे णरए णरगवेदणाहिंतो उब्वियमाणो तप्पायोगकम्मविरतो ५ छढे जधा भट्टारएण जतितं एवं जतमाणो, अवि य तित्थयरो सुरमहिओ चउणाणी सिज्झितव्वयधुवम्मि । अणिगृहितबल-विरिओ तवोवधाणेसु उज्जमति ॥ १॥ किं पुण अवसेसेहिं दुक्खक्खयकारणों सुवितधेहिं । होइ ण उज्जमितव्वं सपञ्चवायम्मि माणुस्से ? ॥ २॥ [माचा० नि० गा० २७८-७९] ६, 15 सत्तमे कुसीलदोसे जाणतो ते परिहरितो सुसीलावत्थिओ७ अट्ठमे पंडितविरियसंपण्णो ८ णवमे धम्मभणितं धम्ममणुचरंतो ९ दसमे संपुण्णसमाधिजुत्तो १० एक्कारसमे सम्मं भावमग्गपवण्णो ११ बारसमे कुतित्थियरिसणाणि जाणमाणो असद्दहतो १२ तेरसमे सिरसगुण-दोसविदू सिस्सगुणे णिसेवमाणो १३ चोइसमे पसत्थभावगंथभावितप्रा १४ पण्णरसमे आयतचरित्तावत्थितो १५, एवंविधो भवति दंते दविए वोसहकाये त्ति वच्चे, तत्थ दंते इंदिय-णोइंदियदमेणं, इंदियदमो सोइंदियदमादि पंचविधो, णोइंदियदमो कोधणिग्गहादि चतुविधो । दविए राग दोसरहितो। वोसट्टकाए त्ति अपडिकम्म20 सरीरो, उच्छूढसरीरे त्ति वुत्तं होति, [इति ] एवंविधो वाच्यः । माहणे ति वा समणे त्ति वा भिक्खु त्ति वा [णिग्गंथे त्ति वा ] मा हणह सव्वसत्तेहिं भणमाणो अहणमाणो य माहणो भवति १ । मित्ता-ऽरिसु समो मणो जस्स सो भवति समणो, अथवा "णत्थि य से कोइ वेसो पिओ व."। [अनु० पत्र २५६ तथा आव० नि० गा०८६८] २"भिदिर विदारणे" क्षु इति कर्मण आख्या, तं भिंदतो भिक्खू भवति ३ । बज्झ-ऽब्भंतरातो गंथातो णिग्गतो णिग्गंथो ४ । एवमेतेगट्ठिया माहणणामा चत्तारि, वंजणपरियाएण वा किंचि णाणत्तं, अत्यो पुण सो चेव ॥१॥ ६३२. पडियाहु-भंते! कधं दंते दविए वोसट्टकाए त्ति वच्चे? माहणे त्ति वा समणे त्ति वा भिक्खु त्ति वा णिग्गंथे त्ति वा ?, तं णो ब्रूहि महामुणी! । इति विरतसव्वपावकम्मे पिज्ज-दोस-कलह-अब्भक्खाण-पेसुण्ण-परपरिवाद-अरति-रति-मायामोस-मिच्छादसणसल्ले विरते समिते सहिते सदा जते णो कुज्झे णो माणी माहणे त्ति बच्चे १॥२॥ ६३२. पडियाहु भंते ! • सिलोगो (सूत्रम्) । सिस्सो पडिभणति, आयरियं पुच्छति त्ति यं होति । अथवा आहुः 30 गणधरा:-भंते ! त्ति भगवतो तित्थगरस्स आमंतणं । कधं दंते दविए , कथमिति परिप्रश्ने, कथमसौ पण्णरसज्झयणेसु वि दंते दविऐ वोसहकाए स वाच्यः, माहणे त्ति वा एक ? तं णो ब्रूहि महामुणी!, तदिति तत्कारणं ब्रूहि मे महामुने। १भगव-दंते खं १ पु १ पु २॥ २ वुच्चे खं २ पु १ पु २॥ ३ अत्र सूत्रे त्ति स्थाने सर्वत्र ह वर्तते सं १ ख २ पु १ पु २॥ ४°विरित्तो वा० मो०॥ ५'यरोचउणाणी सुरमहिओ सि आचा०नि० पाठः ॥ ६ धाणम्मि उ आचा० नि. पाठः ॥ ७णा सुविहिपहिं आचा० नि० पाठः ॥ ८पडिआह सं १ खं २ पु १ पु २॥ ९ इति विरते सव सं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी.॥ १० कम्मेहिं पिवृ० दी० ॥ ११ एक इति चतुःसङ्ख्याद्योतकोऽक्षराङ्कः ॥ Jain Education Intemational Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 सुत्साणि ६३१-३४] सूयगडंगसुत्तं बिइयमंगं पढमो सुयक्खंधो। २४७ एवं पुच्छितो भगवं पडिभणति-इति विरतसव्वपावकम्मे, इति एवंविधेण पकारेण जे एते अज्झयणेसु गुणा वुत्ता तहिं वुत्तो विरतसबपावकम्मो, सव्वसावज्जजोगविरतो त्ति भणितं होति । अथवा विरतसव्वपावकम्मो त्ति सुत्तेण चेव भणितं, तं जधा-पिज्ज-दोस-कलह-अब्भक्खाण-पेसुण्ण-परपरिवाद-अरति-रति-मायामोस-मिच्छादसणसल्ले । तत्थ पेज पेम्म, रागो त्ति भणितं होति । दोसो अप्रीतिः । कलहो विग्गहो सपक्ख-परपक्खे वा । अब्भक्खाणं असब्भूताभिनिवेसो यथात्वमिदमकार्षीः । पइसुण्णं करेति पिसुणो । परं परिवदति दुस्सीलादीहिं [परपरिवादो], । अरती धम्मे । अधम्मे रती । । मायामोसं मायासहितं यदनृतम् । मिच्छादसणंणत्थि ण णिच्चो ण कुणति कतं ण वेदेति णत्थि व्वाणं । णत्थि य मोक्खोवायो छ म्मिच्छत्तस्स ठाणाई॥१॥ [सन्मतितर्क का० ३ गा० ५४] एतं सल्लं मिच्छादसणसल्लं । एवमादीसु पावकम्मेसु जो विरतो सो विरतसव्वपावकम्मे । ईरियादीहिं समितो। णाणादीहिं सहितो। सदा सव्वकालं, “यती प्रयत्ने" सर्वकालं प्रयत्नवानिति । णो कुज्झेज्ज, ण माणं करेज्ज । एवंविध-10 गुणजुत्तो वीसत्थेहिं सत्थमुग्घाडेहिं ववदिस्सति माहणे ति बच्चो भण(ण)ति १ ॥२॥ श्रमणगुणप्रसिद्धयेऽपदिश्यते ६३३. एत्थ वि समणे अणिस्सिते अणिदाणे आदाणं च अतिवातं च बहिद्धं च कोधं च माणं च मायं च लोभं च पेजं च दोसं च, इच्चेवं जातो जातो आदाणातो अप्पणो पदोसँहेतू तातो तातो आदाणातो पुव्वं पडिविरते भवति दंते दविए वोसट्ठकाए समणे त्ति वच्चे २॥३॥ ६३३. एत्थ वि समणे० [सूत्रम् ] । य एते पापकर्मविरताद्याः माहणगुणा वुत्ता जाव माहणे त्ति, एत्थं गुणगणे समणो त्ति वच्चो। अनेन सूत्रेण इमे चान्ये, तं जधा-अणिस्सिते अणिदाणे, अणिस्सिते त्ति सरीरे काम-भोगेसु य । अणिदाणे त्ति ण णिदाणं करेति । आदाणं च येनाऽऽदीयते तदादानम्, राग-द्वेषौ हि कर्मादानं भवति । अतिवातं च वायुः प्राणा बलं प्राणा इंदियपाणा एभ्यः जो अतिपातः प्राणातिपात इत्यर्थः । बहिद्धं मैथुन-परिग्रहौ, एगग्गहणे सेसाण वि मुसावादा- दत्तादाणाणं गहणं कतं भवति । उक्ता मूलगुणाः । उत्तरगुणास्तु-कोधं च माणं च मायं च लोभं च पेजं 20 च दोसं च, इच्चे जातो जातो आदाणातो, इति एवं इच्चेवं, जतो जतो प्राणातिपाततः मृषावादाद्वा आत्मनः प्रद्वेषहेतून पश्यति तस्माद् आदानम् , कर्महेतुरित्यर्थः, पुव्वं पडिविरते त्ति पूर्वम् आदावेव ततो विरतो भावप्राणातिपातवेरमणमनुवर्त्तते, एकग्रहणाच मृषावादादिविरतोऽपि । स एवं भवति दंते इंदियदमेणं, दविओ राग-द्दोसरहितो, वोसट्रकाए गच्छवासी गच्छनिर्गतः, समणे इति वाच्यः २ ॥ ३ ॥ भिक्षुरिदानीम् ६३४. एत्थं पि भिक्खू अणुणते णावणते दंते दविए वोसट्टकाए संविधुणीय 25 विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अज्झप्पजोगसुद्धादाणे उवहिते ठितप्पा संखाए परदत्तभोई भिक्खु त्ति वच्चे ३॥४॥ ६३४. एत्थं पि भिक्खू० [ सूत्रम् ] । जतो पावकम्मविरतादिणो माहणगुणा बुत्ता, एत्थ वि भिक्खू । इमे चान्ये, तं जहा-अणुण्णते णावणते, ण उण्णते अणुण्णते । उण्णओ णामादि चतुविधो, दव्वुण्णतो जो सरीरेण उण्णतो, सो भयितो, भावुण्णतो जात्यादिमदस्तब्धो एव स्यात् । अवनतोऽपि शरीरे भजितः, भावे तु दीनमना न स्यात् , अलाभेन वा 30 'ण मे कोइ पूयेति' त्ति ण दुम्मणो होज । दंते दविए वोसट्टकाए पूर्ववत् । संविधुणीय विरूवरूवे परीसहोवसग्गे १ च मुसावायं च बहिद्धं खं १ खं २ पु १ बृ० दी० ॥ २ कोहं च लोभं च पु २ । अत्र पाठभेदे “आद्यन्तग्रहणे मध्यस्यापि ग्रहणम्" इति क्रोध-लोभग्रहणे मान-माययोरपि ग्रहणं बोद्धव्यम् ॥ ३ जतो जतो खं १ खं २ पु १॥ ४ सहेतुं ततो ततो खं १ खं २ पु १ पु २ ॥ ५°विरते विरते पाणाइवायाओ दंते खं २ पु १ पु २ । विरते पाणाइवाया सिआ दंते सा० । विरते सिया दंते वृ० दी.॥६पुणगणे चूसप्र०॥ ७ वातु: पु०॥ ८°ण्णते विणीए णामए दंते खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी। "अणुण्णए णावणए महेसी" उत्तरा० अ० २१ गा० २० । “अणुनए नावणए अप्पहिढे अणाउले।" दशवै० अ० ५ उ०१ गा० १३ ॥ Jain Education Intemational Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ णिजुत्ति-चुण्णिसमलंकियं [१६ गाहासोलसगज्झयणं त्ति, एगीभावेण विधुणीय संविहुणीय । विरूवरूवे त्ति अणेगप्पगारे बावीसं परीसहे दिव्वा सउवसग्गे । अज्झप्पजोगसुद्धादाणे अध्यात्मैव योगः अध्यात्मयोगः, अध्यात्मयोगेन शुद्धमादत्त इति अज्झत्थजोगसुद्धादाणे । उवहिते संजमुट्ठाणेणं। ठितप्पा णाण-दसण-चरित्तेहिं । संखाए परिगणेत्ता गुण-दोसे । परदत्तभोइ त्ति परकड-परणिहितं फासुएसणिज्जं भुंजति त्ति । एवंविधो अट्ठविधकम्मभेत्ता भिक्खु ति वच्चे ३॥ ४ ॥ इदाणिं णिग्गंथो ६३५. एत्थ वि णिग्गंथे एगे एंगविदू बुद्धे छिपणसोते सुसंजते सुसमिए सुसामाइए आतप्पवादपत्ते विदू दुहतो वि सोतपलिच्छण्णे णो पूयणट्ठी धम्मट्ठी धम्मविदू णियागपडिवण्णे समयं चरे दंते दविए वोसहकाए णिग्गंथे त्ति विजं । सेवमायाणध भयंतारो॥५॥त्ति बेमि ॥ ॥गाहासोलसगज्झयणं ॥ १६ ॥ पंढमो सुयक्खंधो सम्मत्तो॥१॥ 10 ६३५. एत्थ वि णिग्गंथे० [सूत्रम् ] । जहदिढेसु ठाणेसु वदृति, ते वि य समण-माहण-भिक्खुणो । णिग्गंथे किंचि णाणत्तं, तं जधा-एगे एगविदू, एगे दव्वतो भावतो य, जिणकप्पिओ दव्वेगो वि भावेगो वि, थेरा भावतो एगो, दव्वतो कारणं प्रति भइता । एगविदू एकोऽहं न च मे कश्चित् , अथवा "एगंतिए विद्" एगंतदिट्ठी ओए, “इणमेव णिग्गंथं पावयणं०" [श्रमणप्रति०] नान्यत् । बुद्धि त्ति धम्मो बुद्धो। सोताई कम्मासवदाराई, ताई छिण्णाई जस्स सो छिण्णसोतो। लोगे वि भण्णइ-"छिण्णसोत्ता णदि" त्ति । सुङ संजते सुसंजते । सुदु समिए सुसमिए । समभावः सामायिकम् , सोभण15 सामाइए सुसामाइए । आतप्पवादप्पत्ते विदु त्ति, अप्पणो पवादो अत्तप्पवातो, यथा-अस्त्यात्मा नित्यः अमूर्तः कर्ता भोक्ता उपयोगलक्षणः, य एवमादि आतप्पवादो सो य पत्तेयं जीवेसु अत्थि त्ति, न एक एव जीवः सर्वव्यापी, एवं जानानो विद् विद्वान् । दहतो त्ति दव्वतो भावतो य, सोताणि इंदियाणि, दुव्वतो संकुचितपाणि-पादो। लास्सुत्तिकारणाणि सुणमाणो वि ण सुणति पेच्छमाणो वि ण पेच्छति । भावतो इंदियत्थेसु राग-होस ण गच्छति ॥ १ ॥ W अतो दुहतो वि सोतपलिच्छण्णे । णो पूयणट्ठी णाम ण पूया-सकारादि पत्थेति, पूएजमाणो वि ण सादिज्जइ पंचसमितो । धम्मट्ठी णाम धर्ममेव चेष्टते भाषते वा, भुङ्क्ते सेवते, नान्यत् प्रयोजनम् । धम्मविदु त्ति सर्वधर्माभिज्ञः । नियागं णाम चरित्तं तं पडिवण्णो । समियं चरे सम्यक् चरेत् । दंते दविए वोसहकाए एवंगुणजातीए णिग्गंथे त्ति विजं ति, विजं ति विद्वान् । सेवमायाणध भयंतारो त्ति, स इति निर्देशः, स माहणः समणः भिक्खू णिग्गंथे त्ति वा एवं अनेन प्रकारेण प्रयुक्तः आयाणध, भए गेण्हधि, भयंतारो भए इहलोगादिभयात् त्रातारो॥५॥ 25 बेमि त्ति अजसुहम्मो जंबुणामं भणति । भगवतो वद्धमाणसामिस्साऽऽदेसेण ब्रवीति, न स्वेच्छयेति ।। ॥ गाथाषोडशकचूर्णिः ॥ १६ ॥ ॥ पढमो सुयक्खंधो सम्मत्तो ॥ १एगतिए विदू चूपा। एगंतविदू वृपा० ॥ २ संछिण्णसोते खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ३ आयवाद खं १ पु१ वृ० दी० ॥ ४ लिच्छिण्णे खं १ खं २ पु १ पु २ वृ० दी० ॥ ५ पूया-सक्कार-लाभट्ठी धम्मट्ठी पु २ वृ० दी० ॥ ६ समियं खं १ खं २ पु १ पु २॥ ७त्ति वच्चे। से एवमेव जाणह जमहं भयं खं २ पु १ पु २ वृ• दी । त्ति वच्चे । से एवमायाणह जमहं भयं खं १॥ ८ गाहा सत्त सयाणि । पढमो सुयक्खंधो बीयमागमस्स खं १ ॥ Jain Education Intemational Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interational