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यही है जिंदगी
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६९. झगड़ा देखने का
गंगा जैसी नदी थी।
नदी का पट विशाल था । एक किनारे से दूसरे किनारे पर पहुँचने के लिए नदी में नावें चलती थीं।
गौरांग धनी परिवार का लड़का था, उसकी अपनी नाव थी। अपनी नाव में बैठकर वह दूसरे किनारे जा रहा था। सामने से एक नैया आयी और गौरांग की नाव से टकरा गई। गौरांग आगबबूला हो गया । वह अपनी नाव में खड़ा हो गया
और उस नाव में देखने लगा - परन्तु वह नाव खाली थी! उसमें कोई व्यक्ति नहीं था। गौरांग का गुस्सा शान्त हो गया। वह बैठ गया और नाव आगे बढ़ी।
किनारा नजदीक था और एक दूसरी नाव गौरांग की नाव से टकरा गई। गौरांग खड़ा हो गया - रोष और क्रोध से वह कांपने लगा। उसने उस नाव में एक व्यक्ति को देखा और उसके साथ लड़ने को तैयार हो गया। यह है मनुष्य का प्राकृत स्वभाव! __नाव टकराने की घटना दोनों समान थी। एक घटना में क्रोध शान्त हो गया, दूसरी घटना में क्रोध धधक उठा।
क्रोध से बचने का उपाय इसी घटना में से मिल गया । ज्ञानदृष्टि से देखें तो हमें दुःख पहुँचाने वाला कोई जीव है ही नहीं! कोई चेतन द्रव्य हमें दुःखी नहीं करता है। हमें दुःख पहुँचाते हैं, जड़ कर्म! नाव जैसे जड़ होती है वैसे 'कर्म' भी जड़ हैं। जैसे नाव पर गुस्सा नहीं किया जाता वैसे कर्म पर भी गुस्सा करने का अर्थ नहीं होता । 'अपने ही कर्मों से मैं दुःखी हो रहा हूँ।' यह है ज्ञानदृष्टि।
एक दूसरा दृश्य : गौरांग अपने घर पर आया। नौकर दूध का प्याला लेकर आया। गौरांग ने दूध पी लिया। नौकर खाली प्याला लेकर जा रहा था... ठोकर लगी, प्याला हाथ में से गिर गया। प्याला काँच का था, फूट गया। गौरांग का क्रोध नौकर पर बरस पड़ा। __ शाम का समय था, गौरांग का तीन साल का छोटा मुन्ना खेल रहा था। बच्चे ने काँच का ग्लास उठाया और जमीन पर पटक दिया... प्याला टूट गया...| गौरांग दौड़ता आया और मुन्ने को उठा लिया, देखता है कि उसके शरीर पर चोट तो नहीं आयी!
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