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यही है जिंदगी
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है? हृदय से अद्वेषी रहते हुए बाहर से द्वेष की अभिव्यक्ति कर सकता है ? हृदय से निर्भय रहते हुए बाहर से भय प्रदर्शित कर सकता है ? कहाँ है स्थिर बुद्धि ?
उद्वेग और आनंद में बुद्धि अस्थिर बन गई है । दुःख में उद्वेग हो ही जाता है! सुख में आनंद हो ही जाता है! व्यवहार के सिद्धांत में उद्वेग को उपादेय माना गया है। आनंद को भी उपादेय माना गया है। इसका तात्पर्य यह है कि व्यवहार-मार्ग में स्थिर बुद्धि संभव नहीं है!
राग, द्वेष और भय से आक्रान्त जीवन जीना है ? नहीं, ऐसा जीवन जीने का कोई प्रयोजन नहीं है । ऐसे सुख ही नहीं चाहिए कि जो राग-द्वेष और भय से प्राप्त होते हों । भयाक्रान्त सुख तो वास्तव में सुख ही नहीं है।
एक महर्षि ने तो कहा भी है कि संसार के सभी सुख भयाक्रांत हैं। सभी सुखों के ऊपर भय के बादल मंडराये हुए हैं! इसलिए जीवन ऐसा जीना चाहिए कि बाह्य सुखों की अपेक्षा बहुत ही कम रहे।
कुछ भी हो, इस जीवन में स्थितप्रज्ञता प्राप्त करनी है। स्थितप्रज्ञता प्राप्त करने के लिए जो कुछ त्याग करना पड़ेगा, कर दूँगा ! जैसा जीवन अपेक्षित होगा, वैसा जीवन स्वीकार कर लूँगा । आत्मा के द्वारा आत्मा में संतुष्टि का आस्वाद तो पाना ही है! जब संसार के सारे बाह्य बंधन तोड़ दिये हैं, सारे रिश्ते छोड़ दिये हैं, श्रमण जीवन के व्रत - नियमों को सहर्ष स्वीकार कर लिया है, तब स्थितप्रज्ञता प्राप्त करना, स्थितप्रज्ञता से प्राप्त आत्मानन्द की अनुभूति करना मेरे लिये अनिवार्य है। स्थितप्रज्ञता के अभाव में यदि जीवनयात्रा समाप्त हो गई... तो निःसीम पश्चात्ताप होगा ।
स्थिर बुद्धि और स्थितप्रज्ञता, आत्मानुभूति को चाहने वालों के लिये केवल आवश्यक नहीं, अनिवार्य है। कुछ तुच्छ व्यवहारों की शृंखला को तोड़कर भी स्थिर बुद्धि और स्थितप्रज्ञता का अभ्यास कर ही लेना चाहिए । व्यवहार-परस्त दुनिया के प्रत्याघातों की अब कोई परवाह नहीं करनी है।
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