________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
१७४
यही है जिंदगी
गुरु ने पुनः पिंजरे में फल रखवाया... फिर से बंदर नीचे आया, फल लेने पिंजरे में हाथ डाला और हाथ फँस गया। हाथ में से फल छोड़ता नहीं है और चिल्लाता है।
गुरु ने फिर से बंदर को मुक्त करवाया। बंदर वृक्ष पर चढ़ गया। गुरु ने उस पुरुष के सामने देखा और बोले :
'वत्स, इसी को कहते हैं आसक्ति! इसी को कहते हैं विषयासक्ति! बंदर इसी विषयासक्ति से अन्धा बना था। फल की आसक्ति ने उसको बार-बार पिंजरे में फँसाया। - संसार के वैषयिक सुखों को अहितकारी मानते हुए भी हम क्यों नहीं छोड़ते? कारण है आसक्ति। पाँचों इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति!
– विषयों में रसानुभूति होते ही आसक्ति पैदा हो जाती है। इसलिए विषयों में रसानुभूति ही न हो, वैसा उपाय करना चाहिए |
वह उपाय है सत्समागम । सत्संगत्वे निःसंगत्वम्। - सत्पुरुषों का समागम ही आसक्ति से मुक्ति दिला सकता है।
- अनासक्त योगी ही सत्पुरुष कहलाते हैं। आसक्त पुरुष योगी नहीं होता, मुनि नहीं होता, साधक नहीं होता... वह तो होता है गंभीर मरीज!
-- विषयों में जैसे आसक्ति नहीं चाहिए, वैसे व्यक्तियों में भी आसक्ति नहीं चाहिए | अपने प्रति श्रद्धा, स्नेह और आदर रखने वालों में भी आसक्ति नहीं चाहिए। यदि यह आसक्ति नहीं होगी तो दूसरों के प्रति द्वेष नहीं होगा, तिरस्कार नहीं होगा।
- सत्पुरुषों की खोज करनी पड़ेगी। आज सबसे ज्यादा अकाल पड़ा है, सत्पुरुषों का।
- धार्मिक क्षेत्र में और आध्यात्मिक क्षेत्र में भी अनासक्त योगीपुरुषों का अकाल पड़ा है। दूसरे क्षेत्रों में तो घोर अकाल है सत्पुरुषों का।
- एक अन्धा दूसरे अन्धों का पथ-प्रदर्शक बना है! है न काल की विडंबना? -- अन्धा कहता है : मैं ही ज्ञानी हूँ... मैं ही ध्यानी हूँ... मैं ही सच्चा हूँ... मैं ही सब कुछ हूँ...!
For Private And Personal Use Only