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यही है जिंदगी
इष्टवियोगाप्रियसंप्रयोगकांक्षासमुद्भवं दुःखम् ।
प्राप्नोति यत्सरागो न संस्पृशति तद् विगतरागः।। 'प्रिय के वियोग की और अप्रिय के संयोग की आकांक्षा से उत्पन्न जो दुःख रागी पाता है, रागरहित व्यक्ति को उस दुःख का स्पर्श भी नहीं होता।' मैं पढ़ता था इस श्लोक को... परन्तु इसका भाव मेरे हृदय को स्पर्श भी नहीं करता था... कैसे करे? रागी हृदय को जिनवाणी कैसे स्पर्श करे? परंतु मेरे रागी हृदय ने प्रिय के वियोग की कल्पना से जो दुःख अनुभव किया, जो वेदना अनुभव की... मुझे यह श्लोक याद आया। मैंने अपने हृदय को कहा : 'हृदय, तू रागरहित बन जा। तू रागी बना है इसलिए दुःखी होता है।' मैंने जब अपने हृदय को रागरहित बनाने में अपनी असमर्थता समझी, मैं वीतराग परमात्मा की शरण में गया। मैंने परमात्मा से प्रार्थना की : 'हे वीतराग! मेरे हृदय को रागरहित बना दो, राग की जड़ों को उखाड़ कर फेंक दो। मुझे अब रागजन्य सुख नहीं चाहिए, रागजन्य आनंद नहीं चाहिए | रागरहित हृदय का परमानन्द चाहिए | मुझ पर बस, इतनी कृपा कर दो। मुझे विश्वास है कि आपकी अचिन्त्य कृपा से मेरा हृदय विरक्त बनेगा ही।'
मेरा राग का बंधन टूट जाये, मैं निर्बंधन बन... ओह, मेरा वह दिन कितना धन्य होगा! मैं निस्सीम आनंद का अनुभव करूँगा। मेरे हृदयमन्दिर में विराग का दिव्य दीपक जगमगायेगा। मेरा वह दीपक कभी बुझ न पाये... उसकी ज्योति अमर ज्योति बन जाये...।
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