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यही है जिंदगी
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१२०. देकर के लीजिए
एक महानगर की सुन्दर होटल के द्वार पर बोर्ड लटक रहा था - 'प्रिय ग्राहक! भीतर पधारिये, हमारा स्वादिष्ट भोजन कीजिए! आपकी कृपा से हम भी भोजन पा सकेंगे!'
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यह तो ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए पब्लिसिटी है, परंतु इसमें से एक गूढ़ रहस्य फलित होता है। हालाँकि यह रहस्य उस पब्लिसिटी करनेवाले को भी ज्ञात नहीं होगा !
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'दूसरों को भोजन देने से हमें भोजन मिलता है' - इस बात पर कभी एकांत में चिंतन किया है ? नहीं न?
- 'हमारे देने से दूसरों को भोजन मिलता है' - यह विचार दिमाग में जमा हुआ है न? यह विचार क्या सही है? सोचना ।
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सच तो यह है कि दूसरों को भोजन देने से हमें भोजन मिलता है! वह देने की क्रिया मैत्रीप्रेरित, दयाप्रेरित, भक्तिप्रेरित या कर्तव्यप्रेरित होनी चाहिए।
- होटलवाले की पब्लिसिटी में से तो स्वार्थ की दुर्गंध ही आती है। उसका निमंत्रण स्वार्थप्रेरित है ।
सद्भावप्रेरित निमंत्रण सुगंध प्रसारित करता है ।
- 'दूसरों को सुख देने से हमें सुख मिलता है' - इस सत्य को स्वीकार करनेवाला मनुष्य, सुख बाँटने के लिये दूसरों को प्रेम से निमंत्रित करता है।
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सुख लेने के लिये कोई द्वार पर आता है, वह खुशी से झूम उठता है । कोई भोजन लेने आता है, कोई पानी लेने आता है, कोई वस्त्र लेने आता है, कोई आश्रय लेने आता है, कोई पैसे लेने आता है, कोई ज्ञान लेने आता है, कोई आश्वासन... सहानुभूति लेने आता है....
यदि है आपके पास देने को, हर्षविभोर होकर दिया करो !
देने योग्य वस्तु आपके पास क्यों है- जानते हो? आपने पूर्व जन्म में दूसरों को दिया था!
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