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यही है जिंदगी
१२५ एक बात का अब निर्णय हो ही गया है... हृदय में वैराग्य का झरना बहता ही रहना चाहिए। विरक्ति का शुभतम भाव अखंड रहना चाहिए। __केवल साधुजीवन में ही नहीं, गृहस्थ जीवन में भी वैराग्यभाव उतना ही उपयोगी और उपकारक सिद्ध होता है। जब तक द्वन्द्वों में जीना है, विसंवादों में जीना है... तब तक वैराग्यभाव सिर्फ आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य रूप से होना चाहिए।
भीतर को राग से अलिप्त रखना ही तो वैराग्य है। भीतर को द्वेष से निर्लेप रखना ही तो विरक्ति है।
बाहर की दुनिया में तो राग-द्वेष होने वाले ही हैं। भीतर तक वे नहीं पहुँचने चाहिए। भीतर को छूने नहीं चाहिए। हृदय 'राग-प्रूफ' बन जाना चाहिए। हालाँकि, बाह्य जीवन और आन्तर जीवन में भेद तो आ ही गया है। आना भी चाहिए था! बाह्य दुनिया जिस प्रकार के व्यवहारों की अपेक्षा रखती है, भीतर में उन व्यवहारों का कोई भी महत्त्व नहीं है। भीतर में जो बातें सोचसमझ कर रखने की, उन बातों का बाह्य दुनिया में कोई मूल्यांकन नहीं है, कोई महत्त्व नहीं है। ___ भीतर की... वैराग्य-प्लावित बातें, इस दुनिया को कहने लायक भी तो नहीं है! मुझे भी नहीं कहना है! कहना तो केवल इतना ही है कि भीतर की शांति, आन्तर-प्रसन्नता और आत्मानन्द का अनुभव करते रहने के लिये वैराग्य-भाव ही एक सही मार्ग है।
सही रास्ता, सरल न भी हो, विकट हो सकता है... परन्तु उस रास्ते पर चलने में एक प्रकार का मजा है! कांटों पर चलने में वैसा मजा कभी अनुभव किया है! वह भी एक मजा है! तभी तो भगवान उमास्वातीजी ने 'प्रशमरति' में कहा है :
'दृढ़तामुपैति वैराग्य भावना, येन येन भावेन।
तस्मिन् तस्मिन् कार्य कायमनोवाग्भिरभ्यासः ।।' मन-वचन और काया से वैसा प्रयत्न करो कि वैराग्य भावना बलवती बन जाए! वैराग्य का स्रोत तब तक बहता चले... जब तक वीतरागता के सागर में न मिल जाए!
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