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यही है जिंदगी
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६८. जीवन-सफर आनंद से परिपूर्ण हो
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‘ऑबर्न' नाम के पहाड़ पर एक कब्र है । उस पर संगमरमर का एक छोटा पत्थर लगा हुआ है, उस पर सिर्फ चार शब्द अंकित हैं : 'वह खूब हँसमुख थी।'
- इस एक वाक्य में से संपूर्ण जीवन की रसमयता टपकती है । उस स्त्री ने अपनी स्वर्ग की यात्रा को बसन्ती पवन की लहरों से भर दिया होगा ।
जीवन एक यात्रा है ।
यात्रा तो हँसते-हँसते करनी चाहिए न ?
यात्रा में शोक-उद्वेग नहीं चाहिए, यात्रा में ग्लानि और विषाद नहीं चाहिए। यात्रा में उदासी नहीं चाहिए।
यात्रा में तो प्राण प्रफुल्लित होकर खिल उठने चाहिए। उमंग और उत्साह से परिपूर्ण रहने चाहिए।
प्रतिपल चेतना आनंद से... उल्लास से छलकती रहनी चाहिए। वह आनंद और उल्लास आँखों से बरसता रहना चाहिए।
'मेरी आत्मा का स्वभाव ही आनंद है।' यह सत्य बार-बार स्मृति में आना चाहिए। आनंद-स्वभाव की पुनः पुनः स्मृति, मन को सदाबहार बनाये रखेगी।
यदि आनंद का, खुशी का आधार, बाह्य दुनिया में खोजेंगे, तो वह आनंद- वह खुशी क्षणजीवी बनेंगे। इससे स्थायी आनंद नहीं मिलेगा ।
- आनंद का केन्द्र खुलना चाहिए भीतर में। ऐसा 'पीन पोईन्ट' खुल जाना चाहिए कि वहाँ से आनंद की धारा बहती ही रहे।
- हमारे प्रिय व्यक्ति न हों, प्रिय पदार्थ न हों, तब भी हमारे भीतर का प्रवाह बहता ही रहे ।
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बाह्य दुनिया की घटनाओं से अपने मन को प्रभावित नहीं होने देना चाहिए। निर्बल मन के लोगों पर बाहरी घटनाओं का शीघ्र प्रभाव पड़ता है, इसलिए वे राग-द्वेष के द्वन्द्वों में फँस जाते हैं और आनंद से वंचित हो जाते
हैं ।
बाह्य परिस्थितियों से मन प्रभावित हो जाए, तो तुरन्त जाग्रत बनकर, उन प्रभावों को धो डालो। शरीर गंदा होता है तो उसे धो देते हैं न? कपड़े