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यही है जिंदगी
७०. याद करो... फरियाद मत करो
ब्रिटन की प्रसिद्ध नर्तकी 'एलिजाबेथ ट्विस्टिंग्टन हिंगिस' २५ वर्ष की उम्र में पोलियो की शिकार हो गई, जब कि वह प्रसिद्धि के शिखर पर थी। उसको पूछा गया : ‘क्या आपको भाग्य के सामने कोई शिकायत है ?' उसने कहा : ‘ईश्वर को धन्यवाद ! मुझे कोई शिकायत नहीं है, मुझे जीवन में बहुतकुछ मिला है।'
जिस युग में शिकायत जीवन का पर्याय बन गई है, ऐसे समय बिना फरियाद के प्रसन्नतामय जीवन जीना सरल तो नहीं लगता । परन्तु एक नर्तकी यदि ऐसा जीवन जी सकती है तो, फिर एक सद्गृहस्थ, एक श्रमण तो वैसा जीवन जरूर जी सकता है... परन्तु वैसा जीवन कहाँ देखने को मिलता है ?
यह नर्तकी तो भाग्य को भी नहीं कोसती है ! ईश्वर को भी उपालंभ नहीं देती है ! मनुष्य के सामने फरियाद की तो बात ही नहीं !
एक जगह पढ़ा था कि 'किसी भी जीवात्मा का दोष देखना और उसको कोसना अनार्यता है ।'
उसी संदर्भ में पढ़ा था कि 'जो आर्य होता है वह अपने ही कर्मों के दोष देखता है।'
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परन्तु मेरा प्रश्न तो यह है कि जो व्यक्ति कर्मों का - भाग्य का भी दोष नहीं देखता है, उसको क्या कहेंगे? वह तो आर्य से भी आगे बढ़ गया!
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मनुष्य जब तक यह सोचता रहता है कि 'मुझे यह नहीं मिला है और मेरा वह चला गया,' तब तक वह अशांत बना रहेगा और अशांत मनुष्य शिकायत करता ही रहेगा। अशांति के रणप्रदेश में शिकायतों की धूल उड़ती ही रहेगी । मेरा दुर्भाग्य है कि मैं श्रीमन्त नहीं बना।
मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे अच्छी पत्नी नहीं मिली ।
मेरा दुर्भाग्य है कि मैं निःसंतान हूँ ।
मेरा दुर्भाग्य है कि मेरी प्रतिष्ठा नहीं बन पाती ।
मेरा दुर्भाग्य है कि मेरा स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता ।
मेरा दुर्भाग्य है कि घर में मेरा कहा कोई मानता नहीं ।
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