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यही है जिंदगी
- मैं भावरहित नहीं बन सकता। - क्या इसको मैं अपनी कमजोरी मानूं? मानसिक अशक्ति मानूँ? -- क्या कठोरता का नाम शक्ति है? निर्दयता का नाम शक्ति है? ऐसी शक्ति मुझे नहीं चाहिए। ___ - एक महर्षि का वचन मुझे याद आ रहा है : करुणावंत सदैव दुःखी होता है, दूसरों के दुःखों से! दूसरों के दुःख उसके स्वयं के दुःख बन जाते हैं। ___- तो क्या मेरा मन सदैव दु:खी रहेगा? दु:खों का अंत दुनिया में होने वाला नहीं है... अनादि-अनंत विश्व में दुःख भी अनादि-अनंत हैं।
- 'जब तक जीवात्मा दूसरों को दुःख देता रहेगा तब तक उसके दुःखों का अंत नहीं होगा...' यह बात तो सच ही है। ___- व्यवहार-दशा में मनुष्य दूसरों को दुःखी किये बिना नहीं जी सकता है। इसलिए ऐसी जीवनपद्धति खोजनी होगी कि जिसमें किसी भी जीव को दुःख पहुँचाये बिना जी सकें। ___- स्वयं भी पूर्ण शांति का अनुभव कर सकें । शांति के सागर में निमग्न रह सकें। __- वर्तमान जीवन तो द्वन्द्वात्मक ही है। शांति और अशांति, आनंद और उद्वेग, सुख और दुःख...। इन द्वंद्वों में मानसिक संतुलन बनाये रखना होगा। ___ - मानसिक संतुलन भी तो सदैव नहीं बना रहता है न? कभी-कभी संतुलन खो जाता है। भावों के आवेग संतुलन को धक्का दे देते हैं।
स्वयं के दुःखों से जितना विचलित नहीं होता हूँ, उतना मैं दूसरों के दुःख देखकर विचलित हो जाता हूँ। वह विचलन मैं ज्यादा सहन नहीं कर सकूँगा, ऐसा मुझे लगता है। यदि इस बात को मेरी कमजोरी कहूँ, तो यह कमजोरी मुझमें है ही। ___ - यह कमजोरी क्या मुझे दूसरों के दुःख दूर करने में निष्फल तो नहीं बनायेगी? इस बात से कभी-कभी मैं चिंतित हो जाता हूँ।
- दूसरों के दुःख दूर करने का सामर्थ्य तो मुझमें होना ही चाहिए। वह सामर्थ्य जैसे भी प्राप्त होता है, करना है। मानव-जीवन की सार्थकता इसी में ही मानी है न!
- दूसरी बात : दूसरों के दुःख दूर करने का अर्थ होता है अपने ही दुःख दूर करना।
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