Book Title: Yahi Hai Jindgi
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 287
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही है जिंदगी २६९ १२१. अभी आगे और मुकाम है । - आशा, प्रतीक्षा और स्वप्न, मनुष्य को कहीं नहीं ले जा सकते। - उसके चारों ओर की स्थितियाँ ही उसके लिये सब कुछ निर्धारित करती हैं - वांछित-अवांछित, अनुकूल-प्रतिकूल | __- अलबत्ता, स्थितियाँ-परिस्थितियाँ मनुष्य की नियति के अधीन होती होंगी, परन्तु नियति को अज्ञानी कैसे जान सकता है? नियति निश्चित है, हम अनिश्चित हैं। - नियति के साथ-साथ हमारी आशाएँ नहीं चलती हैं, हमारे स्वप्न नहीं चलते हैं। नियति कुछ होती है, हमारी आशाएँ कुछ और! हम सुखों की आशाएँ संजोये रखते हैं हमारे भीतर और सफलता की प्रतीक्षा करते रहते हैं। स्वप्न भी उन सुखों के देखते रहते हैं! प्रतिकूल नियति हमारी आशाओं को मिट्टी में मिला देती है, हमारे स्वप्नों को हवा बना देती है। __- आदत हो गई है आशाएँ करने की! - व्यसन हो गया है सुख के स्वप्न देखने का! दसरे बाह्य व्यसनों से छुटना आसान है, इस भीतरी व्यसन से छुटना आसान नहीं है। इस व्यसन से कैसे छुटकारा हो? - चिंतन का विषय बन गया है। - स्थितियों-परिस्थितियों के प्रति आक्रोश करना व्यर्थ है। परिस्थितियों के निर्माण में दूसरे मनुष्यों के दोष देखना भी व्यर्थ है। परिस्थितियों के पीछे नियति खड़ी है! मनुष्य की खुद की नियति! ___ - जो कुछ हमारे लिये निश्चित है, हमें सहजता से उसको स्वीकार कर लेना चाहिए। सहजता से सुख-दुःख को स्वीकार कर लेना चाहिए | सहज जीवन में ही सहज शांति मिलती है। _ 'मुझे किसी सुख की आशा नहीं है, किसी सुख की प्रतीक्षा नहीं है... किसी सुख के स्वप्न नहीं हैं।' पुनः-पुनः इस संकल्प को भीतर में दोहराते रहना है। - वर्तमान नियति में परितृप्ति! - हर परिस्थिति का सहज स्वीकार! - कोई फरियाद नहीं, कोई शिकायत नहीं! For Private And Personal Use Only

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