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यही है जिंदगी
७६. निर्दभ बनने के लिए निरपेक्ष बनना जरूरी 13
महात्मा भर्तृहरि एक गाँव के बाह्य-प्रदेश में पनघट के पास एक वृक्ष की छाया में विश्राम कर रहे थे। पनघट पर दो पनिहारियाँ पानी भर रही थीं। दोनों की निगाहें महात्मा भर्तृहरि की ओर गई। एक पनिहारी ने दूसरी से कहा :
'देख तो उस महात्मा को। इसने राज्य का त्याग कर दिया... संसार की मोहमाया छोड़ दी... परन्तु तकिये के बिना नहीं चलता। हाथ का तकिया बनाकर सोया है।'
ये शब्द भर्तृहरि ने सुन लिये। भर्तृहरि तो सरल स्वभाव के महात्मा थे। पनिहारी की बात सुनकर उन्होंने आत्मनिरीक्षण किया... और तुरंत ही मस्तक के नीचे से हाथ हटा लिया । पनिहारी ने देखा कि भर्तृहरि ने हाथ हटा लिया, उसने दूसरी पनिहारी से कहा : 'अरे, इस महात्मा को मेरी बात से बुरा लगा... देख, उसने हाथ हटा लिया... संसार छोड़ा, परन्तु रीस नहीं छोड़ी।'
भर्तृहरि ने ये शब्द भी सुने । उनको हँसी आ गई : इस दुनिया को कोई खुश नहीं कर सकता। हे आत्मन्, तू अपनी राह पर चलता रहे। ___ - 'दुनिया के लोग क्या कहते हैं? दुनिया के लोग क्या सोचेंगे? दुनिया के लोगों को क्या अच्छा लगता है?' ये विचार क्यों करने चाहिए? इन विचारों में कितना औचित्य है? ___ - जिसको दुनिया से कुछ पाना है, दुनिया को कुछ देना है... वे भले ही इन विचारों में औचित्य देखते हों, परन्तु जिन्होंने दुनिया से नाता तोड़ दिया है, दुनिया से कुछ पाना नहीं है... वे दुनिया के लोगों के विषय में क्यों सोचें? लोग खुश हों या नाराज, महात्माओं को क्या लेना-देना? ___- ये वे लोग हैं कि जिन्होंने सीताजी की प्रशंसा भी की थी और निन्दा भी की थी। सीताजी ने लोगों का कुछ भी नहीं बिगाड़ा था... फिर भी लोगों ने सीताजी के जीवन में हस्तक्षेप किया था। सीताजी के स्वच्छ निर्मल व्यक्तित्व को कलंकित किया था। ___ - 'शिष्ट लोगों का विचार तो करना चाहिए न?' ऐसा मत पूछो। कौन हैं शिष्ट लोग? क्या रामराज्य में कोई शिष्ट पुरुष नहीं था? क्या श्रीराम स्वयं
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