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यही है जिंदगी
१५० है... तब माता को उसके प्रति ध्यान देना पड़ता है... अपने उत्संग में लेना पड़ता है! बच्चे की तपश्चर्या सफल होती है! ___- सत्याग्रह भी एक प्रकार की तपश्चर्या ही होती है न? कष्ट सहन कर, दूसरों की अनुकम्पा प्राप्त करने की एक परम्परा दुनिया में चल पड़ी है।
- क्या ऐसी परम्परा को देखकर योगीश्वर आनंदघनजी ने कहा होगा कि: 'कोई पतिरंजन अति घणुं तप करे, पतिरंजन तन-ताप, ए पतिरंजन में नहीं चित्त धर्यु रंजन धातु-मिलाप...'
- तपश्चर्या से तुम अपने स्नेही को अपने वश करने का प्रयत्न करते हो - यह सही रास्ता नहीं है। तुम उसके आदर्शों को मान कर चलो! वह तुम पर खुश हो जायेगा!
-- परमात्मा को प्रसन्न करना है क्या? महात्माओं की कृपा प्राप्त करनी है क्या? तो उनके उपदेशों का अपने जीवन में पालन करते चलो! वही श्रेष्ठ तपश्चर्या है! उपदेशों का पालन नहीं करना है और कृपा-अनुकम्पा चाहिए? इसलिए घोर तपश्चर्या करते हो? मार्ग गलत है। विचार विकृत हैं।
- एक व्यक्ति के जीवन में कुछ पापाचार हैं। दूसरों की नहीं, परन्तु आसपास वालों को तो उसके प्रति अनादर हो ही जाए, तिरस्कार हो ही जाए, वैसी उसकी प्रवृत्तियाँ हैं। वह व्यक्ति भी समझता है यह बात । उसने तपश्चर्या शुरू कर दी। बस, लोगों को उसके प्रति कुछ अनुकम्पा पैदा हो गई! 'कैसा भी है, परन्तु तपस्वी तो है!' वह भी निर्भय हो गया... कि अब मैं अपनी प्रवृत्ति करता रहूँगा... लोगों को मेरे प्रति तिरस्कार नहीं होगा!' और बात तो वही करता है 'तप करने से कर्मों की निर्जरा होती है!'
-- ऐसी तपश्चर्या से कर्मनिर्जरा नहीं होती है। ऐसी तपश्चर्या से आत्मविशुद्धि नहीं होती है। ऐसी तपश्चर्या से अन्ततृप्ति नहीं होती है! ___ - और तपश्चर्या से दुनिया के रागी-द्वेषी जीवों को खुश करने की मनोवृत्ति तो कितनी अज्ञानमूलक मनोवृत्ति है? __- दुनिया के रागी-द्वेषी और मोही जीव अपने प्रति खुश हो तो क्या, नाखुश हो तो क्या? उनकी खुशी भी क्षणिक और नाखुशी भी क्षणिक! आज खुश, कल नाराज!
- ऐसे लोगों की अनुकम्पा-सहानुभूति भी क्षणिक होती है । क्षणिक सहानुभूति से क्या खुशी?
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