________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
यही है जिंदगी
व६. मिलन और जुदाई, रहे सदा नहीं भाई!
__ जड़ या चेतन, जो भी मुझे प्रिय लगता है, इष्ट लगता है, अनुकूल होता है, मैं उनका संयोग चाहता हूँ | क्योंकि उनके संयोग से मैं अपने आपको सुखी मानता हूँ, सुख का अनुभव करता हूँ। कुछ जड़-चेतन पदार्थ ऐसे हैं मेरे पास,
जो मुझे प्रिय लगते हैं, अच्छे लगते हैं - मैं चाहता हूँ कि इनका संयोग सदैव बना रहे! कुछ जड़-चेतन पदार्थ ऐसे हैं, जो मेरे पास नहीं हैं। हालाँकि मुझे पसंद हैं, इष्ट हैं। उनके अभाव में मैं कभी-कभी बेचैन हो जाता हूँ। उन पदार्थों को पाने की वृत्ति और प्रवृत्ति बनी रहती है... इससे चिंता और संताप भी बना रहता है।
मेरे जीवन में मैंने ऐसा अनुभव किया है कि मेरे प्रियजनों का मुझसे वियोग हो गया! मैं नहीं चाहता था कि उनका वियोग हो - फिर भी हो गया... मेरे प्रयत्न विफल हो गये... मैंने गहरा दुःख अनुभव किया। जिस व्यक्ति के प्रति हमें स्नेह हो, राग हो, गहरा प्रेम हो, उसके साथ हमारा संबंध क्यों विच्छेद हो जाता है? मेरे मन में प्रश्न उठा | मैं किसी के बदलते हुए मन को नहीं रोक सकता... किसी के तन से निकलते प्राणों को नहीं रोक सकता... मेरी विवशता पर मुझे नफरत-सी हो गई। मन में हजारों विकल्प उठे... शांत हो गए। विकल्पों में से चिंतन में प्रवेश हो गया।
मैंने स्वयं से पूछा : जिस व्यक्ति का तेरे प्रति स्नेह है, तेरे साथ घनिष्ठ संबंध है, क्या उनके प्रति तेरा मन कभी नहीं बदला है? क्या उनको छोड़कर तेरे प्राण नहीं जा सकते? यदि यह संभव है, तो वह संभव क्यों नहीं?
वहाँ जिनवाणी सुनाई दी : प्रियजनों का संयोग अनित्य है, चंचल है, अस्थिर है। तू क्यों अस्थिर को स्थिर मान लेता है? तू क्यों चंचल को स्थिर और अनित्य को नित्य मान लेता है? हाँ, प्रियजनों का शारीरिक संयोग जैसे अनित्य है वैसे मानसिक संयोग भी चंचल है। मनुष्य के मनोभाव भी स्थिर नहीं होते। क्षण में राग, क्षण में द्वेष! क्षण में राजी, क्षण में नाराज! __ प्रियजनों का सदैव साथ-सहयोग और सहानुभूति चाहने वाला मन इस परम सत्य से प्रभावित हो गया । संसार के दैहिक स्थूल संबंधों की यथार्थता दृष्टिपथ में आयी। संयोग और वियोग की अकाट्य शृंखला दिखाई दी। संयोग-वियोग की अभेद्य शृंखला को कोई नहीं तोड़ सकता। संयोग-वियोग
For Private And Personal Use Only