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यही है जिंदगी
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११९. बोलो, पर सोच-समझकर
पत्थर ने फूल से कहा : 'तू मेरी शक्ति जानता है? मेरे एक ही प्रहार से तुझे चूर-चूर कर सकता हूँ ।'
फूल ने मुस्करा कर कहा : 'मित्र, तब तो तुम मुझ पर बड़ा उपकार करोगे! मेरी सुगंध चारों ओर फैलेगी !'
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न पत्थर बोलता है,
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न फूल जवाब देता है !
इस प्रकार के प्रतीकात्मक संवाद मनुष्य को अभिनव जीवनदृष्टि प्रदान करने के लिए रचे जाते हैं।
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जो पत्थर जैसे कठोर हृदय के लोग होते हैं, वे दूसरों को कुचलने में अपनी शक्ति की सार्थकता समझते हैं ।
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किसी के तन को कुचलते हैं, किसी के मन को ।
पत्थर नहीं जानता है कि उसको भी कोई तोड़नेवाला है ! उसको भी कोई पीसकर 'पावडर' बनाने वाला है!
फूल के प्रत्युत्तर
परंतु, आज मुझे पत्थर की बात नहीं करनी है, आज तो का विश्लेषण करना है । बहुत अच्छा लगा फूल का प्रत्युत्तर । फूल तो प्रिय लगता ही है, फूल का प्रत्युत्तर बहुत प्रिय लगा ! क्योंकि इस प्रत्युत्तर में Positive thinking भरा हुआ है ।
- विधेयात्मक चिंतन !
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पत्थर की बात सुनकर फूल घबराया नहीं, डर से मुरझाया नहीं । यदि वह निषेधात्मक चिंतन करता तो भय से मुरझा जाता ।
मैं मर
वह कह देता - 'नहीं, नहीं, मुझ पर प्रहार मत करना... जाऊँगा...' अथवा अकड़ कर बोलता - 'कर तो सही प्रहार... कैसे करता है प्रहार... मैं भी देख लूँ... ।' यदि ऐसा प्रत्युत्तर देता, तो मैं समझता कि वह कागज का फूल है... पौधे का फूल नहीं !
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उसने कहा : 'तेरा प्रहार भी मेरे लिये उपकारी सिद्ध होगा । मेरे कुचल जाने से मेरी सुगंध ज्यादा तीव्र होकर चारों ओर फैलेगी । मेरा अस्तित्व इसीलिये तो है! दूसरों को सुगंध देना!'