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यही है जिंदगी
२३८ प्रतिदिन 'कोऽहं?' - 'मैं कौन हूँ?' का चिंतन करने की ज्ञानी पुरुषों ने प्रेरणा दी है। जिससे 'आत्मा' स्मृति में बनी रहे।
- मैं शरीर नहीं हूँ, मैं इन्द्रिय नहीं हूँ, - मैं मन भी नहीं हूँ, मैं आत्मा हूँ! नयी जिज्ञासा पैदा होती है : 'मैं आत्मा हूँ, कैसी हूँ?' - इस जिज्ञासा को भी पूर्णज्ञानी महापुरुषों ने तृप्त किया है। मैं ज्ञानमय हूँ, मैं दर्शनमय हूँ, मैं चारित्रमय हूँ।' - 'अभी मैं कर्मों से मलीन हूँ। कर्मजन्य राग-द्वेष के भावों से मलीन हूँ।' - मुझे अपनी मलीनता दूर करनी चाहिए ।
- मैं जैसे शरीर की मलीनता दूर करता हूँ, वस्त्रों की मलीनता दूर करता हूँ, मकान की मलीनता दूर करता हूँ... वैसे मुझे अपनी मलीनता भी दूर करनी चाहिए।
- यह मनुष्य-जीवन मेरी मलीनता दूर करने के लिए मिला है। आत्मा को पूर्णरूपेण विशुद्ध, मनुष्यजीवन में ही किया जा सकता है। ___- जो मैं नहीं हूँ, जो अपना नहीं है, उसकी मलीनता दूर करने में जीवन का श्रेष्ठ समय मुझे बरबाद नहीं करना चाहिए। मुझे स्वयं शुद्ध होने का पुरुषार्थ करना है।
- आत्मशुद्धि का पुरुषार्थ ही धर्मपुरुषार्थ है। - जो आत्मा को शुद्ध करे, वही धर्म । - वह धर्म है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र। - ज्यों-ज्यों आत्मा शुद्ध होती जायेगी त्यों-त्यों - ० विचार पवित्र, प्रशांत और परार्थमय बनेंगे। 0 वाणी हितकारी, प्रिय और सत्य बनेगी। 0 इन्द्रियाँ शान्त, सन्मार्गगामी और संयमित बनेगी। O आत्मज्ञान में, शास्त्रज्ञान में निमग्नता आएगी। 0 परमात्मस्वरूप से निकटता प्राप्त होगी।
हे परमात्मन्, मैं (आत्मा) कब ऐसी विशुद्धि प्राप्त करूँगा? इस जीवन में बस, इतना उपकार कर दो... मैं विशुद्ध बन जाऊँ!
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