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यही है जिंदगी
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केवल भाग्य के सहारे, प्रारब्ध के सहारे जीनेवाले, स्वयं अपने सद्भाग्य के द्वार बंद करते हैं। नये सद्भाग्य का निर्माण करने का प्राप्त सुअवसर खो देते हैं ।
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ज्ञानी-उद्बुद्ध पुरुषों ने मनुष्य - जीवन के गीत रचे हैं। उन्होंने मनुष्यजीवन को पुरुषार्थ का क्षेत्र माना ।
इसी जीवन में पामर पुरुषोत्तम बने !
- इसी जीवन में क्षुद्र भी श्रेष्ठ बने!
- इसी जीवन में संसारी मुक्त बने !
उन्होंने सही दिशा में प्रचंड पुरुषार्थ किया। अखंड पुरुषार्थ किया।
• निश्चित दिशा में पुरुषार्थ करनेवालों को
o विघ्नों को कुचलना होगा ।
० संकटों में धीर रहना होगा
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O आफतों का दृढ़ता से मुकाबला करना होगा ।
• दुःखों को हँसते-हँसते सहना होगा ।
● आशा, उत्साह और उमंग को जीवित रखना होगा ।
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कभी लेना पड़े दूसरों का सहारा तो लेना, परन्तु कुछ समय के लिये
ही । किसी के सहारे जीने की आदत बुरी है ।
- दूसरों का सहारा खोजने के बजाय, दूसरों का सहारा बनने का सोचें।
दूसरों का सहारा बनने में भी एक सावधानी रखनी चाहिए : सहारा लेनेवाला व्यक्ति पराश्रित न बन जाये, पुरुषार्थहीन न बन जाये ।
सहारा लेने में 'दीनता' से सावधान रहना पड़ता है।
सहारा देने में 'अभिमान' से सावधान रहना पड़ता है !
आत्मबल, आत्मश्रद्धा, आत्मजागृति ही पुरुषार्थ में प्रेरणा बनती है। पुरुषार्थ करने पर भी निश्चित कालावधि में सफलता प्राप्त नहीं होती है,
तब संभव है कि निराशा से मन भर जाये । उस समय हमें ऐसा प्रेरणास्रोत मिल जाये कि जो हमारी निराशा को मिटा कर मृत उत्साह को जीवित करे.... तो उसको ‘भाग्य' मानना । उस भाग्य का सहारा लेकर पुनः पुरुषार्थ के मार्ग पर चल देना।
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