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यही है जिंदगी
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६०. 'अहं' का वहम छोड़ें
'अहं' को लेकर ही सारी द्विधाएँ उत्पन्न होती रहती हैं! 'अहं' के कितने सारे रूप हैं! ‘मैं बलवान, मैं बुद्धिमान, मैं कुलवान, मैं विद्वान, मैं धनवान...' इन कल्पनाओं को, धारणाओं को सुरक्षित रखता हुआ मैं जीवनयात्रा कर रहा हूँ । यात्रा कितनी दुःखपूर्ण, तनावपूर्ण और अशांतिमय हो गई है! क्लेश..... विवाद... झगड़े और विसंवादों में कैसा उलझ गया हूँ ?
जीवनयात्रा को सुखपूर्ण और शांतिपूर्ण बनाने के लिये मैंने त्याग किया, तप किया, दान दिया और शील का पालन किया, परन्तु फिर भी आन्तर सुख, आन्तर शांति नहीं मिली । कैसे मिल सकती है? हृदय में 'अहं' की कल्पनाएँ सुरक्षित हैं! हाँ, जब उन अहंजन्य कल्पनाओं को पुष्टि मिलती है, कल्पनाएँ साकार बनती हैं... तब आनंद होता है, परन्तु वह आनंद क्षणजीवी होता है, अल्पकालीन होता है । जब 'अहं' को ठेस लगती है, 'अहं' पर आक्रमण होता है तब दुःख और अशांति से तड़पने लगता हूँ।
सुख और दुःख की कल्पनाओं से मन को मुक्त करना चाहता हूँ ! इसलिये 'अहं' की कल्पना से मुक्त होना चाहता हूँ ।
नाऽहं! नाऽहं! नाऽहं !
मैं नहीं हूँ... मैं नहीं हूँ... मैं नहीं हूँ !
मैं अपने अस्तित्व को ही भूल जाना चाहता हूँ । अस्तित्व के साथ व्यक्तित्व का व्यामोह मेरे मन को घेर लेता है। उच्चतम व्यक्तित्व की कामना मन में उभर आती है। व्यक्तित्व की वासना ज्यों-ज्यों प्रबल बनती जाती है त्यों-त्यों अशांति और अस्थिरता भी प्रबल बनती जाती है। इसलिये 'अहं' को ही मिटाना होगा। किसी भी प्रकार से 'अहं' की वासना से मुक्ति पानी होगी ।
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मुझे कुछ क्षणों का ऐसा अनुभव भी है कि अहं की विस्मृति में कैसा आनंद मिलता है! कैसी अवर्णनीय अन्तःप्रसन्नता की अनुभूति होती है। हालाँकि वह अनुभूति कुछ क्षणों की ही थी। फिर भी न भूल सकूँ वैसी अनुभूति थी । इसलिये चाहता हूँ कि वैसी अनुभूति का समय बढ़े ! जीवनपर्यंत वैसी ही अनुभूति करता रहूँ! मेरे 'अहं' की विस्मृति शीघ्र ही हो... इसके लिये मुझे एक उपाय भी मिल गया है ! वह उपाय है परमात्मा की प्रेमपूर्ण स्मृति !