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यही है जिंदगी
१४८ वंचित रहता है। दुःख-त्रास और विडंबनाओं से उसका जीवन भर जाता है।
एक प्रश्न मन में उठा : - क्या निर्ग्रन्थता के साथ निर्दभता का कोई सम्बन्ध है?
- क्या दम्भ ग्रन्थि नहीं? जैसे राग ग्रन्थि है, द्वेष ग्रन्थि है, वैसे दम्भ ग्रन्थि नहीं है? -- निर्ग्रन्थ के जीवन में जैसे राग-द्वेष हेय माने गये हैं वैसे दम्भ भी हेय नहीं है? -- 'दम्भ हेय है, त्याज्य है,' इतना कह देने से नहीं चलेगा! जीवन व्यवस्था में दम्भ को स्थान मिला हो और कह दें कि 'दम्भ हेय, दम्भ त्याज्य है, तो प्रश्न का समाधान कैसे होगा?
- गृहस्थ की जीवन व्यवस्था में तो दम्भ नितान्त आवश्यक मान लिगा गया है, परन्तु निर्ग्रन्थ के जीवन में भी दम्भ आवश्यक? क्यों?
- 'दम्भ, मुक्तिरूपी लता को जलाने वाली आग है, दम्भ मोक्षमार्ग में रुकावट करनेवाली अर्गला है, दम्भ जहर है...' ऐसी दम्भ-निन्दा धर्मग्रन्थों में की गई है।
- धर्मग्रन्थों को पढ़नेवाले और सुननेवाले सभी लोग दम्भ-निन्दा को जानते हैं फिर भी 'इतना दम्भ तो करना पड़ता है...' ऐसी बातें करते हैं।
- क्या श्रमण-जीवन में, निर्ग्रन्थता के मार्ग में दम्भ आवश्यक है? हाँ, जब तक श्रमण-साधु सामाजिक बना रहेगा तब तक उसको दम्भ का सहारा लेना पड़ेगा।
-- परन्तु, सामाजिक मान-प्रतिष्ठा के व्यामोह में फँसे हुए बाह्य निर्ग्रन्थ निर्दभ जीवन नहीं जी सकते । सामाजिक कार्यों में रागी-द्वेषी और दम्भी जीवों
के संपर्क, अनिवार्यरूप से होते हैं | 'संसर्गजन्यागुणदोषाः'। ___- निर्दभता के बिना निर्ग्रन्थता नहीं, यह बात निर्ग्रन्थ साधु के हृदय में स्थिर होनी चाहिए। निर्दभ बनने का उसका संकल्प दृढ़ होना चाहिए | ___'मुझे सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं चाहिए, मुझे तो आध्यात्मिक निष्ठा चाहिए' ऐसा आन्तरनाद गूंजता रहे... तो निर्ग्रन्थता की प्राप्ति हो सकती है और आन्तर संतोष की अनुभूति हो सकती है।
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