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यही है जिंदगी
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११५. नहीं किसी से नाराजगी
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एक महर्षि का वचन पढ़ा - 'यदि तू धर्मोद्यत है तो किसी की अप्रीति में निमित्त मत बनना।' इस बात पर चिंतन चलता रहा...। क्योंकि मैं धर्मोद्यत हूँ| चारित्रधर्म में उद्यत हूँ, आत्मधर्म में उद्यत हूँ...। - क्या मैं किसी को नाराज तो नहीं करता हूँ? - किसी के मन में रोष तो पैदा नहीं करता हूँ? - किसी को कष्ट तो नहीं पहुंचाता हूँ? मैंने आत्मनिरीक्षण किया... बेचैन हो गया...।
मेरे जीवन में ढेर सारी ऐसी प्रवृत्तियाँ हैं... जिन प्रवृत्तियों से दूसरे जीवों को अप्रीति होती है, दुःख होता है, मेरे प्रति रोष होता है...। इससे मैं अशुभ कर्मानुबंध कर रहा हूँ? अवश्य! - दूसरों को दुःख पहुँचाने से अशुभानुबंध होता है।
- दूसरों को दुःख-अशांति नहीं पहुँचाने से शुभानुबंध होता है। यह सर्वज्ञवचन है, मैं मानता हूँ। 'तो फिर गलत प्रवृत्ति क्यों होती है?' क्योंकि मैं आत्मभाव में जाग्रत नहीं हूँ, मैं गहरी नींद में हूँ। मैं सुखों की स्पृहा करता हूँ। मैं वैषयिक सुख के साधन चाहता हूँ। सुखों की तीव्र स्पृहा में से, ऐसी प्रवृत्ति पैदा हो जाती है... जिस प्रवृत्ति से दूसरे जीवों को दुःख हो, अशांति हो।
- जहाँ तीव्र स्पृहा होती है वहाँ जागृति नहीं रहती। - जहाँ जागृति नहीं होती वहाँ अनुचित प्रवृत्ति हो जाती है।
इसलिए, वैषयिक सुखों की स्पृहा को हृदय से निकाल कर, मुझे आत्मभाव में जाग्रत रहना होगा। जागृतिपूर्वक चलना होगा, जागृतिपूर्वक खाना होगा, जागृतिपूर्वक सोना होगा... जागृतिपूर्वक बोलना होगा... जागृतिपूर्वक लेना होगा और जागृतिपूर्वक देना होगा।
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