Book Title: Yahi Hai Jindgi
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 290
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही है जिंदगी २७२ ___ - 'चाहे वे मुझे दुश्मन मानें, मैं उनको मित्र मानता हूँ और मानता रहूँगा।' ऐसा दृढ़ संकल्प चाहिए। ___ - शत्रु को मित्र बनाने के लिये मन में मैत्रीभाव, वाणी में प्रशंसा और कार्य में हितकारिता रखनी होगी। ___ - वह कुछ भी सोचे, कुछ भी बोले, कुछ भी करे... हमें उसकी उपेक्षा करनी होगी और हमको निर्वैर भावना को अक्षुण्ण रखते हुए सुंदर जीवन जीना होगा | - मुश्किल तो है महावीर के मार्ग पर चलना। परंतु सत्य और प्रशस्त मार्ग यही है। __- हमने सहनशीलता खो दी है। हम असहिष्णु बन गये हैं। - हम अपने एक शब्द की निंदा भी समता से नहीं सुन सकते। निंदा करनेवाले को दुश्मन मानते हैं। __- थोड़ा-सा भी हमारा अहित करने वाले को, नुकसान करने वाले को हम मित्र नहीं मान सकते हैं, शत्रु ही मानते हैं। ___ - संसारी की ऐसी स्थिति है, साधु भी ऐसी स्थिति में दिखायी देते हैं । शत्रु के प्रति शत्रुतापूर्ण वाणी और व्यवहार। - प्रेम, मैत्री और करुणा के प्रति विश्वास ही नहीं रहा है। - फिर परमात्मा के प्रति विश्वास किस बात का? विश्वास नहीं रहा है, विश्वास होने का दंभ हो रहा है - फिर भी निर्दभ होने का दिखावा...!! समझदार होने का दिखावा! ऐसे समझदारों को तो भगवान भी नहीं समझा सकते। ___ - कोई हमारे साथ कैसा भी व्यवहार करे, हमें तो शुभ, सुंदर और मंगलमय जीवन ही जीना है। इसलिए हमें अपनी सहनशक्ति बढ़ानी है। दुःखों को सहने की शक्ति प्राप्त करनी है। किसी भी जीव को दुःखी करने का तो विचार भी नहीं करना है। - ऐसा जीवन कब बनेगा? ऐसा जीवन... महावीर का मार्ग अँच तो गया है दिल और दिमाग को, परंतु हो नहीं रहा है ऐसा जीवन । दुःख है इस बात का हृदय में। चिंता भी होती रहती है कि 'इस मनुष्य-जीवन को यदि सुंदर नहीं बनाया... तो फिर क्या होगा?' हे प्रभो! मेरे समग्र अस्तित्व को प्रेममय, मैत्रीमय और करुणामय बना दो... आप से और कुछ भी नहीं माँगता हूँ। For Private And Personal Use Only

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