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यही है जिंदगी
१३२ है। जिस चरमबिन्दु पर पहुँचना है वहाँ तक अभी नहीं पहुंच पाया हूँ, फिर भी धीरता अक्षत है, अभय अखंड है और उत्साह प्रवाहित है। जिस चरमबिन्दु पर पहुँचना है, वहाँ पहुँचने के बाद 'पाना और छोड़ना...' वाला खेल समाप्त हो जायेगा। कोई इच्छा शेष नहीं रहेगी।
हाँ, उस चरमबिन्दु तक पहुँचने की भी तीव्र इच्छा नहीं करता हूँ। उस दिशा में मेरी सहज गति होती रहे!
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