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यही है जिंदगी
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. खुद हो सोने जैसे
एक सिद्ध पुरुष थे।
उनके विषय में एक किंवदन्ती थी कि वे तांबे को सोना बनाने की विद्या जानते हैं। बहुत लोग उस विद्या को पाने के लिए उनके पास जाते हैं, सिद्ध पुरुष उनसे कहते हैं : 'बारह वर्ष मेरे पास रहो, सेवा करो, बाद में विद्या बताऊँगा।'
इतना धैर्य कहाँ से लाना? कोई चार/छ: महीने रहकर चला जाता है, कोई एक/दो साल रहकर चला जाता है। निर्बल संकल्पशक्ति और अधीरता किसी को बारह वर्ष टिकने नहीं देती है। परन्तु एक धीर-वीर युवक वहाँ पहुँचा | वह बारह वर्ष सिद्ध पुरुष के पास रहा। उसका संकल्प बल दृढ़ था, उसकी धीरता अद्भुत थी।
सिद्ध पुरुष ने उस सात्विक युवक को अपने पास बुलाकर कहा : 'वत्स, मेरे वचनानुसार अब मैं तुझे सुवर्णसिद्धि देना चाहता हूँ। आज से ही उसका उपक्रम शुरू कर देते हैं।' 'गुरुदेव! क्षमा करें, मैं सुवर्णसिद्धि नहीं चाहता।' 'क्यों?' गुरु को बड़ा आश्चर्य हुआ।
'क्योंकि आपके पास बारह वर्ष रह कर, आपकी कृपा से मैं ही सोना बन गया हूँ| अब तो मैं आजीवन आपके चरणों में रहूँगा, आत्मकल्याण की आराधना करूँगा। स्वर्ण इकट्ठा कर, तृष्णा और विलास में मुझे जीवन नष्ट नहीं करना है।'
'तू सुपात्र है, तुझे देवीकृपा प्राप्त होगी वत्स!' गुरु ने शिष्य को हार्दिक आशीर्वाद दिये।
० ० ० स्वर्ण... रजत.... रुपये...। अर्थप्रधान बन रहा है पूरा विश्व |
धर्मप्रधान देश भारत भी अर्थ प्रधान बन गया है। क्या हो गया है लोगों को? धर्म और मोक्ष को भूल रहे हैं, अर्थ और काम को ही सर्वस्व मान लिया है।
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