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यही है जिंदगी
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क्या ऐसा ही कुछ सोचा होगा उस महामंत्री ने? क्या उसके हृदयगिरि में वैराग्य का झरना बहता ही रहा होगा? महामंत्री के पद पर आसीन वह महापुरुष क्या सचमुच विरागी होगा ?
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- हाँ, दुनिया में ऐसी कोई वस्तु नहीं है कि जो विरागी त्याग न सके ! विश्व का साम्राज्य भी वैरागी त्याग सकता है। रूपसुन्दरियों का अन्तःपुर भी त्याग सकता है... अपनी देह का भी उत्सर्ग कर सकता है।
- अंतरात्मा के धरातल पर वैराग्य का झरना निरन्तर बहते रहना चाहिए । योगमार्ग में विरक्त आत्मा ही प्रवेश पा सकती है। वैराग्य सहज होना चाहिए...। वैराग्य का दिखावा नहीं, वैराग्य का अभिनय नहीं ।
वैराग्य का सम्बन्ध हृदय से है, अन्तःकरण से है। हृदय विरक्त होना चाहिए। विरक्त हृदय उदार, विशाल और करुण होता है । विरक्त अन्तःकरण में ही सम्यग्ज्ञान का रत्नदीप जगमगाता है।
बाहर से मनुष्य राजा हो, मंत्री हो, श्रेष्ठि हो या मजदूर हो... भीतर से वह विरागी रह सकता है । विरागी मनुष्य, सुख-दुःख में समत्व रख सकता है।
वैराग्य और समता का घनिष्ठ सम्बन्ध है । विरागी ही सदैव शांति और प्रसन्नता की अनुभूति कर सकता है।
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- विरागी निर्बंधन होता है। उसे कोई बाह्य अभ्यंतर बंधन नहीं होता । द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव के बंधनों से मुक्त होता है वैरागी ।
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- विरागी ही सच्चा श्रद्धावान् होता है, साधु-संन्यासी होता है। जो विरागी नहीं वह श्रद्धावान् नहीं, साधु नहीं, संन्यासी नहीं। जिस व्यक्ति में राग और आसक्ति का विष भरा हो ... वह त्यागी कैसा ? केवल वेशपरिवर्तन से साधुसंन्यासी नहीं बन जाते । उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने सच ही कहा है : ‘त्यागात् कंचुकमात्रस्य भुजंगो न ही निर्विषः ।'
हृदय सदैव अनासक्त बना रहे
यही एक मन:कामना है...
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