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यही है जिंदगी
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व ८६. आनंदमय जीवन हो ।
उपनिषद् के पौर ऋषि को शिष्य ने प्रश्न किया : 'गुरुदेव, जीवनदर्शन क्या है?' पौर ऋषि ने कहा : 'आनंद!' 'प्रभो, हमें जीवनदर्शन कराने की कृपा करें।' 'वत्स, इस एक शब्द में ही जीवनदर्शन समाया है।' 'महात्मन, हम नहीं समझ पाये...।' 'आनंद अपने जीवन का उद्भवस्थान है। आनंद ही अपना केन्द्रबिन्दु है, आनंद अपना स्वभाव है... और आनंद ही अपना अन्तिम लक्ष्य है।' - आनंद अमृत है! विषयानन्द नहीं, आत्मानन्द अमृत है। प्रिय विषयों के अभाव में आनंद की अनुभूति होती रहे, वैसी साधना आवश्यक है। - मैंने ऐसे लोग देखे हैं कि जो शास्त्रज्ञ हैं... परन्तु विषाद से मुक्त नहीं हैं। मैंने ऐसे लोग देखे हैं कि जो मंदिरों में जाकर परमात्मा की पूजा करते हैं, परन्तु उद्वेग से मुक्त नहीं है।
मैंने ऐसे लोग देखे हैं कि जो घोर तपश्चर्या करते हैं, परन्तु उनकी मुखाकृति पर उदासीनता छायी हुई है।
इन लोगों के पास 'आनंद' नाम का अमृत नहीं है। ये लोग स्वभाव दशा से हजारों कोस दूर होते हैं। - प्रतिक्षण आनंदमय होना चाहिए। कोई खेद नहीं, कोई उद्वेग नहीं, कोई विषाद नहीं।
- पूर्ण ज्ञानी पुरुषों ने कहा है कि श्रद्धावान, ज्ञानवान् और चारित्रवान मनुष्य कभी भी खेदयुक्त, विषादयुक्त नहीं होता है।
- आँखों में आनंद हो। - होठों पे आनंद हो।
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