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यही है जिंदगी __ - कटु-कठोर शब्दों का व्यवहार व्यापक बनता जा रहा है।
- घरों में कटु शब्दों का प्रयोग हो रहा है। धर्मस्थानों में कटु शब्दों का प्रयोग हो रहा है। समाज में और शहरों में कटु शब्दों का प्रयोग हो रहा है। परिणाम? __- क्लेश, द्वेष, वैर, संघर्ष, झगड़े... और हत्याएँ!
- क्योंकि कटु शब्द प्रेम से सुन लेने की शक्ति कटु शब्द बोलनेवालों में नहीं रही है।
- अपने प्रति स्नेह, प्रेम और आदर रखनेवालों के साथ भी कटु शब्दों का उपयोग करने में कौन-सी बुद्धिमत्ता है, यह मैं नहीं समझ पाया हूँ।
- 'बोलने में भी क्या बुद्धिमत्ता चाहिए?' एक प्रश्न आया। 'बुद्धिमत्ता, जीवन के कौन-से व्यवहार में नहीं चाहिए?' मैंने पूछा । यदि आप घर में शांति से जीना चाहते हो तो घर में प्रिय बोलो। यदि आप समाज में शांति चाहते हो तो समाज में प्रिय बोलो। यदि आप अपने सभी संबंधों को अच्छे बनाये रखना चाहते हो, तो सभी संबंधियों के साथ प्रिय बोलो।
- आपके साथ अप्रिय बोलनेवालों के साथ भी आप प्रिय बोलो। इसके लिये अप्रिय शब्दों को शांति से सुनने की कला प्राप्त करनी होगी।
-- मैंने देखे हैं कुछ ऐसे परिवार | एक-एक व्यक्ति प्रिय बोलता है... अल्प बोलता है। माता, पिता, पुत्र, पुत्री और नौकर भी! क्योंकि प्रिय बोलने की उनकी कुल-परंपरा है। - क्या मनुष्य ऐसी अच्छी परंपरा स्थापित नहीं कर सकता? - माता-पिता आपस में प्रिय शब्दों से वार्तालाप नहीं कर सकते? अपनी
संतानों को अच्छा आदर्श नहीं दे सकते? प्रारंभ तो जन्म देनेवालों को ही करना पड़ेगा। __ - धर्मस्थानों में तो अप्रिय, कटु और कठोर शब्द बोलने का सख्त प्रतिबंध होना चाहिए। परंतु प्रतिबंध करेगा कौन? अनुशासन के नाम पर अप्रिय और अहितकारी वाणी का स्वातंत्र्य मिला हुआ है। __- व्यक्ति को यदि अपने व्यक्तित्व को उदात्त, उन्नत और तेजोमय बनाना है, तो अपनी वाणी प्रिय और हितकारी बनानी ही पड़ेगी।
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