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यही है जिंदगी
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व५१. सिद्धि चाहिए या प्रसिद्धि ?
अध्यात्ममार्ग के महायोगी कहते हैं कि किसी भौतिक सिद्धि की कामना से कोई धर्मसाधना मत करो। सहजता से, स्वाभाविकता से कोई सिद्धि प्राप्त हो जाए तो उस सिद्धि का उपयोग मत करो, 'मुझे सिद्धि प्राप्त हुई है, ऐसा गर्व मत करो। सिद्धिजन्य चमत्कारों से दुनिया को आकर्षित करने का प्रयत्न मत करो, अन्यथा अध्यात्ममार्ग से भ्रष्ट हो जाओगे। __ कितनी अच्छी सावधानी दी है योगी पुरुषों ने! अध्यात्ममार्ग के यात्रियों की अंतर्यात्रा निर्विघ्न चलती रहे और वे अपनी मंजिल पर पहुँच जाए... इस पवित्र भावना से प्रेरित होकर योगी पुरुषों ने ये बातें कही हैं | जो साधक इस सावधानी की उपेक्षा करता है वह अध्यात्ममार्ग से च्युत हो जाता है एवं बाहर की दुनिया में इज्जत और प्रतिष्ठा कमाने के लिये आतुर रहता है।
एक भाई ने कहा : 'मेरी कुंडलिनी जाग्रत हो गई है... मैं दूसरों की कुंडलिनी जाग्रत कर सकता हूँ, आज्ञाचक्र खोल सकता हूँ... इसके आज्ञाचक्र मैंने खोल दिये हैं...!'
दूसरे भाई ने कहा : 'श्री नवकारमंत्र की आराधना से मैंने ऐसी शक्ति पायी है कि मैं दूसरों के रोग मिटा सकता हूँ! शरीर में जिस जगह रोग हो उस भाग पर मैं अपना हाथ फेरता हूँ और रोग दूर हो जाता है!'
तीसरे एक भाई ने कहा : 'मैंने ध्यान में ऐसी सिद्धि पायी है कि दूसरों को ध्यान में ले जाकर उनके रोग दूर कर सकता हूँ। कुछ लोगों के रोग दूर भी हुए हैं!'
मैं इन लोगों की बातें सुनता रहा... मौन रहते हुए सुनता रहा। कई दिनों तक उन बातों पर सोचता रहा। ये बातें करने वाले अपने आपको अध्यात्ममार्ग के यात्रिक मानते हैं! आत्मा की बातें भी करते हैं। परन्तु आत्मप्रेम के बदले अपनी सिद्धियों के प्रदर्शन का प्रेम ज्यादा पाया! स्वाभाविक था उनके लिये! सत्त्वहीन मनुष्यों में ऐसी विकृतियाँ पैदा होना स्वाभाविक होता है। प्राप्त सिद्धि को पचाने की क्षमता ऐसे जीवों में कहाँ से हो? ___ 'परोपकार' करने की बात तो एक परदा होता है! प्रशंसा और प्रतिष्ठा का व्यामोह ही प्रधान कारण होता है। आन्तर-निरीक्षण के बिना यह बात समझ
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