________________
तथा गुरूणां सुगुणैर्गुरूणां श्रीधर्मघोषाभिधसूरिराजा । सद्देशनामेवमपापभावां शुश्राव भावावनतोत्तमांगः ॥८॥ विषयसुखपिपासोर्देहिनः क्वास्ति शीलं
करणवशगतस्य स्यात् तपो वाऽपि कीहक् । अनवरतमदभ्रारंभिणो भावना का
___ स्तदिह नियतमेकं दानमेवास्य धर्मः॥९॥ किंचधर्मः स्फूर्जति दानमेव गृहिणां ज्ञानाभयोपग्रहै
मेधा तद्वरमाधमत्र यदितो निःशेषदानोदयः। ज्ञानं चाय न पुस्तकैर्विरहितं दातुं च लातुं च वा
शक्यं पुस्तकलेखनेन कृतिभिः कार्यस्तदर्थोऽर्थवान् ॥१०॥ श्रुत्वेति संघसमवायविधीयमानज्ञानार्चनोगवधनेन मिथः प्रवृदि । नीतेन पुस्तकमिदं श्रुतकोशवृद्धयै बहादरश्चिरमलेखयदेष हृष्टः॥१॥ यावजिनमतभानुः प्रकाशिताशेषवस्तुविस्तारः । जगति जयतीह पुस्तकमिदं बुधैर्वाग्यता तावत् ॥१२॥छ॥
संवत् १३४९ वर्षे मार्गशुदि...मोह दयावटे श्रे०होना श्रे० कुमरसीह श्रे० सोमाप्रभूतिसंघसमवायसमारब्धपुस्तकमांडागारे ले० सीहाकेन लिखितं ॥छ॥
इस प्रशस्ति का सार इस प्रकार है
दयावट नामक गांव में श्री जैनसंघ में होनाक, कुमरसिंह, सोमाक, अरिसिंह, कडुयाक, सांगाक, खिंवाक, सुहडाक आदि धार्मिष्ठ श्रेष्ठी रहते थे। इन श्रेष्ठियों ने श्री विद्यानंदसूरि तथा श्री धर्मघोषसूरि के उपदेश से शानपूजा के द्रन्य से तथा परस्पर में दान में दिये गये द्रव्य से ज्ञानभंडार की वृद्धि के लिए इस ग्रन्थ को विक्रम संवत् १३४९ की मार्गशीर्ष शुक्ला (यहाँ तिथि का और बार का नाम नष्ट हो गया है) के दिन लिखवाया है। इस ग्रन्थ के लिपिक का नाम सीहाक है।
इस प्रशस्ति में बताया हुआ गांव दयावट वह इस समय गुजरात के साबरकांठा जिले में आया हुआ दावड गांव होना चाहिए ।
उपर की प्रशस्ति के आधार से यह कल्पना की जा सकती है कि प्राचीन समय में अनेक गावों के श्री जैनसंघों ने अनेकानेक अन्यों को लिखाकर अनेक ज्ञानभण्डारों का निर्माण किया होगा।
५.पु१' प्रति-श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर-अहमदाबाद में सुरक्षित अनेक प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थ संग्रहों में के पूज्यपाद आगमप्रभाकर मुनिवर्य श्री पुण्यविजयजी महाराज के संग्रह की सूत्रकृतांगसूत्रमूलपाठ की कागज़ पर लिखी गई यह प्रति है। ला. द. विद्यामंदिर की अन्यसचि में इसका क्रमांक ८४०२ है। प्रति की स्थिति अच्छी है और लिपि सुन्दर है। लंबाईचौडाई २७.५४११ सें.मी. है। कुल पत्र ४८ है। प्रत्येक पन्ने की प्रत्येक पृष्ठि में तेरह पंक्तियां है। प्रत्येक पक्ति में कम से कम बावन और अधिक से अधिक सत्तावन अक्षर है। प्रत्येक पत्र की प्रत्येक पृष्ठि के मध्य में कोरा भाग-रिक्काक्षर रख कर शोभन किया हुआ है और उस के बीच हिंगुलु से गोल चन्द्राकार लाल शोभन बनाया हुआ है। प्रत्येक पत्र की द्वितीय पृष्ठि के दोनों ओर कोरे भाग में-मार्जिन में मी हिंगुलु से वर्तुलाकार शोभन बनाया हुआ है। प्रथम पत्र की प्रथम पृष्ठि कोरी है। ४८ वें पत्र की द्वितीय पृष्ठि की छठी पंक्ति में सत्रकृतांगसूत्र पूर्ण होता है। उसके बाद लेखक की पुष्पिका छठी पंक्ति से नौवीं पंक्ति तक में है। वह इस प्रकार है"संवत् १७१४ वर्षे भी नवानगरे अंचलगच्छे वा० श्रीविवेकशेखरगणिशिष्य वा० श्रीभावशेषरगणि लिखितं माह शुदि ६ दिने। साधवी विमलां सष्यणी साधवी कपूरी सष्यणी साधवी देमां सष्यणी साधवी पद्मलक्ष्मीवाचनाय ॥ श्री शांतिनाथप्रसादात् वाच्यमानो चिरं ।। श्री ग्रंथान २१.००॥ श्रीः॥ श्री हालारदेशे॥ श्रीकल्याणसागरसूरीश्वरविजयराजे ॥ श्रीरस्तु ॥ ॥ श्री गुरुभ्यो नमः॥ श्री बैन भारते नमः॥ श्रीः"
उपर की पुष्पिका में अन्य का श्लोकप्रमाण २१००० है उसे इक्कीससौ समझा जाय । यहाँ इक्कीस लिख कर सौ (१००) की संख्या बताने के लिए तीन शून्य ००० लगाये गये हैं। इस प्रकार का अंक लेखन कई प्राचीन प्रतियों में देखने में आता है।
६-७. 'पु२' प्रति-यह प्रति मी उपर्युक्त ग्रन्थसंग्रह की है। ला. द. विद्यामंदिर की ग्रन्थसूचि में इसका क्रमांक ८३६३ है। स्थिति जीर्ग है। लिपि सुन्दर है । लंबाई-चौडाई ३४४१३ सें. मी. है। काग़ज़ उपर लिखि हुई इस प्रति में सूत्रकृतांगसूत्र मूल तथा
Jain Education Intemational
Jain Education Intermational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org