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यही है जिंदगी
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को हर्षान्वित करने का आपका उपकार अवर्णनीय है । शब्दों में कृतज्ञभाव कैसे व्यक्त करूँ ?
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शारदीय जल कैसा निर्मल होता है! आपके आत्मभाव तो उससे भी ज्यादा निर्मल होते हैं... जीवोपकार के उत्कृष्ट भाव से आप ग्राम - नगरों की पदयात्रा करते रहते हो । जंगलों में... वृक्षों की घटा में... पर्वतों की गुफाओं में ध्याननिमग्न रहते हो ।
- आप कितने उपसर्ग-परिषहों को समभाव से सहन करते हो! आप पृथ्वी जैसे सहनशील और मेरु जैसे निष्प्रकंप होते हो ।
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जब तक केवलज्ञान प्राप्त न हो तब तक आप उग्र तपश्चर्या करते हो । किसी भाग्यवंत- पुण्यवंत गृहस्थ को ही आपको पारणा कराने का धर्मलाभ प्राप्त होता है । पारणा कराने वाला गृहस्थ धन्यातिधन्य हो जाता है ।
आप परिग्रह से सर्वथा मुक्त होते हैं । नहीं होता है बाह्य परिग्रह, नहीं होता है अभ्यंतर परिग्रह ! न कोई आसक्ति, न कोई ममत्व!
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विशुद्ध ध्यानधारा में बहते हुए आप शुक्लध्यान में प्रवेश करते हो । चार घाती कर्मों का नाश कर आप सर्वज्ञ - वीतराग बन जाते हो ।
लोकालोक प्रकाशी केवलज्ञान की महिमा किन शब्दों में गाऊँ ? ऐसा पूर्णज्ञान प्राप्त कर लिया आपने! देव-देवेन्द्रों ने स्वर्ग से आकर भव्य महोत्सव मनाया...! रजत, स्वर्ण और रत्नों से उन्होंने समवसरण की रचना की । दिव्य मणियों से सुशोभित सिंहासन पर आप आरूढ़ हुए। चारों दिशाओं में चार सिंहासन... और चारों दिशाओं में आपके दर्शन होते हैं ।
- हे करुणानिधान! आज तो मैं केवल धर्मशास्त्रों के माध्यम से, कल्पनालोक में ही आपका दर्शन कर सकता हूँ... परन्तु कल्पना तो कल्पना ही होती है .... कुछ क्षणों के लिए ही कल्पना होती है...। जब कल्पना का समय पूर्ण हो जाता है... मैं अपने आपको, विसंवादों से एवं व्यथाओं से पूर्ण इस संसार में खड़ा पाता हूँ। राग-द्वेष और मोह के बंधनों में जकड़ा हुआ पाता हूँ।
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कुछ क्षणों का भावालोक में होता हुआ आपका मिलन... क्या कभी शाश्वत मिलन में परिणत हो सकेगा ?
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