Book Title: Yahi Hai Jindgi
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 221
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही है जिंदगी २०३ जलरहित करते हैं। उत्तम वस्त्रों से आपकी पावन देह को सजाते हैं। आप देवनिर्मित शिबिका-पालकी में आरूढ़ होते हैं। लाखों मानव आपके दीक्षामहोत्सव में सम्मिलित होते हैं। हे वीतराग! नगर के बाहर आकर सुंदर वृक्षघटा से सुशोभित उद्यान में, देवनिर्मित आसन पर बिराज कर आप अलंकार एवं वस्त्र का त्याग करते हैं। बाद में आप स्वयं अपने केशकलाप का लुंचन करते हैं। चारों तरफ असंख्य देव और मनुष्यों की भीड़ जमी हुई होती है। सभी विस्फारित नेत्रों से, एक निगाह से आपको निरखते हैं, सब मौन धारण किये होते हैं। वाजिंत्र भी मौन धारण कर लेते हैं... उस समय आप अनंत सिद्ध भगवंतों को वंदन करते हैं और सभी पापों के त्याग स्वरूप प्रतिज्ञा धारण करते हैं। रत्नत्रयी को ग्रहण करते हैं... महान चारित्रपथ पर आपका प्रयाण शुरू हो जाता है। हे जगदानन्द! आपको उसी समय निर्मल 'विपुलित मनःपर्ययज्ञान' प्रगट हो जाता है। दूसरे जीवों के मन के विचार पढ़ लेने का विशिष्ट ज्ञान आपको प्राप्त हो जाता है। परन्तु, जब तक आपको कैवल्य की प्राप्ति नहीं होती है तब तक आप मौन रहते हैं। क्षमा वगैरह दस प्रकार के श्रमण धर्म का आप पालन करते हैं। हे अशरण शरण! जब-जब मेरी कल्पना-सृष्टि में आपको मैं पृथ्वी पर विचरण करते देखता हूँ... आपकी निर्मम...निस्संग अवस्था देखता हूँ... निर्भय और निराकल अवस्था का दर्शन करता हूँ... तब मेरा मन भी आपके पदचिह्नों पर चलने के लिए लालायित हो जाता है। मेरी यह लालसा, प्रभो! क्या कभी पूर्ण होगी? For Private And Personal Use Only

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