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यही है जिंदगी
१२९ ___ महर्षि पिप्पलाद ने अपनी माता सुवर्मा से सुना कि उसके पिता महर्षि दधीचि ने, देवराज इन्द्र और अन्य देवताओं की प्रार्थना स्वीकार कर, अपने देह का त्याग कर दिया था! दधीचि की अस्थियों को लेकर विश्वकर्मा ने वज्र बनाया और उस वज्र से इन्द्र ने असुरों का संहार किया एवं स्वर्ग पर अपना अधिकार पुनः प्राप्त कर लिया। यह वृत्तांत जानकर महर्षि पिप्पलाद का मन देवों के प्रति घृणा से भर गया। उन्होंने संकल्प किया कि तप के द्वारा भगवान आशुतोष को प्रसन्न कर मैं उनसे देवताओं
को नष्ट करने का वरदान माँगूंगा। __पिप्पलाद ने गोमती नदी के तट पर तपश्चर्या आरम्भ कर दी। तपश्चर्या से महर्षि का शरीर तृण जैसा कृश हो गया। भगवान आशुतोष प्रसन्न हुए, प्रकट हुए और बोले : 'वत्स! तुम्हारी तपश्चर्या से मैं प्रसन्न हुआ हूँ, वर माँगो!'
पिप्पलाद ने कहा : 'यदि आप मुझ पर प्रसन्न हुए हैं तो अपना रुद्र स्वरूप धारण कर, समस्त देवगणों को नष्ट कर डालिए।'
भगवान ने कहा : 'वत्स, मेरा रुद्र स्वरूप केवल देवताओं को ही भस्म नहीं करेगा, उससे सारा जगत नष्ट हो जायेगा। तुम पुनः सोचो।'
पिप्पलाद ने भगवान के रुद्र स्वरूप के दर्शन किये, पिप्पलाद ने अनुभव किया कि व्यापक विनाश का आह्वान करते ही उनका स्वयं का रोम-रोम जला जा रहा है! उनको लगा कि कुछ ही क्षणों में वे चेतनाहीन हो जायेंगे...।
पिप्पलाद ने आर्तनाद किया और आँखें खोल दीं। भगवान का सौम्य स्वरूप उनके सामने आया...| पिप्पलाद ने पूछा : 'यह क्या भगवन्, यहाँ तो मैं स्वयं ही दग्ध हो रहा हूँ...।' भगवान ने कहा : 'वत्स, सारा संसार नष्ट होगा तो तुम कैसे बच सकोगे? बेटा, इसे समझो, किसी का भी अमंगल चाहने पर स्वयं पहले अपना अमंगल होता है।'
बस, पिप्पलाद की अंतर्यात्रा प्रारम्भ हो गई। पिता के प्रतिबिंब को लेकर उनके मन में रोष... घृणा और वैराग्नि प्रदीप्त हुई थी, बिंब का अनुभव होते ही, महर्षि दधीचि की शाश्वत आत्मा का बोध होते ही, वह वैराग्नि शान्त हो गई। कषाय का दावानल बुझ गया। विनाश की कल्पना विनष्ट हो गई, विश्वमंगल की शुभकामना प्रकट हुई।
विशुद्ध आत्मस्वरूप की अनुभूति के लिये उन्होंने तपश्चर्या और ध्यान का मार्ग लिया। प्रतिबिम्बों के मोह को जलाया तपश्चर्या से और आत्मानुभूति का आनंद पाया ध्यान से। बिम्ब की उपेक्षा न हो, प्रतिबिम्बों का व्यामोह न हो!
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