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यही है जिंदगी
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१०९. भेदभरी दुनिया में खेद ।
एक गाँव था। वहाँ रहते थे परमात्मभक्त रांकाजी। उनकी पत्नी का नाम था बांकाजी। दोनों जंगल में लकड़ी काटने के लिये जाया करते थे। एक दिन की बात है।
आगे रांकाजी चल रहे थे, पीछे बांकाजी चल रही थी। बांकाजी थोड़ी दूर चल रही थी। रांकाजी को ठोकर लगी। उन्होंने देखा तो वहाँ सोने के सिक्के से भरी थैली पड़ी हुई थी। रांकाजी जमीन पर बैठ गये और उस थैली पर धूल डालने लगे| बांकाजी ने यह देखा, उसने पूछा : 'क्या करते हो आप?' 'सोने से भरी हुई थैली यहाँ पड़ी है। सोना देखकर तेरा मन विचलित न हो, इसलिए धूल से उसे ढक रहा था...'
बांकाजी ने कहा : 'मेरे स्वामी, धूल पर धूल ढकने से क्या लाभ? सोने और धूल में कोई भेद है क्या? सोने और धूल के निरर्थक भ्रम में आप नहीं रहें।'
पत्नी का निर्लेपभाव देखकर रांकाजी स्तब्ध सा हो गया। - संसार में सर्वत्र भेद देख रहा हूँ। - यह पत्थर है, यह हीरा है। - यह मिट्टी है, यह सोना है। - यह झोंपड़ी है, यह बंगला है। - यह अच्छा कपड़ा है, यह गंदा कपड़ा है। - यह सुन्दर बच्चा है, यह कुरूप बच्चा है। - यह लावण्यमयी स्त्री है, यह कुरूप स्त्री है। - यह सुन्दर शहर है, यह गन्दा शहर है। - यह सुन्दर वृक्ष है, यह उजड़ा हुआ वृक्ष है। - यह स्वादिष्ट भोजन है, यह बेस्वाद भोजन है।
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