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प्रतिपरिचय इस ग्रन्थ के सम्पादन में कुल तेरह प्रतियों का उपयोग किया गया है। वह इस प्रकार है-सूत्रकृतांगसूत्र की पांच प्रतियाँ, सूत्रकृतांगसूत्र की नियुक्ति की तीन प्रतियां और सूत्रकृतांगचूर्णि की पांच प्रतियां। इन तेरह प्रतियों में सूत्रकृतांगसूत्र मूल की एक प्रति
और सूत्रकृतांगसूत्र की चूर्णि की एक प्रति—ये दो प्रतियां मुद्रित आवृत्ति की हैं। एक प्रति का निर्णय नहीं हो सका। शेष दस प्रतिय हस्तलिखित हैं। इन प्रतियों का परिचय इस तरह है
- सूत्रकृतांगमूलसूत्र तथा नियुक्ति की प्रतियाँ १-२. 'खं १' प्रति-ताडपत्र पर लिखी हुई यह प्रति, श्री शान्तिनाथजी जैन ज्ञानभंडार-खंभात-में सुरक्षित है। बडौदाप्राच्य विद्यामन्दिर द्वारा प्रकाशित इस भंडार की सूचि में इस प्रति का क्रमांक-६ है। इस प्रति में अनुक्रम से तीन ग्रन्थ लिखे हुए हैं। वे इस तरह हैं-१-श्री शीलांकाचार्यकृत सूत्रकृतांगसूत्रवृत्ति, २-श्री भद्रबाहुस्वामिकृत सूत्रकृतांगसूत्रनियुक्ति, और ३-सूत्रकृतांगसूत्र मूल । इस प्रति की लम्बाई-चौडाई ३१.७४२.२ इंच प्रमाण है। कुल पत्र ४२९ है। वि. सं. १३२७ में यह लिखी गई है। इस प्रति ' में उपरोक्त तीन ग्रन्थों की समाप्ति का स्थान और अन्तपुष्पिका इस प्रकार है-१-पत्र १ से ३६३ तक में सूत्रकृतांगसूत्रवृत्ति लिखी हुई
है। इसके अन्त में लेखक ने “सर्वग्रं० १३०००" लिखा है। २-पत्र ३६४ से ३७१ वें की पहिली पृष्ठि तक में सूत्रकृतांगसूत्रनियुक्ति लिखी हुई है। इसके अन्त में “ग्रंथतः श्लोक २६५ ॥ छ।" इस तरह लेखक ने लिखा है। ३-पत्र ३७१ वें की द्वितीय पृष्ठि से ४२९ पत्र तक में सूत्रकृतांगसूत्र मूल लिखा हुआ है। इसके अन्त में इस प्रकार की पुष्पिका है- “सम्मत्तं सूयगडं सूत्रं गाहाए एक्कवीससयाणि ॥ छ । छ । सर्वजातसूत्रे श्लोकाः २६२५ ॥ सर्वसंख्याजात श्लोक १६६००॥छ ।। छ। सं० १३२७ वर्षे भाद्रपद बदि २ रखावघेह वीजापुरे"। इस समस्त ग्रन्थ के पूर्ण होने के बाद प्रस्तुत ६ क्रमांकवाली पोथी में सूत्रकृतांगसूत्र की नियुक्ति की सात पन्ने में लिखी हुई एक ताडपत्रीय प्रति भी है। संभव है कि 'खं १' संज्ञक प्रति के नियुक्ति के पाठ का उपयोग करने के साथ-साथ इस नियुक्ति की अधिक प्रति का मी पूज्यपाद सम्पादकजी ने उपयोग किया हो।
३-४. 'खं २' प्रति--ताडपत्र पर लिखी हुई यह प्रति भी उपर बताये गये ज्ञानभण्डार की है। सूचि में इसका क्रमांक ७ है। इसकी लंबाई-चौडाई ३०.७४२.२ इंच प्रमाण है। कुल ४६३ पत्र में लिखी हुई इस प्रति में तीन ग्रन्थ लिखे हुए हैं। वे इस प्रकार है-१-पत्र १ से ६४ तक में सूत्रकृतांगसूत्र मूल, २-पत्र ६५ से ७२ तक में श्री भद्रबाहुस्वामिकृत सूत्रकृतांगनियुक्ति और ३-पत्र ७३ से ४६३ तक में श्री शीलांकाचार्यकृत सूत्रकृतांगसूत्रवृत्ति है। सूत्रकृताङ्गसूत्रवृत्ति के पूर्ण होने पर लेखक की प्रशस्ति इस प्रकार है
शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवंतु भूतगणाः। .. दोषाः प्रयांतु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ॥ छ । नमः श्रीवर्द्धमानाय वर्द्धमानाय वेदसा। वेदसारं परं ब्रह्म ब्रह्मबद्धस्थितिश्च यः॥१॥ स्वबीजमुप्तं कृतिभिः कृषीवलैः क्षेत्रे सुसिक्तं शुभभाववारिणा । क्रियेत यस्मिन् सफलं शिवश्रिया पुरं तदनास्ति दयावटाभिधम् ॥२॥ ख्यातस्तत्रास्ति वस्तुप्रगुणगुणगणः प्राणिरक्षकदक्षः
सज्ज्ञाने लब्धलक्ष्यो जिनवचनरुचिश्चंचदुच्चैश्चरित्रः। पात्रं पात्रैकचूडामणिजिनसुगुरूपासनावासनायाः ।
संघः सुश्रावकाणां सुकृतमतिरमी संति तत्रापि मुख्याः ॥ ३ ॥ होनाकः सज्जनश्रेष्ठः श्रेष्ठी कुमरसिंहकः। सोमाकः श्रावकश्रेष्ठः शिष्टधीररिसिंहकः ॥४॥ कडयाकश्च सुश्रेष्ठी सांगाक इति सत्तमः । खीम्बाकः सुहडाकश्च धर्मकमैंककर्मठः ॥५॥ एतन्मुखः श्रावकसंघ एषोऽन्यदा वदान्यो जिनशासनज्ञः। सदा सदाचारविचारचारुक्रियासमाचारशुचित्रतानां॥६॥ श्रीमजगच्चंद्रमुनीन्द्रशिष्यश्रीपूज्यदेवेंद्रसूरीश्वारणां । तदायशिष्यत्वभृतां च विद्यानंदाख्यविख्यातमुनिप्रभूणां ॥७॥
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