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यही है जिंदगी
१७२ __- मुनि के मुख पर तो स्मित की गंगालहर उड़ती रहनी चाहिए... क्योंकि वह तो 'मोबाइल तीर्थ' है न ।
- स्मित एक शान्त... शीतल गंगाप्रवाह है...। निर्दोष-निर्दभ... सहज स्मित सदैव तुम्हारे मुख पर देखना चाहता हूँ।
स्पर्धा और तुलना | इन दो बातों ने मनुष्य के जीवन को घोर अशांति में डुबो दिया है। यह व्यक्ति मुझसे ज्यादा धनवान नहीं होना चाहिए, मैं उससे ज्यादा धनवान बने...' 'इस व्यक्ति से मैं विशेष प्रसिद्ध बनूँ...'
'इस व्यक्ति को मैं मुझसे आगे नहीं बढ़ने दूंगा...' ऐसी तो असंख्य स्पर्धाएँ चल रही हैं मनुष्य के जीवन में...!
और हर बात में हो रही है तुलना। साज-सज्जा में तुलना, रहन-सहन में तुलना, बोलने-चलने में तुलना... संपत्ति की तुलना... - दूसरों से बढ़कर है, तो अहंकार | - दूसरों से निम्न स्तर का है, तो दीनता।
इस स्पर्धा और तुलना की उलझन में फँसा मनुष्य कैसे 'आत्मतत्त्व' का विचार कर सकता है? कैसे उसके मन में परमात्मा का प्रतिबिंब पड़ सकता है? ___ - जीवन के हर क्षेत्र में ये दो विकृतियाँ प्रविष्ट हो गई हैं। आध्यात्मिक विकास में तो ये दो विकृतियाँ बाधक हैं ही, सरल और सरस जीवनप्रवाह में भी अवरोधक बनी हुई हैं।
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