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यही है जिंदगी
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७१. अब पछताए क्या होय
वह सड़क के किनारे बैठा था।
वह अपंग था, उसके दो हाथ नहीं थे। उसके कोई स्वजन नहीं थे, मित्र नहीं थे। हाँ, कोई न कोई दयालु... करुणावंत मिल जाता था...| रहने को घर नहीं था, परन्तु किसी वृक्ष की छाया, किसी निर्जन मकान का बाह्य भाग... उसका घर बन जाता था।
उसको विशेष कोई तृष्णा नहीं थी। पहनने को एकाध वस्त्र... और पेट भरने को दो-चार रोटियों से ज्यादा वह किसी से माँगता नहीं था। ___मैं उसको देखता रहा... उसने भी मेरी ओर देखा...| मैं उसके पास गया, कुछ क्षण मौन खड़ा रहा, फिर कहा :
'तू रोटी कैसे खाता है? तेरे दोनों हाथ तो हैं नहीं ...।'
'महात्माजी, रास्ते पर से गुजरते लोगों को पुकारता हूँ: 'ओ भाई, ओ बहन... मुझे जरा रोटी खिला दो... दया करो... मेरे दोनों हाथ कट गये हैं...।' यूं तो लोग मेरे सामने देखते ही नहीं हैं... परन्तु फिर भी दिन में दोतीन भाई-बहन तो मिल ही जाते हैं... मेरे मुँह में रोटी के टुकड़े डाल देते हैं
और चले जाते हैं। ___ मैंने उसके पास पानी से भरा प्याला पड़ा हुआ देखा... और पूछा : ‘पानी कैसे पीता है?' ___'पशु की तरह...। जमीन पर झूक कर प्याले में मुँह डालकर पीता हूँ।' वह तो सहज भाव से बोलता था, परन्तु मेरा हृदय काँप रहा था। मैंने पूछाः
'तुझे मच्छर भी काटते होंगे... कभी-कभी सूक्ष्म जंतु भी तेरे शरीर पर चढ़ते होंगे... तू उनको कैसे दूर करता है?' __ 'कभी जमीन के साथ... दीवार के साथ सर रगड़ता हूँ... शरीर को रगड़ता हूँ... देखिए न...।' यूं कह कर उसने अपना शरीर दिखाया... जगह जगह खून के दाग थे... चमड़ी फटी हुई थी...।' 'तेरे मन में कैसे-कैसे विचार आते हैं?'
'विचार? कभी-कभी मैं भगवान को कहता हूँ : हे भगवान, किसी इन्सान के हाथ मत कटने देना... | मैंने इन हाथों से बुरे काम किये होंगे... इसलिये मेरे हाथ कट गए... भगवान सबका भला करे ।'
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