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यही है जिंदगी
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ख ७८. वीतरागी की लगन लगाएँ ३
'मैं किसी भी मनुष्य को दुःखी नहीं कर सकता, न काया से, न वचन से। कभी भूल से किसी को दुःखी कर देता हूँ, तो बाद में हृदय उद्विग्न हो जाता है। तो क्या यह मेरी मानसिक कमजोरी है?'
यह एक मित्र का प्रश्न है, मेरा भी यह एक प्रश्न है। - केवल मनुष्य ही नहीं, किसी भी जीव को मैं दुःखी करना नहीं चाहता हूँ। किसी भी जीव को दुःखी करना यानी अपने आप को दुःखी करना । जब जानता हूँ कि मेरे कारण किसी जीव को दुःख हुआ है, मेरा हृदय दुःखी हो ही जाता है। ___ - परन्तु, जब कोई व्यक्ति आकर मुझे कहता है : 'आप हमारे दुःख दूर नहीं करते हैं, आप हमारी उपेक्षा करते हैं, आपके मन में हमारे प्रति स्नेह नहीं है...' तो मेरा मन बहुत दुःखी हो जाता है और रोष भी आ जाता है। __- हालाँकि दुःखी जीवों के दुःख दूर करने की मेरी भावना तो बनी ही रहती है, शक्य प्रयत्न भी करता रहता हूँ, परन्तु कभी प्रयत्न सफल नहीं बन पाता है... तब मैं क्या करूँ?
-- किसी का मुझ पर ऐसा अधिकार तो हो नहीं सकता कि मैं उनके दुःख दूर करूँ ही। यदि मैं उनके दुःख दूर नहीं कर सकता हूँ, तो वे मुझे दोषी अपराधी मान लें। मैं, मुझ पर किसी का भी ऐसा अधिकार मान्य नहीं रख सकता हूँ...| परन्तु मेरा मन दुःखी तो होता ही है... उनके दुःख दूर नहीं कर सकने के कारण...।
व्यवहार-दशा ही कुछ ऐसी है कि इच्छा नहीं होते हुए भी दूसरों के दुःख में निमित्त होना पड़ता है। सहजीवन व्यवहार का ही एक भाग है। सहजीवन में सहवर्ती मनुष्यों को कभी-कभार तन-वचन से दुःख पहुँचता है। ___ - दूसरों की सभी अपेक्षाएँ कौन पूर्ण करता है? मैं भी दूसरों की सभी
अपेक्षाएँ पूर्ण नहीं कर सकता हूँ, इसलिए दूसरे दुःखी होते हैं... मैं क्या करूँ? फिर भी मेरा मन अशान्त हो जाता है।
- मैं करुणाशून्य नहीं हो सकता। - मैं दयाहीन नहीं हो सकता।
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