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यही है जिंदगी
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११४. संबंधों की बुनियाद : विश्वास ह
एक जिज्ञासु व्यक्ति, एक तत्त्वज्ञानी के पास गया और पूछा : 'मैं संन्यासी बनूँ या गृहस्थ?'
तत्त्वज्ञानी ने कहा : 'जो बनना हो सो बन, परंतु आदर्श-श्रेष्ठ बनना।'
तत्त्वज्ञानी ने अपनी पत्नी को कहा : 'दीपक लाना, कपड़ा बुनने में सरलता रहेगी।' पत्नी घर में चली गई और दीया लाकर पति के पास रख दिया।
तत्त्वज्ञानी ने उस जिज्ञासु के सामने देखा और कहा : 'गृहस्थजीवन में परस्पर का ऐसा विश्वास चाहिए। मेरी पत्नी ने नहीं पूछा कि 'दिन में - मध्याह्न के समय जबकि सूर्य का इतना प्रकाश है, फिर दीये की क्या जरूरत है? जो मेरी इच्छा, वही उसकी इच्छा रहती है।'
० ० ० विश्वास! - संबंधों का श्वासोच्छवास विश्वास है।
- श्वासोच्छवास के बिना मनुष्य मर जाता है, विश्वास के बिना संबंध मर जाते हैं। __ - गृहस्थ-जीवन संबंधों का ही पर्याय है।
- जन्म होते ही संबंधों का जन्म हो जाता है। माता-पिता के साथ संबंध हो ही जाता है।
- बाद में संबंधों का जाल फैलता जाता है। - वही संबंध अखंड-अविच्छिन्न रहता है, जिसकी जड़ में विश्वास होता है। - परंतु विश्व में जैसे विश्वास का तत्त्व अनादि है, वैसे शंका एवं विश्वासघात का तत्त्व भी अनादि है! - विश्व अनादि है... विश्व में बहुत से तत्त्व अनादि हैं।
- विश्वास को नष्ट करने वाले शंका के कीटाणु भी मनुष्य के भीतर पड़े हुए होते हैं। परंतु परिपुष्ट विश्वास को वे कीटाणु नहीं लग सकते। कमजोर विश्वास पर शंका के कीटाणु हमला कर देते हैं।
गृहस्थ-जीवन में परस्पर के संबंध अपेक्षित होते हैं। संबंधों में विश्वास अपेक्षित होता है।
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