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यही है जिंदगी
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१. खुदा को खुद ही रूबरू देखना है।
उसने खूब आत्मीयता से कहा : आपको शिष्य-साथी बढ़ाने चाहिए, ज्यादा शिष्य होने पर आपका प्रभाव बढ़ेगा... जब आपके पास ऐसे लोग आते हैं... तो आपको इन्कार नहीं करना चाहिए...। ___ मैं जानता हूँ कि उसका मेरे प्रति स्नेह है, सद्भाव है, इसलिये वह मेरी उन्नति में ही प्रसन्न रहता है, मेरी कीर्ति बढ़े, यश बढ़े... तो वह हर्ष से पुलकित हो जाता है। मैंने उसकी सद्भावना को ठेस न लगे, उसका ख्याल करते हुए कहा :
तेरा यह खयाल सामाजिक दृष्टि से सही है। समाज में यह खयाल व्यापक है कि जिस गुरु के ज्यादा शिष्य, वे गुरु बड़े! जिस गुरु के ज्यादा अनुयायी, वे गुरु महान! परन्तु, तुझे केवल सामाजिक दृष्टि से नहीं सोचना चाहिए, आध्यात्मिक दृष्टि से भी थोड़ा सोचना चाहिए। आध्यात्मिक दृष्टि से तू सोचेगा तो तुझे सामाजिक खयाल गलत लगेंगे। ___ पर द्रव्यों से, पर द्रव्यों के संयोग से प्राप्त पूर्णता वास्तव में पूर्णता नहीं होती है, वह पूर्णता अपूर्णता की ओर ले जाने वाली एक भ्रमणा ही होती है। मेरे अधिक शिष्य होंगे तो संघ-समाज में मैं ज्यादा सम्मान्य बनूँगा! मेरा प्रभाव बढ़ेगा...। यह विचार कितना भयावह है?
उसने कहा : ऐसे विचार तो नहीं होने चाहिए, परन्तु 'मैं अधिक से अधिक मनुष्यों का मोक्षमार्ग में सहायक बनूँ, उनके आत्मविकास में सहयोगी, आलंबन बनूँ...' ऐसे विचार से तो शिष्य बनाये जा सकते हैं न? ____ मैंने कहा : 'किसको मोक्षमार्ग पर चलना है? किसको मोक्षमार्ग पर चलने के लिये मार्गदर्शन चाहिए? किसको आत्मविकास करना है? कहाँ है श्रद्धा? कहाँ है शरणागति और कहाँ है समर्पण? शिष्य वह मनुष्य ही बन सकता है कि जिसमें गुरु के प्रति अपूर्व श्रद्धा हो! संपूर्ण शरणागति हो और निष्काम समर्पणभाव हो। क्या ये बातें आज के स्वार्थी, सुखशील और दंभी मनुष्य में संभव है? त्याग और वैराग्य की बातें बड़ी लुभावनी हैं। हाँ, स्वार्थी मनुष्य त्याग और वैराग्य का दिखावा कर सकता है... वह ही दंभ है।
दुःखों से पीड़ित होकर जो साधु बनते हैं, वे साधु बनकर भौतिकशारीरिक सुख खोजते रहते हैं और जो सुखों का त्याग करके साधु बनते हैं,
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